एकांकी
गान्धारी कथासार
इस नाटक महाभारत के यु के बाद का घटना-वृत है।
पांराज युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर का कार्य-भार अपने कंधों पर मे लिया
हे। तक तराई और गान्धारी जिलापुर के में भोक भर मानि से गरे अपने जीवन के दिन काडर हैं । महाराज युधिष्ठिर उनके बंधु तथा द्रौपदी सब उनके शो की कम करने का भमक प्रवत्न करते हैं । राजमाता कुंती भी उन दोनों की दिन-रात सेवा करनी है।
इतनी सारी सुख-सुविधाजो और परिजनों की सेवा पाकर भी धृतराष्ट्र
और गान्धारी का दुख कम नही होता। अंतता राजमहल को छोड़कर
बन में जाने का दूत निश्चय कर लेते। नी भी उनके युख- संतोप को
अपना सुबमानकर उनके साथ भरण्यवास करने को तैयार हो जाती है। महाराज युधिष्ठिर की सहमति से तीनों बन चले जाते हैं और यहाँ के प्राकृतिक वातावरण में आधार बनाकर अपने जीवन के ऐेप दिन बिताने लगते हैं। भीम, जिसके मन का आनेश युद्ध समास हो जाने पर भी थमा नहीं था और जो संघर्ष के भय से अंकित रहा करता था, द्रोपदी के समझाने पर माता गान्धारी की रोवा करके उन्हें प्रसन्न करना चाहता है। धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों और द्रौपदी को साथ लेकर धृतराष्ट्र, गान्धारी और बुती के दर्शनार्थ बन में जाते हैं और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
समय बीतता जाता है। अरण्यवास से धृतराष्ट्र और गान्धारी के
जीवन में सुख-शांति पर करती जाती है। एक दिन अकस्मात आग लग जाती है और समूचा वन दावानल की चपेट में आ जाता है संजय
दीवान की सूचना देकर उन्हें सता करता है और आश्रम को छोड़ देने
का आग्रह करता है। परन्तु धृतराष्ट्र उसके आग्रह को स्वीकार नहीं
करते। उन्हें आश्रम की ओर बढ़ती हुई वनाग्नि की लपटों में परम शांति और शीतलता का अनुभव होता है। उनकी आज्ञा पाकर संजय हस्तिनापुर लौट जाते हैं। दावाग्नि की लहरों में स्नान करके धृतराष्ट्र, गान्धारी और कुंती की आत्माएँ अलौकिक आभा से चमक उठती हैं।
इस नाटक में गान्धारी और धृतराष्ट्र के चरित्र की उज्चला को
दर्शाया गया है। गान्धारी की एकनिष्ठ पति भक्ति, सुयोधन के प्रति उसकी ममता, पाण्डवों के प्रति उसका निश्छल स्नेह, उसके हृदय की विशालता उसकी सेवा-भावना आदि सभी विशेषताएँ नाटक में प्रभावकारी ढंग से चित्रित हुई हैं। गान्धारी के साथ-साथ विनम्र सेवाभाविनी कुंती के चरित्र का भव्य रूपांकन भी द्रष्टव्य है।
धन्यवाद!!!
गान्धारी कथासार
इस नाटक महाभारत के यु के बाद का घटना-वृत है।
पांराज युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर का कार्य-भार अपने कंधों पर मे लिया
हे। तक तराई और गान्धारी जिलापुर के में भोक भर मानि से गरे अपने जीवन के दिन काडर हैं । महाराज युधिष्ठिर उनके बंधु तथा द्रौपदी सब उनके शो की कम करने का भमक प्रवत्न करते हैं । राजमाता कुंती भी उन दोनों की दिन-रात सेवा करनी है।
इतनी सारी सुख-सुविधाजो और परिजनों की सेवा पाकर भी धृतराष्ट्र
और गान्धारी का दुख कम नही होता। अंतता राजमहल को छोड़कर
बन में जाने का दूत निश्चय कर लेते। नी भी उनके युख- संतोप को
अपना सुबमानकर उनके साथ भरण्यवास करने को तैयार हो जाती है। महाराज युधिष्ठिर की सहमति से तीनों बन चले जाते हैं और यहाँ के प्राकृतिक वातावरण में आधार बनाकर अपने जीवन के ऐेप दिन बिताने लगते हैं। भीम, जिसके मन का आनेश युद्ध समास हो जाने पर भी थमा नहीं था और जो संघर्ष के भय से अंकित रहा करता था, द्रोपदी के समझाने पर माता गान्धारी की रोवा करके उन्हें प्रसन्न करना चाहता है। धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों और द्रौपदी को साथ लेकर धृतराष्ट्र, गान्धारी और बुती के दर्शनार्थ बन में जाते हैं और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
समय बीतता जाता है। अरण्यवास से धृतराष्ट्र और गान्धारी के
जीवन में सुख-शांति पर करती जाती है। एक दिन अकस्मात आग लग जाती है और समूचा वन दावानल की चपेट में आ जाता है संजय
दीवान की सूचना देकर उन्हें सता करता है और आश्रम को छोड़ देने
का आग्रह करता है। परन्तु धृतराष्ट्र उसके आग्रह को स्वीकार नहीं
करते। उन्हें आश्रम की ओर बढ़ती हुई वनाग्नि की लपटों में परम शांति और शीतलता का अनुभव होता है। उनकी आज्ञा पाकर संजय हस्तिनापुर लौट जाते हैं। दावाग्नि की लहरों में स्नान करके धृतराष्ट्र, गान्धारी और कुंती की आत्माएँ अलौकिक आभा से चमक उठती हैं।
इस नाटक में गान्धारी और धृतराष्ट्र के चरित्र की उज्चला को
दर्शाया गया है। गान्धारी की एकनिष्ठ पति भक्ति, सुयोधन के प्रति उसकी ममता, पाण्डवों के प्रति उसका निश्छल स्नेह, उसके हृदय की विशालता उसकी सेवा-भावना आदि सभी विशेषताएँ नाटक में प्रभावकारी ढंग से चित्रित हुई हैं। गान्धारी के साथ-साथ विनम्र सेवाभाविनी कुंती के चरित्र का भव्य रूपांकन भी द्रष्टव्य है।
धन्यवाद!!!
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