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Sunday, February 14, 2021

साहित्यिक अनुवाद -3 /उपन्यास और कहानी का अनुवाद

 

                                  साहित्यिक अनुवाद -3 

                         उपन्यास और कहानी का अनुवाद

          कविता के समान और विशेषरूप से छायावादी रहस्यवादी, प्रयोगवादी और ध्वनिप्रधान कविता के समान उपन्यास और कहानी का अनुवाद उतना कठिन एवं समस्याग्रस्त नहीं है। उपन्यास और कहानी गद्यात्मकता तथा वर्णन, विवरण के साथ अनेक प्रकार के विश्लेषणों से भरे रहते हैं। उनमें प्रेम सम्बन्ध, हत्या और अपराधों के स्तरपर समस्याएं खड़ी होती हैं। उपन्यास और कहानी के स्वरूप को संक्षेप में जानकर इस दिशा में, आगे बढ़ना आसान होगा।

       उपन्यास के प्राणभूत तत्व हैं- कथा, जनजीवन एवं उद्देश्य । प्रेम, वास्तविकता और सजीचमानव (चैतन्यमय मानव) संघर्षरत मानव को भी उपन्यास में सर्वथा नयी एवं सप्राण व्याख्या मिली है। इन मूलतत्वों की विशिष्टता से अवगत हुए बिना उपन्यास को नहीं समझा जा सकता। उपन्यास में कथा आवश्यक है और चरित्र भी। क्रियाशीलता और भावमयता उपन्यास का सर्वस्व है। वास्तव में कथा में जीवन की आन्तरिक वृत्तियों का विश्लेषण ही महत्वपूर्ण है। मानव की स्थूल वृत्ति, त्वरा, लालसा और हार-जीत मान का वर्णन कथा का शंव है। कहानी में तो कथा या घटना मानव चरित्र से जुड़कर ही किसी व्यक्तित्व को धारण करती है। घटना और उद्देश्य ये दो ही कहानी के प्राणभूत तत्व हैं। शेष तत्व तो परोक्षरूप से जुड़े रहते हैं। कहानी को द्रुतगति से लक्ष्य की ओर अग्रसर होना होता है, अन्यथा वह नीरस होगी।

       अतः स्पष्ट है कि कहानी में उपन्यास की अपेक्षा भाव संक्षेपण, व्यंजना और तीव्रता अधिक होती है अतः उसका अनुवाद कठिन हो सकता है।

   उपन्यास और कहानी में अन्तर :

    उपन्यास                                      कहानी

    1. विशाल कथा                          1. एक स्फूर्त घटना

    2. चरित्रों की भीड़                       2. दो-तीन चरित्र मात्र 

    3. व्यास शैली                             3. समास शैली

    4. वर्णन, विवरण बहुलता              4.अत्यल्प वर्णन

    5. उपकथा, अन्तर्कथा, दृश्य-वर्णन   5. द्रुत लक्ष्यगामिता, सांकेतिकता

        वातावरण आदि

    6. उपन्यास एक पैसेन्जर गाड़ी है     6. कहानी एक वायुयान है।ஓ

    7. उपन्यास असीम                        7. कहानी ससीम

     जहाँ तक उपन्यास और कहानी के अनुवादक की योग्यता का प्रश्न है, उसमें अनुवाद-विधा की स्तरीय जानकारी-अनुवाद्य विषय का अच्छा ज्ञान और रुचि तथा लक्ष्यमाषा का पूर्ण ज्ञान और अनुभव आवश्यक है । मातृ भाषा लक्ष्य भाषा हो तो श्रेयस्कर होगा-अनुवाद सहज एवं सप्राण होगा। साहित्यक अनुवाद में यह सिद्धान्त सत्य मानना हितकारी है। स्त्रोत भाषा की भी स्तरीय क्षमता होनी चाहिए।

      अब हम कतिपय उपन्यासों और कहानियों के नमूने रखकर अनुवाद की सुगमता और कठिनता को समझने का यत्न करेंगे। हिन्दी उपन्यासों को मोटे रूप में प्रेमचन्दपूर्व, प्रेमचन्द कालीन एवं प्रेमचन्दोत्तर कालीन - इन तीन काल खंडों में रखा जा सकता है। आरम्भ में तिलस्म, ऐय्यारी और जासूसी पूर्ण उपन्यासों का दौर चला तो प्रेमचन्द युग में सामाजिक यथार्थ और राष्ट्रीय चेतना मनोविज्ञान और यौन लालसाओं का प्रवाह उमड़ा। नमूने के रूप में हम उक्त तीनों काल खण्डों से कुछ उदाहरण लेकर अनुवाद की दृष्टि से उन्हें देखेंगे, 'परीक्षा गुरू' 1882, आदर्श दम्पति, नए बाबू, 'डबल बीबी' 'जनुकान्ता' 'लवंगलता' आदि उपन्यास वर्णन और विवरण मूलक भाषा का प्रयोग हुआ है। अतः इनके अनुवाद में कठिनाई नहीं होनी चाहिए। हाँ, जहाँ रहस्य-रोमांच है, वहाँ कुछ समस्या उठ सकती है। बस ध्यान यह रहे कि अनुवाद न भावार्थपरक या सूत्रात्मक हो और न भाष्यात्मक। बस अर्थ, भाव मूल जैसे ही हों, केवल भाषान्तरण हो ।

    प्रेमचन्दयुग वस्तुतः 'गोदान' (1936) से 1960 के आसपास तक किसी न किसी प्रकार चलता रहा। यहाँ हम 'गोदान' 'झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई' 'रंगभूमि' और 'दिव्या' उपन्यासों' को नमूने के रूप में देखें

     रंगभूमि' से सूर का कथन

      "तुम जीते, मैं हारा, यह बाज़ी तुम्हारे हाथ रही। मुझसे खेलते नहीं बना। तुम मंजे हुए खिलाड़ी हो। दम नहीं उखड़ता। खिलाड़ियो मिलाकर खेलते हो और तुम्हारा उत्साह भी लूच है। हमारा दम उखड़ जाता है, हाँफने लगते हैं और खिलाड़ियों को मिलाकर भी तहीं खेलते। आपस में झगड़ते हैं गाली गलौज मारपीट करते हैं। कोई किसी की नहीं मानता। - फिर खेलेंगे, जरा दम लेने दो। एक न एक दिन हमारी जीत होगी।"

        इस गद्यांश में जो ग्रामीण सहजता में निजी दुर्बलता, व्यनहारहीनता और अपराजेयता व्यंजित है, वह ध्याता है; केवल सामान्य अर्थ नहीं। इस भीतरी स्थिति का अनुवाद कैसे होगा? हाँ, ग्रामीण वातावरण से सब परिचित व्यक्ति से यह संभव है।

      "झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई" से ---

      "महल की चौखट पर बैठकर वह रोई, लक्ष्मीबाई रोई। वह जिसकी आँखा ने आँसुओं से कभी परिचय भी न किया था। वह जिसका वक्षस्थल बज़ का और हाथ पैर फौलाद के थे। वह जिसके कोश में निराशा का शब्द न था। वह जो भारतीय नारीत्व का गौरव और शान थी। यानी उस दिन हिन्दुओं की दुर्गा रोई।"

      ये पंक्तियाँ उपन्यास की महाप्राण पंक्तियाँ हैं। इनका व्यावहारिक - कामचलाड अनुवाद तो हो ही सकता है, परन्तु मूल लेखक की व्यक्तित्वमयी भाषा-शैली और आधी व्यंजना तो अनुवाद की सीमा में अटेंगी नहीं, वह तो अननुकरणीय ही रहेगा।

     फिर भी नारी की सूक्ष्म भावनाओं को समझनेवाले इरका अनुवाद जरूर बखूबी कर सकता है।

      यशपाल-कृत "दिव्या" से उद्धृत नारी जीवन की नारकीय विवशता की विस्फोटक इन पंक्तियों का अनुवाद तो हो सकता है-पर स्थूल अर्थमूलक ही :-

     "आचार्य, कुलबधू का आसन, कुलमाता का आसन, कुलदेवा का आसन दुर्लभ सम्मान है; परन्तु आचार्य, कुलमाता और कुलमहादेवी निराहत वेश्या की भाँति स्वतन्त्र और आत्मनिर्भर नहीं हैं। यह सम्मान पुरुष को प्रश्रय मात्र है। वह नाही का सम्मान नहीं, उसे भोगने वाले पराक्रमी पुरुष का सम्मान है। आर्य, अपने स्वत्व का त्याग करके ही नारी यह सम्मान प्राप्त कर सकती है।"

      यहाँ "एक नहीं दो-दो मात्राएँ नर से भारी नारी" वाली बात प्रकट हुई। इसे समझकर अनुवाद करें तो वह सफल होगा। 

    "बूँद और समुद्र" अमृतलाल नागर के मन की तपन का अनुपम विश्लेषण है। सम्पूर्ण मानवता के ऐक्य की झलक है। ये पंक्तियाँ मनुष्य का आत्मविश्वास जागना चाहिए। दूसरे के सुख-दुख को अपना समझना चाहिए, जैसे बूंद से बूँद जुड़ी रहती है - लहरों से लहरें। लहरों से समुद्र बनता है " इस तरह बूंद में समुद्र समाया है।

     इसी प्रकार अपराध मनोविज्ञान, आदर्श मनोविज्ञान और रतिमूलक मनोविज्ञान के उपन्यासों का अनुवाद अपेक्षाकृत रूप से अधिक कठिन होगा। "सन्यासी", "सुनीता", "परख", और "शेखर एक जीवनी" इसी प्रकार उपन्यास हैं। "नदी के दीप", "वेदिन", और "दूसरी बार" आदि भी-ऐसे मन जटिलता से बुने हुए उपन्यास है। इनका अनुवाद निरापद नहीं होगा। इनमें प्रायः कहा कम गया है और व्यंजित अधिक किया गया है। सैकड़ों उदाहरण हैं - 

      जहाँ तक कहानी प्रश्न है, उसके भाषान्तरण होगा। कहानी में तो गागर में सागर भरना होता है। कहानी में संक्षिप्तता और विस्तार, यथार्थ और आदर्श तथा स्पष्टता और संश्लिष्टता का एक साथ निर्वाह होता है । तीव्र गति उसका प्रमुख गुण है। पाठक को बाँध रखना भी।

       आज की कहानी में कथा नहीं सोद्देश्यता, उत्सुकता नहीं सहजता, घटना नहीं चरित्र, नाटकीय अन्त नहीं-अधूरा और सहज अन्त, भावुकता नहीं जीवन की और मनोरंजन नहीं मनोभंजन (जागारण) प्रधान है। बहुमुखी मोहभंग उसकी कसौटी है।

      हिन्दी में गुलेरी की - 'उसने कहा था', प्रेमचंद की 'पूस की रात', 'कफन', ईदगाह' और 'शतरंज के खिलाड़ी' रांगेय राघव की गदल, भीष्म साहनी की 'चीफ की दावत', अमरकान्त की 'जिन्दगी और जोंक', प्रसाद की 'मधुआ', कौशिक की 'ताई' जैनन्द्रकुमार की-'एक गौ', अज्ञेय की 'शरणदाता', मोहन राकेश की-'आद्दार', उषा प्रियम्वदा की- 'वापसी', और विष्णु प्रभाकर की - 'आपरेशन' कहानियाँ जीवन के स्थायी सत्य के साथ सामयिक बदलाव भी अपने में संजोए हुए हैं। इनका सफल अनुवाद भारतीय जीवन में भावात्मक एकता का संचार अवश्य ही करेगा। ये कहानियाँ बहुत उच्च स्तर की हैं। 

     अनुबाद को ध्यान में रखाकर कुछ नमूने उद्धृत -

    कहानी-'उसने कहा था -"तेरी कुडमाई हो गई? घाट कल हो गई, देखते नहीं रेशमी बूटों वाला सालू ।"

    कहानी ईदगाह - "बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआएं देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता ?

    कहानी- ताई - "रामेश्वरी चीख मारकर छने पर गिर पड़ी।"

    कहानी- "शरण दाता" "उन्होंने चिट्ठी भी एक छोटी सी गोली बनाकर चुटकी से उड़ा दी।"

    कहानी-"वापसी" अरे नरेन्द्र, बाबू जी की चारपाई कमरे से निकाल दे। उसमें चलने तक को जगह नहीं है।"

     उक्त सभी उद्धरणों में सम्पूर्ण कहानी का निचोड़ व्यंजित है। एक अत्यन्त योग्य अनुवादक ही इनके अनुवाद में सफल हो सकता है। आज अनुवाद विधा को और अधिक सहज तथा वैज्ञानिक बनाने की ज़रूरत है। राष्ट्रभाषा पर भी समुचित ध्यान देना होगा। साहित्य अकाडमी ने इस वर्ष जो अनुवाद-पुरस्कार दिये हैं वे सभी-अनुवाद अनुवादक की मातृभाषा में अनुदित हुए हैं यह उनकी सफलता का एक बड़ा कारण है

    उपन्यास और कहानी के समान गद्य की अनेक नवीन विधाएं-डायरी लेखन, रिपोर्ताज, संस्मरण, रेखाचित्र, इन्टरव्यू आदि भी बहुत महत्वपूर्ण हैं इनके अनुवाद की भी व्यवस्था होना अत्यावश्यक है। यह युग आदान-प्रदान का है और यह अनुवाद द्वारा ही संभव है।



साहित्यिक अनुवाद -2/कविता का अनुवाद - समस्याएं और समाधान

 

                        साहित्यिक अनुवाद -2

कविता का अनुवाद - समस्याएं और समाधान

रूपरेखा :-

 सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि

1. कविता की परिभाषा 

2. कविता के तत्व और प्रकार।

3. अनुवाद की परिभाषा और सीमा।

4. अनुवादक की पात्रता।

प्रयोग

1. नीति उपदेशपरक कविता का अनुवाद ।

2. अर्थपरक कविता का अनुवाद।

3. मुक्तक का अनुवाद।

4. प्रबन्धक काव्य का अनुवाद ।

5. रसात्मक अवता व्यंजना प्रधान काव्य का अनुवाद ।

निष्कर्ष :-

जिस प्रकार विश्वव्यापी पवन को मुट्ठी में बन्द कर पाना संभव नहीं है, उसी प्रकार मानव हृदय में उद्वेलित होनेवाली असंख्य भावतरंगों की सीमा भी निश्चित नहीं की जा सकती, ठीक उसी प्रकार कविता की सम्पूर्णता को परिभाषा में बाँधना संभव नहीं है। फिर भी व्यावहारिक धरातल पर विश्वम्भर के समीक्षकों ने कविता की परिभाषा निश्चित की है। उदाहरण के लिए हम संस्कृत काव्यशास्त्र से पं. जगन्नाथ की तथा विश्वनाथ की काव्य परिभाषा ले सकते है। "रमणीयार्थ प्रतिपादक शब्द काव्यम्" अर्थात् रमणीय अर्थ का प्रतिपादक शब्द काव्य है इसमें भाव सौन्दर्य अर्थात रसध्वनि को काव्य माना गया है। इसी प्रकार विश्वनाथ ने - "वास्यं रसात्मकं काव्यम्" कहकर प्रकारान्तर से वनिमूलक रस का ही समर्थन किया है। अर्थात् काव्य का प्राणतत्व व्यंजक भाव - ध्वनित भाव है।

अंग्रेजी के प्रख्यात कवि मिल्टन ने काव्य में प्रसाद गुण की प्रमुखता दी है। वे बहते हैं - "Poetry must be simple, sensuous and passionate " अर्थात् कविता सरल-सहज, इन्द्रिय-प्रेरक एवं भावमय ही होना चाहिए। इस प्रकार उक्त तीनों परिभाषाएं कविता असली कविता में तीव्रभावमयता को अनिवार्य मानती हैं। अत सिद्धान्ततः कविता का अनुवाद असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। उसमें सीमातीत सूक्ष्मभाव होते हैं ।

बुद्धि, कल्पना, भाव एवं भाषा-शैली ये कविता के प्रतिनिधि तत्व हैं। इनमें भी कल्पना और 'भाव प्रमुख हैं। इन तत्वों के अभाव में काव्य रचना संभव नहीं होगी। काव्य के भेद अनेक प्रकार से किये गये हैं। मुक्तक और प्रबन्ध इन दो में सभी भेद गर्भित हैं।

अनुवाद को परिभाषित करना है तो यह कथन पर्याप्त है कि -किसी एक भाषा की रचना को - उसके अर्थ की सम्पूर्णता को सुरक्षित रखते हुए दूसरी भाषा में बदलना अनुवाद है। यह परिभाषा बस काम चलाऊ है। वस्तुतः किसी अभिधामूलक, अर्थधारक और उपदेशात्मक रचना का तो प्रायः पूरी तरह अनुवाद संभव है, परन्तु तीव्र, भावप्रधान और व्यंजनामय काव्य कृति का नहीं। यह अनुवाद की सीमा रेखा है। कविता में भाव और कथ्य के साथ कवि की शैली और व्यक्तित्व भी समाहित होते हैं जो अति मौलिक होने के कारण अनूदित नहीं हो सकते

अनुवादक की पात्रता विशेषतः काव्यानुवाद के सन्दर्भ में ध्यातव्य है। अनुवादक में ये गुण अपेक्षित है


1. स्रोतभाषा और लक्ष्य भाषा का आधिकारिक जान। 

2.अनुवाद कला का ज्ञान। 

3. अनुवाद कार्य में पूर्ण रूचि।

4. अनुवाद-हेतु निश्चित विषय का स्तरीय ज्ञान।

5. सल्यनिष्ठता

6. यदि काव्यानुवाद करना है तो अनुवादक काव्य-मर्मज्ञ हो स्वयं कवि हो तो श्रेयस्कर होगा।

इस सिदान्त भूमि के आरंभिक ज्ञान के पश्चात् हम सरलता से काव्य के विभिन्न रूपों के अनुवाद पर सोदाहरण विचार कर सकते हैं। नीति और उपदेश प्रधान काव्य में अर्थ और वस्तु की प्रधानता होती है। मन्तव्य सरल भाषा में नपे-तुले शब्दों में प्रकट किया जाता है। अतः अनुवाद कार्य बहुत कठिन नहीं होता, फिर भी मूल पद्य का जो निजी और पैना प्रभाव है, वह तो उसकी निजता है । प्रसिद्ध कवि रहीम के कुछ नीति उपदेश परक दोहे देखिए - 

   सर सूखे पंछी उड़े, और सरन समाहि। 

  दीन मीन बिन पंख के, कहु रहीम को जाहिं।।

परन्तु अर्थात् - तालाब सूख गये, तो पक्षी उड़कर दूसरे (जलमय) तालाबों में जा बसे। व हवन असहाय मछलियाँ कहाँ जाएँ ? इस पद्य में असहाय और समर्थ व्यक्तिति ममन को पक्षियों और मछलियों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। अनुवाद में मूलत्रभाव सुरक्षित नहीं रह पाता। व्यंजना की रक्षा तो और भी कठिन होती है। इसी प्रकार

     रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि। 

  जहाँ काम आवे सुई, कहा करै तरवारि।।"

   प्रीतम छवि नैनन बसी, पर छवि कहाँ समाय। 

   भरी सराय रहीम लखि पचिक आप फिरि जाय।।"

   इन दोनों दोहों का अनुवाद कठिन नहीं है, परन्तु सरस, पैने और सुगठित प्रभावमय मुक्तक की निजता तो अननुकरणीय रहता ही है। 

   भूगोल, गणित, ज्योतिष एवं कृषि सम्बन्धी बातें भी सुविधा के लिए पद्यबद्ध कर दी जाती हैं, परन्तु उन्हें काव्य नहीं कहा जा सकता। यह तो अर्थपरक या सामान्य ज्ञान परक पद्य रचना है। इसका अनुबाद सरलता पूर्वक किया जा सकता है। इसमें भाव नहीं विषय की प्रधानता होती है।

      तिल भौंरी लहसुनमसी, होहि दाहिने अंग। 

      जाहि पर बन खंड में, साथ लक्ष्मी संग।।

      अर्थात् यदि मनुष्य के दाहिने अंग में तिल, भौंरी, लहसुन और मस्सा हो तो वह घनघोर जंगल में भी फंसा हो तो लक्ष्मी उसकी रक्षा करती है। इस पद्य में बस जानकारी पद्य के माध्यम से दी गयी है। यह कविता नहीं है। इसका अनुवाद सरल है।

     कवित्वमय मुक्तक के अनुवाद का जहाँ तक प्रश्न है वह उसकी अभिधा, लक्षणा और ध्यंजना की मात्रा पर निर्भर करता है। मुक्तक का अनुवाद प्रबन्ध काव्य के अनुवाद से भी कठिन होता है। सरलता, संश्लिष्टता, संक्षिप्तता, पूर्णता, प्रभावकर्ता और रागात्मकता - ये तत्व मुक्तक में अति आवश्यक हैं। मुक्तककार गागर में सागर ही नहीं अपितु बिन्दु में सिन्धु भरता है। अतः उत्कृष्ट मुक्तक का अनुवाद व्यावहारिक तो हो सकता है, हू-ब-हू नहीं। गीत में भी यही बात है।

       कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं

        संतो भाई आई ज्ञान की आंधी रे। 

       भ्रम की टाटी सबै उड़ानी, माया रहै न बाँधी रे।।

     कबीरदास ने आंधी और टाटी के स्तर पर ज्ञान और माया का रूपक बाँधा है। अपने ढंग की रहस्यात्मक उक्ति है। इसका व्यावहारिक कामचलाऊ अनुवाद तो हो सकता है, पर पूर्णता का दावा नहीं किया जा सकता।

      भक्त कवि सूरदास का यह पद दृष्टव्य है।

    मुरली तऊगोपालहि भावति ।

    सुनिरी सखी जदपि नैंदलालहि नाना भाँति नचावति ।

   राखति एक पाइ दौडौ करि अति अधिकार जनावति।

    कोमल तन आज्ञा करबानति, कटि टेढी ह्वै आवति ।

    अति अधीन सुजान कथोडे, गिरिधर नार नवावति । 

    आपुन पौडि अधर सञ्जावर, करपल्लव पलुरावति।।

    भृकुटि कुटिल नैन नासापुट, हम पर कोप करावति ।

    सूर प्ररान्नजानि एकौछिन, घर तैं सीस डुलावति।

     इस पद में जो सपत्नीक ईर्ष्या, भावप्रवणता, व्यंजना, कसावट, सालंकारता और प्रस्तुतीकरण की अनुपम निजता है उसका अनुवाद नहीं हो सकता। अनुवाद तो अर्थमूलक सामान्य भाषान्तरण है।

     इसी प्रकार यह सांगरूपक और आर्थी - व्यंजना से ओतप्रोत पद राधा विरह का असाधारण चित्र प्रस्तुत करता है

       पिया बिनु नागिनि कारी रात।

      जौ कहूँ जामिनि उषति जुन्हैया, डसि उल्टी हैव जात।।

      जंत्र न फुरत मत्र नहि लागत, प्रीति सिरानी जात।

      सूर स्याम बिनु निकल विरहिनी, मुरि मुरि लहरै खात।।

    उद्दीपन विभाव की प्रमुखता में सम्पूर्ण रसात्मकता के साथ विप्रलम्भ श्रृंगार उभरा है। उक्त पद का सामान्य अर्थ बोध तो अनुवाद से संभव है, परन्तु प्रस्तुतीकरण और भाषागर्भी व्यंजना तो अनुवाद के पकड़ में न आ संकेगी।

      हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल काव्य अनेक स्तर पर नेक धाराओं में विभाजित हुआ। नयी कविता और छायावादी कविता अपने व्यंजना प्रधान नये तेवर माप उभरी। कायावादी काव्य धारा तो बिल्कुल रहस्य, प्रेम, वैयक्तिकता एवं वियोग को लेकर ही जन्मी और सन् 1918 से 1936 तक चली। इस काव्य धारा के प्रमुख कवि प्रसाद, पन्त, निराला और महादेवी वर्मा थे इन सभी के काल्य में गहरी व्ंजना भोपतीयता, रहस्यात्मकता एवं भावगत दुरूहता है। अत: अनुवादक को इनके काव्य का अनुवाद करने में पर्याप्त कठिनता होती है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं प्रसादजी का सम्पूर्ण ‘आँसू' काव्य अपने ढंग की लोकोत्तर छायावादी काव्य रचना है।

        जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तक में स्मृति सी छायी। 

        दुर्दिन में आँसू बनकर वह आज बरसने आयी।।

जिस प्रकार की भाषा-शैली में अपनी मनोव्यथा को प्रकृति के दर्पण में कवि ने अनुभव किया और व्यक्त किया, उसका अनुवाद कैसे संभव होगा इसी प्रकार आँसू से ही

        बस गयी एक बस्ती है, स्मृतियों भी इसी हृदय में।

       नक्षत्र लोक फैला है, जैसे इस नील निलय में।।

     यह पद्य भी बेजोड़ है। स्मृति संचारी भाव सम्पूर्ण कवि-हृदय को झकझोर रहा है। अनुवाद तो होगा, परन्तु वह शैली और व्यंजना नहीं आ सकेगी। नील गगन भी असंख्य नक्षत्रमयी निशा के समान कवि का हृदय स्मृति-नक्षत्रों से जगमगा उठा है। इसी प्रकार प्रसाद जी की 'कामायनी' में भी शताधिक छन्द ऐसे हैं जिनमें सघन व्यंजना और दार्शनिकता के अनेक स्तर हैं - संश्लिष्टता है जो अनुवाद की परिधि में न आ सकेगी।

महादेवी वर्मा का कवि-व्यक्तित्व छाया और रहस्य क ताने बाने से बुना गया है। उनकी भाषा-शैली भी प्रकृति, प्रेम और अध्यात्म से जुड़ी हुई है। माधुर्य गुण भी उनके काव्य में प्रचुरता है। इन सबके कारण उनके गीतों का अनुवाद पूरा नहीं उतर पाता। एक-दो उदाहरण प्रस्तुत हैं

       मैं नीर भरी दुःख की बदली

       विस्तृत नभ का कोई कोना

       मेरा न कभी अपना होना 

       परिचय इतना, इतिहास यही

      उमड़ी कल थी मिट आज चली।

     इस गीत में नीरभरी बदली के माध्यम से कवयित्री ने निजी अकेलापन व्यंजित किया है। इसका अनुवाद तो हो सकता है, पर वह प्रभावकर्ता और दूरगामी व्यंजना न आ सकेगी।

        मधुर मधुर मेरे दीपक जल।

        तथा

        यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो।


आदि गीत भी अननुकरणीय हैं।


कुछ पद्य अथवा शेर ऐसे होते हैं कि जिनका हम व्याख्या कर सकते हैं, अनुवाद नहीं, पर व्याख्या भी कहीं थक कर रह जाती है एक दोस्त अपने मृत दोस्त के सिरहाने खड़े होकर गहरी व्यथा में डूबकर यह शेर कह रहा है

      "कल तो कहते थे कि बिस्तर से उठा जाता नहीं।

        आज ताकत आ गयी, दुनियाँ से उठके चल दिये।।

        सामान्य अर्थ है मित्र! कल तो तुम कह रहे थे कि बिस्तर से उठ पाना भी संभव नहीं है। परन्तु आज इतनी ताकत आ गई कि दुनियाँ से ही उठ के चल दिये विदा हो गये । इस शेर के प्राण 'उठा जाता' और 'उठके चल दिये' शब्दों में हैं। अनुवाद इस अर्थ - ध्वनि को प्रकट नहीं कर सकता। 'उठ' शब्द की जगह दूसरा शब्द नहीं ले सकता।

         कुछ और शेर प्रस्तुत है। इनका सामान्य अर्थमय अनुवाद तो हो सकता है। कवि की भाव्य प्रकट करने की कला, शब्द चयन, अर्थगंभीरता और संक्षिप्तता तथा तो उस शेर का कापी राइट है।

       कश्ती में उम्र गुजरी, समन्दर नहीं देखा।

      आँखों में डूब गये, दिल में उतरकर नहीं देखा ।

       *******

      पत्थरों की बस्ती में, काँच का बदन लेकर। 

     हम भी जी लिए तनहा, दिल में अंजुमन लेकर।।

      *******

     आग पानी में लगे तो गज़ल होती है, 

     फूल जो नभ में उगे तो गज़ल होती है,

     इश्क बुवापे में जगे तो गजल होती है, 

     घर जले घर के चिराग से तो गज़ल होती है ।

      निष्कर्ष

      ऊपर के विवेचन के आधार पर कविता के अनुवाद के सम्बन्ध में ये निष्कर्ण निकलते है। अनुवादक की क्षमता का और रचना की स्तरीयता का अनुवाद-कार्य में बहुत महत्व है।

  1. कनिता अभिधामूलक - इतिवृत्तात्मक है अथवा लक्षणा और व्यंजना ध्वनि-युक्त है - इस पर अनुवाद-कार्य की सफलता पर्याप्त निर्भर है।

  2. रस मूलक या ध्वत्यात्मक कविता का उसकी सम्पूर्णता में अनुवाद नहीं हो सकता। हाँ, अर्थ और व्याख्या संभव है।

  3. श्रेष्ठ कविता में कवि का व्यक्तित्व (शैली, भाषा नियोजन) निहित रहता है जो अनूदित नहीं हो सकता।

  4. कविता में सरसता, संक्षिप्तता, अनेकार्थता, सांकेतिकता, गूढ़ता और प्रभावकता एक साथ भी संभव है और इन सबका समावेश अनुवाद में संभव नहीं हो सकता। 

 5. अनुवाद की सफलता इस बात पर भी निर्भर करती है कि अनुवादक की लक्ष्यभाषा में कैसी गति है। यदि लक्ष्यभाषा अनुवादक की - सुअधीत भाषा है और मातृभाषा भी है तो उसे अधिक सफलता मिल सकती है।

 6. मूल-कृति की भाषा अर्थात् स्रोत भाषा का पुष्ट ज्ञान तो आवश्यक है ही साथ ही विषयगत रुचि भी होना चाहिए अन्यथा अनुवाद यान्त्रिक होगा।

 7. अनुवाद लक्ष्यभाषा में पद्यमय अथवा गद्यमय हो सकता, है - यह अनुवादक की क्षमता पर निर्भर है।

 8. उमर खय्याम की रुबाइयों का किसी अंग्रेज कवि-समीक्षक ने अपने जीवन में पाँच बार अनुवाद किया और प्रकाशित किया, फिर भी वह सन्तुष्ट न या ।

 9. विज्ञान, गणित और व्याकरण के सूत्रों के समान काव्य में अर्थगंभीरता और भाव सम्प्रेषणीयता तेज होती है अतः अनुवाद कठिन काम होगा। 

 10. रूप और बस्तु तथा अर्थ (Meaning) का अनुवाद या अनुकरण जितना सरल है उतना भाव, कल्पना और सहज स्फूर्त सात्विक भाव का नहीं। कविता के अनुवाद में यह समस्या उठेगी ही।

 11. अनुवाद के प्रमुख चार तत्वों (सन्देश Message, ग्रहीता Receptor, स्त्रीत Source, सांस्कृतिक सन्दर्भ Cultural Content) से जुड़े बिना अनुवाद नहीं हो सकता। परन्तु काव्य उदात्त भावों का जगत है, यह ध्यान में रखना ही होगा।

 12. काव्य में संक्षिप्तता और पूर्णता का निर्वाह व्यंजना और ध्वनि द्वारा होता है। "रामचरित मानस' के अरण्यकाण्ड में राम मरणासन्न तात जटायु से कह रहे हैं - 

     "सीता हरन तात जनि, कहहु पिता सन जाइ। 

      जो मैं राम तो कुल सहित, कहिहि दसानन आइ।।

    अर्थात् हे तात! सीताहरण की बात आप जाकर पिता जी से न कहिएगा यदि मैं राम हूँ तो दशमुख रावण कुटुम्ब सहित वहाँ आकर स्वयं ही कहेगा।

        इस पद्य में कहा कम बहुत कम, गया है, परन्तु ध्वनित बहुत अधिक किया गया है जो इसकी सर्वोपरि विशेषता है। राम के दुख की तीव्रता, प्रति शोध भावना की त्वरित उग्रता, कुल मर्यादा और निजी अपराजेयता का संकेत पद्य में ध्वनि द्वारा निर्दिष्ट हैं।

     अतः स्पष्ट है कि काव्यानुदाद एक सीमा तक ही संभव है।


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Tuesday, January 26, 2021

साहित्यिक अनुवाद -1

 

                               

                                              साहित्यिक अनुवाद 

(1. अनुवाद के विषय और प्रकार का परिचय दीजिये।)

    साहित्य का स्वरूप :

             जीवन अथवा जगत् की प्रखर अनुभूतियों की भावात्मक, ललित एवं शाब्दिक अभिव्यक्ति साहित्य है। इस परिभाषा में काव्य नाटक, उपन्यास, कहानी, संस्मरण एवं यात्रावृत्त आदि सभी सृजनात्मक साहित्य विधाएँ गर्भित हैं उक्त परिभाषा से यह तथ्य एवं तत्व भी सुस्पष्ट हो जाता है कि साहित्य अपनी मूल चेतना में भावात्मक है और सर्वोच्चता अथवा उत्कृष्टता में ध्वन्यात्मक है, अतः ध्वनि एवं व्यंजनामूलक साहित्य का अनुवाद यदि असम्भव नहीं तो अतिकठिन अवश्य है। सृजनात्मक साहित्य--नाटक, उपन्यास और कहानी आदि का अनुवाद काव्यानुवाद की तुलना में उतना दुष्कर या कठिन नहीं है। काव्य में भी व्यक्तिनिष्ठ एवं सूक्ष्म राग रश्मि - रंजित छायावादी रहस्यवादी एवं ध्वनिमूलक काव्य का अनुवाद एक टेढ़ी खीर है। ध्वनि या व्यंजना अर्थ और भाव के सूक्ष्म परिवेश के साथ सृष्टा के व्यक्तित्व से भी जुड़ी रहती है और व्यक्तित्व अनुकरणीय होता है। ज्ञानपरक साहित्य का अनुवाद उतना समस्यात्मक नहीं है जितना कि शक्ति अथवा भाव (रस) का साहित्य।

      अनुवाद के विषय और प्रकार :

             सामान्यतया अनुवाद उपदेशपरक, अर्थपरक वस्तुपरक एवं विचारमूलक विषयों का सरलतापूर्वक संभव हो जाता है, यद्यपि शब्दचयन और परिवेश की समस्या इसमें भी रहती ही है। ये सभी विषय अर्थबोधक एवं अभिधा प्रधान होते हैं। वर्णन, विवरण और विचार का अनुवाद प्रायः अविकल रूप में किया जा सकता है। अनुवाद कोटि या श्रेणी को सामान्यतया निम्नलिखित प्रकारों में विभाजित किया जाता है -

         1. Coloured Glass Translation [रंगीन चश्मा (शीशा) अनुवाद]

         2. Clean Glass Translation [स्वच्छ शीशा अनुवाद

         3. Dimmed Glass Translation [धुंधला शीशा अनुवाद]

         4. Essense Glass Translation [सारानुवाद]

         5. Twisted Glass Translation [वक्र अनुवाद]

             रंगीन चश्मा अनुवाद में कलर टी.वी. के समान मूल हृदय या वस्तु को अधिक आकर्षक बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। कभी-कभी इसमें प्रभावक व्याख्या भी जोड़ दी जाती है। स्पष्ट है कि इसमें मूल को अतिक्रान्त करने का यत्न होता है। विज्ञापन या प्रशंसा की गंध भी इसमें आने लगती है। मूल धार्मिक ग्रन्थों के अनुवादों में प्रायः ऐसा होता है। भावप्रधान कृतियों में अनुवादक की विशिष्ट रुचि भी प्रायः ऐसी स्थिति पैदा करती है।  

            स्वच्छ शीशा-अनुवाद-पद्धति में मूल की आत्मा को पूर्णतया सुरक्षित रखा जाता है। और किसी भी स्तर पर अनुवादक अपने व्यक्तित्व को उस पर आरोपित नहीं करता है। इसमें अनुवादक योग्य, तटस्य एनं न्यागशीक्षा होता है । विज्ञान, गणित एवं ज्योतिष आदि विषय इस पद्धति में आते हैं। अन्य विषय भी आ सकते हैं यदि अनुवादक सिद्धत्त हो तो।

            धुंधला शीणा अनुवाद में ऐसे अनुवाद आते हैं जो मूलकृति की आत्मा को धूमिल एवं कलुपित करते हैं। राजा लक्ष्मणसिंह का अभिज्ञान शाकुन्तलम् का हिन्दी अनुवाद इसी कोटि का है। "गीत गोविन्द" एवं "गीतांजलि" के अनेक अनुवाद से ही हैं। उमर खेयाम की रूबाइयों का एक अंग्रेज अनुवादक ने पाँच बार अंग्रेजी में अनुवाद किया और पाँचों बार प्रकाशित भी किया और अन्त में स्वीकार भी किया कि वह मूल रो अभी काफी हल्का है। विश्व की लगभग 80 भाषाओं में उमर खैयाम की रूबाइयों का अनुवाद किया गया,फिर भी मूल मूल ही है, अनुपम है-अनुकरणीय है।

       अनुवाद के अनिवार्य तत्व :

         अनुवाद अर्थात् किसी कृति के रूपान्तरण में पाँच तत्व अनिवार्य होते हैं। ये हैं संदेश-कथ्य, खोतभाषा, लक्ष्य भाषा, गृतीता और सांस्कृतिक संदर्भ इन पाँचों तत्वों में मूल कृति का संदेश प्राणतत्व होता है। हम एक रेखा चित्र द्वारा इस प्रकार समझा सकते हैं -

     Source Language                                           Target Language           

     स्त्रोत भाषा                                                              लक्ष्य भाषा


                                 

सांस्कृतिक संदर्भ                                                                     गृहीता पाठक 

Cultural Context                                                               Receptor

                                      M - Message Content 

                                         मध्य -संदेश

          इन पाँचों सत्वों को आत्मसात् किये बिना प्रामाणिक अनुवाद संभव नहीं है।

          इसी के साथ अनुवादक में चार गुण - समझ, अभिव्यक्ति, स्वरोतभाषा ज्ञान, एवं लक्ष्य भाषा ज्ञान अत्यावश्यक हैं। यहाँ विस्तारभय से उक्त बातों का इंगित मात्र कर रहा हूँ ताकि साहित्यिक अनुवाद की समस्याओं को हृदयंगम करने में सुविधा हो।

       (2. साहित्यिक अनुवाद की रामस्याएँ क्या क्या है?)

           समस्याएँ - साहित्यिक (भाव प्रधान अर्थात् लक्ष्णा व्यंजना प्रधान-धवनिप्रधान) अनुवाद में अनेक समस्याएँ उपस्थित होती हैं। काव्य के संदर्भ में विशेषतः छायावादी, रहस्यवादी काव्य के सन्दर्भ में ये समस्यायें उठती हैं ये हैं : - 

    1. स्त्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा की समस्या।

    2. भावानुवाद की यथातस्यता की समस्था

    3. मुल लेखक और अनुवादक के व्यक्तित्वों की समस्या।

    4. मातृभाषा और सीखी हुई भाषा की समस्या।

    5. सृष्टा और अनुवादक की सृजन-चेतना की समस्या । 

    6. शब्द शक्ति परक काव्यानुवाद की समस्या ।

    7. यदि अनुवादक की लक्ष्य भाषा हिन्दी है जो उसकी मातृभाषा नहीं है - 

           एक सीखी हुई भाषा है, तब उठनेवाली समस्याएँ।

           (क) वाक्य रचना शैली

           (ख) लिंग ओर वचन, "ने" प्रत्यय

           (ग) वातावरण - देशकाल-रीतिरिवाज, ऋु-पर्व

           (घ) मुहावरे, लोकोक्तियाँ

     8. अनुवादक की अभिरुचि

     9. अनुवादक के विषयज्ञान की समस्या

    10. मातृभाषा या स्त्रोत - भाषा का विशिष्ट ज्ञान न होने पर 

            अल्यज्ञताजन्य अनेक समस्याएँ

    11. अनुवादक की अनुवाद निष्ठा की समस्या (अवसरवादिता - 

            अल्पपरिथम और अधिक लाभ की इच्छा)

    12. लक्ष्यभाषा मातृभाषा होने के बावजूद होने पर भी अनेक समस्याएँ उठ सकती हैं ।

          क. मातृ भाषाज्ञान की अपूर्णता

          ख. आतुरता एवं अहंकार - आग्रह

          ग. अनुवाद विषय-ज्ञान की कमी

          घ. क्षेत्रीयता का प्रभाव

              उल्लिखित 12 समस्याओं में कतिपय सामान्य अनुवाद से भी जुडी हुई हैं, शेष विशेष रूप के साहित्य से संबन्धित हैं। इन सभी समस्याओं का आवश्यक विवेचन विषय की स्पष्टता के लिए आवश्यक है - 


(3. मातृभाषा और सीखी हुई भाषा के कारण अनुवाद में क्या फरक पड़ सकता है?)

      1. स्त्रोतभाषा और लक्ष्य भाषा की समस्या अनुवाद में अत्यन्त जटिल समस्या है। स्त्रात भाषा अनुवाद के लिए चुने हुए ग्रन्थ की भाषा होती है औीर जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है वह लक्ष्य भाषा होती है। सिद्धान्त और व्यवहार की दृष्टि से सीखी हुई भाषा स्त्रोत भाषा होनी चाहिए तथा सु- परिचित मातृभाषा लक्ष्य भाषा होनी चाहिये। विश्व की प्रतिष्ठित भाषाओं में (अंग्रेजी, अश्विन, फ्रेंच, जर्मन आदि) अनूदित प्रख्यात ग्रन्थ इसी कसौटी के हैं। सीखी हुई भाषा को लक्ष्य भाषा बनाने से निम्नलिखित समस्याएँ उपस्थित होती हैं -

           क. सांस्कृतिक संदर्भ को समझने की समस्या

           ख. वाक्यरचना, लिंग, कारक आदि की समस्या

            ग. देशकाल की समस्या

            घ. मुहावरों, लोकोक्तियों और लोकप्रथाओं को समझने की समस्या।

            ड. सीखी हुई भाषा में अध्यापन, व्याख्यान एवं समीक्षा लेखन तो हो सकता है, पर अनुवाद और वह भी किसी भान प्रधान शब्दशक्ति प्रधान काव्य का अनुवाद प्रायः विकलांग होगा। अतः मातृभाषा को लक्ष्य भाषा बनाना अधिक औचित्य पूर्ण है।

        2. दूसरी समस्या भावमूलक साहित्यिक कृति के अनुवाद की यथातथ्यता की। साहित्यिक कृति, विशेषतः शब्दशक्ति प्रधान काव्य, ध्वनिकाव्य एवं छायावादी चेतना का काव्य प्राय अर्थ बोध के स्तर पर आलम्बन की अनिश्चितता के कारण तथा अनुभूति की वैयक्तिक संश्लिपटता के कारण दुख्ड होता है उसमें अटकल की अधिक गुंजाइश होती है।

        3. अनुवादक और मूल लेखक के भावात्मक व्यक्तित्वों की एकरूपता की समस्या भी इसी समस्या का दूसरा रूप है। उमर खैयाम की रूबाइयों के प्राय सभी अनुवादक एक दूसरे से अर्थ और भाव के स्तर पर काफी अलग कर रहें हैं। छायावादी कवियों में प्रेम वियोगजन्य प्रश्न प्रायः एक सा रहा है, परन्तु प्रसाद, पन्त और निराला का आलम्बन वहीं नहीं है जो महादेवी का है। महादेवी का प्रिय रहस्यमय परम सुन्दर ईश्वर है। भावों का मानवीकरण और विशदीकरण अनुवादक के लिए एक कठिन समस्या बन जाती है। अनुवादक मूल कवि की भावप्रेषणीयता के साथ कहाँ तक चल पाता है, यह भी विचारणीय है।

      4. मातृभाषा और सीखी हुई भाषा की भी अनुवाद के क्षेत्र में एक विचित्र स्थिति बनती है। मातृभाषा तो माता के दूध के साथ अनायास ही आ जाती है। बाल्यकाल में परिवेश, रीति-रिवाज एवं संस्कार आदि स्वतः हृदयंगम हो जाते हैं। अध्ययन द्वारा  इन सब का विस्तार भी होता ही है। अतः मातृभाषा में अभिव्य। प ५५ ল । जाती है। व्यक्तिगत प्रतिभा चमत्कार उसमें चार-चाँद लगा देता है। सीखी हुई मातृभाषेतर भाषा के साथ व्यक्ति की अनेक सीमाएँ जुड़ जाती हैं। अतः उसमें अनुभूति और अभिव्यक्ति में पर्याप्त अन्तर होता है। यदि बालक का जन्म किसी अन्य प्रदेश में हो और वह वहीं की भाषा अध्ययन कर स्वयं को तैयार करे तो वह अवस्य ही समस्या का कदापि अनुभव नहीं करेगा। वह अनुवाद तो क्या, मौलिक साहित्य का सृजन भी उस भाषा में कर सकता है। श्री बालकृष्णराव, पद्माकर, अमृतलाल नागर एवं रांगेय राघव क्रमशः आन्ध्र, गुजरात एवं तमिलनाडु के थे, परन्तु वे हिन्दी के प्रथम पंक्ति के कवि एवं कथाकार बने। अतः स्पष्ट है कि व्यक्ति को अपनी क्षमता की ईमानदारी से परीक्षा करके ही अपना सृजन या अनुवाद का कार्यक्षेत्र निश्चित करना चाहिए। इससे उसे सफलता मिलेगी जिसपर वह गर्व कर सकेगा।

         5. मूल स्रष्टा और अनुवादक की मनस्थिति एवं चेतना की भी एक विकट समस्या है। अनुवादक यदि घोर नैतिक जीवन मूल्यों में विश्वा करता है तो प्रस्तावित कृति के ललित एवं रागात्मक प्रसरण में उसकी गति एवं रुझान का प्रश्न उठेगा ही वह उसी रागात्मक चेतना के धरातल पर प्रायः नहीं पहुँचेगा। साहित्यिक अनुवाद में भावात्मक पकड़ की महता की आवश्यकता होती है और यह अभिरुचि का विषय है। तीव्र रागात्मकता प्रायः अन्तः प्रवाहमयी होती है। इसी धरातल पर यह तथ्य भी सुस्पष्ट हो जाता है कि अनुवाद कार्य में सूजन से भी कठिन होता है। खास तौर पर जब प्रस्तावित कृति विशुद्ध रूप से अन्तः रागात्मक हो।

        6. शब्दशक्ति परक काव्य के अनुवाद की भी गहरी समस्या है। लक्षणा और व्यंजना काव्य को उसकी सम्पूर्णता में समझाना और अनूदित करवाना एक दुष्कर कार्य है। संकेतित एवं व्यंन्यार्थ की अपनी गति, अपना विस्तार और अपनी गंभीरता होती है। शादी और आर्थी व्यंजना युक्त काव्य का अनुवाद कैसी समस्या उत्पन्न करता है देखिए -

               खुसरो दरिया प्रेम का उल्टी बहती धार।

               जो उतरा सो बह गया, जो डूबा सो पार।।

             इस पद्य में प्रेम की विचित्र स्थिति का जिस बक्र भावभंगिमा, शैली और शब्द-योजना में वर्णन किया गया है, वह अत्यन्त निजतापूर्ण है और अनुकरणीय भी काम चलाऊ अनुवाद दूसरी बात है।

        इसी प्रकार विहारी के प्रस्तुत दोहे पर ध्यान दीजिए - विशेषरूप से दूसरी पंक्ति पर

                  तन्वीनाद कवित्त रस, सरस राग रति रंग। 

                 अनबूढे बूढ़े तरे, जे बूड़े सब अंग ।।         "बिहारी"

           कबीर की इस प्रसिद्ध साधी में शब्बी यंजना पुनरुक्ति प्रकाश और लप आदत द्वारा जिस लोकोत्तरप्रियतम का चित्रण किया गया है वह अनुवाय है क्या?

                  लाली मेरे लाल की जित देखों तित लाल। 

                  साली देखन मैं गयी मैं भी हो गई लाल ।        "कबीर

         7. यदि अनुवाद की लक्ष्य भाषा हिन्दी है और हिन्दी उसकी मातृभाषा नहीं है और उसने अपने ही प्रदेश में रहकर वह भाषा सीखी है, तब उठनेवाली समस्याएँ भी अनेक हैं।

        स्त्रोत भाषा का जान तो अन्ततः समझ तक ही सीमित है। उसकी पूर्णता अनुवादक में होनी ही चाहिए, क्योंकि अनुवादक अल्पज्ञता के कारण मूल विषय को गलत भी समझ सकता है। और फिर अनुवाद भी अणुद्ध एवं भामक होगा ही। लध्व भाषा में तो उसे अपनी समझ को सही अभिव्यक्ति देना है। पाठकों के स्तर और अभिरुचि का भी ध्यान रखना है। अतः लक्ष्यभाषा इस धरातल पर स्त्रोतभाषा से अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। बाक्य रचना, लिंग, कारक, वचन, मुहावरे, लोकोक्तियाँ और लोकप्रधाएँ आदि की सीमित या अन्यथा जानकारी के कारण अनुवाद की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता नष्ट हो जाती है। कुछ उदाहरण देखिए -

             हिन्दी में चकर काटना और चक्कर खाना सुति और सरल मुहावरे है। इसी प्रकार पैर भारी होना भी "गर्भवती होना के अर्थ में प्रचिलत मुहावरा है। "जंगल जाना" भी (आजभी) शीचकियार्थ जाने के अर्थ में प्रचलित मुहावरा है। इसी प्रकार बाप शब्द पिता का पर्यायवाची है। इन सबका वाक्यों में प्रयोग देखिए.

        1. आपका सर चक्कर काट रहा है क्या

             (आपको सर दर्द हो रहा है क्या? अथवा

             आपका सर चक्कर खा रहा है क्या?

          2. एक मित्र ने लंगड़ाकर चलते हुए अपने मित्र का मजाक उड़ाते हुए कहा,

               आपके पैर भारी है क्या ?

          3. यह आपका बाप है क्या ?

            इस प्रकार के सैकड़ों उदाहरण दिये जा सकते हैं। काव्यानुवाद में - (काव्य का काव्य में अनुवाद) चाहे वह पद्यबद्ध हो, चाहे अतुकान्त, अनुवादक को काफी सतर्क रहना है। पद्यात्मक अनुवाद में मात्रा, लय यति एवं गति आदि की रक्षा होने की जरूरत है।

             आशय केवल इतना है कि अनुवादक को अपनी क्षमता की सही पहचान के साथ आगे बढ़ने पर अधिक सफलता और यश प्राप्त हो सकेगा तात्कालिक कुछ की अपेक्षा स्थायी कुछ अधिक महत्वपूर्ण होता है। 

            8. अनुनादक की अभिरुचि की समस्या भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। एम.ए. या एम.बी.बी.एस. होकर भी उत्साह और अभिरुचि के आधार पर लोग साहित्यिक अनुवाद की ओर अग्रसर होते देखे गये हैं अभिरुचि यदि ज्ञानमूलक है और क्षणिक उमंग से परे है तो वह एक लंबी सीमा तथा, सराहनीय है। अभिरुचि (हाबी) अन्तः करण मूलक अतिरिक्त ऊर्जा है जो स्वीकृत विद्या या कार्य के अतिरिक्त क्षणों में अपनी क्रियाशीलता में प्रकट होती है। लोबान करने से प्रकट उत्साह अभिरुचि नहीं हो सकता। अतः अनुवादक में स्वतः स्फूर्ति जब अभिरुचि होगी तभी वह मूल कृति की आत्मा में प्रवेश कर उसे रूपान्तरित कर सकेगा केवल व्यावसायिक मनोवृत्ति से किया गया अनुवाद यान्विक होगा - निष्प्राण होगा।

             पेशेवर अनुवादक, अवसरवादी अनुवादक एवं अभिरुचि सम्पन्न अनुवादक की मानसिकता सहज ही अलग अलग किस्म की होगी। उक्त स्थितियों = मिशथ्रण भी ठीक नहीं है। अतः अनुवादक को मूल लेखक या सृष्टा की कृति में निहित अभिरुचि से स्वयं के मेल को परख कर चलना होगा।

             अनुवादक में अभिरचि तो पर्याप्त है, पर प्रस्तावित कृति के विषय का बांछित एवं ठोस ज्ञान नहीं है तो अनुवाद की प्रामाणिकता संदिग्ध हो सकती है। अत: ज्ञान और अभिरुचि का मेल एक समस्या है। ऐसा भी देखा गया है कि लोग अभिरुचि के क्षेत्र में अधिक चमके हैं और व्यवसायिक क्षेत्र में कम। अतः लगता है कि व्यवसाय (प्रोफेसन) एक निर्धारित विवाह है। जबकि अभिरुचि एक प्रेम विवाह। अपरिपक्वता दोनों में हो सकती है। यह तो स्वीकृत सत्य है कि विषय ज्ञान और अनुवादकात्मिकता का योग अनुवादक में होना ही चाहिए। अभिरुचि इस योग में अभिरामता उत्पन्न करेगी ही। विषय ज्ञान यदि अनुभूति कोटि में परिणत हो गया है और सही अभिव्यक्ति में बदल सकता है तो अवश्य ही अनुवाद सशक्त, प्रेरणाप्रद एवं ग्राह्य होगा।

      10. मातृभाषा (स्त्रोत भाषा) का विशिष्ट ठोस ज्ञान न होने पर अत्पज्ञताजन्य अनेक समस्याएँ उठ सकती हैं। ऐसे सहस्रों व्यक्ति हैं जो अपनी मातृभाषा को केवल बोलचाल के स्तर तक ही जानते हैं - थोड़ा पत्राचार भी कर लेते हैं, परन्तु उस भाषा में अध्ययन कभी नहीं किया या फिर नाम मात्र का ही किया है। ऐसे व्यक्ति अनुवाद के क्षेत्र में मातृभाषा को स्वोतभाषा के रूप में लेकर अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर सकते है। उन्हें मूल भाषा का शास्त्रीय, रोद्वान्तिक, व्याकरणिक एवं लाक्षणिक ज्ञान कम होता है या नहीं होता है। अन्ततः सारी बात अनुवादक की योग्यता और ईमानदारी पर निभर करती है।

        11. अनुवादक में स्त्रोत भाषा और लक्ष्यभाषा की पर्याप्त क्षमता है, वह अनुवाद का काम भी कर सकता है, परन्तु मानसिक स्तर पर व्यावसायिक वृत्ति का है वह जानबूझ कर काम को चलता हुआ करता है वह सकाम कर्मयोगी है, फल पर पूरी दृष्टि रखता है। परिणामतः कार्य शायरी नहीं हो पाता है। बड़े-बड़े विद्वान भी अपने नाम का फायदा उठाने पर तूल जाते है और ईमानदारी से काम नहीं करते। योग्यता और ईमानदारी का योग अत्यन्त बांछनीय है। अतः अवसरवादिता और अल्पपरिश्रम अधिक लाभ की नीति जनना चाहिए क्योंकि इससे अन्ततः क्षति होगी।

        12 .लक्ष्य भाषा मातृभाषा होने के बाक्जूट अनुवाद में अनेक समस्याएँ उठ सकती हैं -

             क. मातृभाषा जान की अपूर्णता।

              ख. अभिव्यक्ति की अपूर्णता।

              ग.  आतुरता एवं आग्रह।

               घ. अनुवाद-विषय-ज्ञान की कमी

           अतः सुविधा एवं व्यवहार के धरातल पर ही आपेक्षिक रूप से मातृभाषा का लाभ हो सकता है, परन्तु केवल मातृभाषा होने से किसी भाषा पर जन्म सिद्ध अधिकार नहीं हे जाता। भाषा अर्जित संपत्ति है, जन्मजात नहीं। योग्य किन्तु आलसी धावक दौर प्रतियोगिता में हारता भी है।

             निष्कर्षत उत्कृष्ट साहित्य भावात्मक एवं सांकेतिक (यजनामूलक होता है, उसकी भाषा एवं शैली व मत निष्ठता के कारण अनुकरणोग होती है, उसका सांस्कृतिक परिवेज और उसमें गुपितल जीवनानुभव भी बोधगमा होने पर भी बहुत मौलिक होते हैं। विधाओं में काव्य सर्वाधिक सांकेतिक, सक्षिप्त, प्रभावक, सुगठित एवं कवि प्रतिभा मंडित होता है। अतः उसका व्यावहारिक रुपान्तरण भले ही संभव हो; पर पुन सृजन एवं छायाचित्रण संभव नहीं। 

               जिस कृति (विशेषतः काव्यकृति) का भाव, भाषा एवं प्रौली के स्तर पर रुपान्तरण (शतप्रतिशत) हो सके उस कृति की मौलिकता के स्तर पर प्रभ्नचिन्ह लगेगा ही ।


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अनुवाद सिद्धांत - 4

 

                                           अनुवाद सिद्धांत 

       ( 1. एक मूल की भाषाओं के बीच में अनुवाद और विभिन्न मूल की भाषाओं 

               के बीच में अनुवाद तुलना कीजिए।)

  एक मूल की भाषाओं के बीच में अनुवाद

            "नोम चोम्स्की" ने "भाषा और मन" में कहा था "जब हम मानव भाषा का अध्ययन करते हैं, तभी हम मानवीय सत्य तक पहुंचते हैं। सत्व जो उस मानसिक विशेषता है, जो जहां तक हमें पता है मात्र मानव को उपलब्ध है । हां, जब कभी मनुष्य संपर्क में आते हैं, वे अपनी शब्द संपदा का उपयोग करने लग जाते हैं - प्यार करने के लिए, झगडा करने के लिए, आमने-सामने, टेलिफोन पर जब बोलते हैं। जिनसे हम बोलते हैं वे जवाब में शब्द वृष्टि करते हैं। जब उत्तर देने के लिए कोई न रहता, तब भी हम बोलते हैं अर्थात् जीव जन्तुओं में से हम में ही यह बोलने की, अनपेक्षित वाक प्रसार की शक्ति विद्यमान है।

            भाषा की व्युत्पत्ति क्यों और कैसे हुई? इसपर सैकडों सिद्धांत प्रकट हो चुके हैं और प्रत्येक सिद्धांत में कोई न कोई सत्य विद्यमान है। भाषा ध्वनियों पर आधारित है और ध्वनियों के साथ मानव मस्तिष्क का कोई ऐसे संबंध है जो उनमें अर्थों को उद्घाटित करता है। कभी हम उन अर्थों के साथ हमारी परंपरा के सत्वों को जोड लेते हैं, पर अक्सर अपने मनोधर्म को उनमें लीन कर देते हैं। ये मनोधर्म एक सामूहिक विरासत है। इस मनोधर्म के साथ भाषा का शब्द रूप, समन्वित रूप, वाक्य रूप आदि जुड़े हुए हैं और अर्थ विस्तार को हम विषयानुकूल और समयानुकूल बना लेते हैं। हमारे अर्थों के साथ केवल स्पष्ट निर्देशात्मक तत्व हो, यह भी जरूरी नहीं। भाषा के साथ कल्पनाएं ऐसी संक्लिष्ट है कि उनके बीच में श्रृंखलित व्यवस्था कभी होती है, कभी नहीं होती। यानि अर्थ इतने जमघट में भी हमारे पास आ सकते हैं कि हमारी समझ में समग्र रूप में न आएं, बल्कि अलग-अलग रूप में समझ में आएं। उदाहरण के लिए हम निम्नलिखित वाक्य ले सकते हैं

              श्यामल दास ने एक असाधारण स्त्री बनने का निश्चय किया, क्योंकि उसने ऐसे एक कबूतर को देखा जो एक जिराफ की तरफ उड़ रहा था, और उसपर तीन आंखवाली एक औरत बैठी पी, तथा हाथी के कान से हवा कर रही थी।

              इस वाक्य में कोई निश्चित अर्थ नहीं है, पर अलग-अलग खण्डों में अलग-अलग अर्थ है। कभी-कभी हम कुछ ऐसे उदाहरण देखते हैं जो भाषा के बोझिलपन को हमारे अर्थ ग्रहण की क्षमता पर डालते हैं। उदाहरण के लिए निम्नलिखित पंक्ति को ले सकते हैं-

                "what is one and one and one and one and one and one and one and one "

                I don't know'- said Alice, 'I lost count' She can't do addition the red queen interpreted

                                  Through the looking glass."-Lewis Carrol

             अर्थात् हम भाषा के प्रयोग द्वारा जटिलताओं का भी अहसास करा सकते हैं जो अन्य जीवराशियों को प्राप्त नहीं है। जैसे "बर्टन्ट रसल" ने कहा था "कुत्ता कितने भी तरह से भौंके, वह कभी यह नहीं बता सकता है कि उसके मां-बाप गरीब और ईमानदार थे। तात्पर्य यह है कि मनुष्य अपने पूरी सामाजिक अस्तित्व को भाषा के साथ संपर्कित कर दिया है। उसका सारा विस्मय, इसी अनुभूति के साथ है, क्योंकर वह इस तरह के भाषात्मक प्रसार को किया है ?

             समाज की प्रारंभिक दशाओं में जो आवश्यकताएँ रहीं होगी उनके साथ सीमित शब्दों का ही प्रयोग होता था । क्योंकि शब्दों के जरिए एक काल्पनिक संसार में प्रवेश करने की आवश्यकता नहीं थी। यह ज़रूरी नहीं कि मनुष्य आज के भाषा संबंधी स्थिति में किसी प्रकार के विचार को तात्कालिकता से ग्रहण करें, अर्थात् मूल रूप में जो तात्कालिक अर्थ भाषा के शब्दों में निहित थे, ने धीरे-धीरे सार्वकालिक बन गये। मनुष्य के मस्तिष्क में भाषा संबंधी दक्षता किस रूप में हैं, इसका अध्ययन किया गया है और अधिकतर अध्येता यही मानते हैं कि कुछ प्रतीकों के साथ स्पंदन मनुष्य के बाएं मस्तिष्क भाग में होता है जिससे अर्थ संग्रहीत होते हैं और अधिकतर अर्थ मनुष्य के बुनियादी स्वार्थ के साथ संपर्कित हैं। यह भी कह सकते हैं कि यदि स्वार्थ का जोर न होता जिससे परस्पर बंधन पैदा न होते और संघर्ष समुत्पन्न न होते तो मनुष्य ने भाषा की ईजाद ही न की होती।

             आज विश्व में प्रायः छः हज़ार तक की भाषाएँ प्रचलित हैं, बोली जाती हैं, परन्तु "चोम्स्की'' के अनुसार पांच हज़ार साल पहले विश्व में मुश्किल से बारह विकसित भाषाएं रहीं होंगी। इन्हीं विकसित भाषाओं को जिनसे धीरे धीरे अनगिनत भाषाएं निकली, हम मूल भाषा कहते हैं। प्रत्येक कुल के साथ एक मूल भाषा संपर्कित है। उदाहरण के लिए हम भारत और योरप में आज प्रचलित करीब अडतीस समृद्ध भाषाओं को ले सकते हैं । इन सभी भाषाओं के एक मूलभाषा थी- जिसे हम भारोपिय परिवार की मूल भाषा कहते हैं। वैदिक संस्कृत इस मूल भाषा के काफी निकट है- ऐसी धारणा है कई लोग लियुएनियन भाषा को (लिथुएनिया पोलंड और रूस के पड़ोस में रहनेवाला एक छोटा-सा देश है) भारोपिय मूल भाषा के निकट मानते हैं। इस मूल भाषा से दो विशिष्ट शाखाएँ विकसित हुई- ऐसा माना जाता है। (यह केवल अनुमानात्मक है) इन भाषाओं को हम किन्टम वर्ग" और "शतम वर्ग" कहते हैं । 

           शतम वर्ग की तीन शाखाएं मानी जाती हैं। वे हैं- भारतीय शाखा, ईरानी शाखा और दरद शाखा। यहाँ हम अध्ययन के लिए भारतीय शाखा को लेंगे। आधुनिक भारतीय भाषाएँ, समृद्धि के धरातल पर, निम्नलिखित मानी जाती हैं। "सिंधी", पंजाबी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, गुजराती, मराठी, बांगला, असमिया, उडिया और सिनहली। इन भाषाओं के बीच में आम विरासत के रूप में हज़ारों शब्द हैं। वाक्य निर्माण, पद योजना, अर्थ निक्षेप आदि दृष्टिकोण से इनमें अनेक समानताएँ भी हैं। इन समानताओं के आधार पर अनुवाद में क्या सहूलियत हो सकती हैं? यदि, विशुद्ध अर्थ अपरिवर्तित रहें तो भाषा के संक्रमण में क्या बाधाएँ होती हैं? यदि नए शब्द विद्यमान शब्द के कलेवर का होता क्या जटिलताएँ पैदा होती हैं? आदि के अध्ययन से हमारा अनुवाद सुगम हो जाएगा|

               अनुवाद में जटिल पक्ष अक्सर सर्वनाम, कारक तथा क्रिया के रूप होते हैं। भारोपिय परिवार में हम सर्वनामों को "म" और "त" के आधार पर विकसित देखते हैं। संस्कृत में "अहं" और "वयं", हिन्दी में "हम " और "मैं", गुजराती में "हूँ" पंजाबी में "मैं" सिंधी में "मां" बंगला में "आमी" असमिया में "माय" उडिया में "मू" और सिनहलीस में "मात", मराठी में "भी" - यहां सभी शब्दों के साथ रहनेवाला मा संबंधी साम्य देखा जा सकता है। केवल गुजराती में हिन्दी के हम के समान "हूँ" का प्रयोग होता है। इसी तरह जब हम द्राविड भाषा में आते हैं, तमिल में "नान", कन्नड में "नन्नु" तेलुगु में "नेनु" और मलयालम में "न्यान"। इस तरह सर्वनामों के रूपों को अनुवाद में एक मूल की भाषा में समझने की सहूलियत रहती है, जबकि भिन्न मूल की भाषाओं में थोडा-सा कष्ट रहता है। प्रश्नमूलक सर्वनाम भारोपिय परिवारों में अधिकतर भाषाओं में, "क" के साथ शुरू होते हैं। जैसे मराठी में "किति", गुजराती में "केटला" हिन्दी में "कितने", पंजाबी में "किनीयान" सिंधी में "केतरा" उडिया में 'केते", बंगला में "कतो" असमिया में "खे" और सिनहल में "खत"। यदि हम कोई वाक्य ले लें जिसमें प्रश्नवाचक सर्वनाम, संज्ञा और क्रिया आदि हैं तो उसके रूप में रहनेवाले भेद को निम्नलिखित सारणी में हम हम पहचान सकते हैं :- 

    हिन्दी में - कितनी दूर है?

    पंजाबी में - किन्नी दूर है?

    सिंधी में - ताई केवो पांदवा आहे?

    उडिया में - केते दूर?

    बंगाली में - केतो दूर?

    असमिया में - किमोन दूर?

    सिनहली में - कोपमक्स कोकारडक्स?

             हम देख सकते हैं कि शब्द संख्या भी बदलती नहीं है, और ध्वनि साम्य भी बना रहता है। यदि हम कोई कठिन संरचनावाले वाक्य को लें तो उसमें भी अनुवाद संबंधी सहूलियत को पहचान सकते हैं उदाहरण के लिए निम्नलिखित वाक्य को ले सकते हैं।

      हिन्दी - यहां अपने दस्तखत कीजिए ।

      पंजाबी - इते अपने दश्कत कर दे।

      सिंधी - हिते पांजी सही करी।

     उडिया - एठि दोस्तखोत करो

     बंगाली - एकाने तोमार नाम सो कोरो।

     असमिया - इपाठे सोयकरोन ।

     सिनहली - ओबी नामस मेहि लियान ।

         यहां के लिए शब्द भी आसानी से पहचान में आते हैं। 'सही' और 'दस्तखत शब्द भी पहचान में आते हैं और हम देखते हैं कि तत्सम शब्द हस्ताक्षर' का प्रयोग नहीं किया गया है। यदि हम पारिभाषिक शब्दों को ले लें तो वहां भी हम इस तरह के साम्य को देखते हैं। उदाहरण के लिए हिन्दी - वह दूसरे डिब्बे में है।

     पंजाबी - दूसरे डब्बे विच है।

     सिंधी - बी गाडे में आहे।

     बंगाली - ओन्नो कामरे आश्तेन ।

     उड़िया - ओन्नो डोबारे आचोन्ती।

     असमिया - तेकेत तियों ही।

     सिंहली - वेन्स कामरिया स्टिंगस।

            कम्पार्टमेंट के लिए डिब्बा और कमरा दो शब्दों का प्रयोग हुआ है और प्रचलित भाषा के रूप को अक्षुण्ण रखने का भी प्रयत्न किया गया है जहां अनियमित क्रियाशब्द होते हैं उनमें भी एक मूल की भाषाओं में हम साम्य देख सकते हैं। जैसे "कर" से निकलने वाले जितनी भी क्रियाएँ हैं, उन सबका योडे बहुत परिवर्तनों के साथ एक मूल की सभी भाषाओं में प्रयोग में लाया जाता है। यदि लिपि का भेद न हो तो साधारण ढंग से पढने पर ही अर्थ समझ में आ जाता है। उदाहरण के लिए हम यहां कुछ शब्दों को ले सकते हैं।

            1. हिन्दी - "पग", गुजराती - "पग, मराठी - पाय पंजाबी-पार, सिंघी-पेरु, उडिया-पादो, बंगाली- पा, असमिया-भोरी, सिनहली - हीसा। 

           2. हिन्दी हाथ, पंजाबी हाथ, सिंधी हथ, उडिया-हाथो, बंगाली-हाथ, असमिया-हाथ सिनहली-आत।

            बहुवचन आदि के संबंध में भी एक मूल की भाषाओं में साम्य देखा जा सकता है। कारण यह है कि भाषा का स्वाभाविक विकास होता है और परस्पर अडोस-पड़ोस में रहनेवाले अपनी विकासात्मक स्थितियों को एक-दूसरे पर अज्ञात रूप से ही आरोपित कर देते हैं। मूल भाषा जिन प्रभावों को पचा नहीं पाती है, उन प्रभावों को पचाने की आवश्यकता विकसित भाषाओं में होती है। क्योंकि कालखण्ड के अनुसार परिवर्तन आ ही जाते हैं। जब सेमिटिक परिवार की भाषाओं के शब्द भारोपिय परिवार में आये तो उनका विस्तार से प्रभाव लक्षित हुआ। उदाहरण के लिए हम "सात" शब्द को ले सकते हैं यह शब्द प्रायः इसी अर्थ में कई भारोपिय भाषाओं में प्रयोग होता है।

           उच्चारण भेद के कारण ही भाषा रूपों में अर्थ ग्रहण की जटिलताएँ पैदा होती हैं। जैसे "कल्याण" शब्द है- इसको बंगला भाषा में "कोल्लान" कहा जाता है, यद्यपि दोनों शब्दों के अर्थ रूप में परिवर्तन नहीं है। यह उच्चारण संबंधी भेद कभी स्वाभाविक होता है, और कभी जानबूझकर पैदा हो जाता है। पांच से अधिक स्वरों का व्यंजनों के साथ जानबूझकर मेल किया जाता है, ऐसा विद्वानों ने अनुमान किया है। अर्थात् कर शब्द कहीं "किर" बनता है, कहीं "कीर" कहीं "कोर" कहीं "कवर" और कहीं "कुर"।

            अनुवाद संबंधी अध्येता को भाषा विज्ञान का ज्ञान नितांत आवश्यक है। कारक में कैसे परिवर्तन होते हैं, हिन्दी के "का" "के" "की" पंजाबी में "दा" "दे" "दी" कैसे बनते हैं, बहुवचन बनाने के नियम किस तरह प्रभावित होती है और मूल शब्द के साथ बहुवचन के चिह्न कैसे परिवर्तन लाते हैं, उच्चारण भेद से किस तरह शब्द रूप बदल जाता है, भाषाएँ क्यों वियोगात्मक या संयोगात्मक हैं आदि बातें जानने से अनुवाद का क्रम अत्यंत आसान होता है।

             एक मूल भाषाओं में अनिवार्यतः समान सांस्कृतिक विरासत रहती है और जब कभी इतर का प्रवेश होता है तो अक्सर वह समान्तर होता है तथा प्रभावशालिता को हटा भी न पायेंगे आदि सत्य भी इस संदर्भ में जानने लायक है।

             जैसे भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता शीर्षक अपने लेख में डॉ. नगेंद्र कहते हैं, अनुवादक को अन्तरभाषायी परिज्ञान आवश्यक है। उसे ऐसी गोप्टियों में भाग लेना है जहाँ एक ही मूलवाले भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी मिलते हैं। भारत में ऐसे गोष्टियों की संभावना भी अधिक है। क्योंकि भाषा के आर-पार बैठे हुए भी हम सब एक ही विरासत के वारिस हैं।

     

    ( 2. भिन्न मूल की भाषाओं में अनुवाद की कठिनाइयों का परिचय दें।)                                            

     विभिन्न मूल की भाषाओं के बीच में अनुवाद

              "लीविस कैराल" का "ऐलिस इन वोन्डरलेन्ड" एक मार्के का ग्रंथ है। इसमें सारे पाठक वर्ग को शिशु रूप में परिकल्पित किया गया है। एक हद तक उचित भी है। इस कृति में एक स्थान पर "एलिस कहती है," "पर मेरे पास निगलने के लिए शब्द है, और किस चीज की ज़रूरत है" (But I have got words to swallow, what else do I need) आखिर रहीम के शब्दों में "सरग पताल" कह जानेवाली जिह्वा, शब्दों को निगलकर वास्तव में जायकेदार मिठास का एहसास किया होगा। शब्द के बारे में यास्क ने "अथातो शब्द व्याख्यास्यामः" कहते हुए उसे एक तरह से, अक्षर को, ब्रहमाण्ड पर्याय घोषित किया है ।

                आरंभ में मनुष्य शब्दों में ही अपने पूरे विचारों को अभिव्यक्त किया होगा। इसी कारण "चोम्स्की" ने लिखा है कि प्रतीकात्मक शब्दों के विकास के हज़ारों साल बाद ही क्रियाओं के लिए शब्दों का विकास हुआ होगा और इसी क्रम में और सैकड़ों साल लगे होंगे, जब सर्वनाम विकसित हुआ होगा तथा संज्ञा और क्रिया की विशेषताओं के बोधक शब्द विकसित हुए होंगे। तात्पर्य यह है कि जब हम पूरे संसार की विभिन्न भाषाओं को विचारार्थ लेते हैं तो उनमें कालगत स्थानतगत भेदों को अधिक देखेंगे ही। कुछ भाषाएं विकसित होकर, लुप्त हो गयी होंगी जैसे "एट्रस्कन" और "क्रीटी" भाषाएँ। कुछ भाषाएँ अन्यान्य कारणों से अविकसित ही रही होंगी जैसे आफ्रिका के बुशमन और बाण्टु परिवार की भाषाएं। और कुछ भाषाओं में नियमित ऐतिहासिक विकास हुआ होगा कभी धीमी चाल से और कभी तेज़ गति में। जैसे संस्कृत आदि जो विकास की चरम अवस्था तक पहुँचकर मौखिक रूप से लगभग हट गयी। जैसे चीनी आदि भाषाएँ जिनमें विकास धीरे धीरे होता है। या तमिल, तुरकी, लिथुआनियन, जार्जियन आदि भाषाएँ जिनके प्राचीन रूप प्रायः अपरिवर्तित दशा में आज भी प्रचलित हैं।

                 संसार में अनेक कुलों की भाषाएँ प्रचलित हैं। इनको हम सुविधा की दृष्टि से "यूरेशिया वर्ग" "आफ्रिका वर्ग" "एकाक्षर वर्ग" "अनिर्णित वर्ग" और "पालिनेशियन वर्ग" के रूप में विभाजित कर सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के बाद विभिन्न भाषाकुलों के बीच में आदान-प्रदान की आवश्यकता पड गयी और इस दृष्टि से अनुवाद कला का भी काफ़ी विकास लक्षित हुआ है। यहां हम भिन्न कुल भाषाओं में विद्यमान अनुवाद संबंधी समस्याओं के अध्ययन के लिए उपरोक्त कुलों की भाषओं के साथ हिन्दी की परख लेंगे। तुलना करते हुए विशेषताएं

                 यदि हम हिन्दी तथा योरप की भाषाओं में तुलना करें तो हमारे सामने कई विशेषताएं नज़र आती हैं। उदाहरण के लिए हिन्दी में हम एक पंक्ति ले लें - 

              "मैं एक तार भेजना चाहता हूँ।" इसी का हम जब हम तमिल में कहते हैं छः शब्दों के बदले में पांच शब्दों को अपनाते हैं। "नान ओरु. तंदि अनुप्प विरंबुगिरेन" यहां चाहता हूँ शब्द क्रियात्मक रूप में तमिल में एक बन जाता है, "विलंबुगरेन"। इसी को जब हम अंग्रेजी में लिखते हैं "आई वुड लाइक टु सेण्ड ए टेलिग्राम" - क्रिया के चार भाग आ जाते हैं। जब हम जर्मन में लिखते हैं "इश मोश्टे एम टेलिग्राम आफ़ जेवन" क्रिया को विभक्त होते यहाँ देखते हैं।

               दूसरे उदाहरण भी हम ले सकते हैं। हिन्दी में 'और थोडा लाइएगा" यही तमिल में चार शब्द बन जाता है - "इन्नुम कोजम कोण्डु वारुंगल" - यहां किया दो शब्दों में विभक्त हो जाती है। अंग्रेजी में "ब्रिंग सम मोर"। तीन ही शब्द हैं। पुरतगाली में 'ट्रेगेर मिज़ अहलगुमेर" - तीन शब्द है, मगर प्रायः एक शब्द के समान (ट्रेगेरमिज़ अहलगुमेर) प्रयुक्त होता है। हम अध्ययन के लिए भारत के एक प्राचीन आदिवासियों की भाषा "कोण्डा" को ले सकते हैं।

      हिन्दी में पंक्ति है- "जैसे वे जा रहे थे, उन्होंने गांव की तरफ देखा"

       कोण्डा भाषा में - "सोनसी मारकर ए, नाटो सूरतार" - यहां जैसे वे जा रहे थे,

                                दो ही शैब्दों में आ गया, और गांव की तरफ देख रहे थे - 

                                तीन शब्दों में आ गया।

           इसी भाषा में एक और भी पंक्ति ले सकते हैं। "कोवा राजा के करने में वे उसे लाये' इसके लिए कोण्डा भाषा की पंक्ति है- "कोवा रोजू पट्टणम ए ओतार" प्राचीन भाषाओं में काफी कम शब्द प्रयुक्त होते थे और भाषा की अभिव्यंजना के लिए उनमें अधिक धारणाएं समाहित की जाती थी, यह बात स्पष्ट हो जाती है। इसी तरह हम जापानी भाषा के साथ एक तुलना कर सकते हैं

            "हम से पहले जो पीढ़ी गयी है, वह आजकी वैज्ञानिक प्रगति की कल्पना भी नहीं कर सकती"- इसका जापानी पर्याय होगा- "मुकाशी नो (पुराने) हिटोविटो वा (लोग) कोनिची नो (आजका) कोनिची नो (वैज्ञानिक) शिपो बो (प्रगति) मुसो (दृष्टि) द (है) नी ( भी) देखिनकट्टा दे आरो (नकारात्मक शब्द - अंग्रेजी के could not का पर्याय)। यहाँ हम देख सकते हैं कि कुछ शब्दों के लिए व्याख्यात्मक प्रतिस्थापन है, तथा नकारात्मक शब्द आदि को अंत में लाया गया है। "मूसोसुरू' शब्द से "सुरु" को हटाकर “मूसो" शब्द को लिया गया है जो स्वप्न का पर्याय है, बल्कि यहां दृश्य के रूप में प्रयुक्त है। क्रिया विशेषण का प्रयोग भी इस रूप से है कि वह विशेषणात्मक भी है। जैसे हिन्दी में हम "अच्छा" शब्द का प्रयोग करते हैं। जब हम जापानी भाषा से हिन्दी में अनुवाद करते हैं तो हमारे सामने इस तरह शब्द प्रतिस्थापन की समस्या पैदा होती है। हम उपरोक्त "भूसो" के बदले में "सुरु" शब्द का प्रयोग करके गलत अर्थ को स्थापित कर देंगे। इसी तरह "देखिनकट्टादे आरों" के बदले में "देखिरु" शब्द का प्रयोग करके उल्टा अर्थ भी स्थापित कर सकते हैं ।

              इसी क्रम में एकाक्षर परिवार की चीनी भाषा और हिन्दी के बीच में अनुवाद की समस्या को भी हम ले सकते हैं चीनी भाषा में शब्द अधिकतर स्थान प्रधान होते हैं और कुछ ऐसे प्रयोग होते हैं जिनका अन्य भाषा में अर्थ विचित्र सा लगता है। उदाहरण के लिए "आप किस देश के हैं?" - के लिए चीनी वाक्य होगा, "शीन शेंग कुई को" जिसका शब्दार्थ है" आप किस सम्माननीय राष्ट्र के सम्माननीय सज्जन है?" - यहाँ सम्माननीय शब्द क्रिया और संज्ञा दोनों शब्दों के साथ जुड़ गया है और अनुवाद करते समय ऐसी नम्रता सूचक शब्दों का अवरोधात्मक स्थितियां पैदा हो सकती हैं। ऊपरोक्त पंक्ति के लिए उत्तर में यदि हम कहें, "मैं भारत देश का वासी हूँ" तो कहना पडेगा '"पी खुओ ढंग कुओ" - जिसका मतलब होगा "मेरे विनयशील देश का नाम भारत है" (ढंग का मतलब भारत है)। चीनी भाषा में प्रायः सभी शब्द चाहे वह संज्ञा हो अनुवाद योग्य हो या अनुवाद के लायक न हो, किसी न किसी तरह उन्हीं के अक्षरों के परिवर्तित रूप में प्रस्तुत होते हैं। हमारे प्रधान मंत्री "जवाहरलाल नेहरू" का नाम उनकी भाषा में परिवर्तित होकर "नहर के पास रहनेवाला हीरा जवाहरात" बन जाता है। बुद्ध के पिता का नाम "शुद्धोधन" चीनी में "अच्छा चावल बन जाता है। यह उस भाषा की प्रकृति है और काफी अध्ययन के बाद ही हम समझ पाते हैं कि किस तरह से शब्द रूपों का अनुवाद होता है।

          इसी तरह हम प्रशांत महासागरीय खण्ड की बहाशा (भाषा) मलेशिया या मलय भाषा को ले सकते हैं यह भाषा पूरे मलेशिया में थोडे परिवर्तनों के साथ लिखी जाती हैं। इस भाषा की दो लिपियां हैं - "जावी और रूमी" जावी शब्द अंग्रेजी के "जू" (सेमेटिक) से बना है और यह लिपि अरबी लिपि का ही एक रूप है। "रूमी लिपि रोमन या अंग्रेजी अक्षरावली है। इस भाषा का रूप मूलतः इण्डोनेशिया की भाषा तथा प्रशांत महासागरीय भाषाओं से मिलती जुलती है। अनुवाद करते समय इसमें कई समस्याएं पैदा होती हैं। मगर उच्चतर साहित्य के संदर्भ में ही उदाहरण के लिए जब एक सामान्य पंक्ति लेते हैं

       हिन्दी में - "वे दो नदियां एक ही लंबाई की है"

       मलय भाषा में - "सुंगाई दुआ बुआ इतु सम पंजांग"

           यहां हम दुआ, सम, पंजांग आदि शब्दों को ले सकते हैं, पंजांग शब्द लंबाई के लिए हैं जो संस्कृत मूल (पंच अंग) का है। सम शब्द भी संस्कृत मूल का है। एक दूसरे उदाहरण भी हम देख सकते हैं।

          हिन्दी में - "शेर हाथी से बलशाली है"

        मलय भाषा में - "हरिमाऊ लेबि कुआत दरिपदा गज"

            हरि और गज शब्द में शेर और हाथी को आसानी से पहचान सकते हैं। मलय भाषा में अति सरलता से अनुवाद की क्षमता संस्कृत मूल के शब्दों के कारण है। और अप्रचलित संस्कृत मूल के शब्द भी मलय कोश में पाये जाते हैं, जैसे "नरतुंग" "नरसिंह" "कर्णव्यापी" "पलकांग" आदि।

             अंत में हम स्वाहिली भाषा को ले सकते हैं स्वाहिली भाषा एक प्रकार से पूरे दक्षिण आफ्रिका में राजभाषा के रूप में प्रचलित है। इसमें स्वरानुरूपता, ध्रुवाभिमुखता आदि विशेषताएँ पायी जाती हैं। कभी-कभी स्वरहीन व्यंजनसामीप्य के कारण उच्चारण संबंधी कठिनाइयां हैं और एक से अधिक शब्दों के प्रयोग द्वारा अर्थ को सुस्थिर करने की व्यवस्था भी है। इन कारणों से यह भाषा कभी सरल है और कभी काफी कठिन है। उदाहरण के लिए हम निम्नलिखित पंक्तियों को ले सकते हैं। "मैं नैराबी बुलाना चाहता हूँ।" इसके लिए स्वाहिली भाषा की पंक्ति होगी, "नाटका कुपिकासिमु नैरोबी" - यहां कुपिका शब्द क्रिया है जिसका द्वाविड भाषा के साथ ध्वनि साम्य (कूप्पिडु) स्पष्ट है । इसी तरह - "मुख्य डाक घर कहां है?" के लिए इस भाषा का वाक्य होगा - "कोस्टा कुबवा इको वापि" - इसका जवाब होगा "वह शहर में है" - "कोस्टा कुबवा इको मिजिनी"। हम यहां एक बात देखते हैं। 'वह' (सर्वनाम) के बदले में "मुख्य डाक घर" (कोस्टा कुबवा) शब्द का ही प्रयोग हुआ है। अर्थात् "वह" जैसे "निश्चित सर्वनाम" का प्रयोग नहीं होता।

             शब्द मनुष्य की चेतना के समान संक्रामक प्रकृति के हैं। वे बराबर परित्नाजन करते हैं। उनका यानान्तरण (Transhipment) होता है। भिन्न मूल की भाषाओं में यह कठिनाइयां रहती हैं कि कभी-कभी क्रिया शब्द लुप्त रहता है जैसे तमिल भाषा में। या किया विशेषण और क्रिया मिला रहता है जैसे स्वाहिली, पुर्तगाली आदि में। नई विशिष्ट अभिव्यक्तियां पुरानी अभिव्यक्तियों के साथ मिल जाती है- जैसे मलय बहाशा (भाषा) में छोटे और बड़े के भेद के लिए अजगजांतर (बकरी और हाथी के बीच का भेद) "सेवसर्व" तुरकी में (जिसका मतलब है गुलामी करना) - लगता है भारोपिय परिवार की "सेवा" शब्द और "सर्वीस" मिलकर यह शब्द "सेवसर्व" बना है भिन्न मूल की भाषाओं में हम एकाक्षर जैसे परिवार की भाषाओं के साथ शब्दाधिक्य का प्रयोग तथा प्रयम पुरुष, अन्य पुरुष भेद आदि देखते है। इस संबंध में अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक |"यर्नस्ट ब्रमा" (Emest Bramahi) द्वारा लिखित "Kailong unroll is his mat पढ़ सकते हैं जिसमें चीनी भाषा की शैली में अंग्रेजी लेखन के अनेकानेक नमूने हैं।

             जब अनुवादक क्रिया पदों से अच्छी तरह परिचित हो जाता है, तथा भाषागत विशेषताएँ उसकी समझ में आ जाती है तो भिन्न मूल की भाषाओं में अनुवाद का क्रम भी सहज हो जाता है। भाषा न केवल शब्दमय संसार है, वह किसी संस्कृति का प्रतिबिंब है। यदि हमारे समक्ष उन भाषाओं के उदाहरण चलचित्र या दूरदर्शन के कार्यक्रमों अथवा विज्ञापनों द्वारा (यहां सुजुकी का विज्ञापन जो अंग्रेज़ी जापानी रूप में है, का उदाहरण लो सकते हैं) देखने पर, और उसपर प्रयुक्त शब्दों को ध्यान से सुनने पर अथवा अक्सर दूर दर्शन में विभिन्न भाषाओं के जो चलचित्र आते हैं उनमें सबटाइटलों पर ध्यान देते हुए शब्दोच्चारण पर भी ध्यान दें और अवसर मिलने पर विदेशियों के साथ उनकी भाषा को जानने की उत्सुकता प्रकट करने पर हमारे अनुवाद का, खास करके शब्द रूपों को समझने की क्षमता का विकास हो सकता है।

                          

      (  3. कम्प्यूटर द्वारा अनुवाद की सीमाएँ हैं सिद्ध कीजिए ।

                                          या

             कम्प्यूटर अनुवाद' में कहाँ तक हम सफल हुए हैं  )                                            

     मशीन और कम्प्यूटर अनुवाद

                मानव मन किसी मशीन या कम्प्यूटर से कम नहीं है। वह निरायास ही आदेशों को परिपालित करते हुए अर्थों को ग्रहण कर लेता है और प्रक्रियाओं में प्रवृत्त हो जाता है। मनुष्य ने जो भाषा बनायी वह भी उसके सारे प्रतीकों को कभी समग्र रूप में, कभी इकाइयों के रूप में, प्रयोजनशील सामग्री के रूप में परिणत कर देता है। भाषा को शारीरिक संकेतों और इंगितों से अलग एक अस्तित्व प्रदान करने में मनुष्य सफल हुआ है। उसने जो विभिन्न अर्थ बोधक शब्द बनाये, उनके पीछे नियम है, यद्यपि नियमों को समझने के लिए आवश्यक पूर्ववृत्त और सामग्री हमारे पास नहीं है। यदि मनुष्य का मन विभिन्न जटिलताओं को सहज एवं सरल बना सकता है तो विभिन्न भाषा प्रयोग एवं प्रतीकों को भी सहज बना सकता है।

                     किसी भाषा के कई शब्दों को हम समान अनुभूतियों में अन्य भाषा में अनूदित कर सकते हैं। जर्मन भाषा में जब कोई किसी से मिलता है, तो "गुटन टैग" (Guten tag) कहता है, जिसको अंग्रेजी में अनुदित करने पर मात्र "हेलो" (Hello) का प्रयोग करता है। यदि किसी अंग्रेज से आप "गुटन टैग" को अनुवाद करके "गुड डे" (Good day) कहेंगे तो उसे विचित्र लगेगा । कोई जापानी मिलकर जाते समय "सायोनारा" कहता है, जिसका मतलब है, 'ऐसा होना है क्या? अंग्रेज़ को अपना "गुड बाई" अधिक पसंद रहेगा मशीनीकरण द्वारा अनुवाद में ऐसे थोक शब्द खण्डों को अनुवाद के लिए आसानी से लिया जा सकता है। जब . हम साहित्यिक कृतियों को पढ़ते हैं, तो उनमें आम स्थितियों हमारी समझ में आ जाती है और हम एक समानता भी देखते हैं इस समानता को भिन्न-भिन्न पद बंधों द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है, यदि अंग्रेजी में A Single Swallow does not a Summer make है, तो उसके लिए मशीन में हिन्दी पदबंध "अकेला चना भाड नहीं फोड सकता" लगा सकते हैं। 

                 मशीनी अनुवाद इस आधार पर या या कहे इस अनुमान पर चलता है कि भाषाओं के व्याकरण और कोश को इस तरह निर्दिष्ट किया जा सकता है। यदि हम भाषा को शब्दों का सिलसिला ही समझ लें तो उसमें अनुवाद का कोई जटिल प्रश्न पैदा नहीं होता मगर ऐसा सरल अनुमान भाषा की गंभीरता के प्रति अन्याय हो जाएगा। उदाहरण के लिए हम एक सरल जर्मन पंक्ति को ले लें - Diese Kurze gemeinsane ueberlegung ist eine Art Experiment mit uns Selbst gewesen - स्थिति के साथ यहाँ हमारी समस्या पैदा होती है। जहाँ अनुवाद होगा This short joint reflection has been a kind of experiment with ourselves TET अनुबाद होना चाहिए, Has a kind of joint experiment with ourselves been's अंग्रेजी व्याकरण में 'go' एक क्रिया है। कई वाक्यों में उसके भिन्न-भिन्न अर्थ है। जैसे He is going to town', He is going home, He had to go, He is going to speak, He is going steady - इन सबमें अलग-अलग अर्थ है। अतः इसके लिए मशीनी अनुवाद सही प्रतिदिन को स्थापित कर पाएगा क्या? यही बात हम हिन्दी के कई सहायक क्रियाओं के साथ भी देख सकते हैं। जैसे - लग या सक। जहाँ क्रियाएँ मुहावरों का काम करने लगती है, वहाँ मशीनी अनुवाद और भी जटिल हो जाता है। उदाहरण के लिए हम, हिन्दी में "साथ हो लिए को ले सकते हैं, जहां होना और लेना दोनों का सम्मिलित रूप चलने के अर्थ में निकलता है।

                  भाषा को अलग-अलग खण्डों में विभाजित करके ही मशीनों में अनुवाद किया जाता है। उदाहरण के लिए हम कम्प्यूटर के सामने हिन्दी भाषा का एक वाक्य देते हैं - "न जाना हमने कि जानना भी न जानने से कम नहीं " - तां इसका कोई स्पष्ट अर्थ एकदम समझ में नहीं आता है। कम्प्यूटर में प्रोग्राम में विश्लेषित करना पडेगा। 'Noun Phrase' 'Verb phrase' आदि को स्थापित करना पड़ेगा। ऐसी अवस्था में जब इसका अनुवाद अंग्रेजी में प्रस्तुत किया जाता है तो अर्थ निकलेगा - Don't we know that knowing is not knowing' अंग्रेजी में एक पंक्ति है - She drove in to the Bank' - यहाँ यह पता नहीं चलता कि वह बैंक में पैसा लेने गयी या उसकी मोटर गाडी बैंक के दरवाजे से टकरा गरयी मशीन अनुवाद को बिलकुल ईमानदार होना चाहिए। वह उलझे हुए ख्यालों में उलझ नहीं सकता। उसे ईमानदारी से स्पष्ट बोधवाले अर्थों को ही लेना पडेगा।

            भाषा रूपों पर कम्प्यूटर आधारित अध्ययनों से कई बातें हमें मालूम होती हैं। 1956 में बार्शिग्टन में रूपात्मक और वाक्यात्मक आधार पर कम्प्यूटर के लिए भाषात्मक विश्लेषण प्रारंभ किया गया विक्टर इंगेव (Victor Yngue) ने कोमिट (Comit) नामक भाषात्मक प्रोग्राम शुरू किया जिसमें ग्रीक, रूसी, जर्मन, फ्रांसीसी और अंग्रेजी के बीच में अनुवाद के लिए "साफट वेअर" तैयार किया गया। मगर "पदबंध संरचना" आदि की जटिलताओं के कारण, वाक्य निर्माण सरलता से संभव नहीं हो सका और अनेक उदाहरण ऐसे आये जहाँ Snow' के लिए Tundra', 'Summer' के लिए Tropic, equator के लिए Imaginary belt आदि स्वरूप निकले। मशीन अनुवाद के अंतर्गत बडे आकार के कोशों को कम्प्यूटर रूप में लाने के प्रयास भी किये गये। आई.बी.एम. कार्पोरेशन ने रसायन, भौतिकी, जैविकी, और समाज विज्ञान के एक लाख पचास हज़ार इंदराज के साथ एक द्विभाषी रूसी-अंग्रेजी कोश कम्प्यूटर द्वारा तैयार किया, जिसका प्रयोग यू.एस. ऐयरफोर्स कर रहा है। मगर यहाँ भी दोनों भाषाओं में बुनियादी ज्ञान आवश्यक है। इसी तरह "मेग्राहिल" कम्पेनी ने 2,40,000 इंदराज के साथ एक चीनी - अंग्रेजी कोश कम्प्यूटरीकृत रूप में तैयार किया है, जिसका भी प्रयोजन तभी संभव है, जब थोड़ा बहुत भाषा ज्ञान रहता है। फिलहाल दो ही ऐसी प्रणालियाँ हैं जो पूरी तरह कम्प्यूटरीकृत अनुवाद प्रस्तुत कर सकते हैं। इस संबंध में कार्यचालन के बारे में भी जानना आवश्यक है। कम्प्यूटर के

               गणनाएँ करने के लिए प्रयोग में लानेवाली प्रथम कम्प्यूटरनुमा उपकरण "एबकस" था। यह एक लकड़ी का फ्रेम था, जिसमें लोहे की छडे लगे रहती थी और छेद वाले गोल दाने लगे थे। इसे ऊपर-नीचे, भिन्न-भिन्न रंगों में लटकाया जाता था, दोनों पार्श्व में खिसकाकर गणना किया जाता था। तारों की कुल संख्या दस थी, जिसमें शून्य से नो तक के अंकों का प्रयोग किया जाता था। "एचकस" में जोहने या घटाने की क्रियाएं की जा सकती है।


स्काटिश गणितज्ञ जान नेपियर ने 1617 में कुछ छडों का आविष्कार किया जिन्हें नेपियर बोन्स कहते हैं। जान नेपियर ने लघु गणक (लागरियमस) का भी. आविष्कार किया था। इसके बाद स्लाइड रूल का आविष्कार हुआ। स्लाइड रूल के आविष्का है "विल्लियम आटरिड"। आपने ही गुणन चिह्न "X" का आविष्कार किया था। स्लाइड रूल दो चलनेवाले पेमानो का बना होता है, जो एक दूसरे के पास रखे जाते हैं और जिन्नों आसानी से इधर-उधर खिसकाया जा सकता है। इन पैमानों को इधर-उधर खिसकाने से गुणभाग आसानी और शीघ्रता से मिल जाते हैं सन् 1642 में फ्रांस के भौतिक शास्त्री और गणितज्ञ ब्लेस पैसकल ने यांचिक गणना मशीन की खोज की। साधारण तरीके से यह बनी थी, इस मशीन में गियर, व्हीलस, और डायल्स लगे हुए थे एक पूरे चक्कर के लिए पहिए का एक हिस्सा घूमता था और आगे-पीछे धुमाकर इस मशीन से जोड़ने और घटाने का काम किया जाता था। आज भी हमारे परंपरागत बिजली के मीटर, टैक्सी और आटो रिक्शा के मीटर इसी पद्धति का प्रयोग करते हैं । 1823 में केंब्रिज विश्वविद्यालय में एक यांत्रिक कम्प्यूटर बनाया गया जिसका नाम "डिफरेन्शियल इंजिन" था। इसे कम्प्यूटर के इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। गणित में कुछ ऐसे सूत्र हैं जिनके मूल्यों का अंतर स्थिर रहता है। इसी सिद्धांत पर डिफरेन्शियन इंजिन आधारित है। इसी मशीन के विकासक्रम में 'इनपुट" "डाटा डिवाइस" "गणना यूनिट" और "घिटिंग यूनिट" आदि का विकास हुआ।

               कम्प्यूटरों को हम पांच पीढ़ियों में बांटते हैं। पहली पीढ़ी के कम्प्यूटरों में "इनियक" (Eniac) का विशेष स्थान है। अमेरिका में रक्षा संबंधी आवश्यकताओं के लिए इसका विकास किया गया। प्रथम पीढ़ी के कम्प्यूटरों में "वैक्यूम ट्यूब" का प्रयोग किया गया। भण्डारण के लिए इलेक्ट्रानिक ट्यूब या मेक्क्ूरी ट्यूब का प्रयोग होते रहे। इनमें तीव्र गति नहीं थी। बिजली का काफी खर्च होता था और ठंडा रखने के लिए वातानुकूलन की आवश्यकता थी। कम्प्यूटर की दूसरी पीढी में वैक्यूम ट्यूब के स्थान पर "ट्रान्सिस्टरों" का प्रयोग होने लगा 1948 में विलियम शोक्ली, जान बर्डन तथा वाल्टर ब्रटन ने ट्रान्सिस्टर का आविष्कार किया। ट्रांसिस्टरों का निर्माण "सिलिकान" तथा "जमानियम" जैसे अर्धचालकों से किया गया था। इस तरह दूसरी पीढ़ी के कम्प्यूटर आकार में छोटे होने लगे और बिजली के खर्च भी कम हो गयी। गलती होने की संभावना भी कम हो गयी

                  तीसरी पीढी की कम्प्यूटरों में "इन्टग्रेटट सर्किटों" का प्रयोग किया गया। इससे घटकों (components) को जोड़ने की ज़रूरत कम हो गयी प्रथम पीढी की तुलना में यह कम्यूटर हज़ार गुणा अधिक तीव्र थे। और गणित की कोई भी क्रिया को एक नोना सेकण्ड (1/100 Second-Nano second) में करने की क्षमता इनमें थी। इसी अवधि में "सिलिकान" चिप का आरंभ हुआ और मिनी कम्प्यूटर विकसित होने लगा।

                कम्प्यूटरों की चौथी पीढ़ी 1971 में प्रारंभ हुई, जब माइक्रो प्रोससेर का विकास हुआ। तीसरी पीढ़ी के कम्प्यूटरों की तुलना में चौधी पीढ़ी के कम्प्यूटरों के "डाटा प्रासरों" की क्षमता अधिक थी। "आप्टिकल रीडर" आडियो रेस्पांस टर्मिनल" "ग्राफिक डिस्प्ले टर्मिनल" आदि इस पीढ़ी की विशेषताएँ हैं।

                पांचवी पीढ़ी के कम्प्यूटर स्वयं की बुद्धि और सोचने की क्षमता के रूप में कृत्रिम बुद्धिमता पैदा कर लेगा। अपने आप प्रोग्राम बनाने, यंत्र मानवों का नियंत्रण करने आदि की क्षमता इसमें उत्पन्न हो जाएगी। इन कम्प्यूटरों में प्रयोग किये जानेवाले एक "चिप" करोड़ ट्रांसिस्टर के बराबर है। अर्थात् हमारी बुद्धि की तरह प्रति सेकण्ड अनगिनत निर्देशों को पालन कर सकता है।

                  कम्प्यूटर में हमारे मस्तिष्क में उठनेवाली समस्याओं को हम "की बोई" के ज़रिए इनपुट के रूप में पहुंचाते हैं, जिसके लिए आवश्यक निर्देश कम्प्यूटर मांगा है और हम निर्देश देते हैं। निर्देश के अनुसार अपने भीतर प्राप्य सामग्री में चुंबकीय कोर द्वारा कम्प्यूटर उत्तर तलाश कर लेता है और तुरन्त उसे प्रदर्शित करता है। यदि हमें इस प्रदर्शन के अलावा अन्य कोई निर्देश देना हो. वह निर्देश भी चिप के जरिए अंतरित होता है। भोतर प्राप्य सामग्री से जो अधिकतर साफट बेअर के जरिए निहित रहता है। कम्प्यूटर आदेशों का पालन करता है। जब हम विभिन्न प्रकार के हमारे मस्तिष्क के आदेशों के लिए आवश्यक उत्तरों को कम्प्यूटर के भीतर पहुंचा देते हैं तो हमारे मस्तिष्क के कोशों के समान ही साधारण स्वीकार, तिरस्कार आधार पर कम्प्यूटर काम करने लग जाता है। 

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अनुवाद सिद्धांत -3 /अनुवाद कला है या विज्ञान ?

 

                                  अनुवाद सिद्धांत 


     अनुवाद कला है या विज्ञान ?

                अनुवाद की प्रकृति के बारे में विद्वान एकमत नहीं हैं कोई इसे कला मानते हैं, तो कोई विज्ञान और कुछ विद्वान तो इसे मात्र कौशल मानते हैं । विद्वानों के इस मतभेद का मुख्य कारण है - अनुवाद के क्षेत्र की व्यापकता और उसमें अपनाई जानेवाली प्रक्रिया की विविधता। इसमें मुल सामग्री के रूप में एक ओर यदि साहित्य जैसी सर्जनात्मक सामग्री ली जा सकती है तो दूसरी ओर विज्ञान की तर्कसिद्ध और प्रमाणित सामग्री भी हो सकती है। इस प्रकार अनुवाद का क्षेत्र बहुत व्यापक और वैविध्यपूर्ण है। अनुवाद की प्रक्रिया भी संश्लिष्ट और जटिल है। अतः इस प्रक्रिया की विवेचना करते समय सावधानी बरतने की और भाषा के आधारभूत सिद्धान्तों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं: 

     1. भाषा के आधारभूत सिद्धान्त

             1.1 भाषा एक संस्थानात्मक व्यवस्था है। भाषा की संरचना के कुछ पक्ष तो ऐसे है जो सभी भाषाओं में समान रूप से मिलते हैं, पर कुछ पक्ष प्रत्येक भाषा के अपने विशिष्ट होते हैं। उदाहरण के लिए निम्नलिखित काव्य पंक्तियाँ देखिए :- 

                             प्यार की गुफ्तगू यो बढ़ने लगी 

                             आप से तुम, तुम से तू होने लगी।

             दूसरी पंक्ति में आप, तुम और तु तीन सर्वनामों का प्रयोग हुआ है। तीनों मध्यम पुरुष, एकवचन में हैं। यदि इनका अंग्रेजी में अनुवाद करना हो तो कैसे करेंगे क्योंकि अंग्रेजी में इसके लिए केवल एक सर्वनाम है यू (you); या संस्कृत में अनुवाद करना हो तो वहाँ केवल दो है भवान् और त्वम्। यह इन भाषाओं की अपनी-अपनी विशेषताओं का केवल एक उदाहरण है। विशेषताओं के आयाम अनेक होते हैं। वाक्य रचना की दृष्टि से देखें तो हिन्दी में शब्दों का क्रम कर्ता, कर्म + क्रिया के रूप में होता है, जबकि अंग्रेजी में कर्ता + क्रिया + कर्म की व्यवस्था है। संस्कृत में इस विषय में अनेक विकल्प उपलब्ध हैं। वहाँ उपर्युक्त दोनों व्यवस्थाएँ भी संभव हैं तथा अन्य अनेक भी बाक्य रचना की इस विशेषता के कारण अभिव्यक्ति में जो अंतर आता है, उसे हर सजग अनुवादक अनुभव करता है। इसीलिए यह कहा जाता है कि भाषा व्यवस्था के जो पक्ष सभी भाषाओं में मिलते हैं और इसलिए जिन्हें सार्वभौमिक जा सकता है, उनका अन्तरण सो अनुवाद की प्रक्रिया में संभव है, पर भाषा विशेष की जो अपनी संरचनागत विशेषताएं होती हैं, अनुवाद की प्रक्रिया में अनुवादक को उनसे जूझना ही पड़ता है।

           1.2   भाषा का एक आधारभूत सिद्धान्त यह भी है कि भाषिक प्रतीक में संकेतक (sign) और संकेतित वस्तु (referrent) के बीच सम्बन्ध तो अभिन्न होता है पर यह संबंध परम्परागत और समाजसापेक्षा होता है। संकेतार्थ के निर्माण में केवल बाह्य जगत की वस्तुओं का योगदान नहीं होता, बल्कि प्रयोगकर्ता के जातीय इतिहास, उसकी सभ्यता एवं संस्कृति का भी योगदान रहता है। इसीलिए संकेतक और संकेतित वस्तु के सम्बन्ध की प्रकृति यादृच्छिक एवं स्ट़ कही जाती है। प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास का शीर्षक है "गोदान"। संकेतक और संकेतित वस्तु के बीच जो अभिन्न संबंध है, उस दृष्टि से तो गोदान का शाब्दिक अर्थ हुआ गाय का दान; पर इस संबंध की जिस विशेषता का ऊपर उल्लेख किया गया है, उस परम्परागत एवं समाज सापेक्ष दृष्टि से विचार करें तो इसके अर्थ में उस हिन्दू समाज की मान्यताओं का समावेश अनिवार्य हो जाता है जो पुराणों पर आस्था रखता है और उन्हें अपना धर्मग्रंथ मानता है। उसे समाविष्ट करने के बाद "गोदान" के अर्थ में गाय के दान से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है वह अवसर जब गोदान किया जाता है, वह विधि जिस तरह गोदान किया जाता है, और वह प्रयोजन जिसकी सिद्धि के लिए गोदान किया जाता है। प्रेमचन्द की ही एक कहानी का शीर्षक है - "बाबाजी का भोग।" वास्तविकता यह है कि “बाबाजी" और "भोग" का सही अनुवाद अंग्रेजी में संभव नहीं। इसीलिए जिन लोगों ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद करने की कोशिश की उन्हें ऐसे शब्दों से काम चलाना पड़ा जिनसे पूरा सन्तोष नहीं होता। नन्दिनी नोपानी एवं पी. लाल ने अपने अनुवाद में इसे "बाबाजी ही लिखा जो अंग्रेजी भाषी के लिए अबूझ पहेली है, और डेविड रूबिन ने Holyman लिखा जो हिन्दीभाषी क्षेत्रों में प्रचलित बाबाजी की संकल्पना से परिचित व्यक्ति को, विशेष रूप से इस कहानी के सन्दर्भ में सन्तुष्ट नहीं करता। "भोग" के लिए दोनों ही अनुवादकों ने fcast का प्रयोग किया है जिसमें "भोग" का व्यंजनागत अर्थ नहीं आ सका है। इन उदाहरणों से यह वास्तविकता पता चल रही है कि संकेतक और संकेतित वस्तु के बीच जो परम्परागत और समाज सापका संबंध है, अ दूसरी भागा में ककरने की कठिनाइयों का सामना अनुमादा बारा रहा है। अनुमाद रे गमग दो मिश्र भाषाभाषी समाजों के सामाजिक र सास्कृतिक पक्षों का ऐसा ही दवाय अनुवादक पर होता है।

              1.3 भाषा संबंधी एक तीसरा सिद्धान्त भी न ने योग्य ही और बह यह कि बाह्य पदार्थ एवं भाषिक यषार्थ में अंतर होता है। क्योंकि भाषा केवल बाहरी गस्तुओं को संकेतित नहीं करती, यह हमारे भाव-बोध का माधन भी है। यो तो भागा बाहरी जगत और हमारे भावजगत के बीच एक पुल का काम करती है, पर गुणात्मक स्तर पर बाहरी जगत की संकेतित बस्तु, और भाषिक प्रतीक के रूप में प्रयोग किया जानेवाला संकेतार्थ एक दूसरे से भिन्न होता है। उदाहरण के लिए दो वाक्य देखें : 1. पेड़ से पत्ता गिरा; 2. बचे को पकड़ो. नही तो वह गिरा। दोनों वाक्या में "गिरा" का प्रयोग हुआ है जो "भाषिक यधार (यहाँ व्याकरण) की दृष्टि से "गिरना" किया का भूतनाल का सा है, पर उपयुक्त दूसरे वाक्य में यह माद "बाहरी यथार्थ" रूप में भूतकाल की ओर नहीं, भविष्य की ओर संकेत कर रहा है। व्याकरणिक कोटियों जिस लिंग, वचन, काल आदि की ओर संकेत करती हैं, वें भीतिक जगत के स्वीकृत तव्यों से भिन्न होती हैं। भौतिक जगत का लिग (सेक्स) व्याकरणिक नगत का लिंग (जेंडर) नहीं होता। तभी तो हम निर्जीव पदार्थों को मंकेतित करने बाले शब्दों का प्रयोग भी पुल्लिंग या स्वीलिंग के रूप में करते हैं, जैसे कुर्मी ट्टी है। यद्यपि कुर्सी निर्जीव वस्तु है, पर इस वाक्य में उसका प्रयोग स्वीलिंग में हुआ है। भाषा संबंधी इन आधारभूत मिद्घान्तों के परिप्रेष्ष्य में, आइए अब विचार करें कि अनुवाद को कला या विज्ञान मानने के आधार क्या है।


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           2. अनुवाद : कला के रूप में

              जो विद्वान अनुवाद को कला मानते हैं उनका कहना है कि स्रोतभाषा का मूलपाठ और लक्ष्य भाषा का अनूदित पाठ पूर्णरूप से समरूप (identical) नहीं होता, वह समतुल्य (equivalent) होता है। कारण है हर भाषा की भिन्न प्रकृति, जिसकी चर्चा भाषा के आधारभूत सिद्धान्तों के अन्तर्गत ऊपर की जा चुकी है एक उदाहरण लें। अंग्रेजी के वाक्य Ram saw her का हिन्दी अनुवाद होगा "राम ने उसे देखा। अनुवाद सही अवश्य है, पर समरूप नहीं, समतुल्य है क्योंकि एक तो वाक्य संरचना के स्तर पर शब्दक्रम बदल गया। अंग्रेजी वाक्य में शब्दक्रम था संज्ञा + क्रिया + सर्वनाम, जो हिन्दी में संज्ञा + सर्वनाम + क्रिया हो गया है। दूसरे, अंग्रेजी वाक्य में सर्वनाम के द्वारा लिंगभेद भी व्यक्त हो रहा है, पर हिन्दी वाक्य में नहीं। और भी अन्तर हो सकते हैं। जैसे, हिन्दी वाक्य में "उसे" का प्रयोग हुआ है जिससे ध्वनित होता है कि वह दूरवर्ती है, निकटवर्ती नहीं, वरना "इसे" का प्रयोग होता। इस प्रकार अनूदित हिन्दी वाक्य में एक अतिरिक्त अर्थ आ गया जो अंग्रेजी वाक्य में है ही नहीं। इसके बावजूद, यदि अनुवाद सही लग रहा है तो समतुल्यता के ही आधार पर। समतुल्यता में स्थिति के सन्दर्भ में कुछ ही तत्वों में साम्य होता है, सभी तत्वों में नही। किन्हीं दो भाषाओं के विभिन्न शब्दों की जो समानता सतही ढंग पर दिखाई देती है, यह भाषायी बोध और अर्थक्षेत्र के सन्दर्भ में समान नहीं होती। अतः एक भाषा की संकल्पना को जब दूसरी भाषा में अन्तरित किया जाता है, तब उसमें या तो कुछ न कुछ जुड़ता है, या कुछ छूट जाता है, या फिर कुछ बदल जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि अनुवाद समरूप न होकर समतुल्य रह जाता है। अनुवादक इसी समतुल्यता की खोज करता है और इस प्रक्रिया में उसे प्रायः पुनःसृजन करना पड़ता है। इसीलिए अनुवादक से यह अपेक्षित है कि उसे लक्ष्यभाषा एवं स्त्रोतभाषा दोनों का गांत्रिक ज्ञान नहीं, सहानुभूति, अन्तर्दर्शन और सजगता से युक्त ज्ञान हो। उनकी संरचनागत विशिष्टताओं और संस्कारगत सूक्ष्मताओं में उसकी गहरी पैठ हो क्योंकि अनुवाद किसी भाषा की एकनिष्ठ (monoistic) रचना नहीं होती। उसमें तो दो भाषाओं के संस्कार और संरचनाएं घुलमिल कर संश्लिष्ट रूप ग्रहण कर लेती हैं। 

              अनुवाद करते समय उसमें एक और तो स्त्रोतभाषा के मूलपाठ का संप्रेष्य कथ्य एवं कलात्मक बुनावट अपना दबाव डालती है तो दूसरी ओर लक्ष्य भाषा की अपनी सम्पूर्ण प्रतीक व्यवस्था तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्कार अनूदित पाठ को अपना रूप-रंग प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए संस्कृत के कुछ बाक्य और उनके हिन्दी अनुवाद देखिए। संस्कृत का उदाहरण इसलिए दिया जा रहा है क्योंकि प्रकृति की दृष्टि से अंग्रेजी की तुलना में संस्कृत, हिन्दी के ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाओं, के भी अधिक निकट है। अतः संस्कृत के इन वाक्यों का अन्य भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद करके देखा जा सकता है कि अनुवादक को अपनी भाषा की प्रतीक व्यवस्था और सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्कारों के अनुरूप रूप-रंग प्रदान करने के लिए क्या-क्या प्रयास करना पड़ रहा है।

    1.  किं स्थानं निर्मक्षिका कृतं भवतः ।

         क. आप कहाँ से आए हैं ?

          ख .आप कहाँ से पधारे हैं ?

      2. सकल बचनानामविषयं तत्थानम्।

          क. उस स्थान का वर्णन नहीं किया जा सकता।

          ख. उस स्थान का वर्णन संभव नहीं।

           ग .उस स्थान का वर्णन वारने में वाणी/लखानी असमर्थ है।

      3. अर्थचन्द्रं दत्वा निष्कासितः

           क. हाथ से गरदन पकड़ कर बाहर निकाल दिया।

           ख. गरदनिया देकर घकिया दिया।

            इस प्रकार अनूदित पाठ का निर्माण स्रोतभाषा तथा लक्ष्य भाषा के सर्जनात्मक संयोग से होता है और यह काम वही कर सकता है जिसमें कलाकार की प्रतिभा हो।

            अनुवाद को कला मानने वाले विद्वानों के समझ सन्दर्भ के लिए सामान्यतया साहित्य की अनूदित सामग्री होती है। साहित्य के बारे में विद्वानों का मानना है कि उसका ऋथ्य तो देश और काल की सीमा से परे अर्थात शाश्वत होता है और वह भाषा की परिधि से भी बाहर होता है; पर उस कृति की अलौकिकता एवं विशिष्टता अभिव्यक्ति में होती है जो पूरी तरह भाषा से बंधी होती है। अनुवाद में उसकी विशिष्टता प्रायः नष्ट हो जाती है। इसे लक्ष्य भाषा में पुनःसर्जना करके ही नष्ट होने से एक सीमा तक बचाया जा सकता है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि एजरा पाउंड ने अनुवाद के इसी पक्ष पर ध्यान केन्द्रित करते हुए कहा था कि अनुवाद तो साहित्यिक पुनर्जीवन (Literary resurrection) है। स्पष्ट है कि इस प्रकार का कार्य कलाकार ही कर सकता है। अनुवाद को कला के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने में "थियोडोर सेवरी" जैसे विद्वानों का विशेष योगदान है।

           3. अनुवाद : विज्ञान के रूप में

                अनुवाद को विज्ञान मानने वाले विद्वानों का कहना है कि अनुवाद एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। अनुवादक को एक वैज्ञानिक की भांति तटस्थ होकर अनुवाद करना होता है। वह कथ्य से सहमत हो या असहमत, किन्हीं अभिव्यक्तियों को वह पसन्द करता हो या नापसन्द, अनुवाद करते समय अपना राग-द्वेष एक तरफ रख देता है और पूरी सत्यनिष्ठा के साथ अनुवाद करता है। जिस प्रकार कोई रसायन वैज्ञानिक नपी तुली मात्रा में रसायन लेकर उपकरणों की सहायता से प्रयोग करके सत्य का पता लगाता है, उसी प्रकार कोई अनुवादक स्रोतभाषा में व्यक्त विचारों को ठीक-ठीक समझने और लक्ष्य भाषा में यथोचितमपसे संप्रेषित करने के लिए कोण, पन्दावली आदि उपकरणों का सहारा लेता है। वैज्ञानिक भाषा की भांति ही अनुवाद में भी शब्दों का नपा-तुला प्रयोग किया जाता है जिसमे अर्थ के भार में अंतर न आने पाए। अनुवाद की विशेषताएं बताते हुए कहा जाता है कि वाह वस्तुनिष्ठ और प्रामाणिक हो। विज्ञान के भी तो ये ही गुण होते हैं। वेज्ञानिक देंग से अनुवाद करने पर उसमें ये गुण स्वतः आ जाते हैं।

               अनुवाद को विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित करनेवाले विद्वान इसे सम्प्रेपण व्यापार के सन्दर्भ में देखते हैं और अनुवाद को सम्प्रेषण-प्रक्रिया की एक उपश्रेणी मानते हैं। अतः सम्प्रेषण प्रक्रिया को समझ लेना आवश्यक है। सम्प्रेषण प्रक्रिया में एक ओर प्रेषक होता है (सामान्य बोलचाल में इसे हम बक्ता या लेखक बहते हैं) जो अपने रान्देश का (जिसे हम उसका कथन या पाठ कहते हैं) कोडीकरण करके (यानी किसी भाषा के माध्यम से) प्रेषित करता है। दूसरी ओर ग्रहीता होता है (जिसे हम श्रोता या पाठक कह सकते हैं) जो उस सन्देश को ग्रहण करके उसका विकोडीकरण करता है। इस प्रकार प्रेषक गौर ग्रहीता दोनों के पास सन्देश की पृष्ठभूमि में एक कोट (भाषिक विधान) रहता है जो पाठ निर्माण और पाठग्रहण के समय उन दोनों को उपलब्ध रहता है। सन्देश का कोडीकरण करते समय प्रेषक जिस कोड की सहायता लेता है, विकोडीकरण के लिए ग्रहीता भी उसी कोड का सहारा लेता है अनुवाद की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए ये विद्वान कहते हैं कि अनुवादक पहले स्वोत भाषा के पाठ का विकोडीकरण करता है। इसके बाद स्त्रोतभाषा एवं लक्ष्यभाषा का तुलनात्मक अध्ययन कर समानताओं - असमानताओं का पता लगाता है और तब प्राप्त अर्थ का कोडीकरण के माध्यम से लक्ष्यभाषा में पाठ के रूप में पुनर्गठन करता है। 

              कोडीकरण और विकोडीकरण की यह प्रक्रिया ऊपर से जितनी सरल लगती है, भीतर से अपनी प्रकृति में उतनी ही जटिल है। वैज्ञानिक चीजें शायद जटिल होती ही हैं। जटिलता के अपने लाभ भी है। ओटिंगर ने ठीक ही कहा है कि अनुवाद को वैज्ञानिक प्रक्रिया मानने का ही यह परिणाम है कि आज हम मशीनी अनुवाद के सिद्धान्त को विकसित करने में समर्थ हो सके हैं क्योंकि जिस प्रकार वैज्ञानिक तकनीक में विकल्पनों (variables) का नियंत्रण पूरी तरह से करना संभव है, उसी प्रकार अनुवाद में भी विकल्पनों को कम्प्यूटर से नियंत्रित किया जा सकता है। अनुवाद को विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित कराने में नाइडा का योगदान अविस्मरणीय है।

             4. अनुवाद : किस के रूप में

                 कुछ निमानों को मानना है कि अनुवाद न तो बला है, और न विज्ञान पह सो ऐसा कोणल है जो अभ्यास पर आधारित है। जिस व्यक्ति को दो भाषाओं का आन हो उसे प्रशिक्षण देकर अनुवादका बनाया जा सकता है। उसमें गृजनशील साहित्यकार या तर्कशील वैज्ञानिक के गुणों की कोई आवश्यकता नहीं इन विद्वानों की दृष्टि में अनुवाद तो एक प्रकार की "उपयोगी गला" (functional ut) , ललित नला (Tine नी। इस प्रकार यह प्रायोगिक विज्ञान की श्रेणी में आता है, मैदान्तिक विज्ञान की नहीं। प्रशिक्षण, अभ्यास, अनुप्रयोग आदि के द्वारा उपयोगी कला और प्रायोगिक विज्ञान पर अधिकार प्राप्त किया जा सकता है, जबकि ललित कला या सैद्धान्तिक विज्ञान का संबंध मृजानात्मकता से है। अनुवाद के लिए सृजनात्मक अभिव्यक्ति की या सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने की योग्यता की कोई आवश्यकता नहीं। अनुवादक मूलपाठ का शिल्पगत अन्तरण, प्रतिस्थापन, या लक्ष्य भाषा में पुन अभिव्यक्ति करता है। आज तत्काल अनुवाद की मांग इतनी बढ़ गई है कि अनुवाद यंत्रवत करना पड़ता है। यह इतना तथ्यात्मक और गूधनात्मक होता है कि एक कौशन गे अधिक कुछ नहीं होता। कोई कलाकार या वैज्ञानिक जैसे किसी के बिब का निर्माण याने सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है, वैसा अनुवादक नहीं करता, बल्लि अनुवादक तो दूसरी भाषा के दर्पण में इनके प्रतिबिंब प्रक्षेपित करता है। अतः अनुवाद मात्र कोशल है, कला या विज्ञान नहीं। ये विद्वान अनुवाद में अनुवादक के व्यक्तित्व को महत्व नहीं देते। वे यह मानते हैं कि अनुवाद कोई आत्माभ्भ व्यक्ति नहीं है। यह तो ऐसी विधा है जिसमें अनुवादक पूर्णतः तटस्थ रहता है।

     निष्कर्षः

              वस्तुतः ये सभी दृष्टिकोण अतिवादी हैं। अपना पक्ष स्थापित करने के लिए इन्होंने अतिशयोक्ति का सहारा लिया है। वास्तव में अनुवाद की प्रक्रिया पाठ-सापेक्ष अधिक होती है। साहित्यिक अनुवाद को अनुवादक के व्यक्तित्व से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता। वही कारण है कि किसी साहित्यिक कृति का अनुवाद अलग-अलग लोग अपने अपने ढंग से करते हैं। शेक्सपियर के नाटकों का हिन्दी में अनुवाद डॉ. रंगिय राघव ने भी किया और डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने भी किया। टैगोर की गीतांजलि का हिन्दी में अनुवाद सत्यकाम विद्यालंकार, हंस कुमार तिवारी, विराज आदि ने किया। इन सभी अनुवादों में अनुवादकों के व्यक्तित्व की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। इसके विपरीत विज्ञान एवं विधि से संबंधित सामग्री के अनुवाद में अनुवादक का व्यक्तित्व कहीं लुप्त हो जाता है। 


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अनुवाद सिद्धांत -2 /अनुवाद की इकाई के रूप में अक्षर, शव्य और बाक्यः-

      

                                               अनुवाद सिद्धांत

                  अनुवाद की इकाई के रूप में अक्षर, शव्य और बाक्यः-

    (1. अनुवाद प्रक्रिया में 'अक्षर के महत्व पर चर्चा कीजिए।)

                    अक्षर:- अनुवाद की प्रारंभिक इकाई अक्षर है जैसा कि 'अक्षर' प्राब्द से प्रतीत होता है, इसे पूरी तरह अखण्डनीय और अविभाज्य इकाई के रूप में स्वीकृत किया गया है। संस्कृत और तमिल जैसी भाषाओं में अक्षरों के भी अर्थ होते हैं और कभी-कभी अनेक अर्थ भी होते हैं। उदाहरण के लिए हम "ख" शब्द को ले सकते हैं जिसका तात्पर्य है आकाश जैसे कि हमें ख गच्छति इति खग" से मालूम पडता है। तमिल भाषा में "अ" अक्षर का अर्थ "ईश्वर", "रूप", "कुरुप", "विस्तार", "अणु", "विराट" आदि हैं। तिरुवल्लुवर ने अपने तिरुक्करल के आरंभ में लिखा था "अगर मुवल एलुतेल्लाम आदि भगवन मुदटे उतलगु"

            अर्थात् "अ"कार से श्रृष्टि ईश्वरीयता के प्रारंभ होती है। अब में "अलीफ़'', यूनानी में "आल्फा आदि अक्षर भी इसी तरह ईश्वर के द्योतक के रूप में हमारे सामने आते हैं। अंग्रेजी के प्रसिद्ध उपन्यासकार "इविंग वैलस" ने अपने "दि वर्ड' शीर्षक कृति में लिखा है कि बाइबल के प्रारंभिक उक्ति अक्षर के संबंध में है। (In the beginning there was the word) श्रृष्टि के प्रारंभ में "अ" या "मुखवितर" को खोलने मे उत्पन्न ध्वनि थी, जिससे वृष्टि विकसित हुई थी। इसी बात को संस्कृत में "नाद रूपा सृष्टि से बिन्दु रूपा सृष्टि" का विकसित होने अथवा "सहबदल कमलचक्र में विद्यमान ओंकार या अनहद नाद से अष्टदल कमल चक्र में बिंदु के रूप में सृष्टि के प्रकट होने का उल्लेख देखते हैं। आचार्य रजनीश ने "ओंकार" के बारे में निम्नलिखित प्रकार लिखा है - "यह ध्वनि का मूल है, प्राण का एकाग्रण है और सृष्टि का प्रारंभ हैं।"

               प्रारंभ में जैसेकि हमें चीनी चित्रात्मक लिपि और मिश्र के "हीरोग्लिफीक्स" से पता चलता है, अक्षर को लिपि के रूप में परिवर्तित करने की शक्ति नहीं थी, केवल आकृति और स्वरूपों को परिवर्तित करते थे। "आटी जसपर्सन ने इस संबंध में लिखा है कि प्रारंभ कालीन संस्कृतियों में अक्षर स्वाभाविक होते हुए भी विशिष्ट माना जाता था और कुछ अक्षरों का उपयोग निषिद्ध भी माना जाता था। इसी क्रम में हम एक विकसित स्थिति में संस्कृत छंद शास्त्र के दग्धाक्षर क्रम को देखते हैं, जहां कुछ अक्षरों का प्रारंभ में प्रयोग निषिद्ध था। "अ", "क", "व" आदि कुछ अक्षर अत्यंत विशिष्ट महत्व के माने जाते थे, इसी कारण कदाचित संस्कृत के प्रसिद्ध कवि कालीदास ने अपने दो महाकाव्यों को निम्नलिखित प्रकार इन अक्षरों से शुरू किया अस्युत्तरात्यां विशिवेततात्मा हिमालव नाम नगाधि राजा" (कुमारसंभव),"बागधार्वितव संपक्ती बाग्थ प्रतिपत्तये" ( रुषुवंशम्)

              चीनी विश्वकोश के अनुसार तीन अक्षर प्रधान माने गये। "अंग", "चंग" और "लिंग"। इन अक्षरों को वे स्त्री शक्ति, पुरुष शक्ति और सम्मिलित के पर्याय के रूप में मानते थे। उत्तर अमेरिका के प्राचीन निवासियों में जिन्हें "रेड इण्डियन" कहा जाता है, शिशु के पैदा होते ही आनेवाली प्रथम ध्वनि तथा प्रकृति में उस समय उत्पन्न ध्वनि के आधार पर उसका व्यक्तित्व (नेता के रूप में अथवा गुलाम के रूप में) निर्धारित किया जाता था। तमिल परंपरा में निष्क्रमण के समय अर्थात् चौथे महीने नव जात शिशु को सूर्य दिखाते हुए उसके मुंह से "अ" और "क" के उच्चारण को प्रेरित करते हैं। तमिल के लोक गीतों में एक गीत में दादी कहती हैं “आणि अडितार पोल आवेन्दूर सन्ति अल" अर्थात् स्पष्ट रूप में "आ" कहकर रोओ, मेरे बच्चे।

             विभिन्न भाषाओं में लिपिबद्ध अक्षरों की संख्या कम है। हां, उच्चारण में एक ही अक्षर के अनेक विवर्तन देखे जाते हैं। कुछ भाषाएं ऐसी हैं जिनकी लिपियां उच्चारण क्रम को अनुपालित करती है जैसे देवनागरी। कुछ माषाएं ऐसी हैं जहां उच्चारण क्रम का लिपिक्रम में अनुपालन संभव नहीं हैं। इसी आधार पर अक्षर अनुवाद की इकाई बनती है। अनुवाद शब्द से ही विदित है कि इसमें किसी बात का पुनर्कथन अभिप्रेत है। अक्षरशुद्धि, भाषा में एक अनिवार्य आवश्यकता के रूप में मानी जाती है। उदाहरण के लिए हम अल्पप्राण और महाप्राण अथवा श, ष, स के उच्चारण को ले लें - इनमें होनेवाली त्रुटियों के कारण शब्द रूप कितने बदलते हैं - यह हम जानते ही हैं और अर्थ विस्तार में कितनी बाधाएं प्रस्तुत होती हैं यह भी अविदित नहीं है।

           अब हम अंग्रेजी के "ए" अक्षर को लें। इस अक्षर का आठ प्रकार से उच्चारण स्थितियां संभव हैं। जैसे 'Apple', 'Ant', 'Antique', 'Arboreal', 'Aunt', 'Autocratic', 'Ae', 'Aniseed' इन सबमें आप उच्चारण करके देखेंगे तो थोडा-थोडा भेद दृष्टिगत होगा। जब कभी इन्हें लिप्यंतरित करना पडता है तो हम लक्ष्यभाषा में अनेक कठिनाइयां देखते हैं। जैसे Apple' 'एपिल' या 'ऐपिल' लिखना पडेगा। स्वाहिली (आफ्रिकी भाषा) जैसी भाषाओं में स्वरों की संख्या करीब बाइस हैं अर्थात् 'आ'के ही पांच रूप हैं। इसी प्रकार की स्थिति चीनी और जापानी भाषाओं में भी हैं, जहां "च' के उच्चारण भेद से अर्थ भेद सिद्ध होता है। उदाहरण- चंग -परिवार चअंग-पहले, चेअंग-उपदेश, चओ-नौ, चई-चाउदैखना।




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            कुछ भाषाओं में शब्दों के साथ स्वरातता की प्रवृत्ति देखी जाती है, जैसे भारतीय भाषाओं में 'तेलुगु' या यूरोपीय भाषाओं में 'इटली' की भाषा। कदाचित इसी कारण यह उक्ति प्रचलित है "तेलुगु पूर्वी देशों की इटालियन है।जब एक भाषा का शब्द भाषान्तर द्वारा तृतीय भाषा में पहुंचता है, तो वहां भी अक्षर भेद के कारण शब्द रूप में परिवर्तन देख सकते हैं। एक ज्वलंत उदाहरण भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति के नाम का है। उनका नाम तमिल भाषा में "आर. वेंकटरामन" है जो अंग्रेजी के जरिए हिन्दी में पहुंचकर "वेंकटरमन" बन गया है। यहाँ उल्लेखनीय है कि तमिल में वेंकटरामन और वेंकटरमण दोनों अलग-अलग नामों के रूपों में प्रचलित है और ऐसी स्थितियां अन्य अनेक तमिल नामवाचक संज्ञाओं के बारे में भी हैं।

              भारत में गत दो शताब्दियों से संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी भी प्रचलित रही और शासकों की भाषा होने के कारण अंग्रेजी अक्षरों में हमारी नागरूपात्मक संज्ञाओं को प्रकट करने की जरूरत बराबर रही। हम स्थानों के नाम ले लें - गुजरात में एक प्रसिद्ध स्थान "वडोदरा" है, इसका नाम अंग्रेजी में "बरोडा" बन गया । बंगाल में "हाबड़ा" एक प्रसिद्ध स्थान है जिसका नाम अंग्रेजी में "हौरा" बन गया । 'मुलगुत्तण्णी' (काली मिर्च का पानी) तमिल नाडु का प्रसिद्घ पेथ है जो अंग्रेजी में "मुलगुटानी" (Mulligatawney) बन गया, इसी तरह "बड़ा साहब" - यह अभिव्यक्ति अंग्रेजी में "Burra Sahib बन गया है। यदि हम गुप्त, मिश्र आदि विशुद्ध भारतीय नामों को अंग्रेजी अक्षरों में लिखते हैं तो अंत में एक "ए" जोड देते हैं। और जब ये नाम तमिल जैसी भारतीय भाषाओं में आ जाती हैं तो "हस्वांत के बदले में दीर्घान्त के रूप में प्रयुक्त होने लगते हैं जैसे गुप्ता, मिश्रा। हम अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटककार शेक्सपियर के नाम को ले सकते हैं, जो रोमन अक्षरावली में योरप की विभिन्न भाषाओं में बहत्तर प्रकार से परिवर्तित अक्षर क्रम में, कुछ अक्षरों के लोप, कुछ अक्षर जोडकर प्रचलित हुआ है। अंग्रेजी के अनेक शब्द जब अमेरिका में पहुंचे तो उनका अक्षर रूप भी बदल गया जैसे Harbour - Harbor, Coconut - Coconut, Programme Program आदि। वेबस्टर अन्तर्राष्ट्रीय कोश के अनुसार दो हजार आठ सौ शब्द ऐसे हैं जिनका अमेरिकी अक्षर रूप अंग्रेजी अर्थात् इंगलैण्ड के अक्षर रूप से भिन्न है।

             उच्चारण में विशिष्ट शैलिगत स्वरूप को लक्षित करने के लिए भी कभी-कभी अक्षर परिवर्तन किया जाता है। जैसे "Eye testing testing ', Cool - kool' आदि। रोमन लिपि में विभिन्न भाषाओं में अक्षरों का उच्चारण बदला हुआ रहता है। एक भाषा के शब्द दूसरी भाषा में आते हैं तो उच्चारण की शैली भी साथ आती है। उदाहरण के लिए हम अंग्रेजी के शब्द 'restaurant और Rendezvous'। इनका फ्रांसीसी उचारण "रेस्तरां और "राण्डेऊ" ही प्रचलित है। "CH" का उच्चारण कभी हिन्दी के "ची" और कभी "शी के समान होता है। इस तरह जब अनुवाद के क्रम में इन अक्षरों को लेना पड़ता है तो उनके मूल उच्चारण क्रम को भी समझना पड़ता है। स्पष्ट है कि अक्षर अपने मूल इकाई में अनुवाद के दृष्टिकोण से नितांत महत्वपूर्ण है।



           (2. अनुवाद' प्रक्रिया में शब्द का स्थान क्या है?)

               शब्दः यास्क ने अपने निरुक्त में "अथातो शब्द व्याख्यास्यामः' कहते हुए शब्द की व्याख्या में बताते हैं कि वे अपने प्रयोग में, अभिग्रहण में, तथा विस्तरण में बराबर बदलते रहते हैं। शब्द की परिभाषा करते हुए हम उसके मूल रूप ध्वनि को भी लेते हैं और अर्थपुष्ट अक्षरयोग को भी लेते हैं। उदाहरण के लिए अंग्रेजी का अक्षर "।" अक्षर भी है और शब्द भी। "A" अक्षर तथा शब्द दोनों का स्वरूप है। जब हम अंग्रेजी के "There is a boy" का अनुवाद करते हैं तो "there" शब्द के लिए कोई अनुवाद नहीं है। और "ए" शब्द के लिए "एक" शब्द अनुवाद में लेते हैं। What a fine morning का अनुवाद करते समय हम लिखते हैं "कितना सुहाना सवेरा"| अब सोचिए, यहाँ "ए" बिलकुल लुप्त हो जाता है। अनुवाद में इसका कोई विशिष्ट अस्तित्व प्रयोग की दृष्टि से स्थापित नहीं हो सकता। यहां एक और उदाहरण भी दिया जा सकता है। एक अध्यापिका ने एक लड़की से पूछा, "Make a sentence with " लड़की ने कहना शुरू किया, "। is......अध्यापिका ने तुरन्त टोका और लडकी से कहा "याद रखो, के बाद हमेशा "Am" होना चाहिए। अध्यापिका के टोकने से लड़की असंतुष्ट हो गयी उसने कहा "ठीक है" और अपना वाक्य इस तरह बताया "I am the ninth letter of the alphabet" यहां स्पष्ट है कि लडकी पहले जिस क्रम से 1 और 's' को साथ साथ रखा वह सही उपयोग था। शब्द एक से अधिक ध्वनियों का समूह जब होते हैं, तब उनकी वर्तनी के कारण भी शब्द रूप में गडबडी पैदा हो जाती है। यहां हम तमिल से एक उदाहरण ले सकते हैं - तमिल में दो "" अक्षर हैं। अर्थात 0, 0 । एक का उचारण जरा जोर से किया जाता है। दो शब्द है तमिल के "अरम" (argab), "अरम" ( poto), एक का अर्थ "आरा" है और दूसरे का अर्थ "धर्म" है। प्रयोग में जब वर्तनी की अशुद्धि आ जाती है तो काफी गढबही अनुवाद में पैदा हो जाएगी।

             अंग्रेजी में 'saw' शब्द है जिसके संज्ञात्मक और क्रियात्मक दो अर्थ हैं। अब आप एक वाक्य देखिए। ! rawasaw. such a saw you never saw', 'saw' का संज्ञात्मक अर्थ आरा है। क्रियात्मक अर्थ में 'see' का भूतकालीन रूप है। अब हम अंग्रेजी में एक पंक्ति देखेंगे - He sawed the timber into pieces.

              कई अंग्रेजी पाठकों को यह विचित्र लगेगा और कुछ लोग तो sawed' को भूतकाल का भूतकाल भी समझेंगे। क्योंकि भूतकाल शब्द बनाने के लिए अक्सर ed' प्रत्यय जोडा जाता है। एक कहावत है - एक देश की बोली दूसरे देश की गाली - शब्द जिनका अर्थ पक्ष एक भाषा में एक प्रकार का रहता है दूसरी भाषा में वे न केवल बदल जाते हैं, बल्कि कभी-कभी उलट भी जाते हैं। कुछ शब्दों का अर्थ विस्तृत हो जाता है, जैसे निपुण, प्रवीण आदि शब्द। पुण्य करनेवालों को निपुण कहते थे और अच्छी तरह वीणा वादन करनेवालों को प्रवीण कहते थे। इनका अर्थ विस्तार हो गया अनुवाद करते समय शब्द के अर्थ विस्तार या परिवर्तित अर्थ में उसके प्रयोग पर खास ध्यान देना पड़ता है। तमिल में "नल्ल" जो शब्द है उसका अर्थ तमिल में "अच्छा" और तेलुगू में "काला" है। भाषाएं एक मूल की या एक कुल की होकर अनेकमुख होती हैं, इसलिए मूल प्रयोग से भिन्न प्रयोगों का देशांतर या कालांतर में होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। अब "उपन्यास" शब्द को ले सकते हैं, जिसका अर्थ हिन्दी और बंगला में "लंबी कथावस्तु" है जबकि तमिल और तेलुगु में इस शब्द का अर्थ "व्याख्यान" है। हम "शिक्षा" शब्द को ले सकते हैं। तेलुगु और तमिल में इसका अर्थ "दण्ड देना" है, जबकि हिन्दी में इसका अर्थ विद्या से संबंधित है। अक्सर इसी कारण तेलुगु पत्रिकाओं में शिक्षा मंत्रालय को गृह मंत्रालय के साथ गडबडी में समझ लेते हैं। एक उदाहरण हैं जब गोविंद वल्लभ पंत हमारे गृह मंत्री थे और हैदराबाद आए थे तो उनका स्वागत करते हुए आंध्र प्रदेश के मुख्य मंत्री "बसमानंद रेड्डी ने उनका संबोधन तेलुगु में "शिक्षा मंत्रालय प्रधान" कहकर किया और हल्का-फुल्का वार्तनिंद का वहां विस्तार हुआ।

              एक ही भाषा में शब्द के अपने स्थान के अनुसार अर्थ परिवर्तित होते हैं और कभी-कभी एक अक्षर के परिवर्तित होने से भी उदाहरण के लिए हम अंग्रेजी के Advise" और 'Advice', 'complement' और 'compliment' को ले सकते हैं। अंग्रेजी में vice ' शब्द का अर्थ "पाप" है। एक vice' वह भी है जो Vice Chancellor', 'Vice Principal' आदि में आते हैं, जहां 'उप' के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग हुआ है। भारतीय भाषाओं में कारकों का रूप भिन्न-भिन्न रहता है कभी-कभी बंगला असमिया आदि भाषाओं में मूल शब्द के साथ जुड़ा हुआ कारक शब्द उसी रूप में हिन्दी में या अन्य भाषाओं में प्रयुक्त होता है। प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी कपिल देव का विज्ञापन प्रयोग पाल्मोलिव दा जवाब नहीं" में तथा अक्सर लारियों के मुखौटे पर लिखित 'जय माता दी' आदि उसी रूप में अपनाये जाते हैं। यह भिन्न-भिन्न लिपियों में भी उसी रूप में लिखे जाते हैं। इस प्रकार गुजराती से बे (दो), त्रण (तीन), छे ( है:) आदि का बोलचाल की हिन्दी में बराबर प्रयोग देखते हैं। मराठी और कन्नड में "आज घर में महाभारत हुआ" का मतलब "भाइयों के बीच में झगडा हुआ"| बाणभट्ट की प्रसिद्ध कृति कादंबरी है। यह एक लंबी कथा है। इस आधार पर लंबी कथा या उपन्यास के लिए कादंबरी शब्द का प्रयोग मराठी और कन्नड में होने लगा है।


 ( 3 .वाक्य संरचना के किन-किन बातों पर अनुवादक को विशेष ध्यान देना पड़ता है?)

              बाक्यः वाक् शब्द से वाक्य शब्द निकला है। अक्षर और शब्द जब अपने-अपने अस्तित्व को मिटाकर बड़े अस्तित्व में सिमट जाते हैं तो उसे वाक्य कहते हैं, जैसे पहाड से उतरनेवाली निर्झरणी समतल में नदिया बनती हैं और सागर की विराटता में संगमित हो जाती है, उसी तरह अर्थप्रेषण के लिए सागर समान वाक्य है। वाक्य में एक से अधिक शब्दों के समूह से निश्चित विषय पर अर्थ संप्रेषित होता है। व्याकरण के आधार पर वाक्य में एक संज्ञा अथवा कर्ता, एक क्रिया और एक और संज्ञा अथवा कर्म अपेक्षित हैं। वाक्य के साथ पूरा अर्थ ध्वनित होता है। उदाहरण के लिए हम "कौन खडा है?" वाक्य को ले सकते हैं। यहां मात्र एक सर्वनाम और दो क्रियापद हैं। इसी का जब विस्तार होता है तो बाहर कौन खडा है?, घर के बाहर कौन खडा है? घर के बाहर धूप में कौन खहा है? इसी तरह अर्थ विस्तार वाक्य में होता जाता है। साधारण अभिधामूलक अर्थों को लक्षणा तथा व्यंजना से गर्भित करने की प्रक्रिया में वाक्य का स्वरूप है। अक्सर हम अपने भीतर रहनेवाले अर्थपक्ष के साथ संतुलित शब्द पक्ष ढुंढ नहीं पाते हैं। इसका कारण यह है कि जब हम लिखते हैं तो हमारे समक्ष "बाडी लैंग्जयेज" (शारीरिक अर्थबोधक प्रक्रिया) नहीं रहती है। प्रसिद्ध विद्वान चौकी अपने "अर्थ के मनोविज्ञान" शीर्षक लेख में कहते हैं कि वाक्य प्रतियमान अर्थों का वाहक नहीं है। निहित अर्थों का वाहक है। उदाहरण के लिए अंग्रेजी में वे 'did । say so' को लेते हैं। इसमें "क्या मैंने ऐसे बताया" - यहाँ प्रश्नात्मक वाक्य बोधित नहीं है, बल्कि "मैंने नहीं बताया" - यह अर्थ बोध होता है। इसी तरह अनेक स्थितियों में वाक्य सीमित शब्द पक्ष को असीम संभावनाओं से निहित करता है।

             भाषा में वाक्य निर्माण के समय शब्द स्थान का प्रायः महत्व होता है। चीनी जैसी भाषाओं में शब्द के स्थान जब बदल जाते हैं तो उनका अर्थ भी बदल जाता है। उदाहरण के लिए हम मंदारिन चीनी भाषा के निम्नलिखित वाक्य को ले सकते हैं ।

             " न्  गो ती नी" का मतलब है "मैं मारता हूँ तुझको"। जब इसका क्रम उलट जाता है और वाक्य "नी ती न्  गो" बनता है तो अर्थ निकलता है "तुम मारते हैं मुझको"। स्वाहिली भाषा में "नी सिहि किरिसित पाहि" का मतलब है "मैं ईसा मसीह को प्यार करता हूँ" यही जब "नी सिहि पाहि किरिसित बनता है, जिसका तात्पर्य है "ईसा मसीह मुझे प्यार करते हैं। अंग्रेजी में भी ऐसे अनेक उदाहरण हमें मिलते हैं, जैसे Rama killed Ravana यहां राम और रावण के स्थान बदल जाने पर अर्थ बदल जाता है। पर संसार में अनेक भाषाएं ऐसी हैं जो संश्लेषात्मक है और जिनमें संबंध तत्व अर्थ तत्व के साथ जुड़ा रहता है, जहां स्थान का बदलना अर्थ परिवर्तन संभवित नहीं करता । उदाहरण के लिए हम संस्कृत के वाक्य ले सकते हैं। "रामेन रावणः हतः" इसमें तीनों शब्द चाहें कहीं भी हो अर्थ नहीं बदलता। इसी तरह तुर्की भाषा में "एवलेर मेइक पुसरी" अर्थात् "नौकर को मालिक बुलाता है। यहाँ भी किसी भी हालत में चाहे शब्दों का स्थान कहीं भी हो, अर्थ अखण्डित और अपरिवर्तित रहता है। तमिल भाषा से भी हम एक उदाहरण ले सकते हैं। "नान अवनै पार्तेन" का अर्थ मैंने उसे देखा। यहां शब्द के ये तीन इकाइयां कहीं भी रह सकती हैं, मगर अर्थ बदलेगा नहीं। 

               अनुवाद में वाक्य का अत्यंत महत्वपूर्ण प्रभाव रहता है। भाषाओं में कर्ता, कर्म और क्रिया का क्रम परिवर्तनाधीन है। एक ही भाषा में कर्तु वाच्य स्वरूप व कर्म वाच्य स्वरूप देखे जाते हैं। अंग्रेजी में कर्ता के बाद क्रिया आती है, जबकि भारतीय भाषाओं में कर्ता के बाद कर्म आता है। उदाहरण I ate an apple. इसको हम हिन्दी में जब लिखते हैं तो "मैंने एक सेब खाया" सेब कर्म या कर्ता के बाद आता है। एक और उदाहरण देखिए I ate an apple which was brought to me by my brother from Kashmir, when he arrived here yesterday by G.T. Express. यहां इसका हिन्दी में अनुवाद करते हुए हम देखेंगे कि किस तरह पदक्रम में व्यतिक्रम हो जाता है और शब्दों का जो स्थान क्रम अंग्रेजी में रहता है, उससे बिलकुल परिवर्तित स्थान क्रम हिन्दी में है। "कल जी.टी. एक्स्प्रेस से यहां कश्मीर से आए मेरे भाई द्वारा लाये गये सेब मैंने खाया"। श्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा की प्रकृति की विभिन्नता के कारण अक्सर ऐसे अनुवाद अनैसर्गिक प्रतीत होते हैं। अनुवाद में ऐसी स्थितियां अनिवार्य है। हा, लक्ष्य भाषा की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए हम इन्हें खण्डित में या पदबंधों द्वारा अभिव्यक्त सकते हैं। यहीं पर अनुवादक को परखने की तथा अपने अनुवाद के स्वरूप को बदल लेने की आवश्यकता पड़ती है। अक्सर वाक्य अपने भीतर एक से अधिक अर्थ पक्ष को ले सकते हैं। कर्ता के साथ विशेषण जुड सकता है, क्रिया का स्वरूप बदल सकता है। क्रिया विशेषणों का शाब्दों के साथ गठबंधन हो सकता है तथा वाक्योत्तर स्थितियां भी शब्द रूपों द्वारा प्रकट होती है। उदाहरण के लिए हम निम्नलिखित पंक्ति को ले सकते हैं।

               संध्या काल में आकाश से अवतरित होनेवाले धुंध में अप्रत्यक्ष अनेक स्थितियां तथा प्रत्यक्ष कुछ स्थितियां लक्षित होती हैं, जिनका अवलोकन कभी मादकता और कभी उदासी को प्रसारित करता है । जैसे "सागर में सिमटते नदिया के जल में मिलन की उत्कठा भी हो, मिटने की उदासी भी हो" (महादेवा वर्मा)। यह एक वाक्य है। पर अनेक वाक्य में प्रसारित होने लायक अर्थ पक्ष प्रभावशीलता को लक्षित करने के लिए लाक्षणिक रूप में एक वाक्य में आ गये हैं। जब हम अनुवाद की प्रक्रिया में लगते हैं तो इस वाक्य को खण्डित करके प्रस्तुत करने के लिए सोचते हैं और यह उचित भी है।

            अंग्रेजी और हिन्दी के बीच में इस प्रकार की अनगिनत संभावनाएं हैं। हिन्दी के वाक्य तीन प्रकार की शैलियाँ अपनाते हैं। एक देशी शैली, जिसमें कर्ता, क्रिया, कर्म का क्रम रहता है। जैसे "तोहार जवाब नाहीं" (तुम्हारा जवाब नहीं) दूसरा फारसी शैली, जिसमें शब्द क्रम बदलते हैं जैसे "दिले नादां तुझे हुआ क्या है" और तीसरा संस्कृत की तत्सम शैली जिसमें शब्द स्थान तो बदले हुए रह सकते हैं, पर क्रम सीधा है और अर्थ प्रत्यक्ष हो जाता है। जैसे "चारु चंद्र की चंचल किरनें खेल रही है जल थल में।" अंग्रेजी में जब हम इनका अनुवाद करने लगते हैं तो पहचानते हैं कि अंग्रेजी का जो शब्द क्रम है इसके लिए अनुचित है और हमें तब विशेषणों को प्रतिस्थापित करने या क्रिया पदों के प्रयोग में काव्यात्मिकता लाने आदि से गुजरना पडता है।

             वाक्य अर्थ प्रेषण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। किसी वाक्य में जब एक से अधिक क्रिया रहती हैं तब उसके स्वरूप में कभी-कभी भ्रम उत्पन्न हो जाता है। जैसे अंग्रेजी में कहते हैं 'He ate the food and left the place with a parcel इस वाक्य में अनुवाद करते समय "बह खाना खाकर पोटली के साथ वहां से निकला" - इस तरह करते हैं। इसका दूसरा अनुवाद भी हो सकता हैं, "स्थान पर एक पार्सल छोडकर वह खाना खाकर निकला"। इसी तरह अंग्रेजी में जब हम प्रश्न पूछते हैं 'Have you seen me wearing this dress' इसका दो अनुवाद निकल सकते हैं, "क्या आपने मुझे यह कपड़े पहनते हुए देखा" या "क्या आपने मुझे यह कपडे पहने हुए देखा। उत्तरोल्लिखित अनुवाद ही सही है। वाक्य में रचनात्मक भेदों के कारण संशय की संभावनाएं अक्सर होती हैं। जब कभी कोई क्रिया, पदबन्ध या मुहावरे के रूप में प्रयुक्त होता हैं, तो उससे गलत अर्थ निकल सकता है। उदाहरण के लिए this shop will be opening shortly' में 'opering' और shortly' के दो अर्थ निकल सकते हैं और कोई कोई अनुवादक अनुवाद करते हुए "यह दूकान जल्दी ही खुलेगी" के बदले में "इस दूकान का दरवाजा छोटा है" भी लिख सकते हैं। Outstanding, understanding, notwithstanding जैसे पदों का "बाहर खडा, नीचे खडा, साथ नहीं खडा" जैसे अनुवाद भ्रमात्मक रूप में हो सकते हैं। हां, ये उदाहरण हास्यप्रेरक हैं मगर ऐसे अनुवाद करनेवाले मिल ही जाते हैं, इसलिए वाक्य रचना में ऐसी त्रुटियों की संभावनाओं से बचने की कोशिश करनी चाहिए।

            वाक्य में साधारणतया, क्रियापद, काल, वचन व पुरुष आदि के कारण परिवर्तन हो सकता है। कुछ भाषाओं में पुरुषगत परिवर्तन नहीं होते हैं, कुछ में लिंगगत परिवर्तन नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए हिन्दी में लिंगगत परिवर्तन क्रिया में लक्षित होता है जबकि अंग्रेजी में नहीं। मलयालम जैसी भाषाओं में प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष और अन्य पुरुष तीनों में क्रिया रूप अपरिवर्तित रहता है। स्वाहिली जैसी भाषाओं में क्रिया रूप के पुल्लिंग, स्त्रीलिंग, नपुसक लिंग(उच्च), इस तरह तीन भेद होते हैं। अर्थात् मां शब्द के साथ जिस क्रिया का प्रयोग होता है उसका प्रयोग "बेटी" शब्द के साथ नहीं होता है, यद्यपि दोनों का अर्थ एक ही हैं। उदाहरण के लिए "आमा इसहिस" का मतलब है "मां यहां है", "उतु इसहिल" का मतलब है "बेटी यहा है। तमिल जैसी भाषाओं में बोलचाल में स्त्रीलिंग वाची क्रिया रूप अक्सर नपुंसक लिंग में बदल जाता हैं। "एन संसारम वंदिचु" यहाँ "वंदिचु" शब्द "नपुसक लिंग" क्रिया पद को सूचित करता है, लेकिन यहाँ यह स्त्रीलिंग सूचक है।

            अनुवाद एक जटिल प्रक्रिया है। इसमें रूपांतरण, भावान्तरण के साथ-साथ नवीन भंगिमा के स्थापन की भी आवश्यकता रहती है। इसी कारण हम भाषा के प्रारंभिक रूप अक्षर से लेकर भाषा की प्रारंभिक इकाई के रूप में विकसित शब्द तथा अर्थ की पूर्ण इकाई के रूप में विकसित वाक्य में विभिन्न अव्याख्येय स्थितियों को पैदा होते देखते हैं और जब हम उनके स्वरूप को पहचानते हैं तो उसके भीतर मानव मन की पूरी सांस्कृतिक भावुकता का परिचय हमें मिलता हैं । मानव संस्कृति में মिन्नताएं प्रवृत्तिगत न होकर कालगत ही हैं। जहां सभ्यता का विकास पहले ही हो गया ऐसे समुदाय में हम जो सांस्कृतिक स्वरूप देखते हैं, वह बाद में विकसित समुदाय में देख नहीं सकते। मिश्र, चीन और भारत जैसे देशों में नैरंतरिक विकास का क्रम रहा है, जबकि कई देशों में जैसे यूनान या प्राचीन क्रीटी या सुमेरिया या फिनिशिया आदि में इसे देख नहीं सकते। जब संस्कृतियां समाप्ति की ओर उन्मुख होती हैं तब लोग स्थानांतरगमन करते हैं। इसी तरह जातियों के बीच में विराट पैमाने में संघर्षात्मक मिलन होता है। जैसे चीन में चीनी और मंगोलियायी के बीच में, भारत में आर्य और द्राविड के बीच में या योरप में हुण और सैक्सन के बीच में या फिर आधुनिक अमेरिका में योरपीय निवासियों और प्राचीन अमेरिका निवासियों के बीच में। इस तरह के संघर्षों में जब एक जाति पूरी तरह अन्य जाति की संस्कृति में विलीन हो जाती है तब उसके भाषारूप भी काफी प्रभावित हो जाते हैं। संस्कृतियों की सोपान यात्रा में ऐसे सम्मिलन और सम्मिश्रण अनिवार्य है जिनके कारण हम अनुवाद करते समय अभिव्यक्तियों के तारतम्य को ठीक तरह से बिठा नहीं पाते हैं। जहां तक हिन्दी और अंग्रेजी का संबंध है. दोनों भाषाएं बड़ी उदारता से बाहर से शब्दों को लेनेवाली भाषाएँ हैं और इस संश्लेषक प्रवृत्ति के कारण उसके शब्द रूपों में काफी परिवर्तन हो गया है अंग्रेजी के कई शब्द है जो अपने अपरिवर्तित रूप में प्रतिकूल अर्थों को भी बोधित करते हैं । उदाहरण के लिए हम with' शब्द को ले सकते हैं। जिसका अर्थ "कैसाथ, के विरुद्ध। दोनों हैं। जैसे 'Ram fought with Ravana' में "विरुद्ध" अर्थ बोधित होता है। इसी तरह एक दूसरा शब्द है 'Impregnable' जिसका अर्थ 'प्रवेश्य' और 'अप्रवेश्य' दोनों हैं। The fortress is impregnable', The cow is in an Impregnable age', हिन्दी में भी जब प्रत्यय और उपसर्ग आदि को जोड़कर शब्द बनाये जाते हैं तो उनमें हम विपरीतार्थों को समानार्थी के साथ जुड़े देखते हैं। उदाहरण के लिए बेफिजूल शब्द को हम ले सकते हैं। इस शब्द में व्याकरणार्थ एक है जबकि प्रयोग कुछ अलग प्रकार का है। अरबी-फारसी के उपसर्गों को संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ या संस्कृत के उपसर्गों को अरबी-फारसी के शब्दों के साथ प्रयोग करने की प्रवृत्ति है। उदाहरण के लिए हम "सशर्त" को ले सकते हैं । इसी तरह प्रसिद्ध उपन्यासकार कृष्णचंदर ने अपने "बावन पत्ते" शीर्षक उपन्यास में निम्नलिखित प्रकार प्रयोग किया है। "सकुन्बा वह पहुंच गया" । कुटुंब से निकला शब्द 'कुन्बा' है, जिसके साथ 'स' उपसर्ग ठीक नहीं बैठता, फिर भी प्रयोग होते होते ऐसे शब्द प्रचलित हो जाते हैं और व्याकरण भी उन्हें स्वीकार कर लेता है।

                संस्कृत भाषा की आत्मा से हिन्दी काफी प्रभावित है, तथा संस्कृत में प्रचलित लक्षण ग्रंथों की परंपराए हिन्दी में भी प्रचलित हैं। अंग्रेजी भाषा भी अपने शब्दों में काफी लाक्षणिकता ला चुकी है। उदाहरण के लिए जानवरों के नाम हम देख सकते हैं हाथी के स्त्री लिंग वाचक रूप में 'cow' का प्रयोग होता है। जैसे elephant की cow' गाय नहीं है। बल्कि मादा है। 'guinea pig' को सुअर नहीं कह सकते। जहां तक अंग्रेजी भाषा का संबंध है, प्रसिद्ध विदुषी 'डोराती थाम्सन' ने उसे Glorious and Imperial Mongrel' (अर्थात् शानदार राजसी गली का कुत्ता) कहा है। यानि जिसपर अनेक श्रोतों से ज्यादा प्रभाव लक्षित हो सकता है। जब हम अंग्रेजी शब्दों को देखते हैं उनमें अर्थ पक्षों के इतना विस्तार लक्षित है कि अनुवाद करते समय हम आशंका में पड़ जाते हैं।

               हिन्दी में जब राजभाषा के शब्द सरकारी प्रयोजनों के लिए विकसित हुए तो उनमें हम निश्चित एकार्थ बोधकता देखते हैं, जबकि उनकी अंग्रेजी पर्याय में नहीं। उदाहरण के लिए 'promotion' शब्द को ले सकते हैं, जिसका हिन्दी में पर्याय पदोत्रति है। अंग्रेजी शब्द अनेकार्थ बोधक, जबकि उनके लिए हिन्दी में विकसित शब्द एकार्थ बोधक है। अन्य उदाहरण है transfer, increment' - इनके हिन्दी में पर्याय है 'स्थानांतरण' और 'वेतन वृद्धिः । transfer' शब्द अनेक पक्षों में भिन्न-भिन्न अर्थों में उद्घाटित हो सकता है, जबकि स्थानांतरण का एक ही निर्धारित और नियमित प्रयोग है।

              इसी प्रसंग में शब्द शक्ति के बारे में भी जानना है संस्कृत में 'शब्द' की तीन शक्तियां बतायी गयी हैं। ये हैं - अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। इसे हम एक वाक्य द्वारा स्पष्टीकृत कर सकते हैं वाक्य है - 'वह हरिश्चंद्र है। अभिधा में इसका अर्थ होगा 'वह हरिश्चंद्र नामक व्यक्ति है। लक्षणा में इसका अर्थ होगा . 'वह हमेशा सत्य बोलनेवाला व्यक्ति है। और व्यंजना में इसका अर्थ होगा - 'वह हमेशा झूठ बोलनेवाला है। अनुवाद करते समय इन शब्द शक्तियों के परिग्रहण में असमर्थता से भी गलत अनुवाद निकल सकते हैं।


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एकांकी

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