अनुवाद सिद्धांत
( 1. एक मूल की भाषाओं के बीच में अनुवाद और विभिन्न मूल की भाषाओं
के बीच में अनुवाद तुलना कीजिए।)
एक मूल की भाषाओं के बीच में अनुवाद
"नोम चोम्स्की" ने "भाषा और मन" में कहा था "जब हम मानव भाषा का अध्ययन करते हैं, तभी हम मानवीय सत्य तक पहुंचते हैं। सत्व जो उस मानसिक विशेषता है, जो जहां तक हमें पता है मात्र मानव को उपलब्ध है । हां, जब कभी मनुष्य संपर्क में आते हैं, वे अपनी शब्द संपदा का उपयोग करने लग जाते हैं - प्यार करने के लिए, झगडा करने के लिए, आमने-सामने, टेलिफोन पर जब बोलते हैं। जिनसे हम बोलते हैं वे जवाब में शब्द वृष्टि करते हैं। जब उत्तर देने के लिए कोई न रहता, तब भी हम बोलते हैं अर्थात् जीव जन्तुओं में से हम में ही यह बोलने की, अनपेक्षित वाक प्रसार की शक्ति विद्यमान है।
भाषा की व्युत्पत्ति क्यों और कैसे हुई? इसपर सैकडों सिद्धांत प्रकट हो चुके हैं और प्रत्येक सिद्धांत में कोई न कोई सत्य विद्यमान है। भाषा ध्वनियों पर आधारित है और ध्वनियों के साथ मानव मस्तिष्क का कोई ऐसे संबंध है जो उनमें अर्थों को उद्घाटित करता है। कभी हम उन अर्थों के साथ हमारी परंपरा के सत्वों को जोड लेते हैं, पर अक्सर अपने मनोधर्म को उनमें लीन कर देते हैं। ये मनोधर्म एक सामूहिक विरासत है। इस मनोधर्म के साथ भाषा का शब्द रूप, समन्वित रूप, वाक्य रूप आदि जुड़े हुए हैं और अर्थ विस्तार को हम विषयानुकूल और समयानुकूल बना लेते हैं। हमारे अर्थों के साथ केवल स्पष्ट निर्देशात्मक तत्व हो, यह भी जरूरी नहीं। भाषा के साथ कल्पनाएं ऐसी संक्लिष्ट है कि उनके बीच में श्रृंखलित व्यवस्था कभी होती है, कभी नहीं होती। यानि अर्थ इतने जमघट में भी हमारे पास आ सकते हैं कि हमारी समझ में समग्र रूप में न आएं, बल्कि अलग-अलग रूप में समझ में आएं। उदाहरण के लिए हम निम्नलिखित वाक्य ले सकते हैं
श्यामल दास ने एक असाधारण स्त्री बनने का निश्चय किया, क्योंकि उसने ऐसे एक कबूतर को देखा जो एक जिराफ की तरफ उड़ रहा था, और उसपर तीन आंखवाली एक औरत बैठी पी, तथा हाथी के कान से हवा कर रही थी।
इस वाक्य में कोई निश्चित अर्थ नहीं है, पर अलग-अलग खण्डों में अलग-अलग अर्थ है। कभी-कभी हम कुछ ऐसे उदाहरण देखते हैं जो भाषा के बोझिलपन को हमारे अर्थ ग्रहण की क्षमता पर डालते हैं। उदाहरण के लिए निम्नलिखित पंक्ति को ले सकते हैं-
"what is one and one and one and one and one and one and one and one "
I don't know'- said Alice, 'I lost count' She can't do addition the red queen interpreted
Through the looking glass."-Lewis Carrol
अर्थात् हम भाषा के प्रयोग द्वारा जटिलताओं का भी अहसास करा सकते हैं जो अन्य जीवराशियों को प्राप्त नहीं है। जैसे "बर्टन्ट रसल" ने कहा था "कुत्ता कितने भी तरह से भौंके, वह कभी यह नहीं बता सकता है कि उसके मां-बाप गरीब और ईमानदार थे। तात्पर्य यह है कि मनुष्य अपने पूरी सामाजिक अस्तित्व को भाषा के साथ संपर्कित कर दिया है। उसका सारा विस्मय, इसी अनुभूति के साथ है, क्योंकर वह इस तरह के भाषात्मक प्रसार को किया है ?
समाज की प्रारंभिक दशाओं में जो आवश्यकताएँ रहीं होगी उनके साथ सीमित शब्दों का ही प्रयोग होता था । क्योंकि शब्दों के जरिए एक काल्पनिक संसार में प्रवेश करने की आवश्यकता नहीं थी। यह ज़रूरी नहीं कि मनुष्य आज के भाषा संबंधी स्थिति में किसी प्रकार के विचार को तात्कालिकता से ग्रहण करें, अर्थात् मूल रूप में जो तात्कालिक अर्थ भाषा के शब्दों में निहित थे, ने धीरे-धीरे सार्वकालिक बन गये। मनुष्य के मस्तिष्क में भाषा संबंधी दक्षता किस रूप में हैं, इसका अध्ययन किया गया है और अधिकतर अध्येता यही मानते हैं कि कुछ प्रतीकों के साथ स्पंदन मनुष्य के बाएं मस्तिष्क भाग में होता है जिससे अर्थ संग्रहीत होते हैं और अधिकतर अर्थ मनुष्य के बुनियादी स्वार्थ के साथ संपर्कित हैं। यह भी कह सकते हैं कि यदि स्वार्थ का जोर न होता जिससे परस्पर बंधन पैदा न होते और संघर्ष समुत्पन्न न होते तो मनुष्य ने भाषा की ईजाद ही न की होती।
आज विश्व में प्रायः छः हज़ार तक की भाषाएँ प्रचलित हैं, बोली जाती हैं, परन्तु "चोम्स्की'' के अनुसार पांच हज़ार साल पहले विश्व में मुश्किल से बारह विकसित भाषाएं रहीं होंगी। इन्हीं विकसित भाषाओं को जिनसे धीरे धीरे अनगिनत भाषाएं निकली, हम मूल भाषा कहते हैं। प्रत्येक कुल के साथ एक मूल भाषा संपर्कित है। उदाहरण के लिए हम भारत और योरप में आज प्रचलित करीब अडतीस समृद्ध भाषाओं को ले सकते हैं । इन सभी भाषाओं के एक मूलभाषा थी- जिसे हम भारोपिय परिवार की मूल भाषा कहते हैं। वैदिक संस्कृत इस मूल भाषा के काफी निकट है- ऐसी धारणा है कई लोग लियुएनियन भाषा को (लिथुएनिया पोलंड और रूस के पड़ोस में रहनेवाला एक छोटा-सा देश है) भारोपिय मूल भाषा के निकट मानते हैं। इस मूल भाषा से दो विशिष्ट शाखाएँ विकसित हुई- ऐसा माना जाता है। (यह केवल अनुमानात्मक है) इन भाषाओं को हम किन्टम वर्ग" और "शतम वर्ग" कहते हैं ।
शतम वर्ग की तीन शाखाएं मानी जाती हैं। वे हैं- भारतीय शाखा, ईरानी शाखा और दरद शाखा। यहाँ हम अध्ययन के लिए भारतीय शाखा को लेंगे। आधुनिक भारतीय भाषाएँ, समृद्धि के धरातल पर, निम्नलिखित मानी जाती हैं। "सिंधी", पंजाबी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, गुजराती, मराठी, बांगला, असमिया, उडिया और सिनहली। इन भाषाओं के बीच में आम विरासत के रूप में हज़ारों शब्द हैं। वाक्य निर्माण, पद योजना, अर्थ निक्षेप आदि दृष्टिकोण से इनमें अनेक समानताएँ भी हैं। इन समानताओं के आधार पर अनुवाद में क्या सहूलियत हो सकती हैं? यदि, विशुद्ध अर्थ अपरिवर्तित रहें तो भाषा के संक्रमण में क्या बाधाएँ होती हैं? यदि नए शब्द विद्यमान शब्द के कलेवर का होता क्या जटिलताएँ पैदा होती हैं? आदि के अध्ययन से हमारा अनुवाद सुगम हो जाएगा|
अनुवाद में जटिल पक्ष अक्सर सर्वनाम, कारक तथा क्रिया के रूप होते हैं। भारोपिय परिवार में हम सर्वनामों को "म" और "त" के आधार पर विकसित देखते हैं। संस्कृत में "अहं" और "वयं", हिन्दी में "हम " और "मैं", गुजराती में "हूँ" पंजाबी में "मैं" सिंधी में "मां" बंगला में "आमी" असमिया में "माय" उडिया में "मू" और सिनहलीस में "मात", मराठी में "भी" - यहां सभी शब्दों के साथ रहनेवाला मा संबंधी साम्य देखा जा सकता है। केवल गुजराती में हिन्दी के हम के समान "हूँ" का प्रयोग होता है। इसी तरह जब हम द्राविड भाषा में आते हैं, तमिल में "नान", कन्नड में "नन्नु" तेलुगु में "नेनु" और मलयालम में "न्यान"। इस तरह सर्वनामों के रूपों को अनुवाद में एक मूल की भाषा में समझने की सहूलियत रहती है, जबकि भिन्न मूल की भाषाओं में थोडा-सा कष्ट रहता है। प्रश्नमूलक सर्वनाम भारोपिय परिवारों में अधिकतर भाषाओं में, "क" के साथ शुरू होते हैं। जैसे मराठी में "किति", गुजराती में "केटला" हिन्दी में "कितने", पंजाबी में "किनीयान" सिंधी में "केतरा" उडिया में 'केते", बंगला में "कतो" असमिया में "खे" और सिनहल में "खत"। यदि हम कोई वाक्य ले लें जिसमें प्रश्नवाचक सर्वनाम, संज्ञा और क्रिया आदि हैं तो उसके रूप में रहनेवाले भेद को निम्नलिखित सारणी में हम हम पहचान सकते हैं :-
हिन्दी में - कितनी दूर है?
पंजाबी में - किन्नी दूर है?
सिंधी में - ताई केवो पांदवा आहे?
उडिया में - केते दूर?
बंगाली में - केतो दूर?
असमिया में - किमोन दूर?
सिनहली में - कोपमक्स कोकारडक्स?
हम देख सकते हैं कि शब्द संख्या भी बदलती नहीं है, और ध्वनि साम्य भी बना रहता है। यदि हम कोई कठिन संरचनावाले वाक्य को लें तो उसमें भी अनुवाद संबंधी सहूलियत को पहचान सकते हैं उदाहरण के लिए निम्नलिखित वाक्य को ले सकते हैं।
हिन्दी - यहां अपने दस्तखत कीजिए ।
पंजाबी - इते अपने दश्कत कर दे।
सिंधी - हिते पांजी सही करी।
उडिया - एठि दोस्तखोत करो
बंगाली - एकाने तोमार नाम सो कोरो।
असमिया - इपाठे सोयकरोन ।
सिनहली - ओबी नामस मेहि लियान ।
यहां के लिए शब्द भी आसानी से पहचान में आते हैं। 'सही' और 'दस्तखत शब्द भी पहचान में आते हैं और हम देखते हैं कि तत्सम शब्द हस्ताक्षर' का प्रयोग नहीं किया गया है। यदि हम पारिभाषिक शब्दों को ले लें तो वहां भी हम इस तरह के साम्य को देखते हैं। उदाहरण के लिए हिन्दी - वह दूसरे डिब्बे में है।
पंजाबी - दूसरे डब्बे विच है।
सिंधी - बी गाडे में आहे।
बंगाली - ओन्नो कामरे आश्तेन ।
उड़िया - ओन्नो डोबारे आचोन्ती।
असमिया - तेकेत तियों ही।
सिंहली - वेन्स कामरिया स्टिंगस।
कम्पार्टमेंट के लिए डिब्बा और कमरा दो शब्दों का प्रयोग हुआ है और प्रचलित भाषा के रूप को अक्षुण्ण रखने का भी प्रयत्न किया गया है जहां अनियमित क्रियाशब्द होते हैं उनमें भी एक मूल की भाषाओं में हम साम्य देख सकते हैं। जैसे "कर" से निकलने वाले जितनी भी क्रियाएँ हैं, उन सबका योडे बहुत परिवर्तनों के साथ एक मूल की सभी भाषाओं में प्रयोग में लाया जाता है। यदि लिपि का भेद न हो तो साधारण ढंग से पढने पर ही अर्थ समझ में आ जाता है। उदाहरण के लिए हम यहां कुछ शब्दों को ले सकते हैं।
1. हिन्दी - "पग", गुजराती - "पग, मराठी - पाय पंजाबी-पार, सिंघी-पेरु, उडिया-पादो, बंगाली- पा, असमिया-भोरी, सिनहली - हीसा।
2. हिन्दी हाथ, पंजाबी हाथ, सिंधी हथ, उडिया-हाथो, बंगाली-हाथ, असमिया-हाथ सिनहली-आत।
बहुवचन आदि के संबंध में भी एक मूल की भाषाओं में साम्य देखा जा सकता है। कारण यह है कि भाषा का स्वाभाविक विकास होता है और परस्पर अडोस-पड़ोस में रहनेवाले अपनी विकासात्मक स्थितियों को एक-दूसरे पर अज्ञात रूप से ही आरोपित कर देते हैं। मूल भाषा जिन प्रभावों को पचा नहीं पाती है, उन प्रभावों को पचाने की आवश्यकता विकसित भाषाओं में होती है। क्योंकि कालखण्ड के अनुसार परिवर्तन आ ही जाते हैं। जब सेमिटिक परिवार की भाषाओं के शब्द भारोपिय परिवार में आये तो उनका विस्तार से प्रभाव लक्षित हुआ। उदाहरण के लिए हम "सात" शब्द को ले सकते हैं यह शब्द प्रायः इसी अर्थ में कई भारोपिय भाषाओं में प्रयोग होता है।
उच्चारण भेद के कारण ही भाषा रूपों में अर्थ ग्रहण की जटिलताएँ पैदा होती हैं। जैसे "कल्याण" शब्द है- इसको बंगला भाषा में "कोल्लान" कहा जाता है, यद्यपि दोनों शब्दों के अर्थ रूप में परिवर्तन नहीं है। यह उच्चारण संबंधी भेद कभी स्वाभाविक होता है, और कभी जानबूझकर पैदा हो जाता है। पांच से अधिक स्वरों का व्यंजनों के साथ जानबूझकर मेल किया जाता है, ऐसा विद्वानों ने अनुमान किया है। अर्थात् कर शब्द कहीं "किर" बनता है, कहीं "कीर" कहीं "कोर" कहीं "कवर" और कहीं "कुर"।
अनुवाद संबंधी अध्येता को भाषा विज्ञान का ज्ञान नितांत आवश्यक है। कारक में कैसे परिवर्तन होते हैं, हिन्दी के "का" "के" "की" पंजाबी में "दा" "दे" "दी" कैसे बनते हैं, बहुवचन बनाने के नियम किस तरह प्रभावित होती है और मूल शब्द के साथ बहुवचन के चिह्न कैसे परिवर्तन लाते हैं, उच्चारण भेद से किस तरह शब्द रूप बदल जाता है, भाषाएँ क्यों वियोगात्मक या संयोगात्मक हैं आदि बातें जानने से अनुवाद का क्रम अत्यंत आसान होता है।
एक मूल भाषाओं में अनिवार्यतः समान सांस्कृतिक विरासत रहती है और जब कभी इतर का प्रवेश होता है तो अक्सर वह समान्तर होता है तथा प्रभावशालिता को हटा भी न पायेंगे आदि सत्य भी इस संदर्भ में जानने लायक है।
जैसे भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता शीर्षक अपने लेख में डॉ. नगेंद्र कहते हैं, अनुवादक को अन्तरभाषायी परिज्ञान आवश्यक है। उसे ऐसी गोप्टियों में भाग लेना है जहाँ एक ही मूलवाले भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी मिलते हैं। भारत में ऐसे गोष्टियों की संभावना भी अधिक है। क्योंकि भाषा के आर-पार बैठे हुए भी हम सब एक ही विरासत के वारिस हैं।
( 2. भिन्न मूल की भाषाओं में अनुवाद की कठिनाइयों का परिचय दें।)
विभिन्न मूल की भाषाओं के बीच में अनुवाद
"लीविस कैराल" का "ऐलिस इन वोन्डरलेन्ड" एक मार्के का ग्रंथ है। इसमें सारे पाठक वर्ग को शिशु रूप में परिकल्पित किया गया है। एक हद तक उचित भी है। इस कृति में एक स्थान पर "एलिस कहती है," "पर मेरे पास निगलने के लिए शब्द है, और किस चीज की ज़रूरत है" (But I have got words to swallow, what else do I need) आखिर रहीम के शब्दों में "सरग पताल" कह जानेवाली जिह्वा, शब्दों को निगलकर वास्तव में जायकेदार मिठास का एहसास किया होगा। शब्द के बारे में यास्क ने "अथातो शब्द व्याख्यास्यामः" कहते हुए उसे एक तरह से, अक्षर को, ब्रहमाण्ड पर्याय घोषित किया है ।
आरंभ में मनुष्य शब्दों में ही अपने पूरे विचारों को अभिव्यक्त किया होगा। इसी कारण "चोम्स्की" ने लिखा है कि प्रतीकात्मक शब्दों के विकास के हज़ारों साल बाद ही क्रियाओं के लिए शब्दों का विकास हुआ होगा और इसी क्रम में और सैकड़ों साल लगे होंगे, जब सर्वनाम विकसित हुआ होगा तथा संज्ञा और क्रिया की विशेषताओं के बोधक शब्द विकसित हुए होंगे। तात्पर्य यह है कि जब हम पूरे संसार की विभिन्न भाषाओं को विचारार्थ लेते हैं तो उनमें कालगत स्थानतगत भेदों को अधिक देखेंगे ही। कुछ भाषाएं विकसित होकर, लुप्त हो गयी होंगी जैसे "एट्रस्कन" और "क्रीटी" भाषाएँ। कुछ भाषाएँ अन्यान्य कारणों से अविकसित ही रही होंगी जैसे आफ्रिका के बुशमन और बाण्टु परिवार की भाषाएं। और कुछ भाषाओं में नियमित ऐतिहासिक विकास हुआ होगा कभी धीमी चाल से और कभी तेज़ गति में। जैसे संस्कृत आदि जो विकास की चरम अवस्था तक पहुँचकर मौखिक रूप से लगभग हट गयी। जैसे चीनी आदि भाषाएँ जिनमें विकास धीरे धीरे होता है। या तमिल, तुरकी, लिथुआनियन, जार्जियन आदि भाषाएँ जिनके प्राचीन रूप प्रायः अपरिवर्तित दशा में आज भी प्रचलित हैं।
संसार में अनेक कुलों की भाषाएँ प्रचलित हैं। इनको हम सुविधा की दृष्टि से "यूरेशिया वर्ग" "आफ्रिका वर्ग" "एकाक्षर वर्ग" "अनिर्णित वर्ग" और "पालिनेशियन वर्ग" के रूप में विभाजित कर सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के बाद विभिन्न भाषाकुलों के बीच में आदान-प्रदान की आवश्यकता पड गयी और इस दृष्टि से अनुवाद कला का भी काफ़ी विकास लक्षित हुआ है। यहां हम भिन्न कुल भाषाओं में विद्यमान अनुवाद संबंधी समस्याओं के अध्ययन के लिए उपरोक्त कुलों की भाषओं के साथ हिन्दी की परख लेंगे। तुलना करते हुए विशेषताएं
यदि हम हिन्दी तथा योरप की भाषाओं में तुलना करें तो हमारे सामने कई विशेषताएं नज़र आती हैं। उदाहरण के लिए हिन्दी में हम एक पंक्ति ले लें -
"मैं एक तार भेजना चाहता हूँ।" इसी का हम जब हम तमिल में कहते हैं छः शब्दों के बदले में पांच शब्दों को अपनाते हैं। "नान ओरु. तंदि अनुप्प विरंबुगिरेन" यहां चाहता हूँ शब्द क्रियात्मक रूप में तमिल में एक बन जाता है, "विलंबुगरेन"। इसी को जब हम अंग्रेजी में लिखते हैं "आई वुड लाइक टु सेण्ड ए टेलिग्राम" - क्रिया के चार भाग आ जाते हैं। जब हम जर्मन में लिखते हैं "इश मोश्टे एम टेलिग्राम आफ़ जेवन" क्रिया को विभक्त होते यहाँ देखते हैं।
दूसरे उदाहरण भी हम ले सकते हैं। हिन्दी में 'और थोडा लाइएगा" यही तमिल में चार शब्द बन जाता है - "इन्नुम कोजम कोण्डु वारुंगल" - यहां किया दो शब्दों में विभक्त हो जाती है। अंग्रेजी में "ब्रिंग सम मोर"। तीन ही शब्द हैं। पुरतगाली में 'ट्रेगेर मिज़ अहलगुमेर" - तीन शब्द है, मगर प्रायः एक शब्द के समान (ट्रेगेरमिज़ अहलगुमेर) प्रयुक्त होता है। हम अध्ययन के लिए भारत के एक प्राचीन आदिवासियों की भाषा "कोण्डा" को ले सकते हैं।
हिन्दी में पंक्ति है- "जैसे वे जा रहे थे, उन्होंने गांव की तरफ देखा"
कोण्डा भाषा में - "सोनसी मारकर ए, नाटो सूरतार" - यहां जैसे वे जा रहे थे,
दो ही शैब्दों में आ गया, और गांव की तरफ देख रहे थे -
तीन शब्दों में आ गया।
इसी भाषा में एक और भी पंक्ति ले सकते हैं। "कोवा राजा के करने में वे उसे लाये' इसके लिए कोण्डा भाषा की पंक्ति है- "कोवा रोजू पट्टणम ए ओतार" प्राचीन भाषाओं में काफी कम शब्द प्रयुक्त होते थे और भाषा की अभिव्यंजना के लिए उनमें अधिक धारणाएं समाहित की जाती थी, यह बात स्पष्ट हो जाती है। इसी तरह हम जापानी भाषा के साथ एक तुलना कर सकते हैं
"हम से पहले जो पीढ़ी गयी है, वह आजकी वैज्ञानिक प्रगति की कल्पना भी नहीं कर सकती"- इसका जापानी पर्याय होगा- "मुकाशी नो (पुराने) हिटोविटो वा (लोग) कोनिची नो (आजका) कोनिची नो (वैज्ञानिक) शिपो बो (प्रगति) मुसो (दृष्टि) द (है) नी ( भी) देखिनकट्टा दे आरो (नकारात्मक शब्द - अंग्रेजी के could not का पर्याय)। यहाँ हम देख सकते हैं कि कुछ शब्दों के लिए व्याख्यात्मक प्रतिस्थापन है, तथा नकारात्मक शब्द आदि को अंत में लाया गया है। "मूसोसुरू' शब्द से "सुरु" को हटाकर “मूसो" शब्द को लिया गया है जो स्वप्न का पर्याय है, बल्कि यहां दृश्य के रूप में प्रयुक्त है। क्रिया विशेषण का प्रयोग भी इस रूप से है कि वह विशेषणात्मक भी है। जैसे हिन्दी में हम "अच्छा" शब्द का प्रयोग करते हैं। जब हम जापानी भाषा से हिन्दी में अनुवाद करते हैं तो हमारे सामने इस तरह शब्द प्रतिस्थापन की समस्या पैदा होती है। हम उपरोक्त "भूसो" के बदले में "सुरु" शब्द का प्रयोग करके गलत अर्थ को स्थापित कर देंगे। इसी तरह "देखिनकट्टादे आरों" के बदले में "देखिरु" शब्द का प्रयोग करके उल्टा अर्थ भी स्थापित कर सकते हैं ।
इसी क्रम में एकाक्षर परिवार की चीनी भाषा और हिन्दी के बीच में अनुवाद की समस्या को भी हम ले सकते हैं चीनी भाषा में शब्द अधिकतर स्थान प्रधान होते हैं और कुछ ऐसे प्रयोग होते हैं जिनका अन्य भाषा में अर्थ विचित्र सा लगता है। उदाहरण के लिए "आप किस देश के हैं?" - के लिए चीनी वाक्य होगा, "शीन शेंग कुई को" जिसका शब्दार्थ है" आप किस सम्माननीय राष्ट्र के सम्माननीय सज्जन है?" - यहाँ सम्माननीय शब्द क्रिया और संज्ञा दोनों शब्दों के साथ जुड़ गया है और अनुवाद करते समय ऐसी नम्रता सूचक शब्दों का अवरोधात्मक स्थितियां पैदा हो सकती हैं। ऊपरोक्त पंक्ति के लिए उत्तर में यदि हम कहें, "मैं भारत देश का वासी हूँ" तो कहना पडेगा '"पी खुओ ढंग कुओ" - जिसका मतलब होगा "मेरे विनयशील देश का नाम भारत है" (ढंग का मतलब भारत है)। चीनी भाषा में प्रायः सभी शब्द चाहे वह संज्ञा हो अनुवाद योग्य हो या अनुवाद के लायक न हो, किसी न किसी तरह उन्हीं के अक्षरों के परिवर्तित रूप में प्रस्तुत होते हैं। हमारे प्रधान मंत्री "जवाहरलाल नेहरू" का नाम उनकी भाषा में परिवर्तित होकर "नहर के पास रहनेवाला हीरा जवाहरात" बन जाता है। बुद्ध के पिता का नाम "शुद्धोधन" चीनी में "अच्छा चावल बन जाता है। यह उस भाषा की प्रकृति है और काफी अध्ययन के बाद ही हम समझ पाते हैं कि किस तरह से शब्द रूपों का अनुवाद होता है।
इसी तरह हम प्रशांत महासागरीय खण्ड की बहाशा (भाषा) मलेशिया या मलय भाषा को ले सकते हैं यह भाषा पूरे मलेशिया में थोडे परिवर्तनों के साथ लिखी जाती हैं। इस भाषा की दो लिपियां हैं - "जावी और रूमी" जावी शब्द अंग्रेजी के "जू" (सेमेटिक) से बना है और यह लिपि अरबी लिपि का ही एक रूप है। "रूमी लिपि रोमन या अंग्रेजी अक्षरावली है। इस भाषा का रूप मूलतः इण्डोनेशिया की भाषा तथा प्रशांत महासागरीय भाषाओं से मिलती जुलती है। अनुवाद करते समय इसमें कई समस्याएं पैदा होती हैं। मगर उच्चतर साहित्य के संदर्भ में ही उदाहरण के लिए जब एक सामान्य पंक्ति लेते हैं
हिन्दी में - "वे दो नदियां एक ही लंबाई की है"
मलय भाषा में - "सुंगाई दुआ बुआ इतु सम पंजांग"
यहां हम दुआ, सम, पंजांग आदि शब्दों को ले सकते हैं, पंजांग शब्द लंबाई के लिए हैं जो संस्कृत मूल (पंच अंग) का है। सम शब्द भी संस्कृत मूल का है। एक दूसरे उदाहरण भी हम देख सकते हैं।
हिन्दी में - "शेर हाथी से बलशाली है"
मलय भाषा में - "हरिमाऊ लेबि कुआत दरिपदा गज"
हरि और गज शब्द में शेर और हाथी को आसानी से पहचान सकते हैं। मलय भाषा में अति सरलता से अनुवाद की क्षमता संस्कृत मूल के शब्दों के कारण है। और अप्रचलित संस्कृत मूल के शब्द भी मलय कोश में पाये जाते हैं, जैसे "नरतुंग" "नरसिंह" "कर्णव्यापी" "पलकांग" आदि।
अंत में हम स्वाहिली भाषा को ले सकते हैं स्वाहिली भाषा एक प्रकार से पूरे दक्षिण आफ्रिका में राजभाषा के रूप में प्रचलित है। इसमें स्वरानुरूपता, ध्रुवाभिमुखता आदि विशेषताएँ पायी जाती हैं। कभी-कभी स्वरहीन व्यंजनसामीप्य के कारण उच्चारण संबंधी कठिनाइयां हैं और एक से अधिक शब्दों के प्रयोग द्वारा अर्थ को सुस्थिर करने की व्यवस्था भी है। इन कारणों से यह भाषा कभी सरल है और कभी काफी कठिन है। उदाहरण के लिए हम निम्नलिखित पंक्तियों को ले सकते हैं। "मैं नैराबी बुलाना चाहता हूँ।" इसके लिए स्वाहिली भाषा की पंक्ति होगी, "नाटका कुपिकासिमु नैरोबी" - यहां कुपिका शब्द क्रिया है जिसका द्वाविड भाषा के साथ ध्वनि साम्य (कूप्पिडु) स्पष्ट है । इसी तरह - "मुख्य डाक घर कहां है?" के लिए इस भाषा का वाक्य होगा - "कोस्टा कुबवा इको वापि" - इसका जवाब होगा "वह शहर में है" - "कोस्टा कुबवा इको मिजिनी"। हम यहां एक बात देखते हैं। 'वह' (सर्वनाम) के बदले में "मुख्य डाक घर" (कोस्टा कुबवा) शब्द का ही प्रयोग हुआ है। अर्थात् "वह" जैसे "निश्चित सर्वनाम" का प्रयोग नहीं होता।
शब्द मनुष्य की चेतना के समान संक्रामक प्रकृति के हैं। वे बराबर परित्नाजन करते हैं। उनका यानान्तरण (Transhipment) होता है। भिन्न मूल की भाषाओं में यह कठिनाइयां रहती हैं कि कभी-कभी क्रिया शब्द लुप्त रहता है जैसे तमिल भाषा में। या किया विशेषण और क्रिया मिला रहता है जैसे स्वाहिली, पुर्तगाली आदि में। नई विशिष्ट अभिव्यक्तियां पुरानी अभिव्यक्तियों के साथ मिल जाती है- जैसे मलय बहाशा (भाषा) में छोटे और बड़े के भेद के लिए अजगजांतर (बकरी और हाथी के बीच का भेद) "सेवसर्व" तुरकी में (जिसका मतलब है गुलामी करना) - लगता है भारोपिय परिवार की "सेवा" शब्द और "सर्वीस" मिलकर यह शब्द "सेवसर्व" बना है भिन्न मूल की भाषाओं में हम एकाक्षर जैसे परिवार की भाषाओं के साथ शब्दाधिक्य का प्रयोग तथा प्रयम पुरुष, अन्य पुरुष भेद आदि देखते है। इस संबंध में अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक |"यर्नस्ट ब्रमा" (Emest Bramahi) द्वारा लिखित "Kailong unroll is his mat पढ़ सकते हैं जिसमें चीनी भाषा की शैली में अंग्रेजी लेखन के अनेकानेक नमूने हैं।
जब अनुवादक क्रिया पदों से अच्छी तरह परिचित हो जाता है, तथा भाषागत विशेषताएँ उसकी समझ में आ जाती है तो भिन्न मूल की भाषाओं में अनुवाद का क्रम भी सहज हो जाता है। भाषा न केवल शब्दमय संसार है, वह किसी संस्कृति का प्रतिबिंब है। यदि हमारे समक्ष उन भाषाओं के उदाहरण चलचित्र या दूरदर्शन के कार्यक्रमों अथवा विज्ञापनों द्वारा (यहां सुजुकी का विज्ञापन जो अंग्रेज़ी जापानी रूप में है, का उदाहरण लो सकते हैं) देखने पर, और उसपर प्रयुक्त शब्दों को ध्यान से सुनने पर अथवा अक्सर दूर दर्शन में विभिन्न भाषाओं के जो चलचित्र आते हैं उनमें सबटाइटलों पर ध्यान देते हुए शब्दोच्चारण पर भी ध्यान दें और अवसर मिलने पर विदेशियों के साथ उनकी भाषा को जानने की उत्सुकता प्रकट करने पर हमारे अनुवाद का, खास करके शब्द रूपों को समझने की क्षमता का विकास हो सकता है।
( 3. कम्प्यूटर द्वारा अनुवाद की सीमाएँ हैं सिद्ध कीजिए ।
या
कम्प्यूटर अनुवाद' में कहाँ तक हम सफल हुए हैं )
मशीन और कम्प्यूटर अनुवाद
मानव मन किसी मशीन या कम्प्यूटर से कम नहीं है। वह निरायास ही आदेशों को परिपालित करते हुए अर्थों को ग्रहण कर लेता है और प्रक्रियाओं में प्रवृत्त हो जाता है। मनुष्य ने जो भाषा बनायी वह भी उसके सारे प्रतीकों को कभी समग्र रूप में, कभी इकाइयों के रूप में, प्रयोजनशील सामग्री के रूप में परिणत कर देता है। भाषा को शारीरिक संकेतों और इंगितों से अलग एक अस्तित्व प्रदान करने में मनुष्य सफल हुआ है। उसने जो विभिन्न अर्थ बोधक शब्द बनाये, उनके पीछे नियम है, यद्यपि नियमों को समझने के लिए आवश्यक पूर्ववृत्त और सामग्री हमारे पास नहीं है। यदि मनुष्य का मन विभिन्न जटिलताओं को सहज एवं सरल बना सकता है तो विभिन्न भाषा प्रयोग एवं प्रतीकों को भी सहज बना सकता है।
किसी भाषा के कई शब्दों को हम समान अनुभूतियों में अन्य भाषा में अनूदित कर सकते हैं। जर्मन भाषा में जब कोई किसी से मिलता है, तो "गुटन टैग" (Guten tag) कहता है, जिसको अंग्रेजी में अनुदित करने पर मात्र "हेलो" (Hello) का प्रयोग करता है। यदि किसी अंग्रेज से आप "गुटन टैग" को अनुवाद करके "गुड डे" (Good day) कहेंगे तो उसे विचित्र लगेगा । कोई जापानी मिलकर जाते समय "सायोनारा" कहता है, जिसका मतलब है, 'ऐसा होना है क्या? अंग्रेज़ को अपना "गुड बाई" अधिक पसंद रहेगा मशीनीकरण द्वारा अनुवाद में ऐसे थोक शब्द खण्डों को अनुवाद के लिए आसानी से लिया जा सकता है। जब . हम साहित्यिक कृतियों को पढ़ते हैं, तो उनमें आम स्थितियों हमारी समझ में आ जाती है और हम एक समानता भी देखते हैं इस समानता को भिन्न-भिन्न पद बंधों द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है, यदि अंग्रेजी में A Single Swallow does not a Summer make है, तो उसके लिए मशीन में हिन्दी पदबंध "अकेला चना भाड नहीं फोड सकता" लगा सकते हैं।
मशीनी अनुवाद इस आधार पर या या कहे इस अनुमान पर चलता है कि भाषाओं के व्याकरण और कोश को इस तरह निर्दिष्ट किया जा सकता है। यदि हम भाषा को शब्दों का सिलसिला ही समझ लें तो उसमें अनुवाद का कोई जटिल प्रश्न पैदा नहीं होता मगर ऐसा सरल अनुमान भाषा की गंभीरता के प्रति अन्याय हो जाएगा। उदाहरण के लिए हम एक सरल जर्मन पंक्ति को ले लें - Diese Kurze gemeinsane ueberlegung ist eine Art Experiment mit uns Selbst gewesen - स्थिति के साथ यहाँ हमारी समस्या पैदा होती है। जहाँ अनुवाद होगा This short joint reflection has been a kind of experiment with ourselves TET अनुबाद होना चाहिए, Has a kind of joint experiment with ourselves been's अंग्रेजी व्याकरण में 'go' एक क्रिया है। कई वाक्यों में उसके भिन्न-भिन्न अर्थ है। जैसे He is going to town', He is going home, He had to go, He is going to speak, He is going steady - इन सबमें अलग-अलग अर्थ है। अतः इसके लिए मशीनी अनुवाद सही प्रतिदिन को स्थापित कर पाएगा क्या? यही बात हम हिन्दी के कई सहायक क्रियाओं के साथ भी देख सकते हैं। जैसे - लग या सक। जहाँ क्रियाएँ मुहावरों का काम करने लगती है, वहाँ मशीनी अनुवाद और भी जटिल हो जाता है। उदाहरण के लिए हम, हिन्दी में "साथ हो लिए को ले सकते हैं, जहां होना और लेना दोनों का सम्मिलित रूप चलने के अर्थ में निकलता है।
भाषा को अलग-अलग खण्डों में विभाजित करके ही मशीनों में अनुवाद किया जाता है। उदाहरण के लिए हम कम्प्यूटर के सामने हिन्दी भाषा का एक वाक्य देते हैं - "न जाना हमने कि जानना भी न जानने से कम नहीं " - तां इसका कोई स्पष्ट अर्थ एकदम समझ में नहीं आता है। कम्प्यूटर में प्रोग्राम में विश्लेषित करना पडेगा। 'Noun Phrase' 'Verb phrase' आदि को स्थापित करना पड़ेगा। ऐसी अवस्था में जब इसका अनुवाद अंग्रेजी में प्रस्तुत किया जाता है तो अर्थ निकलेगा - Don't we know that knowing is not knowing' अंग्रेजी में एक पंक्ति है - She drove in to the Bank' - यहाँ यह पता नहीं चलता कि वह बैंक में पैसा लेने गयी या उसकी मोटर गाडी बैंक के दरवाजे से टकरा गरयी मशीन अनुवाद को बिलकुल ईमानदार होना चाहिए। वह उलझे हुए ख्यालों में उलझ नहीं सकता। उसे ईमानदारी से स्पष्ट बोधवाले अर्थों को ही लेना पडेगा।
भाषा रूपों पर कम्प्यूटर आधारित अध्ययनों से कई बातें हमें मालूम होती हैं। 1956 में बार्शिग्टन में रूपात्मक और वाक्यात्मक आधार पर कम्प्यूटर के लिए भाषात्मक विश्लेषण प्रारंभ किया गया विक्टर इंगेव (Victor Yngue) ने कोमिट (Comit) नामक भाषात्मक प्रोग्राम शुरू किया जिसमें ग्रीक, रूसी, जर्मन, फ्रांसीसी और अंग्रेजी के बीच में अनुवाद के लिए "साफट वेअर" तैयार किया गया। मगर "पदबंध संरचना" आदि की जटिलताओं के कारण, वाक्य निर्माण सरलता से संभव नहीं हो सका और अनेक उदाहरण ऐसे आये जहाँ Snow' के लिए Tundra', 'Summer' के लिए Tropic, equator के लिए Imaginary belt आदि स्वरूप निकले। मशीन अनुवाद के अंतर्गत बडे आकार के कोशों को कम्प्यूटर रूप में लाने के प्रयास भी किये गये। आई.बी.एम. कार्पोरेशन ने रसायन, भौतिकी, जैविकी, और समाज विज्ञान के एक लाख पचास हज़ार इंदराज के साथ एक द्विभाषी रूसी-अंग्रेजी कोश कम्प्यूटर द्वारा तैयार किया, जिसका प्रयोग यू.एस. ऐयरफोर्स कर रहा है। मगर यहाँ भी दोनों भाषाओं में बुनियादी ज्ञान आवश्यक है। इसी तरह "मेग्राहिल" कम्पेनी ने 2,40,000 इंदराज के साथ एक चीनी - अंग्रेजी कोश कम्प्यूटरीकृत रूप में तैयार किया है, जिसका भी प्रयोजन तभी संभव है, जब थोड़ा बहुत भाषा ज्ञान रहता है। फिलहाल दो ही ऐसी प्रणालियाँ हैं जो पूरी तरह कम्प्यूटरीकृत अनुवाद प्रस्तुत कर सकते हैं। इस संबंध में कार्यचालन के बारे में भी जानना आवश्यक है। कम्प्यूटर के
गणनाएँ करने के लिए प्रयोग में लानेवाली प्रथम कम्प्यूटरनुमा उपकरण "एबकस" था। यह एक लकड़ी का फ्रेम था, जिसमें लोहे की छडे लगे रहती थी और छेद वाले गोल दाने लगे थे। इसे ऊपर-नीचे, भिन्न-भिन्न रंगों में लटकाया जाता था, दोनों पार्श्व में खिसकाकर गणना किया जाता था। तारों की कुल संख्या दस थी, जिसमें शून्य से नो तक के अंकों का प्रयोग किया जाता था। "एचकस" में जोहने या घटाने की क्रियाएं की जा सकती है।
स्काटिश गणितज्ञ जान नेपियर ने 1617 में कुछ छडों का आविष्कार किया जिन्हें नेपियर बोन्स कहते हैं। जान नेपियर ने लघु गणक (लागरियमस) का भी. आविष्कार किया था। इसके बाद स्लाइड रूल का आविष्कार हुआ। स्लाइड रूल के आविष्का है "विल्लियम आटरिड"। आपने ही गुणन चिह्न "X" का आविष्कार किया था। स्लाइड रूल दो चलनेवाले पेमानो का बना होता है, जो एक दूसरे के पास रखे जाते हैं और जिन्नों आसानी से इधर-उधर खिसकाया जा सकता है। इन पैमानों को इधर-उधर खिसकाने से गुणभाग आसानी और शीघ्रता से मिल जाते हैं सन् 1642 में फ्रांस के भौतिक शास्त्री और गणितज्ञ ब्लेस पैसकल ने यांचिक गणना मशीन की खोज की। साधारण तरीके से यह बनी थी, इस मशीन में गियर, व्हीलस, और डायल्स लगे हुए थे एक पूरे चक्कर के लिए पहिए का एक हिस्सा घूमता था और आगे-पीछे धुमाकर इस मशीन से जोड़ने और घटाने का काम किया जाता था। आज भी हमारे परंपरागत बिजली के मीटर, टैक्सी और आटो रिक्शा के मीटर इसी पद्धति का प्रयोग करते हैं । 1823 में केंब्रिज विश्वविद्यालय में एक यांत्रिक कम्प्यूटर बनाया गया जिसका नाम "डिफरेन्शियल इंजिन" था। इसे कम्प्यूटर के इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। गणित में कुछ ऐसे सूत्र हैं जिनके मूल्यों का अंतर स्थिर रहता है। इसी सिद्धांत पर डिफरेन्शियन इंजिन आधारित है। इसी मशीन के विकासक्रम में 'इनपुट" "डाटा डिवाइस" "गणना यूनिट" और "घिटिंग यूनिट" आदि का विकास हुआ।
कम्प्यूटरों को हम पांच पीढ़ियों में बांटते हैं। पहली पीढ़ी के कम्प्यूटरों में "इनियक" (Eniac) का विशेष स्थान है। अमेरिका में रक्षा संबंधी आवश्यकताओं के लिए इसका विकास किया गया। प्रथम पीढ़ी के कम्प्यूटरों में "वैक्यूम ट्यूब" का प्रयोग किया गया। भण्डारण के लिए इलेक्ट्रानिक ट्यूब या मेक्क्ूरी ट्यूब का प्रयोग होते रहे। इनमें तीव्र गति नहीं थी। बिजली का काफी खर्च होता था और ठंडा रखने के लिए वातानुकूलन की आवश्यकता थी। कम्प्यूटर की दूसरी पीढी में वैक्यूम ट्यूब के स्थान पर "ट्रान्सिस्टरों" का प्रयोग होने लगा 1948 में विलियम शोक्ली, जान बर्डन तथा वाल्टर ब्रटन ने ट्रान्सिस्टर का आविष्कार किया। ट्रांसिस्टरों का निर्माण "सिलिकान" तथा "जमानियम" जैसे अर्धचालकों से किया गया था। इस तरह दूसरी पीढ़ी के कम्प्यूटर आकार में छोटे होने लगे और बिजली के खर्च भी कम हो गयी। गलती होने की संभावना भी कम हो गयी
तीसरी पीढी की कम्प्यूटरों में "इन्टग्रेटट सर्किटों" का प्रयोग किया गया। इससे घटकों (components) को जोड़ने की ज़रूरत कम हो गयी प्रथम पीढी की तुलना में यह कम्यूटर हज़ार गुणा अधिक तीव्र थे। और गणित की कोई भी क्रिया को एक नोना सेकण्ड (1/100 Second-Nano second) में करने की क्षमता इनमें थी। इसी अवधि में "सिलिकान" चिप का आरंभ हुआ और मिनी कम्प्यूटर विकसित होने लगा।
कम्प्यूटरों की चौथी पीढ़ी 1971 में प्रारंभ हुई, जब माइक्रो प्रोससेर का विकास हुआ। तीसरी पीढ़ी के कम्प्यूटरों की तुलना में चौधी पीढ़ी के कम्प्यूटरों के "डाटा प्रासरों" की क्षमता अधिक थी। "आप्टिकल रीडर" आडियो रेस्पांस टर्मिनल" "ग्राफिक डिस्प्ले टर्मिनल" आदि इस पीढ़ी की विशेषताएँ हैं।
पांचवी पीढ़ी के कम्प्यूटर स्वयं की बुद्धि और सोचने की क्षमता के रूप में कृत्रिम बुद्धिमता पैदा कर लेगा। अपने आप प्रोग्राम बनाने, यंत्र मानवों का नियंत्रण करने आदि की क्षमता इसमें उत्पन्न हो जाएगी। इन कम्प्यूटरों में प्रयोग किये जानेवाले एक "चिप" करोड़ ट्रांसिस्टर के बराबर है। अर्थात् हमारी बुद्धि की तरह प्रति सेकण्ड अनगिनत निर्देशों को पालन कर सकता है।
कम्प्यूटर में हमारे मस्तिष्क में उठनेवाली समस्याओं को हम "की बोई" के ज़रिए इनपुट के रूप में पहुंचाते हैं, जिसके लिए आवश्यक निर्देश कम्प्यूटर मांगा है और हम निर्देश देते हैं। निर्देश के अनुसार अपने भीतर प्राप्य सामग्री में चुंबकीय कोर द्वारा कम्प्यूटर उत्तर तलाश कर लेता है और तुरन्त उसे प्रदर्शित करता है। यदि हमें इस प्रदर्शन के अलावा अन्य कोई निर्देश देना हो. वह निर्देश भी चिप के जरिए अंतरित होता है। भोतर प्राप्य सामग्री से जो अधिकतर साफट बेअर के जरिए निहित रहता है। कम्प्यूटर आदेशों का पालन करता है। जब हम विभिन्न प्रकार के हमारे मस्तिष्क के आदेशों के लिए आवश्यक उत्तरों को कम्प्यूटर के भीतर पहुंचा देते हैं तो हमारे मस्तिष्क के कोशों के समान ही साधारण स्वीकार, तिरस्कार आधार पर कम्प्यूटर काम करने लग जाता है।
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