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Friday, September 10, 2021

4. मंत्र - श्री मुंशी प्रेमचंद


          4. मंत्र
         श्री मुंशी प्रेमचंद

            संध्या का समय था। डॉक्टर चड्ढा गोल्फ खेलने के लिए तैयार हो रहे थे। मोटर के सामने खड़ी थी। दो आदमी एक डोली लिये आते दिखायी दिये। डोली के पीछे द्वार एक बूढ़ा लाठी टेकता चला आ रहा था। डोली औषधालय के सामने आकर रुक गयी। बूढ़े ने धीरे-धीरे आकर द्वार पर पड़ी हुई चिक से झाँका। ऐसी साफ़-सुथरी ज़मीन पर पैर रखते हुए भय हो रहा था कि कोई घुड़क न बैठे। डॉक्टर साहब को खड़े देख कर भी उसे कुछ कहने का साहस न हुआ।

       डॉक्टर साहब ने चिक के अंदर से गरज कर कहा- कौन है? क्या चाहता है?

        बूढ़े ने हाथ जोड़कर कहा- हुज़ूर, बड़ा गरीब आदमी हूँ। मेरा लड़का कई दिन से..... डॉक्टर साहब ने सिगार जला कर कहा - कल सबेरे आओ, कल सबेरे, हम इस वक्त मरीज़ों को नहीं देखते।

       बूढ़े ने घुटने टेक कर ज़मीन पर सिर रख दिया और बोला- दुहाई है सरकार की, लड़का मर जायगा, चार दिन से आँखें नहीं ......

      डॉक्टर चड्ढा ने कलाई पर नज़र डाली। केवल दस मिनट समय और बाकी था । गोल्फ स्टिक खूँटी से उतारते हुए बोले - कल सबेरे आओ, कल सबेरे; यह हमारे खेलने का समय है।

       बूढ़े ने पगड़ी उतार कर चौखट पर रख दी और रोकर बोला- हुज़ूर, एक निगाह देख लें। बस, एक निगाह! लड़का हाथ से चला जायगा । हुज़ूर, सात लड़कों में यही एक बच रहा है, हुज़ूर । हम दोनों आदमी रो-रोकर मर जायेंगे, सरकार! आपकी बढ़ती होय, दीनबंधु!

       ऐसे उजड्ड देहाती यहाँ प्रायः रोज आया करते थे। डॉक्टर साहब उनके स्वभाव से खूब परिचित थे। कोई कितना ही कुछ कहे; पर वे अपनी ही रट लगाते जायँगे। किसी की सुनेंगे नहीं। धीरे से चिक उठाई और बाहर निकल कर मोटर की तरफ़ चले । बूढ़ा यह कहता हुआ उनके पीछे दौड़ा-सरकार, बड़ा धरम होगा। हुज़ूर, दया कीजिए, बड़ा दीन दुखी हूँ; संसार में कोई और नहीं है, बाबू जी।

         मगर डॉक्टर साहब ने उसकी ओर मुँह फेर कर देखा तक नहीं। मोटर पर बैठ बोले - कल सबेरे आना ।

         मोटर चली गयी। बूढ़ा कई मिनट तक मूर्ति की भाँति निश्चल खड़ा रहा। संसार में ऐसे मनुष्य भी होते हैं, जो अपने आमोद-प्रमोद के आगे किसी की जान की भी परवाह नहीं करते, शायद इसका उसे अब भी विश्वास न आता था। सभ्य संसार इतना निर्मम, कठोर है, इसका ऐसा मर्मभेदी अनुभव अब तक न हुआ था। वह उन पुराने जमाने के जीवों में था, जो लगी हुई आग को बुझाने, मुर्दे को कंधा देने, किसी के छप्पर को उठाने और किसी कलह को शांत करने के लिए सदैव तैयार रहते थे । इतना

        उसी रात उसका हँसता-खेलता सात साल का बालक अपनी बाल-लीला समाप्त करके इस संसार से सिधार गया । बूढ़े माँ-बाप के जीवन का यही एक आधार था। इसी का मुँह देख कर जीते थे। इस दीपक के बुझते ही जीवन की अँधेरी रात भाँय-भाँय करने लगी। बुढ़ापे की विशाल ममता टूटे हुए हृदय से निकल कर अंधकार आर्त्त-स्वर से रोने लगी।

                                          2

          कई साल गुजर गये। डॉक्टर चड्ढा ने खूब यश और धन कमाया; लेकिन इसके साथ ही अपने स्वास्थ्य की रक्षा भी की, जो एक साधारण बात थी। यह उनके नियमित जीवन का आशीर्वाद था कि पचास वर्ष की अवस्था में उनकी चुस्ती और फुर्ती युवकों को भी लज्जित करती थी। उनके हर एक काम का समय नियत था, इस नियम से वह जौ-भर भी न टलते थे। उनके केवल दो बच्चे हुए, एक लड़का और एक लड़की । लड़की का तो विवाह हो चुका था । लड़का कालेज़ में पढ़ता था। आज उसकी बीसवीं सालगिरह थी।

      संध्या का समय था। हरी - हरी घास पर कुर्सियाँ बिछी हुई थीं। शहर के रईस और हुक्काम एक तरफ़, कालेज़ के छात्र दूसरी तरफ़ बैठ भोजन कर रहे थे। बिजली के प्रकाश से सारा मैदान जगमगा रहा था । आमोद-प्रमोद का सामान भी जमा था।

          मृणालिनी और कैलाश दोनों सहपाठी थे और एक-दूसरे के प्रेम में पगे हुए। कैलाश को साँपों के पालने, खेलाने और नचाने का शौक था । तरह-तरह के साँप पाल रखे थे। उनके स्वभाव और चरित्र की परीक्षा करता रहता था। थोड़े दिन हुए, उसने विद्यालय में ‘साँपों' पर एक मार्के का व्याख्यान दिया था। साँपों को नचा कर दिखाया भी था।

प्राणिशास्त्र के बड़े-बड़े पंडित भी यह व्याख्यान सुन कर दंग रह गये थे। यह विद्या उसने एक बड़े सँपेरे से सीखी थी। साँपों की जड़ी-बूटियाँ जमा करने का उसे मरज था।

         ज्योंहि प्रीति-भोज समाप्त हुआ और गाना शुरू हुआ, उसने मृणालिनी और अन्य मित्रों को साँपों के दरबे के सामने ले जाकर महुअर बजाना शुरू किया। फिर एक-एक खाना खोलकर एक-एक साँप को निकालने लगा। वाह! क्या कमाल था। ऐसा जान पड़ता था कि वे कीड़े उसकी एक-एक बात, उसके मन का एक-एक भाव समझते हैं। किसी को उठा लिया, किसी को गरदन में डाल लिया, किसी को हाथ में लपेट लिया।

        एक मित्र ने टीका की-दाँत तोड़ डाले होंगे।

         कैलाश हँसकर बोला-दाँत तोड़ डालना मदारियों का काम है। किसी के दाँत नहीं तोड़े गये कहिए तो दिखा दूँ? कहकर उसने एक काले साँप को पकड़ लिया और बोला “मेरे पास इससे बड़ा और जहरीला साँप दूसरा नहीं है, अगर किसी को काट ले, तो आदमी आनन-फानन में मर जाय । लहर भी न आये। इसके काटे पर मंत्र नहीं। इसके दाँत दिखा दूँ?"

        मृणालिनी ने उसका हाथ पकड़कर कहा - नहीं-नहीं कैलाश, ईश्वर के लिए इसे छोड़ दो। तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ।

          इस पर एक दूसरे मित्र बोले- मुझे तो विश्वास नहीं आता, लेकिन तुम कहते हो, तो मान लूँगा।

          इसलिए कैलाश ने उस साँप की गर्दन खूब दबा कर मुँह खोल दिया और उसके ज़हरीले दाँत दिखाते हुए बोला "जिन सज्जनों को शक हो, आकर देखे लें। आया विश्वास ? या अब भी कुछ शक है?" मित्रों ने आकर उसके दाँत देखे और चकित हो गये। प्रत्यक्ष प्रमाण के सामने संदेह का स्थान कहाँ ? मित्रों का शंका-निवारण करके कैलाश ने साँप की गर्दन ढीली कर दी और उसे ज़मीन पर रखना चाहा, पर वह काला गेहुँवन क्रोध से पागल हो रहा था। गर्दन नरम पड़ते ही उसने सिर उठा कर कैलाश की उँगली में जोर से काटा और वहाँ से भागा । कैलाश की उँगली से टप-टपकर खून टपकने लगा। उसने जोर से उँगली दबा ली और अपने कमरे की तरफ़ दौड़ा। वहाँ मेज़ की दराज में एक जड़ी रखी हुई थी, जिसे पीस कर लगा देने से घातक विष भी रफू हो जाता था। मित्रों में  हलचल पड़ गई। बाहर महफिल में भी खबर हुई। डॉक्टर साहब घबरा कर दौड़े। फौरन उँगली की जड़ कस कर बाँधी गयी और जड़ी पीसने के लिए दी गयी। डॉक्टर साहब जड़ी के कायल न थे। वह उँगली का डसा भाग नश्तर से काट देना चाहते थे, मगर कैलाश को जड़ी पर पूर्ण विश्वास था। यह खबर सुनते ही मृणालिनी दौड़ी, और कैलाश की उँगली से टपकते हुए खून को रूमाल से पोंछने लगीं। जड़ी पीसी जाने लगी; पर उसी एक मिनट में कैलाश की आँखें झपकने लगीं, ओंठों पर पीलापन दौड़ने लगा। यहाँ तक कि वह खड़ा न रह सका। फर्श पर बैठ गया। सारे मेहमान कमरे में जमा हो गए। कोई कुछ कहता था। कोई कुछ। इतने में जड़ी पीसकर आ गयी। मृणालिनी ने उँगली पर लेप किया। एक मिनट और बीता। कैलाश की आँखें बंद हो गयीं। वह लेट गया और हाथ से पंखा झलने का इशारा किया। माँ ने दौड़कर उसका सिर गोद में रख लिया और बिजली का टेबुल-फेन लगा दिया।

         डॉक्टर साहब ने झुक कर पूछा- कैलाश, कैसी तबीयत है? कैलाश ने धीरे से हाथ उठा लिए; पर कुछ बोल न सका। मृणालिनी ने करुण स्वर में कहा-“क्या जड़ी कुछ असर न करेगी?” डॉक्टर साहब ने सिर पकड़ कर कहा-क्या बतलाऊँ, मैं इसकी बातों में आ गया । अब तो नश्तर से भी कुछ फायदा न होगा ।

         आधे घंटे तक यही हाल रहा। कैलाश की दशा प्रतिक्षण बिगड़ती जाती थी। यहाँ तक कि उसकी आँखें पथरा गयी, हाथ-पाँव ठंडे पड़ गये, मुख की कांति मलिन पड़ गयी, में नाड़ी का कहीं पता नहीं। मौत के सारे लक्षण दिखायी देने लगे। घर में कुहराम मच गया। मृणालिनी एक ओर सिर पीटने लगी; माँ अलग पछाड़े खाने लगी। डॉक्टर चड्ढा को मित्रों ने पकड़ लिया, नहीं तो वह नश्तर अपनी गर्दन पर मार लेते।

          एक महाशय बोले - कोई मंत्र झाड़ने वाला मिले, तो संभव है, अब भी जान बच जाय ।

           एक मुसलमान सज्जन ने इसका समर्थन किया-अरे साहब कब्र में पड़ी हुई लाशें जिंदा हो गयी हैं। ऐसे-ऐसे बाकमाल पड़े हुए है। हैं।

           डॉक्टर बोले-मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गया था कि इसकी बातों में आ चड्ढा गया। नश्तर लगा देता, तो यह नौबत ही क्यों आती। बार-बार समझाता रहा कि बेटा, सॉप न पालो, मगर कौन सुनता था । बुलाइए, किसी झाड़-फूक करने वाले ही को  बुलाइए। मेरा सब कुछ ले ले, मैं अपनी सारी जायदाद उसके पैरों पर रख दूँगा। लँगोटी बाँधकर घर से निकल जाऊँगा; मगर मेरा कैलाश, मेरा प्यारा कैलाश उठ बैठे। ईश्वर के लिए किसी को बुलवाइए।

        एक महाशय का किसी झाड़ने वाले से परिचय था। वह दौड़कर उसे बुला लाये; मगर कैलाश की सूरत देखकर उसे मंत्र चलाने की हिम्मत न पड़ी। बोला- अब क्या हो सकता है, सरकार ? जो कुछ होना था, हो चुका।

         अरे मूर्ख, यह क्यों नहीं कहता कि जो कुछ न होना था, वह कहाँ हुआ?

                                            3


            शहर से कई मील दूर एक छोटे-से घर में एक बूढ़ा और बुढ़िया अँगीठी के सामने बैठे जाड़े की रात काट रहे थे। बूढ़ा नारियल पीता था और बीच-बीच में खाँसता था। बुढ़िया दोनों घुटनों में सिर डाले आग की ओर ताक रही थी। एक मिट्टी के तेल की कुप्पी ताक पर जल रही थी। घर में न चारपाई थी, न बिछौना। एक किनारे थोड़ी-सी पुआल पड़ी हुई थी। इसी कोठरी में एक चूल्हा था । बुढ़िया दिन-भर उपले और सूखी लकडियाँ बटोरती थी। बूढ़ा रस्सी बट कर बाज़ार में बेच आता था । यही उनकी जीविका थी। उन्हें न किसी ने रोते देखा, न हँसते । उनका सारा समय जीवित रहने में कट जाता था। मौत द्वार पर खड़ी थी, रोने या हँसने की कहाँ फुरसत! बुढ़िया ने पूछा-कल के लिए सन तो है नहीं, काम क्या करोगे?

       'जाकर झगडू साह से दस सेर सन उधार लाऊँगा?'

       'उसके पहले के पैसे तो दिये ही नहीं, और उधार कैसे देगा?'

        ‘न देगा न सही। घास तो कहीं नहीं गयी। दोपहर तक क्या दो आने की भी न काँगा?'

        इतने में एक आदमी ने द्वार पर आवाज़ दी-भगत, भगत, क्या सो गये? ज़रा किवाड़ खोलो।

         भगत ने उठकर किवाड़ खोल दिये। एक आदमी ने अंदर आकर कहा- कुछ सुना, डॉक्टर चड्ढा बाबू के लड़के को साँप ने काट लिया।

        भगत ने चौंक कर कहा- चड्ढा बाबू के लड़के को। वही चड्ढा बाबू हैं न, जो छावनी में बंगले में रहते हैं?

        'हाँ हाँ वही। शहर में हल्ला मचा हुआ है। जाते हो तो जाओ, आदमी जाओगे।'

        बूढ़े ने कठोर भाव से सिर हिला कर कहा-मैं नहीं जाता। मेरी बला जाय। वहीं सुन है। खूब जानता हूँ। भैया, लेकर उन्हीं के पास गया था। खेलने जा रहे थे। पैरों पर चड्ढा गिर पड़ा कि एक नज़र देख लीजिए, मगर सीधे मुँह से बात तक न की। भगवान बैठे रहे थे। अब जान पड़ेगा कि बेटे का गम कैसा होता है। कई लड़के हैं ।

        'नहीं जी, यही तो एक लड़का था। सुना है, सबने जवाब दे दिया है।'

        'भगवान बड़ा कारसाज है। उस बखत मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े थे, पर उन्हें तनिक भी दया न आयी थी। मैं तो उनके द्वार पर होता, तो भी बात न पूछता।' ‘तो न जाओगे? हमने जो सुना था, सो कह दिया।'

        'अच्छा किया—अच्छा किया। कलेजा ठंडा हो गया, आँखें ठंडी हो गयीं। लड़का भी ठंडा हो गया होगा। तुम जाओ आज चैन की नींद सोऊँगा । (बुढ़िया से) जरा तंबाकू ले ले! एक चिलम और पीऊँगा । अब मालूम होगा लाला को। सारी साहबी निकल जायगी, हमारा क्या बिगड़ा। लड़के के मर जाने से कुछ राज तो नहीं चला गया? जहाँ छः बच्चे गये थे, वहाँ एक और चला गया, तुम्हारा तो राज सूना हो जायेगा। इन्होंने उसी के वास्ते सबका गला दबा-दबाकर जोड़ा था न अब क्या करोगे? एक बार देखने जाऊँगा; पर कुछ दिन बाद मिजाज का हाल पूछूंगा।'

           आदमी चला गया। भगत ने किवाड़ बंद कर लिये, तब चिलम पर तंबाखू रख कर पीने लगा। बुढ़िया ने कहा-इतनी रात गए, जाड़े-पाले में कौन जायगा?

          'अरे, दोपहर ही होता तो मैं न जाता। सवारी दरवाजे पर लेने आती, तो भी न जाता। भूल नहीं गया हूँ। पन्ना की सूरत आँखों में फिर रही है। इस निर्दयी ने उसे एक नज़र देखा तक नहीं। क्या मैं न जानता था कि वह न बचेगा? खूब जानता था। चड्ढा भगवान नहीं थे, कि उनके एक निगाह देख लेने से अमृत बरस जाता। नहीं, खाली मन की दौड़ थी। अब किसी दिन जाऊँगा और कहूँगा-क्यों साहब, कहिए, क्या रंग है? दुनिया बुरा कहेगी, कहे; कोई परवाह नहीं। छोटे आदमियों में तो सब ऐब हैं। बड़ों में कोई ऐब नहीं होता, देवता होते हैं।'

          भगत के लिए यह जीवन में पहला अवसर था कि ऐसा समाचार पा कर वह बैठा रह गया हो।

        अस्सी वर्ष के जीवन में ऐसी कभी न हुआ था कि साँप की ख़बर पाकर वह दौड़ न गया हो। माघ-पूस की अँधेरी रात, चैत-बैसाख की धूप और लू, सावन-भादों की चढ़ी हुई नदी और नाले, किसी की उसने कभी परवाह न की वह तुरंत घर से निकल पड़ता था निःस्वार्थ, निष्काम । लेन-देन का विचार कभी दिल में आया नहीं। यह ऐसा काम ही न था। जान का मूल्य कौन दे सकता है? यह एक पुण्य-कार्य था। सैकड़ों निराशों को उसके मंत्रों ने जीवन-दान दे दिया था; पर आप वह घर से कदम नहीं निकाल सका। यह खबर सुन कर सोने जा रहा है ।

          बुढ़िया ने कहा–तमाखू अँगीठी के पास रखी हुई है। उसके भी आज ढाई पैसे हो गये । देती ही न थी।

          बुढ़िया यह कहकर लेटी । बूढ़े ने कुप्पी बुझायी, कुछ देर खड़ा रहा, फिर बैठ गया। अंत को लेट गया; पर यह खबर उसके हृदय पर बोझे की भाँति रखी हुई थी। उसे मालूम हो रहा था, उसकी कोई चीज़ खो गयी है, जैसे सारे कपड़े गीले हो गये है या पैरों में कीचड़ लगा हुआ है, जैसे कोई उसके मन में बैठा हुआ उसे घर से निकालने के लिए कुरेद रहा है। बुढ़िया ज़रा देर में खर्राटे लेनी लगी। बूढ़े बातें करते-करते सोते हैं और ज़रा-सा खटा होते ही जागते हैं। तब भगत उठा, अपनी लकड़ी उठा ली, और धीरे से किवाड़ खोले ।

        बुढ़िया ने पूछा–कहाँ जाते हो?

        'कहीं नहीं, देखता था कि कितनी रात है।'

        'अभी बहुत रात है, सो जाओ'।

         'नींद नहीं आती।'

         ‘नींद काहे आयेगी? मन तो चड्ढा के घर पर लगा हुआ है।'

         'चड्ढा ने मेरे साथ कौन-सी नेकी कर दी है, जो वहाँ जाऊँ? वह आ कर पैरो पड़े, तो भी न जाऊँ ।'

          'उठे तो तुम इसी इरादे से ही?"

           'नहीं री, ऐसा पागल नहीं हूँ कि जो मुझे काँटे बोये, उसके लिए फूल बोता फिरूँ।'

            बुढ़िया फिर सो गयी। भगत ने किवाड़ लगा दिए और फिर आकर बैठा। पर उसके मन की कुछ ऐसी दशा थी, तो बाजे की आवाज़ कान में पड़ते ही उपदेश सुननेवालों की होती हैं। आँखें चाहे उपदेशक की ओर हों; पर कान बाजे ही की ओर होते हैं। दिल में भी बापे की ध्वनि गूँजती रहती है। शर्म के मारे जगह से नहीं उठता। निर्दयी प्रतिघात का भाव भगत के लिए उपदेशक था, पर हृदय उस अभागे युवक की ओर था, जो इस समय मर रहा था, जिसके लिए एक-एक पल का विलंब घातक था ।

           उसने फिर किवाड़ खोले, इतने धीरे से कि बुढ़िया को खबर भी न हुई। बाहर निकल आया। उसी वक्त गाँव के चौकीदार गश्त लगा रहा था, बोला- कैसे उठे भगत? आज तो बड़ी सरदी है। कहीं जा रहे हो क्या ?

        भगत ने कहा-नहीं जी, जाऊँगा कहाँ, देखता था, अभी कितनी रात है। भला, के बजे होंगे?

            चौकीदार बोला-एक बजा होगा और क्या, अभी थाने से आ रहा था, तो डॉक्टर चड्ढा बाबू के बँगले पर बड़ी भीड़ लगी हुई थी। उनके लड़के का हाल तो तुमने सुना होगा, कीड़े ने छू लिया है। चाहे मर भी गया हो। तुम चले जाओ तो शायद बच जाय । सुना है, दस हज़ार तक देने को तैयार हैं। भगत - " मैं तो न जाऊँ चाहे वह दस लाख भी दें। मुझे दस हज़ार या दस लाख लेकर करना क्या है? कल मर जाऊँगा, फिर कौन है।" भोगनेवाला बैठा हुआ है। "

             चौकीदार चला गया। भगत ने आगे पैर बढ़ाया। जैसे नशे में आदमी की देह अपने काबू में नहीं रहती, पैर कहीं रखता है, पड़ता कहीं है, कहता कुछ है, जबान से निकलता कुछ है, वही हाल इस समय भगत का था। मन में प्रतिकार था; पर कर्म, मन के अधीन न था। जिसने कभी तलवार नहीं चलायी, वह इरादा करने पर भी तलवार नहीं चला सकता। उसके हाथ काँपते हैं, उठते ही नहीं।

               भगत लाठी खट-खट करता लपका चला जाता था। चेतना रोकती थी, पर उपचेतना ठेलती थी। सवेक स्वामी पर हावी था।

             आधी राह निकल जाने के बाद सहसा भगत रुक गया। हिंसा ने क्रिया पर विजय पायी-मैं यों ही इतनी दूर चला आया। इस जाड़े-पाले में मरने की मुझे क्या पड़ी थी? आराम से सोया क्यों नहीं? नींद न आती, न सही; दो-चार भजन ही गाता । व्यर्थ इतनी दूर दौड़ा आया । चड्ढा का लड़का रहे या मरे, मेरी कला से। मेरे साथ उन्होंने ऐसा कौन-सा सलूक किया था कि मैं उनके लिए मरूँ? दुनिया में हज़ारों मरते हैं हज़ारों जीते हैं। मुझे किसी के मरने-जीने से मतलब ।

           मगर उपचेतना ने अब एक दूसरा रूप धारण किया, जो हिंसा से बहुत कुछ मिलता-जुलता था-वह झाड़-फूँक करने नहीं जा रहा है; वह देखेगा, कि लोग क्या कर रहे हैं। डॉक्टर साहब का रोना-पीटना देखेगा, किस तरह सिर पीटते हैं, किस तरह पछाड़े खाते हैं। वे लोग तो विद्वान होते हैं, सबर कर जाते होंगे। हिंसा-भाव को यों धीरज देता हुआ वह फिर आगे बढ़ा।

            इतने में दो आदमी आते दिखायी दिये। दोनों बातें करते चले आ रहे थे-चड्ढा बाबू का घर उजड़ गया, वही तो एक लड़का था। भगत के कान में यह आवाज़ पड़ी। उसकी चाल और भी तेज़ हो गयी। थकान के मारे पाँव न उठते थे। शिरोभाग इतना बढ़ा जाता था, मानों अब मुँह के बल गिर पड़ेगा। इस तरह वह कोई दस मिनट चला होगा कि डॉक्टर साहब का बँगला नज़र आया । बिजली की बत्तियाँ जल रही थीं; मगर सन्नाटा छाया हुआ था। रोने-पीटने की आवाज़ भी न आती थी । भगत का कलेजा धक धक करने लगा। कहीं मुझे बहुत देर तो नहीं हो गयी? वह दौड़ने लगा। अपनी उम्र में वह इतना तेज़ कभी न दौड़ा था । बस, यही मालूम होता था, मानो उसके पीछे मौत दौड़ी आ रही है ।


                                                  4

           दो बज गये थे। मेहमान विदा हो गये। रोनेवालों में केवल आकाश के तारे रह गये थे। और सभी रो-रोकर थक गये थे। बड़ी उत्सुकता के साथ लोग रह-रह आकाश की ओर देखते थे कि किसी तरह सुबह हो और लाश गंगा की गोद में दी जाय।

            सहसा भगत ने द्वार पर पहुँच कर आवाज दी। डॉक्टर साहब समझे, कोई म आया होगा। किसी और दिन हो तो उन्होंने उस आदमी को दुत्कार दिया होता; मगर बाहर निकल आये। देखा एक बूढ़ा आदमी खड़ा है कमर झुकी हुई, पोपला मुँह, सफ़ेद हो गयी थी। लकड़ी के सहारे काँप रहा था। बड़ी नम्रता से बोले- क्या है मई, आर तो हमारे ऊपर ऐसी मुसीबत पड़ गयी है कि कुछ कहते नहीं बनता, फिर कभी आना। इधर एक महीना तक तो शायद में किसी भी मरीज को न देख सकूँगा।

            भगत ने कहा-सुन चुका हूँ बाबू जी, इसीलिए आया हूँ। भैया कहाँ है? जरा मुझे दिखा दीजिए। भगदान बड़ा कारसाज है, मुरदे को भी जिला सकता है। कौन जाने भी उसे दया आ जाय। चड्ढा ने व्यथित स्वर से कहा चलो, देख लो, मगर तीन-चार घंटे हो गये। जो कुछ होना था, हो चुका। बहुतेरा झाड़ने-फूंकनेवाले देख-देखकर चले गये।

          डॉक्टर साहब को आशा तो क्या होती हाँ, बूढ़े पर दया आ गयी। अंदर ले गये। भगत ने लाश को एक मिनट तक देखा। तब मुस्कराकर बोला- अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, बाबू जी यह नारायण चाहेंगे, तो आधे घंटे में भैया उठ बैठेगा। आप नाहक दिल छोटा कर रहे हैं। जरा किसी से कहिए, पानी तो भरे।

           किसी ने पानी भर-भरकर कैलाश को नहलाना शुरू किया। पाइप बंद हो गया। था। नौकरों की संख्या अधिक न थी. इसलिए मेहमानों ने अहाते के बाहर के कुएँ से पानी भर-भरकर दिया, मृणालिनी कैलाश के लिए पानी ला रही थी। बूढा भगत खड़ा मुस्करा- मुस्कराकर मंत्र पढ़ रहा था मानो विजय उसके सामने खड़ी है। जब एक बार मंत्र समाप्त हो जाता, तब एक जड़ी कैलाश के सिर पर डाली गयी और न जाने कितनी बार भगत ने मंत्र फूँका आखिर जब उषा ने अपनी लाल-लाल आँखें खोली तो कैलाश की भी लाल-लाल आँखें खुल गयीं। एक क्षण में उसने अंगड़ाई ली और पानी पीने को माँगा। डॉक्टर चड्ढा ने दौड़कर नारायणी को गले लगा लिया। नारायणी दौड़कर भगत के पैरों पर गिर पड़ी और मृणालिनी कैलाश के सामने आँखों में आंसू-भरे पूछने लगी-"अब कैसी तबीयत है ?"

               एक क्षण में चारों तरफ़ खबर फैल गयी। मित्रगण मुबारकबाद देने आने लगे। डॉक्टर साहब बड़ी श्रद्धा से हर एक के सामने भगत का यश गाते फिरते थे। सभी लोग भगत के दर्शनों के लिए उत्सुक हो उठे; मगर अंदर जाकर देखा, तो भगत का कहीं पता न था। नौकरों ने कहा-अभी तो यहीं बैठे चिलम पी रहे थे। हम लोग तमाखू देने लगे, तो नहीं ली, अपने पास से तमाखु निकाल कर भरी।

            यहाँ तो भगत की चारों ओर तलाश होने लगी, और भगत लपका हुआ घर चला जा रहा था कि बुढ़िया के उठने से पहले पहुँच जाऊँ। 

             जब मेहमान लोग चले गये, तो डॉक्टर साहब ने नारायणी से कहा- बुड्ढा न जाने कहाँ चला गया। एक चिलम तमाखू का भी रवादार न हुआ।

            नारायणी - “ मैंने तो सोचा था, इसे कोई बड़ी रकम दूँगी।”

            चड्ढा - "रात को तो मैंने नहीं पहचाना, पर जरा साफ़ हो जाने पर पहचान गया। एक बार यह एक मरीज़ को लेकर आया था। मुझे अब याद आती है कि मैं खेलने जा रहा था और मरीज़ को देखने से इनकार कर दिया था। अब उस दिन की बात याद करके मुझे जितनी ग्लानि हो रही है, उसे प्रकट नहीं कर सकता। मैं उसे अब खोज़ निकालूँगा और उसके पेरों पर गिर कर अपना अपराध क्षमा कराऊँगा। वह कुछ लेगा नहीं, यह जानता हूँ, उसका जन्म यश की वर्षा करने ही के लिए हुआ है। उसकी सज्जनता ने मुझे ऐसा आदर्श दिखा दिया है, जो अब से जीवनपर्यंत मेरे सामने रहेगा।"

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कहानी का सारांश 

                  मंत्र



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                        मंत्र

            "मंत्र" उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद्र की एक प्रसिद्ध कहानी है। इस कहानी में प्रतिकूल परिस्थिति में भी अपने नेक स्वभाव को न छोड़नेवाले व्यक्ति का चरित्र चित्रण है।

             भगत, साँप से कटे व्यक्तियों को अपने मंत्रों के द्वारा बचानेवाला ग्रामीण है। अपनी सात संतानों में से बची आखिरी बीमार बच्चे को लेकर डाक्टर चड्ढा के पास चिकित्सा के लिए ले जाता है। डाक्टर साहब इसलिए उस बच्चे को देखने मना करते हैं कि अब उनके खेलने का समय है। बहुत अनुनय विनय करने पर भी वे नहीं मानते। बूढ़ा अपने जीवन के एक मात्र सहारे को खो बैठता है।

               समय के फेर से यही परिस्थिति डाक्टर साहब के जीवन में भी आ खड़ी होती है। डाक्टर साहब के बेटे कैलाश को साँपों के पालने, खेलाने और नचाने का शौक था। वह अपनी बीसवीं सालगिरह में अपनी प्रेमिका मृणालिनी के आग्रह तथा मित्रों के उकसाने पर अपने सर्प-कला प्रदर्शन दिखाने लगता है। एक जहरीली साँप के गले दबाते समय, वह क्रोधित होकर कैलाश को काट देता है। सब लोग घबरा जाते हैं। डाक्टर साहब के होश उड़ जाते हैं। किसी भी जड़ी का असर नहीं पड़ता। मंत्र पढ़ने पर ही जान बचने की नौबत आ जाती है।

                यह खबर मिलने पर पहले भगत को सांतवना मिलती है कि भगवान ने डाक्टर साहब को अच्छा सबक सिखाया। लेकिन उसके अंतःकरण ने उसे चैन की नींद नही सोने दिया। उसे लगता है कि उसकी हर क्षण की देरी कैलाश के लिए घातक है। उसके पैर अपने आप डाक्टर साहब के घर की ओर बढ़ता है। बहुत देर तक मंत्र पढ़कर कैलाश को बचा लेता है। अपना कर्तव्य समाप्त होने पर तुरंत वहाँ से निकल जाता है। आधी रात में डाक्टर साहब उसे पहचान नहीं पाते। लेकिन पहचानने के बाद वे आत्मग्लानि से भर जाते हैं। किसी भी तरह उसे ढूँढकर क्षमा याचना करने का निश्चय कर लेते हैं।

 सीख:- प्रतिकूल परिस्थिति में ईमानदारी का पालन करना नेक व्यक्ति का लक्षण है।




















Monday, March 22, 2021

धुवस्वामिनी

 

                                          ध्रुवस्वामिनी

                                                                           - जयशंकर प्रसाद

सूचना

               विशाखदत्त द्वारा रचित 'देवीचन्द्रगुप्त' नाटक के कुछ अंश 'श्रृंगार-प्रकाश और 'नाट्य-दर्पण' से सन् 1923 की ऐतिहासिक पत्रिकाओं में जब उद्धृत हुए तब चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के जीवन के सम्बन्ध में जो नई बातें प्रकाश में आई, उनसे इतिहास के विद्वानों में अच्छी हलचल मच गई। शास्त्रीय मनोवृत्ति वालों को, चन्द्रगुप्त के साथ घुवस्वामिनी का पुनर्लग्न असम्भव, विलक्षण और कुरुचिपूर्ण मालूम हुआ। यहाँ तक कि आठवीं शताब्दी के संजन ताम्रपत्र

                   हत्वा भ्रातरमेव राज्यमहरडेवीं स दीनस्तथा, 

                   लक्षं कोटिमलेखयन् किल कलौ दाता स गुप्तान्वयः ।

के पाठ में संदेह किया जाने लगा।

          किंतु जिस ऐतिहासिक घटना का वर्णन करते, सातवीं शताब्दी में बाणभट्ट ने लिखा है 

              अरिपुरेच परकलत्रकामुक  कामिनीवेश 

              श्चन्द्रगुप्तो            शकपतिमशातयत्।।

 और ग्यारहवीं शताब्दी में राजशेखर ने भी लिखा है

            दत्वारुद्ध गति खसाधिपतये देवीं घुवस्वामिनीम्। 

            यस्मात् खंडित साहसो निववृते श्रीरामगुप्तोनृपः ।

वह घटना केवल जनश्रुति कहकर नहीं उड़ाई जा सकती। 

         विशाखदत्त को तो श्री जायसवाल ने चन्द्रगुप्त की सभा का राजकवि और उसके 'देवीचन्द्रगुप्त' को जीवन-चित्रण नाटक भी माना है। यह प्रश्न अवश्य ही कुछ कुतूहल से भरा हुआ है कि विशाखदत्त ने अपने दोनों नाटकों का नायक चन्द्रगुप्त नामधारी व्यक्ति को ही क्यों बनाया ? परन्तु श्रीतलंग ने तो विशाखदत्त को सातवीं शताब्दी के अवन्तिवर्मा का आश्रित कवि माना है क्योंकि 'मुद्राराक्षस' की किसी प्राचीन प्रति में उन्हें मुद्राराक्षस के भरतवाक्य 'प्रा्थिवश्चन्द्रगुप्तः' के स्थान पर 'प्रार्थिवोऽवन्तिवर्मा' भी मिला। विशाखदत्त के आलोचक लोग उसे एक प्रामाणिक ऐतिहासिक नाटककार मानते हैं। उसके लिखे हुए नाटक में इतिहास का अंश कुछ न हो, ऐसा तो नहीं माना जा सकता। राखालदास बनर्जी, प्रोफेसर अल्तेकर और श्री जायसवाल इत्यादि ने अन्य प्रामाणिक आधार मिलने के कारण ध्रुवस्वामिनी और चन्द्रगुप्त के पुनर्लग्न को ऐतिहासिक तथ्य मान लिया है। यह कहना कि रामगुप्त नाम का कोई राजा गुप्तों की वंशावली में नहीं मिलता और न किसी अभिलेख में उसका वर्णन आया है, कोई अर्थ नहीं रखता। समुद्रगुप्त के शासन का उल्लंघन करके, कुछ दिनों तक साम्राज्य में उत्पात मचाकर, जो राजनीति के क्षेत्र में अन्तान हो गया हो; उसका अभिलेख वंशावली में न मिले तो कोई आश्चर्य नहीं। हाँ, भंडारकरजी तो कहते हैं कि उसके लघु-काल-व्यापी शासन का सूचक सिक्का भी चला था। 'काच' के नाम से प्रसिद्ध गुप्त सिक्के मिलते हैं, वे रामगुप्त के ही हैं। राम के स्थान पर भ्रम से काच पढ़ा जा रहा था। इसलिए बाणभट्ट की वर्णित घटना अर्थात् स्त्री-वेश धारण करके चन्द्रगुप्त का पर-कलत्र कामुक शकराज को मारना और ध्रुवस्वामिनी का पुनर्विवाह इत्यादि के ऐतिहासिक सत्य होने में संदेह नहीं रह गया है। और मुझे तो इसका स्वयं चन्द्रगुप्त की ओर से एक प्रमाण मिलता है । चन्द्रगुप्त के कुछ सिक्कों पर 'रूपकृती' शब्द का उल्लेख है। रूप और आकृति का जॉन एलन् ने खींच-तानकर जो शारीरिक और आध्यात्मिक अर्थ किया है, वह व्यर्थ है। 'रूपकृती' विरुद का उल्लेख करके चन्द्रगुप्त अपने उस साहसिक कार्य को स्वीकृति देता है जो ध्रुवस्वामिनी की रक्षा के लिए उसने रूप बदलकर किया है, और जिसका पिछले काल के लेखकों ने भी समय-समय पर समर्थन किया है।

          विशाखदत्त के 'देवीचन्द्रगुप्त का जितना अंश प्रकाश में आया है, उसे देखकर अबुलहसन अली की बक्कमारिस वाली कथा का मिलान करके कई ऐतिहासिक विद्वानों ने शास्त्रीय दृष्टिकोण रखनेवाले आलोचकों को उत्तर देते हुए ध्रुवदेवी के पुनर्लग्न को ऐतिहासिक तथ्य तो मान लिया है किन्तु भंडारकरजी ने पराशर और नारद की स्मृतियों से उस काल की सामाजिक व्यवस्था में पुनर्लन होने का प्रमाण भी दिया है। शास्त्रों में अनुकूल और प्रतिकूल दोनों तरह की बातें मिल सकती है, परन्तु जिस प्रथा के लिए विधि और निषेध दोनों तरह की सूचनाएँ मिलें, तो इतिहास की दृष्टि से वह उस काल में सम्भाव्य मानी जाएगी। ही, समय-समय पर उनमें विरोध और सुधार हुए होंगे और होते रहेंगे। मुझे तो केवल यही देखना है कि इस घटना की सम्भावना इतिहास की दृष्टि से उचित है कि नहीं।

          भारतीय दृष्टिकोण को सुरक्षित रखनेवाले विशाखदत्त जैसे पंडित ने जब अपने नाटक में लिखा है - 

             रम्यांचारतिकारिणीज करुणाशोकेन नीता दशाम् 

             तत्कालोपगतेन राहुशिरसा गुप्तेव चांदरकला। 

            पत्युः क्लीवजनोचितेन चरितेनानेव पुंसः सतो 

            लज्जाकोपविषाद भीत्वरतिभिः क्षेत्रीकृता ताम्यते ॥

            तो उस नाटक के सम्पूर्ण सामने न रहने पर भी, जिससे कि उसके परिणाम का निश्चित पता लगे, उस काल की सामाजिक व्यवस्था का तो अंशतः स्पष्टीकरण हो ही जाता है। नारद और पराशर के वचन

           अपत्यार्थम् स्त्रियः सृष्टाः स्त्री क्षेत्रं बीजिनो नराः  

          क्षेत्र बीजवते देयं नाबीजी क्षेत्रमर्हति । ( नारद) 

          नष्टे मृते प्रवृजिते क्लीचे च पतिते पतो । 

          पंचस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते । (पराशर)

         के प्रकाश में जब 'देवीचन्द्रगुप्त' नाटक के ऊपर वाले श्लोक का अर्थ किया जाए तो वह घटना अधिक स्पष्ट हो जाती है। रम्या है किन्तु अरतिकारिणी है, में जो श्लेष है, उसमें शास्त्र-व्यवस्था जनित ध्वनि है । और पति के क्लीव जनोचित चरित्र का उल्लेख, साथ-ही-साथ क्षेत्रीकृता जैसा पारिभाषिक शब्द, नाटककार ने कुछ सोचकर ही लिखा होगा।

         भंडारकर और जायसवालजी, दोनों ने ही अपने लेखों में विधवा के साथ पुनर्लग्न होने की व्यवस्था मानकर ध्रुवदेवी का पुनर्लग्न स्वीकार किया है किन्तु स्मृति की ही उक्त व्यवस्था में अन्य पति ग्रहण करने के लिए पाँच आपत्तियों का उल्लेख किया है, उनमें केवल मृत्यु होने पर ही तो विधवा का पुनर्लग्न होगा। अन्य चार आपत्तियों तो पति के जीवनकाल में ही उपस्थित होती हैं।

        उधर जायसवालजी चन्द्रगुप्त द्वारा रामगुप्त का वध भी नहीं मानना चाहते, तब 'देवीचन्द्रगुप्त' नाटक की कथा का उपसंहार कैसे हुआ होगा ? वैवाहिक विषयों का उल्लेख स्मृतियों को छोड़कर क्या और कहीं नहीं है ? क्योंकि स्मृतियों के संबंध में तो यह भी कहा जा सकता है कि वे इस युग के लिए नहीं, दूसरे युग के लिए हैं परंतु यही कलियुग के विधानग्रंथ आचार्य कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में मुझे स्मृतियाँ की पुष्टि मिली।

          किस अवस्था में एक पति दूसरी स्त्री ग्रहण कर सकता है, इसका अनुसंधान करते हुए, धर्मस्थीय प्रकरण के विवाहसंयुक्त में आचार्य कौटिल्य लिखते हैं

            वर्षाण्यष्टा वप्रजायमानामपुत्राम् बंध्यां चाकांदेत् दर्शविन्दु, 

            द्वादश कन्या प्रसविनीम् । ततः पुत्रार्थी द्वितीया वदेत् ।

            8 वर्ष तक बंध्या, 10 वर्ष बिंदु अर्थात् नश्यत्प्रसूति, 12 वर्ष तक कन्या प्रसविनी की प्रतीक्षा करके पुत्रार्थी दूसरी स्त्री ग्रहण कर सकता है। पुरुषों का अधिकार बताकर स्त्रियों के अधिकार की घोषणा भी उसी अध्याय के अंत में है

           नीचत्वम् परदेशम् वा प्रस्थितो राजकिल्विषी । 

            प्राणाभिहंता पतितस्त्याज्यः क्लीवोऽपिवापतिः ॥

          इसका मेल पराशर या नारद के वाक्यों से मिलता है इन्हीं अवस्थाओं में पति को छोड़ने का अधिकार स्त्रियों को था। क्योंकि 'अर्थशास्त्र' में, आगे जो मोक्ष-Divorce का प्रसंग आता है, उसमें न्यायालय संभवतः 'अमोक्षा भर्तुरकामस्य द्विषती भार्या भार्यायाश्च भर्ता, परस्परं द्वेषान्मोक्षः' के आधार पर आदेश देता था किंतु साधारण द्वेष से भी जहाँ अन्य चार विवाहों में मोक्ष हो सकते थे; वहाँ धर्म-विवाह में केवल इन्हीं अवस्थाओं में पति त्याज्य समझा जाता था। नहीं तो अमोक्षो हि धर्म-विवाहानामु' के अनुसार धर्म-विवाहों में मोक्ष नहीं होता था। दमयन्ती के पुनर्लग्न की घोषणा भी पति के नष्ट या परदेश प्रस्थित होने पर ही की गई थी।

          जायसवालजी अबुलहसन अली की यह बात नहीं मानते कि चन्द्रगुप्त ने रामगुप्त की हत्या की होगी। उनका कहना है कि चन्द्रगुप्त की तरह बड़े भाई के लिए गद्दी छोड़ चुका था। उनका अनुमान है कि Very likely. it came about in the form of popular uprsing.'

         अब नाटककार के 'अरतिकारिणी' और 'क्लीव' आदि शब्द घटना की परिणति की क्या सूचना देते हैं, यह विचारणीय है। बहुत सम्भव है कि अबुलहसन की कथा का आधार 'देवीचन्द्रगुप्त' नाटक ही हो क्योंकि अबुलहसन के लिखने के पहले उपत नाटक का होना माना जा सकता है।

         यह ठीक है कि हमारे आचार और धर्मशास्त्र की व्यावहारिकता की परंपरा विच्छिन्न-सी है। आगे जितने सुधार या समाजशास्त्र के परीक्षात्मक प्रयोग देखे या सुने जाते हैं, उन्हें अचिंतित और नवीन समझकर हम बहुत शीघ्र अभारतीय कह देते हैं, किंतु मेरा ऐसा विश्वास है कि प्राचीन आयोवत ने समाज की दीर्घकालव्यापिनी परंपरा में प्रायः प्रत्येक विधान का परीक्षात्मक प्रयोग किया है। तात्कालिक कल्याणकारी परिवर्तन भी हुए हैं। इसीलिए डेट हजार वर्ष पहले यह होना अस्वाभाविक नहीं था। क्या होना चाहिए और कैसा होगा, यह तो व्यवस्थापक विचार करें; किंतु इतिहास के आधार पर जो कुछ हो चुका या जिस घटना के घटित होने की संभावना है, उसी को लेकर इस नाटक की कथावस्तु का विकास किया गया है।

          भंडारकरजी का मत है कि यह युद्ध गोमती की घाटी में अल्मोड़ा जिले के कार्तिकेयपुर के समीप हुआ। जायसवालजी का मत है कि यह युद्ध 374 ई. से लेकर 380 ई. के बीच में काँगड़ा जिले के अबिबाल नामक स्थान में हुआ था, जहाँ कि प्रथम सिख युद्ध भी हुआ था।

         प्रयाग की प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की साम्राज्य-नीति में विजित राजाओं के आत्मनिवेदन कन्योपायन दान' ग्रहण करने का उल्लेख है। मैंने धवस्वामिनो के गुप्तकाल में आने का वही कारण माना है ।

         विशाखदत्त ने ध्रुवदेवी नाम लिखा है; किंतु मुझे धुवस्वामिनी नाम जो राजशेखर के मुक्तक में आया है, स्त्रीजनोचित, सुटर, आदर-सूचक और सार्थक प्रतीत हुआ। इसीलिए मैंने उसी का व्यवहार किया है।

                                                                                               -जयशंकर प्रसाद


पात्र-परिचय :

चन्द्रगुप्त

रामगुप्त

शिखरस्वामी

पुरोहित

शकराज

खिंगल

मिहिरदेव

घुवस्वामिनी

मंदाकिनी

कोमा

सामंत-कुमार, शक-सामंत, प्रतिहारी,

 प्रहरी, दासी, कुबड़ा, बौना, हिजड़ा


                                  ध्रुवस्वामिनी

     प्रथम अंक


[शिविर का पिछला भाग, जिसके पीछे पर्वतमाला की प्राचीर है शिविर का एक काम दिखलाई दे रहा है, जिससे सटा हुआ चन्द्रातप टैगा हैं। मोटी-मोटी रेशमी डोरियों से सुनाल के परदे खम्भों से बंधे हैं। दो-सीन सुन्दर मंच रक्रये हुए है। चन्द्रातप और पहाड़ी के बीच छोट कुज, पहाड़ी पर से एक पतली जलधारा उस हरियाली में बहती है । इगरने के पास शिला विपकी हुई लता की डालियाँ पवन में हिल रही हैं। दो-चार छोटे-बड़े वृक्ष, जिन पर फूलों में ल हुई सेवती की लता छोटा सा झुरमट बना रही है।

शिविर के कोने से प्रुवस्वामिनी का प्रवेश पीछे -पीछे एक लम्बी और कुरूप स्त्री चुपचाप नंगी तलवार लिए आती है।]

       धुवस्वामिनी-(सामने पर्वत की ओर देख कर) सीधा तना हुआ, अपने प्रभुत्व की साकार कठोरता, अभाभेदी उन्मुक्त शिखर! और इन क्षुद्र कोमल निरीह लताओं और पौधों को इसके चरण में लोटना ही चाहिए न। (साथवाली खड्गधारिणी की ओर देखकर) क्यों मन्दाकिनी नहीं आई? (वह उत्तर नहीं देती है) योलती क्यों नहीं? यह तो मैं जानती हैं कि इस राजकुल के अन्तःपुर में मेरे लिए न जाने कब से नीरव अपमान संचित रहा, जो मुझे आते ही मिला; किन्तु क्या तुम जैसी दासियों से भी वही मिलेगा? इसी शैलमाला की तरह मौन रहने का अभिनय तुम न करो, बोलो! (वह दाँत दिखाकर बिनय प्रकट करती हुई कुछ और आगे बढ़ने का संकेत करती है) अरे, यह क्या; मेरे भाग्य-विधाता। यह कैसा इन्द्रजाल? उस दिन राज-महापुरोहित ने कुछ आहुतियों के बाद मुझे जो आशीर्वाद दिया था, क्या बह अभिशाप या? इस राजकीय अन्तःपुर में सब जैसे एक रहस्य छिपाए हुए चलते हैं, वोलते हैं और मौन हो जाते हैं । (खड्ग-धारिणी विवशता और भय का अभिनय करती हुई आगे बढ़ने का संकेत करती है) तो क्या तुम मूक हो ? तुम कुछ बोल न सकी? मेरी बातों का उत्तर भी न दो, इसीलिए तुम मेरी सेवा में नियुक्त की गयी हो? यह असहय है। इस राजकुल में एक भी सम्पूर्ण मनुष्यता का निदर्शन न मिलेगा क्या? जिधर देखो कुडे, बौने, हिजडे, गूंगे और बहरे... (बिढ़ती हुई ध्रुवस्वामिनी आगे बढ़कर झरने के किनारे बैठ जाती है, खड़गधारणी भी इघर-उघर देख कर ध्रुवस्वामिनी के पैरों के समीप बैठती है।)

        खड़गपारिणी-(सशंक चारों ओर देखती हुई) देवि, प्रत्येक स्थान और समय बोलने के योग्य नहीं होते। कभी-कभी मौन रह जाना बुरी बात नहीं है । मुझे अपनी दासी समझिये । अवरोध के भीतर मैं गूगी हूँ । वहाँ संदिग्ध न रहने के लिए मुझे ऐसा ही करना पड़ता है।

       धुचत्वामिनी-अरे, तो क्या तुम बोलती भी हो? पर पह लो करो, यह कपट आवरण किसलिये। 

        खड्गधारिणी--एक पीडित की प्रार्थना सुनाने के लिए कुमार चन्द्रगुप्त को आप भूल न गयी होगी।

      धुवस्वामिनी-  (उत्कण्ठा से) वही न, जो मुझे बंदिनी बनाने के गये थे। 

       खड्गधारिणी-(दाँतों से जीभ दबाकर) यह आप क्या कह रही है ? उनको तो स्वयम् अपने भीषण भविष्य का पता नहीं । प्रत्येक क्षण उनके प्राणों पर सन्देह करता है। उन्होंने पूछा है कि मेरा क्या अपराध है?

      धुवस्वामिनी  -(उदासी की मुस्कुराहट के साथ) अपराध? में क्या बताऊँ । तो क्या कुमार भी बन्दी है?

      खड्गधारिणी-कुछ-कुछ ऐसा ही है देवी, राजाधिराज से कहकर क्या आप उनका कुछ उपकार कर सकेंगी?

      ध्रुवस्वामिनी-भला में क्या कर सकूँगी ? मैं तो अपने ही प्राणों का मूल्य नहीं समझ पाती । मुझ पर राजा का कितना अनुग्रह है, यह भी मैं आज तक न जान सकी । मैंने तो कभी उनका मधुर सम्भाषण सुना ही नहीं। बिलासिनियों के साथ मदिरा में उन्मत्त, उन्हें अपने आनन्द से अवकाश कहीं। 

      खड्गधारिणी-तब तो अदृष्ट ही कुमार के जीवन का सहायक होगा उन्होंने पिता का दिया हुआ स्वत्व और राज्य का अधिकार तो छोड़ ही दिया: इसके साथ अपनी एक अमूल्य निधि भी...। (कहते-कहते सहसा रुक जाती है)। 

       ध्रुवस्वामिनी-अपनी अमूल्य निधि वह क्या?

        खड्गधारिणी-वह अत्यन्त गुप्त है देवि, किन्तु में प्राणों की भीख मांगते हुए कह सकूँगी।  

       धुवस्वामिनी -(कुछ सोचकर) तो जाने दो छिपी हुई बातों से में घबरा उठी हूँ हाँ, मैंने उन्हें देखा था, वह निर प्राची का बाल अरुण आह! राज-चक्र सदको पीसता है, पिसने दो; हम निस्यहायं को और दुर्दलों को पिसने दो। 

        खड्गधारिणी-देवि, यह बल्लरी जो मरने के समीप पहाड़ी पर चढ़ गयी है, उसकी नन्हीं नन्हीं पत्तियों को ध्यान से देखने पर आप समझ जाएगी कि वह काई की जाति की है। प्राणों की क्षमता बढा लेने पर वही काई जो बिछलन बनकर गिरा सकती थी, अब दूसरों के ऊपर चढ़ने का अवलम्ब बन गयी है।

        ध्रुवस्यामिनी-(आकाश की और देख कर) वह बहुत दूर की बात है । आह कितनी कठोरता है। मनुष्य के हृदय में देवता को हटा कर सक्षस कहाँ से घुस आता है ? कुमार की स्निग्ध सरल और सुन्दर मूर्ति को देखकर कोई भी प्रेम से पुलकित हो सकता है। किन्तु, उन्हीं का भाई? आश्चर्य! 

         खड्गधारिणी-  कुमार को इतने में ही सन्तोष होगा कि उन्हें कोई विश्वासपूर्वक स्मरण कर लेता है । रही अध्ययष की माला, सो तो उनको अपने वाहू-वल और भाग्य पर ही विश्वास है। धूपयामिणी किन्तु उन्हें कोई ऐसा साहस का काम न करना चाहिए, जिसमें उनकी परिस्थिति और भी भयानक हो जाए। 

                               (खगपारिणी खड़ी होती है)

     अच्छा, तो आप तू जा और अपने मौन संकेत से किसी दासी को यहाँ भेज दे। में अभी भी बैठना चाहती हूं।

                  (खगधारिणी नमस्कार करके जाती है और एक दासी का प्रवेश)

       दासी- (हाथ जोड़ कर) देवि, सायंकाल शो चला है । वनस्पतियाँ शिवल होने लगी हैं । देखिए न, व्योम-विहारी पक्षियों का झुण्ड भी जपने नीड़ों में प्रसन्न कोलाहल से लौट रहा है। क्या भीतर चलने की अभी इच्छा नहीं है?

       ध्रुवस्यामिनी-बतँगी क्यों नहीं? किन्तु मेरा नीड़ कहाँ? यह तो स्वर्ण-पिञ्जर है।

       (करुण भाव से उठकर दासी के कन्धे पर हाथ रखकर चलने को उद्यत होती है। नेपध्य में कोलाहल । - 'महादेवी कहाँ हैं उन्हें कौन बुलाने गयी है?')

      धुवस्वामिनी-हैं यह उतावली कैसी?

      प्रतिहारी-(प्रवेश करके घबराहट से) भट्टारकर इधर आये हैं क्या? ध्रुवस्वामिनी-(व्यंग्य से मुस्कराते हुए) मेरे अंचल में तो छिपे नहीं हैं। देखों किसी कुञ्ज में

      प्रतिहारी-(संभ्रम से) अरे महादेवी, क्षमा कीजिये । युद्ध सम्बन्धी एक आवश्यक सम्वाद देने के लिए महाराज को खोजती हुई मैं इधर आ गयी हूँ ।

      धुवस्वामिनी-होंगे कहीं, यहाँ तो नहीं है।

    (उदास भाव से दासी के साथ प्रुवस्वामिनी का प्रस्थान । दूसरी ओर से खड्गधारिणी का पुनः प्रवेश और कुंज में से अपना उत्तरीय संभलता हुआ रामगुप्त मिलकर एक बार प्रतिहारी की और फिर खडगधारिणी की ओर देखता है।)

        प्रतिहारी-जय हो देव! एक चिन्ताजनक समाचार निवेदन करने के लिए अमात्य ने मुझे भेजा है। 

        रामगुप्त-(झुंझला कर) चिन्ता करते करते देखता हूँ कि मुझे मर जाना पड़ेगा! ठहरो (खड्गधारिणी से) हाँ जी, तुमने अपना काम तो अच्छा किया, किन्तु मैं समझ न सका कि चन्द्रगुप्त को वह जब भी प्यार करती है या नहीं?

(खड्गधारिणी प्रतिकारी की ओर देखकर चुप रह जाती है।)

       रामगुप्त-(प्रतिहारी की और क्रोध से देखता हुआ) तुमसे मैंने कह न दिया कि अभी मुझे अवकाश नहीं, ठहर कर आना?

       प्रतिहारी-राजाधिराजा शकों ने किसी पहाड़ी राह से उतरकर नीचे का गिरि-पथ रोक लिया है। हम लोगों के शिविर का सम्बन्ध राजपथ से छूट गया है । शकों ने दोनों ही ओर से घेर लिया है। 

       रामगुप्त-दोनों ओर से घिरा रहने में शिविर और भी सुरक्षित है। मूर्ख! चुप रह (खड्गधारिणी से) तो धुनदेदि, क्या मन-ही-मन चन्द्रगुप्त को हैन मेरा सन्देह ठीक?

        प्रतिहारी-(हाथ जोड़कर) अपराध कामा हो देव! अमात्य, युद्ध-परिषद् में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

         रामगुप्त-(हदय पर हाथ रखकर) युद्ध तो पहाँ भी चल रहा है, देखता नहीं, जगत् की अनुपम सुन्दरी मुझसे स्नेह नहीं करती और मैं हूँ इस देश का राजाधिराज !

        प्रतिहारी-महाराज, शकराज का सन्देश लेकर एक दूत भी आया है।

        रामगुप्त-आह । किन्तु ध्रुवदेवी! उसके मन में टीस है (कुछ सोचकर) जो स्त्री दूसरे के शासन रहकर और प्रेम किसी अन्य पुरुष से करती है; उसमें एक गम्भीर और व्यापक रस उद्वेलित रहता होगा। वही तो...नही, जो चन्द्रगुप्त से प्रेम करेगी वह स्त्री न जाने कब चोट कर बैठे ? भीतर-भीतर न जाने कितने कुचक्र घूमने लगेंगे (खड्गधारिणी से) सुना न, ध्रुवदेवी से कह देना चाहिए कि वह मुझे और मुझे ही प्यार करें । केवल महादेवी बन जाना ठीक नहीं। 

(खड्गधारिणी का प्रतिहारी के साथ प्रस्थान और शिखर स्वामी का प्रवेश)

       शिखर-स्वामी-कुछ आवश्यक बातें कहनी हैं देव!

       रामगुप्त-(चिन्ता से उँगली दिखाते हुए, जैसे अपने आप बातें कर रहा हो) ध्रुवदवी को लेकर क्या साम्राज्य से भी हाथ धोना पड़ेगा! नहीं तो फिर ? (कुछ सोचते लगता है) ठीका तो. सहसा मेरे राजदण्ड ग्रहण कर लेने से पुरोहित, अमात्य और सेनापति लोग छिपा हुआ विद्रोह भाव रखते हैं। (शिखर से) है न? केवल एक तुम्हीं मेरे विश्वासपात्र हो। समझा न! यही गिरिन्पथ सब झगड़ों का अन्तिम निर्णय करेगा । क्यों अमात्य, जिसकी भुजाओं में चल न हो, उसके मस्तिष्क में तो कुछ होना चाहिए?

      शिखर-स्वामी-(एक पत्र देकर) पहले इसे पढ़ लीजिए! (रामगुप्त पत्र पढ़ते-पढ़ते जैसे आश्चर्य से चाक उठता है) चौकिये मत, यह घटना इतनी आकस्मिक है कि कुछ सोचने का अवसर नहीं मिलता।

     रामगुप्त-(ठहरकर) है तो ऐसा ही किन्तु एक बार ही मेरे प्रतिकूल भी नहीं । मुझे इसकी सम्भावना पहले से भी थी।

      शिखर-स्यामी- (आश्चर्य से) ऐ? तब तो महाराज ने अवश्य ही कुछ सोच लिया होगा। मेघ- संकुल आकाश की तरह जिसका भविष्य घिरा हो, उसकी युधि को तो बिजली के समान चमकना ही चाहिए।

     रामगुप्त-(सशंक) कह दूं। सोचा है तो मैंने परन्तु क्या तुम उसका समर्थन करोगे? शिखर-स्वामी-यदि नीति-युक्त हुआ तो अवश्य समर्थन करुंगा। सबके विरुद्ध रहने पर भी स्वर्गीय आर्य समुद्रगुप्त की आक्षा के प्रतिकूल मैंने ही आपका समर्थन किया था। नीति-सिद्धान्त के आधार पर ज्येष्ट राजपुत्र को ...............।

     रामगुप्त-(बात काटकर) वह तो, वह तो में जानता हूँ, किन्तु इस समय जो प्रश्न सामने आ गया है, उसपर विचार करना चाहिए । यह तुम जानते हो कि मरी इस बिजय-यात्रा का कोई गुप्त उद्देश्य है। उसकी सफलता भी सामने ईपड़ रही है। हाँ, थोडा-सा साहस चाहिए।

     शिखर-स्वामी-वह क्या?

    रामगुप्त-शक-दूत सन्धि के लिए जो प्रमाण चाहता हो उसे अस्वीकार न करना चाहिए। ऐसा करने में इस संकट के बहाने जितनी विरोधी प्रकृति है, उस सबको हम लोग सहज में ही हटा सकेंगे। शिखर-स्वामी-भविष्य के लिए यह चाहे अच्छा हो; किन्तु इस समय तो हम लोगों को बहुत-से विघ्नों का सामना करना पड़ेगा।

     रामगुप्त-(हँसकर) तथा तुम्हारी बुद्धि कब काम में आवेगी ? और हां, चन्द्रगुप्त के मनोभाव का कुछ पता लगा?

    शिखरस्वामी-कोई नयी बात तो नहीं।

     रामगुप्त में देखता हूँ कि मुझे पहले अपने अन्तापुर के ही विद्रोह का दमन करना होगा (निःश्वास लेकर) ध्रुवदेवी के हृदय में चंद्रगुप्त की आकांक्षा धीरे-धीरे जाग रही है।

     शिखर-स्वामी-यह असम्भव नहीं; किन्तु महाराज! इस समय जाप को दूत से साक्षात् करके उपस्थित राजनीति पर ध्यान देना चाहिए। यह एक विचित्र वात है कि प्रबल पक्ष सन्धि के लिए सन्देश भेजे।

    रामगुप्त-विचित्र हो चाहे सचित्र, अमात्य, तुम्हारी राजनीतिज्ञता इसी में है कि भीतर और बाहर के सब शत्रु एक ही चाल में परास्त हो। तो चलो ।

                 (दोनों का प्रस्थान। मन्दाकिनी का सशंक भाव से प्रवेश)

     मन्दाकिनी-(चारों और देखकर) भयानक समस्या है। मुखों ने स्वार्थ के लिए साधाज्य के गोरच का सर्वनाश करने का निश्चय कर लिया है। सच है. पीरता जय भागती है, तब उसके पैरों से राजनीतिक एल छन्द की धूल उहती है। (कुछ सोचकर) कुमार चन्द्रगुप्त को पह सय समाचार शीघ्र ही मिलना चाहिए । गूंगी के अभिनय में महादेषी के हृदय का आवरण तनिक सा इटा मे, किन्तु वह योडा सा स्निग्ध भार भी कुमार के लिए कम महत्त्व नहीं रखता। कुमार चन्द्रगुप्त! कितना समर्पण का भाव है उसमें और उसका बड़ा भाई रामगुप्त। कपटाचारी रामगुप्त! जी करता है, इस कालुषित वातावरण से कीं दूर, विभूति में अपने को ठिपा लूँ। पर मन्दा तुझे विधाता ने क्यों पनाया? (सोचने लगती है) नहीं, मुझे हवय कटोर करके अपना कर्तव्य करने के लिए यहाँ रुकना होगा । न्याय का दुर्बल पास ग्रहण करना होगा।


            (गाती है)

पर कसक अरे आंसू सह जा।

बनकर विन अभिमान मुझे 

मेरा अस्तित्व बता, रह जा।

बन प्रेम छलक कोने कोने

अपनी नीरव गाथा कह जा।

करुणा बन दुखिया वसुधा पर

शीतलता फैलाता यह जा।


(जाती है। भुवस्वामिनी का उदास भाव से धीरे-धीरे प्रवेश। पीछे एक परिचारिका पान का डिब्बा और दूसरी चमर लिये आती भुवस्वामिनी एक मंच पर बैठकर अधरों पर उँगली रखकर कुछ सोचने लगती है और बभरधारिणी चमर चलाने लगती है।)

       ध्रुवस्वामिनी-(दुसरी परिचारिका से) हां, क्या कहा! शिखर स्वामी कुष्ठ कहना चाहते हैं कह दो, कल सुनेगा, आज नहीं।

      परिचारिका-जैसी आज्ञा । तो में कह आऊँ कि अमात्य से कल महादेवी बातें करेगी?

      ध्रुवस्वामिनी-कुछ सोच कर) ठहरो तो, वह गुप्त साम्राज्य का अमात्य है, उससे आज ही भेंट करना होगा। हाँ यह तो बताओ. तुम्हारे राजकुल का नियम क्या है? पहल अमात्य की मंत्रणा सुननी पड़ती है तब राजा से भेंट होती है?

     परिचारिका-(दाँतों से जीभ दबाकर) ऐसा नियम तो मैने नहीं सुना । यह युद्ध-शिविर हैं न? परम भट्टारक को जवसर न मिला होगा । महादेवी! आपको सन्देह न करना चाहिए।

     ध्रुवस्वामिनी-मैं महादगी हो न? यदि या सत्य है तो क्या तुम मेरी आमा कुमार चन्द्रगुप्त को यहाँ बुला सकती हो ? में चाहती हूँ कि अमात्य के साथ ही कुमार से भी कुछ बातें कर गर्ने परिचारिका-शमा कीजिए. इसके लिए तो पहले अमात्य से पूछना होगा।

    (ध्रुवस्वामिनी कोष से उसकी ओर देखने लगती है और वह पान का डिया रखकर चली जाती है। एक बौने का कुबो और हिजों के साथ प्रबेश)

     कुबड़ा-युख! भयानक युद्ध!।

     बौना-हो रहा है, कि कहीं होगा मित्र!

     हिजता-बहनो, यही युद्ध करके दिखाएं न, महादेवी भी देख लें।

     बौना-(कुबडे से) सुनता है रे। तू अपना हिमाचल इधर कर दै-में दिग्विजय करने के लिए कुबर पर चदाई कलंगा।

         (उसकी कूबड़ को दबाता है और कुबड़ा अपने घुटनों और हाथों के बल बैठ जाता है। हिजड़ा कुयों की पीठ पर बैठता है। यौना एक मोर्छल लेकर तलबार की तरह उसे पुमाने लगता है)

         हिजडा-अरे! यह तो में हैं नल-कुदर की वधू। दिग्विजयी बीर, क्या तुम स्त्री से युद्ध करोगे? लौट जाओ, कल जाना । मेरे असुर और आर्यपुत्र दोनों ही उर्वशी और रम्भा के अभिसार से अभी नहीं आये। कुछ आज ही तो युद्ध करने का शुभ मुहूर्त नहीं है।

        बौना-(मोर्छल से पटा घुमाता हुआ) नहीं, आज ही युद्ध होगा। तुम स्त्री नहीं हो, तुम्हारी उँगलियाँ तो मेरी तलवार से भी अधिक चल रही है । फूचड़ तुम्हारे नीचे है तब मैं मान लूँ कि तुम न तो नल-कूबर हो और न कुवेर तुम्हारे वस्त्रों से में धोखा न खा जाऊँगा । तुम पुरुष हो,युद्ध करो      हिजड़ा-उसी तरह मटकते हुए) अरे, मैं स्त्री हूँ। वहनो, कोई मुझसे व्याह भले ही कर सकता है, लड़ाई मैं क्या जाने?

             (दासी के साथ शिखर-स्वामी का प्रवेश)

       शिखर-स्वामी--महादेवी की जय हो।

         (दूसरी ओर से एक युवती दासी के कन्धे का सहारा लिये कुछ-कुछ मदिरा के नशे में रामगुप्त का प्रवेश । मुसकराता हुआ बाँने का खेल देखने लगता है। ध्रुवस्वामिनी उठकर खड़ी हो जाती है और शिखर स्वामी रामगुप्त को संकेत करता है।)

        रामगुप्त-कुछ भरे हुए कण्ठ से) महादेवी की जय हो।

        ध्रुवस्वामिनी-स्वागत महाराज!

        (रामगुप्त एक मंच पर बैठ जाता है और शिर स्थामी मुबसावामिनी के इस उदासीन शिष्टाचार से चकित होकर सिर खुजलाने लगता है।)

       कुवड़ा-दोहाई राजाधिराज की। मेष हिमालय का कूबड़ दुखने लगा। न तो यह नालकूबर की बर मेरे कुबर से उठती है और न तो यह बीना मुझे विजय ही कर लेता है

       रामगुप्त-हसत हुए) बार रे वामन बीर! यहाँ दिग्विजय का नाटक खेला जा रहा है क्या? 

       बौना-(अकड़कर) वामन के बलि-विजप की गाथा और तीन पगों की महिमा सव लोग जानते हैं। मैं भी तीन लात में इसका कूबर सीधा कर सकता हूं।

       कुवहा-लगा दे भाई पौने फिर यह अचल मफूट बनना तो छूट जाय!

       हिजडा-देखी जी, मैं नलकूबर की बू इसपर बैठी हैं।

       बौना-झूठ! युद्ध के डर से पुरुष होकर भी यह स्त्री बन गया है। 

       हिजला- तो पहले ही कह चुकी कि मैं युद्ध करना नहीं जानती ।

     बीना-तुम नलकूदर की स्त्री हो न, तो अपनी विजय का उपहार समझकर मैं तुमारा हरण कार लूँगा । (और लोगों की ओर देखकर उसका हाथ पकड़कर खींचता हुआ) ठीक होगा ना कदाचित यर धर्म के विरुद्ध न होगा।

         (रामगुप्त ठठाकर हंसने लगता है।)

      घुवस्वामिनी-(क्रोध से कडककर) निकालो! अभी निकली, यहाँ ऐसी निर्लज्जता का नाटक में नहीं देखना चाहती। (शिखर-स्वामी की और भी सक्रोध देखती है, शिखर के संकेत करने पर ये सब भाग जाते हैं।) 

      रामगुप्त-अरे, ओ दिग्विजयी सुन तो (उठकर ताली पीटता हुआ हैँसने सगता है। ध्रुवस्वामिनी क्षोभ और घृणा से मुंह फिरा लेती है। 

       शिखर-स्वामी के संकेत से दासी मदिरा का पात्र ले आती है, उसे देखकर प्रसन्नता से आंख फाहकर शिखर की ओर अपना हाथ वढा देता है) जमात्य आज ही महादेवी के पास में आया और आप भी पहुँच गये, यह एक विलक्षण घटना है। है न? ( पात्र लेकर पीता है।)

      शिखर-स्वामी-देव. में इस समय एक आवश्यक कार्य से आया हूँ।

     रामगुप्त-ओड, में तो भूल ही गया था! वह वर्धर शकराज क्या चाहता है? में आक्रमण न करूँ इतना ही तो? जाने दो, पुद्ध कोई अच्छी बात तो नहीं।

     शिखर-स्वामी-वह और भी कुछ चाहता है। 

     रामगुप्त-क्या कुछ सहायता भी माँग रहा है?

      शियर स्वामी-(सिर झुका कर गम्भीरता से) नही देव, बह पहुत ही असंगत और अशिष्ट याचना कर रहा है।

      रामगुप्त-क्या? कुछ कहो भी।

       शिखर-स्वामी-अमा गो महाराज! दूत तो अवध्य होता ही है, इसलिए उसका सन्देश सुनना ही पड़ा। वह कहता था कि शकराज से महादेवी भरुवा यामिनी का ( रुककर धुवस्वामिनी की जोर देखने लगता है। मुवस्यामिनी सिर हिलाकर कहने की आज्ञा देती है।) विधाह-सम्बन्ध स्थिर हो चुका या, बीद में ही आर्य समुद्रगुप्त की विजय यात्रा में महादेवी के पिताजी ने उपहार में उन्हें गुप्तकुल में भेज दिया, इसलिए महादेवी को बह....। 

       रामगुप्त-रे, क्या कहते हो अमात्य? क्या वह महादेवी को माँगता है ?

      शिवर-स्वामी-हाँ देव! साथ ही वह अपने सामन्तों के लिए भी मगध के सामन्तों को स्त्रियों को मांगता है।

     रामगुप्त-यास लेकर) ठीक ही है, जब उसके यहाँ सामन्त है, तब उन लोगों के लिए भी

स्त्रियाँ  चाहिए । हाँ, क्या यह सच है कि महादेवी के पिता ने पहले शफराज से इनका सम्बन्ध स्थिर कर लिया था

     शिखरस्वामी-यह तो मुझे नहीं मालूम? (ध्रुबस्थामिनी रोष से फुलती हुई टहलने लगती है।)

     रामगुप्त-महादेवी, अमात्य क्या पूछ रहे हैं?

     घुवस्वामिनी -इस प्रथम सम्भाषण के लिए में कृतज्ञ हुई महाराज! किन्तु चाहता हूँ कि गुप्त साम्राज्य क्या स्त्री-सम्प्रदान से ही बढ़ा है।

     रामगुप्त-(झपकर हंसते हुआ) हे-हें-में, बताइए अमात्य जी!

     शिखर-स्वामी-में क्या कहूँ? शत्रु-पक्ष का यही सन्धि-सन्देश है यदि स्वीकार न हो तो युद्ध कीजिए । किचिर दोनों ओर से घिर गया है। उसकी याते मानिए, या मरकर भी अपनी कुल मर्यादा की रक्षा कीजिए दूसरा कोई उपाय नहीं।

      रामगुप्त-(चाँककर) वया प्राण देने के अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं? ॐ हूँ, तब तो महादयी से पूछिए।

        ध्रुवस्वामिनी-(तीव्र स्वर से) और आप लोग, कुबडा, बौनों और नपुंसकों का नृत्य देखेंगे। मैं जानना चाहती हूँ कि किसने सुख-दुःख में मेरा साथ न छोड़ने की प्रतिज्ञा अग्नि-वेदी के सामने की है ?

         रामगुप्त-(चारों और देखकर) किसने की है, कोई बोलता क्यों नहीं?

        ध्रुवस्वामिनी - तो क्या में राजाधिराज रामगुप्त की महादेवी नहीं हैं?

        रामगुप्त-क्यों नहीं? परन्तु रामगुप्त ने ऐसी कोई प्रतिक्षा न की होगी। मैं तो उस दिन ब्राक्षासव में दुबकी लगा रहा था । पुरोहितां न न जाने क्या क्या पढ़ा दिया होगा । उन सब बातों का खोया मेरे सिर पर (सिर हिलाकर) कदापि नहीं।

        ध्रुवस्वामिनी-(निस्सहाय होकर दीनता से शिखरस्वामी के प्रति) वह तो हुई राजा की व्पवाया, अथ सु मंत्री महोदय क्या कहते हैं।

        शिखर नव्यामी मैं कहूँगा देवि, अवसर देखकर राज्य की रक्षा करनेवाली उचित सम्मति दे देना ही तो कर्तव्य है राजनीति के सिद्धान्त में राष्ट्र की रक्षा सन उपायों से करने का आदेश है उसके लिए राजा, रानी कुमार और अमात्य सबका विसर्जन किया जा सकता है। किन्तु राज विसर्जन अन्तिम उपाय है। 

       रामगुप्त-(प्रसन्नता से) बाह! क्या कहा तुमने तभी तो लोग तुम्हे नीति-शास्त्र का   बृहस्पति समझते हैं।

      ध्रुवस्वामिनी -अमात्य, तुम बृहस्पति हो रहे शुक्र, किन्तु धूर्त होने से ही क्या मनुष्य भूल नहीं कर सकता? आर्य समुद्रगुप्त के पुत्र को पहचानने में तुमने भूल तो नहीं की सिंहासन पर ्रम से किसी दूसरे को तो नहीं बिठा दिया।

       रामगुप्त-(आश्चर्य से) क्या?क्या?? क्या ???

      ध्रुवस्वामिनी  -कुछ नहीं, में केवल यही कहना चाहती हूं कि पुरुषों ने स्त्रियों को अपनी पशु सम्पत्ति समझकर उनपर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है, वह मेरे साथ नहीं चल सकता। यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा, नारी का गौरब, नहीं बचा सकते, तो मुझे बेच भी नहीं सकते हो। हा, तुम लोगों को आपत्ति से बचाने के लिए में स्वयं यहाँ से चली जाऊँगी। 

      शिखर-स्वामी-(मुंह बनाकर) उंह, राजनीति में ऐसी बातों को स्थान नहीं । जय तक नियमो के अनुकूल सन्धि का पूर्ण रूप से पालन नहीं किया जाए तब तक सन्धि का कोई अर्थ ही नहीं। 

    ध्रुवस्वामिनी -देखती हूँ कि इस राष्ट्र-रक्षा-या में रानी की बलि हगी ती । 

      शिखर-स्वामी-दूसरा कोई उपाय नहीं।

      ध्रुवस्वामिनी-(क्रोध से पैर पटककर) उपाय नहीं, तो न हो, निर्लज्ज अमात्य! फिर ऐसा प्रस्ताव में सुनना नहीं चाहती।

      रामगुप्त-(चर्चाककर) इस छोटी-सी बात के लिए इतना यहा उपद्रव। (दासी की ओर देखकर) मेरा तो काट सूखने लगा।

                       (वह मदिरा देती है)

      ध्रुवस्वामिनी-(दृढता से) अच्छा, तो अब में चागती हूँ कि अमात्य जपने मंत्रणा गृह में जाएँ। में केवल रानी ही नहीं, किन्तु स्त्री भी हैं, मुझे आपने की पति कहनेवाले पुष्प से कुछ कहना है, राजा से नहीं (शिखर स्वामी का वासियों के साथ प्रस्थान।)

     रामगुप्त-ठहरो जी, मैं भी चलता हूँ (उठना चाहता है। प्रुवस्वामिनी उसका हाथ पकड़कर रोक लेती है।) तुम मुझसे क्या कहना चाहती हो? 

     ध्रुवसयामिनी-(ठहरकर) अकेले यहाँ भय लगता है क्या? बैठिए, सुनिए। मेरे पिता ने उपहार स्वरूप कन्या-दान किया था। किन्तु गुप्तसमाट् क्या अपनी पत्नी शत्रु को उपाहार में देंगे? (घुटने के बल बैठकर) देखिए, मेरी ओर देखिए। मेरा बीच क्या इतने का भी अधिकारी नहीं कि अपने को स्वामी समझनेवाला पुष्प उसके लिए प्राणा का प्रण लगा सके ।

      रामगुप्त (उसे देखता हुआ) तुम सुन्दर हो, ओह, कितनी सुन्दर, किन्तु सोने की कटार पर मुग्ध होकर उसे कोई अपने हृदय में डुबा नहीं सकता। तुम्तारी सुन्दरता-तुम्हारा नारीत्व-अमूल्य हो सकता है। फिर भी अपने लिए में स्वयं कितना आवश्यक हूँ, कदाचित् तुम यह नहीं जानती हो ।

    ध्रुवस्वामिनी-(उसके पैरों को पकड़कर) मैं गुप्त कुल की वधू होकर इस राज-परिवार में आयी हूँ इसी विश्वास पर...

      रामगुप्त (उसे रोककर) बह सद में नहीं सुनना चाहता।

      ध्रुवस्वामिनी-मेरी रक्षा करो । मेरे अपने गौरव की रक्षा करो । राजा, आज में शरण की प्रार्थना हूँ। मैं स्वीकार करता हूं कि आज तक में तुम्हारे बिलास की सहचरी नहीं हूँ। किन्तु वह मेरा अहंकार चूर्ण हो गया है। मैं तुम्हारी होकर रहूँगी। राज्य और सम्पत्ति रहने पर राजा को-पुरुष को बहुत-सी रानियां और स्त्रियों मिलती हैं; किन्तु व्यक्ति का मान नष्ट होने पर फिर नहीं मिलता ।

       रामगुप्त-घबराकर उसका हाथ हटाता हुआ) आह, तुम्हारा वह घातक स्पर्श बहुत ही उत्तेजनापूर्ण है। में, नहीं। तुम, मेरी रानी? नहीं, नहीं । जाओ, तुमको जाना पड़ेगा । तुम उपहार की वस्तु हो । आज मैं तुम्हें किसी दूसरे को देना चाहता हूँ। इसमें तुम्हें क्यों आपत्ति हो?    

      ध्रुवस्वामिनी-(खड़ी होंकर रोप से) निर्लज्ज! मद्यप!! क्लीच!! ओह, तो मेरा कोई रक्षक नहीं (ठहरकर) नहीं, मैं अपनी रक्षा स्वयं करूंगी। मैं उपहार में देने की वस्तु, शीतल मणि नहीं हूँ। मुझमें रक्त की तरल लालिमा है । मेरा हृदय उष्ण है और उसमें आत्मसम्मान की ज्योति है। उसकी रक्षा में ही करूंगा (रसना से कृपाणी निकाल लेती है)।

    रामगुप्त - (भयभीत होकर पीछे हटता हुआ) तो क्या तुम मेरी हत्या करोगी? ध्रुवस्वामिनी तुम्हारी हत्या? नहीं, तुम जिओ । भेड की तरह तुम्हारा क्षुद्र जीवन! उसे न तुंगी! मैं अपना ही जीवन समाप्त करूँगी।

   रामगुप्त--किन्तु तुमार मर जाने पर उस पर शकरान के पास किसको भेना गावगा? मी, नहीं ऐसा न करो । गत्या | मत्या ।। । दीहो। (भागता हा निकाल जाता है। दूसरी ओर से वेग सहित योगुप्त का प्रवेश)

       चन्द्रगुप्त- हत्या कैसी हत्या (ध्रुवस्वामिनी को देखकर) वह क्या? महादेवी ठहरिए।

      ध्रुवस्वामिनी- कुमार, इसी समय तुम भी आना (सकरुण देती हुई) में प्रार्थना करती है कि तुम या से धले जाध (मुझे आपने अपमान में निर्यखननान देशाग का किसी पुरुष को धिकार नहीं मा मृत्यु को चादर से अपने को कि ने दो DB

     चन्द्रगुप्त-किन्तु क्या कारणा सुनने का में अधिकारी नहीं हैं ?

     ध्रुवस्वामिनी-सुनोगे ? (ठहरकर सोचती हुई) नी, सभी जात्गहत्या नहीं करूँगी । जब तुम आ गये हो तो गोड़ा ठहारगी । या तीखी पूरी इस अतात हदप में, विकासोन्मुख कुसुम में विपले कीट के इंक की तरह चुभा दूं या नहीं, इसपर विचार करेगी। यदि नहीं तो मेरी दुर्दशा का पुरस्कार क्या कुछ और है? हाँ जीवन के लिए कूलन, उपकृत और आभारी होकर किसी के अभिगानपुर्ण आत्म-विज्ञापन का भार दोती रहू-यही वया विधाता का निटूर विधान है? एटकारा नहीं ? जीवन नियति के कठिन आदेश पर चलेगा ही तो क्या यह मेरा जीवन भी अपना नहीं है?

    चन्द्रगुप्त - देवी जीवन विश्व की सम्पत्ति है। प्रमाद से, क्षणिक आवेश से, या काख की कठिनाइयों से उसे नष्ट करना ठीक तो नहीं । गुप्त कुरण-लक्ष्मी आज यह छिग्रम्ता का अवतार किस लिए धारण करना चाहती है? सु भी?

       ध्रुवस्वामिनी -नहीं, में न करूंगी। क्योंकि तुम आ गये हो मेरी शिविका के साथ चामर- मज्जित अध पर चढ़कर तुम्ही उस दिन आया थे? तुम्हारा विश्वासपूर्ण मुख्यमण्डल मेरे साथ आने में क्यों इतना प्रसन्न था?

      चन्द्रगुप्त-मैं गुप्तबुल-वधू को आदरसहित ले आने के लिए गया था। फ़िर प्रसन्न क्यों न होता ध्रुवस्वामिनी-सा फिर आज मुझे शक शिविर में पहुंचाने के लिए उसी प्रकार तुमको मेरे साथ चालना होगा। (आँखों से आँसू पोछती है।)

      चन्द्रगुप्त-आश्चर्य से) यह कैसा परिहास।

      ध्रुवस्वामिनी -कुमार! यह परिहास नहीं, राजा की आज्ञा है। शकराज को मेरी अत्यन्त आवश्यकता है। यह अवरोध, बिना मेरा उपहार दिये नहीं हट सकता।

       चन्द्रगुप्त-(आवेश से) या नहीं हो सकता महादवी! जिस मर्यादा के लिए- जिस महत्त्व का स्थिर रखने के लिए, मैंने राजदण्ड ग्रहण न करके अपना मिला हुआ अधिकार छोड़ दिया; उसका यह अपमान! मेरे जीवित रहते आ समुद्रगुप्त के स्वर्गीय गर्थ को इस तरह पद-दलित होना न पडेगा। (ठहरकर) और भी एक धात है। मेरे सयय के अनाकार में प्रथम किरण-सी आफर जिसने अन्नातभाव से अपना मधुर आलोक काल दिया था, उसको भी मैंने केवल इसीलिए भूलने का प्रयत्न किया कि- (सहसा चुप हो जाता है।)

     ध्रुवस्वामिनी  - बन्द किये हुए कुतूहन्न-भरी प्रसन्नता से) हाँ-हाँ, काहो-को

               (शिखर स्वामी के साथ रामगुप्त का प्रवेश)

       रामगुप्त-देखो तो कुमार यह भी कोई बात है? आत्महत्या फितना वडा अपराध है।

       चन्द्रगुप्त-और आप से तो वह भी नहीं करते बनता।

        रामगुप्त- (शिखर स्वामी से) देखो कुमार के मन में छिपा हुआ कलुष कितना.. कितना...भयानक है।

        शिखर-स्वामी - कुमार, विनय गुप्त-कुल का सर्वोत्तम गृह-विधान है। उसे न भूलना चाहिए।) 

        चन्द्रगुप्त - (व्यंग्य से हंसकर) अमात्य नभी तो तुमने व्यवस्था दी है कि महादेवी को देकर भी सन्धि की जाए। क्यों पही तो बिनय की पराकाष्ठा है। ऐसा बिनय प्रवञ्चकों का आवरण है, जिसमें शील न हो और शील परस्पर सम्मान की घोषणा करता है। कापुरुष! आर्य समुद्रगुप्त का सम्मान.

          शिवर-स्वामी-बीच में यात काटकर) उसके लिए मुझे प्राणदण्ड दिया जाए! मैं उसे अविद्यल भाव से ग्रहण करेगा, परन्तु और राष्ट्र की रक्षा होनी चाहिए।

          मन्दाकिनी-(प्रवेश करके) राजा जपने राष्ट्र की रक्षा करने में असमर्थ है, तब भी उस राजा की रक्षा होनी ही चाहिए। अमात्य, यह कैसी विवशता है। तुम मृत्युदण्ड के लिए उत्सुक! महादेवी आत्महत्या करने के लिए प्रस्तुत। फिर यह हिचक क्या? एक वार अन्तिम वल से परीक्षा कर देखो। बचोगे तो राष्ट्र और मान भी बचेगा, नहीं तो सर्वनाश

        चन्द्रगुप्त-आहा, मन्दा। भला तू कहाँ से वा उत्साहभरी बात कहने के लिए आ गयी? ठीक तो है अमात्य! सुनो, यह स्त्री क्या कह रही है।

        रामगुप्त-(अपने हाथों को मसलते हुए) दुरभिसन्धि, धन, मेरे प्राण लेने का कौशल!

        चन्द्रगुप्त-तव आओ, हम लोग स्त्री बन जाएँ और बैठकर रोएं। 

        हिजडा-(प्रवेश करके) कुमार, स्त्री बनना सहज नहीं है। कुछ दिनों तक मुझसे सीखना होगा (सबका मुंह देखता है और शिखर-स्वामी के मुँह पर हाथ फेरता है) उहूँ तुम नहीं दन सकते । तुम्हारे ऊपर या कटोर आवरण है । (कुमार के समीप जाकर) कुमार! मैं शपथ खाकर कह सकती हैं कि यदि मैं अपने हाथों गे सजा दें तो आपको देखकर महादेवी का भ्रम हो जाए।

            (चन्द्रगुप्त उसका कान पकड़कर बाहर कर देता है) 

         ध्रुवस्वामिनी-उसे छोड़ दो कुमार! यहाँ पर एक यही नपुंसक तो नहीं है । वहुत-से लोगों में से किसको-किसको निकालोगे?

          (चन्द्रगुप्त उसे  छोड़कर चिन्तित-सा टहलने लगता है और शिखर-स्वामी रामगुप्त के कानों में कुछ कहता है)

           चन्द्रगुप्त- सहसा खडे होकर) अमात्य, तो तुम्हारी ही बात रही। हा, उसभें तुम्हारे सहयोगी हिजड़े की भी सम्मति मुझे अच्छी लगी। म धुनस्वामिनी बनकर अन्य सामन्त कुमार के साथ शकराज के पास जाऊँगा। यदि मैं सफल हुआ तब तो कोई बात ही नहीं अन्यया मेरी मृत्यु के बाद तुम लोग जैसा उचित समझना, वैसा करना ।

        ध्रुवस्वामिनी -(चन्द्रगुप्त को अपनी मुजाओं में पकाकर) नहीं, मैं तुमको न जाने दूगी मेरे कष्र, हर्षद नारी-जीवन का सम्मान बचाने के लिए इतने बड़े निदान की आवश्यकता नहीं ।       

          रामगुप्त-(आश्चर्य और कोच से) छोड़ो, छोड़ो, पर कैसा अनर्थ! सयके सामने यह कैसी निर्लज्जता।

        ध्रुवस्वामिनी-(चन्द्रगुप्त को छोड़ती हुई जैसे चैतन्य होकर) यह पाप है? जो मेरे लिए अपनी बलि दे सकता हो, जो मेरे स्नेह (ठहरकर) अथवा इससे क्या शकराज क्या मुझे देवी बनाकर भक्ति-भाद से मेरी पूजा करेगा। चाह रे लज्जाशील पुरुष!

              (शिखर - स्वामी फिर रामगुप्त के कान में कुछ कहता है। रामगुप्त स्वीकार सूबक सिर हिलाता है)

         शिखर-स्वामी-राजाधिराज, आज्ञा दीजिए, यही एक उपाय है, जिसे कुमार बता रहे है किन्तु राजनीति की दृष्टि से महादेवी का भी वहाँ जाना आवश्यक है। 

         चन्द्रगुप्त-(क्रोध से) क्यों आवश्यक है। यदि उन्हें जाना ही पड़ा, तो फिर मेरे जाने से क्या लाभ तव मेंन जाऊँगा। रामगुप्त नहीं यह मेरी आज्ञा है। सामन्त-कुमारों के साथ जाने के लिए प्रस्तुत हो जाओ। ध्रुवस्वामिनी-तो कुमार। हम लोगों का चलना निश्चित ही है अब इसमें चिलम्ब की जावश्यकता नहीं ।

       (चन्द्रगुप्त का प्रस्थान । ध्रुवस्वामिनी मंच पर बैठकर रोने लगती है।) 

        रामगुप्त-अब यह कैसा अभिनय! मुझे तो पहले से ही शंका थी और आज तो तुमने मेरी आँखें भी खोल दीं।

       ध्रुवस्वामिनी - अनार्य । निष्ठुर! मुझे कलंक-कालिमा के कारागार में बंद कर, मर्म-वाक्य के धुएँ से उग पाटकर मार डालने की आशा न करो । आज मेरी असहायता मुझे अमृत पिलाकर मेरा निलज्ज जीवन बढ़ाने के लिए तत्पर है । उठकर, हाथ से निकल जाने का संकेत करते हुए) जागो, में एकान्त चारती है।

            (शिखर स्वामी के साथ रामगुप्त का प्रस्थान)

        धुवस्वामिनी-कितना अनुभूति पूर्ण था वह एक क्षण का आलिंगन। कितने सन्तोष से भरा या! नियति ना आतात्त भाव से मानो लू से तपी हुई बसधा को क्षितिज के निर्जन से सायंकालीन शीतल आकाश में मिला दिया हो।हरेकर) निस वायु-विहीन प्रदेश में उसकी हुई साँसों पर पन्धन हो अर्गला हो, वहाँ रहते-रहते यह जीवन असहय हो गया था। तो भी मरूगी नहीं। संसार के कुछ दिन विधाता के विधान में अपने लिए सुरक्षित करा लूंगी । कुमार' तुमने वही किया, जिसे में बचाती रही। तुम्हारे उपकार और रनेट की चर्चा में में भीगी जा रही हैं। ओह, (हदय पर उँगली रखकर) इस वक्षस्थता में यो हदय है क्या? जब जन्तरंग'हाँ' करना चाहता है, लव ऊपरी मन 'ना' क्यों कहना देता है?


चन्द्रगुप्त-(प्रवेश करके) महादेवी, हम लोग प्रस्तुत है, किन्तु भरवस्वामिनी के साथ शक शिविर में जाने के लिए जम साग सहमत नहीं।

     ध्रुवस्वामिनी  -(हँसकर) राजा की आना गान लेना ही पर्याप्त नहीं । रानी की भी एक बात न मानोगे मने तो पहले ही कुमार से प्रार्थना की थी कि मुझे जैसे ले आये हो, उसी तरह पहुँचा भी दी। 

    चन्द्रगुप्त नहीं -मैं अकेला ही जाऊंगा।

    ध्रुवस्वामिनी-कुमार। यह मृत्यु और निर्वासन का सुप तुम अकेले ही लोग, ऐसा नहीं हो सकता । राजा की इच्छा क्या है, यह जानते हो? मुझसे और तुमसे एक साथ ही टकारा । तो फिर वही अगों न हो? हम दोनों ही चलेंगे। मृत्यु के गर में प्रवेश करने के समय में भी एक विनोद, प्रलय का परिहास, दख सकूँगी । मेरी सहचरी तुम्हारा घर ध्रुवस्वामिनी का वेश, धुबस्वामिनी ही न देख तो किस काम का?


(दोनों हाथों में चन्द्रगुप्त का चिबुक पकड़कर सकरुण देखती है।) 

चन्द्रगुप्त-(अधखुली आँखों से देखता हुआ) तो फिर चलो।


(सामन्त कुमारों के आगे-आगे मन्दाकिनी का गम्भीर स्वर से गाते हुए प्रबेश) 

पैरों के नीचे जलधर हों, बिजली से उनका खेल चले 

संकीर्ण कगारों के नीचे, शत-शत झरने बेमेल चले 

सन्नाटे में हो विकल पवन, पादप निज पद हों चूम रहे 

तब भी गिरि-पथ का अथक पथिक, ऊपर ऊँचे सब झेल चलें 

पृथ्वी की आँखों में बनकर छाया का पुतला बढ़ता हो 

सूने तम में हो ज्योति बना, अपनी प्रतिमा को गढ़ता हो

पीड़ा की धूल उड़ाता-सा, बाधाओं को ठुकराता-सा 

कष्टों पर कुछ मुसकाता-सा, ऊपर ऊँचे सब झेल चले 

खिलते हों क्षत के फूल वहाँ बन व्यथा तमिस्रा के तारे 

पद-पद पर तांडव नर्तन हो, स्वर सप्तक होवें लय सारे 

भैरच रव से हो व्याप्त दिशा, हो काँप रही भय-चकित निशा 

हो स्वेद धार बहती कपिशा, ऊपर ऊँचे सब झेल चले 

विचलित हो अचल न मौन रहें निष्ठुर शृंगार उतरता हो 

क्रंदन कंपन न पुकार बने, निज साहस पर निर्भरता हो 

अपनी ज्वाला को आप पिये नव-नीलकंठ की छाप लिये 

विश्राम शांति को शाप दिये, ऊपर ऊँचे सब झेल चले।

                     (चन्द्रगुप्त और मुवस्वामिनी के साथ सबका धीरे-धीरे प्रस्थान अकेली मन्दाकिनी खडी रह जाती है।)

                                      पटाक्षेप







Saturday, March 20, 2021

पंचवटी/ कथावस्तु / Panchavati summary

 

                                                  पंचवटी


कवि का नाम : मैथिलीशरण गुप्त

जन्म :3 अगस्त 1886

जन्म स्थान : चिरगाँव (झाँसी)

निधन : सन् 1965

कवि परिचय :-

            राष्ट्रीय कवि मैथिलीशरण गुप्त से रचित खण्डकाव्य है पंचवटी। यह पौराणिक खण्डकाव्य है। इसके कुल 128 पद हैं। पूर्वाभास में तीन पद हैं। इसमें रामायण की एक घटना का सजीव वर्णन किया गया है। मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त 1886 को चिरगाँव में हुआ था। मैथिली शरण गुप्त का निधन 1965 को हुआ।



                                               कथावस्तु

             पिता की आज्ञा मानकर श्रीराम वनवास के लिए निकले। सीता भी उनके साथ चली। उन दोनों के पीछे लक्ष्मण भी जाने लगा। श्रीराम ने लक्ष्मण को रोकना चाहा मगर उसने नहीं माना। उसका प्यार देखकर श्रीराम उसको भी अपने साथ ले गये। घने जंगल के बीच पंचवटी नामक स्थान था। यह प्राकृतिक सौन्दर्य से भरा स्थान था।

           श्रीराम, सीता और लक्ष्मण तीनों वहीं पर्णकुटी बनाकर रहने लगे। रात को राम और सीता कुटी में सोते थे और लक्ष्मण बाहर पहरा देता था। एक रात को लक्ष्मण एक पत्थर पर बैठा था। पूरी दुनिया सोती थी मगर वह जागा हुआ था। वह अपने मन में यों सोचने लगा कि चाँदनी स्वच्छ है। रात अंधेरी है। प्रकृति कभी आराम नहीं करती है तेरह वर्ष बीत चुके है मगर सब बातें दिल में ताजी हैं। जल्द ही वनवास पूर्ण होनेवाला है। अब श्रीराम राजा बनेंगे और प्रजाओं की रक्षा करेंगे।

           माता कैकेयी ने पहले भाई राम को वन भेज दिया और फिर चित्रकूट में दुख व्यक्त किया। लोग राज्य को बड़ा मानते हैं। वास्तव में वह तुच्छ है। भाई राम कही भी रहे राजा ही है। इस वन में भी उनका ही शासन चलता है। यहाँ के पशु-पक्षी भाभी का स्नेह पाकर प्रसन्न हैं। गोदावरी नदी गोत गाती हुई बहती है। अयोध्या में हमारे रिश्तेदार सोचते होंगे कि हम वन में दुखी होंगे। मगर हम लोग यहाँ प्रसन्न हैं । उनको एक बार यहाँ ले आना चाहिए। मेरो पत्नी उर्मिला भी मेरी चिता में रोती होगी।

          जब लक्ष्मण ऐसा सोच रहा था तब एक अनुपम सुन्दरी उसके सामने प्रकट हुई। वह शर्म के बिना हँसती थी। लक्ष्मण ने उस सुन्दरी की ओर ध्यान नहीं दिया। वह सुन्दरी स्वयं लक्ष्मण से बोलने लगी कि मुझे देखकर भी आप कुछ नहीं बोले। इससे साबित होता है कि पुरुष निर्मम हुआ करते हैं। लक्ष्मण बोला कि आधी रात को अकेली औरत को देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा है। तुम अकारण पुरुषों को निर्मम कहती हो। मैं दूसरी औरतों से बात करने का आदी नहीं हूँ।

         मैं निर्मम और क्रूर हूँ। मैं माता, पिता, पत्नी, संपत्ति सब कुछ छोड़कर यहाँ आया हूँ। मैं यहाँ सचमुच प्रसन्न हूँ। तुमको देखकर मुझे सचमुच भय होता है। बताओ तुम कौन हो। उत्तर में वह सुन्दरी बोली कि तुमने यही कि मैं कौन हैं। मगर यह नहीं पूछा कि मैं क्या चाहती हूँ। पूछा मैं अतिथि बनकर आयी हूँ। क्या तुम मेरी सेवा नहीं करोगे? लक्ष्मण ने कहा कि मैं एक गरीब हूँ और तुम धनी हो। इस हाल में मैं तुम्हारी सेवा कर नहीं सकता। मेरे पास कुछ भी नहीं है। इसके उत्तर में वह रमणी बोली कि मुझे बस तुम्हारा प्यार चाहिए।

           यह सुनकर लक्ष्मण ने समझाया कि मैं विवाहित हैं। इसलिए तुम्हारी प्रार्थना को स्वीकार नहीं कर सकता। यह सुनकर वह युवती निराशित हुई।

           फिर भी वह तरह तरह के वाद प्रस्तुत करने लगी। इस तरह दनों के बीच। वाद-विवाद लंबी देर तक होता रहा।

          इतने में सूर्योदय हुआ और सीता कुटी से बाहर निकली। उसे देखकर वह सुंदरी अचंभे में पड़ गयी। वह अपनी सुन्दरता को तुच्छ मानने लगी। इतने में सीता ने लक्ष्मण से कहा कि हे देवर घर आये मेहमान से ठीक ठीक बात नहीं करते हो। यह निर्ममता का निशान है। लक्ष्मण ने झुककर सीता के पैर छुए तो सीता ने आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम्हारे और इस नारी के बीच जो बातें हुई उनको मैने नहीं सुना। तुम सब बात याद रखो और बाद में मुझे सुनाओ।

          फिर सीता उस युवती से बोली कि ये मेरे देवर हैं। इनका स्वभाव ही कुछ ऐसा है। मैं इनको तुम्हारा पति बनाऊँगी। चिंता मत करो। वास्तव में यह सीता का विनोद ही था। इसे सच मानकर वह सुन्दरी बोली कि यदि तुम ऐसा करोगी तो मैं जीवन भर तुम्हारा आभारी रहूँगी।

        सीता ने श्रीराम को जगाया तो वे जागकर कुटी से बाहर आये। उन्होंने उस रमणी से पूछा कि तुम कौन हो और क्या चाहती हो? इसपर वह सुन्दरी बोली कि मैं स्वच्छंद विचरनेवाली नारी हूँ। तुम्हारे छोटे भाई को देखकर मैं मोहित हुई। मगर तुम्हारे भाई ने मेरी प्रार्थना अस्वीकार कर दी। तुम सचमुच बडे हो। इसलिए मैं तुमको चाहने लगी हैं। तुम मुझे अपनाओ। मैं तुमको सब सुख दूंगी और तुमको प्रसन्न रखंगी।

          श्रीराम ने कहा कि तुम मेरे छोटे भाई को चाह चुकी हो। इसलिए में तुमको अपना नहीं सकता। वह रमणी लक्ष्मण की ओर देखने लगी तो लक्ष्मण बोला कि तुम भैया को चाह चुकी हो। तुम मेरी भाभी समान हो। मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार नहीं कर सकता।

           दोनों का उत्तर सुनकर उस सुन्दरी को अपार क्रोध हुआ। वह यह धोखा सहन कर नहीं सको। उसने अपना असली स्वरूप दिखाया। वह राक्षसी रूप था। उसने अपना नाम शूर्पनखा बताया। उसकी देखकर सीता घबरायी। लक्ष्मण ने कहा कि तुम्हारे इस अपराध का मैं ज़रूर दंड दूंगा। मैं तुम्हारी जान नहीं लूँगा मगर तुम्हारे नाक और कान काट देता हूँ ताकि आगे किसी को भी धोखा न दे सको। इतना कहकर उसने शूर्पणखा के नाक और कान काट दिये। शूर्पणखा चिल्लाती हुई वहाँ से चली गयी।

          सीता इस घटना से घबराने लगी तो रामने उसे आश्वासन दिया। लक्ष्मण ने कहा कि मैं हर संकट का साहस के साथ सामना करुंगा। आप चिंता न करें। फिर सीता घडा लेकर पानी भरने गयी तो लक्ष्मण उसकी सुरक्षा के लिए उसके साथ जाने लगा। श्रीराम उन दोनों को देखते रहे।


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ध्रुवस्वामिनी/Dhuruva swamini summary /कथावस्तु

 

                                          ध्रुवस्वामिनी


नाटककार : जयशंकर प्रसाद

जन्म : 30 जनवरी 1889              

जन्म स्थान : काशी

निधन : 14 जनवरी 1937

 



                                                 कथावस्तु

             ध्रुवस्वामिनी जयशंकर प्रसाद जी की अंतिम रचना है। उनकी अन्य रचनाओं की तुलना में यह छोटी है। फिर भी यह अत्यन्त रोचक है। इस में गुप्त साम्राज्य को मिला अपमान और उसे धोकर फिर चमकने की कहानी कही गयी। एक जासूसी कहानी के अन्दाज में यह नाटक लिखा गया है। आगे नाटक का सारांश दिया जाता है।

            मगध में समुद्रगुप्त का शासन चल रहा है। समुद्रगुप्त शक्तिशाली राजा हैं। वे वृद्ध हो चुके हैं। उनके दो बेटे हैं- राम गुप्त और चन्द्रगुप्त। रामगुप्त बड़ा है। वह कायर है। वह विलासी और अयोग्य है। चन्द्रगुप्त छोटा है। वह वीर है। वह आज्ञाकारी और शांतिप्रिय है।

            ध्रुवस्वामिनी लिच्छवी राजा की बेटी है। वह राजा अपनी बेटी को मगध राजा समुद्रगुप्त के महल में कुछ समय ठहरने के लिए भेजता है। चन्द्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी दोनों एक दूसरे को देखते हैं। दोनों के मन में प्यार पैदा होता है।

             समुद्रगुप्त अच्छी तरह जानते हैं कि रामगुप्त कायर है। राजा बनने लायक नहीं है। वह कुबडा, हिजडा, बौना आदि लोगों से खेला करता है। वे यह भी जानते हैं कि चन्द्रगुप्त निडर है। एक राजा का हर गुण उसमें विद्यमान है। उनको मालूम होता है कि चन्द्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी दोनों एक दूसरे को बहुत चाहते हैं। इसलिए वे घोषणा करते हैं कि उनके बाद चन्द्रगुप्त ही राजा बनेगा। वे चन्द्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी दोनों का विवाह भी तय करते हैं। मगर विवाह के संपन्न होने से पहले ही मर जाते हैं।

             अब रामगुप्त छल और कपट का नाटक खेलने लगता है। शिखरस्वामी मगध का मंत्री है। वह भी बड़ा दुष्ट है। वह रामगुप्त की मदद करता है।

             रामगुप्त और शिखर स्वामी दोनों सबको धोखा देते हैं। फलस्वरूप रामगुप्त मगध का राजा बनता है। इसीसे वह तृप्त नहीं होता। वह ध्रुवस्वामिनी से शादी कर लेता है। वह उडते पंछी के पंखों को तोडकर प्रसन्न होता है। ध्रुवस्वामिनी हर दुख झेलकर महल में रहती है।

            चन्द्रगुप्त चाहता तो स्वयं राजा बन सकता था और ध्रुवस्वामिनी से विवाह कर सकता था। वह चाहता तो रामगुप्त को देश से भगा भी सकता था। मगर वह ऐसा नहीं करता। वह शांतिप्रिय है। देश की भलाई चाहना उसका स्वभाव है।

          ध्रुवस्वामिनी भी चन्द्रगुप्त के स्वभाव से परिचित है। इसलिए वह चन्द्रगुप्त से कृद्ध नहीं होती बल्कि दुख के आँसू पी जाती है।

           रामगुप्त ध्रुवस्वामिनी से प्यार नहीं करता। वह केवल अपने छोटे भाई के मन को पीड़ा देने के लिए ध्रुवस्वामिनी से विवाह करता है। वह ध्रुवस्वामिनी के पास बैठता भी नहीं। वह हिजडे, बौने, कुबड़े आदि अयोग्य मित्रों के साथ अपना समय गुजारता है। वह ध्रुवस्वामिनी की सहायता के लिए एक गूंगी को नियुक्त करता है। वह हमेशा खड्ग थामे रहती है। उसका नाम मंदाकिनी है। खड्गधारणी-गूंगी-मंदाकिनी तीनों शब्द एक ही स्त्री के लिए प्रयोगित हैं।

           ध्रुवस्वामिनी मानती है कि गूगी उसकी सहायता करने के लिए आयी है। वास्तव में वह गूँगी भी नहीं वह ध्रुवस्वामिनी की सहायिका भी नहीं। 1. वह ध्रुवस्वामिनी पर निगराणी रखने आयी है। वह ध्रुवस्वामिनी का हर कार्य देखकर रामगुप्त को सूचित करती है।

           रामगुप्त के दिल में अचानक दिगबिजय करने की इच्छा पैदा होती है। वह स्वयं जानता है कि उसमें युद्ध करने की शक्ति नहीं है। इस संदर्भ में शिखरस्वामी उसे युद्ध के लिए प्रेरित करता है। अपने सैनिकों के भरोसे रामगुप्त दिगविजय करने निकलता है। वह भूल जाता है कि राजा का उत्साह ही सेना का उत्साह है।

          शक नामक एक राज्य उस जमाने में प्रसिद्ध था। गुप्त साम्राज्य शक राज्य को बार बार हराता था। चूंकि अब तक के गुप्त राजा पराक्रमी थे इसलिए शक राज्य पराजित होता था। शकराज के दिल में इसका दुख था। वह प्रशिशोध लेने के लिए मौका देख रहा था।

          रामगुप्त शकराज से युद्ध करने जाता हैं। शकराज युद्ध करने आता है। युद्ध में मगध सेना हार जाती है। रामगुप्त अपने प्राण बचाने के लिए शकराज से संधि करना चाहता है।

          शकराज आता है। युद्ध में मगध सेना हार जाती है। रामगुप्त अपने प्राण बचाने के लिए शकराज से संधि करना चाहता है।

           शकराज भी इसी मौके का इंतजार करता था। वह अपने सेनापति खिगल से इस संबंध में आलोचना करता है। तब खिंगल कई शर्ते लगाने को कहता है। गुप्त कुल का अपमान करने के लिए शकराज रामगुप्त से उसको पत्नी ध्रुवस्वामिनी को उपहार के रूप में भेजने को कहता है। अपने सैनिकों के लिए भी सुन्दरियाँ भेजने को कहता है। कायर रामगुप्त अपनी जान बचाने के लिए यह सब करने को तैयार हो जाता है।

           यह जानकर ध्रुवस्वामिनी क्रोधित होती है। वह अपने पति रामगुप्त से ऐसा न करने को कहती है। लेकिन रामगुप्त अपने इरादे से पीछे नहीं हटता। इस संदर्भ में ध्रुवस्वामिनी अपना स्त्रीत्व बचाने के लिए आत्म हत्या करने तैयार होती है। तब चन्द्रगुप्त ठीक समय पर आकर उसको जान बचाता है।

           चन्द्रगुप्त एक उपाय करता है। अपना उपाय वह रामगुप्त का सुनीता है। शकराज्य में किसी ने भी ध्रुवस्वामिनी को नही देखा है। इसका फायदा उठाकर चन्द्रगुप्त स्वयं ध्रुवस्वामिनी का वेशधरण करके शकराज के पास जाएगा। वहाँ जाकर शकराज से वह अकेले मिलेगा। तब अपना असली रूप दिखाकर शकराज को द्वन्द्व युद्ध के लिए बुलाएगा। शकराज लड़ने आएगा और चन्द्रगुप्त उसे मार डालेगा। यही चन्द्रगुप्त का उपाय है।

            यह जानकर स्वयं ध्रुवस्वामिनी भी चन्द्रगुप्त के साथ जाना चाहती है। चन्द्रगुप्त ले जाने को तैयार नहीं रहता। ध्रुवस्वामिनी बाध्य करती है। रामगुप्त ध्रुवस्वामिनी को जाने की अनुमति देता है। चन्द्रगुप्त से भी उसे ले जाने का आग्रह करता है। रामगुप्त दिल में सोचता है कि चन्द्रगुप्त को शकराज मार डालेगा। तब ध्रुवस्वामिनी या तो वहाँ रहेगी या तो आत्म हत्या करके मर जाएगी। इस तरह वह दोनों उलझनों से आज़ाद हो जाएगा।

            चन्द्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी का वेश बनाकर शकराज के यहाँ जाता है। ध्रुवस्वामिनी भी उसके साथ जाती है।

            शकराज के यहाँ कोमा नामक एक स्त्री है। वह उस राज्य के राजगुप्त मिहिरदेव की बेटी है। शकराज और कोमा दोनों का विवाह तय हो चुका है। ऐसे संदर्भ में शकराज ने ध्रुवस्वामिनी को माँगा है। यह जानकर कोमा दुखी होती है। वह शकराज से प्रार्थना करती है कि स्त्री का अपमान मत करो। स्त्री का अपमान करनेवाले नष्ट हो जाते हैं।

            आचार्य मिहिरदेव भी शकराज से मिलते हैं और कहते हैं कि मेरी बेटी के साथ अन्याय मत करो। शकराज जीत की मस्ती और ध्रुवस्वामिनी के मोह में रहता है। वह आचार्य मिहिरदेव का अपमान करता है। व कहते हैं कि आकाश में धूमकेतु निकला है। धरती में एक राजा की मौत निश्चित है।

           चन्द्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी के वेश में आता है और शकराज से अकेले में मिलता है। उसे द्वन्द्व लडाई के लिग ललकारता है। तब कीमा शकराज से चन्द्रगुप्त से न लड़ने को कहती है। ध्रुवस्वामिनी को वापस भेज देने करती है। मगर मूर्ख शकराज चन्द्रगुप्त की वीरता को कम अककर उससे लड़ता है। चन्द्रगप्त शकराज को मार डालता है।

            खबर पाकर कोमा और मिहिरदेव शकराज की शव को ले जाकर करने के लिए आते हैं। चन्द्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी से लाश ले जाने की अनुमति माँगते हैं। चन्द्रगुप्त हिचकता है। मगर ध्रुवस्वामिनी कोमा हो शकराज की लाश ले जाने की अनुमति देती है। कोमा और मिहिरदेव शव को ले जाते हैं। रास्ते में रामगुप्त के सैनिक उन दोनों को भी मार डालते हैं।

             चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी और अन्य स्त्रियाँ सभी मगध लौटते हैं। सभा होती है। जो कुछ भी हुआ उस संबंध में बहस होता है। सब रामगुप्त की निन्दा और चन्द्रगुप्त की प्रशंसा करते हैं।

             मंदाकिनी कहती है कि राजा का पहला कर्तव्य राज्य की रक्षा करना है। रामगुप्त ऐसा नहीं कर सका। मगर चन्द्रगुप्त ने ऐसा किया। इसलिए चन्द्रगुप्त ही असली राजा है।

             पुरोहित कहते हैं कि जो स्त्री की रक्षा करता है, उसके मान की रक्षा करता है वही उसका पति है। रामगुप्त ध्रुवस्वामिनी के मान की रक्षा नहीं कर सका मगर चन्द्रगुप्त ने उसका मान बचाया। इसलिए ध्रुवस्वामिनी पर रामगुप्त का कोई अधिकार नहीं है। वह पूर्ण रूप से चन्द्रगुप्त की है।

             रामगुप्त इस संदर्भ में आपा खाकर चन्द्रगुप्त को मारने जाता है मगर इससे पहले एक सामंत कुमार रामगुप्त को मार गिराता है। खलनायक का अन्त होता है। चन्द्रगुप्त सशक्त राजा बनकर अपने कुल का नाम रोशन करता है।

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Sunday, February 7, 2021

अभिनेयता की दृष्टि से चंद्रगुप्त नाटक का विवेचन

 

                 रंगमंच की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए चन्द्रगुप्त नाटक के गुण-दोषों का विवेचन कीजिए।

          (अथवा) 

          अभिनेयता की दृष्टि से चंद्रगुप्त नाटक का विवेचन कीजिए। 

         नाटक दृश्य-काव्य अधिक तथा श्रव्य-काव्य कम। इसी कारण नाटक प्राचीनकाल से रंगमंच की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही लिखे जा रहे हैं। किसी नाटक की अच्छी प्रशंसा तभी की जा सकती  जब हम उसका बार-बार अभिनय देखते है और उसका बार-बार पठन है। जोसेफ टी. शिपले ने भी लिखा है- "Probably for best " appreciation, a play should be seen, read, seen again and re- read".

        चन्द्रगुप्त नाटक की अभिनेयता के सम्बन्ध में पहले-पहल श्रीकृष्णानंद गुप्त ने आरोप लगाये थे। सन् 1937 में वाजपेयी जी ने उनके आक्षेपो का खंडन कर दिया था। फिर भी यह विवाद चलता रहा कि 'चन्द्रगुप्त' नाटक अभिनयशील है या नही ? इस प्रश्न पर विचार करने के पहले हमें यह जान लेना आवश्यक है कि सफल अभिनेय नाटक की क्या विशेषतायें हैं ?

        सफल अभिनेय नाटक की विशेषतायें : सफल अभिनेय नाटक की ये विशेषतायें होनी चाहिए (1) नाटक का आकार इतना हो जो तीन-चार घटों में अभिनीत हो सके। (2) दृश्यो और अको के विभाजन में संतुलन हो। (3) मार्मिक और भावपूर्ण स्थलों की योजना हो। (4) क्रिया-व्यापार का प्रवेग और प्रवाह हो। (5) अनुभाव तथा सात्विक भावों का निर्देशन हो। (6) सरल, संक्षिप्त तथा स्वाभाविक कथोपकथनों की योजना हो। (7) नृत्य और गीतों का सौंदर्य हो। (8) सुदर तथा आकर्षक दृश्यों की योजना हो। (9) वर्ज्य दृश्यों का अप्रदर्शन हो। (10) उदात्त भाव हो। (11) प्रभावान्वति हो। (12) सरल, रोचक और प्रभावपूर्ण भाषा हो।

       इन लक्षणों के आधार पर अब हम 'चंद्रगुप्त' की आलोचना करेंगे। 

     (1) चन्द्रगुप्त नाटक का आकार बड़ा नहीं है। उसमे केवल चार अंक है। परन्तु लम्बे कथोपकथात, साहित्यिक भाषा आदि के कारण यह तीन-चार घंटों में अभिनीत नहीं हो सकता। 

    (2) इसमें दृश्यों की संख्या अधिक है। इन दृश्यो की योजना में संतुलन भी नहीं है। प्रथम तथा दूसरे अक में ग्यारह-ग्यारह, तीसरे में नौ चोथे में चौदह दृश्य हैं। इसमें अनेक अनावश्यक दृश्य हैं। इनको हटाने पर भी कथानक की तनिक मात्र भी क्षति नहीं पहुँचती। 

    कुछ ऐसे दृश्य है जिनका आगमन पर सफल अभिनय किया जा सकता। 

    जैसे (1) प्रथम अना का पहला दृश्य जो तक्षशिला के गुरुकुल  का है।

           (2) प्रथम अंक का दूसरा दृश्य जो सम्राट नंद के विहारोद्यान का है।

          इसमें युद्ध, अभियान आदि के दृश्य है जो डॉ. नगेंद्र के अनुसार गड़बड़ करेंगे। ये आरोप तो वास्तविक लगते हैं। परन्तु यदि हमारा रंगमच भी पाश्चात्य रंगमंच की तरह समृद्ध होगा तो उपर्युक्त दृश्यों को भी आसानी से सफलता पूर्वक दिखा सकते हैं।

           (3) प्रसाद जी अत्यन्त भावुक कवि थे। इसलिए 'चंद्रगुप्त में अनेक भावुक और मार्मिक स्थल मिलते हैं।

           (4) चंद्रगुप्त नाटक में कुछ बाधक बातों को छोड़कर क्रिया-ब्यापार का वेग समान रूप से व्याप्त दिखाई पड़ता है।

          (5) प्रसाद जी ने अनुभावों तथा सात्विक भावों का वर्णन किया है। यथा चाणक्या चुपचाप मुस्कराता है। (पृ. 49), आम्भीक तलवार खीचता है। (पु. 49), वेग से आम्भीक का प्रवेश (पृ. 75). वररुचि का छुरा उठाकर (पृ. 141) आदि।

         (6) 'चंद्रगुप्त में प्रयुक्त कथोपकथन प्रायः संक्षिप्त, कथा-विकास में सहायक, चरित्र-चित्रण द्योतक और छोटे हैं। परन्तु कुछ स्थल ऐसे भी हैं, जहाँ मत-प्रतिपादन में या भावुकता से प्रेरित होकर प्रसाद जी ने लम्बे-लम्बे कथोपकथनों का प्रयोग किया है। यथा-युद्ध परिषद् का दृश्य, तृतीय अंक का छठा दृश्य। कथोपकथनों का विस्तार रंगमंच की दृष्टि से अनुपयुक्त है।

          चन्द्रगुप्त में स्वगत कथनों की अधिकता है। इतना ही नहीं ये स्वगत भाषण भी लघु नहीं, बड़े दीर्घकाय हैं। कही-कही तो ऐसे स्थल बहुत खटकते हैं। छोटे-मोटे स्वागत भाषणों की तो भरमार है। 

         कथोपकथन सरल तथा संक्षिप्त होने चाहिए। किन्तु प्रसाद के कथोपकथन कवित्वमयी भाषा, भावुकता तथा दार्शनिकता से भरे हुये हैं। इससे नाटक को अभिनीत करना कठिन हो जाता है। इस दृष्टि से हमें 'चन्द्रगुप्त नाटक को दोषपूर्ण ही कहना पड़ता है। 

        (7) नृत्य और गीत अभिनय के प्राणतत्त्व है। नृत्यों और गीतों में दर्शकों के मन को आकृष्ट करने की बड़ी क्षमता होती है। इसकी योजना दर्शकों के मन को ऊबने नहीं देता है। इसी कारण, इसकी सफल योजना से कई दृष्टियों से दोषपूर्ण नाटक भी अभिनय की दृष्टि से सफल बन सकते है। अतः नाटको में इसकी योजना आवश्यक है। प्रसाद जी में इन दोनों की उचित स्थान दिया है।



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              चन्द्रगुप्पा में तेरह गीत है। वे भावानुकूल तो हैं। किन्तु अभिनय * समय कुछ गीत अनावश्यक तथा उकतानेवाले हैं। चतुर्थ अक के चौथे धूप में ही मालविका तीन बार गाती है। इस कारण इस एक दृश्य के प्रदर्शन के लिए 20-25 मिनट लग जाते हैं। फिर पूरे नाटक के प्रदर्शन केलिए कितना समय लगेगा ? इस दृष्टि से भी नाटक दोषपूर्ण है। परंतु इतने मात्र से 'चन्द्रगुप्त' को रंगमच की दृष्टि से असफल नहीं माना जा सकता। कुछ अनावश्यक गानों को निकालकर और गान की दो-एक कड़ियों को सुनाकर इसे पूर्ण सफल बनाया जा सकता।

           (8) घटना-क्रम समझाने केलिए सुदर तथा आकर्षक दृश्यों की योजना आवश्यक होती है। प्रसाद ने 'चंद्रगुप्त' नाटक में आकर्षणपूर्ण दृश्यो की योजना की है।

           (9) 'चंद्रगुप्त' नाटक में कल्याणी. पर्वतेश्वर, नंद, आम्भीक आदि की मृत्यु रंगमंच पर दिखायी गयी है। मृत्यु को रंगमच पर दिखाना कठिन तो नहीं है, किन्तु कोमल तथा परिष्कृत मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मृत्यु की बात आसानी से सूचित की जा सकती है। इससे लोग मृत्यु के समाचार से परिचित हो जाते हैं। साथ ही उन पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता।

           (10) 'चंद्रगुप्त' में उदात्त भावों का सुंदर प्रदर्शन है। इसके अतिरिक्त श्रृंगार और वीर रस पूर्ण सवाद मिलते हैं।

           (11) 'चन्द्रगुप्त' में वस्तु के सुसंगठित विकास-कम के कारण विषय और व्यक्ति के प्रभाव का जो उत्कर्ष होता चलता है वह अन्त में जाकर ऐसा अन्वित हो जाता है कि सारा नाटक एक अखंडपूर्ण मालूम होने लगता है। यह रस-स्थिति अथवा प्रभावान्विति नाटक के प्राण-रूप में दिखायी पड़ती है। इसी प्रकार अभिनय में भी इसकी प्रधानता है। यह चंद्रगुप्त' की विशेषता है।

          (12) कतिपय आलोचको का कथन है कि प्रसाद की भाषा कठिन और दार्शनिक है। अतएव जन साधारण के समझने योग्य नही। किंतु वास्तविक बात यह नहीं है। उनकी भाषा भावानुकूल है। कुछ लोग यह भी आरोप लगाते हैं कि भाषा पाजानुकूल नही है। विभिन्न भाषाओं का प्रयोग करने पर रस-प्राप्ति में अवरोध उत्पन्न होता है ।

              इस तरह हम देखते हैं कि रंगमंच की दृष्टि से "चंद्रगुप्त' नाटक में कुछ दोष अवश्य हैं। किंतु जब नाटककार, नाट्य निर्देशक रंगमंच-प्रबंधक, सामाजिक (audience) सब मिलकर काम करेंगे तो इसे आसानी से अभिनीत किया जा सकता। कुछ परिवर्तनों से नाटक का सफल अभिनय हो सकता।


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Wednesday, January 27, 2021

पंचवटी /व्याख्या 1-50

 


                                                     पंचवटी

                                               (व्याख्या सहित)

                                                                                - मैथिलीशरण गुप्त

        राजा दशरथ ने अपनी दूसरी राजी कैकेयी को किसी समय वचन दिया था कि रानी कैकेयी दो वर माँग से। कैकशी ने राजा दशरथ के ये यो पर ऐसे समय पर माँगे, उन्ध युगराज रामचंद्र का पट्टाभिषक होनेवाला था। उन हो खबरों के अनुसार एक तो रामचंद्र को चौदह माল के लिए बन भेजना है और दूसरा, कैकेयी केपुत्र मरत का पट्टाभिषेक किया जाना चाहिए।


                                                     पूर्वाभास


      पूज्य पिता के सहज सत्य पर................. तुम मेरे सर्वस्य जहां।।  (1)

      व्याख्या:-  आज्ञाकारी पुत्र अपने पिताजी दशरथ के वचन का पालन करने हेतु जंगल की ओर प्रस्थान हुए । उन्होंने अपना राज्य ही नहीं, अपितु महल, धन दौलत सबको छोड़ दिया । संन्यासी के जैसे वस्त्र धारण कर निकले, तो उनकी धर्मपत्नी सीताजी भी अपने स्वामी के साथ वनवास के लिए निकलीं।

      इन दोनों के पीछे-पीछे लक्ष्मण भी चलने लगे। इसे देखकर श्रीराम ने पुष्ठा, तुम कहाँ।

      सिर झुकाकर लक्ष्मण ने उत्तर दिया, "स्वामी तुम मेरे सर्वस्व हो, तुम जहाँ जाओगे, वहाँ में भी

       चलूंगा।"

     सीता बोली कि, ये पिता की... मुझको भी अपना भागी।।   (2)

     व्याख्या :- लक्ष्मण का यह जवाब सुनकर सीताजी बोलने लगी, श्रीरामचंदजी तो अपने पिता की आता से, अपना सब कुष्ठ छोड़कर चल रहे हैं । परंतु है देवर तुम क्यों त्यागी बनकर घर से मुंह माहकर निकल रहे हो? लक्ष्मण भाभी को जवाब देने लगे-"आर्य! आप मुझे जबरदस्ती से त्यागी बना देती हैं। रासचंद्रजी की चरण-संवा करने में मुझे भी एक भागीदार मानिए।"

     क्या कर्तव्य यही है भाई?................. सफल सीप सी भर आई।।

     व्याख्या :- रामचंद्रजी ने प्रश्न किया, "क्या भाई, तुम्हारा कर्तव्य यही है?" प्रश्न सुनकर निरुत्तर होकर सिर झुका लिवा तो सीताजी ने बान को आगे बढ़ाते हुए कहा, तुमने सिर्फ प्यार किया है। यह कहते हुए सीताजी मुस्कुराने लगी। यह सारा दृश्य देखते हुए भावुकतावश रामचंद्र की आँखों से आशु झरने लगे।

     विशेषताएँ :- मैथिलीशरण गुप्त जी पुरोवाक के इन पदयों में श्रीरामचंय, सीताजी और लक्ष्मण की। चरित्रगत विशेषताओं का परिचय देते हैं।

    चारचन्द्र की चंचल किरणे.................मन पवन के झोंकों से।  (3)

     व्याल्या-चाँदनी रात में चंद्रमा की किरण तालों में और नदी जल की सतह पर ऐसे पोसक रूप में देखानेवालों को मोर रही हैं और ऐसा लग रहा है मानो थे खुद पृथ्वी-ताल पर खोल रही हो। चाँदनी अपनी शुभता को यो प्रकट कर रही है, धरती और आकाश पर फैला रही है । परती इस सफेद चाँदनी के स्पर्श के शारण गरित तृणों की नोकों से अपनी पुलक प्रकट कर रही है, मानो मंद-मंद हया के इन मॉकों से तरु और खताएँ भूम सी हों।

    पंचयटी की छाया में है ........ अना दृष्टिगत होता है।। (2)

    व्याख्या :- पंचवटी यशों की छाया में एक सुंदर पर्णकुटी बनी है। उसके सामने एक पत्थर पर वीर धीर निर्भीक युवक  बैठा है। यह धनुवीर रात-भर जाग रहा है. जबकि सारी दुनिया सो रही हैं । पह कौन है? कुसुमायुध (मन्मथ) योगी जैसा लग रहा है।

      किस व्रत में है व्रती वीर या.......तन है, मन है, जीवन है।। (3)

       व्याख्या :- क्या यह वीर पुरुष अब किसी व्रत में है। अन्यया क्यों इस प्रकार नींद को त्यागकर पैराग्य में बैठा है? जो राज-भोग का अधिकारी है, आज इस जंगल में वैरार्य लिए क्यों इस तरह बैठा है? ये जिस कुटीर का पहरा दे रहे हैं, उस पर्णकुटी में ऐसा कौन-सा पन रखा है? इस प्रकार इसकी रक्षा कर रहा है. मानो इसीम अपना तन, मन और सारा जीवन लगा दिया है।

      मर्तय लोक मालिन्य मेटने ..................निशाचरी माया ठहरी।। (4)

      व्याख्या :- इस मनुष्य जगत के मालिन्य को. पाप को धोकर मिटाने के लिए आज तीनों लोकों की माता लक्ष्मी ने अपने स्वामी के साथ यहाँ आकर इस पर्णकुटीर को अपनाया है। वीर वंश का सहज धर्म निभाते हुए यहाँ वीर लक्ष्मण इस कुटीर के प्रहरी बने हुए है।

      रात का समय है। कोई जन-संचार नहीं। रात में संचार करनेवाले राक्षसों का संचार होने लगा है। असावधान रहे तो ये निशाधरी राक्षस क्या क्या ऊधम नाही मचाएंगे।

        कोई पास न रहने पर भी ....... पीर धनुर्धर नई नई ...     (5)

      व्याख्या :- मनुष्य का मन हमेशा बंधत रहता है, यह स्वाभाविक है। मनुष्य इस बात के आदी भी है कि बगल में किसी के न रहने पर मन ही मन (प्रकट या अप्रकट कुछ बातचीत का दौरा चलाता रहता है। लक्ष्मण की भी यहाँ यही दशा है। 

       अकेलेपन में उत्साही धनुर्धर लक्ष्मण अपनी आनंदमयी दृष्टि इधर-उधर दोहाते हुए मन-ही-मन बात कर रहा है।

      क्या ही स्वच्छ चाँदनी है ,....... कितने शांतऔर चुपचाप   (6)

          व्याख्या :- यह चाँदनी बड़ी स्वच्छ और अति सुंदर है, रात की खामोशी भी मतवाली है । हल्की-हल्की चलनेवाली हवा सुगंध को साथ लेकर चल रही है । सभी दिशाएँ तो सानंद हैं। रात की खामोशी में सारा संसार निद्रामग्न होने पर भी प्रकृति अपने कार्यकलाप जारी रखती है। कोई भी काम रुका नहीं । एकांत भाव में शांत मन में चुपचाप अपना काम चला रही है।

        है बिखेर देती वसुंधरा ................नया रूप छलकाता है। (7)

          व्याख्या :- वसुंधरा रूपी धरती माँ अपने अंचल में ओसकण रूपी मोतियों को बिखेर देती है, जिनको सवेरा होते ही, सूर्य अपनी तेज किरणों से बटोर लेता है और विश्रामदायक संध्या को सौंप देता है। शाम का काला शरीर नक्षत्रों के रूप में ग्रहण कर झलकने लगता है।

        सरल तरल जिन तुहिन कणों से.......सदय भाव से सेती है। (8)

         व्याख्या :- प्रकृति और मनुष्य का पारस्परिक संबंध की ओर संकेत करते हुए कवि कहते हैं कि, प्रकृति जिन हिम कणों से हर्षित और पुलकित दिखाई देती है, दुखी रहनेवाले प्राणियों को यही दुखी नजर आती है। प्रकृति प्राणियों को एक ओर तो सारा सुख प्रदान करती है, उसी समय जाने-अनजाने होनेवाली भूलों का भी निर्मम होकर दंड भी देती है। पक्षपात किये बिना बूढ़ों की भी सेवा बच्चों की तरह करती है।

        तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके,......... इससे बढकर किस धन की? (9)

       व्याख्या :- अभी वनवास के तेरह वर्ष बीत गये। ऐसा लग रहा है, मानो हम कल ही वन आये। हमारे महल से वन की ओर निकलते समय, पिताश्री मूर्छित हुए थे। अब हमारा वनवास- काल जल्दी ही पूरा होनेवाला है । राजमहल वापस जाने पर भी (मुझे अर्थात् लक्ष्मण को) रामचंद्र की सेवा के भाग्य से बढ़कर कोई दूसरा भाग्य नहीं है।

       और आर्य को, राज्य-भार तो ...........कर सकता है यह नरलोक।। (10)

       व्याख्या :- रामचंद्रजी की बात तो अलग है। उनको प्रजा के हित में फिर से राज्य का भार स्वीकारना और संभालना होगा। लोक-हित की दृष्टि से वे तो इसे सहर्ष ही स्वीकार करेंगे ओर वे बहुत ही व्यस्त हो जाएँगे, मानों हम लोगों को भूल गये हों। इस कारण से क्या हमको दुख नहीं होगा? क्या यह मनुष्य लोक अपना भला स्वयं कर नहीं सकता? क्या राजा को ही इन सबकी देखभाल करनी होगी?

       मंझली माँ ने क्या समझा था,.........निज को हीन देख सकती ।। (11)

       व्याख्या :- झट लक्ष्मण को अपनी मंझली माँ कैकेयी की याद आती है और वे सोचने लगते हैं मंझली माँ कैकेयी ने सोचा था कि रामचंद्रजी को वन भेजकर वह खुद राजमाता बन जाएगी। परंतु चित्रकूट में स्थिति बिलकुल बदल गयी है। कैकेयी स्वयं करुणा का अवलंब वन गयी। कभी लोग उन्हें देखने आते थे तो अब वह स्वयं को देख नहीं सकती।

      अहो। राजमातृत्व यही था,....... हे विश्वानुकूल्य रखा ।। (12)

      व्याख्या :- अहो। क्या यही राजमातृत्व है। भरत भी एक त्यागी बन गये । सिंहासन ग्रहण करने से इनकार कर दिया। परंतु वे आज सचमुच सौ-सो सम्राटों से भी बड़े सौभाग्यशाली हैं उन्होंने जो रामजी की चरण-सेवा को श्रेष्ठ माना है। मानव-संसार तो मूर्ख है, जो राज्य को महत्वपूर्ण मानता है हमको तो जंगल ही सहज और अनुकूल लगता है। 

     होता यदि राजत्व मात्र ही ..........पूर्व-भाव ही भाते हैं।।  (13)

     व्याख्या :- लक्ष्मण के मन में तर्क-वितर्क का क्रम आगे बढ़ता है क्या हमारे जीवन का लक्ष्य मात्र राज्य परिपालन है? अगर ऐसा होता,तो हमारे पूर्वज इस राज्य का मोह त्यागकर क्यों वन की ओर प्रस्थान करते? अगर परिवर्तन ही उन्नति का पर्याय है, तो हम आगे बढ़ते ही जा रहे हैं, नित्य उन्नति करते ही हैं । परंतु मुझे तो पूर्व-भाव ही अर्थात् सीधे-सरल और सचाई के विचार ही अच्छे लगते हैं।

      जो हो, जहाँ आय्र्य रहते है.........हिले यहाँ स्वयमपि, सानन्द । (14)

        व्याख्या :- कुछ भी हो, रामचंद्र जहाँ रहते हैं वही हमारे लिए अयोध्या है। उनका सुशासन वहीं चलता है। उनके राज्य में सब प्राणी स्वच्छंद रूप से विहार करते हैं। नगरों में हम इन्हीं प्राणियों को, पशु पक्षियों को, बंद कर रखते हैं। यहाँ पशु-पक्षी, भाभी सीताजी से सहज स्नेह से स्वयं मिलते और खेलते रहते हैं।

       करते हैं हम पतित जनों में.......कभी नहीं सह सकता हूँ ।। (15)

        व्याख्या :- हम अकसर पतितों और दुष्टों पर पशुता और बर्बरता का आरोप करते हैं । वास्तव में देखा जाए तो ये पशु कभी अपने प्राकृतिक नियम नहीं तोड़ते । अतः मनुष्यों को पशु कहना सरासर अन्याय है। मनुष्य तो सभी नियमों को तोड़ते हैं, दुराचार और पाप करते हैं, तो ये पशु मनुष्य से कई गुना अच्छे होते हैं। सच्ची मानवता को देवत्व की जननी भी कह सकते हैं। परंतु पापियों को पशु कहना भी अपराध ही है मैं उसे सह नहीं सकता।

       आ आकर विचित्र पशु-पक्षी.........वे सब यहाँ रिझाते हैं । (16)

        व्याख्या :- पंचवटी में दुपहर के समय तरह-तरह के पशु-पक्षी आकर आराम करते हैं। भाभी सीताजी इन्हें खिला-पिलाकर सुस्ताती हैं ये यहाँ नन्हें, सुंदर और चंचल वाल-बच्चों की तरह माँ के जैसे घेर लेते हैं। अपने खेल-कूद के प्रदर्शन से सीता माता को प्रसन्न करते रहते हैं।

       गोदावरी नदी का तट वह ...... लालच भरे लहकते हैं। (17)

        व्याख्या :- प्रकृति भी अपनी प्रसन्नता को इस तरह प्रकट कर रही है कि गोदावरी नदी का तट भी इसके चंचल जल की कल-कल ध्वनि मानो ताल दे रहा है। हवा की झूम के साथ पत्ते नाच रहे हैं और सुमन अपनी महक चारों ओर फैलाते हुए वातावरण में और उत्सुकता भर रहे हैं । चंद्रमा के साथ सारा तारा मंडल लालच भरी निगाहें फेरते हुए आनंदमान होकर आस्वादन कर रहा है।

       वैतालिक विहंग भाभी के........  कौन बड़ाई लेता है।। (18)

        व्याख्या :- पक्षीगण गायक वृंद बनकर वैतालिक बने हुए थे; वन के पक्षी भी अब सन्नाटे में बैठे हैं, मानों कवि-जन नये गीत की रचना के चिंतन में मगन होकर वैठे हों। बीच - बीच में मोर अपनी कूक के माध्यम से बोलता है मानो वह कह रहा है कि अरे, यहाँ तो मैं भी हैं, देखें, कल सुबह होने पर कला प्रदर्शन में कौन जीतेगा ?

       आँखों के आगे हरियाली.........वैसी विमल रम्य रुचि है? (19)

       व्याख्या :- लक्ष्मण आगे सोचने लगते हैं कि यहाँ की प्रकृति की शोभा कितनी अनोखी है। हमेशा औँखों के सामने हरियाली है, जो आँखों को और मन को सुख देती है । जगह-जगह पर झाड़ियों के बीच झरनों की झर-झर झड़ियाँ सुशोभित हैं । यहाँ पड़नेवाले ओस की हर बिन्दु स्वच्छ और सरस है, मन ही मन लक्ष्मण पूछते हैं क्या सैकड़ों की संख्या में नगरी में ऐसी स्वच्छ और विशुद्ध रुचि हो सकती है?

        मुनियों का सत्संग यहाँ है,........अत्र तत्र सर्वत्र मिला ।। (20)

         व्याख्या :- सत्संग के संबंध में अपने विचार प्रकट करते हुए लक्ष्मण पंचवटी में अपने जीवन का परिचय इस प्रकार दे रहे हैं - वन में किसी बात की कमी नहीं महसूस हो रही है। ऋषि-मुनियों का सत्संग सहज ही प्राप्त हो जाता है, जिन्होंने तत्व ज्ञान की प्राप्ति की है। उन मुनियों से अनुपम आख्यान सुनने को मिलते हैं। जीवन-सुमन के खिलने में और इस ज्ञानार्जन की साधना में न जाने कितने कष्ट-संकट इन्होंने झेले होंगे। जितना उन्होंने उठाया होगा, उतना ही सम्मान उन्हें प्राप्त हुआ होगा।

       शुभ सिद्धांत वाक्य पढ़ते हैं.......आकर पानी पीते हैं ।। (21)

       व्याख्या :- वन में रामचंद्रजी के आश्रम में सारे तोते और मैना भी मंगलप्रद शब्द ही बोलते हैं। मुनि कन्याएँ श्रीराम के यश और पुण्य-पराक्रम का गायन करती हैं। जंगल के सभी प्राणी सुख भोग रहे हैं । यहाँ तक कि सिंह और मृग एक ही घाट पर पानी पी रहे हैं । एक दूसरे से निर्भय होकर जी रहे हैं। यह कितना आश्चर्यजनक और हर्षवर्द्धक विषय है।

       गुह निषाद शबरों तक का मन......किन्तु नहीं वैसी वाणी ।। (22)

        व्याख्या :- इस जंगल में रहते समय रामचंद्रजी यहाँ की गुह, निषाद, शबरी, भील जैसी जंगली जातियों का भी ध्यान रखते हैं । इनसे भी प्रेमपूर्वक आदर के साथ पेश आते हैं। उनमें ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं । इनके प्रति सहज और सरल वचन ही बोलते है । कहते हैं, समाज इन जातियों को नीच समझता है । यह गलत है। ये भी हम जैसे ही मनुष्य हैं, इनके भी हमारे जैसे मन और भाव होते हैं। परंतु ये हमारी जैसी सभ्य भाषा नहीं बोल सकते।

      कभी विपिन में हमें व्यंजन का....... मंझली माँ का विपुल विषाद। (23)

       व्याख्या :- वन जीवन में कभी पके हुए भोजन की आवश्यकता महसूस नहीं होती थी शुच्ध पानी, सुमधुर कंद-मूल, और फल सहित पौष्टिक और स्वच्छ आहार स्वाभाविक रूप से ही प्राप्त हो जाता है। सुख और दुख वास्तव में मानसिक भावनाएँ हैं कुटीर हो या फिर महल-मन में संतुष्टि की भावना हो, तो इनमें कोई फ़रक नहीं पड़ता। भाभी तो यहाँ प्रसन्न हैं । परंतु उधर राजमहल में रहने पर भी माँ कैकेयी अगाढ़ दुख में डूबी हैं।

        अपने पौधों में जब भाभी........न्यौछावर कुबेर का कोष ।। (24)

        व्याख्या :- भाभी सीता कभी पौधों को सींचती हैं, साथ-साथ बगीचे में घास-फूस को निकालने के लिए छोटी-सी खुरपी लेकर निकल पड़ती हैं और वाग को साफ़-सुथरा रखती हैं। उस समय वे अत्यधिक खुश हो जाती हैं, सुख और संतोष का अनुभव करती हैं। कवि कहते हैं कि स्वावलंबन की इस सुन्दर छटा पर कुबेर की नवों निधियाँ न्योछावर हैं।

       सांसारिकता में मिलती है ....कही प्रकृति का नाम नहीं।। (25)

       व्याख्या :- सांसारिकता अर्थात् लौकिक जीवन में लोभरहित भाव मिलता है। अत्रि मुनि और सती अनसूया जैसा आदर्श दंपति भी यहाँ काम करते होंगे और उनके दर्शन भी प्राप्त होंगे। शायद यह संसार भी अलग है। यहाँ कृत्रिमता की गंध तक नहीं। सिर्फ प्रकृति यहाँ अधिष्ठात्री और आराध्या है। विकृति का नाम तक नहीं।

        स्वजनों की चिंता है हमको,........रक्षित-सा रहता है क्षेम ।। (26)

        व्याख्या :- लक्ष्मण इधर-उधर की बातें सोचते -सोचते अपने बंधुजनों की याद करते हैं। वे सोचते हैं कि जैसे मेरे मन में उनकी चिंता आती है, उसी प्रकार उन बंधुजनों को भी हमारी चिंता आती होगी । जब तक जंगल में वास करते हैं, तब तक सब कुछ सहन करना ही पड़ता है, परंतु अपने ही लोगों से दूर रहने की याद आने पर यह वियोग की भावना कभी सही नहीं जा सकती। तरह-तरह की कल्पनाएँ हमें बेचैन कर देती हैं। आँखों के सामने अर्थात् साथ रहने में ही सुरक्षा की भावना होती है।

        इच्छा होती है स्वजनों को........ये वैसे ही श्रीसम्पन्न ।। (27)

          व्याख्या :- स्वजनों को एक बार वन ले आने की इच्छा होती है। इस वनवास की अनुपम महिमा उन लोगों को दिखाने की बात मन सोचता है। वे यहाँ आएँ तो श्रीरामचंद्र को देखकर आश्चर्यचकित होंगे कि वे जंगल में भी घर के समान ही प्रसन्न रहते हैं उनको ऐसा महसूस होगा मानो प्रभु रामचंद्रजी जो स्वयं शोभा संपन्न हैं, यहाँ वन विहार के लिए आये हुए हैं।

        यदि बाधाएं हुई हमें तो,...... स्मृति अनुरक्ति रहेगी यह ।। (28)

       व्याख्या :- लक्ष्मण विभिन्न प्रकार की बातें सोचने लगते हैं । वनवास के संदर्भ में उनको बीच-बीच में कुछ बाधाएँ हुई हैं । मन ही मन कहते हैं कि हमें तो कुछ वाधाएँ भी हुई हैं, परंतु उन बाधाओं के साथ, उनको सहने की और सामना करने की शक्ति भी प्राप्त हुई । जब ये बाधाएँ नहीं होतीं, तब भी यह शक्ति हमारी अपनी वनी रहेगी। शहर से वापस लौटने पर भी वन की यादें और इस वनजीवन का प्रेम भूलेंगे नहीं ।

       नहीं जानती हायो हमारा........है कितना साधारण काम। (29)

       व्याख्या :- यहाँ इस जंगल में प्रकृति की मातृ सुलभ कोमल गोद में हमें जो संतोष प्राप्त हुआ है, उसके बारे में हमारी माताएँ नहीं जानती होंगी। इस प्रकार के अनुभव को ही हमारे युजुर्ग और विद्वान बंधु 'जीवन-संग्राम" कहते हैं न? तब तो हम इस अनुभव के बल पर सुख्यात वन जाएँगे। यह कितना आसान काम भी है।

       बेचारी ऊर्मिला हमारे......अनुपम रूप, अलौकिक वेश । (30)

       व्याख्या :- लक्ष्मण को अपनी पत्नी उर्मिला की याद आती है। बेचारी ऊर्मिला वहाँ महल में रहते हुए भी हमारे लिए रोती होगी। वह सोचती होगी कि हम यहाँ जंगल में तरह-तरह के कष्ट झेलते होंगे । उसे कैसे मालूम होगा कि हम यहाँ इतना सुखी और खुश हैं।

      इन बातों पर विचार करते-करते लक्ष्मण की आँखें भावावेश में एक क्षण के लिए बंद रह गयीं । जैसे ही उनकी पलके खुली,तो लक्ष्मण के सामने आश्यर्चजनक रूप में एक अलौकिक सुंदरी, मनमोहक वेश-भूषा में खड़ी हैं।

       चकाचौंध-सी लगी देखकर...... जुगनू जगमग जगते थे (31)

       व्याख्या :- रात के समय में अपने सामने एक सुंदरी को बिना किसी प्रकार के संकोच के हँसती हुई खड़े देखकर लक्ष्मण आश्चर्यचकित हुए। इस सुंदर और अनुपम रूप ने लक्ष्मण की आँखों को चकाचौंध कर दिया। इसके पहने हुए रत्नाभूषण ऐसे लगते थे मानो किसी हर्षित, पुलकित और पुष्पित लता पर सैकड़ों की संख्या में जुगुनू मंडराते हुए जगमगा रहे हो।

      थी अत्यन्त अतृप्त वासना......अपनी ठौर आ चुकी थी ।। (32)

       व्याख्या :- लक्ष्मण के सामने खड़ी इस सुंदरी (शूर्पणखा) की बड़ी बड़ी आँखों में उसकी अतृप्त वासना झलक रही थी। ऐसा प्रतीत होता था, मानो पुष्पों के मकरंद की माधुरी उनके सौंदर्य से ही प्रकट होकर भँवरों को ललचाती है।

       उसकी आँखों से पता चलता था कि उसे अपनी वांछित वस्तु प्राप्त हो चुकी थी । ऐसा लगता था मानो सुगंध खोजते-खोजते निकले हिरण को अपनी खोज की चीज़ मिल गयी हो और वह अपने ठिकाने पर पहुँच गया हो।

       शूर्पणखा की तामसी प्रवृत्ति का चित्रण किया गया है।

       कटि के नीचे चिकुर-जाल में.......मनसिज ने झूला डाला। (33)

       व्याख्या :- शूर्पणखा का सौंदर्य-वर्णन कवि के शब्दों में निम्नलिखित प्रकार से है, जिसके दर्शन लक्ष्मण कर रहे हैं।  

        इस सुंदरी के केश इतने लंबे हैं कि वे उसकी कमर के नीचे तक लटक रहे हैं और वह सुंदरी अपनी उँगलियों को उस केश-राशि पर चला रही थी । लहरों जैसे ऐसा लग रहा था मानो हिलते हुए कमल मंडरानेवाले भँवरों के साथ स्वयं खेल रहे हों।

        यह सुंदरी अपने दायें हाथ में वन के विभिन्न फूल लिये सँवार रही थी मानो कामदेव ने टंगाये हुए अपने पुष्प-धनुष से एक झूला बनाया हो।

        पर संदेह-दोल पर ही था...   सम्मुख कैसा फूल रहा।। (34)

        व्याख्या :- संदेह रूपी झूले पर लक्ष्मण का मन डोलायमान रहा। मन के अंदर भावनाओं के चक्कर में फँसकर भूले-भटके फिरते थे। लक्ष्मण के मन में विभिन्न प्रकार के संदेह उठने लगे । विचारों के भवंडर में फँसा था और भूले भटके फिरनेवाला उनका मन न जाने अब किस नदी तट की खोज कर रहा है।

      आज जागृत अवस्था में स्वप्न रूपी यह शालवृक्ष कैसे पुष्पित हो रहा है।

       देख उन्हें विस्मित विशेष वह .........चंचल होकर चकित हुए ।। (35)

        व्याख्या :- चकित हुए इस चिन्तामग्न रूप में लक्ष्मण को देखकर मुस्कान भरी मुखवाली बोल उठी - (विशेषता यह है कि इस सुंदरी का मुख तो सुंदर अवश्य था, पर यह कोई भोली-भाली नहीं है। उनके मुख में सरलता नहीं दिखाई पड़ी)

          शूर्पणखा बोल उठी - हे शूरवीर धनुर्धर! तुम भाग्यवान हो । एक अबला को देखकर क्यों अधीर और हैरान हो रहे हो? यह तो सृष्टि का स्वाभाविक सौंदर्य है। तुम क्यों आश्चर्य चकित हो रहे हो ?

         प्रथम बोलना पड़ा मुझे ही,........निज गंभीर भाव लाये. (36)

          व्याख्या :- शूर्पणखा आगे बोलने लगी- 'एक नारी को सामने देखकर भी तुम नहीं बोले । क्या इससे पुरुषों की निर्दयता का बोध नहीं होता? मुझे ही आपके सामने पहले बोलना पड़ रहा है । लक्ष्मण थोड़ा संभालते हुए मुस्कुराये । अपने चेहरे पर गंभीरता को लाकर बोलने लगे।

        'सुन्दरि, मैं सचमुच विस्मित हूँ ......निस्संदेह निरखती हो। (37)

         व्याख्या :- मैं तो अवश्य तुम्हें अचानक यहाँ देखकर आश्चर्य चकित हो गया था । रात का अंतिम पहर है और तुम यहाँ अकेली आयी हो। तुम कौन हो? कहाँ जा रही हो? तुम अपने आपको एक अबला कहती हो। परंतु तुम बड़ी चतुर और साहसी नारी हो। मुझ जैसे शांतिप्रिय और मोह रहित पुरुषों में तुम्हें निर्ममता अथवा कठोरता अवश्य लक्षित हुई होगी।

       पर मैं ही यदि परनारी से.......ममता कितनी कच्ची है ।।(38)

       व्याख्या :- लक्ष्मण पूछते हैं : 'अगर मैं स्वयं तुमसे अर्थात् एक परनारी से पहले बोलने लगता, तो शायद सही धर्मपरायणता और मेरे धर्म का भंग हो जाता । तुम मुझे निर्मम कहती हो। फिर भी तुम्हारा यह कहना सच ही है। मेरा ममता-भाव कच्चा ही है ।

      माता, पिता और पत्नी की,.......होती है हे मंजमुखी। (39)

       व्याख्या :- लक्ष्मण आगे कहते हैं - हे सुंदरी । वास्तव में मुझमें ममता नामक कोई चीज़ नहीं है। माता, पिता, पत्नी, धन, घरबार आदि की कोई ममता मुझमें नहीं है। मुझे इन सबकी कोई परवाह नहीं । जीवन परंपरा की भी कोई चिंता नहीं, मोह नहीं। इन बातों से यहाँ कोई मतलब नहीं। परंतु एक बात कह देता हूँ। इतना निर्मम रहने पर भी में यहाँ परम सुखी हूँ। ममता की भावना नारी सुलभ होती है अर्थात महिलाओं का यह स्वाभाविक गुण है।

      विशेषताएँ :- लक्ष्मण की उपर्युक्त बातों के माध्यम से कवि कहना चाहते हैं कि निर्मोह और त्याग की भावना रखते हुए भी पुरुष का धीर-वीर बनकर कर्तव्यनिष्ठ रहना एक आदर्श है |

       शूरवीर कहकर भी मुझको.......मन में संशय होता है।' (40)

       व्याख्या :- मुझे तुम एक ओर शूरवीर कहती हो और दूसरी ओर कायर भी बताती हो। अपनी बातों में तुम अपनी सूक्ष्म दृष्टि और होशियारी को मुझे बताना चाहती हो । तुम्हारी बातों का ढंग देखते हुए मेरे मन में शंका हो रही है कि कहीं तुम सीधी-सादी नहीं हो। मतवाली युवती! इस निर्जन वन में इस तरह तुम्हें देखते हुए शंका हो रही है ।

        शूर्पणखा अपनी होशियारी दिखाने की कोशिश करती है। उसी समय लक्ष्मण अपनी बुद्धि की तेज़ी से उसे टोकते हैं।

     कहूँ मानवी यदि मैं तुमको........ हे रंजित रहस्यवाली?' (41)

        व्याख्या :- मैं तुझे मानवी नहीं मान सकता, क्योंकि तुममें नारी- सहज संकोच और लज्जा की भावनाओं का अभाव है। अगर मैं तुझे दानवी कहना चाहूँ, तो भी उचित नहीं लगता । वन देवी तो सरल और कोमल हृदयवाली होती है। ओ, रहस्यमयी सुंदरी! अब तुम स्वयं बोल दो कि तुम कौन हो?

      "केवल इतना कि तुम कौन हो?"......सहज चली जाऊँगी मैं। (42)

         व्याख्या :- लक्ष्मण के इतने से प्रश्न पर कि, तुम कौन हो? अत्यंत निराश होकर झूठे आँसू बहाते हुए शूर्पणखा कहने लगी, 'हे निर्दयी पुरुष! तुमने पूछा कि तुम कौन हो? परंतु तुम कितने निष्ठुर हो, निर्दयी हो कि तुमने नहीं पूछा कि तुमको क्या चाहिए? कम से कम ऐसा पूछते तो मेरा मन कुछ शांत तो हो जाता । मुझे लग रहा है कि मैं शायद ठगी जाऊँगी । परंतु जब तुम्हारे इतने पास आ गयी हूँ, तो क्यों चुपके से चली जाऊँ?

       शूर्पणखा अपने छल को छिपा नहीं रख पाई और उसके उद्देश्य का आभास हो ही जाता है।

       'समझो मुझे अतिथि ही अपना,.....हे शुभ मूर्तिमयी माये !'(43)

        व्याख्या :- शूर्पणखा आगे अपना मन खोल देती है : मुझे तुम अपना अतिथि मान सकते हो। तुमसे कोई अतिथि सत्कार मिलेगा क्या? लग रहा है, तुम्हारा दिल तो पत्थर का है, पत्थर भी पिघल सकता है, परंतु तुम्हारा दिल हिलता भी नहीं । ऐसी बातें करते हुए वह सुंदरी दाँतों से अपने ओंठ काटते हुए अपने मोह की अभिव्यक्ति करने लगी । मुस्कुराते हुए लक्ष्मण कहने लगे, 'हे शुभे और सुंदर चेहरेवाली माये!'

राक्षसी शूर्पणखा अपने सुंदर रूप के अंदर अपने मायावी रूप को जितनी भी होशियारी के साथ छिपाने की कोशिश करती है, लक्ष्मण उसके असली गुण को समझ लेते हैं ।

      तुम अनुपम ऐश्वर्यवती हो,.....देवों को मैं नहीं दिया।' (44)

       व्याख्या :- लक्ष्मण बोलने लगते हैं । 'तुम बड़ी संपन्न नारी लग रही हो । मैं तो यहाँ दीन, गरीब और

        साधारण वनवासी हूँ । मैं तुम्हारा क्या आतिथ्य कर सकता हूँ? मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ ।' सुंदरी फिर बोलने लगी, 'मैंने तुम्हारे विचार समझ लिये । अपने को तुम निर्धन बता रहे हो । विधाता ने तुम्हें जो धन दिया है, वह धन देवताओं को भी प्राप्त नहीं हुआ है।

        किन्तु विराग भाव धारण कर......विपुल - विघ्न- बाधा वारण। (45)

       व्याख्या :- इतने भाग्यशाली होकर भी तुम वैराग्य और त्याग की भावना को अपनाकर रह रहे हो। मैं तुम्हारे लिए सारे रत्नाभरण न्योछावर कर दूंगी और मैं अपनी इच्छा की पूर्ति हेतु योगिनी बन जाऊँ ? परन्तु मैं अवश्य इस कानन में तुम्हारी बाधाओं को दूर कर सकती हूँ।

       इस व्रत में किस इच्छा से तुम.......त्यागो यह अति विषम विराम। (46)

व्याख्या:- शूर्पणखा लक्ष्मण से प्रश्न करती है, 'हे व्रती! किस इच्छा की पूर्ति के लिए ऐसे व्रत में बैठे हो?  :- मैं तुम्हारी बाधाओं को दूर कर सकती हूँ। धन की इच्छा हो तो कहो । मैं तुम्हें अपने सोने का भू-भाग(राज्य) श्रीलंका को ही भेंट करके तुम्हें उसके राजा ही बना दूँगी। तुम्हें बस इतना करना पड़ेगा कि तुम इस वैराग्य को छोड़ दो।

       और, किसी दुर्जय बैरी से,......क्यों मन को यों हनते हो? (47)

         व्याख्या :- शूर्पणखा आगे पूछती है :- क्या तुम्हें किसी शक्तिशाली शत्रु से प्रतिशोध लेने का लक्ष्य है? ऐसी कोई बात हो तो मुझे आज्ञा दो और मैं अपनी क्रोधाग्नि से उनको जला दूँगी। अगर तुम्हारा किसी कांता से प्रेम हो और उस प्यास को बुझाने के विचार से तपस रूपी कुआँ खोदने लगे हो, तो सचमुच तुम बड़े भोले हो । क्यों तुम अपने मन का हनन करते हो?

     ओ, कौन है, वार न देगा......एक और अवसर दो दानि ।" (48)

     व्याख्या :- तुम्हारे इस यौवन रूपी धन पर अपने प्राणों को कौन न्योछावर न कर देगा । इस अमूल्य ऐश्वर्य को योंही व्यर्थ मत करो । यत्नपूर्वक और सावधानी से इसकी रक्षा करो। किसी कारण से यह सांसारिक जीवन बोझ-सा लग रहा हो और तुम्हें इससे विरक्ति हो रही हो, तो हे दानी! मुझे इसके साथ एक अवसर दो । मेरे साथ मिलकर इस संसार का सुख भोगो। तुम्हारा यह भ्रम दूर होगा।

     लक्ष्मण फिर गंभीर हो गये.....कोई मुझे अभाव नहीं। (49)

      व्याख्या :- शूर्पणखा के इस असभ्य प्रस्ताव से लक्ष्मण का तेवर चढ़ गया। वे गंभीर होकर बोलने लगे ।"हे राजकुमारी! नारी सुलभ इस सहानुभूति के लिए मेरा धन्यवाद । कोई साधारण कन्या ऐसे प्रस्ताव रख नहीं सकती । अब मैं तुमसे सच कह देता हूँ कि मुझे किसी चीज़ का अभाव नहीं । मुझे कुछ नहीं चाहिए।"

      तो फिर क्या निष्काम तपस्या.....क्या न जाएगा भोगा ही?' (50)

      व्याख्या :- शूर्पणखा लक्ष्मण से तर्क करने लगती है। अगर तुम्हें किसी प्रकार की कमी नहीं हो, तो तुम क्यों इस उम्र में इस तरह निर्मोही बनकर तपस्या में बैठे हो? क्या तुम्हें आश्रमधर्म के भंग का पाप नहीं लगेगा? मान लो, ऐसा पाप न भी लगे, तब भी कम से कम इस तप का फल अवश्य मिलनेवाला है । क्या उसे स्वयं ही प्राप्त करके अकेले ही भोगने की कामना रखते हो?

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एकांकी

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