पंचवटी
(व्याख्या सहित)
- मैथिलीशरण गुप्त
राजा दशरथ ने अपनी दूसरी राजी कैकेयी को किसी समय वचन दिया था कि रानी कैकेयी दो वर माँग से। कैकशी ने राजा दशरथ के ये यो पर ऐसे समय पर माँगे, उन्ध युगराज रामचंद्र का पट्टाभिषक होनेवाला था। उन हो खबरों के अनुसार एक तो रामचंद्र को चौदह माল के लिए बन भेजना है और दूसरा, कैकेयी केपुत्र मरत का पट्टाभिषेक किया जाना चाहिए।
पूर्वाभास
पूज्य पिता के सहज सत्य पर................. तुम मेरे सर्वस्य जहां।। (1)
व्याख्या:- आज्ञाकारी पुत्र अपने पिताजी दशरथ के वचन का पालन करने हेतु जंगल की ओर प्रस्थान हुए । उन्होंने अपना राज्य ही नहीं, अपितु महल, धन दौलत सबको छोड़ दिया । संन्यासी के जैसे वस्त्र धारण कर निकले, तो उनकी धर्मपत्नी सीताजी भी अपने स्वामी के साथ वनवास के लिए निकलीं।
इन दोनों के पीछे-पीछे लक्ष्मण भी चलने लगे। इसे देखकर श्रीराम ने पुष्ठा, तुम कहाँ।
सिर झुकाकर लक्ष्मण ने उत्तर दिया, "स्वामी तुम मेरे सर्वस्व हो, तुम जहाँ जाओगे, वहाँ में भी
चलूंगा।"
सीता बोली कि, ये पिता की... मुझको भी अपना भागी।। (2)
व्याख्या :- लक्ष्मण का यह जवाब सुनकर सीताजी बोलने लगी, श्रीरामचंदजी तो अपने पिता की आता से, अपना सब कुष्ठ छोड़कर चल रहे हैं । परंतु है देवर तुम क्यों त्यागी बनकर घर से मुंह माहकर निकल रहे हो? लक्ष्मण भाभी को जवाब देने लगे-"आर्य! आप मुझे जबरदस्ती से त्यागी बना देती हैं। रासचंद्रजी की चरण-संवा करने में मुझे भी एक भागीदार मानिए।"
क्या कर्तव्य यही है भाई?................. सफल सीप सी भर आई।।
व्याख्या :- रामचंद्रजी ने प्रश्न किया, "क्या भाई, तुम्हारा कर्तव्य यही है?" प्रश्न सुनकर निरुत्तर होकर सिर झुका लिवा तो सीताजी ने बान को आगे बढ़ाते हुए कहा, तुमने सिर्फ प्यार किया है। यह कहते हुए सीताजी मुस्कुराने लगी। यह सारा दृश्य देखते हुए भावुकतावश रामचंद्र की आँखों से आशु झरने लगे।
विशेषताएँ :- मैथिलीशरण गुप्त जी पुरोवाक के इन पदयों में श्रीरामचंय, सीताजी और लक्ष्मण की। चरित्रगत विशेषताओं का परिचय देते हैं।
चारचन्द्र की चंचल किरणे.................मन पवन के झोंकों से। (3)
व्याल्या-चाँदनी रात में चंद्रमा की किरण तालों में और नदी जल की सतह पर ऐसे पोसक रूप में देखानेवालों को मोर रही हैं और ऐसा लग रहा है मानो थे खुद पृथ्वी-ताल पर खोल रही हो। चाँदनी अपनी शुभता को यो प्रकट कर रही है, धरती और आकाश पर फैला रही है । परती इस सफेद चाँदनी के स्पर्श के शारण गरित तृणों की नोकों से अपनी पुलक प्रकट कर रही है, मानो मंद-मंद हया के इन मॉकों से तरु और खताएँ भूम सी हों।
पंचयटी की छाया में है ........ अना दृष्टिगत होता है।। (2)
व्याख्या :- पंचवटी यशों की छाया में एक सुंदर पर्णकुटी बनी है। उसके सामने एक पत्थर पर वीर धीर निर्भीक युवक बैठा है। यह धनुवीर रात-भर जाग रहा है. जबकि सारी दुनिया सो रही हैं । पह कौन है? कुसुमायुध (मन्मथ) योगी जैसा लग रहा है।
किस व्रत में है व्रती वीर या.......तन है, मन है, जीवन है।। (3)
व्याख्या :- क्या यह वीर पुरुष अब किसी व्रत में है। अन्यया क्यों इस प्रकार नींद को त्यागकर पैराग्य में बैठा है? जो राज-भोग का अधिकारी है, आज इस जंगल में वैरार्य लिए क्यों इस तरह बैठा है? ये जिस कुटीर का पहरा दे रहे हैं, उस पर्णकुटी में ऐसा कौन-सा पन रखा है? इस प्रकार इसकी रक्षा कर रहा है. मानो इसीम अपना तन, मन और सारा जीवन लगा दिया है।
मर्तय लोक मालिन्य मेटने ..................निशाचरी माया ठहरी।। (4)
व्याख्या :- इस मनुष्य जगत के मालिन्य को. पाप को धोकर मिटाने के लिए आज तीनों लोकों की माता लक्ष्मी ने अपने स्वामी के साथ यहाँ आकर इस पर्णकुटीर को अपनाया है। वीर वंश का सहज धर्म निभाते हुए यहाँ वीर लक्ष्मण इस कुटीर के प्रहरी बने हुए है।
रात का समय है। कोई जन-संचार नहीं। रात में संचार करनेवाले राक्षसों का संचार होने लगा है। असावधान रहे तो ये निशाधरी राक्षस क्या क्या ऊधम नाही मचाएंगे।
कोई पास न रहने पर भी ....... पीर धनुर्धर नई नई ... (5)
व्याख्या :- मनुष्य का मन हमेशा बंधत रहता है, यह स्वाभाविक है। मनुष्य इस बात के आदी भी है कि बगल में किसी के न रहने पर मन ही मन (प्रकट या अप्रकट कुछ बातचीत का दौरा चलाता रहता है। लक्ष्मण की भी यहाँ यही दशा है।
अकेलेपन में उत्साही धनुर्धर लक्ष्मण अपनी आनंदमयी दृष्टि इधर-उधर दोहाते हुए मन-ही-मन बात कर रहा है।
क्या ही स्वच्छ चाँदनी है ,....... कितने शांतऔर चुपचाप (6)
व्याख्या :- यह चाँदनी बड़ी स्वच्छ और अति सुंदर है, रात की खामोशी भी मतवाली है । हल्की-हल्की चलनेवाली हवा सुगंध को साथ लेकर चल रही है । सभी दिशाएँ तो सानंद हैं। रात की खामोशी में सारा संसार निद्रामग्न होने पर भी प्रकृति अपने कार्यकलाप जारी रखती है। कोई भी काम रुका नहीं । एकांत भाव में शांत मन में चुपचाप अपना काम चला रही है।
है बिखेर देती वसुंधरा ................नया रूप छलकाता है। (7)
व्याख्या :- वसुंधरा रूपी धरती माँ अपने अंचल में ओसकण रूपी मोतियों को बिखेर देती है, जिनको सवेरा होते ही, सूर्य अपनी तेज किरणों से बटोर लेता है और विश्रामदायक संध्या को सौंप देता है। शाम का काला शरीर नक्षत्रों के रूप में ग्रहण कर झलकने लगता है।
सरल तरल जिन तुहिन कणों से.......सदय भाव से सेती है। (8)
व्याख्या :- प्रकृति और मनुष्य का पारस्परिक संबंध की ओर संकेत करते हुए कवि कहते हैं कि, प्रकृति जिन हिम कणों से हर्षित और पुलकित दिखाई देती है, दुखी रहनेवाले प्राणियों को यही दुखी नजर आती है। प्रकृति प्राणियों को एक ओर तो सारा सुख प्रदान करती है, उसी समय जाने-अनजाने होनेवाली भूलों का भी निर्मम होकर दंड भी देती है। पक्षपात किये बिना बूढ़ों की भी सेवा बच्चों की तरह करती है।
तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके,......... इससे बढकर किस धन की? (9)
व्याख्या :- अभी वनवास के तेरह वर्ष बीत गये। ऐसा लग रहा है, मानो हम कल ही वन आये। हमारे महल से वन की ओर निकलते समय, पिताश्री मूर्छित हुए थे। अब हमारा वनवास- काल जल्दी ही पूरा होनेवाला है । राजमहल वापस जाने पर भी (मुझे अर्थात् लक्ष्मण को) रामचंद्र की सेवा के भाग्य से बढ़कर कोई दूसरा भाग्य नहीं है।
और आर्य को, राज्य-भार तो ...........कर सकता है यह नरलोक।। (10)
व्याख्या :- रामचंद्रजी की बात तो अलग है। उनको प्रजा के हित में फिर से राज्य का भार स्वीकारना और संभालना होगा। लोक-हित की दृष्टि से वे तो इसे सहर्ष ही स्वीकार करेंगे ओर वे बहुत ही व्यस्त हो जाएँगे, मानों हम लोगों को भूल गये हों। इस कारण से क्या हमको दुख नहीं होगा? क्या यह मनुष्य लोक अपना भला स्वयं कर नहीं सकता? क्या राजा को ही इन सबकी देखभाल करनी होगी?
मंझली माँ ने क्या समझा था,.........निज को हीन देख सकती ।। (11)
व्याख्या :- झट लक्ष्मण को अपनी मंझली माँ कैकेयी की याद आती है और वे सोचने लगते हैं मंझली माँ कैकेयी ने सोचा था कि रामचंद्रजी को वन भेजकर वह खुद राजमाता बन जाएगी। परंतु चित्रकूट में स्थिति बिलकुल बदल गयी है। कैकेयी स्वयं करुणा का अवलंब वन गयी। कभी लोग उन्हें देखने आते थे तो अब वह स्वयं को देख नहीं सकती।
अहो। राजमातृत्व यही था,....... हे विश्वानुकूल्य रखा ।। (12)
व्याख्या :- अहो। क्या यही राजमातृत्व है। भरत भी एक त्यागी बन गये । सिंहासन ग्रहण करने से इनकार कर दिया। परंतु वे आज सचमुच सौ-सो सम्राटों से भी बड़े सौभाग्यशाली हैं उन्होंने जो रामजी की चरण-सेवा को श्रेष्ठ माना है। मानव-संसार तो मूर्ख है, जो राज्य को महत्वपूर्ण मानता है हमको तो जंगल ही सहज और अनुकूल लगता है।
होता यदि राजत्व मात्र ही ..........पूर्व-भाव ही भाते हैं।। (13)
व्याख्या :- लक्ष्मण के मन में तर्क-वितर्क का क्रम आगे बढ़ता है क्या हमारे जीवन का लक्ष्य मात्र राज्य परिपालन है? अगर ऐसा होता,तो हमारे पूर्वज इस राज्य का मोह त्यागकर क्यों वन की ओर प्रस्थान करते? अगर परिवर्तन ही उन्नति का पर्याय है, तो हम आगे बढ़ते ही जा रहे हैं, नित्य उन्नति करते ही हैं । परंतु मुझे तो पूर्व-भाव ही अर्थात् सीधे-सरल और सचाई के विचार ही अच्छे लगते हैं।
जो हो, जहाँ आय्र्य रहते है.........हिले यहाँ स्वयमपि, सानन्द । (14)
व्याख्या :- कुछ भी हो, रामचंद्र जहाँ रहते हैं वही हमारे लिए अयोध्या है। उनका सुशासन वहीं चलता है। उनके राज्य में सब प्राणी स्वच्छंद रूप से विहार करते हैं। नगरों में हम इन्हीं प्राणियों को, पशु पक्षियों को, बंद कर रखते हैं। यहाँ पशु-पक्षी, भाभी सीताजी से सहज स्नेह से स्वयं मिलते और खेलते रहते हैं।
करते हैं हम पतित जनों में.......कभी नहीं सह सकता हूँ ।। (15)
व्याख्या :- हम अकसर पतितों और दुष्टों पर पशुता और बर्बरता का आरोप करते हैं । वास्तव में देखा जाए तो ये पशु कभी अपने प्राकृतिक नियम नहीं तोड़ते । अतः मनुष्यों को पशु कहना सरासर अन्याय है। मनुष्य तो सभी नियमों को तोड़ते हैं, दुराचार और पाप करते हैं, तो ये पशु मनुष्य से कई गुना अच्छे होते हैं। सच्ची मानवता को देवत्व की जननी भी कह सकते हैं। परंतु पापियों को पशु कहना भी अपराध ही है मैं उसे सह नहीं सकता।
आ आकर विचित्र पशु-पक्षी.........वे सब यहाँ रिझाते हैं । (16)
व्याख्या :- पंचवटी में दुपहर के समय तरह-तरह के पशु-पक्षी आकर आराम करते हैं। भाभी सीताजी इन्हें खिला-पिलाकर सुस्ताती हैं ये यहाँ नन्हें, सुंदर और चंचल वाल-बच्चों की तरह माँ के जैसे घेर लेते हैं। अपने खेल-कूद के प्रदर्शन से सीता माता को प्रसन्न करते रहते हैं।
गोदावरी नदी का तट वह ...... लालच भरे लहकते हैं। (17)
व्याख्या :- प्रकृति भी अपनी प्रसन्नता को इस तरह प्रकट कर रही है कि गोदावरी नदी का तट भी इसके चंचल जल की कल-कल ध्वनि मानो ताल दे रहा है। हवा की झूम के साथ पत्ते नाच रहे हैं और सुमन अपनी महक चारों ओर फैलाते हुए वातावरण में और उत्सुकता भर रहे हैं । चंद्रमा के साथ सारा तारा मंडल लालच भरी निगाहें फेरते हुए आनंदमान होकर आस्वादन कर रहा है।
वैतालिक विहंग भाभी के........ कौन बड़ाई लेता है।। (18)
व्याख्या :- पक्षीगण गायक वृंद बनकर वैतालिक बने हुए थे; वन के पक्षी भी अब सन्नाटे में बैठे हैं, मानों कवि-जन नये गीत की रचना के चिंतन में मगन होकर वैठे हों। बीच - बीच में मोर अपनी कूक के माध्यम से बोलता है मानो वह कह रहा है कि अरे, यहाँ तो मैं भी हैं, देखें, कल सुबह होने पर कला प्रदर्शन में कौन जीतेगा ?
आँखों के आगे हरियाली.........वैसी विमल रम्य रुचि है? (19)
व्याख्या :- लक्ष्मण आगे सोचने लगते हैं कि यहाँ की प्रकृति की शोभा कितनी अनोखी है। हमेशा औँखों के सामने हरियाली है, जो आँखों को और मन को सुख देती है । जगह-जगह पर झाड़ियों के बीच झरनों की झर-झर झड़ियाँ सुशोभित हैं । यहाँ पड़नेवाले ओस की हर बिन्दु स्वच्छ और सरस है, मन ही मन लक्ष्मण पूछते हैं क्या सैकड़ों की संख्या में नगरी में ऐसी स्वच्छ और विशुद्ध रुचि हो सकती है?
मुनियों का सत्संग यहाँ है,........अत्र तत्र सर्वत्र मिला ।। (20)
व्याख्या :- सत्संग के संबंध में अपने विचार प्रकट करते हुए लक्ष्मण पंचवटी में अपने जीवन का परिचय इस प्रकार दे रहे हैं - वन में किसी बात की कमी नहीं महसूस हो रही है। ऋषि-मुनियों का सत्संग सहज ही प्राप्त हो जाता है, जिन्होंने तत्व ज्ञान की प्राप्ति की है। उन मुनियों से अनुपम आख्यान सुनने को मिलते हैं। जीवन-सुमन के खिलने में और इस ज्ञानार्जन की साधना में न जाने कितने कष्ट-संकट इन्होंने झेले होंगे। जितना उन्होंने उठाया होगा, उतना ही सम्मान उन्हें प्राप्त हुआ होगा।
शुभ सिद्धांत वाक्य पढ़ते हैं.......आकर पानी पीते हैं ।। (21)
व्याख्या :- वन में रामचंद्रजी के आश्रम में सारे तोते और मैना भी मंगलप्रद शब्द ही बोलते हैं। मुनि कन्याएँ श्रीराम के यश और पुण्य-पराक्रम का गायन करती हैं। जंगल के सभी प्राणी सुख भोग रहे हैं । यहाँ तक कि सिंह और मृग एक ही घाट पर पानी पी रहे हैं । एक दूसरे से निर्भय होकर जी रहे हैं। यह कितना आश्चर्यजनक और हर्षवर्द्धक विषय है।
गुह निषाद शबरों तक का मन......किन्तु नहीं वैसी वाणी ।। (22)
व्याख्या :- इस जंगल में रहते समय रामचंद्रजी यहाँ की गुह, निषाद, शबरी, भील जैसी जंगली जातियों का भी ध्यान रखते हैं । इनसे भी प्रेमपूर्वक आदर के साथ पेश आते हैं। उनमें ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं । इनके प्रति सहज और सरल वचन ही बोलते है । कहते हैं, समाज इन जातियों को नीच समझता है । यह गलत है। ये भी हम जैसे ही मनुष्य हैं, इनके भी हमारे जैसे मन और भाव होते हैं। परंतु ये हमारी जैसी सभ्य भाषा नहीं बोल सकते।
कभी विपिन में हमें व्यंजन का....... मंझली माँ का विपुल विषाद। (23)
व्याख्या :- वन जीवन में कभी पके हुए भोजन की आवश्यकता महसूस नहीं होती थी शुच्ध पानी, सुमधुर कंद-मूल, और फल सहित पौष्टिक और स्वच्छ आहार स्वाभाविक रूप से ही प्राप्त हो जाता है। सुख और दुख वास्तव में मानसिक भावनाएँ हैं कुटीर हो या फिर महल-मन में संतुष्टि की भावना हो, तो इनमें कोई फ़रक नहीं पड़ता। भाभी तो यहाँ प्रसन्न हैं । परंतु उधर राजमहल में रहने पर भी माँ कैकेयी अगाढ़ दुख में डूबी हैं।
अपने पौधों में जब भाभी........न्यौछावर कुबेर का कोष ।। (24)
व्याख्या :- भाभी सीता कभी पौधों को सींचती हैं, साथ-साथ बगीचे में घास-फूस को निकालने के लिए छोटी-सी खुरपी लेकर निकल पड़ती हैं और वाग को साफ़-सुथरा रखती हैं। उस समय वे अत्यधिक खुश हो जाती हैं, सुख और संतोष का अनुभव करती हैं। कवि कहते हैं कि स्वावलंबन की इस सुन्दर छटा पर कुबेर की नवों निधियाँ न्योछावर हैं।
सांसारिकता में मिलती है ....कही प्रकृति का नाम नहीं।। (25)
व्याख्या :- सांसारिकता अर्थात् लौकिक जीवन में लोभरहित भाव मिलता है। अत्रि मुनि और सती अनसूया जैसा आदर्श दंपति भी यहाँ काम करते होंगे और उनके दर्शन भी प्राप्त होंगे। शायद यह संसार भी अलग है। यहाँ कृत्रिमता की गंध तक नहीं। सिर्फ प्रकृति यहाँ अधिष्ठात्री और आराध्या है। विकृति का नाम तक नहीं।
स्वजनों की चिंता है हमको,........रक्षित-सा रहता है क्षेम ।। (26)
व्याख्या :- लक्ष्मण इधर-उधर की बातें सोचते -सोचते अपने बंधुजनों की याद करते हैं। वे सोचते हैं कि जैसे मेरे मन में उनकी चिंता आती है, उसी प्रकार उन बंधुजनों को भी हमारी चिंता आती होगी । जब तक जंगल में वास करते हैं, तब तक सब कुछ सहन करना ही पड़ता है, परंतु अपने ही लोगों से दूर रहने की याद आने पर यह वियोग की भावना कभी सही नहीं जा सकती। तरह-तरह की कल्पनाएँ हमें बेचैन कर देती हैं। आँखों के सामने अर्थात् साथ रहने में ही सुरक्षा की भावना होती है।
इच्छा होती है स्वजनों को........ये वैसे ही श्रीसम्पन्न ।। (27)
व्याख्या :- स्वजनों को एक बार वन ले आने की इच्छा होती है। इस वनवास की अनुपम महिमा उन लोगों को दिखाने की बात मन सोचता है। वे यहाँ आएँ तो श्रीरामचंद्र को देखकर आश्चर्यचकित होंगे कि वे जंगल में भी घर के समान ही प्रसन्न रहते हैं उनको ऐसा महसूस होगा मानो प्रभु रामचंद्रजी जो स्वयं शोभा संपन्न हैं, यहाँ वन विहार के लिए आये हुए हैं।
यदि बाधाएं हुई हमें तो,...... स्मृति अनुरक्ति रहेगी यह ।। (28)
व्याख्या :- लक्ष्मण विभिन्न प्रकार की बातें सोचने लगते हैं । वनवास के संदर्भ में उनको बीच-बीच में कुछ बाधाएँ हुई हैं । मन ही मन कहते हैं कि हमें तो कुछ वाधाएँ भी हुई हैं, परंतु उन बाधाओं के साथ, उनको सहने की और सामना करने की शक्ति भी प्राप्त हुई । जब ये बाधाएँ नहीं होतीं, तब भी यह शक्ति हमारी अपनी वनी रहेगी। शहर से वापस लौटने पर भी वन की यादें और इस वनजीवन का प्रेम भूलेंगे नहीं ।
नहीं जानती हायो हमारा........है कितना साधारण काम। (29)
व्याख्या :- यहाँ इस जंगल में प्रकृति की मातृ सुलभ कोमल गोद में हमें जो संतोष प्राप्त हुआ है, उसके बारे में हमारी माताएँ नहीं जानती होंगी। इस प्रकार के अनुभव को ही हमारे युजुर्ग और विद्वान बंधु 'जीवन-संग्राम" कहते हैं न? तब तो हम इस अनुभव के बल पर सुख्यात वन जाएँगे। यह कितना आसान काम भी है।
बेचारी ऊर्मिला हमारे......अनुपम रूप, अलौकिक वेश । (30)
व्याख्या :- लक्ष्मण को अपनी पत्नी उर्मिला की याद आती है। बेचारी ऊर्मिला वहाँ महल में रहते हुए भी हमारे लिए रोती होगी। वह सोचती होगी कि हम यहाँ जंगल में तरह-तरह के कष्ट झेलते होंगे । उसे कैसे मालूम होगा कि हम यहाँ इतना सुखी और खुश हैं।
इन बातों पर विचार करते-करते लक्ष्मण की आँखें भावावेश में एक क्षण के लिए बंद रह गयीं । जैसे ही उनकी पलके खुली,तो लक्ष्मण के सामने आश्यर्चजनक रूप में एक अलौकिक सुंदरी, मनमोहक वेश-भूषा में खड़ी हैं।
चकाचौंध-सी लगी देखकर...... जुगनू जगमग जगते थे (31)
व्याख्या :- रात के समय में अपने सामने एक सुंदरी को बिना किसी प्रकार के संकोच के हँसती हुई खड़े देखकर लक्ष्मण आश्चर्यचकित हुए। इस सुंदर और अनुपम रूप ने लक्ष्मण की आँखों को चकाचौंध कर दिया। इसके पहने हुए रत्नाभूषण ऐसे लगते थे मानो किसी हर्षित, पुलकित और पुष्पित लता पर सैकड़ों की संख्या में जुगुनू मंडराते हुए जगमगा रहे हो।
थी अत्यन्त अतृप्त वासना......अपनी ठौर आ चुकी थी ।। (32)
व्याख्या :- लक्ष्मण के सामने खड़ी इस सुंदरी (शूर्पणखा) की बड़ी बड़ी आँखों में उसकी अतृप्त वासना झलक रही थी। ऐसा प्रतीत होता था, मानो पुष्पों के मकरंद की माधुरी उनके सौंदर्य से ही प्रकट होकर भँवरों को ललचाती है।
उसकी आँखों से पता चलता था कि उसे अपनी वांछित वस्तु प्राप्त हो चुकी थी । ऐसा लगता था मानो सुगंध खोजते-खोजते निकले हिरण को अपनी खोज की चीज़ मिल गयी हो और वह अपने ठिकाने पर पहुँच गया हो।
शूर्पणखा की तामसी प्रवृत्ति का चित्रण किया गया है।
कटि के नीचे चिकुर-जाल में.......मनसिज ने झूला डाला। (33)
व्याख्या :- शूर्पणखा का सौंदर्य-वर्णन कवि के शब्दों में निम्नलिखित प्रकार से है, जिसके दर्शन लक्ष्मण कर रहे हैं।
इस सुंदरी के केश इतने लंबे हैं कि वे उसकी कमर के नीचे तक लटक रहे हैं और वह सुंदरी अपनी उँगलियों को उस केश-राशि पर चला रही थी । लहरों जैसे ऐसा लग रहा था मानो हिलते हुए कमल मंडरानेवाले भँवरों के साथ स्वयं खेल रहे हों।
यह सुंदरी अपने दायें हाथ में वन के विभिन्न फूल लिये सँवार रही थी मानो कामदेव ने टंगाये हुए अपने पुष्प-धनुष से एक झूला बनाया हो।
पर संदेह-दोल पर ही था... सम्मुख कैसा फूल रहा।। (34)
व्याख्या :- संदेह रूपी झूले पर लक्ष्मण का मन डोलायमान रहा। मन के अंदर भावनाओं के चक्कर में फँसकर भूले-भटके फिरते थे। लक्ष्मण के मन में विभिन्न प्रकार के संदेह उठने लगे । विचारों के भवंडर में फँसा था और भूले भटके फिरनेवाला उनका मन न जाने अब किस नदी तट की खोज कर रहा है।
आज जागृत अवस्था में स्वप्न रूपी यह शालवृक्ष कैसे पुष्पित हो रहा है।
देख उन्हें विस्मित विशेष वह .........चंचल होकर चकित हुए ।। (35)
व्याख्या :- चकित हुए इस चिन्तामग्न रूप में लक्ष्मण को देखकर मुस्कान भरी मुखवाली बोल उठी - (विशेषता यह है कि इस सुंदरी का मुख तो सुंदर अवश्य था, पर यह कोई भोली-भाली नहीं है। उनके मुख में सरलता नहीं दिखाई पड़ी)
शूर्पणखा बोल उठी - हे शूरवीर धनुर्धर! तुम भाग्यवान हो । एक अबला को देखकर क्यों अधीर और हैरान हो रहे हो? यह तो सृष्टि का स्वाभाविक सौंदर्य है। तुम क्यों आश्चर्य चकित हो रहे हो ?
प्रथम बोलना पड़ा मुझे ही,........निज गंभीर भाव लाये. (36)
व्याख्या :- शूर्पणखा आगे बोलने लगी- 'एक नारी को सामने देखकर भी तुम नहीं बोले । क्या इससे पुरुषों की निर्दयता का बोध नहीं होता? मुझे ही आपके सामने पहले बोलना पड़ रहा है । लक्ष्मण थोड़ा संभालते हुए मुस्कुराये । अपने चेहरे पर गंभीरता को लाकर बोलने लगे।
'सुन्दरि, मैं सचमुच विस्मित हूँ ......निस्संदेह निरखती हो। (37)
व्याख्या :- मैं तो अवश्य तुम्हें अचानक यहाँ देखकर आश्चर्य चकित हो गया था । रात का अंतिम पहर है और तुम यहाँ अकेली आयी हो। तुम कौन हो? कहाँ जा रही हो? तुम अपने आपको एक अबला कहती हो। परंतु तुम बड़ी चतुर और साहसी नारी हो। मुझ जैसे शांतिप्रिय और मोह रहित पुरुषों में तुम्हें निर्ममता अथवा कठोरता अवश्य लक्षित हुई होगी।
पर मैं ही यदि परनारी से.......ममता कितनी कच्ची है ।।(38)
व्याख्या :- लक्ष्मण पूछते हैं : 'अगर मैं स्वयं तुमसे अर्थात् एक परनारी से पहले बोलने लगता, तो शायद सही धर्मपरायणता और मेरे धर्म का भंग हो जाता । तुम मुझे निर्मम कहती हो। फिर भी तुम्हारा यह कहना सच ही है। मेरा ममता-भाव कच्चा ही है ।
माता, पिता और पत्नी की,.......होती है हे मंजमुखी। (39)
व्याख्या :- लक्ष्मण आगे कहते हैं - हे सुंदरी । वास्तव में मुझमें ममता नामक कोई चीज़ नहीं है। माता, पिता, पत्नी, धन, घरबार आदि की कोई ममता मुझमें नहीं है। मुझे इन सबकी कोई परवाह नहीं । जीवन परंपरा की भी कोई चिंता नहीं, मोह नहीं। इन बातों से यहाँ कोई मतलब नहीं। परंतु एक बात कह देता हूँ। इतना निर्मम रहने पर भी में यहाँ परम सुखी हूँ। ममता की भावना नारी सुलभ होती है अर्थात महिलाओं का यह स्वाभाविक गुण है।
विशेषताएँ :- लक्ष्मण की उपर्युक्त बातों के माध्यम से कवि कहना चाहते हैं कि निर्मोह और त्याग की भावना रखते हुए भी पुरुष का धीर-वीर बनकर कर्तव्यनिष्ठ रहना एक आदर्श है |
शूरवीर कहकर भी मुझको.......मन में संशय होता है।' (40)
व्याख्या :- मुझे तुम एक ओर शूरवीर कहती हो और दूसरी ओर कायर भी बताती हो। अपनी बातों में तुम अपनी सूक्ष्म दृष्टि और होशियारी को मुझे बताना चाहती हो । तुम्हारी बातों का ढंग देखते हुए मेरे मन में शंका हो रही है कि कहीं तुम सीधी-सादी नहीं हो। मतवाली युवती! इस निर्जन वन में इस तरह तुम्हें देखते हुए शंका हो रही है ।
शूर्पणखा अपनी होशियारी दिखाने की कोशिश करती है। उसी समय लक्ष्मण अपनी बुद्धि की तेज़ी से उसे टोकते हैं।
कहूँ मानवी यदि मैं तुमको........ हे रंजित रहस्यवाली?' (41)
व्याख्या :- मैं तुझे मानवी नहीं मान सकता, क्योंकि तुममें नारी- सहज संकोच और लज्जा की भावनाओं का अभाव है। अगर मैं तुझे दानवी कहना चाहूँ, तो भी उचित नहीं लगता । वन देवी तो सरल और कोमल हृदयवाली होती है। ओ, रहस्यमयी सुंदरी! अब तुम स्वयं बोल दो कि तुम कौन हो?
"केवल इतना कि तुम कौन हो?"......सहज चली जाऊँगी मैं। (42)
व्याख्या :- लक्ष्मण के इतने से प्रश्न पर कि, तुम कौन हो? अत्यंत निराश होकर झूठे आँसू बहाते हुए शूर्पणखा कहने लगी, 'हे निर्दयी पुरुष! तुमने पूछा कि तुम कौन हो? परंतु तुम कितने निष्ठुर हो, निर्दयी हो कि तुमने नहीं पूछा कि तुमको क्या चाहिए? कम से कम ऐसा पूछते तो मेरा मन कुछ शांत तो हो जाता । मुझे लग रहा है कि मैं शायद ठगी जाऊँगी । परंतु जब तुम्हारे इतने पास आ गयी हूँ, तो क्यों चुपके से चली जाऊँ?
शूर्पणखा अपने छल को छिपा नहीं रख पाई और उसके उद्देश्य का आभास हो ही जाता है।
'समझो मुझे अतिथि ही अपना,.....हे शुभ मूर्तिमयी माये !'(43)
व्याख्या :- शूर्पणखा आगे अपना मन खोल देती है : मुझे तुम अपना अतिथि मान सकते हो। तुमसे कोई अतिथि सत्कार मिलेगा क्या? लग रहा है, तुम्हारा दिल तो पत्थर का है, पत्थर भी पिघल सकता है, परंतु तुम्हारा दिल हिलता भी नहीं । ऐसी बातें करते हुए वह सुंदरी दाँतों से अपने ओंठ काटते हुए अपने मोह की अभिव्यक्ति करने लगी । मुस्कुराते हुए लक्ष्मण कहने लगे, 'हे शुभे और सुंदर चेहरेवाली माये!'
राक्षसी शूर्पणखा अपने सुंदर रूप के अंदर अपने मायावी रूप को जितनी भी होशियारी के साथ छिपाने की कोशिश करती है, लक्ष्मण उसके असली गुण को समझ लेते हैं ।
तुम अनुपम ऐश्वर्यवती हो,.....देवों को मैं नहीं दिया।' (44)
व्याख्या :- लक्ष्मण बोलने लगते हैं । 'तुम बड़ी संपन्न नारी लग रही हो । मैं तो यहाँ दीन, गरीब और
साधारण वनवासी हूँ । मैं तुम्हारा क्या आतिथ्य कर सकता हूँ? मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ ।' सुंदरी फिर बोलने लगी, 'मैंने तुम्हारे विचार समझ लिये । अपने को तुम निर्धन बता रहे हो । विधाता ने तुम्हें जो धन दिया है, वह धन देवताओं को भी प्राप्त नहीं हुआ है।
किन्तु विराग भाव धारण कर......विपुल - विघ्न- बाधा वारण। (45)
व्याख्या :- इतने भाग्यशाली होकर भी तुम वैराग्य और त्याग की भावना को अपनाकर रह रहे हो। मैं तुम्हारे लिए सारे रत्नाभरण न्योछावर कर दूंगी और मैं अपनी इच्छा की पूर्ति हेतु योगिनी बन जाऊँ ? परन्तु मैं अवश्य इस कानन में तुम्हारी बाधाओं को दूर कर सकती हूँ।
इस व्रत में किस इच्छा से तुम.......त्यागो यह अति विषम विराम। (46)
व्याख्या:- शूर्पणखा लक्ष्मण से प्रश्न करती है, 'हे व्रती! किस इच्छा की पूर्ति के लिए ऐसे व्रत में बैठे हो? :- मैं तुम्हारी बाधाओं को दूर कर सकती हूँ। धन की इच्छा हो तो कहो । मैं तुम्हें अपने सोने का भू-भाग(राज्य) श्रीलंका को ही भेंट करके तुम्हें उसके राजा ही बना दूँगी। तुम्हें बस इतना करना पड़ेगा कि तुम इस वैराग्य को छोड़ दो।
और, किसी दुर्जय बैरी से,......क्यों मन को यों हनते हो? (47)
व्याख्या :- शूर्पणखा आगे पूछती है :- क्या तुम्हें किसी शक्तिशाली शत्रु से प्रतिशोध लेने का लक्ष्य है? ऐसी कोई बात हो तो मुझे आज्ञा दो और मैं अपनी क्रोधाग्नि से उनको जला दूँगी। अगर तुम्हारा किसी कांता से प्रेम हो और उस प्यास को बुझाने के विचार से तपस रूपी कुआँ खोदने लगे हो, तो सचमुच तुम बड़े भोले हो । क्यों तुम अपने मन का हनन करते हो?
ओ, कौन है, वार न देगा......एक और अवसर दो दानि ।" (48)
व्याख्या :- तुम्हारे इस यौवन रूपी धन पर अपने प्राणों को कौन न्योछावर न कर देगा । इस अमूल्य ऐश्वर्य को योंही व्यर्थ मत करो । यत्नपूर्वक और सावधानी से इसकी रक्षा करो। किसी कारण से यह सांसारिक जीवन बोझ-सा लग रहा हो और तुम्हें इससे विरक्ति हो रही हो, तो हे दानी! मुझे इसके साथ एक अवसर दो । मेरे साथ मिलकर इस संसार का सुख भोगो। तुम्हारा यह भ्रम दूर होगा।
लक्ष्मण फिर गंभीर हो गये.....कोई मुझे अभाव नहीं। (49)
व्याख्या :- शूर्पणखा के इस असभ्य प्रस्ताव से लक्ष्मण का तेवर चढ़ गया। वे गंभीर होकर बोलने लगे ।"हे राजकुमारी! नारी सुलभ इस सहानुभूति के लिए मेरा धन्यवाद । कोई साधारण कन्या ऐसे प्रस्ताव रख नहीं सकती । अब मैं तुमसे सच कह देता हूँ कि मुझे किसी चीज़ का अभाव नहीं । मुझे कुछ नहीं चाहिए।"
तो फिर क्या निष्काम तपस्या.....क्या न जाएगा भोगा ही?' (50)
व्याख्या :- शूर्पणखा लक्ष्मण से तर्क करने लगती है। अगर तुम्हें किसी प्रकार की कमी नहीं हो, तो तुम क्यों इस उम्र में इस तरह निर्मोही बनकर तपस्या में बैठे हो? क्या तुम्हें आश्रमधर्म के भंग का पाप नहीं लगेगा? मान लो, ऐसा पाप न भी लगे, तब भी कम से कम इस तप का फल अवश्य मिलनेवाला है । क्या उसे स्वयं ही प्राप्त करके अकेले ही भोगने की कामना रखते हो?
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