स्कन्दगुप्त नाटक की ऐतिहासिकता
प्रसाद जी की नाट्य-कला का महत्वपूर्ण तत्त्व उनकी ऐतिहासिकता है। उनके गंभीर अध्ययन और मनन का परिचय हमे उनके ऐतिहासिक अन्वेषणों से मिलता है। उनका ऐतिहासिक जान नाटकों की लम्बी-चौड़ी भूमिका तक ही सीमित नही है। उन्होंने अपनी खोजों के तर्क-संगत प्रमाण भी दिये है। अतीत की टूटी कड़ियों को एकत्र करने का जो कार्य उन्होंने किया है वह बहुत ही सराहनीय है। उन्होंने अपनी कल्पना और भाव-भंगिमा से इतिहास के रूखे-सूखे पृष्ठों में जीवन का रस डाल दिया है।
प्रसाद जी के 'स्कन्दगुप्त नाटक के सभी प्रमुख पुरुष पात्रों के नाम इतिहास में मिलते हैं। उनमें कुमारगुप्त, स्कन्दगुप्त, बन्धुवर्मा, पर्णदत्त, चक्रपालित, भटार्क, शर्वनाग, पृथ्वीसेन, प्रख्यातकीर्ति, भीमवर्मा, गोविंदगुप्त, जिंगल आदि आते हैं। स्त्री पात्रों में स्कन्दगुप्त की माता देवकी और पुरगुप्त की माता अनंतदेवी ऐतिहासिक है।
स्कन्दगुप्त नाटक की प्रमुख घटनाएँ भी इतिहास सम्मत है। यथा -
1) मालव राजा द्वारा गुप्त राजा की सार्वभौम सत्ता मान लेना :
विक्रमाब्द 480 वाले गांधार के शिलालेख द्वारा मालव का स्वतंत्र रहना प्रमाणित है। परन्तु 529 विक्रमाब्द वाले मंदसोर शिलालेख के अनुसार 493 विक्रमीय में कुमार गुप्त की सार्वभौम सत्ता मान ली गयी है। प्रसाद जी ने 'स्कन्दगुप्त' नाटक में थोड़ा परिवर्तन कर दिया है। नाटक में मालव राजा बन्धुवर्मा स्कन्दगुप्त की सार्वभौम सत्ता मान लेता है।
2) आर्यावर्त पर म्लेच्छो और हूणों का आतंक होना :
यह स्कन्दगुप्त के शिलालेखों से प्रमाणित होता है।
3) स्कन्दगुप्त द्वारा सौराष्ट्र के शकों का मूलच्छेद:
यह बात चक्रपालित के शिलालेख से स्पष्ट होती है।
प्रसाद ने कुछ ऐतिहासिक उद्देश्यों से अनुप्राणित होकर 'स्कन्दगुप्त' नाटक की रचना की है।
उनका विवरण इस प्रकार है।
1. विक्रमीय संवत् के प्रवर्तक का अस्तित्व :
कुछ विद्वान् लोग विक्रमीय संवत् के प्रवर्तक के ऐतिहासिक महत्व को स्वीकार नहीं करते। वे ये कारण देते हैं -
1) इसका कोई शिलालेख नहीं मिलता।
2) मालव में अति प्राचीन काल से एक मालव संवत् का प्रचार था।
अन्य विद्वान् मानते हैं कि द्वितीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ही असली विक्रमादित्य था। उसने ही शकों को पराजित किया और प्रचलित मालव संवत् के साथ अपनी 'विक्रम' उपाधि जोड़कर विक्रमीय संवत् का प्रचार किया।
प्रसाद जी का विचार है कि द्वितीय चन्द्रगुप्त ने सौराष्ट्र के शकों को पराजित करके विक्रमादित्य की उपाधि प्राप्त की, क्योंकि विक्रमादित्य की उपाधि प्राप्त करने केलिए शकादि का होना आवश्यक था। जब द्वितीय चंद्रगुप्त के समय में विक्रमादित्य उपाधि गयी तो नाम का कोई व्यक्ति उसके पहले हुआ होगा। चन्द्रगुप्त द्वितीय का राज्य काल 385 413 ई. तक माना जाता है। इसलिए 385 ई. के पहले कोई विक्रमादित्य हुआ हो।
2. हूणों के हाथ स्कन्दगुप्त पराजित नहीं हुआ :
प्रसाद जी ने 'राजतरंगिणी' और 'सुंगयन' के वर्णन मिलाकर इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ने ही सौराष्ट्र आदि से शकों को और काश्मीर तथा सीमा प्रांत से हूणों का राज्य विध्वंस किया और सनातन धर्म की रक्षा की।
आगे बताते है कि पिछले काल के स्वर्ण के सिक्कों को देखकर लोग अनुमान लगाते हैं कि उसी के समय में हूणों ने फिर आक्रमण किया और स्कन्दगुप्त पराजित हुआ। किन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं। तोरमाण के शिलालेखों से पता चलता है कि स्कन्दगुप्त हूणों के आक्रमण के पहले ही मर गया था दुर्बल पुरगुप्त के काल में तोरमाण के द्वारा गुप्त साम्राज्य का विध्वंस हुआ और गोपादि तक उसके हाथ में चला गया।
3. कालिदास के सम्बन्ध में।
साधारण पाठक यह मानत है कि कवि कालिदास ने ही नाटक भी लिखे हैं। किन्तु जयशंकर प्रसाद जी ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया है कि तीन कालिदास भिन्न-भिन्न कालों में हुए हैं-
1) नाटककार कालिदास प्रथम कालिदास है। वह ईसा पूर्व का है।
2) कवि कालिदास पाँचवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध और छठी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जीवित था।
3) तीसरा कालिदास बंगाल का था। यही संभवतः ऋतुसंहार, पुष्पबाण विलास,
श्रृंगार तिलक और अश्वधाटी काव्यों का रचयिता हो।
4. मातृगप्त ही कवि कालिदास है :
डाक्टर भाऊदाजी के मत का समर्थन करते हुए जयशंकर प्रसाद जी मातृगुप्त को ही कवि कालिदास मानते हैं। इस मत के समर्थन के आधार ये बताये गये हैं
1) स्कन्दगुप्त के शिलालेखों में जो पद्य रचना है, वह वैसी ही प्रांजल है जैसी रघुवंश की। रघुवंश में स्कन्दगुप्त और कुमारगुप्त का स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
2) पुरगुप्त के अन्तर्विद्रोह के कारण स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ने मगध और अयोध्या छोड़कर उज्जयनी को अपनी राजधानी बनायी और साम्राज्य का नया संगठन करने लगा। उसी समय मातृगुप्त काश्मीर का शासक नियुक्त किया गया। किन्तु 467 ई में स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य का अन्त होने पर मातृगुप्त काश्मीर छोड़कर काशी चला गया।
3) सिंहल के कुमारदास और मातृगुप्त के बीच मैत्री के होने की बात का अविश्वास करने का कोई आधार नहीं है।
4) यदि स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य के मरने पर दुखी होकर मातृगुप्त के अपने मित्र कुमारदास से मिलने सिंहल जाना ठीक है तो मेघदूत को उसी समय का काव्य माना जाना चाहिए। 'मेघदूत में 'देवपूर्वीगरि ते वाले श्लोक में देवगिरि की स्कन्द राज की प्रतिमा का आँखो देखा वर्णन मिलता है।
5) 'रघुवंश में गुप्त वंश के अंतिम पतनपूर्ण वर्णन मिलता है।
6) यदि कवि कालिदास का जीवन-काल 524 ई. तक माना जाता है तो उसी समय कुमारदास सिंहल का राजकुमार था।
7) सिंहल में यह रूढ़ि है कि कवि कालिदास सिंहल आया था। चीनी यात्री ने भी लिखा है कि कालिदास ने सिंहल में मनोरथ को हराया था।
8) राजतरंगिणी के अनुसार विक्रमादित्य और मातृगुप्त का कथा भी उसी काल की है।
9) सुंगयुन के अनुसार हूण राजकुल में विग्रह हुआ था।
जयशंकर प्रसाद जी यह मानते हैं कि कालिदास उपाधि है। हम यह मान सकते हैं कि कालिदास नाम का कोई व्यक्ति रहा होगा और बाद में वह उपाधि बन गया हो।
इस तरह प्रसाद जी ने 'स्कन्दगुप्त' में ऐतिहासिकता व चित्रण किया है।
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