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Friday, September 10, 2021

4. मंत्र - श्री मुंशी प्रेमचंद


          4. मंत्र
         श्री मुंशी प्रेमचंद

            संध्या का समय था। डॉक्टर चड्ढा गोल्फ खेलने के लिए तैयार हो रहे थे। मोटर के सामने खड़ी थी। दो आदमी एक डोली लिये आते दिखायी दिये। डोली के पीछे द्वार एक बूढ़ा लाठी टेकता चला आ रहा था। डोली औषधालय के सामने आकर रुक गयी। बूढ़े ने धीरे-धीरे आकर द्वार पर पड़ी हुई चिक से झाँका। ऐसी साफ़-सुथरी ज़मीन पर पैर रखते हुए भय हो रहा था कि कोई घुड़क न बैठे। डॉक्टर साहब को खड़े देख कर भी उसे कुछ कहने का साहस न हुआ।

       डॉक्टर साहब ने चिक के अंदर से गरज कर कहा- कौन है? क्या चाहता है?

        बूढ़े ने हाथ जोड़कर कहा- हुज़ूर, बड़ा गरीब आदमी हूँ। मेरा लड़का कई दिन से..... डॉक्टर साहब ने सिगार जला कर कहा - कल सबेरे आओ, कल सबेरे, हम इस वक्त मरीज़ों को नहीं देखते।

       बूढ़े ने घुटने टेक कर ज़मीन पर सिर रख दिया और बोला- दुहाई है सरकार की, लड़का मर जायगा, चार दिन से आँखें नहीं ......

      डॉक्टर चड्ढा ने कलाई पर नज़र डाली। केवल दस मिनट समय और बाकी था । गोल्फ स्टिक खूँटी से उतारते हुए बोले - कल सबेरे आओ, कल सबेरे; यह हमारे खेलने का समय है।

       बूढ़े ने पगड़ी उतार कर चौखट पर रख दी और रोकर बोला- हुज़ूर, एक निगाह देख लें। बस, एक निगाह! लड़का हाथ से चला जायगा । हुज़ूर, सात लड़कों में यही एक बच रहा है, हुज़ूर । हम दोनों आदमी रो-रोकर मर जायेंगे, सरकार! आपकी बढ़ती होय, दीनबंधु!

       ऐसे उजड्ड देहाती यहाँ प्रायः रोज आया करते थे। डॉक्टर साहब उनके स्वभाव से खूब परिचित थे। कोई कितना ही कुछ कहे; पर वे अपनी ही रट लगाते जायँगे। किसी की सुनेंगे नहीं। धीरे से चिक उठाई और बाहर निकल कर मोटर की तरफ़ चले । बूढ़ा यह कहता हुआ उनके पीछे दौड़ा-सरकार, बड़ा धरम होगा। हुज़ूर, दया कीजिए, बड़ा दीन दुखी हूँ; संसार में कोई और नहीं है, बाबू जी।

         मगर डॉक्टर साहब ने उसकी ओर मुँह फेर कर देखा तक नहीं। मोटर पर बैठ बोले - कल सबेरे आना ।

         मोटर चली गयी। बूढ़ा कई मिनट तक मूर्ति की भाँति निश्चल खड़ा रहा। संसार में ऐसे मनुष्य भी होते हैं, जो अपने आमोद-प्रमोद के आगे किसी की जान की भी परवाह नहीं करते, शायद इसका उसे अब भी विश्वास न आता था। सभ्य संसार इतना निर्मम, कठोर है, इसका ऐसा मर्मभेदी अनुभव अब तक न हुआ था। वह उन पुराने जमाने के जीवों में था, जो लगी हुई आग को बुझाने, मुर्दे को कंधा देने, किसी के छप्पर को उठाने और किसी कलह को शांत करने के लिए सदैव तैयार रहते थे । इतना

        उसी रात उसका हँसता-खेलता सात साल का बालक अपनी बाल-लीला समाप्त करके इस संसार से सिधार गया । बूढ़े माँ-बाप के जीवन का यही एक आधार था। इसी का मुँह देख कर जीते थे। इस दीपक के बुझते ही जीवन की अँधेरी रात भाँय-भाँय करने लगी। बुढ़ापे की विशाल ममता टूटे हुए हृदय से निकल कर अंधकार आर्त्त-स्वर से रोने लगी।

                                          2

          कई साल गुजर गये। डॉक्टर चड्ढा ने खूब यश और धन कमाया; लेकिन इसके साथ ही अपने स्वास्थ्य की रक्षा भी की, जो एक साधारण बात थी। यह उनके नियमित जीवन का आशीर्वाद था कि पचास वर्ष की अवस्था में उनकी चुस्ती और फुर्ती युवकों को भी लज्जित करती थी। उनके हर एक काम का समय नियत था, इस नियम से वह जौ-भर भी न टलते थे। उनके केवल दो बच्चे हुए, एक लड़का और एक लड़की । लड़की का तो विवाह हो चुका था । लड़का कालेज़ में पढ़ता था। आज उसकी बीसवीं सालगिरह थी।

      संध्या का समय था। हरी - हरी घास पर कुर्सियाँ बिछी हुई थीं। शहर के रईस और हुक्काम एक तरफ़, कालेज़ के छात्र दूसरी तरफ़ बैठ भोजन कर रहे थे। बिजली के प्रकाश से सारा मैदान जगमगा रहा था । आमोद-प्रमोद का सामान भी जमा था।

          मृणालिनी और कैलाश दोनों सहपाठी थे और एक-दूसरे के प्रेम में पगे हुए। कैलाश को साँपों के पालने, खेलाने और नचाने का शौक था । तरह-तरह के साँप पाल रखे थे। उनके स्वभाव और चरित्र की परीक्षा करता रहता था। थोड़े दिन हुए, उसने विद्यालय में ‘साँपों' पर एक मार्के का व्याख्यान दिया था। साँपों को नचा कर दिखाया भी था।

प्राणिशास्त्र के बड़े-बड़े पंडित भी यह व्याख्यान सुन कर दंग रह गये थे। यह विद्या उसने एक बड़े सँपेरे से सीखी थी। साँपों की जड़ी-बूटियाँ जमा करने का उसे मरज था।

         ज्योंहि प्रीति-भोज समाप्त हुआ और गाना शुरू हुआ, उसने मृणालिनी और अन्य मित्रों को साँपों के दरबे के सामने ले जाकर महुअर बजाना शुरू किया। फिर एक-एक खाना खोलकर एक-एक साँप को निकालने लगा। वाह! क्या कमाल था। ऐसा जान पड़ता था कि वे कीड़े उसकी एक-एक बात, उसके मन का एक-एक भाव समझते हैं। किसी को उठा लिया, किसी को गरदन में डाल लिया, किसी को हाथ में लपेट लिया।

        एक मित्र ने टीका की-दाँत तोड़ डाले होंगे।

         कैलाश हँसकर बोला-दाँत तोड़ डालना मदारियों का काम है। किसी के दाँत नहीं तोड़े गये कहिए तो दिखा दूँ? कहकर उसने एक काले साँप को पकड़ लिया और बोला “मेरे पास इससे बड़ा और जहरीला साँप दूसरा नहीं है, अगर किसी को काट ले, तो आदमी आनन-फानन में मर जाय । लहर भी न आये। इसके काटे पर मंत्र नहीं। इसके दाँत दिखा दूँ?"

        मृणालिनी ने उसका हाथ पकड़कर कहा - नहीं-नहीं कैलाश, ईश्वर के लिए इसे छोड़ दो। तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ।

          इस पर एक दूसरे मित्र बोले- मुझे तो विश्वास नहीं आता, लेकिन तुम कहते हो, तो मान लूँगा।

          इसलिए कैलाश ने उस साँप की गर्दन खूब दबा कर मुँह खोल दिया और उसके ज़हरीले दाँत दिखाते हुए बोला "जिन सज्जनों को शक हो, आकर देखे लें। आया विश्वास ? या अब भी कुछ शक है?" मित्रों ने आकर उसके दाँत देखे और चकित हो गये। प्रत्यक्ष प्रमाण के सामने संदेह का स्थान कहाँ ? मित्रों का शंका-निवारण करके कैलाश ने साँप की गर्दन ढीली कर दी और उसे ज़मीन पर रखना चाहा, पर वह काला गेहुँवन क्रोध से पागल हो रहा था। गर्दन नरम पड़ते ही उसने सिर उठा कर कैलाश की उँगली में जोर से काटा और वहाँ से भागा । कैलाश की उँगली से टप-टपकर खून टपकने लगा। उसने जोर से उँगली दबा ली और अपने कमरे की तरफ़ दौड़ा। वहाँ मेज़ की दराज में एक जड़ी रखी हुई थी, जिसे पीस कर लगा देने से घातक विष भी रफू हो जाता था। मित्रों में  हलचल पड़ गई। बाहर महफिल में भी खबर हुई। डॉक्टर साहब घबरा कर दौड़े। फौरन उँगली की जड़ कस कर बाँधी गयी और जड़ी पीसने के लिए दी गयी। डॉक्टर साहब जड़ी के कायल न थे। वह उँगली का डसा भाग नश्तर से काट देना चाहते थे, मगर कैलाश को जड़ी पर पूर्ण विश्वास था। यह खबर सुनते ही मृणालिनी दौड़ी, और कैलाश की उँगली से टपकते हुए खून को रूमाल से पोंछने लगीं। जड़ी पीसी जाने लगी; पर उसी एक मिनट में कैलाश की आँखें झपकने लगीं, ओंठों पर पीलापन दौड़ने लगा। यहाँ तक कि वह खड़ा न रह सका। फर्श पर बैठ गया। सारे मेहमान कमरे में जमा हो गए। कोई कुछ कहता था। कोई कुछ। इतने में जड़ी पीसकर आ गयी। मृणालिनी ने उँगली पर लेप किया। एक मिनट और बीता। कैलाश की आँखें बंद हो गयीं। वह लेट गया और हाथ से पंखा झलने का इशारा किया। माँ ने दौड़कर उसका सिर गोद में रख लिया और बिजली का टेबुल-फेन लगा दिया।

         डॉक्टर साहब ने झुक कर पूछा- कैलाश, कैसी तबीयत है? कैलाश ने धीरे से हाथ उठा लिए; पर कुछ बोल न सका। मृणालिनी ने करुण स्वर में कहा-“क्या जड़ी कुछ असर न करेगी?” डॉक्टर साहब ने सिर पकड़ कर कहा-क्या बतलाऊँ, मैं इसकी बातों में आ गया । अब तो नश्तर से भी कुछ फायदा न होगा ।

         आधे घंटे तक यही हाल रहा। कैलाश की दशा प्रतिक्षण बिगड़ती जाती थी। यहाँ तक कि उसकी आँखें पथरा गयी, हाथ-पाँव ठंडे पड़ गये, मुख की कांति मलिन पड़ गयी, में नाड़ी का कहीं पता नहीं। मौत के सारे लक्षण दिखायी देने लगे। घर में कुहराम मच गया। मृणालिनी एक ओर सिर पीटने लगी; माँ अलग पछाड़े खाने लगी। डॉक्टर चड्ढा को मित्रों ने पकड़ लिया, नहीं तो वह नश्तर अपनी गर्दन पर मार लेते।

          एक महाशय बोले - कोई मंत्र झाड़ने वाला मिले, तो संभव है, अब भी जान बच जाय ।

           एक मुसलमान सज्जन ने इसका समर्थन किया-अरे साहब कब्र में पड़ी हुई लाशें जिंदा हो गयी हैं। ऐसे-ऐसे बाकमाल पड़े हुए है। हैं।

           डॉक्टर बोले-मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गया था कि इसकी बातों में आ चड्ढा गया। नश्तर लगा देता, तो यह नौबत ही क्यों आती। बार-बार समझाता रहा कि बेटा, सॉप न पालो, मगर कौन सुनता था । बुलाइए, किसी झाड़-फूक करने वाले ही को  बुलाइए। मेरा सब कुछ ले ले, मैं अपनी सारी जायदाद उसके पैरों पर रख दूँगा। लँगोटी बाँधकर घर से निकल जाऊँगा; मगर मेरा कैलाश, मेरा प्यारा कैलाश उठ बैठे। ईश्वर के लिए किसी को बुलवाइए।

        एक महाशय का किसी झाड़ने वाले से परिचय था। वह दौड़कर उसे बुला लाये; मगर कैलाश की सूरत देखकर उसे मंत्र चलाने की हिम्मत न पड़ी। बोला- अब क्या हो सकता है, सरकार ? जो कुछ होना था, हो चुका।

         अरे मूर्ख, यह क्यों नहीं कहता कि जो कुछ न होना था, वह कहाँ हुआ?

                                            3


            शहर से कई मील दूर एक छोटे-से घर में एक बूढ़ा और बुढ़िया अँगीठी के सामने बैठे जाड़े की रात काट रहे थे। बूढ़ा नारियल पीता था और बीच-बीच में खाँसता था। बुढ़िया दोनों घुटनों में सिर डाले आग की ओर ताक रही थी। एक मिट्टी के तेल की कुप्पी ताक पर जल रही थी। घर में न चारपाई थी, न बिछौना। एक किनारे थोड़ी-सी पुआल पड़ी हुई थी। इसी कोठरी में एक चूल्हा था । बुढ़िया दिन-भर उपले और सूखी लकडियाँ बटोरती थी। बूढ़ा रस्सी बट कर बाज़ार में बेच आता था । यही उनकी जीविका थी। उन्हें न किसी ने रोते देखा, न हँसते । उनका सारा समय जीवित रहने में कट जाता था। मौत द्वार पर खड़ी थी, रोने या हँसने की कहाँ फुरसत! बुढ़िया ने पूछा-कल के लिए सन तो है नहीं, काम क्या करोगे?

       'जाकर झगडू साह से दस सेर सन उधार लाऊँगा?'

       'उसके पहले के पैसे तो दिये ही नहीं, और उधार कैसे देगा?'

        ‘न देगा न सही। घास तो कहीं नहीं गयी। दोपहर तक क्या दो आने की भी न काँगा?'

        इतने में एक आदमी ने द्वार पर आवाज़ दी-भगत, भगत, क्या सो गये? ज़रा किवाड़ खोलो।

         भगत ने उठकर किवाड़ खोल दिये। एक आदमी ने अंदर आकर कहा- कुछ सुना, डॉक्टर चड्ढा बाबू के लड़के को साँप ने काट लिया।

        भगत ने चौंक कर कहा- चड्ढा बाबू के लड़के को। वही चड्ढा बाबू हैं न, जो छावनी में बंगले में रहते हैं?

        'हाँ हाँ वही। शहर में हल्ला मचा हुआ है। जाते हो तो जाओ, आदमी जाओगे।'

        बूढ़े ने कठोर भाव से सिर हिला कर कहा-मैं नहीं जाता। मेरी बला जाय। वहीं सुन है। खूब जानता हूँ। भैया, लेकर उन्हीं के पास गया था। खेलने जा रहे थे। पैरों पर चड्ढा गिर पड़ा कि एक नज़र देख लीजिए, मगर सीधे मुँह से बात तक न की। भगवान बैठे रहे थे। अब जान पड़ेगा कि बेटे का गम कैसा होता है। कई लड़के हैं ।

        'नहीं जी, यही तो एक लड़का था। सुना है, सबने जवाब दे दिया है।'

        'भगवान बड़ा कारसाज है। उस बखत मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े थे, पर उन्हें तनिक भी दया न आयी थी। मैं तो उनके द्वार पर होता, तो भी बात न पूछता।' ‘तो न जाओगे? हमने जो सुना था, सो कह दिया।'

        'अच्छा किया—अच्छा किया। कलेजा ठंडा हो गया, आँखें ठंडी हो गयीं। लड़का भी ठंडा हो गया होगा। तुम जाओ आज चैन की नींद सोऊँगा । (बुढ़िया से) जरा तंबाकू ले ले! एक चिलम और पीऊँगा । अब मालूम होगा लाला को। सारी साहबी निकल जायगी, हमारा क्या बिगड़ा। लड़के के मर जाने से कुछ राज तो नहीं चला गया? जहाँ छः बच्चे गये थे, वहाँ एक और चला गया, तुम्हारा तो राज सूना हो जायेगा। इन्होंने उसी के वास्ते सबका गला दबा-दबाकर जोड़ा था न अब क्या करोगे? एक बार देखने जाऊँगा; पर कुछ दिन बाद मिजाज का हाल पूछूंगा।'

           आदमी चला गया। भगत ने किवाड़ बंद कर लिये, तब चिलम पर तंबाखू रख कर पीने लगा। बुढ़िया ने कहा-इतनी रात गए, जाड़े-पाले में कौन जायगा?

          'अरे, दोपहर ही होता तो मैं न जाता। सवारी दरवाजे पर लेने आती, तो भी न जाता। भूल नहीं गया हूँ। पन्ना की सूरत आँखों में फिर रही है। इस निर्दयी ने उसे एक नज़र देखा तक नहीं। क्या मैं न जानता था कि वह न बचेगा? खूब जानता था। चड्ढा भगवान नहीं थे, कि उनके एक निगाह देख लेने से अमृत बरस जाता। नहीं, खाली मन की दौड़ थी। अब किसी दिन जाऊँगा और कहूँगा-क्यों साहब, कहिए, क्या रंग है? दुनिया बुरा कहेगी, कहे; कोई परवाह नहीं। छोटे आदमियों में तो सब ऐब हैं। बड़ों में कोई ऐब नहीं होता, देवता होते हैं।'

          भगत के लिए यह जीवन में पहला अवसर था कि ऐसा समाचार पा कर वह बैठा रह गया हो।

        अस्सी वर्ष के जीवन में ऐसी कभी न हुआ था कि साँप की ख़बर पाकर वह दौड़ न गया हो। माघ-पूस की अँधेरी रात, चैत-बैसाख की धूप और लू, सावन-भादों की चढ़ी हुई नदी और नाले, किसी की उसने कभी परवाह न की वह तुरंत घर से निकल पड़ता था निःस्वार्थ, निष्काम । लेन-देन का विचार कभी दिल में आया नहीं। यह ऐसा काम ही न था। जान का मूल्य कौन दे सकता है? यह एक पुण्य-कार्य था। सैकड़ों निराशों को उसके मंत्रों ने जीवन-दान दे दिया था; पर आप वह घर से कदम नहीं निकाल सका। यह खबर सुन कर सोने जा रहा है ।

          बुढ़िया ने कहा–तमाखू अँगीठी के पास रखी हुई है। उसके भी आज ढाई पैसे हो गये । देती ही न थी।

          बुढ़िया यह कहकर लेटी । बूढ़े ने कुप्पी बुझायी, कुछ देर खड़ा रहा, फिर बैठ गया। अंत को लेट गया; पर यह खबर उसके हृदय पर बोझे की भाँति रखी हुई थी। उसे मालूम हो रहा था, उसकी कोई चीज़ खो गयी है, जैसे सारे कपड़े गीले हो गये है या पैरों में कीचड़ लगा हुआ है, जैसे कोई उसके मन में बैठा हुआ उसे घर से निकालने के लिए कुरेद रहा है। बुढ़िया ज़रा देर में खर्राटे लेनी लगी। बूढ़े बातें करते-करते सोते हैं और ज़रा-सा खटा होते ही जागते हैं। तब भगत उठा, अपनी लकड़ी उठा ली, और धीरे से किवाड़ खोले ।

        बुढ़िया ने पूछा–कहाँ जाते हो?

        'कहीं नहीं, देखता था कि कितनी रात है।'

        'अभी बहुत रात है, सो जाओ'।

         'नींद नहीं आती।'

         ‘नींद काहे आयेगी? मन तो चड्ढा के घर पर लगा हुआ है।'

         'चड्ढा ने मेरे साथ कौन-सी नेकी कर दी है, जो वहाँ जाऊँ? वह आ कर पैरो पड़े, तो भी न जाऊँ ।'

          'उठे तो तुम इसी इरादे से ही?"

           'नहीं री, ऐसा पागल नहीं हूँ कि जो मुझे काँटे बोये, उसके लिए फूल बोता फिरूँ।'

            बुढ़िया फिर सो गयी। भगत ने किवाड़ लगा दिए और फिर आकर बैठा। पर उसके मन की कुछ ऐसी दशा थी, तो बाजे की आवाज़ कान में पड़ते ही उपदेश सुननेवालों की होती हैं। आँखें चाहे उपदेशक की ओर हों; पर कान बाजे ही की ओर होते हैं। दिल में भी बापे की ध्वनि गूँजती रहती है। शर्म के मारे जगह से नहीं उठता। निर्दयी प्रतिघात का भाव भगत के लिए उपदेशक था, पर हृदय उस अभागे युवक की ओर था, जो इस समय मर रहा था, जिसके लिए एक-एक पल का विलंब घातक था ।

           उसने फिर किवाड़ खोले, इतने धीरे से कि बुढ़िया को खबर भी न हुई। बाहर निकल आया। उसी वक्त गाँव के चौकीदार गश्त लगा रहा था, बोला- कैसे उठे भगत? आज तो बड़ी सरदी है। कहीं जा रहे हो क्या ?

        भगत ने कहा-नहीं जी, जाऊँगा कहाँ, देखता था, अभी कितनी रात है। भला, के बजे होंगे?

            चौकीदार बोला-एक बजा होगा और क्या, अभी थाने से आ रहा था, तो डॉक्टर चड्ढा बाबू के बँगले पर बड़ी भीड़ लगी हुई थी। उनके लड़के का हाल तो तुमने सुना होगा, कीड़े ने छू लिया है। चाहे मर भी गया हो। तुम चले जाओ तो शायद बच जाय । सुना है, दस हज़ार तक देने को तैयार हैं। भगत - " मैं तो न जाऊँ चाहे वह दस लाख भी दें। मुझे दस हज़ार या दस लाख लेकर करना क्या है? कल मर जाऊँगा, फिर कौन है।" भोगनेवाला बैठा हुआ है। "

             चौकीदार चला गया। भगत ने आगे पैर बढ़ाया। जैसे नशे में आदमी की देह अपने काबू में नहीं रहती, पैर कहीं रखता है, पड़ता कहीं है, कहता कुछ है, जबान से निकलता कुछ है, वही हाल इस समय भगत का था। मन में प्रतिकार था; पर कर्म, मन के अधीन न था। जिसने कभी तलवार नहीं चलायी, वह इरादा करने पर भी तलवार नहीं चला सकता। उसके हाथ काँपते हैं, उठते ही नहीं।

               भगत लाठी खट-खट करता लपका चला जाता था। चेतना रोकती थी, पर उपचेतना ठेलती थी। सवेक स्वामी पर हावी था।

             आधी राह निकल जाने के बाद सहसा भगत रुक गया। हिंसा ने क्रिया पर विजय पायी-मैं यों ही इतनी दूर चला आया। इस जाड़े-पाले में मरने की मुझे क्या पड़ी थी? आराम से सोया क्यों नहीं? नींद न आती, न सही; दो-चार भजन ही गाता । व्यर्थ इतनी दूर दौड़ा आया । चड्ढा का लड़का रहे या मरे, मेरी कला से। मेरे साथ उन्होंने ऐसा कौन-सा सलूक किया था कि मैं उनके लिए मरूँ? दुनिया में हज़ारों मरते हैं हज़ारों जीते हैं। मुझे किसी के मरने-जीने से मतलब ।

           मगर उपचेतना ने अब एक दूसरा रूप धारण किया, जो हिंसा से बहुत कुछ मिलता-जुलता था-वह झाड़-फूँक करने नहीं जा रहा है; वह देखेगा, कि लोग क्या कर रहे हैं। डॉक्टर साहब का रोना-पीटना देखेगा, किस तरह सिर पीटते हैं, किस तरह पछाड़े खाते हैं। वे लोग तो विद्वान होते हैं, सबर कर जाते होंगे। हिंसा-भाव को यों धीरज देता हुआ वह फिर आगे बढ़ा।

            इतने में दो आदमी आते दिखायी दिये। दोनों बातें करते चले आ रहे थे-चड्ढा बाबू का घर उजड़ गया, वही तो एक लड़का था। भगत के कान में यह आवाज़ पड़ी। उसकी चाल और भी तेज़ हो गयी। थकान के मारे पाँव न उठते थे। शिरोभाग इतना बढ़ा जाता था, मानों अब मुँह के बल गिर पड़ेगा। इस तरह वह कोई दस मिनट चला होगा कि डॉक्टर साहब का बँगला नज़र आया । बिजली की बत्तियाँ जल रही थीं; मगर सन्नाटा छाया हुआ था। रोने-पीटने की आवाज़ भी न आती थी । भगत का कलेजा धक धक करने लगा। कहीं मुझे बहुत देर तो नहीं हो गयी? वह दौड़ने लगा। अपनी उम्र में वह इतना तेज़ कभी न दौड़ा था । बस, यही मालूम होता था, मानो उसके पीछे मौत दौड़ी आ रही है ।


                                                  4

           दो बज गये थे। मेहमान विदा हो गये। रोनेवालों में केवल आकाश के तारे रह गये थे। और सभी रो-रोकर थक गये थे। बड़ी उत्सुकता के साथ लोग रह-रह आकाश की ओर देखते थे कि किसी तरह सुबह हो और लाश गंगा की गोद में दी जाय।

            सहसा भगत ने द्वार पर पहुँच कर आवाज दी। डॉक्टर साहब समझे, कोई म आया होगा। किसी और दिन हो तो उन्होंने उस आदमी को दुत्कार दिया होता; मगर बाहर निकल आये। देखा एक बूढ़ा आदमी खड़ा है कमर झुकी हुई, पोपला मुँह, सफ़ेद हो गयी थी। लकड़ी के सहारे काँप रहा था। बड़ी नम्रता से बोले- क्या है मई, आर तो हमारे ऊपर ऐसी मुसीबत पड़ गयी है कि कुछ कहते नहीं बनता, फिर कभी आना। इधर एक महीना तक तो शायद में किसी भी मरीज को न देख सकूँगा।

            भगत ने कहा-सुन चुका हूँ बाबू जी, इसीलिए आया हूँ। भैया कहाँ है? जरा मुझे दिखा दीजिए। भगदान बड़ा कारसाज है, मुरदे को भी जिला सकता है। कौन जाने भी उसे दया आ जाय। चड्ढा ने व्यथित स्वर से कहा चलो, देख लो, मगर तीन-चार घंटे हो गये। जो कुछ होना था, हो चुका। बहुतेरा झाड़ने-फूंकनेवाले देख-देखकर चले गये।

          डॉक्टर साहब को आशा तो क्या होती हाँ, बूढ़े पर दया आ गयी। अंदर ले गये। भगत ने लाश को एक मिनट तक देखा। तब मुस्कराकर बोला- अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, बाबू जी यह नारायण चाहेंगे, तो आधे घंटे में भैया उठ बैठेगा। आप नाहक दिल छोटा कर रहे हैं। जरा किसी से कहिए, पानी तो भरे।

           किसी ने पानी भर-भरकर कैलाश को नहलाना शुरू किया। पाइप बंद हो गया। था। नौकरों की संख्या अधिक न थी. इसलिए मेहमानों ने अहाते के बाहर के कुएँ से पानी भर-भरकर दिया, मृणालिनी कैलाश के लिए पानी ला रही थी। बूढा भगत खड़ा मुस्करा- मुस्कराकर मंत्र पढ़ रहा था मानो विजय उसके सामने खड़ी है। जब एक बार मंत्र समाप्त हो जाता, तब एक जड़ी कैलाश के सिर पर डाली गयी और न जाने कितनी बार भगत ने मंत्र फूँका आखिर जब उषा ने अपनी लाल-लाल आँखें खोली तो कैलाश की भी लाल-लाल आँखें खुल गयीं। एक क्षण में उसने अंगड़ाई ली और पानी पीने को माँगा। डॉक्टर चड्ढा ने दौड़कर नारायणी को गले लगा लिया। नारायणी दौड़कर भगत के पैरों पर गिर पड़ी और मृणालिनी कैलाश के सामने आँखों में आंसू-भरे पूछने लगी-"अब कैसी तबीयत है ?"

               एक क्षण में चारों तरफ़ खबर फैल गयी। मित्रगण मुबारकबाद देने आने लगे। डॉक्टर साहब बड़ी श्रद्धा से हर एक के सामने भगत का यश गाते फिरते थे। सभी लोग भगत के दर्शनों के लिए उत्सुक हो उठे; मगर अंदर जाकर देखा, तो भगत का कहीं पता न था। नौकरों ने कहा-अभी तो यहीं बैठे चिलम पी रहे थे। हम लोग तमाखू देने लगे, तो नहीं ली, अपने पास से तमाखु निकाल कर भरी।

            यहाँ तो भगत की चारों ओर तलाश होने लगी, और भगत लपका हुआ घर चला जा रहा था कि बुढ़िया के उठने से पहले पहुँच जाऊँ। 

             जब मेहमान लोग चले गये, तो डॉक्टर साहब ने नारायणी से कहा- बुड्ढा न जाने कहाँ चला गया। एक चिलम तमाखू का भी रवादार न हुआ।

            नारायणी - “ मैंने तो सोचा था, इसे कोई बड़ी रकम दूँगी।”

            चड्ढा - "रात को तो मैंने नहीं पहचाना, पर जरा साफ़ हो जाने पर पहचान गया। एक बार यह एक मरीज़ को लेकर आया था। मुझे अब याद आती है कि मैं खेलने जा रहा था और मरीज़ को देखने से इनकार कर दिया था। अब उस दिन की बात याद करके मुझे जितनी ग्लानि हो रही है, उसे प्रकट नहीं कर सकता। मैं उसे अब खोज़ निकालूँगा और उसके पेरों पर गिर कर अपना अपराध क्षमा कराऊँगा। वह कुछ लेगा नहीं, यह जानता हूँ, उसका जन्म यश की वर्षा करने ही के लिए हुआ है। उसकी सज्जनता ने मुझे ऐसा आदर्श दिखा दिया है, जो अब से जीवनपर्यंत मेरे सामने रहेगा।"

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कहानी का सारांश 

                  मंत्र



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                        मंत्र

            "मंत्र" उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद्र की एक प्रसिद्ध कहानी है। इस कहानी में प्रतिकूल परिस्थिति में भी अपने नेक स्वभाव को न छोड़नेवाले व्यक्ति का चरित्र चित्रण है।

             भगत, साँप से कटे व्यक्तियों को अपने मंत्रों के द्वारा बचानेवाला ग्रामीण है। अपनी सात संतानों में से बची आखिरी बीमार बच्चे को लेकर डाक्टर चड्ढा के पास चिकित्सा के लिए ले जाता है। डाक्टर साहब इसलिए उस बच्चे को देखने मना करते हैं कि अब उनके खेलने का समय है। बहुत अनुनय विनय करने पर भी वे नहीं मानते। बूढ़ा अपने जीवन के एक मात्र सहारे को खो बैठता है।

               समय के फेर से यही परिस्थिति डाक्टर साहब के जीवन में भी आ खड़ी होती है। डाक्टर साहब के बेटे कैलाश को साँपों के पालने, खेलाने और नचाने का शौक था। वह अपनी बीसवीं सालगिरह में अपनी प्रेमिका मृणालिनी के आग्रह तथा मित्रों के उकसाने पर अपने सर्प-कला प्रदर्शन दिखाने लगता है। एक जहरीली साँप के गले दबाते समय, वह क्रोधित होकर कैलाश को काट देता है। सब लोग घबरा जाते हैं। डाक्टर साहब के होश उड़ जाते हैं। किसी भी जड़ी का असर नहीं पड़ता। मंत्र पढ़ने पर ही जान बचने की नौबत आ जाती है।

                यह खबर मिलने पर पहले भगत को सांतवना मिलती है कि भगवान ने डाक्टर साहब को अच्छा सबक सिखाया। लेकिन उसके अंतःकरण ने उसे चैन की नींद नही सोने दिया। उसे लगता है कि उसकी हर क्षण की देरी कैलाश के लिए घातक है। उसके पैर अपने आप डाक्टर साहब के घर की ओर बढ़ता है। बहुत देर तक मंत्र पढ़कर कैलाश को बचा लेता है। अपना कर्तव्य समाप्त होने पर तुरंत वहाँ से निकल जाता है। आधी रात में डाक्टर साहब उसे पहचान नहीं पाते। लेकिन पहचानने के बाद वे आत्मग्लानि से भर जाते हैं। किसी भी तरह उसे ढूँढकर क्षमा याचना करने का निश्चय कर लेते हैं।

 सीख:- प्रतिकूल परिस्थिति में ईमानदारी का पालन करना नेक व्यक्ति का लक्षण है।




















अकबरी लोटा - श्री अन्नपूर्णानंद वर्मा

 


        अकबरी लोटा - 

    श्री अन्नपूर्णानंद वर्मा

       लाला झाऊलाल को खाने-पीने की कमी नहीं थी। काशी के ठठेरी बाजार में मकान था । नीचे की दुकानों से एक सौ रुपये मासिक के करीब किराया उतर आता था। अच्छा खाते थे, अच्छा पहनते थे, पर ढाई सौ रुपये तो एक साथ आँख सेंकने के लिए भी न मिलते थे।

      इसलिए जब उनकी पत्नी ने एक दिन एकाएक ढाई सौ रुपये की माँग पेश की, तब उनका जी एक बार ज़ोर से सनसनाया और फिर बैठ गया। उनकी यह दशा देखकर पत्नी ने कहा-"डरिए मत, आप देने में असमर्थ हों तो मैं अपने भाई से माँग लूँ?”

       लाला झाऊलाल तिलमिला उठे। उन्होंने रोब के साथ कहा- "अजी हटो, ढाई सौ रुपये के लिए भाई से भीख माँगोगी, मुझसे ले लेना।"  

     "लेकिन मुझे इसी जिंदगी में चाहिए।"  

     "अजी इसी सप्ताह में ले लेना।"

     "सप्ताह से आपका तात्पर्य सात दिन से है या सात वर्ष से ?' लाला झाऊलाल ने रोब के साथ खड़े होते हुए कहा-"आज से सातवें दिन मुझसे ढाई सौ रुपये ले लेना।"

      लेकिन जब चार दिन ज्यों-ज्यों में यों ही बीत गए और रुपयों का कोई प्रबंध न हो सका तब उन्हें चिंता होने लगी। प्रश्न अपनी प्रतिष्ठा का था, अपने ही घर में अपनी साख का था।

        खैर, एक दिन और बीता। पाँचवें दिन घबराकर उन्होंने पं. बिलवासी मिश्र को अपनी विपदा सुनाई। संयोग कुछ ऐसा बिगड़ा था कि बिलवासी जी भी उस समय बिलकुल खुक्ख थे। उन्होंने कहा- "मेरे पास है तो नहीं, पर मैं कहीं से माँग जाँचकर लाने की कोशिश करूँगा और अगर मिल गया तो कल शाम को तुमसे मकान पर मिलूँगा।"

       वही शाम आज थी। हफ़्ते का अंतिम दिन। कल ढाई सौ रुपये या तो गिन देना है। या सारी हेकड़ी से हाथ धोना है। यह सच है कि कल रुपया न आने पर उनकी स्त्री उन्हें डामलफाँसी न कर देगी-केवल ज़रा-सा हँस देगी। पर वह कैसी हँसी होगी, कल्पना मात्र से झाऊलाल में मरोड़ पैदा हो जाती थी।

     आज शाम को पं. बिलवासी मिश्र को आना था। यदि न आए तो? या कहीं रुपये का प्रबंध न कर सके ?

      इसी उधेड़-बुन में पड़े लाला झाऊलाल छत पर टहल रहे थे। कुछ, प्यास मालूम हुई। उन्होंने नौकर को आवाज़ दी। नौकर नहीं था, खुद उनकी पत्नी पानी लेकर आई।

      वह पानी तो ज़रूर लाई, पर गिलास लाना भूल गई थी। केवल लोटे में पानी लिए वह प्रकट हुई। फिर लोटा भी संयोग से वह जो अपनी बेंढ़गी सूरत के कारण लाला झाऊलाल को सदा से नापसंद था। था तो नया, साल दो साल का ही बना, पर कुछ ऐसी गढ़न उस लोटे की थी कि उसका बाप डमरू, माँ चिलम रही हो।

     लाला अपना गुस्सा पीकर पानी पीने लगे। उस समय के छत की मुँडेर के पास ही खड़े थे।

      लाला झाऊलाल मुश्किल से दो-एक घूँट पी पाए होंगे कि न जाने कैसे उनका हाथ हिल उठा और लोटा छूट गया।

      लोटे ने दाएँ देखा न बाएँ, वह नीचे गली की ओर चल पड़ा। अपनी वेग में उलका को लजाता हुआ वह आँखों से ओझल हो गया।

      लाला को काटो तो बदन में खून नहीं। ऐसी चलती हुई गली में ऊँचे तिमंजले से, भरे हुए लाटे का गिरना हँसी-खेल नहीं। यह लोटा न जाने किस अधिकारी के झोंपड़े पर काशीवास का संदेश लेकर पहुँचेगा।

      कुछ हुआ भी ऐसा ही। गली में ज़ोर का हल्ला उठा। लाला झाऊलाल जब तब दौड़कर नीचे उतरे तब तक एक भारी भीड़ उनके आँगन में घुस आई।

      लाला झाऊलाल ने देखा कि इस भीड़ में प्रधान पात्र एक अंग्रेज़ है जो नखशिख से भीगा हुआ है और जो अपने एक पैर को हाथ से सहलाता हुआ दूसरे पैर पर नाच रहा है। उसी के पास अपराधी लोटे को भी देखकर लाला झाऊलाल जी ने फौरन दो और दो जोड़कर स्थिति को समझ लिया।

      गिरने के पूर्व लोटा एक दुकान के सायबान से टकराया। वहाँ टकराकर उस दुकान पर खड़े उस अंग्रेज़ को उसने संगोपांग स्नान कराया और फिर उसीके बूट पर आ गिरा।

       उस अंग्रेज़ को जब मालूम हुआ कि लाला झाऊलाल ही उस लोटे के मालिक हैं तब उसने केवल एक काम किया। अपने मुँह को खोलकर खुला छोड़ दिया। लाला झाऊलाल को आज ही यह मालूम हुआ कि अंग्रेज़ी भाषा में गालियों का ऐसा प्रकांड कोष है।

     इसी समय पं. बिलवासी मिश्र भीड़ को चीरते हुए आँगन में आते दिखाई पड़े। उन्होंने आते ही पहला काम यह किया कि उस अंग्रेज़ को छोड़कर और जितने आदमी आँगन में घुस आए थे, सबको बाहर निकाल दिया। फिर आँगन में कुर्सी रखकर उन्होंने साहब से कहा- “आपके पैर में शायद कुछ चोट आ गई है। अब आप आराम से कुर्सी पर बैठ जाइए।"

       साहब बिलवासी जी को धन्यवाद देते हुए बैठ गए और लाला झाऊलाल की ओर इशारा करके बोले - "आप इस शख्स को जानते हैं?"

 "बिलकुल नहीं। और मैं ऐसे आदमी को जानना भी नहीं चाहता जो निरीह  राहचलतों पर लोटे के वार करे।”

       परमात्मा ने लाला झाऊलाल की आँखों को इस समय कहीं देखने के साथ खाने की भी शक्ति दे दी होती तो यह निश्चय है कि अब तक बिलवासीजी को वे अपनी आँखों से खा चुके होते। वे कुछ समझ नहीं पाते थे कि बिलवासीजी को इस समय क्या हो गया है। 

      साहब ने बिलवासीजी से पूछा "तो क्या करना चाहिए?”

      "पुलिस में इस मामले की रिपोर्ट कर दीजिए जिससे यह आदमी फौरन हिरासत में ले लिया जाए।"

     "पुलिस स्टेशन है कहाँ?”

     "पास ही है, चलिए मैं बताऊँ।" "चलिए।"

      "अभी चला। आपकी इजाजत हो तो पहले मैं इस लोटे को इस आदमी से खरीद लूँ। क्यों जी बेचोगे? मैं पचास रुपये तक इसके दाम दे सकता हूँ।"

      लाला झाऊलाल तो चुप रहे, पर साहब ने पूछा- "इस रद्दी लोटे के लिए आप पचास रुपये क्यों दे रहे हैं?"

      "आप इस लोटे को रद्दी बताते हैं? आश्चर्य! मैं तो आपको एक विज्ञ और सुशिक्षित आदमी समझता था।”

      "आखिर बात क्या है, कुछ बाताइए भी । ”

       “जनाब यह एक ऐतिहासिक लोटा जान पड़ता है। जान क्या पड़ता है, मुझे पूरा विश्वास है। यह वह प्रसिद्ध अकबरी लोटा है जिसकी तलाश में संसार-भर के म्यूज़ियम परेशान हैं।"

    "यह बात?"

     "जी, जनाब। सोलहवीं शताब्दी की बात है। बादशाह हुमायूँ शेरशाह से हारकर भागा था और सिंध के रेगिस्तान में मारा-मारा फिर रहा था। एक अवसर पर प्यास से उसकी जान निकल रही थी। उस समय एक ब्राह्मण ने इसी लोटे से पानी पिलाकर उसकी जान बचाई थी । हुमायूँ के बाद अकबर ने उस ब्राह्मण का पता लगाकर उससे इस लोटे को ले लिया और इसके बदले में उसे इसी प्रकार के दस सोने के लोटे प्रदान किए। यह लोटा सम्राट अकबर को बहुत प्यारा था। इसी से इसका नाम अकबरी लोटा पड़ा । यह बराबर इसी से वजू करता था। सन् 57 तक इसके शाही घराने में रहने का पता है। पर इसके बाद लापता हो गया। पता नहीं यह लोटा इस आदमी के पास कैसे आया ? म्यूज़ियम वालों को पता चले तो फैंसी दाम देकर खरीद ले जाएँ।”

     इस विवरण को सुनते-सुनते साहब की आँखों पर लोभ और आश्चर्य का रस घुल गया और उसने बिलवासी जी से पूछा-"तो आप इस लोटे का क्या करिएगा?"

       "मुझे पुरानी और ऐतिहासिक चीज़ों के संग्रह का शौक है।”

        "मुझे भी पुरानी और ऐतिहासिक चीज़ों के संग्रह का शौक है। जिस समय यह लोटा मेरे ऊपर गिरा था, उस समय मैं यही कर रहा था। उस दुकान से पीतल की कुछ पुरानी मूर्तियाँ खरीद रहा था।”

    “जो कुछ हो, लोटा मैं ही खरीदूँगा।”

     "वाह, आप कैसे खरीदेंगे, मैं खरीदूंगा, यह मेरा हक है।"

    "हक है?"

    "जरूर हक है। यह बताइए कि इस लोटे के पानी से आपने स्नान किया या मैंने

    "आपने।"

    "वह आपके पैरों पर गिरा या मेरे ?"

    "आपके।"

    "अंगूठा इसने आपका भुरता किया या मेरा?"

    "आपका।"

   "इसलिए इसे खरीदने का हक मेरा है।"

    "यह सब बकवास है। दाम लगाइए जो अधिक दे, वह ले जाए।"   

     "यही सही। आप इसका पचास रुपया लगा रहे थे, मैं सौ देता हूँ।"

     "मैं डेढ़ सौ देता हूँ।"

     "मैं दो सौ देता हूँ।"

        "अजी मैं ढाई सौ देता हूँ।" यह कहकर बिलवासी जी ने ढाई सौ के नोट लाला झाऊलाल के आगे फेंक दिए।

        साहब को भी ताव आ गया। उसने कहा-"आप ढाई सौ देते हैं, तो में पाँच सौ देता हूँ। अब चलिए।"

     बिलवासी जी अफ़सोस के साथ अपने रुपये उठाने लगे, मानो अपनी आशाओं की लाश उठा रहे हों। साहब की ओर देखकर उन्होंने कहा - "लोटा आपका हुआ, ले जाइए, मेरे पास ढाई सौ से अधिक नहीं है।"

       यह सुनते ही अंग्रेज़ साहब के चेहरे पर प्रसन्नता छा गई। उसने झपटकर लोटा लिया और बोला- अब मैं हँसता हुआ अपने देश लौटँगा। मेजर डगलस की डींग सुनते सुनते मेरे कान पक गए थे।"

    "मेजर डगलस कौन हैं ?"

    "मेजर डगलस मेरे पड़ोसी हैं। पुरानी चीज़ों के संग्रह करने में मेरी उनसे होड़ रहती है। गत वर्ष वे हिंदुस्तान आए थे और यहाँ से जहाँगीरी अंडा ले गए थे।”

     "जहाँगीरी अंडा?"

      "हाँ, जहाँगीरी अंडा । मेजर डगलस ने समझ रखा था कि हिंदुस्तान से वे ही अच्छी चीज़े ले जा सकते हैं।"

       "पर जहाँगीरी अंडा है क्या ?"

        "आप जानते होंगे कि एक कबूतर ने नूरजहाँ से जहाँगीर का प्रेम कराया था। जहाँगीर के पूछने पर कि, मेरा एक कबूतर तुमने कैसे उड़ जाने दिया, नूरजहाँ ने उसके दूसरे कबूतर को उड़ाकर बताया था, कि ऐसे। उसके इस भोलेपन पर जहाँगीर दिलोजान से निछावर हो गया। उसी क्षण से उसने अपने को नूरजहाँ के हाथ कर दिया । कबूतर का यह अहसान वह नहीं भूला। उसके एक अंडे को बड़े जतन से रख छोड़ा । एक बिल्लोर की हाँड़ी में वह उसके सामने टँगा रहता था। बाद में वही अंडा "जहाँगीरी अंडा" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसी को मेजर डगलस ने पारसाल दिल्ली में एक मुसलमान सज्जन से तीन सौ रुपये में खरीदा।”

      "यह बात?”

     “हाँ, पर अब मेरे आगे दून की नहीं ले सकते। मेरा अकबरी लोटा उनके जहाँगीरी अंडे से भी एक पुश्त पुराना है।"

     "इस रिश्ते से तो आपका लोटा उस अंडे का बाप हुआ।"

      साहब ने लाला झाउलाल को पाँच सौ रुपये देकर अपनी राह ली। लाला झाऊलाल का चेहरा इस समय देखते ही जान पड़ता था कि मुँह पर छह दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी का एक-एक बाल प्रसन्नता के मारे लहरा रहा है। उन्होंने पूछा - "बिलवासी जी! मेरे लिए ढाई सौ रुपये घर से लेकर आए! पर आपके पास तो थे नहीं।”

     “इस भेद को मेरे सिवाय मेरा ईश्वर ही जानता है। आप उसी से पूछ लीजिए, मैं नहीं बताऊँगा।”

    “पर आप चले कहाँ? अभी मुझे आपसे काम है दो घंटे तक।”

     "दो घंटे तक ?"

      "हाँ, और क्या, अभी मैं आपकी पीठ ठोककर शाबाशी दूँगा, एक घंटा इसमें लगेगा। फिर गले लगाकर धन्यवाद दूँगा, एक घंटा इसमें भी लग जाएगा।"

      "अच्छा पहले पाँच सौ रुपये गिनकर सहेज लीजिए।"

      "रुपया अगर अपना हो, तो उसे सहेजना एक ऐसा सुखद मनमोहक कार्य है कि मनुष्य उस समय सहज में ही तन्मयता प्राप्त कर लेता है। लाला झाऊलाल ने अपना कार्य समाप्त करके ऊपर देखा। पर बिलवासी जी इस बीच अंतर्धान हो गए।"

      उस दिन रात्रि में बिलवासी जी को देर तक नींद नहीं आई। वे चादर लपेटे चारपाई पर पड़े रहे। एक बजे वे उठे। धीरे...बहुत धीरे...बहुत धीरे... से अपनी सोई हुई पत्नी के गले से उन्होंने सोने की वह सिकड़ी निकाली जिसमें एक ताली बँधी हुई थी। फिर उसके कमरे में जाकर उन्होंने उस ताली से संदूक खोला। उसमें ढाई सौ के नोट ज्यों-के त्यों रखकर उन्होंने उसे बंद कर दिया। फिर दबे पाँव लौटकर ताली को उन्होंने पूर्ववत् अपनी पत्नी के गले में डाल दिया। इसके बाद उन्होंने हँसकर अँगड़ाई ली। दूसरे दिन सुबह आठ बजे तक चैन की नींद सोए।

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3.अकबरी लोटा


कहानी का सारांश 

3. अकबरी लोटा

         श्री अन्नपूर्णानंद की एक हास्यास्पद कहानी है "अकबरी लोटा” इस कहानी के नायक लाला झाऊलाल अपने मकान से मिलते किराये के बल पर परिवार चलाते हैं। एक बार उनकी पत्नी ढाई सौ रुपये की माँग कर बैठती है। वे भी एक हफ़्ते में देने का वादा करते हैं। लेकिन उनको कुछ भी नहीं सूझता कि रुपये का प्रबंध कैसे किया जाए। अपने मित्र पं. बिलवासी से मदद माँगते हैं। हफ़्ते का अंतिम दिन आ ही जाता है। लेकिन रुपये का प्रबंध कर नहीं पाते। इसी चिंता में वे पानी से भरे अपने बेढंगे लोटे को तिमंजले से गिरा देते हैं। वह लोटा सीधे, नीचे खड़े एक अंग्रेज़ को भिगाकर, उसके पैर के अँगूठे को चोट पहुँचाता है।

         वह नाराज़ होकर चिल्लाने लगता है। ठीक उसी समय लालाजी के दोस्त बिलवासी भी वहाँ पहुँच जाते हैं। पुरानी और ऐतिहासिक चीज़ों के संग्रह में शौक रखनेवाले उस अंग्रेज़ को बेवकूफ़ बनाने में ही उनकी खूबी है

        वे बताते हैं कि बादशाह हुमायूँ ने इसी लोटे से ही पानी पीकर अपनी प्यास बुझायी थी। इसलिए अकबर ने इस लोटे को दस सोने के लोटे देकर ले लिया था। तब से इस लोटे का नाम " अकबरी लोटा ” पड़ा।

       बिलवासी की इस बात पर विश्वास करके वह अंग्रेज़ पाँच सौ रुपये देकर उस बेढंगे लोटे को खरीद लेता है।

     इस तरह अपने मित्र बिलवासी की समझदारी के कारण लाला जी की समस्या दूर हो जाती है । 

  सीखः किसी भी समस्या का हल समझदारी से करना चाहिए।















Wednesday, April 14, 2021

कहानी - Kahani / शरणदाता

 

     कहानी - Kahani

     शरणदाता

                - श्री सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ' अज्ञेय '



        "यह कभी हो ही नहीं सकता, देविंदरलालजी!" रफ़िकुद्दिन वकील की वाणी आग्रह था, चेहरे पर आग्रह के साथ चिंता और कुछ व्यथा का भाव। उन्होंने फिर दुहराया "यह कभी नहीं हो सकता देविंदरलालजी!".

        देविंदरलालजी ने उनके इस आग्रह को जैसे कबूलते हुए, पर अपनी लाचारी जताते हुए कहा, "सब लोग चले गये। आपसे मुझे कोई डर नहीं, बल्कि आपका तो सहारा है, लेकिन आप जानते हैं, जब एक बार लोगों को डर जकड़ लेता है, और भगदड़ पड़ जाती है, तब फिजा ही कुछ और हो जाती हैं, हर कोई हर किसी को शुबहे की नज़र से देखता है। आप तो देख ही रहे हैं, कैसी-कैसी वारदातें हो रही हैं।”

       रफ़िकुद्दीन ने बात काटते हुए कहा, "नहीं साहब, हमारी नाक कट जाएगी! कोई बात है भला कि आप घर-बार छोड़कर अपने ही शहर में पनाहगर्जी हो जाएँ? हम तो आपको जाने न देंगे बल्कि ज़बरदस्ती रोक लेंगे। मैं तो इसे मेजारिटी फ़र्ज मानता हूँ कि वह माइनारिटी की हिफ़ाज़त करे और उन्हें घर छोड़-छोड़कर भागने न दे। हम पड़ोसी की हिफाज़त न कर सके तो मुल्क की हिफ़ाज़त क्या खाक करेंगे! और मुझे पूरा यकीन है कि बाहर की तो खैर बात ही क्या, पंजाब में ही कोई हिंदु भी, जहाँ उनकी बहुतायत है, ऐसा ही सोच और कर रहे होंगे। आप न जाइए, न जाइए। आपकी हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी मेरे सिर, बस!"

       देविंदरलाल और रफ़ीकुद्दीन में पुरानी दोस्ती थी, और एक-एक आदमी के जाने पर उनमें चर्चा होती थी। अंत में जब एक दिन देविंदरलाल ने जताया कि वह भी चले जाने की बात पर विचार कर रहे हैं तब रफ़ीकुद्दीन को धक्का लगा और उन्होंने व्यथित स्वर में कहा, " देविंदरलालजी, आप भी!"

        रफ़ीकुद्दीन का आश्वासन पाकर देविंदरलाल रह गये। तब यह तय हुआ कि अगर खुदा न करे, कोई खतरे की बात हुई भी, तो रफ़ीकुद्दीन उन्हें पहले ही खबर कर देंगे और हिफ़ाज़त का इंतज़ाम भी कर देंगे - चाहे जैसे हो । देविंदरलाल की स्त्री तो कुछ दिन पहले ही जालंधर मायके गयी हुई थी, उसे लिख दिया गया कि अभी न आये, वहीं रहे। रह गये देविंदर और उनका पहाड़िया नौकर संतू ।

      किंतु यह व्यवस्था बहुत दिन नहीं चली। चौथे ही दिन सवेरे उठकर उन्होंने देखा, संतू भाग गया है। अपने हाथों चाय बनाकर उन्होंने पी. धोने को बर्तन उठा रहे थे कि रफ़ीकुद्दीन ने आकर खबर दी. सारे शहर में मारकाट हो रही है। कहीं जाने का समय नहीं है. देविंदरलाल अपना ज़रूरी और कीमती सामान ले लें और उनके साथ उनके घर चलें। यह बला टल जाये तो फिर लौट आएँगे।

       कीमती सामान कुछ था नहीं। गहना छन्ना सब स्त्री के साथ जालंधर चला गया था, रुपया थोड़ा-बहुत बैंक में था और ज्यादा फैलाव कुछ उन्होंने किया नहीं था देविंदरलाल घंटे भर बाद ट्रैक बिस्तर के साथ रफ़ीकुद्दीन के यहाँ जा पहुँचे।

       देविंदरलाल घर से बाहर तो निकल ही न सकते, रफ़ीकुद्दीन ही आते-जाते काम करने का तो वातावरण ही नहीं था, वे घूम-धाम आते, बाजार कर आते और शहर की खबर ले आते देविंदर को सुनाते और फिर दोनों बहुत देर तक देश के भविष्य पर आलोचना किया करते।

      हिंदू मुहल्ले में रेलवे के एक कर्मचारी ने बहुत से निराश्रितों को अपने घर में जगह दी श्री जिनके घर-बार सब लुट चुके थे। पुलिस को उसने खबर दी थी कि जो निराश्रित उसके घर टिके हैं, हो सके तो उनके घरों और माल की हिफाज़त की जाए। पुलिस ने आकर शरणागतों के साथ उसे और उसके घर की स्त्रियों को गिरफ़्तार कर लिया और ले गयी।

      हिंदुस्तान पाकिस्तान की अनुमानित सीमा के पास एक गाँव में कई सौ मुसलमानों ने सिक्खों के गाँव में शरण पायी। अंत में जब आस-पास के गाँव के और अमृतसर शहर के लोगों के दबाच ने उस गाँव में उनके लिए फिर आसन्न संकट की स्थिति पैदा कर दी, तब गाँव के लोगों ने अपने मेहमानों को अमृतसर स्टेशन पहुंचाने का निश्चय किया जहाँ से दे सुरक्षित मुसलमान इलाके में जा सके और दो-ढाई सौ आदमी किरपाने निकालकर उन्हें घेर में लेकर स्टेशन पहुँचा आये किसी को कोई क्षति नहीं पहुंची घटना सुनकर रफ़ीकुद्दीन ने कहा, "आखिर तो लाचारी होती है, अकेले इनसान को झुकना ही पड़ता है। यहाँ तो पूरा गाँव था, फिर भी उन्हें हारना पड़ा। लेकिन आखिर तक उन्होंने निबाह, इसकी दाद देनी चाहिए। उन्हें पहुंचा आये।"

      अपराह्न में छः सात आदमी रफ़ीकुद्दीन से मिलने आये रफ़ीकुद्दीन ने उन्हें अपनी बैठक में ले जाकर दरवाजे बंद कर लिए। डेढ़-दो घंटे तक बातें हुई। सारी बात प्रायः धीरे-धीरे ही हुई, बीच-बीच में कोई स्वर ऊँचा उठ जाता और एक-आध शब्द देविंदरलाल के कान में पड़ जाता- 'बेवकूफ़', 'इस्लाम'- वाक्यों को पूरा करने की कोशिश उन्होंने आयासपूर्वक नहीं की। दो घंटे बाद जब उनको विदा करके रफ़ीकुद्दीन बैठक से निकल कर आये, तब भी उनसे लपककर पूछने की स्वाभाविक प्रेरणा को उन्होंने दबाया। पर जब रफ़ीकुद्दीन उनकी ओर न देखकर खिंचा हुआ चेहरा झुकाये उनकी बगल से निकलकर बिना एक शब्द कहे भीतर जाने लगे तब उनसे न रहा गया और उन्होंने आग्रह के स्वर में पूछा, "क्या बात है, रफ़ीक साहब, खैर तो है?".

      रफ़ीकुद्दीन ने मुँह उठाकर एक बार उनकी ओर देखा, बोले नहीं। फिर आँखें झुका लीं। अब देविंदरलाल ने कहा, "मैं समझता हूँ कि मेरी वजह से आपको ज़लील होना पड़ रहा है। और खतरा उठाना पड़ रहा है सो अलग। लेकिन आप मुझे जाने दीजिये। मेरे लिए आप जोखिम में न पड़ें। आपने जो कुछ किया है उसके लिए मैं बहुत शुक्रगुज़ार हूँ। आपका एहसान-"

     रफ़ीकुद्दीन ने दोनों हाथ देविंदरलाल के कंधों पर रख दिये। कहा, देविंदरलाल जी!" उनकी साँस तेज़ चलने लगी। फिर वह सहसा भीतर चले गये। लेकिन खाने के वक़्त देविंदरलाल ने फिर सवाल उठाया-बोले, आप खुशी से न जाने देंगे तो मैं चुपचाप खिसक जाऊँगा। आप सच-सच बतलाइए, आपसे उन्होंने कहा क्या ?"

"धमकियाँ देते रहे और क्या?”

"तो मैं आज ही चला जाऊँगा......

"यह कैसे हो सकता है? आखिर आपको चले जाने से हमीं ने रोका था, हमारी भी

तो कुछ जिम्मेदारी है...

"आपने भला चाहकर ही रोका था उसके आगे कोई जिम्मेदारी नहीं है....."

"आप जावेंगे कहाँ.....

"देखा जाएगा.....

" 'नहीं, यह नामुमकिन बात है।"

        किंतु बहस के बाद तय हुआ कि देविंदरलालजी वहाँ से टल जाएँगे। रफ़ीकुद्दीन और कहीं पड़ोस में उनके एक और मुसलमान दोस्त के यहाँ छिपकर रहने का प्रबंध कर देंगे -

       वहाँ तकलीफ़ तो होगी पर खतरा नहीं होगा, क्योंकि देविंदरलालजी घर में रहेंगे। वहाँ पर रहकर जान की हिफ़ाजत तो रहेगी, तब तक कुछ और उपाय सोचा जाएगा निकलने का....

     देविंदरलालजी को शेख अताउल्लाह के अहाते के अंदर ले गए। गैराज की बगल में एक कोठरी थी। कोठरी में ठीक सामने और गैराज की तरफ़ के किवाड़ों को छोड़कर खिड़की वगैरह नहीं थी। एक तरफ़ एक खाट पड़ी थी, आले में एक लोटा। फर्श कच्चा, • मगर लिपा देविंदरलाल का ट्रंक और बिस्तर जब कोठरी के कोने में रख दिया गया और बाहर आँगन का फाटक बंद करके उसमें भी ताला लगा दिया गया, तब थोड़ी देर वे हतबुद्धि खड़े रहे।

      उन्हें याद आया, उन्होंने पढ़ा है, जेल में लोग चिड़िया, कबूतर, गिलहरी, बिल्ली आदि से दोस्ती करके अकेलापन दूर करते हैं; यह भी न होती तो कोठरी में मकड़ी-चींटी आदि का अध्ययन करके..... उन्होंने एक बार चारों ओर नज़र दौड़ाई। मच्छरों से भी बंधु भाव हो सकता है, यह उनका मन किसी तरह नहीं स्वीकार कर पाया।

       वे आँगन में खड़े होकर आकाश देखने लगे। आज़ाद देश का आकाश! और नीचे से, अभ्यर्थना में जलते हुए घरों का धुआँ।

      दिन छिपे के वक़्त केवल एक बार खाना आता था। वह दो वक़्त के लिए काफ़ी होता था। लाता था एक जवान लड़का। देविंदरलाल ने अनुमान किया कि शेख साहब का लड़का होगा। वह बोलता बिलकुल नहीं था ।

       रात घनी हो जाती थी। तब वे सो जाते थे। सुबह उठकर आँगन में कुछ वरज़िश कर लेते थे कि शरीर ठीक रहे; बाक़ी दिन कोठरी में बैठे कभी कंकड़ों से खेलते, कभी आँगन की दीवार पर बैठनेवाली गौरैया देखते, कभी दूर से कबूतर से गुटरगूँ सुनते-और कभी सामने के कोने से शेखजी के घर के लोगों की बातचीत भी सुन पड़ती। अलग-अलग आवाज़ें वे पहचानने लगे थे।

      लेकिन खाते वक्त भी वे सोचते, खाने में कौन-सी चीज़ किस हाथ की बनी होगी, परोसा किसने होगा। सुनी बातों से वे जानते थे कि पकाने में बड़ा हिस्सा तो उस तीखी खुरदरी आवाज़वाली स्त्री का रहता था, पर परोसना शायद जेबुन्निसा के ही ज़िम्मे था। और यही सब सोचते-सोचते देविंदरलाल खाना खाते और कुछ ज़्यादा ही खा लेते थे......

    एक रात खाना खाते-खाते.

    तीन-एक फलकों की तह के बीच में काग़ज़ की एक पुड़िया-सी पड़ी थी।

    देविंदरलाल ने पुड़िया खोली।

    पुड़िया में कुछ नहीं था।

    देविंदरलाल उसे फिर गोल करके फेंक देनेवाले ही थे हाथ ठिठक गया। उन्होंने कोठरी से आँगन में जाकर कोने में पंजों पर खड़े होकर बाहर की रोशनी में पुर्जा देखा. उस पर कुछ, लिखा था केवल एक सतर

   "खाना कुत्ते को खिलाकर खाइएगा।"

    देविंदरलाल ने कागज़ की चिंदियाँ कीं। चिंदियों को मसला। कोठरी से गैराज में जाकर उसे गड्ढे में डाल दिया। फिर आँगन में लौट आये और टहलने लगे।

    मस्तिष्क ने कुछ नहीं कहा। सन्न रहा। केवल एक नाम उसके भीतर खोया-सा चक्कर काटता रहा, जैबू.....जैबू जैबू..

    थोड़ी देर बाद वे फिर खाने के पास जाकर खड़े हो गये। आँगन की दीवार पर छाया सरकी। बिलाव बैठा था।

      देविंदरलाल ने उसे गोद में ले लिया। धीरे-धीरे बोले 'देखो बेटा तुम इसे खा लो और पूछो शेख साहब क्या चाहते हैं?'

     खाने के बाद सहसा बिलाव ज़ोर से गुस्से से चीखा और उछलकर गोद से बाहर जा कूदा। गुस्से से गुर्राने लगा। धीरे-धीरे गुस्से का स्वर दर्द के स्वर में परिणत हुआ, फिर एक करुण रिरियाहट में, एक दुर्बल चीख में, एक बुझती हुई-सी कराह में, फिर एक सहसा चुप हो जाने वाली लंबी साँस में। देविंदरलाल जी की आँखें निःस्पंद यह सब देखती रहीं।

    आज़ादी भईचारा । देश-राष्ट्र......

    एक ने कहा कि हम ज़ोर करके रखेंगे और रक्षा करेंगे, पर घर से निकाल दिया। दूसरे ने आश्रय दिया, और विष दिया।

    और साथ में चेतावनी की विष दिया जा रहा है।

    देविंदरलाल ने जाना कि दुनिया में खतरा बुरे की ताक़त के कारण नहीं, अच्छे की दुर्बलता के कारण है। भलाई की साहसहीनता ही बड़ी बुराई है। घने बादल से रात नहीं होती, सूरज के निस्तेज हो जाने से होती है।

     उन्होंने खाना उठाकर बाहर आँगन में रख दिया। दो घूँट पानी पिये। फिर टहलने लगे। फिर वे आँगन की दीवार पर चढ़कर बाहर फाँद गये और बाहर सड़क पर निकल आए वे स्वयं नहीं जाने कि कैसे!

     इसके बाद की घटना, घटना नहीं है। घटनाएँ सब अधूरी होती हैं। पूरी तो कहानी होती है। इसके बाद जो कुछ हुआ और जैसे हुआ, वह बताना ज़रूरी नहीं। इतना बताने से काम चल जाएगा कि डेढ़ महीने बाद अपने घर का पता लेने के लिए देविंदरलाल अपना पता देकर दिल्ली-रेडिया से अपील करवा रहे थे तब एक दिन उन्हें लाहौर की मुहरवाली एक छोटी-सी चिट्ठी मिली थी।

      "आप बचकर चले गये, इसके लिए खुदा का लाख-लाख शुक्र है। मैं मनाती हूँ कि रेडियो पर जिनके नाम आपने अपील की है, वे सब सलामती से आपके पास पहुँच जाएँ। अब्बा ने जो किया या करना चाहा, उसके लिए मैं माफ़ी माँगती हूँ और यह भी याद दिलाती हूँ कि उसकी काट मैंने ही कर दी थी। अहसान नहीं जताती - मेरा कोई अहसान आप पर नहीं है - सिर्फ यह इल्तजा करती हूँ कि आपके मुल्क में अक़लियत को कोई मज़लूम हो तो याद कर लीजिएगा।

       इसलिए नहीं कि वह मुसलमान है, इसलिए कि आप इनसान हैं। खुदा हाफिज़!" उन्होंने चिट्ठी को छोटी-सी गोली बनाकर चुटकी से उड़ा दी।

   

  कहानी का सारांश 

   शरणदाता

      "शरणदाता" अज्ञेय जी की प्रसिद्ध कहानी है। आज़ादी के समय हुए हिंदु-मुस्लिम दंगों के आधार पर लिखी गयी कहानी है।

     शहर भर में मारकाट होती है। रफीकुद्दीन अपने दोस्त देवेंदरलाल को मारकाट से बचाना चाहते हैं। इसलिए वे देवेंदरलाल को अपने घर में ठहराते हैं। लेकिन दूसरे मुसलमान लोग उन्हें धमकी देते हैं। इसलिए उन्हें अपने और एक दोस्त शेख के यहाँ ठहराते हैं।

     वहाँ एक बंद कमरे में उनको रहना पड़ता है। सिर्फ एक बिलाव उनके आसपास घूमता रहता है। दिन में केवल एक बार उनको भोजन परोसा जाता है। बचे-कुचे भोजन को वे बिलाव को दे देते हैं। एक दिन भोजन के साथ एक पुडिया पड़ी रहती है। उसमें लिखा था कि “खाना कुत्ते को खिलाकर खाइएगा।" तुरंत उनको शेख की बेटी जेबू की याद आती है। जो शेखजी उनके साथ करना चाहते हैं, वे उसे मिलाब के साथ करते हैं। मिलाग भी उसे खाकर अपने प्राण छोड़ देता है। किसी तरह देवदरलाल अपने प्राण बचाकर वहाँ से निकल पड़ते हैं।


सीख:- दुनिया में खतरा बुरे की ताकत के कारण नहीं, अच्छे की दुर्बलता के कारण ही है।

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कहानी - Kahani / मेहनत की कमाई

 

कहानी - Kahani

मेहनत की कमाई




          एक अमीर बाप ने अपने आलसी बेटे को बुलाकर कहा, "जा, कुछ कमा ला।" लड़का लापरवाह और निर्लज्ज था। काम करने की उसकी आदत न थी। सीधे मां के पास गया और रो-धोकर, मिन्नतें कर उसे कुछ देने को राजी करा लिया। माँ से बेटे का दुःख देखा न गया, उसने उसे पाँच रुपए बक्से से निकाल कर दे दिए।

       रात को बाप ने पूछा, "बेटा, तूने क्या कमाया?"लड़के ने झट रुपया निकालकर दिखा दिया। अनुभवी पिता सब समझ गया। उसने कहा, "जा, इसे कुएँ में फेंक आ।" लड़के ने झटपट जाकर रुपया कुएँ में डाल दिया। अगले दिन पिता ने फिर कहा "जा, कुछ कमा ला, नहीं तो आज भोजन नहीं मिलेगा।"

      लड़का अपनी बहिन के पास जाकर रोने लगा। बहिन ने तरस खाकर पाँच रुपए अपने पास से उसे दे दिए। बाप ने रात्रि में लड़के से पूछा, "आज तू क्या कमाकर लाया?" लड़के ने जेब में से निकालकर एक रुपया बाप के सामने रख दिया। बाप बोला, "जा, इसे कुएँ में फेंक आ।” लड़के ने वैसा ही किया।

      अनुभवी पिता ने पत्नी और बेटी को बाहर भेज दिया। पिता ने बेटे से प्रातः उठने पर कहा, "जा, कुछ कमा कर ला, नहीं तो रात को भोजन नहीं मिलेगा।" बेटा दिन भर सुस्त बैठा रहा। उसकी आँखों से आँसू बहते रहे। कोई उसकी सुध लेने वाला न था। विवश होकर संध्या के समय वह उठा और बाजार में मज़दूरी खोजने लगा। एक सेठ ने कहा कि, मेरा यह संदूक उठाकर घर पहुँचा दे, मैं तुझे पाँच रुपए दूँगा।"

       अमीर बाप के बेटे ने संदूक उठाकर सेठ के घर पहुँचाया। वह थककर चूर हो गया। उसके पाँव काँप रहे थे और गर्दन तथा पीठ में भयंकर दर्द हो रहा था। रात को बाप ने पूछा, "बेटा, आज तूने क्या कुछ कमाया?" लड़के ने पाँच रुपये का नोट निकालकर दिखाया। बाप बोला, "जा, इसे कुएँ में डाल आ।" लड़के को क्रोध आ गया। वह बोला, "यह मेरी मेहनत की कमाई है। मेरी गर्दन, कमर और पैर दुखने लगे हैं, आप कहते हैं कि इसे कुएँ में डाल आ ।” अनुभवी पिता सब कुछ समझ गया। अगले दिन उसने अपना सारा व्यापार लड़के के हवाले कर दिया।


   कहानी का सारांश 

   मेहनत की कमाई


         एक अमीर आदमी था। वह बडा अनुभवी था। उसका बेटा बड़ा आलसी और कामचोर था। अमीर पिता ने अपने बेटे को मेहनती बनाना चाहा। उसने बेटे से कहा जा कुछ कमा ला, नहीं तो रात का भोजन नहीं मिलेगा।

       वह कामचोर लड़का एक दिन अपनी माँ से रुपया ले लेता है तो दूसरे दिन अपनी बहन से पिता कमाई का रहस्य जानते थे, इसलिए उन पैसों को कुएं में डालने के लिए कह देते। एक दिन पिता ने अपनी पत्नी और बेटी को घर से बाहर कर दिया। अब उस

     कामचोर लड़के को पैसा देनेवाला कोई नहीं था। वह लाचार होकर नौकरी की खोज में बाजार की ओर गया।

        वह बाजार में एक सेठ से मिला। सेठ ने अपने संदूक को घर पहुंचाने के लिए कहा। लड़के ने भी संदूक सेठ के घर पहुँचाकर पाँच रुपये कमाये

       पिता ने कहा "उसे कुएँ में डालकर आओ। लड़के को गुस्सा आया और कहा कि यह मेरी कमाई है। मेरा सारा शरीर दुख रहा है। आप कहते हैं कि कुएँ में डालकर आओ। अनुभवी पिता समझ गया कि बेटा मेहनती बन गया। उसने अपना सारा व्यापार बेटे को सौंप दिया।


सीख: मेहनत की कमाई मीठी होती है।

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कहानी - Kahani / एकता का फल

 

  

कहानी - Kahani

एकता का फल


  
         एक दिन एक शिकारी शिकार खेलने जाल लेकर जंगल में गया। एक जगह पर उसने चावल के दाने छिड़के। उनपर जाल बिछाकर झाड़ियों के बीच छिपकर बैठ गया।

         थोड़ी देर में आसमान में कबूतरों का एक झुंड उड़ता हुआ आया। उस झुंड का मुखिया चित्रग्रीव था। वह बड़ा बुद्धिमान था। जब कबूतरों ने चावल के दाने देखकर नीचे उतरना चाहा तब चित्रग्रीव ने कहा- "इतने घने जंगल के बीच चावल के दाने कहाँ से आये? यह सोचने की बात है। बिना सोचे उतरेंगे, तो विपत्ति में फँस जाएँगे।

         यह सुनकर एक छोटे कबूतर ने कहा- "क्या हम खाने के लिए भी आज़ाद नहीं हैं? इतनी छोटी बात पर भी संदेह करेंगे, तो जीना मुश्किल हो जाएगा। अब की बार आपकी सभी कबूतर बात हम नहीं मानेंगें" उस छोटे कबूतर की बात बाकी कबूतरों को अच्छी लगी। सब कबूतर दाने चुगने नीचे उतरे, तो जाल में फँस गये। अब निंदा करने लगे। छोटे कबूतर की

        चित्रग्रीव ने कहा - "विपत्ति के समय में ही हमें धैर्य रखना चाहिए। किसी की निंदा करने से विपत्ति दूर नहीं होती। सब एक साथ मिलकर उड़ना शुरू करो। बाद में बचने का उपाय सोचेंगे।" यह सुनकर सभी कबूतर एक साथ जाल लेकर ऊपर उड़े। शिकारी ने कुछ दूर तक उनका पीछा किया। लेकिन कबूतर उसकी आँखों से ओझल हो गए। बेचारा शिकारी निराश होकर घर लौटा।

      कबूतर जाल साथ उड़ते-उड़ते एक नदी के किनारे उतरे। वहाँ चित्रग्रीव का एक दोस्त चूहा रहता था। चित्रग्रीव की आवाज़ सुनकर चूहा खुश हुआ। उसने अपने पैने दाँतों से जाल काटकर सब कबूतरों को आज़ाद किया।



    कहानी का सारांश 

     एकता का फल

       एक शिकारी था। उसने एक दिन जंगल में चावल के दाने बिखेरकर उनपर जाल बिछाया। वह झाड़ी के पीछे जाकर छिप गया।

       थोड़ी देर में कबूतर का एक झुंड उड़ते हुए उस ओर आया। इस झुंड का मुखिया चित्रग्रीय था। वह बड़ा बुद्धिमान था। कबूतरों ने दाने को देखा उनको नीचे उतरकर दाने चुगने की इच्छा हुई। यह जानकर चित्रग्रीव ने कहा- "इस निर्जन वन में दाने कहाँ से आये? यह सोचकर ही हमें उतरना है।"

        लेकिन अन्य कबूतरों ने चित्रग्रीव की बात नहीं मानी। सब कबूतर दाने चुगने नीचे उत्तरे। वे जाल में फंस गये। अब कबूतर एक दूसरे की निंदा करने लगे। चित्रग्रीय उनसे बोला- "पहले एक मन से जाल लेकर उन्हेंगे। फिर बचने का उपाय सोचेंगे।"

        सब कबूतर जाल लेकर उड़े। सभी कबूतर एक नदी के किनारे उतरे। वहाँ एक चूहा रहता था। वह चित्रीय का दोस्त था। उसने जाल काटकर कबूतरों को आजाद किया।

सीखः अनुभव का तिरस्कार आपत्ति का बुलावा है।







कहानी - Kahani / सच्चा न्याय

 

    

             कहानी - Kahani

                सच्चा न्याय




              सिकंदर यूनान देश का बादशाह था। वह बड़ा बहादुर था। उसने बहुत से देश थे। एक बार उसने हिंदुस्तान पर चढ़ाई की और पंजाब के कुछ हिस्सों को जीत लिया।
            एक दिन घूमता हुआ यह एक छोटे गाँव में जा पहुंचा। वहाँ एक किसान का झोंपड़ा था। यह किसान उस गाँव का मुखिया था। उसने सिकंदर की बड़ी खातिर की और उसको आसन पर बिठाया। इसके बाद वह एक चाँदी की थाली में खाद्य पदार्थ और कुछ अशर्फियाँ लेकर बादशाह के सामने हाजिर हुआ खाद्य पदार्थों के साथ अशर्फियों को देखकर सिकंदर हँसा। उसने किसान से पूछा- "क्या तुम लोग खाने-पीने की चीजों के साथ सोना भी खाते हो

            किसान ने जवाब दिया "नहीं महाराज, हम लोग सोना नहीं खाते। लेकिन हमने सुना था कि आप सोने की तलाश में अपना घर छोड़कर इतनी दूर आये हैं। इसलिए में यह भेंट आपके सामने लाया हूँ। आप कृपा करके इसे ले लीजिए।"

           सिकंदर ने जवाब दिया "नहीं नहीं में धन-संपत्ति की खोज में हिंदुस्तान नहीं। आया हूँ। मैं तुम लोगों के रस्म रिवाज देखने के लिए आया हूँ।"

           इतने में उसी गाँव के दो आदमी अपनी पंचायत लेकर मुखिया के पास पहुँचे। एक आदमी ने कहा- “मैंने इस आदमी से एक खेत मोल लिया था। उस खेत में मुझे अशर्फियों से भरा हुआ एक घड़ा मिला है। यह घड़ा मेरा नहीं है, क्योंकि मैंने इससे सिर्फ खेत मोल लिया है, घड़ा नहीं लिया। मैं उस घड़े को इसे देता है तो यह लेता नहीं है। मेहरबानी करके आप इसे समझा दीजिए।"

         यह सुनकर मुखिया ने दूसरे आदमी से पूछा- "तुमको क्या कहना है ?"

         दूसरे आदमी ने कहा- "मैंने जब अपना खेत इस आदमी को बेच दिया तब खेत में पैदा होनेवाली और मिलनेवाली चीजें भी बेच दी। इसलिए अब उस खेत में अनाज पैदा हो या अशिफिया, सब इस आदमी का है। इसके भाग्य से उस खेत में अशर्फियों का घड़ा मिला। मैं उस घड़े को नहीं ले सकता।"

        मुखिया ने यह सुनकर थोड़ी देर सोचा। उसके बाद उसने दोनों से पूछा कि क्या तुम्हारे घर में शादी के लायक लड़का या लड़की हैं? एक ने कहा, "हाँ, मेरे घर में लड़का है। दूसरे ने कहा, 'हाँ.... हाँ, मेरे घर में मेरी बेटी शादी के लिए तैयार है,

      तब मुखिया ने हँसते हुए कहा- अच्छा हुआ। तुम लोग उन दोनों की शादी करवा दो और यह घड़ा उन्हें भेंट के रूप में दे दो। यह फैसला सुनकर दोनों किसान बहुत खुश हुए। वे मुखिया को नमस्कार करके निकल गये।

         इस पंचायत को देखकर सिकदर को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने मुखिया से कहा भाई, में यही देखने के लिए यहाँ आया था। मैंने सुन रखा था कि हिंदुस्तान के लोग बड़े ईमानदार और उदार होते हैं। किसी के दिल में कोई लालच नहीं होता। आज इन बातों को मैंने अपनी आँखों से देख लिया।

यह कहकर सिकदर वहाँ से चला गया।




कहानी का सारांश 

सच्चा न्याय

      बादशाह सिकंदर ने हिंदुस्तान पर चढ़ाई की। उसने कुछ हिस्सों को जीत लिया।

     एक दिन वह एक गाँव के मुखिया के घर पहुंचा। मुखिया ने उसका स्वागत किया और खाद्य पदार्थों के साथ कुछ अशर्फियाँ भी उनके सामने रखी और कहा- आप सोने की तलाश में हिंदुस्तान आये हैं। तब सिकंदर ने जवाब दिया कि मैं हिंदुस्तान के रस्म रिवाज़ देखने के लिए ही आया हूँ, धन की खोज में नहीं।

      इतने में गाँव के दो आदमी अपनी पंचायत लेकर आये। उनमें एक खेत बेचनेवाला था और दूसरा खेत खरीदनेवाला था। खेत खरीदनेवाले आदमी ने कहा कि मुझे खेत में अशर्फियों का घड़ा मिला है। में उसे खेत बेचनेवाले को देना चाहता हूँ, क्योंकि मैंने केवल खेत ही खरीदा है।

       तब खेत बेचनेवाले ने कहा कि जब मैंने खेत बेच दिया तो उसमें जो मिलता है, वह खरीदनेवाले का ही होगा। यह देखकर मुखिया ने खेत खरीदनेवाले से कहा, " "देखो! तुम्हारे एक बेटी है, उसकी शादी खेत बेचनेवाले के बेटे से करवा दो अशर्फियों का यह उनको भेंट में दे दो। मुखिया का फैसला दोनों को पसंद आया।

       सिकंदर ने इसे देखकर हिंदुस्तान के लोगों के गुणों की तारीफ़ की।

सीख: ईमानदारी एक बहुमूल्य उपहार है।
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कहानी - Kahani / बख़्शिश माँगने की सज़ा

 

कहानी - Kahani

बख़्शिश माँगने की सज़ा



          एक गाँव में एक आदमी रहता था। वह बड़ा विद्वान था। लेकिन था बहुत ग़रीब। लोग कहते है कि विदया और धन दोनों एक साथ किसी के पास नहीं होते। उस आदमी के विषय में यह कहावत बिलकुल सच थी।

         एक दिन उस आदमी ने सोचा चलो, राजा के पास जाएँ। उनको कविता सुनाकर माँग लावें। राजा लोग उदार होते हैं। ज़रूर कुछ न कुछ दे देंगे ही । यह सोचकर कुछ उसने अपनी पुरानी शाल और पगड़ी पहनी और चल पड़ा।

         वह आदमी राजा के यहाँ पहुँचा। वहाँ एक सिपाही पहरा दे रहा था। सिपाही ने फटेहाल आदमी को देखकर उसे रोका ख़बरदार! कौन है?

      आदमी ने कहा- भाई, एक गरीब हूँ। महाराज के दर्शन करना चाहता हूँ।

       सिपाही जाओ, महाराज को फ़ुरसत नहीं है।

       आदमी समझ गया कि यह कुछ चाहता है। अक्सर राज-दरबार के नौकर बख्शिश के आदी होते हैं। अगर उनको बख़्शिश न दें तो कोई काम न चले। आदमी ने कहा- -भाई, जाने दो। राजा साहब से जो मिलेगा, उसमें से तुमको भी कुछ हिस्सा दूँगा।

        सिपाही ने कहा- अच्छा, तो जा सकते हो।

        आदमी राजा के दरबार में पहुँचा। वहाँ उसने अच्छे-अच्छे पद सुनाये। राजा ने खुश होकर अपने खजांची के नाम एक ख़त लिख दिया कि इनको पाँच रुपये दे दो। आदमी रुपये लेकर घर चला गया। सिपाही को रुपये देना बिलकुल भूल गया।

        दूसरे दिन आदमी फिर आया। उस दिन भी उसने सिपाही से कुछ देने का वादा किया। पर दिया कुछ नहीं। इस तरह कई दिन गुज़र गये। सिपाही सोचने लगा- यह आदमी बड़ा झूठा मालूम होता है। अच्छा, अब इसकी सज़ा उसे देनी चाहिए। सिपाही राजा के पास पहुँचा और सलाम करके कहा- हुज़ूर, वह आदमी जो रोज़ यहाँ आता है,

        बहुत बुरा आदमी मालूम होता है। रोज लोगों से आपकी शिकायत करता है। मैंने कल अपने कानों से शिकायत करते हुए सुना।" राजा ने सिपाही की बात सच मान ली।

       अगले दिन फिर आदमी दरबार में आया। उसके पद सुनने के बाद राजा ने एक खत दिया। अब उस आदमी ने सोचा चलो आज का पैसा उस सिपाही को परिशश के रूप में दे देंगे। वह खत सिपाही के हाथ देकर चला गया। सिपाही बहुत खुश हुआ। वह तुरंत खजांची के पास पहुंचा खजांची ने जब खत खोलकर पढ़ा तब उसको बड़ा अचरज हुआ। उसमें लिखा था 'खत लानेवाले को दस कोडे लगवा दो। बेचारे सिपाही को क्या मालूम था कि ख़त में क्या लिखा है? खजांची ने राजा के हुक्म के मुताबिक सिपाही को दस कोई लगवा दिये। बेचारा मार खाकर रोता-पीटता राजा के पास गया। राजा को खजांची पर बड़ा गुस्सा आया।

        उसे बुलाकर पूछा- "तुमने सिपाही को क्यों पीटा ?" उसने खजांची ने हाथ जोड़कर कहा- हुजूर का हुक्म ! यह सिपाही ख़त लेकर मेरे पास आया। मैंने आपके हुक्म के मुताबिक इसको कोड़े लगवा दिये।"

      राजा को बड़ा अचरज हुआ। उसने सिपाही से पूछा- "यह खत तुमको कैसे मिला?"

     सिपाही ने कहा- "हुजूर, उसी आदमी ने दिया, जो रोज यहाँ आया करता है।"

       राजा ने आदमी को बुलाकर पूछा। उसने सारी कथा सुनायी। तब तो राजा को उस सिपाही पर बड़ा गुस्सा आया। उसे फ़ौरन नौकरी से निकाल दिया।

      देखो, बरिशश मांगने की उसको कैसी सजा मिली।


      कहानी का सारांश 

     बख़्शिश माँगने की सज़ा

          एक गाँव में एक गरीब विद्वान रहता था। राजा के यहाँ कविता सुनाकर कुछ पाने की इच्छा से राजमहल गया। मगर वहाँ के सिपाही ने उसे रोका। तब विद्वान ने वादा किया कि राजा से जो मिलेगा, उसमें से कुछ हिस्सा दूँगा।

          विद्वान के पदों को सुनकर राजा खुश हुआ और इसको पाँच रुपये देने के लिए रोकड़िये के नाम पर पत्र दिया। इनाम पाते ही विद्वान सीधे घर चला गया। सिपाही को रुपये देना भूल गया। इस तरह कई दिन बीत गये। कुछ भी न मिलने के कारण सिपाही ने विद्वान के बारे में राजा से झूठी शिकायत की।

        दूसरे दिन विद्वान ने राजा से प्राप्त पत्र को सिपाही के हाथ में देकर कहा-आज का इनाम तुम ले लो। उस दिन पत्र में इस प्रकार लिखा था कि "पत्र लानेवाले को दस कोड़े लगवा दो। बेचारा सिपाही मार खाकर राजा के पास गया। पूछताछ करने पर राजा को सारी बातें मालूम हुईं। अतः उसने सिपाही को नौकरी से निकाल दिया।


सीख:- बख़्शिश माँगना बुरी आदत है।

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कहानी - Kahani/ अमीरी का दंड

 

         कहानी - Kahani

      अमीरी का दंड





         एक दिन बादशाह अकबर और उनका प्रिय मंत्री बीरबल साथ-साथ शिकार खेलने निकले। जाड़े का मौसम था। सरदी खूब पड़ रही थी। थोड़ी दूर जाने पर उन्हें सड़क के किनारे एक गरीब आदमी लेटा दिखाई पड़ा। उस आदमी के कपड़े काफ़ी पुराने और फटे थे।

         अकबर ने उस आदमी की ओर इशारा करके बीरबल से पूछा, "बीरबल ! क्या यह आदमी मरा पड़ा है ?"

         बीरबल ने उस आदमी के पास जाकर ध्यान से देखा। फिर अकबर के पास आकर कहा, "यह आदमी मरा नहीं है। आराम से गहरी नींद सो रहा है।"

         अकबर को विश्वास नहीं हुआ। वे बोले "बीरबल, तुम क्या कहते हो? बिछाने को बिस्तर नहीं. ओढ़ने के लिए कंबल नहीं। नीचे कंकड़-पत्थर हैं, ऊपर सर्दी है। गहरी नींद तो आराम से सोनेवाले अमीर ही सो सकते हैं। यह जरूर मौत की नींद सो रहा है।"

         बीरबल बोले, "नहीं महाराज! सच मानिए, यह बड़ी मीठी नींद सो रहा है। ऐसी गहरी नींद तो आपको और मुझे भी नहीं आएगी।

        अकबर उस आदमी के पास आकर खड़े हुए। ध्यान से देखा तो पता चला कि सचमुच वह गरीब आदमी खूब सो रहा है। अकबर को इसपर बड़ा आश्चर्य हुआ।

         भीरबल ने कहा, "जहाँपनाह, अमीरी से नींद का कोई संबंध नहीं है। नींद तो मेहनत करने से आती है। यह गरीब मेहनत करते करते थक गया होगा, तभी इसे ऐसी गहरी जीव आभी होगी। ऐसा सुख परिश्रम से ही मिल सकता है।"

         अकबर यह बात मानने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने कहा, "ऐसी बात नहीं इस आदम को अमीरों का खाना-पीना, ओढना-बिछौना मिले तो यह और भी सुख से सोएगा।" बीरबल ने अकबर की यह बात नहीं मानी।

         अकबर अपनी बात साबित करना चाहते थे। उस आदमी को जगाकर अपने साथ महल में ले गये। उसके रहने के लिए एक अलग महल दिया गया। खाने-पीने और आराम करने के सभी साधन उसको दिये गये उस मेहनती गरीब आदमी को वहाँ आराम से पड़े. रहने के सिवाय कोई काम नहीं रह गया।

      इस प्रकार पंद्रह दिन बीत गये। नकली अमीर को बुखार हो गया। वह बहुत कष्ट उठा रहा था।

      "एक दिन अकबर ने बीरबल से पूछा, "उस गरीब को नींद तो खूब आती होगी न ?"

       "हुजूर! जब से वह इस महल में आया है, तभी से रात में ठीक से नहीं सोया। मुलायम गद्दों पर उसे लिटाकर नौकर लोग घंटों उसके पैर दबाते हैं, तब कहीं थोड़ी नींद आती है।"

       "क्यों, क्या बात है? जब फटे-पुराने कपड़े के साथ सोया था, तब उसे सर्दी नहीं लगी। यहाँ हवा के झोंकों से सर्दी हो गयी। वहाँ तो वह कंकड़-पत्थर पर मजे से सो लेता था और अब मुलायम गद्दे पर भी नींद नहीं आती। आश्चर्य की बात है।"

     "इसमें आश्चर्य की तो कोई बात नहीं है, जहाँपनाह! वह बेचारा अमीरी का कष्ट "भोग रहा है।"
        क्या अमीरी से भी कही तकलीफ हो सकती है।

     "उसका नमूना यही आदमी है। पहले वह दिन-भर मेहनत करता था. इससे उसका शरीर ठीक रहता था। उसको अच्छी नींद आती थी। अब तो आराम ने उसे बहुत नाजुक बना दिया है। मामूली सरदी गरमी भी वह सह नहीं पाता।"

          अकबर को अब भी बीरबल की बात पर विश्वास नहीं हुआ। रात में वे बीरबल को लेकर उस नकली अमीर के महल में गये। वहाँ वह आदमी बिस्तर पर पड़े-पड़े करवटें बदल रहा था। पूछने पर उस आदमी ने कहा, "कुछ न पूछिए जनाब! बिस्तर में कोई चीज़ ऐसी चुभती है कि उसके कारण नींद ही नहीं आती है।"

          बीरबल ने अंदर जाकर बिस्तर को टटोला, तो चादर के नीचे एक बिनौला निकला। उसे बादशाह को दिखाकर वे बोले, "देखिए जहाँपनाह! आज इसी के कारण नये अमीर साहब को नींद नहीं आ रही थी। पहले इन्हें कंकड़ भी नहीं चुभते थे, अब तो यह छोटा-सा बीज भी इन्हें इतना कष्ट दे रहा है। लेकिन हाथ से इन्होंने बिस्तर झाड़ने का भी कष्ट नहीं किया। यह सब अमीरी का दंड है। मेहनत न करने का यह नतीजा है।"

         अकबर बीरबल की बात मान गये। उन्होंने दूसरे ही दिन उस आदमी को महल से विदा कर दिया और पहले की तरह परिश्रम करने और सुखी जीवन बिताने की सलाह दी।


कहानी का सारांश :
अमीरी का दंड

         एक दिन अकबर और बीरबल शिकार खेलने निकले। तब सड़क के किनारे लेटे हुए गरीब आदमी को देखा। अकबर के पूछने पर बीरबल ने उस आदमी के पास जाकर एक देखा और बादशाह से कहा कि वह गहरी नींद सो रहा है।

        अकबर बोले कि गहरी नींद सोनेवाले तो अमीर ही हो सकते हैं। इसपर दोनों में वाद-विवाद चला। अकबर ने बीरबल की बात न मानकर उस गरीब आदमी को सभी सुख-सुविधाएँ दीं ।

         कुछ दिन बीत जाने पर अकबर को मालूम हुआ कि नकली अमीर को बुखार गया। उसे नींद ठीक तरह से नहीं आती। हो

          बीरबल ने अकबर से कहा कि जब यह आदमी दिन भर मेहनत करता था तब रात में उसे अच्छी नींद आती थी। मेहनत न करने का यह नतीजा है। यही अमीरी का दंड है। अकबर बीरबल की बात मान गये।

सीख:- सुखी जीवन बिताने का एक मात्र तरीका परिश्रम ही है।

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कहानी - Kahani / कपड़ों का आदर

 

      कहानी - Kahani      

     कपड़ों का आदर



  

          पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर बंगाल के एक नामी आदमी थे। अमीर-गरीब, राजा-रईस सब उनका आदर करते थे। उनकी सलाह के बिना कोई बड़ा काम न होता था। वे बहुत बड़े विद्वान भी थे। इसलिए लोग उनको "विद्यासागर" यानी " विद्या का समुद्र" कहते थे। वे हमेशा मोटी धोती और मोटा कुरता पहनते थे। वे देखने में बहुत सीधे-सादे जान पड़ते थे।

          एक बार बंगाल के एक धनी आदमी ने उनको दावत पर बुलाया। उस दावत में बहुत-से रईस लोग बुलाये गये थे। बड़ी ठाट-बाट से तैयारी की गयी। अच्छी-अच्छी सवारियों में बैठकर मेहमान लोग दावत में भाग लेने आये। पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर रोज़ की तरह मोटी धोती और मोटा कुरता पहनकर अमीर के घर पहुँचे। दरबान ने विद्यासागर को साधारण कपड़ों में देखकर समझा कि कोई गरीब आदमी बिना बुलाये खाने के लिए चला आया है। इसलिए उसने उनको अंदर जाने नहीं दिया। वे चुपचाप घर लौट गये।

         सभी मेहमान आ चुके थे, लेकिन विद्यासागर का कहीं पता नहीं था। उनके न आने से दावत रुक गयी। मेजबान फ़ौरन गाड़ी भेजकर विद्यासागर को लिवा लाया। इस बार विद्यासागर अच्छे कपड़े पहनकर आये। लोग विद्यासागर को अच्छे कपड़ों में देखकर ताज्जुब करने लगे।

         भोजन परोसा गया और सब लोग खाने लगे, लेकिन विद्यासागर बार-बार अपने कपड़ों से कह रहे थे - "तुम खाओ, अजी, खाते क्यों नहीं?" यह देखकर लोगों को और भी आश्चर्य हुआ। मेजबान ने विद्यासागर के पास जाकर पूछा-“पंडितजी, आप क्या कर रहे हैं? इसका क्या मतलब है?”

          विद्यासागर ने जवाब दिया- "मैं जब सादे कपड़े पहनकर आया था, तब दरबान ने मुझे अंदर आने नहीं दिया। अब अच्छे कपड़ों की वजह से ही अंदर आ पाया हूँ। यह दावत तो कपड़ों के लिए है। इसलिए मैं उन्हीं से खाने को कह रहा हूँ।”

        विद्यासागर की बात सुनकर अमीर आदमी को बड़ी शरम आयी और उसने दरबान की बेवकूफ़ी के लिए पंडितजी से माफ़ी माँगी।


    कहानी का सारांश :

      कपड़ों का आदर

        पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर बंगाल के नामी विद्वान थे। सब लोग उनका बड़ा आदर करते थे। विद्यासागर हमेशा सीधे-सादे कपड़े पहनते थे।

         एक दिन विद्यासागर एक अमीर के घर दावत पर गये। दरबान ने विद्यासागर को सीधे-सादे कपड़े में देखकर अंदर जाने नहीं दिया। विद्यासागर चुपचाप घर लौट गये। विद्यासागर को दावत में अनुपस्थित देखकर मेजबान चिंतित हुए। उन्होंने विद्यासागर को लिवा लाने गाड़ी भेजी। अब की बार विद्यासागर अच्छे कपड़े पहनकर दावत पर गये।

        दावत में विद्यासागर अपने कपड़ों से कह रहे थे - "कपड़े, तुम खाओ। तुम खाते क्यों नहीं?" उनका यह व्यवहार मेजबान की समझ में नहीं आया। मेजबान के पूछने पर विद्यासागर ने सारी बातें बतायीं। मेजबान ने अपने नौकर के अशिष्ट व्यवहार के लिए माफ़ी माँगी।


सीख: मूर्ख लोग बाह्याडंबर का ही आदर करते हैं।




कहानी - Kahani / अंगुलिमाल

 


         कहानी - Kahani         
          अंगुलिमाल





               एक जंगल में अंगुलिमाल नाम का एक डाकू रहता था। वह बड़ा निर्दयी था। वह जंगल में आने-जानेवालों को पकड़कर बहुत सताता था। वह उन्हें मार डालता था। वह उनकी अंगुलियों को माला बनाकर गले में पहनता था। इसीलिए लोग उसे अंगुलिमाल । कहते थे। सभी लोग उससे बहुत डरते थे और जंगल में नहीं जाते थे।

             एक बार महात्मा बुद्ध किसी कारण उस जंगल में गये। वे अंगुलिमाल के बारे में जानते थे। जब अंगुलिमाल को महात्मा बुद्ध के आने का पता चला तो उसे बहुत गुस्सा आया। गुस्से भरा वह महात्मा बुद्ध के पास आया। महात्मा बुद्ध ने धैर्यपूवर्क मुस्कराकर उसका स्वागत किया। इस प्रकार बिना डरे, मुस्कराकर स्वागत किया जाना अंगुलिमाल के लिए नई बात थी, क्योंकि सब लोग तो उससे डरते थे और उससे घृणा करते थे।

          महात्मा बुद्ध ने अंगुलिमाल से कहा, "भाई गुस्सा छोड़ो और सामनेवाले पेड़ से चार पत्तियाँ तोड़ लाओ।" अंगुलिमाल पत्ते तोड़ लाया।

         बुद्ध मुस्कराए और बोले, इन पत्तों को जहाँ से तोड़ लाए हो फिर से वहीं लगा आओ।

        अंगुलिमाल बोला, 'यह कैसे हो सकता है? जो पत्ता एक बार पेड़ से अलग हो गया, वह फिर कैसे जुड़ सकता है?'

        बुद्ध ने उसे समझाया, 'तुम यह जानते हो कि जो एक बार अलग हो गया, वह दुबारा जुड़ता नहीं, तो तुम तोड़ने का काम क्यों करते हो, जब तुम फिर से उसे जोड़ नहीं सकते। पेड़ हो या अन्य प्राणी- सब में प्राण होते हैं। प्राणियों को तुम क्यों सताते हो? उन्हें मारते क्यों हो ?

   अंगुलिमाल महात्मा बुद्ध की बात समझ गया। वह उनकी शरण में आ गया और उनका शिष्य बन गया।


           कहानी का सारांश :


                अंगुलिमाल

         एक जंगल में एक डाकू रहता था। वह बड़ा निर्दयी था। वह लोगों को सताता था और उनकी अंगुलियों को काटकर माला बनाता और उसे अपने गले में पहनता था। इसलिए लोग उसे अंगुलिमाल कहते थे।

      एक बार महात्मा बुद्ध उस जंगल की ओर गये। बुद्ध को देखकर अंगुलिमाल को बहुत गुस्सा आया। अंगुलिमाल को देखकर महात्मा बुद्ध ने मुस्कराकर धैर्य के साथ उससे कहा कि गुस्सा छोड़ो और सामनेवाले पेड़ से पत्तियों को तोड़ो और फिर उसी जगह लगाओ। अंगुलिमाल ने पूछा कि यह कैसा हो सकता है?

        अंगुलिमाल अब समझ गया कि किसी को तोड़ने पर पुनः फिर उसे जोड़ नहीं सकते। अंगुलिमाल बुद्ध की शरण में आया और उनका शिष्य बना।


सीखः किसी भी चीज़ को बिगाड़ना आसान है, बनाना कठिन है।


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कहानी - Kahani / बूढ़ा शिकारी कुत्ता


              कहानी - Kahani         
              बूढ़ा शिकारी कुत्ता





               एक शिकारी ने कई शिकारी कुत्ते पाल रखे थे। शिकारी ने कुत्तों को शिकार पकड़ लाने का अच्छा खासा प्रशिक्षण दिया था। उसके पास एक बूढ़ा कुत्ता भी था, उसका नाम शेरू था। कई सालों से अपने मास्टर के लिए शिकार पकड़कर लाने का काम बखूबी करता रहा ।

            बुढ़ापे की मार सबको पड़ती है। वह शिकारी कुत्ता भी बूढ़ा हो चला था। अब उसमें उतना दम नहीं रहा था। फिर भी वह अपने मास्टर के साथ शिकार पर जाता और शिकार पकड़ने के लिए अपना पूरा दम लगाता।

            शिकारी एक दिन शिकार पर था। बूढ़ा कुत्ता हिरण के बच्चे को पकड़ने के लिए दौड़ा। बाकी कुत्ते तो पिछड़े थे, परंतु बूढ़ा शिकारी कुत्ता जान हथेली पर रखकर दौड़ा और उसने हिरण को पकड़ लिया और हिरण के पुट्ठे पर अपने दाँत धँसा दिये, मगर उसके बूढ़े, कमज़ोर दाँत टूट गये और हिरण उसके चंगुल से भाग निकला।

           शिकारी ने देखा कि बूढ़े कुत्ते ने हिरण को छोड़ दिया है तो उसे उसपर बड़ा गुस्सा आया । उसने उस बूढ़े कुत्ते को मारने के लिए अपनी बंदूक उठायी।

          बूढ़े कुत्ते ने अपने मालिक की ओर कातर निगाहों से देखा। मालिक ने उसकी मूक बात सुन ली। मानों, वह बूढ़ा कुत्ता कह रहा हो- मुझे मत मारो। मेरा मन और मेरी इच्छा शक्ति अभी भी मज़बूत है, जवान है। मगर मेरा शरीर बूढ़ा और कमज़ोर हो चला है जिससे मैं शिकार पकड़ने में असफल हो गया। मेरे पुराने, जवानी के दिनों की याद करो तब मैं क्या था..... और तुम अपने बुढ़ापे के बारे में जरा सोचो तो .....

         शिकारी ने कुत्ते को गले से लगा लिया, उसके सिर पर हाथ फेरा, थपथपाया और कहा- कोई बात नहीं शेरू......


       कहानी का सारांश 

              बूढ़ा शिकारी कुत्ता

         एक शिकारी के यहाँ एक बूढ़ा शिकारी कुत्ता था। वह कई वर्षों तक शिकार पकड़ने का काम बखूबी करता था।

         एक दिन शिकारी के साथ बूढ़ा कुत्ता शिकार पर गया। तब एक हिरण का पीछा करके उसने उसे पकड़ लिया और हिरण पर अपने दाँत धँसा दिये। मगर उसके दाँत टूट गये और हिरण भाग गया। शिकारी को कुत्ते पर क्रोध आया। उसने उसको मारने के लिए बंदूक उठायी।

         बूढ़े कुत्ते ने कातर निगाहों से मालिक से मानों इस प्रकार कह रहा था कि मुझे मत मारो। मेरा शरीर अब कमज़ोर हो गया है। मेरी जवानी के दिनों की याद करो। मालिक उसकी मूक बात समझ गया और फिर से उससे प्यार करने लगा।


सीखः- बुढ़ापे से कोई बच नहीं सकता।


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Tuesday, April 13, 2021

कहानी - Kahani / कवि और कंजूस


           कहानी - Kahani 
          
          कवि और कंजूस




       किसी गाँव में गोवर्धन नामक एक आदमी रहता था। वह अच्छा कवि था। लेकिन । गरीब था। वह कविता लिखना छोड़कर कुछ नहीं जानता था। परिवार में माँ-बाप थे, पती । थी. बच्चे थे। इसलिए वह रोज़ आस-पास के किसी जमींदार या अमीर के घर जाता था और उनका गुणगान करते हुए कविता सुनाता था। वे लोग अपनी तारीफ़ सुनकर गोवर्धन को कुछ-न-कुछ देते थे। बस, इसी से गरीब कवि किसी-न-किसी तरह अपने जीवन का निर्वाह करता था। कभी-कभी उसे खाली हाथ लौटना पड़ता था।

      एक दिन गोवर्धन पास के किसी गाँव में गया । वहाँ वह महेंद्र नामक आदमी के पहुँची। महेंद्र धनवान था, लेकिन बड़ा कंजूस था । किसी को भूलकर भी खोटी दमडी तक नहीं देता था। गोवर्धन ने महेंद्र को अपना परिचय दिया। उसके बाद उसने इस अर्थ की एक कविता सुनायी कि महेंद्र बड़ा वीर है और दानी भी है। महेद्र खुश हुआ। उसने नौकर से कहा "कवि को सोने की थाली भेंट करो"। 

      यह सुनकर गोवर्धन भी खुश हुआ। वह कहने लगा कि महेंद्र के समान बड़ा वीर और दानी आस-पास के गाँवों में कोई नहीं है । यह सुनकर महेंद्र बहुत खुश हुआ। नौकर से कहा "थाली में एक सौ अशरफ़ियाँ भी ले आओ।

      गोवर्धन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। लेकिन नौकर अंदर से आया नहीं। थोड़ी देर के बाद गोवर्धन ने महेंद्र से पूछा कि आपका नौकर क्यों नहीं आया। महेंद्र ने कहा कि वह नहीं आएगा।

    गोवर्धन का दिल बैठ गया। उसने पूछा कि क्या मुझे सोने की थाली और एक सौ अशर्फ़ियाँ नहीं मिलेंगी? महेंद्र हँसते हुए कहने लगा - तुमने मुझे वीर और दानी कहा। मैं जानता हूँ कि यह झूठ है। मुझे खुश करने के लिए तुम झूठ बोले । उसी तरह तुमको खुश करने के लिए मैं भी झूठ बोला । झूठ की वजह से हम दोनों थोड़ी देर के लिए खुश रहे। बस, अब तुम जा सकते हो। गोवर्धन ने चुपचाप घर की राह ली।


     कहानी का सारांश :


                 1. कवि और कंजूस


        एक गाँव में गोवर्धन नामक एक गरीब कवि अपने परिवार के साथ रहता था

        एक दिन वह महेंद्र नामक धनवान के घर पहुँचा। महेंद्र बड़ा कजूस था। कवि गोवर्धन उसपर झूठी प्रशंसा की कविता सुनायी। इसे सुनकर महेंद्र ने अपने नौकर से गोवर्धन के ए सोने की थाली और एक सौ अशर्फियों ले आने को कहा। मगर नौकर नहीं आया।

        गोवर्धन के पूछने पर महेंद्र ने कहा कि आपने मुझे खुश करने के लिए झूठी प्रशंसा । उसी तरह आपको खुश करने के लिए में भी झूठ बोला। गोवर्धन को खाली हाथ घर लौटना पड़ा।


सीखः- कंजूस भूलकर भी दमडी नहीं देता ।

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Thursday, April 1, 2021

तुम कब जाओगे, अतिथि (When will you go. Oh Guest) / (व्यंग्य कथा/ Satire) - शरद जोशी

 

         तुम कब जाओगे, अतिथि 

     (When will you go. Oh Guest)

                (व्यंग्य कथा/ Satire)

               - शरद जोशी


               The satire 'तुम कब जाओगे, अतिथि' is written by a well known satirist Sharad Joshi. This satire is focused on such a guest who overstays and thus misuses the hospitality of the host. Such an awkward situation disturbs the family atmosphere at the host.


              आज तुम्हारे आगमन के चतुर्व दिवस पर यह प्रश्न बार-बार मन में बुमड़ रहा है - तुम कच जाओगे, अतिथि ?

     तुम्हारे ठीक सामने एक कैलेंडर है। देख रहे हो ना । इसको तारीखें अपनी सीमा में नम्रता से फाडफदाती रहती हैं। विगत दो दिनों से मैं तुम्हें दिखाकर तारीखें बदल रहा हूँ। तुम जानते हो, अगर तुम्हें हिसाब लगाना आता है कि यह चौथा दिन है, तुम्हारे सत्तत आतिथ्य का चौथा भारी दिन ! पर तुम्हारे जाने की कोई संभावना प्रतीत नहीं होती । लाखों मील लंबी यात्रा करने के बाद वे दोनों पस्ट्रॉनाट्स भी इतने समय चाँद पर नहीं रुके थे, जितने समय तुम एक छोटी-सी यात्रा कर मेरे घर आए । तुम अपने भारी चरण-कमलों की छाप मेरी जमीन पर अंकित कर चुके, तुमने एक अंतरंग निरजी संबंध मुझसे स्थापित कर लिया, तुमने मेरी आर्थिक सीमाओं की बैजनों चट्टान देख ली, तुम मेरी काफी मिट्टी खोद बुके । अब तुम लौट जाओ, अतिथि । तुम्हारे जाने के लिए यह उच्च समय अर्थात् हाईटाइम है। क्या तुम्हें तुम्हारी पृथ्वों नहीं पुकारती ?

          उस दिन जब तुम आए थे, मेरा हृदय किसी अज्ञात आशंका से धड़क उठा था अंदर-हो-अंदर कहीं मेरा बटुआ आँप गया। उसके बावजूद एक स्नेह-भीगी मुस्कराहट के साथ मैं तुमसे गले मिला था और मेरी पत्नी ने तुम्हें सादर नमस्ते की थी। तुम्हारे सम्मान में ओ अतिथि, हमने रात के भोजन को एकाएक उच्च मध्यमवर्ग के डिनर बदल दिया था । तुम्हें स्मरण होगा कि दो सब्जियों और रायते के अलावा हमने मीठा भी बनाया था । इस सारे उत्साह और लगन के मूल में एक आशा थी । आशा थी कि दूसरे दिन किसी रेल से एक शानदार मेहमान नवाजी की छाप अपने हृदय में ले तुम चले जाओगे। हम तुमसे रुकने के लिए आह करेंगे, मगर तुम नहीं मानोगे और एक अच्छे अतिथि को तरह चले जाओगे । पर ऐसा नहीं हुआ । दूसरे दिन भी तुम अपनी अतिथि-सुलभ मुस्कान लिए घर में ही बने तो । हमने अपनी पीड़ा पी ली और पसल बने रहे । स्वागत-सत्कार के जिस उच्च बिंदु पर हम तुम्हें ले जा चुके थे वहाँ से नीचे उतर हमने फिर दोपहर के भोजन को लंब को गरिमा प्रदान को और गति को तुम्ने सिनमा दिखाया । जमारे सत्कार का यह आखिरी छोर है, जिसमें आगे हम किसी के लिए नहीं बहे। इसके तुरंत बाद भावमीनी विदा का यह भीगा हुआ शरण आ जाना चाहिए था जबं तुम विदा डोते और दम तुम्हें रटगन तक जोड़ने जाते पर तमने ऐसा नहीं किया।

       तीसरे दिन की मुचा तुमने मुझसे कहा, "मैं सॉन्डो में कपड़ देना चाहता है।"

       यह आघात अप्रत्याशित था और इसकी चोट मार्मिक थी । तुमारे सामीप्य की बेता एकाएक यो स्वर की तरह खिंच जाएगी, इसका मुझे अनुमान न था । पहली बार मुझे लगा कि अतिथि सदैव देवता नहीं होता, यह मानव और धोडे अंशों में गवास भी हो सकता है।

      "कहाँ है लॉन्द ?"

       "चलो मानते हैं " मैने कहीं और अपनी सहज बनियान पर औपचारिक कृता इलने लगा

        कहाँ जा रहे है " पली ने पुखा

       "उनके कपड़े लॉन्दी पर देते हैं। मैंने कहा।

        मेरी पत्नी की आँखें एकाएक अहा-बाों हो गई । आज में कुछ बरस पूर्व उनकी एसो मैंने अपने अकेलेपन की यात्रा समाप्त कर बिस्तर खाल दिया था। पर अब जब चे हा आँख बड़ी होती है तो मन छोटा होने लगता है। इस आशका और भय से हड़ी हुई था कि अतिथि अधिक दिनों ठहरेगा ।

       और आशंका निर्मूल नहीं थी अतिथि तुम जा नहीं रहे। लॉन्ड्री पर दिए कपड़े पुलकर आ गए और तुम यहाँ हो । तुम्हारे भरकम शरीर से सलचरें पड़ी चादर बदली जा चुकी और तुम यही हो तुम्हें देखकर फूट पड़ने वाली मुस्कराहट धीरे-धीरे फीकी पड़कर अच लुप्त हो गई है उहाफों के रंगीन गुब्बारे जो कल तक इस कमरे के आकाश में उड़ते थे, अन दिखाई नहीं पड़ते । बातचीत की उछलती हुई गेंद चर्चा को क्षेत्र के सभी कोणों से टप्पे खाकर फिर सेंटर में आकर चुप पड़ी है । अब इसे न तुम हिला रहे हो, न में । कल से में पड़ रहा है और 'तुम फिल्मी पत्रिका के पन्ने पलट रहे हो । शब्दों का लेन-देन मिट गया और चर्चा के विषय चुक गए । परिवार, बच्चे, नौकरी, फिल्म, राजनीति, रिश्तेदारी, पन्यास पर जतागलं. पुराने दोस्त, मरिचार-निपाजन, महंगाई, साहित्य और यहाँ तक कि आँख मार-मारकर हमने पुरानी प्रेमिकाओं का भी जिक्र कर लिया और अब एक चुप्पी है। मौहद अच गने-शनेः छोग्यित में रूपांतरित हो रहा है । भावनाएँ गालियों का स्वरूप ग्रहण कर रही हैं पर तुम जा नहीं रहे। किस अदृश्य गोद में तुम्गारा व्यक्तित्व यहाँ चिपक गया है, में इस मंद को सपरिवार नहीं समझ पा रहा हूँ। बार-बार प्रश्न उठ रहा तुम कब जाओगे, अतिथि ?

        कल पत्नी ने धीरे से पूछा था, "कर तक टिकने वे ?

        मैंने कंधे उचका दिए "क्या कह सकता "

        मैं तो आज खिचड़ी बना रही हूँ । हल्की रहेगी ।"

       "बनाओ।"

        सत्कार की ऊष्मा समाप्त हो रही थी । डिनर से चले थे, खिचड़ी पर आ गए । अब भी अगर तुम अपने बिस्तर को गोलाकार रूप नहीं प्रदान करते तो हमें उपवास तक जाना होगा । तुम्हारे मेरे संबंध एक संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं । तुम्हारे जाने का यह चरम क्षण है। तुम जाओ न अतिथि ।

       तुम्हें यहाँ अच्छा लग रहा है ना ? मैं जानता हूँ । दूसरों के यहाँ अच्छा लगता है । अगर बस चलता तो सभी लोग दूसरों के यहाँ रहते, पर ऐसा नहीं हो सकता । अपने घर की महत्ता के गीत इसी कारण गाए गए हैं। 'होम' को इसी कारण 'स्वीट-होम' कहा गया है कि लोग दूसरे के होम की स्वीटनेस को काटने न दौड़े । तुम्हें यहाँ अच्छा लग रहा है, पर सोचो प्रिय, कि शराफत भी कोई चीज़ होती है और गेट आउट भी एक वाक्य है, जो बोला जा सकता है ।

      अपने खर्राटों से एक और रात गुंजायमान करने के बाद कल जो किरण तुम्हारे बिस्तर पर आएगी वह तुम्हारे यहाँ आगमन के बाद पाँचवें सूर्य की परिचित किरण होगी । आशा है, वह तुम्हें चूमेगी और तुम घर लौटने का सम्मानपूर्ण निर्णय ले लोगे मेरी सहनशीलता की वह अंतिम सुबह होगी । उसके बाद मैं स्टेंड नहीं कर सकूंगा और लड़खड़ा जाऊँगा । मेरे अतिथि, मैं जानता हूँ कि अतिथि देवता होता है, पर आखिर मैं भी मनुष्य हूँ मैं कोई तुम्हारी तरह देवता नहीं । एक देवता और एक मनुष्य अधिक देर साथ नहीं रहते । देवता दर्शन देकर लौट जाते हैं । तुम लौट जाओ अतिथि । इसी में तुम्हारा देवत्व सुरक्षित रहेगा इसके पूर्व कि मैं अपनी वाली पर उतरूँ लौट जाओ

        उफ्, तुम कब जाओगे, अतिथि ?


 SUMMARY OF THE STORY (कथा का सार)


        लेखक के घर में एक अतिथि आया है । प्रारंभ में उसका बहुत आदर-सत्कार हुआ । अतिथि ऐसा है कि जाने का नाम ही नहीं लेता। इस बात से परिवार के लोग दुखी हो गए । लेखक चाहता है कि किसी प्रकार अतिथि विदा हो । किंतु उसे ऐसा संकेत दिखाई नहीं पड़ता । पहले मेहमान के लिए बढ़िया भोजन बनाया जाता था । अब खिचड़ी और उपवास तक की स्थिति आ गई है ।

         भारतीय परंपरा में अतिथि को देवता माना गया है । लेखक सोचता है देवता तो दर्शन देकर चले जाते हैं । यह अतिथि जाने का नाम क्यों नहीं ले रहा है?


एकांकी

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