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Friday, January 12, 2024

महादेवी वर्मा



       महादेवी वर्मा

ममता का ही नाम महादेवी वर्मा

जन्म : 1907         निधन : 1987

रचनाएँ

काव्य  - नीहार, रश्मि, नीरज, दीपशिखा, सांध्यगीत आदि ।


रेखाचित्र -  अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी आदि ।


निबन्ध  - श्रृंखला की कडियाँ, साहित्यकार की आस्था, क्षणदा, कसौटी पर आदि ।



महादेवी वर्मा (सन् 1907 से 1987 तक)

           सालों पुरानी बात है । जाडे के दिन थे । एक कुत्तिया ने कुछ बच्चे दिये । रात हो जाने पर जाड की ठण्डी के कारण पिल्लों की कूँ- कूँ की ध्वनि सुननेवालों के मन में करुण भावना उत्पन्न करती थी । अनेकों ने अनसुनी कर दी । लेकिन सात साल की एक लड़की ने कहा - बहुत जाडा है, पिल्ले जड़ रहे हैं। मैं उनको उठा लाती हूँ । सबेरे वहीं रख दूँगी । लड़की के हठ के कारण घर के सारे लोग जग गये और पिल्ले घर लाये गये । इसके बाद ही उस लड़की एवं पिल्लों को आश्वासन मिला । यह सात साल की लड़की थी - महादेवी वर्मा । बचपन से ही महादेवी वर्मा को जीव-जन्तुओं के प्रति असीम प्यार था । इसी प्यार के बल से ही महादेवी को अपना नाम सार्थक बनाने का मौका मिला । सच है ममता का दूसरा रूप है - महादेवी वर्मा ।

       विशिष्ट साहित्यकार, करुण भरी कवयित्री महादेवी वर्मा का जन्म मंगलमय एवं रंगभरी, कपडों में ही नहीं बल्कि मन में भी खुशी के रंग भरनेवाली होली के दिन में सन् 1907 को विशिष्ट साहित्यकारों की जन्मभूमि उत्तर प्रदेश के फरुखाबाद में हुआ था । महादेवी अपने माँ- बाप की पहली संतान थी । होली के दिन में इन्हें पाकर पिताजी गोविन्द प्रसाद आनन्द सागर में डूब गये थे । माताजी हेमरानी का भी खुशी का टिकाना नहीं रहा । दोनों इतने प्रसन्न हो गये थे कि अपनी कुल देवता दुर्गा देवी के नाम से इन्हें महादेवी बुलाने लगे । महादेवी स्वभाव में भी महादेवी ही थीं ।

       सात साल की उम्र में ही इनमें कवित्व शक्ति स्थान पाने लगी । आठवें वर्ष में इनसे लिखी गयी 'दिया' कविता की पंक्तियाँ उसकी कवित्व की साक्षी है।

"प्रेम का ही तेल भर जो हम बने निशोक, 

तो नया फैले जगत के तिमिर में आलोक !”

       वैसे बचपन इनका बहुत ही सुखमय था । इनकी माताजी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं और घर में रामायण का सस्वर पाठ किया करती थीं । आर्य समाजी संस्कारों के साथ इन्दोर के मिशन स्कूल में इनकी भर्ती हुई। घर में भी विशेष शिक्षकों की नियुक्ति हुई । इस कारण महादेवी वर्मा हिन्दी, उर्दू और चित्रकला में भी प्रवीण हो गयीं । नौ वर्ष तक इन्होंने खडीबोली हिन्दी में कविता लिखने की पूर्ण क्षमता पायी ।

      बचपन इनका बहुत ही मनोहर था । अपने छोटे भाई तथा बहन के साथ ये पूर्ण उल्लास के साथ खेलती कूदती थीं । महादेवी पढाकू होने के साथ साथ लडाकू भी थीं । प्रकृति और प्राणियों के प्रति इनकी रुचि इनके बचपन को महकते उपवन बना चुकी थी । सब प्रकार से इनका बचपन तथा लडकपन सुखमय था ।

      श्री गंगाप्रसाद पाण्डेय के अनुसार महादेवी वर्मा की शादी नौ वर्ष की छोटी उम्र में करा दी गयी थी । इनके पिता ने अपनी प्यारी बेटी की शादी बहुत कम उम्र में, बडी धूम-धाम से करा दी । लेकिन जैसे ही ये बरेली के पास नवाबगंज नामक कस्बे में स्थित ससुराल भेजी गयी, तो वहाँ रो-धोकर, खाना, पीना, सोना, बोलना आदि सबको त्यागकर दूसरे दिन ही अपना घर पहुँच गई । तेज ज्वर आ जाने के कारण उनके ससुर ने इनको घर छोड दिया । 

       इनके वैवाहिक जीवन की यहीं समामि हो गई। बी.ए. पास होते ही महादेवी वर्मा को उनके ससुराल ले जाने का प्रश्न उपस्थित हुआ । महादेवी वर्मा ने दृढ़ता पूर्वक इनकार कर दिया । उन्होंने अपने पिताजी को अपना यह निश्चय सुना दिया । बाबूजी महादेवी को दूसरा विवाह करने की इच्छा हो तो उसे करवा देने के लिए तैयार थे । लेकिन महादेवी विवाह करना ही नहीं चाहती थी । पढ़ाई में मन जाने के कारण वैवाहिक दायित्व को इन्होंने स्वीकार नहीं किया ।

          सन् 1919 में इन्होंने प्रयाग के क्रास्थवेट कॉलेज में मिडिल की परीक्षा में सर्वप्रथम आने के कारण इनको राजकीय छात्रवृत्ति प्राप्त हुई थी । सन् 1929 में इन्होंने बी.ए. की परीक्षा पास की । सन् 1931 में प्रयाग महिला विश्वविद्यालय में संस्कृत में एम.ए. पास करके प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बन गयी थी । प्रयाग महिला विद्यापीठ को आगे बढाने में, प्रशस्त एवं प्रसिद्ध बनाने में इनका योगदान अतुलनीय है । प्रधानाचार्य से बाद में उसी विद्यापीठ के कुलपति के दायित्व को भी सालों तक इन्होंने संभाला ।

       साहित्य में महादेवी वर्मा का प्रवेश 'नीहार' कविता संग्रह के साथ हुआ था । इनकी कविताओं में करुणा तथा पीडा को उचित स्थान दिया गया है । महादेवी वर्मा की करुण तथा आध्यात्मिक चेतना को उनकी इन पंक्तियों से हम समझ सकते हैं -

     मेरे बिखरे प्राणों में
          सारी करुणा दुलका दो ।
    मेरी छोटी सीमा में 
        अपना अस्तित्व मिटा दो । 
    पर शेष नहीं होगी यह 
        मेरे प्राणों की क्रीड़ा, 
    तुमको पीड़ा में ढूँढ़ा 
     तुममें ढूँढ़ेंगी पीड़ा ।

महादेवी वर्मा की रचनाओं में करुण भावना की प्रधानता के लिए एक और उदाहरण है -

सजनि मैं इतनी करुण हूँ 
करुण जितनी रात 
सजनि मैं उतनी सजल 
जितनी सजल बरसात ।

करुण भावना के साथ-साथ पीडा को भी इन्होंने महत्वपूर्ण स्थान दिया है । सन्धिनी से चंद पंक्तियाँ -

विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात !
वेदना में जन्म करुणा में मिला आवास !
अश्रु चनता दिवस इसका अश्रु गिनती रात !
जीवन विरह का जलजात !

      काव्य में शब्द-योजना और लय की जरूरत के बारे में महादेवी के विचार है - "हमारा समस्त दृश्य जगत् परिवर्तनशील ही नहीं, एक निश्चित गति-क्रम में परिवर्तनशील है, जो अपनी निरन्तरता से एक लययुक्त आकर्षण-निकर्षण को छन्दायित करता है । काव्य व्यष्टिगत तथा समष्टिगत जीवन को एक विशेष गति-क्रम की ओर प्रेरित करने का साधन है, अतः उसकी शब्द-योजना में भी एक प्रवाह, एक लय अपेक्षित रहेगी ।"

     सुप्रसिद्ध छायावाद की कवयित्री महादेवी वर्मा के बारे में श्री विनय मोहन ने कहा है - "छायावाद युग ने महादेवी को जन्म दिया और महादेवी ने छायावाद को जीवन । यह सच है कि छायावाद के चरम उत्कर्ष के मध्य में महादेवी ने काव्य भूमि में प्रवेश किया और छायावाद के सृजन, व्याख्यान तथा विश्लेषण द्वारा उसे प्रतिष्ठित किया ।"

     प्रकृति वर्णन में महादेवी महान देवी थी । उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ इस बात की साक्षी है -

यह स्वर्ण रश्मि छू श्वेत भाल, 
बरसा जाती रंगीन हास, 
सेली बनता है इन्द्रधनुष, 
परिमल मल मल जाता बतास, 
पर रागहीन तू हिम निधान !

       महादेवी की कविताओं में महान प्रेरणा भी मिलती है । उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति पर प्रकाश डालने के साथ मनुष्य के मन में महान आशा प्रदीप्त करने में समर्थ निकलती हैं -

      सब बुझे दीपक जला लूँ ।
 घिर रहा तम आज दीपक-रागिनी अपनी जगा लूँ ।

दीप मेरे जल अकम्पित, घुल अचंचल । 
पथ न भूले एक पग भी, 
घर न खोये, लघु वहग भी, 
स्निग्ध लौ की तूलिका से 
आँक सब की छाँह उज्जवल !


देशभक्ति इनमें एक और विशेषता है । देश भक्तों के बारे में 'सन्धिनी' में लिखती हैं -

"हे धरा के अमर सुत ! 
तुमको अशेष प्रणाम ! 
जीवन के अजय प्रणाम ! 
मानव के अनन्त प्रणाम !”


“हिमालय" पर लिखी हुई महत्वपूर्ण कविताओं का संकलन अपने-आप में भी एक बहुत बडी राष्ट्रीय उपलब्धि है। 'हिमालय' के समर्पण में महादेवी लिखती हैं -

        "जिन्होंने अपनी मुक्ति की खोज में नहीं, वरन् भारत-भूमि को मुक्त रखने के लिए अपने स्वप्न समर्पित किये हैं, जो अपना सन्ताप दूर करने के लिए नहीं, वरन् भारत की जीवन-ऊष्मा को सुरक्षित रखने के लिए हिम में गले हैं, जो आज हिमालय में मिलकर धरती के लिए हिमालय बन गए हैं, उन्हीं भारतीय वीरों की पुण्य स्मृति में ।"

     देश भक्ति मनुष्य मन में अपूर्व शक्ति प्रदान करनेवाली है। देश भक्ति की झलक इन वाक्यों में निखर उठता है । मानवीय गुणों को रचनाओं में स्थान देकर महादेवी साहित्य में सदा सर्वथा के लिए महान देवी बनी है। 'नीरजा' महादेवी की कविताओं का तीसरा संग्रह है और साहित्यकारों के मतानुसार इनकी सर्वसुन्दर कृति है । इसके लिए इन्हें 'साहित्य सम्मेलन' से पारितोषिक दिया जा चुका है ।

       करुण, कोमल कविताएँ ही नहीं बल्कि सुन्दर सुरुचिपूर्ण गद्य लेखन में भी महादेवी वर्मा का स्थान सर्वोपरी है । 'अतीत के चल चित्र' इनकी प्रथम गद्य पुस्तक है । इसमें महादेवी जी की कुछ संस्मरणात्मक कहानियाँ का संग्रह है । इनके संस्मरणों में यथार्थता की झलक मिलती है। इनकी कहानियों में पात्रों का चित्रण सजीव एवं सहज रूप से किया गया है । साहित्य में व्यक्तिगत अनुभूतियों को स्थान देने में महादेवी का स्थान काफी अग्रगण्य है । अपने घर के नौकर रामा के बारे में महादेवी तद्रूप चित्रण प्रस्तुत करती है

       "रामा के संकीर्ण माथे पर खूब धनी भौंहें और छोटे-छोटे स्नेह तरल आँखें किसी थके झुंझलाये शिल्पी की अन्तिम भूल जैसी मोटी नाक, साँस के प्रवाह से फैले हुए से नथुने, मुक्त हँसी से भर कर फूले हुए से होंठ तथा काले पत्थर की प्याली में दही की याद दिलानेवाली सघन और सफेद दन्तपंक्ति ।" इन शब्दों को पढ़ लेने से रामा का रूप पाठकों के सामने अपने आप उभर आयेगा । बदलू कुम्हार का वर्णन भी यथार्थता का बोध कराता है । उनका सभी पात्र यथार्थता का बोध कराने में सक्षम है। “श्रृंखला की कडियाँ" महादेवी की दूसरी गद्य-पुस्तक है । इसमें नारी-समस्याओं को प्रधानता दी गयी है ।

'महादेवी का विवेचनात्मक गद्य' पुस्तक में महादेवी ने अपनी विवेचनात्मक गद्य लेखन की क्षमता दर्शायी है । भावात्मक, विचारात्मक एवं विवेचनात्मक गद्य साहित्य में महादेवी का अलग पहचान है ।

       "साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबन्ध" महादेवी वर्मा के बहुप्रशंसिय आलोचनात्मक निबन्धों का संग्रह है। “गीतिकाव्य" पर महादेवी वर्मा का निबन्ध इस प्रकार के निबंधों में प्रथम एवं प्रमाणित है । "यथार्थ और आदर्श" निबन्ध इनकी कौशल पर प्रकाश डालता है । साहित्यिक विवादों पर महादेवी का विचार है - "हमारे साहित्यिक विवाद इन सब अभिशापों से ग्रसित और दुखद हैं, क्योंकि उनके मूल में जीवन के ऊपरी सतह की विवेचना नहीं है, वरन उसकी अन्तर्निहित एकता का खण्डों में बिखरकर विकासशून्य हो जाना प्रमाणित करते हैं । 

         साहित्य गहराई की दृष्टि से पृथ्वी की वह एकता रखता है, जो बाह्य विविधता को जन्म देकर भीतर तक रहती है । सच्चा साहित्यकार भेदभाव की रेखाएँ मिटाते-मिटाते स्वयं मिट जाना चाहेगा, पर उन्हें बना-बनाकर स्वयं बनना उसे स्वीकार न होगा ।" साहित्य में समाज और सामाजिक महत्ववाले विषयों के लेकर लिखने में भी ये सक्षम थीं ।

          पशु-पक्षियों तथा जीव-जंतुओं के प्रति महादेवी वर्मा को अपार प्यार था । इनका मेरा परिवार इस बात की साक्षी है । 'निक्की, रोजी, रानी' लेख में अपने तथा परिवार के सदस्यों से पाले गये निक्की-नेवला, रोजी-कुत्ती तथा रानी-घोडा का वर्णन यथार्थ रूप से किया गया है । 'गिल्लू' में गिलहरी का व्यवहार, लेखिका के प्रति उसका प्यार आदि का चित्रण बखूबी ढंग से किया है । "नीलकंठ मोर" में नीलकंठ और राधा का सच्चा प्यार, नीलकंठ का अद्भुत व्यवहार, "कुब्जा" मोरनी की ईर्ष्या आदि का विवरण करके पशु-पक्षियों के प्रति पाठकों का भी दिल आकर्षित करने का स्तुत्य प्रयास महादेवी वर्मा के द्वारा किया गया है।   

       महादेवी वर्मा साहित्य के क्षेत्र में सचमुच महान देवी है । इनकी 'दीपशिखा' काव्य-कृति को पढ़ने के बाद निरालाजी ने लिखा - 

हिन्दी के विशाल मन्दिर की वीणा-वाणी, 

स्फूर्ति-चेतना-रचना की प्रतिमा कल्याणी ।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी इनकी प्रशंसा मुक्त कंठ से की थी । उनकी उन्नत पंक्तियाँ हैं -

  सहज भिन्न हो महादेवियाँ एक रूप में मिलीं मुझे, 

बता बहन साहित्य-शारदा वा काव्यश्री कहूँ तुझे ।

      सचमुच महादेवी वर्मा साहित्य-शारदा ही हैं । करुण तथा पीडा से युक्त कविताएँ, महानता तथा मानवता पर जोर देनेवाली कहानियाँ, श्रेष्ठ-मानव के साथ पशु-पक्षियों के प्रति भी उनका प्यार दर्शानेवाले गद्य रचनाएँ, संस्मरण, रेखा-चित्र, विचारात्मक, विवेचनात्मक निबंध आदि से महादेवी वर्मा महान कवयित्री ही नहीं बल्कि उत्कृष्ट गद्य लेखिका के रूप में हिन्दी प्रेमियों के मन में सम्माननीय स्थान पाती हैं ।

      सामाजिक जीवन में प्रतिफलित होनेवाले प्रायः सभी महत्वपूर्ण विषयों को लेकर पाठकों के मन में जड-चेतन, शीलता-अश्लीलता, यथार्थ-आदर्श, सभ्यता-संस्कृति, अतीत-वर्तमान, सिद्धान्त-क्रिया, नर-नारी, आत्मा-परमात्मा आदि के बारे में सजगता उत्पन्न करने में महादेवी महानदेवी साबित हुई है ।

      लेखिका का व्यक्तिगत जीवन सदा परमार्थ, सेवार्थ के लिए ही रहा । त्योहारों के दिन इनके घर में बडी भीड़ होती थी । सुप्रसिद्ध कवयित्री, महान लेखिका, ममता तथा मानवता की मूर्ति महादेवी वर्मा का निधन अपनी अस्सी साल की उम्र में 11 सितम्बर 1987 को हुआ था । शरीर के मिट जाने पर भी सद्भावनों के कारण, अतुलनीय साहित्य सेवा के कारण आज भी महादेवी वर्मा हिन्दी प्रमियों के मन में जी रही हैं।

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विष्णु प्रभाकर


               विष्णु प्रभाकर


उत्तम भावना से भरे उन्नतम् उपन्यासकार

जन्म : 1912

रचनाएँ

उपन्यास     6

कहानी संग्रह   19

लघुकथा संग्रह 3

नाटक   19

रूपान्तर 3

एकांकी नाटक 19

अनुदित    2

जीवनी और संस्मरण  15

यात्रा वृतांत    5

विचार निबंध   2

बाल नाटक व एकांकी संग्रह   11

जीवनियाँ     2

बाल कथा संग्रह   12

विविध पुस्तकें    19

तथा रूपक संग्रह





मूर्धन्य उपन्यासकार विष्णु प्रभाकर (सन् 1912 से अब तक)

       भारतीय उपन्यास के अंतिम दशक (1991 से 2000 तक) में श्री विष्णु प्रभाकर का स्थान प्रशंसनीय है । कहानीकार, एकांकीकार, उपन्यासकार, आलोचक, साहित्यिक चिंतक आदि विभिन्न साहित्य विधाओं के प्रशस्त साहित्यकार विष्णु प्रभाकर की साहित्य सेवा सराहनीय एवं अनुकरणीय है । ये अपनी रचनाओं में सामाजिक समस्याओं को प्रधानता देते हैं । खासकर नारी समस्याओं पर इन्होंने अपनी कलम चलायी । विशिष्ट सामाजिक चिंतक विष्णु प्रभाकर समाज तथा सामाजिक समस्याओं पर प्रकाश डालने में सशक्त हैं ।

       विष्णु प्रभाकर का जन्म मुजफ्फर नगर के जानसठ तहसील स्थित मीरापुर गाँव में 20 जुलाई 1912 को हुआ । प्रमाण पत्रों के अनुसार इनका जन्म 21 जून सन् 1912 होने पर भी असल में इनका जन्म 20 जुलाई 1912 को ही हुआ था । अपनी आत्मकथा पंखहीन में ये कहते हैं 

     "मेरा जन्म 20 जुलाई, 1912 को हुआ । लेकिन मेरे सभी प्रमाण पत्रों में 21 जून 1912 लिखा हुआ है ।"

      इनको अपनी जन्मभूमि, अपने गाँव के प्रति विशेष प्यार है । अपना गाँव मीरापुर के बारे में इनका कथन है - -

   "मेरा जन्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से कस्बे मीरापुर में हुआ था । वास्तव में यह कभी आस-पास के गाँवों के 'बाजार' के रूप मैं विकसित हुआ होगा । कभी इसका नाम मेरा-पुर था । बाद में न जाने कैसे मीरा नाम की देवी से इसका सम्बन्ध हो गया । बचपन में हमारे घर में "मीरा की कढाई" जैसा एक त्योहार भी मनाया जाता था । इसकी तहसील है जानसठ और जिला है मुजफ्फर नगर ।"

       तीसरी कक्षा तक इन्होंने अपने ही गाँव में शिक्षा पायी । गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ रहे थे । लेकिन उसके बाद अपने मामाजी के कारण उन्हें गाँव छोडकर पंजाब के हिसार जाना पडा । पंजाब के हिसार में अपने मामा के यहाँ रहते हुए वहाँ के चन्दूलाल एंग्लो हाई स्कूल से सन् 1929 में इन्होंने मैट्रिक परीक्षा पास की । गणित और हिन्दी इनका प्रिय विषय रहा । हिन्दी में भूषण, प्राज्ञ, विशारद तक पढाई की । इनके बाद प्रभाकर तथा बी.ए. परीक्षाएँ पास की ।

       धन कमाने के लिए अपने परिवार की आर्थिक स्थिति में मदद करने के लिए ये हिसार के पशु-पालन फार्म पर काम करने लगे । इसी फार्म पर 15 साल तक क्लर्क के रूप में काम किया । फिर बाद में अकावुंटेंड बने । इन्होंने सन् 1955 से 1957 तक आकाशवाणी में ड्रामा प्रोड्यूसर के पद पर काम किया ।

        विष्णु प्रभाकर का असली नाम विष्णु था । घर में इन्हें विष्णु दयाल या विष्णु सिंह के नाम से पुकारते थे । प्राइमरी स्कूल में इनका नाम विष्णु दयाल था । अपने मामा के साथ पंजाब जाने के बाद वहाँ के आर्यसमाजी विद्यालय में वर्ण के अनुसार विष्णु गुप्त के नाम से बुलाये जाते थे । पशु पालन फार्म पर अनेक गुप्त के होने के कारण ये विष्णु दत्त बना दिये गये थे । अंत में 'प्रभाकर' परीक्षा पास करने के कारण एक प्रकाशक ने उनका नाम विष्णु प्रभाकर बना दिया था । विष्णु प्रभाकर नाम उन्हें धीरे-धीरे पसन्द भी आया । अभी अब पूर्ण रूप से विष्णु प्रभाकर है ।

           अपनी 26 वर्ष की आयु में विष्णु प्रभाकर की शादी सुशीला नामक सुशील युवती से सन् 1938 को हुई थी । अपनी पत्नी के प्रति इनका प्यार अटूट एवं अतुलनीय है । इनका वैवाहिक जीवन काफी सुखमय था । अब वे विधुर हैं और अपने पुत्र के साथ दिल्ली में जी रहे हैं। अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद विष्णु प्रभाकर ने अपना प्रसिद्ध उपन्यास, कर्ममयी नारी की कहानी का उपन्यास "कोई तो" (1995) को अपनी प्यारी पत्नी सुशीला को अर्पण करते हुए लिखे हैं - 

"सुशीला को जो अब नहीं है पर जो इस उपन्यास के शब्द-शब्द में रमी हुई है ।"

          साहित्यिक क्षेत्र में इनका प्रवेश एक कवि के रूप में हुआ था । फिर बाद में इन्हें कहानी साहित्य में रुचि बढने लगी । इन्होंने लगभग दो सौ कहानियाँ लिखी । लेकिन इनकी कहानी संग्रह में 150 कहानियाँ ही स्थान पायी हैं। बाकी में कुछ खो गया, कुछ को खुद विष्णु प्रभाकर ने खोने दिया । विष्णु प्रभाकर की सम्पूर्ण कहानियाँ आश्रिता, अभाव, मेरा वतन, मुरब्बी आदि खण्डों में संग्रहित हैं । इनकी ज्यादातर कहानियाँ समाज तथा सामाजिक समस्याओं से सम्बन्धित है ।

        विष्णु प्रभाकर एक सफल कवि भी हैं । शुरू में ये कविताएँ लिखते थे । फिर धीरे-धीरे गद्य साहित्य में खासकर कहानी साहित्य में इनकी रुचि बढ़ने लगी । विष्णु प्रभाकर के शब्दों में... "शुरू में मैंने कविताएँ लिखीं । वह युग पद्य काव्य का भी था, तो मैंने कुछ गद्य काव्य भी लिखे, फिर कहानी भी लिखी, पर अंतत: कहानी लिखना ही मुझे रास आया । शुरू में जब ये सरकारी फार्म पर काम कर रहे थे तब प्रेमबन्धु के नाम से लिखा करते थे । फिर बाद में विष्णु प्रभाकर के नाम से जाने जाने लगे ।"

        उपन्यास के प्रति इनकी विशिष्ट रुचि का भी विशेष कारण है। विष्णु प्रभाकर के अनुसार उपन्यास के मुक्त क्षेत्र में अभिव्यक्ति पर कोई बंधन नहीं है। वह संपूर्ण की उपलब्धि है । एक साथ कई स्तरों और धरातलों पर वह चलता है । विभिन्न कहानियों का चित्रण स्वतंत्र सत्ता के साथ उभर सकते हैं । यथार्थ को प्रकट करने के लिए उपन्यास ही सबसे सशक्त माध्यम है । अपने आप को मुक्त करने का आनन्द जितना उपन्यास के माध्यम से संभव हो सकता है उतना कहानी या नाटक के माध्यम से नहीं । इसी कारण से श्री विष्णु प्रभाकर अपने आपको श्रेष्ठ एवं मूर्धन्य उपन्यासकार साबित करने में सक्षम रहे ।

         विष्णु प्रभाकर की भाषा सरल, सहज खडीबोली है । विषय के अनुरूप, वातावरण एवं आवश्यकता के अनुरूप सरल, सबल एवं सहज भाषा का प्रयोग इनकी विशेषता है । पात्रों की मनोभावनाओं को समझाने में, उनके रहन-सहन, आचार-विचार पर प्रकाश डालने में विष्णु प्रभाकर की भाषा अतुलनीय है । उपन्यास में इनकी शैली बहुत भिन्न एवं प्रशंसनीय है । इनकी ज्यादातर रचनाओं में पत्रात्मक शैली का प्रयोग किया है । उपन्यास में पत्रों के साथ स्वप्नों को भी उचित स्थान देने में आप विशिष्ट स्थान पाते हैं । छोटे नाटकों को भी उन्होंने स्थान दिया है। कहानी तथा उपन्यास की कथावस्तु के बारे में विष्णु प्रभाकर का विचार इस प्रकार है ।

       "जहाँ तक कथावस्तु का संबंध है, वह जीवन से भी मिलता है और विचार से भी । लेकिन प्रत्येक घटना तो कहानी नहीं होती । कलाकार का संस्पर्श ही उस घटना को कहानी का रूप देता है।"

        उनके साहित्य में उत्कृष्ट मानवता की खोज ही मुख्य उद्देश्य बनता है। वाद के बारे में भी इनका विचार सबसे भिन्न है। अपने लेखन के बारे में विष्णु प्रभाकर खुद कहते हैं - "आदर्श मुझे वहीं तक प्रिय है जहाँ तक वह यथार्थ का संबल है । 'वाद' में मैं आज तक विश्वास नहीं कर पाया । मेरे साहित्य में अग्नि नहीं है । मात्र सहज संवेदना है, जिसे आज के लेखक दुर्बलता ही मानते हैं । मैं जो हूँ वह हूँ। मैं मूलतः मानवतावादी हूँ । उत्कृष्ट मानवता की खोज मेरा लक्ष्य है ।"

      भारतीय स्वाधीनता संग्राम को लेकर सन् 1950 में आकाशवाणी के लिए 6 रूपक नाटक लिखे थे । उनमें से एक की यह कविता उनकी देश भक्ति का परिचायक है -

   "मैं बोलो किसकी जय बोलूँ जनता की या कि जवाहर की ? या भूला भाई देसाई - से, कानूनी नर-नाहर की ? या कहूँ समय की बलिहारी, जिसने यह कर दिखाया है ।"

       विष्णु प्रभाकर पहले कहानियाँ ही लिखा करते थे । फिर बाद में कहानी से एकांकी के क्षेत्र में आ गए । इसका मूल कारण सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री प्रभाकर माचवे हैं। उन्होंने ही विष्णु प्रभाकर को नाटकें लिखने के लिए प्रोत्साहन किया । एक बार उन्होंने विष्णु प्रभाकर से कहा कि उनकी कहानियों में संवाद की मात्रा अधिक एवं प्रभावशाली है, अगर वे नाटक लिखेंगे तो सफल नाटककार बन सकते हैं। सन् 1939 में विष्णु प्रभाकर ने अपना पहला एकांकी नाटक "हत्या के बाद" लिख डाला ।

        विष्णु प्रभाकर विशुद्ध गाँधीवादी एवं देश भक्त हैं । स्वतंत्रता के पहले से आज तक वे खद्दर के ही कपडे पहनते हैं । इसके पीछे भी एक रोचक घटना है । लडकपन में अपने चाचा के साथ एक सभा में इन्होंने भाग लिया । उस सभा में एक छोटा सा लड़का खद्दर पहनकर सब से यह विनती करने लगा कि मैं छोटा बच्चा हूँ, खद्दर पहनता हूँ । आप सब बडे हैं, सदा खद्दर ही पहनिए । इस भाषण से, उस बालक से प्रभावित होकर पूर्ण मन से इन्होंने खद्दर पहनना शुरू किया । आज तक खद्दर ही पहनते हैं। यह उनकी देशभक्ति तथा दृढ़ निश्चय के लिए एक सशक्त उदाहरण है।

         विष्णु प्रभाकर के विचार में अपने दुख को जो सबका दुख बना लेता है वही महान साहित्यकार होता है, व्यक्ति के सुख-दुख, दर्द- पीडा, प्यार, व्यथा-वेदना को जो रचना सबका दुख-सुख, पीडा-प्यार, व्यथा-वेदना बना देने में समर्थ होती है वही महान है । व्यक्ति और समाज के यथार्थ से कटकर लेखक नहीं हो सकता । लेखक के यहीविचार ने उन्हें उन्नतम साहित्यकार साबित किया है ।

       नारीमुक्ति की भावना इनकी कहानियों तथा उपन्यासों में प्रमुख स्थान पाती है । विष्णु प्रभाकर 'नारी' को मनुष्य के पद पर, शक्तिस्वरूपिणी के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते थे । उन्हीं के शब्दों में... "मैं नारी की पूर्ण मुक्ति का समर्थक हूँ। अंकुश यदि आवश्यक ही है तो यह काम भी वह स्वयं करें ।" समाज एवं सामाजिक प्रगति के बारे में भी इनका ध्यान आकृष्ट हुआ है । समाज की विभिन्न समस्याओं पर प्रकाश डालकर उनके प्रति जागरूकता पैदा करना इनका लक्ष्य रहा है । इस प्रकार वे श्रेष्ठ सामाजिक चिंतक साबित होते हैं ।

       विष्णु प्रभाकर के साहित्य में ही नहीं, उनके जीवन में, उनके व्यक्तित्व में भी यथार्थता की झलक मिलती है । एक सुप्रसिद्ध साहित्यकार होने के बावजूद भी अपने बारे में, अपने साहित्य के बारे में इन्होंने जो कुछ कहा है वह इस बात की साक्षी है - "मैंने अपनी रचनाओं की चर्चा नहीं की है, करने योग्य कुछ है भी नहीं । मुझे अपनी रचनाएँ प्राय: अच्छी नहीं लगती और दूसरों का प्राय: अच्छी लगती हैं ।"

         अभिव्यक्ति के बारे में विष्णु प्रभाकर का मत है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का लेखक के लिए वही महत्व है जो जीवन के लिए गति का । जहाँ गति का अभाव है, वहाँ मृत्यु है, जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है वहाँ साहित्य भी नहीं है क्योंकि साहित्य मानवात्मा की बंधनहीन अभिव्यक्ति है ।

     " आवारा मसीहा " के नाम से बंगला के उन्नतम कथाकार श्री शरच्चंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी लिखकर इन्होंने बंगला और हिन्दु साहित्य के बीच में संबंध लाने का स्तुत्य प्रयास किया है। यह अन्यतम कृति भारत की रागात्मक एकता का ज्वलंत उदाहरण है । शरच्चंद्र सिर्फ बंगाल के ही नहीं, सारे देश के गौरव हैं । इनकी जीवनी "आवारा मसीहा" विष्णु प्रभाकर की कीर्ति पताका है । आवारा मसीहा का अनुवाद भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में हुआ है ।

       "आवारा मसीहा” की रचना के बारे में विष्णु प्रभाकर का कथन है - "शरत मेरे प्रिय लेखक थे । मैं अकसर उनके उपन्यासों के पात्रों को लेकर सोचा करता था । लेकिन मैं आसानी से उनके जीवन की सामग्री प्राप्त नहीं कर सका । यद्यपि मैंने बंगला सीख ली थी, कुछ किताबें भी पढ़ी थीं लेकिन उनमें ऐसा कुछ भी नहीं था जो मुझे जीवनी लिखने के लिए पर्याप्त सामग्री जुटा पाता । इसलिए अन्ततः मैं उनके वास्तविक जीवन की खोज में निकल पडा । सोचा था कि अधिक से अधिक एक साल लगेगा । लेकिन लगे चौदह साल । कहाँ-कहाँ नहीं घूमना पड़ा मुझे ? देश-विदेश में उन सब स्थानों पर गया जिनका सम्बन्ध उनके जीवन से था या उनके पात्र वहाँ रहे थे । इसलिए जब यह जीवनी प्रकाशित हुई तो हिन्दी साहित्य में मेरा स्थान सुरक्षित हो गया ।

      विष्णु प्रभाकर के उपन्यासों में निशिकांत, टूटते परिवेश, संस्कार, संकल्प, स्वप्नमयी, अर्धनारीश्वर तथा कोई तो सर्वप्रमुख हैं। इन सब में सामाजिक समस्याओं को, खासकर नारी पर शोषण का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया गया है । यह नायिका प्रधान कहानी है । इसमें नायिका कमला विधवा है और अपने चरित्र के बल से वह धीरे-धीरे पाठकों के मन और प्राण में बसती जाती है । निडर विधवा कमला को देखकर लोग मंत्रमुग्ध हो जाते हैं । 'तट के बंधन' की नीलम और स्वप्नमयी की अलका भी भुलाए नहीं भूलेंगी । 

          "कोई तो" एक कर्ममयी नारी की कहानी है । इस उपन्यास की नायिका वर्तिका यथार्थ जीवन जीना चाहती है और किसी भी हालत में अपने आपको छिपाना या मुखौटा लगाना नहीं चाहती । वर्तिका को प्रधानता देने के साथ उससे सम्बन्धित अन्य पात्रों के द्वारा आज के भ्रष्ट, दूषित समाज का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करने में विष्णु प्रभाकर अपने आपको विशिष्ट साहित्यकार के रूप में दर्शाने में सफल हुए हैं। "कोई तो" में नारी तथा वैवाहिक समस्याएँ, राजनैतिक तथा धार्मिक समस्याएँ, गरीबी तथा आर्थिक विपन्नता की समस्याएँ आदि का यथार्थ चित्रण किया गया है । “संकल्प” की साहसी विधवा सुमति भी नारी शक्ति का प्रतीक है । नारी स्वतंत्रता एवं शक्ति पर विष्णु प्रभाकर ने अपनी कलम अधिकतम चलायी ।

          मूर्धन्य उपन्यासकार विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित हैं । सन् 1953-54 में अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में 'शरीर से परे' को प्रथम पुरस्कार । आवारा मसीहा पर पब्लो नेरुदा सम्मान, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार । सत्ता के आरपार नाटक के लिए भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 'मूर्ति-देवी' पुरस्कार । सूर पुरस्कार-हरियाणा अकादमी, तुलसी पुरस्कार - उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, शरत् पुरस्कार - बंग साहित्य परिषद भगलपुर, शलाका सम्मान - हिन्दी अकादमी, दिल्ली । सन् 2002 को भारत सरकार की पद्मभूषण की उपाधि से विष्णु प्रभाकर सम्मानित हैं ।

     हिन्दी साहित्य सेवा में पूर्ण रूप से लगे हुए विष्णु प्रभाकर हिन्दी जगत में चमकनेवाले तारों में से एक हैं। यह तो सौभाग्य की बात है कि तिरानबे साल की लंबी उम्र पार करके साहित्य सेवा में लगे हुए हैं । ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मूर्धन्य उपन्यासकार, मूल्यवान साहित्यकार विष्णु प्रभाकर को और अनेक साल हमारे साथ रहने दें ।


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Tuesday, January 9, 2024

जयशंकर प्रसाद / रचनाएँ

 

                        जयशंकर प्रसाद

         बाबू जयशंकर प्रसाद की प्रतिभा हिन्दी साहित्य में सर्वतोमुखी है। वे कवि, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार और निबन्धकार है। -



काव्य : 

प्रसाद जी ने प्रेम राज्य (1909 ई.), वन मिलन (1909 ई.), अयोध्या का उद्धार (1910 ई.), शोकोच्छवास (1910 ई.), प्रेम पथिक (1914 ई.), महाराणा का महत्त्व (1914 ई.), कानन कुसुम, चित्रकार (1918 ई.), झरना (1918. ई.), आँसू (1925 ई.), लहर (1933 ई.) और कामायनी (1934 ई.) नामक काव्य लिखे हैं। कामायनी की गणना विश्व साहित्य में की जाती है।


नाटक : 

प्रसाद ने चौदह नाटक लिखे और दो का संयोजन किया था।

(1) 'सज्जन' (सन् 1910-11) : 

उनकी प्रारंभिक एकांकी नाट्य कृति है। उसकी कथावस्तु महाभारत की एक घटना पर आधारित है। चित्ररथ कौरवों को पराजित कर बंदी बनाता है। युधिष्ठिर को इसका पता चलता है तो वे अर्जुन आदि को चित्ररथ से युद्ध करने केलिए भेजते हैं। युद्ध में चित्ररथ पराजित होता। दुर्योधन की निष्कृति होती है। युधिष्ठर के उदात्त चरित्र को देखकर चित्ररथ, इंद्र आदि देवता प्रसन्न होते हैं।

इसमें प्रसाद ने प्राचीन भारतीय नाट्य-तत्त्वों (नांदी, प्रस्तावना, भरतवाक्य आदि) का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं पाश्चात्य तत्त्वों का भी प्रयोग किया है।

(2) कल्याणी परिणय (सन् 1912) : 

इसकी कथावस्तु यह है कि चन्द्रगुप्त चाणक्य की सहायता से नंद वंश का विनाश करता है और उसकी कन्या कल्याणी से विवाह कर लेता है। इसमें भी प्राचीन नाट्य तत्त्वों का प्रयोग किया गया है।

(3).प्रायश्चित्त (सन् 1912) : 

इसमें मुसलमान शासन के आरंभ और राजपूत राजाओं के अवसान का वर्णन मिलता है। जयचंद्र मुहम्मद गोरी को आमंत्रित करता है और पृथ्वीराज को ध्वस्त करा देता है। जब अपनी बेटी संयोगिता की करुणा विगलित मूर्ति उसके ध्यान में आती है तो वह पश्चात्ताप से काँप उठता है। गंगा में डूबकर आत्म-हत्या कर लेता है। इसमें प्रसादजी ने प्राचीन परिपाटी (नांदी पाठ, प्रशस्ति आदि) को छोड दिया है।

(4) करुणालय (सन् 1913) :

 हिन्दी में नीति-नाट्य की दृष्टि से यह प्रथम प्रयास है। यह एकांकी नाटक है। यह पाँच दृश्यों में विभक्त है। इसमें राजा हरिश्चंद्र की कथा है। नाट्य-कला से अधिक इसमें कहानी-कला का विकास लक्षित होता है।

(5) यशोधर्म देव : 

प्रसाद जी ने इसकी रचना सन् 1915 में की थी। परन्तु यह अप्रकाशित है।

(6) राज्यश्री (सन् 1915) : 

नाट्य-कला की दृष्टि से प्रसाद ने इसमें पूर्ण सफलता प्राप्त की है। इसकी कथा संक्षेप में इस प्रकार है- राज्यश्री राज्यवर्धन तथा हर्षवर्धन की बहन है। वह शांतिदेव के चंगुल में फँसती है। अंततः वह दिवाकर की सहायता से उसके चंगुल से मुक्त होती है। वह आत्मदाह करना चाहती है। हर्षवर्धन उसे वैसे करने से रोक देता है। अन्त में भाई-बहन बौद्ध-धर्म के अनुयायी बनते हैं। यह प्रसाद का पहला ऐतिहासिक नाटक है।

(7) विशाख (सन् 1921) : 

प्रसादजी ने सन् 1921 में इसकी रचना की। इसमें व्यवस्थित भूमिका मिलती है। इसमें प्रसाद ने अपनी रचनाओं के उद्देश्य को बताया है। इस नाटक का प्रमुख पात्र विशाख है। वह तक्षशिला के गुरुकुल से शिक्षा समाप्त कर वापस आ रहा है। वह सुश्रुदा नामक नाग को एक बौद्ध भिक्षु के कर्ज से मुक्त करा देता है। इससे प्रसन्न सुश्श्रुदा अपनी बेटी चंद्रलेखा का विवाह विशाख से कर देता है। परन्तु तक्षशिला के राजा नरदेव चन्द्रलेखा को पहले छल-छद्म से और बाद में बलप्रयोग से अपने वश करना चाहता है। परन्तु वह इस प्रयत्न में असफल होता है। उसकी लंपटता और कुपथगामिता से खिन्न उसकी पत्नी आत्महत्या कर लेती है।

(8) अजातशत्रु (सन् 1922) : 

इसमें प्रसाद ने भारतीय और पाश्चात्य नाट्य सिद्धांतों का सश्लिष्ट एवं उत्कृष्ट प्रयोग किया है। भगवान बुद्ध के प्रभाव से, बिंबसार शासन से विरक्त होकर अपने पुत्र अजातशत्रु को राज्य-सत्ता सौंपता है। परन्तु देवदत्त (गौतम बुद्ध का प्रतिबन्दी) की उत्प्रेरणा से कोशल के राजकुमार विरुद्धक के पक्ष में अजातशत्रु अपने पिता बिम्बसार और अपनी बडी माँ वासवी को प्रतिबन्ध में रखने लगता है। कौशम्बी नरेश अजातशत्रु को कैद कर देता है। वासवी की सहायता से अजातशत्रु की निष्कृति होती है। जब अजातशत्रु पिता बनता है तो उसमें पितृत्व के आलोक का उदय होता है। वह अपने पिता से क्षमा-याचना करता है।

(9) जनमेजय का नागयज्ञ (सन् 1923) : 

प्रसिद्ध पौराणिक कथा के आधार पर इस नाटक की रचना की गयी है।

(10) कामना (सन् 1923-24) : 

यह प्रसाद का प्रतीकात्मक नाटक है। इसमें ईर्ष्या, द्वेष आदि मनोवृत्तियों का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है।

(11) स्कन्दगुप्त (सन् 1924) : 

आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के अनुसार यह प्रसादजी के नाटकों में सर्वश्रेष्ठ है। इसकी कथा इस प्रकार है-"मगध सम्राट के दो रानियाँ हैं। छोटी रानी अनंतदेवी अपूर्व सुंदरी और कुटिल चालों की है। वह अपने पुत्र पुरुगुप्त को सिंहासनारूढ़ कराकर शासन का सूत्र अपने हाथ में लेती है। बडी रानी देवकी का सुयोग्य पुत्र स्कन्दगुप्त राजसत्ता से उदासीन हो जाता है। परन्तु जब हूण कुसुमपुर को आक्रमण कर लेते हैं तो स्कन्दगुप्त उनको पराजित कर कुसुमपुर को स्वतंत्र कर देता है। हिंसा, विशेष गृह-कलह से विरक्त होकर वह पुरुगुप्त को राज्य सौंप देता है। प्रेममूर्ति देवसेना और देश-प्रेम की साक्षात् मूर्ति स्कन्दगुप्त की विदा से नाटक का अन्त होता है।


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Skanda gupt natak VIDEO SUMMARY


(12) चन्द्रगुप्त (सन् 1928) : 

इसमें चन्द्रगुप्त द्वारा नंद वंश का नाश, सेल्यूकस की बेटी कार्नेलिया से उसका विवाह आदि वर्णित हैं। चरित्र चित्रण, वातावरण का निर्माण और घटनाओं का घात-प्रतिघात समीचीन और स्थायी प्रभाव डालनेवाला है।

(13) एक घूँट् (सन् 1929) : 

यह एक एकांकी नाटक है। इसमें मानवीय विकारों के कोमल एवं उलझे हुए तन्तुओं के आधार पर चरित्रों का गठन किया गया है। आनन्द स्वच्छंद प्रेम का पुजारी है। उसका कहना है कि आनंद ही सब कुछ है। परन्तु बनलता कहती है कि समाज-विहित, गुरुजनों द्वारा संपोषित वैवाहिक जीवन ही सार्थक और सही दिशा निर्देशक है।

(14) ध्रुवस्वामिनी (सन् 1933) : 

इसमें रामगुप्त की कथा है। प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी को एक जागृत नारी के रूप में चित्रित किया है। उन्होंने उसके द्वारा अनमेल विवाह की समस्या को हमारे सामने प्रस्तुत किया है।

(15) सुंगमित्र (अपूर्ण) :

प्रसाद ने नाटकों के अतिरिक्त कहानियाँ, निबन्ध और उपन्यास भी लिखे हैं। यथा-


निबन्ध : काव्य-कला तथा अन्य निबन्ध

उपन्यास : तितली, कंकाल, इरावती (अपूर्ण)

कहानी-संग्रह : 

1. छाया (सन् 1913), 2. आकाशदीप (सन् 1928), 3. आँधी (सन् 1929), 4. इन्द्रजाल (सन् 1936) 5. प्रतिध्वनि ।

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Sunday, February 5, 2023

Sunday, January 2, 2022

रस ஓர் அறிமுகம்

 

          रस

ஓர் அறிமுகம்


रस  என்றால் தமிழில் சுவை என்று பொருள்.

உணவுக்கு அறுசுவை !

உணர்வுக்கு ஒன்பது சுவை !!


     இந்த ஒன்பது சுவைதான் 'நவரஸம்' என்கிறோம்.

     ஆனால், ஹிந்தியில் சேர்த்து वात्सल्य रस -ஐ பத்து வகையாகப் பிரிக்கின்றனர். இது தவிர श्रृंगार रस - संयोग श्रृंगार என்றும் என்றும் பிரிந்து रस ஹிந்தியில் மொந்தம் பதினொரு வகையாக வழங்கப்பட்டு வருகிறது.

       காவியங்களை படிக்கும்போதோ அல்லது கேட்கும் போதோ, அந்த காவியங்களின் கருத்திற்கொப்ப மகிழ்ச்சியோ, துக்கமோ அல்லது வேறு பல உணர்வுகளையோ நாம் வெளிப்படுத்துகிறோம். அவ்வாறே நாடகமோ, சினிமாவோ காணும்போதும் இத்தகைய உணர்வுகளை நாம் வெளிப்படுத்துகிறோம்.

         எனவே रस இல்லாமல் காவியமோ, கவிதையோ இயற்ற முடியாது என நமக்கு தெளிவாகிறது.


रस निष्पत्ति

    रस எப்படி அமைய வேண்டும் என்பதை भरत मुनि என் தன்னுடைய என்ற நூலில் கூறியுள்ளார்.


विभावानुभावव्यभिचारि संयोगाद्रसनिष्पत्तिः 

இந்த இலக்கணத்தை பின்வருமாறும் கூறலாம்.

भाव विभाव अनुभाव 

संचारी भाव संयोगात्

रस निष्पत्ति”

      எனவே, स्थायी भाव , विभाव ,अनुभाव,  और संचारी भाव ஆகியவைகளின் துணையுடன் தான் VHI அமைக்க முடியும் என்பது நன்கு தெளிவாகிறது. இனி இவைகளை ஒவ்வொன்றாகப் பார்ப்போம்.


1. स्थायी भाव :

       மனிதர்களாகிய நாம் ஒவ்வொருவரின் உள்ளத்திலும் சில நிலையான உணர்வுகள் இருக்கின்றன. ஒரு நிகழ்ச்சியையோ அல்லது காட்சியையோ காணும்போது அந்த உணர்வுகள் விழித்துக் கொள்கின்றன. அதைத்தான் நாம் स्थायी भाव   என்று கூறுகிறோம். ஒவ்வொரு रस க்கும் ஒவ்வொரு உணர்வுகள் வீதம் स्थायी भाव  மொத்தம் பத்து வகையாகப் பிரிக்கலாம். அவை இங்கே கீழே கொடுக்கப்பட்டுள்ளன.


                          स्थायी भाव

श्रृंगार   இன்பச்சுவை  रति/प्रेम   அன்பு

हास्य   நகைச்சுவை    हास    சிரிப்பு

करुण  அவலச்சுவை  शोक  சோகம்

रौद्र  வெகுளிச்சுவை क्रोध  கோபம்

वीर    வீரச்சுவை   उत्साह  உற்சாகம்

भयानक  அச்சச்சுவை  भय  பயம்

बीभत्स  இளிவரல்சுவை  जुगुप्सा / घृणा வெறுப்பு

अद्भुत  வியப்புச்சுவை  विस्मय  ஆச்சரியம்

शांत  சமநிலைச்சுவை निर्वेद பற்றின்மை

वात्सल्य  மழலை/பரிவுச்சுவை ममता தாய்/தந்தை பாசம்

2. विभाव

        நம் உள்ளத்திலிருக்கும் உணர்வு எந்த காரணங்களினால் தட்டி எழுப்பப்படு கின்றனவோ அதை विभाव  என்று கூறுகிறோம். அதனை आलंबन विभाव  என்றும் -  उद्दीपन विभाव என்றும் இரண்டு விதமாக பிரிக்கலாம்.

आलंबन विभाव

       இதை 1.आश्रय  என்றும் 2. विषय என்றும் இரண்டாகப் பிரிக்கின்றனர்.


1.आश्रय : யாருடைய மனதில் சோகம். கருணை. பயம் போன்ற  स्थायी भाव  உண்டாகிறதோ அதை आश्रय என்பர். 

2. विषय: யார் மீது சோகம். கருணை. பயம் போன்ற स्थायी भाव ஏற்படுகிறதோ அதை विषय என்று கூறுவர்.

उद्दीपन विभाव:  विषय  வின் दशा  (நிலைமை) மற்றும் परिस्थित  (சூழ்நிலை) ஆகியவைகளைப் பற்றி கூறுவது उद्दीपन विभाव ஆகும்.


3. अनुभाव :

 आश्रय வின் दशा  (நிலைமை) மற்றும்  कार्यकलाप (செயல்கள்) ஆகியவைகளைப் பற்றி கூறுவது अनुभाव ஆகும்.


4.संचारी भाव  :

   स्थायी भाव ல் வருகிற பத்துவகை உணர்வுகளைத் தவிர இன்னும் சில உணர்வுகளும் உள்ளன. அவைகளை संचारी भाव  என கூறுகிறோம். व्यभिचारी  என்றும் இதை கூறுவர். இது முப்பத்தி மூன்று வகைப்படும். அவைகள் கீழே கொடுக்கப்பட்டுள்ளன.


1. उदासीनता    2. ग्लानी        3. शंका

4. असूया         5. मद            6. श्रम

7. आलस्य        8. दैन्य           9. चिन्ता

10. मोह          11. स्मृति        12. धृति

13. लज्जा       14. चपलता    15. हर्ष

16. आवेग       17. जडता      18. गर्व

19. विषाद       20. औत्सुक्य  21. निद्रा

22. अपस्मार   23. स्वप्न         24. जगना

25. अमर्ष       26. गोपन       27. उग्रता

28. मति         29. व्याधि      30. उन्माद

31. त्रास         32. वितर्क      33. मरण


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छंद - மாத்திரை / எண்களைக் குறிக்கும் வார்த்தைகள்

 

           छंद 

எண்களைக் குறிக்கும் வார்த்தைகள்

சில வார்த்தைகள் எண்களை குறிக்கும் வண்ணம் இருப்பதுண்டு அவைகளை ஹிந்தியில் सूचक शब्द என்பர்.

தமிழில் சில 1  3/4 தையனா வருகிறான் என்பார்கள். அப்படியென்றால் என்ன என்று நமக்குப் புலப்படாது. சிறிது சிந்தித்துப் பார்த்தோமானால் தமிழ் எண் 1 என்பது 'க'.
1/4 என்பது 'ழு' அதோடு 'தை' சேர்த்தால் 1 3/4தை 'கழுதை'. அதாவது கழுதை வருகிறான் என்பதை இவ்வாறு சூசகமாக கூறியிருக்கிறான் எனப் புரியும்.

அதேபோல், அவர் 8  1/4 லட்சணம் கொண்டவர் என்றால் என்னவென்று புரியாமல் முழிப்போம். தமிழ் எண் 8 என்பதற்கு 'அ' 1/4 என்பதற்கு 'வ'. 
எனவே 8  1/4 லட்சணம் என்றால் 
அவ லட்சணம் என்று பொருள்.



சரி, ஹிந்தியில் சில छंद களில் சில வார்த்தைகளுக்கு சில எண்ணிக்கைகள் வழங்குகிறோம். உதாரணமாக सरिता  (13 மாத்திரைகள் என்றும்) - दिन (7 மாத்திரைகள் என்றும்) श्रृंगार (16 மாத்திரைகள் என்றும்) रत्न (14 மாத்திரைகள் என்றும்) रवि (7 மாத்திரைகள் என்றும்) ஆகியவைகளை கூறலாம். இவைகளுக்கு எவ்வாறு மாத்திரைகள் கொடுக்கப்படுகின்றன என்னும் தாத்பர்யத்தை ஆராய்வோம்.

* பிரபஞ்சத்தில் பரமாத்மா ஒருவரே! எனவே பரமாத்மா என்ற வார்த்தைக்கு 1 மாத்திரை என்று கொள்ளலாம்.

* உலகில் ஆண், பெண் ஜாதி இரண்டு. மனிதர்களுக்கு கண்கள் இரண்டு. பாம்பிற்கு நாக்கு இரண்டு. சுக்லபக்ஷம், கிருஷ்ணபக்ஷம் என்பது இரண்டு. எனவே जाति  / आँख / सर्प का जीभ / पक्ष/ ஆகியவைகள் இரண்டு மாத்திரைகள் எனலாம்.

பொதுவாக யானைக்கு தந்தம் இரண்டு ஆனால் யானை முகம் கொண்ட பிள்ளையாருக்கு ஒரு தந்தம் தான் உள்ளது. (ஒரு தந்தத்தை ஒடித்து மஹாபாரதம் எழுதியதாக புராணக்குறிப்பு உண்டு) எனவே गणेश का दंत என்றால் ஒரு மாத்திரை என்று கொள்ள வேண்டும்.

சிவனுக்கு நெற்றிக் கண்ணும் சேர்த்து மூன்று கண்கள் உள்ளன. எனவே அவரை त्रिनेत्र (த்ரிநேத்ரன்) என்றும் அழைப்பதுண்டு. ஆகையால் त्रिनेत्र என்றால் மூன்று மாத்திரைகள் எனக் கொள்ளலாம்.


7 தினங்கள் ஒரு வாரம் ,7 ஸ்வரங்கள் ஒரு ராகம் , 7 முறைதான் பிறவி வரும். எனவே   दिन, स्वरम्, लयम என்ற வார்த்தைகளுக்கு 7 மாத்திரைகள் என பொருள் கொள்ளலாம்.

மேற்கூறிய விபரங்களை மனதில் கொண்டு ஒவ்வொரு எண்ணுக்கும் என்னென்ன வார்த்தைகள் பயன்படுத்திக் கொள்ளலாம் என்பதை கீழே விவரித்துள்ளோம். பயன்படுத்திக் கொள்க.

எண் 1 க்கு मुख, आत्मा, परमात्मा, मन, सूर्य, चंद्र, हाथी का 
                         सूँड, गणेश का दंत, ऐरावतं (இந்திரனின் 
                         யானை ) शुक्राचार्य की आँखें आदि। 

எண் 2 க்கு   नदी के तट, कान, सींग, अयन, साँप की जीभ, 
                           पक्ष, आँख, भुजा आदि ।

எண் 3 க்கு   भुवन, कालिदास के काव्य, त्रि शंख की रेखा, 
                           काल, शिव के नेत्र आदि ।

எண் 4 க்கு  उपाय, सेना के अंग, विष्णु की भुजाएँ, वर्ण 
                         आश्रम, वेद, युग आदि ।

 எண் 5 க்கு  गायत्री के मुख, पांडव, पंच भूत, पंचेंद्रिय, 
                          स्वर्ग के तरु, महाकाव्य

எண் 6 க்கு  रस, राग, वेदांत, ऋतु आदि । 

எண் 7 க்கு वार, दिन, गिरि, ताल, स्वर, ऋषि आदि ।

எண் 8 க்கு  गज, छाप, दिशाएँ, याम, योग, ब्रह्मा के कान ।

எண் 9 க்கு  रस, नाडी, ग्रह, निधि ।

எண் 10 க்கு  दशा, दोष, रावण के सिर, अवतार, अंगुलियाँ,    
                            ब्रह्मा के कान, अवस्था आदि।
  
எண் 11 க்கு  रूद्र, दुर्योधन की सेना।

எண் 12 க்கு  सूर्य, राशि, मास, भूषण, कार्तिकेय के नेत्र आदि 

எண் 13 க்கு  किरण, नदी, सरिता आदि ।

எண் 14 க்கு भुवन, रत्न, विद्या, मनु, यम आदि।
 
எண் 15 க்கு  तिथि।
 
எண் 16 க்கு श्रृंगार, संस्कार।

எண் 17 க்கு संगम ।

எண் 18 க்கு  पुराण, स्मृति, विद्या ।

எண் 19க்கு  द्वीप। 

எண் 20 க்கு नख, विष्णु की अंगुलियाँ, रावण की आँखें। 

எண் 27க்கு  नक्षत्र ।

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Sunday, December 12, 2021

PRAVEEN UTTARARDH     रश्मि रथी  RASHMIRATI 'रश्मिरथी' में प्रदर्शित सामाजिक आदर्श सिद्ध कीजिए।

 

PRAVEEN UTTARARDH 

    रश्मि रथी  RASHMIRATI

'रश्मिरथी' में प्रदर्शित सामाजिक आदर्श सिद्ध कीजिए।


       समाज और मानव का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। एक के बिना दूसरा अधूरा रह जाता है और जीवन का अत्यधिक प्रभाव समाज पर पड़ता है। सभ्यता और संस्कृति समाज की दो आँखें है और इन दोनों का संबंध समाज से है। इन दोनों के उत्थान पतन में समाज का उत्थान-पतन निहित रहता है। उनकी विषम प्रथाओं से समाज भी विषाक्त वन आता है। आज सभ्यता के शिखर पर चढ़कर मानव सांस्कृतिक क्षेत्र से बहुत दूर और मन से पिछड़े हुए हैं।

      'रश्मिरथी' खडकाव्य श्री रामधारी सिंह दिनकर जी की विश्वप्रसिद्ध रचना है। वे नवभारत के निर्माण की आकांक्षा से आन्दोलित कवि थे। उनके यौवन में समाजवाद की आँधी रूस से चलकर सारे विश्व में फैल रही थी तथा विश्वयुद्ध की विभीषिका मानवता को मरणासन्न करने का यत्न कर थी। दिनकर की लेखनी मचल उठी और तात्कालिक सामाजिक परिस्थिति का विश्लेषण उन्होंने प्राचीन भारत की एक चिर-परिचित घटना के परिप्रेक्ष्य में करने का यत्न किया है। 'रश्मिरथी' खडकाव्य में कवि दिनकर ने एक नहीं, अनेक सामाजिक आदर्श प्रस्तुत किये हैं।

        कवि दिनकर जातिवादिता के भीषण पाश में बंधे भारतीय समाज की करुणावस्था से अत्यंत चिंतित थे। प्राचीन मनीषियों ने वर्णाश्रम का विधान श्रम विभाजन सिद्धान्त के आधार पर बनाया था, न कि जन्म से उच्चता निम्नता प्राप्त करने के लिए। किन्तु सभी भारतीय आदशों की तरह यह जातिभेद भी समाज में विकृत रूप लेकर राज करने लगा था। दिनकर भारतीय संस्कृति के आराधक हैं तथा इस गलत बात को रोष के साथ प्रकट करते हैं कि भारतीय समाज में जो कृत्रिम तथ्य रोपे जा रहे हैं, उनका नाश करना ज़रूरी है। इन्सान की कद्र उसके गुणों से है, न कि जाति से। (प्रथम सर्ग में) कर्ण के माध्यम से कवि कहते हैं

       “जाति-पाँति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषण्ड, 
       मैं क्या जानूँ जाति? जाति हैं ये मेरे भुजदण्ड।”

      कवि दिनकर समाजवादी थे। समाज में उत्पादन के साधनों पर अधिकार किये बैठे शोषक वर्ग तथा अपने अधिकारों से वंचित शोषित वर्ग का संघर्ष चिरन्तन बना हुआ है। वास्तव में सभी सामाजिक विभेदों का कारण शोषक वर्ग का अत्याचार ही है। कर्ण पददलित वर्ग का प्रतिनिधि बनकर हमारे सामना आया है तथा पूरे प्राणप्रण से परिस्थिति से जूझकर, अपना स्वयं निर्माण करता है। कर्ण का उद्वेग, संघर्ष, पददलित वर्ग का संघर्ष है तथा उसकी विजय भी पददलितों को ही समर्पित है।

       कवि दिनकर युद्ध को मानवता की हार मानते हैं, गाँधीवादी कवि किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए युद्ध करने की दलील को स्वीकार नहीं कर पाते। कभी धर्म की रक्षा के लिए कभी न्याय की स्थापना के लिए और कभी मानवीय अधिकारों को बचाने के लिए युद्ध का उपक्रम किया जाता है। परन्तु सच्चाई तो यह है कि युद्ध में मानव ही नहीं मरते वरन्, मानवता भी किसी अंधेरे रक्त रंजित कोने में खड़े आँसू बहाती है, कराहती है। लक्ष्य-प्राप्ति से ज़्यादा महत्व होता है उन प्रयासों का जो कि लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनाये जाते हैं और यह सर्वविदित है कि युद्ध में हिंसा का ही प्राधान्य होता है।

       कवि दिनकर महाभारत के युद्ध को धर्मयुद्ध कहना स्वीकार नहीं करते। समाज के लिए युद्ध को एक अभिशाप मानते हैं तथा कहते हैं कि युद्ध चाहे कोई भी हो वह छल, कपट, धूर्तता और हिंसा से ही लड़ा जा सकता है, जीत चाहे किसी भी पक्ष की हो, किन्तु हार हमेशा मानवीय मूल्यों की होती है। कर्ण स्वयं महान वीर हैं तथा ऋणमुक्त होने के लिए दुर्योधन के पक्ष से युद्ध करने के लिए आतुर है, तथापि उसकी आत्मा युद्ध को क्षेम नहीं स्वीकार करती। कर्ण एक उच्च कोटि का कर्मयोगी हैं तथा साथ ही ज्ञानी भी है। वह भी युद्ध को श्रेष्ठ नहीं मानता, सिर्फ़ व्रत पालने के लिए लड़ना चाहता है। भीष्म कहते हैं

 “मानवता ही मिट जाएगी, फिर विजय सिद्धि क्या लाएगी?

     कर्ण उत्तर में विनम्र होकर कहता है--

 "हे पुरुष सिंह! कर्ण ने कहा, अब और पन्थ क्या शेष रहा?       
 संकटापन्न जीवन-समान, है बीच सिंधु और महायान;
 इस पार शान्ति, उस पार विजय? अब क्या हो भला नया निश्चय?”

      कर्ण कर्तव्य पालन की एक नयी मिसाल खड़ा करता है। स्वयं एक उच्च कोटि का योगी तथा महामानव भी वह सिर्फ़ कर्तव्य निभाने की खातिर अन्त तक दुर्योधन के सभी कुकर्मों को समझते हुए भी उसके पक्ष में होते हुए बना रहा। भगवान कृष्ण से अपने जीवन की कथा सुनकर भी वह शांत रहा। कृष्ण ने उसे पाण्डवों के अग्रज होने के कारण राज्यभार तथा सम्मान दिलाने का आश्वासन दिया, पर कर्ण ने नम्रता से उस कूटनीतिक संधि को ठुकरा दिया स्वयं भगवान सूर्य उसे उसकी जन्म-गाथा सुनाकर सचेत करते हैं पर वह उसपर भी अधिक ध्यान न देकर इंद्र को कवच-कुण्डल दान में दे देता है; दान देता है- दान देना कर्तव्य समझकर। जननी कुन्ती के प्रलाप तथा अनुनय विनय से भी कर्ण का मन नहीं डोलता और दुर्योधन का साथ देना वह अपना परम कर्तव्य मानता है।

         शर-शय्या पर लेटे भीष्म पितामह भी कर्ण को कर्तव्य-पथ से च्युत नहीं कर सके। कर्ण यश या धन की आकांक्षा नहीं करता है, न कि राज्य-प्राप्ति की आशा रखता है; वह केवल दलितों के प्रतिनिधि के रूप में सामाजिक कुरीतियों से संघर्ष कर न्याय की स्थापना करना चाहता है। कठोर कर्मशील रहकर अपने मित्र के प्रति अन्त तक वफ़ादार रहकर त्याग और मैत्री की, कर्तव्यपरायणता और वीरता की एक नयी परम्परा स्थापित करता है। सप्तम सर्ग में स्वयं कृष्ण के मुख से कर्ण की प्रशंसा निकल आती है

        “मगर, जो हो, मनुज सुवसिष्ठ था वह ।
          धनुर्धर ही नहीं, धर्मनिष्ठ था वह।
           तपस्वी, सत्यवादी था, व्रती था,
           बड़ा ब्राह्मण था, मन से यती था।"

           इस प्रकार हम 'रश्मिरथी' में एक नवीन सामाजिक आदर्श की रूपरेखा पाते हैं। कवि दिनकर ने जातिभेद रहित, शोषिण-रहित, युद्ध की विभीषिका रहित एक ऐसे समाज की स्थापना की इच्छा व्यक्त की है, जो मानव और मानवीय मूल्यों का सम्मान करता है। समाज के सदस्य के रूप में व्यक्ति को त्यागी, कर्तव्यपरायण तथा कर्मठ होने का संकेत कवि ने दिया है। मनुष्य को हमेशा साधन की पवित्रता का ध्यान रखना है, न कि सिर्फ़ साधना की आकांक्षा। व्यक्ति को हमेशा न्याय एवं सत्य के पथ का ही अनुकरण करना है।

        'रश्मिरथी' खंड काव्य मात्र पौराणिक कथा की नवीन विवेचना नहीं है। वह एक ठोस सामाजिक आदर्श प्रदर्शित करने का सफल माध्यम बन पड़ा है।






PRAVEEN UTTARARDH /रश्मि रथी /RASHMIRATI /व्याख्यान-माला / प्रथम सर्ग I. संदर्भ सहित व्याख्या :      

 

PRAVEEN UTTARARDH 

    रश्मि रथी  RASHMIRATI



EXPECTED QUESTIONS ALL TIME 

         व्याख्यान-माला

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                         प्रथम सर्ग

I. संदर्भ सहित व्याख्या :              

1. 'जय हो' जग में जले...........शक्ति का मूल ।

       संदर्भ: प्रस्तुत पद्यांश दिनकर द्वारा रचित 'रश्मिरथी' के प्रथम सर्ग से लिया गया है। प्रसंग : इस पद्यांश को 'रश्मिरथी' का मंगलाचरण मान सकते हैं। इस पद्य में कवि ने संसार के वीरों और गुणशाली व्यक्तियों के प्रति अपनी श्रद्धा अर्पित की है।

        व्याख्या : कवि कहता है कि संसार में कहीं भी प्रतिभा हो, किसी में भी गुण हो, मैं उसका अभिनन्दन करता हूँ। प्रतिभा कहीं भी हो वह पूजनीय है, गुण किसी भी व्यक्ति में हो वह वन्दनीय है। केवल राजवाटिकाओं में खिले फूल मात्र फूल नहीं कहलाते, कानन कुञ्जों के कुसुम भी फूल ही हैं। कहीं भी, किसी भी डाली पर फूल खिले लेकिन वह सुन्दर अवश्य है। उसमें भी, आह्लादक शक्ति ज़रूर होती है और इसलिए तो सुधीजन गुणों का आदि नहीं देखते। सच्चे ज्ञानी शक्ति के मूल की ओर ध्यान नहीं देते। वे तो गुणों की शक्ति की परख करते हैं। कबीर ने ठीक ही कहा है

      “जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान ।

        मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ।”

          जिस प्रकार म्यान असली वस्तु न होकर तलवार ही असली वस्तु है। उसी प्रक गुण और शक्ति को छोड़कर उनके आदि और मूल के चक्कर में पड़ना तो व्यर्थ ही है । गुण ही मूल है जाति नहीं।

       विशेषता : प्रस्तुत पंक्तियों की भाषा में प्रसाद और ओजगुण का अद्भुत समन्वय हुआ है। भाषा में अपूर्व प्रवाह द्रष्टव्य है। प्रथम पंक्ति में 'ज' व्यंजन-वर्ण की अनेक बार आवृत्ति के कारण वृत्यानुप्रास अलंकार है। कवि ने इस प्रकार जो गुण और शक्ति की वन्दना की है, वह सकारण है। यों कुल या जाति की दृष्टि से कर्ण बड़े न थे, किन्तु गुण और शक्ति में अप्रतिम अवश्य थे।


2. जलद पटल में...........पहली आग।

      संदर्भ : प्रस्तुत पद्य-भाग दिनकर द्वारा विरचित काव्य 'रश्मिरथी' के प्रथम सर्ग से लिया गया है।

      प्रसंग : प्रथम सर्ग में कवि काव्य-नायक कर्ण के तेज प्रताप का परिचय दे रहे हैं।

      व्याख्या : कवि पूछते हैं कि सूर्य कब तक बादलों के पीछे छिपा रह सकता है? जो वास्तव में शूरवीर होता है, वह कब तक अपने समाज की अवहेलना सुनकर चुप रह सकता है? कर्ण ऐसा ही शूर साहसी पुरुष था जिसके लिए आन जान से प्यारी थी। एक दिन समय पाकर उसके यौवन का वीर्य जाग उठा। अर्जुन जैसा धनुर्धर और भीमसेन जैसा मल्ल होते हुए भी कृपाचार्य, द्रोणाचार्य आदि ने उसे सूतपुत्र कहकर अवहेलना की तो कर्ण के पौरुष की आग सबके सामने फूट पड़ी। उसने अपनी धनुर्विद्या से साबित कर दिया कि वह सूतपुत्र नहीं, बल्कि सूर्यपुत्र है।

3. मस्तक ऊँचा..............अंगूठे का दान।

      संदर्भ : यह पद्यांश रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित 'रश्मिरथी' के प्रथम सर्ग से लिया गया है।

      प्रसंग : कृपाचार्य से धनुर्विद्या सीखने के बाद कौरव-पांडव राजकुमारों की परीक्षा चल रही थी। सभी जन धनुर्विद्या में अर्जुन के अद्भुत कौशल की प्रशंसा कर रहे थे, सूतपुत्र कर्ण ने अर्जुन को ललकारा। इसपर कृपाचार्य ने कर्ण की जाति और गोत्र पूछ लिया। उनका संकेत था कि उच्च वर्ण के वीरों को ही अपनी कला-निपुणता दिखाने की अनुमति है। द्रोणाचार्य ने भी इसका समर्थन किया।

        व्याख्या : आचार्यों ने आपत्ति उठाई तो कर्ण ने विरोध किया। जाति के नाम पर मानव-मानव में भेद करना उसे बुरा लगा। उसने आचार्यों को भी अपने तर्क बाणों से बेधना शुरू कर दिया। कर्ण ने कहा- आप लोग सिर ऊँचा उठाये अपनी जाति और कुलगौरव पर गर्व करते हैं। लेकिन आपका आचरण धर्म सम्मत नहीं है। दूसरों का शोषण करके उनकी मेहनत का फल लूटते हैं और सुख और भोग-विलास में डूबे रहते हैं। निम्न जाति के लोगों को देखकर आपके प्राण थर-थर काँपते हैं। उनमें से यदि कोई आपकी तरह कला-निपुणता दिखाता है तो कपट से उसका अंगूठा काट लेते हैं। कर्ण यहाँ द्रोणाचार्य पर कटाक्ष करता है, जिन्होंने गुरु दक्षिणा के रूप में निम्नजाति के एकलव्य का अंगूठा माँगा था।


4. किया कौन-सा.............प्राण, दो देह ।

     संदर्भ : यह पद्यांश दिनकरजी की कृति 'रश्मिरथी' के प्रथम सर्ग से लिया गया है।

     प्रसंग : जब आचार्यों ने कर्ण की जाति और गोत्र पूछकर उसे अपमानित किया तो सारी सभा मूक साक्षी होकर यह दृश्य देख रही थी। दुर्योधन ने आगे बढ़कर कर्ण को अंगदेश का राजा घोषित कर दिया। कर्ण ने दुर्योधन के इस व्यवहार से गद्गद् होकर आभार व्यक्त किया तो दुर्योधन ने कहा कि उसने कोई बड़ा त्याग नहीं किया है।

       व्याख्या : ओ मेरे मित्र! मैंने आज तुम्हें एक राज्य दे दिया तो यह कौन-सा बड़ा त्याग हुआ। तुम्हारी वीरता के आगे मेरा यह दान कुछ भी नहीं है। मेरे लिए तुम्हारी मित्रता बहुमूल्य है । यदि तुम मुझे मित्र के रूप में स्वीकार करो तो मैं कृतार्थ हो जाऊँगा । दुर्योधन के इन वचनों को सुनकर कर्ण पसीज गया, उसने कहा मुझ अकिंचन पर तुम्हारा इतना स्नेह ? तुम मेरी मित्रता चाहते हो न? मैं कहता हूँ कि आज से हम अभिन्न मित्र बन गये। अर्थात् हम भले ही दो शरीर के है मगर एक प्राण हो जाएँ। तुम्हारे सारे सुख-दुख मेरे हैं। अंत तक मैं तुम्हारी इस कृपा को भूलूँगा नहीं और हर संकट से तुम्हें उबारूँगा। 


5. सोच रहा हूँ................तू भी हे तात!

       संदर्भ : यह पद्यांश दिनकरजी से रचित 'रश्मिरथी' के प्रथम सर्ग से लिया गया है।

      प्रसंग : रंगभूमि में कर्ण के प्रकट होकर अर्जुन को ललकारने से तथा कृपाचार्य द्वारा जाति पूछकर कर्ण का अपमान करने से रंग में भंग हुआ। दुर्योधन ने कर्ण से भीम को मल्लयुद्ध के लिए ललकारने को कहा तो कृपाचार्य ने शिष्यों को घर लौटने का आदेश दिया। तब द्रोण ने चिंतित भाव से अर्जुन से कहा।

      व्याख्या : द्रोणाचार्य आज तक समझते थे कि अर्जुन ही अद्वितीय धनुर्धर है। जब उन्हें संदेह हुआ कि एकलव्य एक दिन अर्जुन का प्रतिद्वंद्वी बन सकता है, उन्होंने उसका अंगूठा काटकर अर्जुन के मार्ग को कंटक-रहित बना दिया। लेकिन आज रंग-भूमि में कर्ण द्वारा अर्जुन को ललकारने से रंग में भंग हो गया। इससे चिंतित होकर द्रोण अर्जुन से कहते हैं--

        वत्स अर्जुन! यह जो वीर आज तुम्हारा प्रतिद्वंद्वी बनकर प्रकट हुआ है, उसे देखकर मेरा चित्त विचलित हो गया। क्योंकि कर्ण के अंदर वीरता और साहस के लक्षण मिलते हैं। मैं सोच रहा हूँ कि इस प्रकाशमान नक्षत्र का तेज किस प्रकार कम किया जा सकता है। लेकिन एक बात निश्चित है। मैं कभी भी कर्ण को अपना शिष्य न बनाऊँगा। यह उत्कट वीर है, इसमें कोई संदेह नहीं। इसलिए हे वत्स, तुम इस प्रतिभट के प्रति हमेशा सावधान रहना।


              द्वितीय सर्ग


I. संदर्भ सहित व्याख्या :

1. आई है वीरता तपोवन.............आया है?

       संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश दिनकर द्वारा रचित 'रश्मिरथी' के द्वितीय सर्ग से लिया गया है।

       प्रसंग : इस पद्यांश में परशुराम की कुटी का परिचय है। परशुराम की कुटी के पास एक ओर कमंडल आदि तप के साधन और दूसरी ओर धनुष-बाण और तीर-बरछे देखकर कवि आश्चर्यजनक ढंग से कहता है कि यह किसकी कुटी हो सकती है? यह तपोभूमि है, या युद्धक्षेत्र! क्या किसी मुनि की कुटी है? नहीं, नहीं! हो सकता है कि मुनि के ही धनुष-कुठार हो! लेकिन मुनि तलवार उठा सकते हैं? नहीं, शायद नहीं ।

      व्याख्या : कवि के मन में तरह-तरह की बातें उठ रही हैं। कवि कहता है कि सम्भव हैं, वीरता तपोवन में पुण्य कमाने आयी है। हो सकता है कि कोई वीर ही युद्ध के भीषण स्थितियों को देखकर वैरागी हो गया हो और पुण्य की प्राप्ति के लिए तप कर रहा हो। ऐसी बात तो नहीं है कि कोई सन्यासी अपनी साधना में शारीरिक शक्ति का भी विकास कर रहा हो? ऐसा तो नहीं कि मन ने शरीर की सिद्धि का उपाय शस्त्रों के रूप में पाया हो? कौन जाने, कोई वीर ही यहाँ योगी से कुछ युक्ति सीखने आया हो ।

         विशेषता : परशुराम के कुटीर के पास एक ओर धनुष और दूसरी ओर कमंडल को देखकर कवि आश्चर्यचकित है । उसे सन्देह हो रहा है कि यह किसी वीर का कुटीर है अथवा किसी सन्यासी का आश्रम! प्रस्तुत पद्यावतरण में उपमेय में उपमानों की सम्भावना के कारण सन्देह अलंकार है। 'सन्यास-साधना' में 'स' की आवृत्ति के कारण वृत्यानुप्रास अलंकार है। भाषा में प्रसाद गुण विद्यमान है।


2. खड्ग बड़ा उद्धत होता............करता है।

        संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश दिनकर द्वारा रचित 'रश्मिरथी' के द्वितीय सर्ग से लिया गया है।

        प्रसंग : अपने आश्रम से कुछ दूर हटकर एक वृक्ष की छाया में गुरुवर परशुराम कर्ण की जाँघ पर सिर रखकर सोये हैं। कर्ण को अपने आचार्य की बातें याद आ रही हैं। वे गुरु की अपने प्रति अपार ममता देखकर भक्तिभाव में मग्न हुए जाते हैं। कर्ण इन्हीं भाव-तरंगों में बहते हुए यह सोचते हैं कि क्या विचित्र सामाजिक व्यवस्था है कि विद्या और ज्ञान ब्राह्मणों के घर में हैं, वैभव वैश्यों के पास, तो तलवार के धनी निश्चित रूप से क्षत्रिय हैं। किन्तु तलवार उठानेवाले क्षत्रियों के प्रति कर्ण के विचार उदार नहीं हैं।

         व्याख्या : ये तलवार के पनी मंत्रिय राजे-महाराजे विवेकशील नहीं होते। उनका स्वभाव बड़ा ही उम्र होता है। इसीलिए हर समय वे युद्ध ही चाहते हैं। उनकी महत्वाकांक्षाओं की ज्याला कभी बुझ नहीं पाती। वे सदैव अपनी महत्वाकांक्षों के चलते रण बाह्य बजाते दीखते हैं। ऐसी परिस्थिति में ब्राह्मण क्या करे। ब्राह्मणों के पास विद्या है, वे विवेकशील हे अवश्य, किन्तु उनकी सुनता कौन है? ब्राह्मण विवश हैं। शस्त्र-विहिन होने के कारण यह भयभीत है। चूंकि राजा उनको सम्मान देता है अतः वह भी राजा का आदर करते हैं। 

        विशेषता : 'खड्ग बहा उद्धत होता है' लाक्षणिक पद है। उद्धत होना जह वस्तु का स्वभाव नहीं। अतः लक्षणाशक्ति से हम अर्थ ग्रहण करेंगे कि खड्ग पकड़नेवालों (यहाँ क्षत्रिय राजाओं से तात्पर्य है) का स्वभाव उद्धत होता है।


3. नित्य कहा करते...............का बल भी।

       संदर्भ : यह पद्यांश श्री रामधारी सिंह दिनकर से लिखित 'रश्मिरथी के द्वितीय सर्ग से लिया गया है।

        प्रसंग:  कर्ण ब्राह्मण कुमार के वेश में उस युग के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर परशुराम से अस्त्र विद्या सीख रहा है। एक दिन गुरु परशुराम अपने शिष्य कर्ण की जाँघ पर सिर रखे हुए सो रहे थे। कर्ण गुरु के अद्भुत व्यक्तित्व और कथनों के बारे में विचार कर रहा है। प्रसंग उसी समय का है।

         व्याख्या:  कर्ण ब्रह्मतेज की तुलना में क्षात्रतेज से दीप्त अपने गुरु परशुरामजी के व्यक्तित्व और चरित्र के बारे में सोच रहा है। उसे गुरुजी की एक बात याद आती है। वह सोचता है कि उसके गुरु का कहना सही है कि तलवार बहुत ही भयकारी है। वह हर एक के वश में नहीं आती। तलवार यानी खड्ग उठाने का अधिकार हर किसी को नहीं है। जो शुद्धवीर हो तलवार उसीके वश में आती है। वही वीर पुरुष खड़ग उठा सकता है, जिसका हृदय कठोर होने के साथ कोमल भी हो तथा जिसमें धैर्य हो किसके साथ कठोरता बरतनी चाहिए और कब किसके साथ कोमलता का व्यवहार करना चाहिए, इसका विवेक उसमें होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि शुद्धवीर वहीं है, जिसमें वीरता और पराक्रम हो, साथ में धैर्य और तपस्या का बल भी।


4. हा, कर्ण तू क्यों..........जहाँ सुजान।

       संदर्भ: प्रस्तुत पद्यांश दिनकर द्वारा रचित 'रश्मिरथी' के द्वितीय सर्ग से लिया गया है।

      प्रसंग: कर्ण की जाँघ पर सिर रखकर गुरुवर परशुराम निद्रामग्न है। इसी बीच कर्ण के मन में तरह-तरह के भाव उठ रहे हैं। कर्ण के माध्यम से विकृत जाति व्यवस्था पर दिनकर ने प्रहार किया है।

       व्याख्या: कर्ण सोचता है हाय, उसका जन्म ही क्यों हुआ? यदि कर्ण जन्मा भी तो वीर क्यों हुआ? कर्ण का शरीर कवच-कुण्डल-भूषित था, किन्तु सूतवंश में, चूंकि उसका लालन-पालन हुआ, अतः नीच जाति के माने गये। कर्ण को जाति विभाजित समाज से बड़ी घृणा-सी हो रही है। इस प्रकार के जाति-वर्ण के विचारों से भरे समाज में गुण की पूजा नहीं की जाती। सभी लोग वीरता या विशेषता की परख नहीं करते, सर्वत्र जाति ही पूछते हैं। कर्ण का हृदय हाहाकार कर उठता है। भला ऐसे देश का, जहाँ जाति की ही पहचान की जाती है, गुण की नहीं, कैसे कल्याण सम्भव है। ऐसे देश की उन्नति की आशा नहीं की जा सकती। ऐसे राष्ट्र का पतन अवश्यंभावी है।

         विशेषता : इन पंक्तियों में तत्कालीन जाति-भेद की रूढ़ियों की कटु आलोचना की गयी है। गुण और शक्ति को कवि आरम्भ से ही जाति से अधिक महत्व देता आया है। 

5. परशुराम ने कहा..............कभी न जायेगा।

       संदर्भ: प्रस्तुत पद्यांश दिनकर द्वारा रचित 'रश्मिरथी' के द्वितीय सर्ग से लिया गया है।

       प्रसंग:  जब परशुराम कर्ण की जाँघों पर सिर रखकर सोए थे, उसी समय एक विष-कीट आया और कर्ण की जाँघों को काटने लगा। लेकिन कर्ण अंगों को हिलाये बिना उसे पकड़ नहीं सकता था। क्योंकि इससे गुरुदेव की नींद टूट जाने की सम्भावना थी। अतएव कर्ण कीड़े के काटने का दर्द सहता रहा। जब परशुराम की निद्रा भंग हुई तो उन्होंने पहले तो कर्ण से कहा कि ऐसी गलती क्यों की; बाद में उन्होंने कहा कि अवश्य ही कर्ण ब्राह्मण नहीं, क्षत्रिय है। क्षत्रिय ही इस तरह पीड़ा सह सकता है।

        जब कर्ण अपनी जाति का रहस्य खोल देता है तो परशुराम की क्रोधाग्नि और भी भड़क उठती है। कर्ण झट-से गुरु के चरणों में झुककर कहता है कि सच है, गुरुदेव! मैंने बहुत भारी भूल की। अब आप दण्ड दीजिए उसे मैं ग्रहण करूंगा। जिन आँखों में मेरे लिए स्नेह का जल था, आज उन्हीं से आग बरसाएँ। जिसमें जलकर मैं छल के पाप से पवित्र हो सकूँ किन्तु परशुराम के सामने बड़ी दुविधा है। परशुराम ने कर्ण को स्नेह से अपनी सारी कलाएँ सिखाई थीं वे कर्ण को अपने पुत्र के समान मानते थे अतः बड़ी ही मार्मिक स्थिति है।

        व्याख्या : परशुराम ने कर्ण से कहा- हे कर्ण, तुम मुझे ऐसे आघात मत पहुँचाओं। तुम मेरे मन की दशा नहीं जानते! कर्ण उनके प्रिय शिष्य थे। उनका हृदय कर्ण को दंडित करना नहीं चाहता था परंतु कर्ण ने जो अपराध किया उसके लिए दंड नहीं दिए बिना भी नहीं रहा जा सकता था। वे क्या करें-कुछ समझ नहीं पड़ता था। लेकिन कर्ण के छल के लिए दण्ड देना भी उचित ही था। परशुराम की क्रोधाग्नि यों ही बुझनेवाली न थी ।

         विशेषता : इन पंक्तियों में कवि ने अभिनयात्मक ढंग से परशुराम के चरित्र पर प्रकाश डाला है। वर्णन में  नाटकीयता और प्रवाह है।










Thursday, May 27, 2021

🍉 रस 🍉

 

        🍉 रस 🍉


काव्यपाठ अथवा नाटक देखने से पाठक अथवा दर्शक के मन में जो आनंद उत्पन होता है, उसे ही रस (RAS) कहते हैं


रस का शाब्दिक अर्थ होता है निचोड़! काव्य में जो आनंद आता है काव्य रस होता है रस अन्तकरणः की वह शक्ति होती है जिसके कारण मन कल्पना करता है, स्वपन देखता है और काव्य के अनुसार विचरण करने लगता है

अर्थात काव्य या कविता साहित्य को पढ़ते समय हमें जिस आनंद व रस कि प्राप्ति होती है उसे रस कहते हैं

भरत मुनि ने सर्वप्रथम अपनी कृति नाट्यशास्त्र में रस का प्रयोग किया था


🍅परिभाषा :- जब विभाव अनुभाव तथा संचारी भाव से पुष्ट होकर नाम का स्थायी भाव उत्पन्न होता है वह रस कहलाता है


🍅रस के भेद

समान्यतः रस नौ प्रकार के होते हैं 

परन्तु वात्सल्य रस को दसवां एवं भक्ति रस को ग्यारहवां रस माना गया हैं : 

रस एवं उसके स्थायी भाव क्रमश निम्न प्रकार हैं

[रस]      [स्थायी भाव]     [आसान सी पहचान]

1. श्रंगार रस    रति         स्त्री पुरुष का प्रेम

2. हास्य रस    हास, हँसी     अंगों या वाणी के विकार से उत्पन्न उल्लास या हँसी

3. वीर रस    उत्साह       दया, दान और वीरता आदि को प्रकट करने में प्रसन्नता का भाव

4. करुण रस    शोक         प्रिय के वियोग या हानि के कारण व्याकुलता

5. शांत रस    निर्वेद, उदासीनता  संसार के प्रति उदासीनता का भाव

6. अदभुत रस   विस्मय, आश्चर्य   अनोखी वस्तु को देखकर या सुनकर आश्चर्य का भाव

7. भयानक रस  भय         बड़ा अनिष्ट कर सकने में समर्थ जीव या वस्तु को देखकर उत्पन्न व्याकुलता

8. रौद्र रस    क्रोध         काम बिगाड़ने वाले को दंड देने वाली मनोवृति

9. वीभत्स रस   जुगुप्सा        घिनौने पदार्थ को देखकर होने वाली ग्लानि

10. वात्सल्य रस वात्सल्यता, अनुराग संतान के प्रति माता-पिता का प्रेम भाव

11. भक्ति रस     देव रति         ईश्वर के प्रति प्रेम



🍓श्रंगार रस🍓

इसका स्थाई भाव रति होता है नायक और नायिका के मन में संस्कार रूप में स्थित रति या प्रेम जब रस कि अवस्था में पहुँच जाता है तो वह श्रंगार रस कहलाता है इसके अंतर्गत सौन्दर्य, प्रकृति, सुन्दर वन, वसंत ऋतु, पक्षियों का चहचहाना आदि के बारे में वर्णन किया जाता है

⏺उदाहरण

दरद कि मारी वन-वन डोलू वैध मिला नाहि कोई

मीरा के प्रभु पीर मिटै, जब वैध संवलिया होई

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई

जाके सिर मोर मुकुट मेरा पति सोई

बसों मेरे नैनन में नन्दलाल

मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, अरुण तिलक दिये भाल

इसी बावले से मिलने को डाल रही है हूँ मैँ फेरा

कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात

भरे भौन में करत है, नैननु ही सौ बात


🤣 हास्य रस 🤣

इसका स्थाई भाव हास होता है इसके अंतर्गत वेशभूषा, वाणी आदि कि विकृति को देखकर मन में जो विनोद का भाव उत्पन्न होता है उससे हास की उत्पत्ति होती है इसे ही हास्य रस कहते हैं

⏺उदाहरण

विन्ध्य के वासी उदासी तपो व्रत धारी महा बिनु नारि दुखारे

सीरा पर गंगा हसै, भुजानि में भुजंगा हसै

ह्रै ह्रै सिला सब चन्द्रमुखी परसे पद मंजुल कंज तिहारे

कीन्ही भली रघुनायक जू! करुना करि कानन को पगु धारे


🤨 वीर रस 🤨

इसका स्थायी भाव उत्साह होता है इस रस के अंतर्गत जब युद्ध अथवा कठिन कार्य को करने के लिए मन में जो उत्साह की भावना विकसित होती है उसे ही वीर रस कहते हैं इसमें शत्रु पर विजय प्राप्त करने, यश प्राप्त करने आदि प्रकट होती है

चढ़ चेतक पर तलवार उठा करता था भूतल पानी को

बुंदेले हर बोलो के मुख हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी

मानव समाज में अरुण पड़ा जल जंतु बीच हो वरुण पड़ा

इस तरह भभकता राजा था, मन सर्पों में गरुण पड़ा

क्रुद्ध दशानन बीस भुजानि सो लै कपि रिद्द अनी सर बट्ठत

लच्छन तच्छन रक्त किये, दृग लच्छ विपच्छन के सिर कट्टत कै शूरा कै भक्त कहाय

हम मानव को मुक्त करेंगे, यही विधान हमारा है

सामने टिकते नहीं वनराज, पर्वत डोलते हैं,

कौतता है कुण्डली मारे समय का व्याल

मेरी बाँह में मारुत, गरुण, गजराज का बल है


😟करुण रस😧

इसका स्थायी भाव शोक होता है इस रस में किसी अपने का विनाश या अपने का वियोग, द्रव्यनाश एवं प्रेमी से सदैव विछुड़ जाने या दूर चले जाने से जो दुःख या वेदना उत्पन्न होती है उसे करुण रस कहते हैं यधपि वियोग श्रंगार रस में भी दुःख का अनुभव होता है लेकिन वहाँ पर दूर जाने वाले से पुनः मिलन कि आशा बंधी रहती है

अर्थात् जहाँ पर पुनः मिलने कि आशा समाप्त हो जाती है करुण रस कहलाता है इसमें निःश्वास, छाती पीटना, रोना, भूमि पर गिरना आदि का भाव व्यक्त होता है

या किसी प्रिय व्यक्ति के चिर विरह या मरण से जो शोक उत्पन्न होता है उसे करुण रस कहते है

⏺उदाहरण

हाय राम कैसे झेलें हम अपनी लज्जा अपना शोक

गया हमारे ही हाथों से अपना राष्ट्र पिता परलोक


हुआ न यह भी भाग्य अभागा

किस पर विकल गर्व यह जागा

रहे स्मरण ही आते


हुए कल ही हल्दी के हाथ

खुले भी न थे लाज के बोल

हाय रुक गया यहीं संसार

बना सिंदूर अनल अंगार

वातहत लतिका वह सुकुमार

पड़ी है छिन्नाधार!


धोखा न दो भैया मुझे, इस भांति आकर के यहाँ

सीता गई तुम भी चले मै भी न जिऊंगा यहाँ

सुग्रीव बोले साथ में सब (जायेंगे) जाएँगे वानर वहाँ

क्या कहूँ, आज जो नहीं कहीं

रही खरकती हाय शूल-सी, पीड़ा उर में दशरथ के

ग्लानि, त्रास, वेदना - विमण्डित, शाप कथा वे कह न सके


इसका स्थायी भाव निर्वेद (उदासीनता) होता है इस रस में तत्व ज्ञान कि प्राप्ति अथवा संसार से वैराग्य होने पर, परमात्मा के वास्तविक रूप का ज्ञान होने पर मन को जो शान्ति मिलती है वहाँ शान्त रस कि उत्पत्ति होती है जहाँ न दुःख होता है, न द्वेष होता है मन सांसारिक कार्यों से मुक्त हो जाता है मनुष्य वैराग्य प्राप्त कर लेता है शान्त रस कहा जाता है

⏺उदाहरण

सब अँधियारा मिट गया जब दीपक देख्या माहिं 

देखी मैंने आज जरा

हो जावेगी क्या ऐसी मेरी ही यशोधरा

हाय! मिलेगा मिट्टी में वह वर्ण सुवर्ण खरा

सुख जावेगा मेरा उपवन जो है आज हरा

लम्बा मारग दूरि घर विकट पंथ बहुमार


देख यशोदा शिशु के मुख में, सकल विश्व की माया

क्षणभर को वह बनी अचेतन, हिल न सकी कोमल काया रोम रोम प्रति लगे कोटि-कोटि ब्रह्माण्भ


😱 भयानक रस 😱

      इसका स्थायी भाव भय होता है जब किसी भयानक या अनिष्टकारी व्यक्ति या वस्तु को देखने या उससे सम्बंधित वर्णन करने या किसी अनिष्टकारी घटना का स्मरण करने से मन में जो व्याकुलता उत्पन्न होती है उसे भय कहते हैं उस भय के उत्पन्न होने से जिस रस कि उत्पत्ति होती है उसे भयानक रस कहते हैं इसके अंतर्गत कम्पन, पसीना छूटना, मुँह सूखना, चिन्ता आदि के भाव उत्पन्न होते हैं

⏺उदाहरण

अखिल यौवन के रंग उभार, हड्डियों के हिलाते कंकाल

कचो के चिकने काले, व्याल, केंचुली, काँस, सिबार

एक ओर अजगर हिं लखि, एक ओर मृगराय



😈 रौद्र रस 😈

इसका स्थायी भाव क्रोध होता है जब किसी एक पक्ष या व्यक्ति द्वारा दुसरे पक्ष या दुसरे व्यक्ति का अपमान करने अथवा अपने गुरुजन आदि कि निन्दा से जो क्रोध उत्पन्न होता है उसे रौद्र रस कहते हैं इसमें क्रोध के कारण मुख लाल हो जाना, दाँत पिसना, शास्त्र चलाना, भौहे चढ़ाना आदि के भाव उत्पन्न होते हैं

उदाहरण

उस काल मरे क्रोध के तन काँपने उसका लगा

मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा

अतिरस बोले वचन कठोर

उलटउँ महि जहँ जग तवराजू




😝वीभत्स रस😝

इसका स्थायी भाव जुगुप्सा होता है घृणित वस्तुओं, घृणित चीजो या घृणित व्यक्ति को देखकर या उनके संबंध में विचार करके या उनके सम्बन्ध में सुनकर मन में उत्पन्न होने वाली घृणा या ग्लानि ही वीभत्स रस कि पुष्टि करती है दुसरे शब्दों में वीभत्स रस के लिए घृणा और जुगुप्सा का होना आवश्यक होता है

⏺उदाहरण

शव जीभ खींचकर कौवे, चुभला-चभला कर खाते

खा माँस चाट लेते थे, चटनी सैम बहते बहते बेटे

सिर पर बैठो काग, आँखि दोउ खात निकारत

खींचत जी भहिं स्यार, अतिहि आनन्द उर धारत

गिद्ध जाँघ कह खोदि-खोदि के मांस उचारत

स्वान आँगुरिन काटि-काटि के खान बिचारत

बहु चील्ह नोंचि ले जात तुच, मोद मठ्यो सबको हियो

जनु ब्रह्म भोज जिजमान कोउ, आज भिखारिन कहुँ दियो


😚वात्सल्य रस😚

इसका स्थायी भाव वात्सल्यता (अनुराग) होता है माता का पुत्र के प्रति प्रेम, बड़ों का बच्चों के प्रति प्रेम, गुरुओं का शिष्य के प्रति प्रेम, बड़े भाई का छोटे भाई के प्रति प्रेम आदि का भाव स्नेह कहलाता है यही स्नेह का भाव परिपुष्ट होकर वात्सल्य रस कहलाता है

⏺उदाहरण

अंचरा-तर लै ढ़ाकी सूर, प्रभु कौ दूध पियावति

सन्देश देवकी सों कहिए

हौं तो धाम तिहारे सुत कि कृपा करत ही रहियो

तुक तौ टेव जानि तिहि है हौ तऊ, मोहि कहि आवै

प्रात उठत मेरे लाल लडैतहि माखन रोटी भावै

🛕भक्ति रस🛕

इसका स्थायी भाव देव रति है इस रस में ईश्वर कि अनुरक्ति और अनुराग का वर्णन होता है अर्थात इस रस में ईश्वर के प्रति प्रेम का वर्णन किया जाता है

⏺उदाहरण

अँसुवन जल सिंची-सिंची प्रेम-बेलि बोई

मीरा की लगन लागी, होनी हो सो होई


उलट नाम जपत जग जाना

वल्मीक भए ब्रह्म समाना


एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास

एक राम घनश्याम हित, चातक तुलसीदास


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Thursday, March 18, 2021

PRAVEEN UTTARARDH/EXPECTED QUESTIONS / August 2021

 Aksharam Akshayam 

EXPECTED QUESTIONS / August 

Praveen uttarardh 

Paper-1 

1. संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए:

अ) माया महा ........

        दुई जगदीस......

        अब मैं नाचौ .....

        मैया मोहिं ........

       निर्गुण कौन . ...

       गाइए गनपति....

       मन पाछितै........

आ) मानुष हौं तो ......

      सेस गनेस महेस.......

      विकट अपार .....

      लंकानायक को ? .......

इ) मैं घमंडों में ......

    जो कभी अपने समय .....

    चिलचिलाती धूप को.......

    पर्वतों को काट ......

    मुझको बहुत ......

    जाएँ,सिद्धि पावें.....

    नीलाम्बर परिधान हरित.......

    सुरभित, सुन्दर सुखद.....

    सुन्दर हैं विहग......






ई) तुम गंध -कुसुम-कोमल .....

    जजर जीवन का......

    तिमिर-समुद्र कर सकी......

   सुना यह मनु ने.....

   तपस्वी! क्यों इतने को क्लांत?.....

उ) जय हो........

    मस्तक ऊँचा .....

   किया कौन सा ......

   सोच रहा हूँ.....


2. चरण का बिना भंग किये किन्हीं चार दोहों को पूरा कीजिए:

    अछै पुरुष..........

   सगुण की ......

   जाको राखै  ...

   तेरा साई .......

   ज्यों तिल माहीं.......

   कहि प्रिय बचन ........

   भूमि सयन...

   जहाँ राम .....

   तुलसी रा के ......

   ऊँची जाति पपीहरा ......

   रीति प्रीति .....

   अमर बेलि बिन ......

   यों रहिमन.....

   सर सूखे .......








3. पठित पद्-संग्रह के आधार पर किसी एक कवि की काव्यगत 

     विशेषताओं का परिचय दीजिए:--

     1) कबीरदास  2) तुलसीदास  3) रसखान 4) भूषण

4. रश्मिरची के आधार पर "कर्ण" का चरित्र-चित्रण

     रश्मिरची के आधार पर 'अर्जुन" का चरित्र-चित्रण कीलिए।

     रश्मिरथी के आधार पर 'इ्षोधन" का चरित्र-चित्रण कीजिए।

     रश्मिरथी के आधार पर प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन कीजिए।

5. पठित कविता संग्रह के आधार पर किसी एक कवि की काव्यगत 

     विशेषताओं का परिचय दीजिए:

  1) महादेवी वर्मा    2) मैथिलीशरण गुप्त 3) रामधारी सिंह दिनकर 4) जयशंकर प्रसाद 

6. किसी एक कविता का सारांश लिखिए।

   1) मानव 2) तुम और मैं   3) पांचजन्य 4) श्रद्धा

7. रश्मिरथी के आधार पर किसी एक पात्र पर टिप्पणी लिखिए।

    1) कुन्ती   2) युधिष्ठिर


                                  --------------








Paper-2 


1.   किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर कम से कम पचास-पचास पंक्तियों में लिखिए:

1) साहित्य का प्रभाव समाज पर पड़ता है - इसे प्रमाणित कीजिए ।

      (या) साहित्य समाज का दर्पण है इसका विवेचन कीजिए।

2) काव्य के विभिन्न रूपों पर प्रकाश डालिए।

3) महाकाव्य के तत्त्वों का परिचय देते हुए हिन्दी के किसी एक 

     आधुनिक महाकाव्य को महाकाव्य की कसौटी पर कसिए।

4) हिन्दी कहानी के विकास पर निबंध लिखकर उसमें बाबू

    जयशंकर प्रसाद के स्थान को निर्धारित कीजिए।

5) नायक के गुणों का विवरण देते हुए नायक के चार प्रकारों को उदाहरण सहित लिखिए। 

6) निबंध की परिभाषा देकर उसकी विशेषताएं लिखिए।

2. किन्हीं दो रसों को सोदाहरण समझाइए:

     1) शृंगार  2) करुण   3) भयानक   4) अद्भुत

3. किन्हीं दो अलंकारों को सोदाहरण समझाइए:

     1) यमक    2) संदेह  3) रूपक   4) उत्प्रेक्षा 5) दृष्टान्त 

4. किन्हीं दो छन्दों के लक्षण सोदाहरण लिखिए:

     1) चौपाई    2) गीतिका  3) सोरठा   4) वंशस्थ 5) बरवै

5. किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर लिखिए:

1) भाषा की उत्पत्ति के संबंध में प्रचलित विभिन्न मतों का उल्लेख करते हुए 

     यह प्रतिपादित कीजिए कि उनमें  कौन-सा मत समीचीन है?

2) संसार की भाषाओं का पारिवारिक वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।

3) हिन्दी, उर्दू, हिन्दुस्तानी और दक्खिनी हिन्दी का विवेचन कीजिए।

4) देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता पर प्रकाश डालिए।

5) भाषा विज्ञान की परिभाषा देते हुए उसकी विषयवस्तु का विवेचन कीजिए।

6) भाषा के स्वरूप और अर्थ का विवेचन करते हुए उसकी परिभाषा दीजिए।

6. किन्हीं दो पर टिप्पणियाँ लिखिए:-

     1) देवी उत्पत्ति सिद्धांत     2) यो हे - हो वाद     3) खड़ीबोली    

     4) अर्थ संकोच  5) मैथिली 6) दक्खिनी 

                                        ------------------


Paper-3


1. रूप-रेखा देते हुए किन्नी दो विषयों पर निबंध लिखिए :-

  1) हिन्दी कविता में राष्ट्रीय विचारधारा  2) हिन्दी का स्वर्णयुग : भक्तिकाल

  3) गांधीवाद    4) राजभाषा का स्वरूप   5) बरसो भी

  6) अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी की क्षमता  7) यदि मैं लिखता 

2. किन्हीं तीन का उपयोग समझाइए :

  1) कार्यालय ज्ञापन   2) आदेश  3) अधिसूचना   4) तार

  5) अनुस्मारक   6) तार 

3. •अर्ध सरकारी पत्र का नमूना प्रस्तुत कीजिए।

     •कार्यालय आदेश का नमूना लिखिए।

     •हिन्दी अध्यापक के पद के लिए एक आवेदन पत्र लिखिए।

    •अपने मुहल्ले की गंदगी के बारे में शिकायत करते हुए 

      नगरपालिका के अधिकारी के नाम पत्र लिखिए।

 4. निम्नलिखित गद्यांश को संक्षेप में लिखिए :

    1) मनुष्य का एक स्वाभाविक गुण दूसरों ............

    2) यह बड़ी मिडासना में कि सुख सुविधाओं के

    3) दार्शनिक संदर्भ में........

    4) सादा जीवन और उच्च विचार...

5. अपनी प्रांतीय भाषा में अनुवाद कीजिए :-

  1. कला के दो भेद किये जाते हैं-एक ललित कला, दूसरी........

  2. परिश्रम केबल आवश्यक हो नही है,....      

  3. संगीत कानों के माध्यम....

  4. देश को स्वाधीनता मिल जाने... ..   

6. हिन्दी में अनुवाद कीजिए :-

   அறிவும் நல்ல உழைப்புத் திறனும் கொண்ட. ....

    கல்லூரியில் எனது முதல் நாள். ....


             .......................

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Praveen Uttarardh August 2021 Expected Questions





   

Wednesday, January 27, 2021

Praveen/visharadh/ मौखिक परीक्षा /प्रश्नोत्तरी" आवश्यक निर्देश/

 


                                 मौखिक परीक्षा

                                   प्रश्नोत्तरी" 

आवश्यक निर्देश

              यह प्रश्नोत्तरी सभा की उच्च परीक्षाएँ जैसी, राष्ट्रभाषा विशारद एवं प्रवीण के विद्यार्थियों को ध्यान में रखते हुए बनायी गयी है।

           इसमें पाँच खण्ड दिये गये हैं:

              (अ) सामान्य ज्ञान

              (आ) हिन्दी व्याकरण

              (इ) हिन्दी साहित्य

              (ई) सभा तथा हिन्दी आन्दोलन का परिचय

              (उ) पाठ्यक्रम से संबंधित प्रश्न

                  

                                           खण्ड (अ) - सामान्य ज्ञान          

                                                   (विशारद-प्रवीण)


      1. आप का शुभ नाम क्या है?

          मेरा नाम गणेश है।

      2. आप की क्रम संख्या क्या है? 

           मेरी करम-संख्या 2000 है।

      3. आप कहाँ के रहनेवाले हैं?

           मैं चित्तूर का रहनेवाला हूँ। 

     4. आप के पिताजी क्या करते हैं?

           मेरे पिताजी डाक्टर हैं। वे अस्पताल में काम करते हैं।

     5. आप के गाँव/शहर का परिचय दीजिए?

           मेरा नगर है चेत्रै यह तमिलनाडु की राजधानी है। इसके मुख्यमंत्री डॉ. मु. करुणानिधि हैं। मुख्य कार्यालय, मंत्रालय आदि चेन्नै में हैं। बंदरगाह, चिडियाघर, वल्लुवरकोट्टम, समुद्र तट आदि कई देखने लायक स्थान हैं। मेरीना और सांतोम यहाँ के सुन्दर समुद्रतट हैं। महाबलिपुरम देखने लायक जगह है।

     6. आप के प्रदेश का नाम क्या है?

           इस प्रदेश की राजधानी का नाम बताइये? मेरे प्रदेश का नाम केरल है। इस प्रदेश की राजधानी का नाम तिरुवनन्तपुरम है।

      7. भारत की भौगोलिक सीमाओं का परिचय दीजिए? भारत के उत्तर भाग में हिमालय से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी और हिन्द महासागर तक, पूर्व में बर्मा से लेकर पश्चिम में अरब सागर तक भारत की भौगोलिक सीमा है।

       8. टेलिफोन का आविष्कार किसने किया?

           टेलिफोन का आविष्कार "अलेक्जेण्डर ग्राहम बेल" ने किया।

       9."स्टीम" इंजन का आविष्कार किसने किया ?

           "स्टीम इंजन" का अविष्कार "जार्ज स्टीवनसन" ने किया। 

       10. चिरापूँजी की विशेषता क्या है?

              चिरापूंजी की विशेषता यह है कि वहाँ संसार भर में सबसे अधिक वर्षा होती है।

         11. असाम की राजधानी क्या है?

               असाम की राजधानी गअहटी है।

         12. भारत में "सूर्य के लिए मन्दिर" कहाँ है? उसका नाम क्या है? 

               भारत में सूर्य के लिए मन्दिर ओडिसा में है। उसका नाम "कोणार्क" है।

         13. अमेरिका की खोज किसने किस वर्ष में की है?

                अमेरिका की खोज क्रिस्टोफर कोलम्बस ने सन् 1492 में की।

        14. स्वतंत्र भारत के पहला भारतीय गवर्नर जनरल कौन थे?

               स्वतन्त्र भारत के प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल श्री राजगोपालाचार्य जी ते।

         15, बापूजी का जन्म कहाँ हुआ? उनका पूरा नाम क्या है?

               बापूजी का जन्म "पोरबन्दर" में हुआ। उनका पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गांधी है।

         16. स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस का अंतर क्या है?

               ईस्ट इन्डिया कम्पनी के भारत का शासन छोड़कर जाने और भारतीय पराधीनता से                   मुक्त होने के दिवस को स्वतंत्रता दिवस कहते हैं जो अगस्त 15 है। भारत की जनता

               के लिए जनता द्वारा चुने गये नेताओं द्वारा भारत पर शासन करने का दिवस गणतंत्र                   दिवस है जो जनवरी 26 है।

         17. कावेरी नदी कहाँ से निकलती है?

                 कावेरी पश्चिमी घाट के कुडगु नामक स्थान से निकलती है।

        18 .किरत गांधी" नाम से कौन प्रसिद्ध हैं? 

               और स्वतंत्रता आंदोलन में उनका योगदान क्या रहा?

               श्री केलप्पन केरल गाँधी के नाम से प्रसिद्ध है। स्वतंत्रता आन्दोलन 

                के सिलसिले में उनका गुरुवायूर सत्याग्रह प्रसिद्ध है

        19. हमारे राष्ट्रीयगीत के रचयिता कौन है? 

              हमारे राष्ट्रीय गीत के रचयिता रवीन्द्रनाथ टैगोर हैं।

        20."वंदेमातरम" गीत के रचयिता कौन हैं?  उनके लिखे किस उपन्यास में 

               यह गीत है?               

             "वन्देमातरम" गीत के रचयिता बंकिम चन्द्र चट्टर्जी है। उनके लिखे 

               उपन्यास "आनन्द  मठ" में यह गीत है। 

        21. आपकी मातृभाषा के किसी एक कवि या कथाकार का 

              साहित्यिक परिचय दीजिए?

               मेरी मातृभाषा मलयालम के सुप्रसिद्ध कवि तल्लत्तोल हैं उनकी कविताओं को                        "साहित्यमंजरी" नामक अनेक भागों के ग्रन्थों में संग्रहित किया है। हिन्दी के 

                कवियों में जो स्थान मैथिलीशरण गुप्त का है वही स्थान मलयालम के 

                कवियों में बल्लत्तोल का है।

        22. ब्रह्म समाज और आर्य समाज के संस्थापक कौन-कौन हैं?

              ब्रह्मसमाज के संस्थापक राजाराम मोहनराय हैं और 

              आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती हैं।

        23. भारत में "सती" प्रथा को बंद कराने का श्रेय किसको मिला है?

                भारत में "सती प्रथा को बंद कराने का श्रेय राजाराम मोहन राय को मिला है।

         24. राजभाषा" शब्द से आप क्या समझते हैं? 

               देश के प्रशासन की भाषा को राजभाषा कहते हैं।

         25. हिन्दी राजभाषा कब बनी? 

               सन् 1949 सितम्बर 14 को हिन्दी राजभाषा बनी।

        26. हिन्दी किस लिपि में लिखी जाती है? 

               हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है।

        27. भारत की बेकारी की समस्या पर अपना विचार व्यक्त कीजिए

              भारत में दिन-प्रति दिन जनसंख्या बढ़ती रहती है। दूसरी ओर कल - कारखाने, कार्यालय, सभी जगह कम्प्यूटर जैसे वैज्ञानिक आविष्कारक मशीन का बोल-बाला भी हो रहा है जिससे कम लोगों द्वारा कम समय में बहुत अधिक काम होने लगा। इसी कारण बेकारी समस्या आज बढ़ती जा रही है। अगर लोगों को काम करने व कमाने का मौका बना दिया जाय तो बेकारी की समस्या बहुत कुछ हो सकती है।

        28. भूदान यज्ञ का आरम्भ किसने किया? 

              भूदान यज्ञ का आरंभ संत निनोबा भावे ने किया।

       29. भारत की एकता को खतरा किन किन से संभव है? 

             भारत की एकता का खतरा तीन कारणों से होता है एक भाषा भेद,

             दूसरा प्रांतीय भेद और तीसरा जाति भेद । 

       30. "झंडा ऊँचा रहे" गीत के रचयिता कौन हैं?

                 झंडा ऊँचा रहे - गीत के रचयिता पं. श्यामलाल गुप्त पार्षद हैं। 

        31. विनोबाजी ने किस प्रांत में भूदान-यज्ञ की यात्रा आरंभ की?

                विनोबाजी ने सन् 1951 में तैलंगाना गाँव में सर्व प्रथम एक निर्धन वृद्ध को भूदान करके भूदान यज्ञा की यात्रा आरंभ की।

         32. लाल, पाल, बाल इन तीनों के पूरे नाम बताइये?

                लाल, पाल, बाल इन तीनों के पूरा नाम क्रमशः - 

               लाला लाजपतराय, विपिन चन्द्र पाल और बाल गंगाधर तिलक हैं।

          33. "आर्य भट्ट", उपराह किस वर्ष में अंतरिक्ष में भेजा गया?

               आर्यभट्ट नामक उपग्रह 19 अप्रैल 1975 को अंतरिक्ष में भेजा गया।

          34.भारत के पाँच सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों के नाम बताइये?

                होमी जहाँगीर बाबा, जगदीशचन्द्र बसु, री.वी. रामन,  सुव्रह्म्यम चन्द्रशेखर,                                  हरगोविन्दसिंह खुराना - ये भारत के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक हैं।

         35. "पंचतंत्र कथाएँ" किसने लिखी है?

                "पंचतंत्र कथाएँ", विष्णु शर्मा ने लिखी है।

         36. "सारे जहाँ से अच्छा" गीत के रचयिता कौन हैं ? 

               "सारे जहाँ से अच्छा" गीत के रचयिता सर मुहम्मद इकबाल हैं।

         37. "शांतिनिकेतन" कहाँ है? उसके संस्थापक कौन हैं? 

               "शांतिनिकेतन" कलकत्ते के पास बोलपुर नामक स्थान पर है। 

                 उसके संस्थापक रवीन्द्रनाथ ठागोर हैं।


                                             खण्ड (आ)- व्याकरण

                                                (विशारद - प्रवीण)

        1. संज्ञा किसे कहते हैं?

            संज्ञा वह विकारी शब्द है, जो किसी व्यक्ति, वस्तु, स्थान या भाव के नाम को बतावे। 

        2. भाववाचक संज्ञाएँ किन-किन शब्दों से बनायी जाती हैं?

             जातिवाचक संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया से भाववाचक संज्ञाएँ बनायी जाती हैं।                   उदा: लड़का - लड़कपन, सजाना - सजावट

         3. व्यक्तिवाचक संज्ञा और जातिवाचक संज्ञा में अन्तर क्या है? 

              व्यक्तिवाचक संज्ञा किसी एक व्यक्ति, एक स्थान अथवा एक वस्तु का बोध कराती है। पर जातिवाचक संज्ञा एक जाति के सब पदार्थों का समान रूप से बोध कराती है।

         4. संबंध कारक प्रत्यय "का", "के", "की", का प्रयोग कब-कब किया जाता है?

              संज्ञा के जिस रूप से किसी वस्तु का दूसरी वस्तु से संबंध प्रकट हो उसे, संबंध कारक कहते हैं। उदा:- "का" पुल्लिंग एकवचन के पहले, "के" पुल्लिंग बहुवचन के पहले और "की" स्त्रीलिंग के पहले प्रयोग करते हैं।

               उदा:- सीता का घर बड़ा है। राम की कलम अच्छी तरह लिखती है। मोहन के दो लड़के स्कूल में पढ़ते हैं। सीता के पति का नाम कृष्णा राव है। मोहन के घोडे का दाम आठ सौ रुपये हैं।

         5. विकारी और अविकारी शब्द कौन कौन से हैं?

             संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया विकारी शब्द हैं। क्रिया विशेषण, समुञ्चय बोधक, संबंध बोधक और विस्मयादि बोधक, अविकारी शब्द हैं। 

         6.उपसर्ग और प्रत्यय  का अन्तर बताइये: 

             उपसर्ग वे शाब्दांश है जो किसी शब्द के आदि में आकर उसके अर्थ में विशेषता उत्पन्न कर देते हैं या उसके अर्थ को सर्वथा बदल देते हैं। जैसे:- पराजय, निर्बल, अवगुण आदि। प्रत्यय वे शब्दांश है जो शब्दों के अंत में जोड़े जाते हैं।

              जैसे:- करनेवाला, लकडहारा, लड़कपन, डरावना आदि। 

        7. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से शब्द के कितने भेद हैं?

            व्युत्पत्ति की दृष्टि से शब्द के तीन भेद हैं। 1. रूढि, 2. यौगिक, 3. योग रूढि

        8. हिन्दी में संता के कितने भेद है?

            हिन्दी में संज्ञा के अनुसार शब्द के पाँच भेद है। व्यक्तिवाचक, 

             जाति वाचक, भाव वाचक, समूह वानक और द्रव्य वाचका

                                        खण्ड -इ - हिन्दी साहित्य


      1.हिन्दी साहित्य के इतिहास को कितने कालों में 

         विभाजित किया गया है? वे कौन से हैं?

         हिन्दी साहित्य के इतिहास को चार कालों में विभाजित किया गया है।

        वे हैं।   आदिकाल (वीरगाथाकाल)  - 1050 - 1375

                 पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल) -1375 - 1700 

                 उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल) - 1700 - 1900

                 आधुनिक काल (गद्यकाल)  - 1900 से अब तक

       2. वीरगाधाकाल के प्रतिनिधि कवि कौन हैं?

             उनके काव्य के बारे में आप क्या जानते हैं?

            वीरगाथाकाल के प्रतिनिधि कवि चंदबरदायी हैं। उनका काव्य "पृथ्वीराज रसो" है जो हिन्दी साहित्य का सर्वप्रथम महाकाव्य है। इसमें पृथ्वीराज के जीवन की वीर घटनाओं का वर्णन किया है । 

        3. भक्तिकाल को किन-किन धाराओं में विभक्त किया गया है? 

            भक्ति काल को दो धाराओं में विभक्त किया- "निर्गुण भक्तिधारा" और 

            "सगुण भक्ति धारा"। 

       4. संत काव्य धारा के प्रवर्तक कौन हैं?

           उस धारा के प्रमुख संतों के नाम बताइये: संत काव्य धारा के प्रवर्तक संत

           कबीरदास है। इस धारा के प्रमुख प्रवर्तक संत कबीरदास, रैदास, धर्मदास,

           गुरुनानक,  दादूदयाल, सुन्दरदास और मलूकदास है।

      5. संत काव्य धारा का दूसरा नाम क्या है?

          संत काव्य धारा का दूसरा नाम "ज्ञानाश्रयी शाखा" है। 

      6. हिन्दी प्रेमकाव्य के प्रमुख कवि और उनकी कृतियों का नाम बताइये?

          हिन्दी प्रेमकाव्य के प्रमुख कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं। उनके प्रेमकाव्यों में प्रमुख "पद्मावत" है। "उखरावट" और "आखिरी कलाम" भी उनकी अन्य प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।

       7. रामभक्ति शाखा के प्रमुख कवि कौन हैं?

           और उनके ग्रन्थों में पाँच का उल्लेख कीजिए?

            राम भक्ति शाखा के प्रमुख कवि तुलसीदास हैं। उनके पांच प्रामाणिक ग्रन्थ - "रामचरितमानस", "गीतावली", "कवितावली", "दोहावली", और "विनय पत्रिका" हैं।

      8. कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि कौन हैं?

           कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास हैं। 

      9."अष्टछाप" के कवि कौन-कौन हैं?

           अष्टछाप के कवि सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानन्ददास, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी और गोविन्दस्वामी हैं। 

      10. रहीम का पूरा नाम क्या है? इनके लिखित ग्रन्थों के नाम बताइये?

           रहीम का पूरा नाम "अब्दुर्रहीम खानखाना" है। "रहीम दोहावली या सतसई , "बरवै नायिका भेद", "रास-पंचाध्यायी ", "मदनाष्टक", "श्रृंगार सोरठा" आदि इनके लिखित ग्रंथों में प्रमुख हैं।

     11. हिन्दी गद्य के चार आरंभिक लेखक कौन हैं? उनकी पुस्तकें क्या हैं?

            हिन्दी गद्य के चार आरम्भिक लेखक - मुंशी सदासुखलाल, सैयद 


इंशा अल्लाखाँ, लल्लूलालजी और सदल मिश्र थे। उनकी पुस्तके निम्न प्रकार है। मुनि सदासुखलाल - मुंतखबुत्तवारीख योगवाशिष्ठ, इंशा अल्लाह - उदयभान चरित, रानी केतकी की कहानी, लल्लूलालजी - प्रेमसागर, सदल मिश्र - नासिकेतोपाख्यान।

       13. हिन्दी में प्रथम मौलिक कहानी कौन-सी है?

             हिन्दी में प्रथम मौलिक कहानी पं. किशोरीलाल गोस्वामी की "इन्दुमती" है।

      14. हिन्दी में प्रेमचन्द की पहली कहानी कौन-सी है?

            हिन्दी में प्रेमचन्द की पहली कहानी "बड़े भाई साहब" है।

        15. हिन्दी में प्रेमचन्दजी का प्रथम उपन्यास क्या है? 

               हिन्दी में प्रेमचन्द का प्रथम उपन्यास "गबन" है।

        16. प्रेमचन्दजी के लिखित उपन्यासों के नाम बताइये?

              सेवासदन, निर्मला, गोदान, रंगभूमि, कर्मभूमि, गबन आदि प्रेमचंदजी के लिखित उपन्यास हैं।

        16. जयशंकर प्रसाद के मुख्य नाटक क्या हैं?

               जयशंकर प्रसाद के मुख्य नाटक - "स्कन्दगुप्त", "अजातशत्रु", "चन्द्रगुप्त मौर्य", "ध्रुवस्वामिनी", "विशाख", "कामना", "जनमेजय का नागयज्ञ", "राजश्री", "सजन", "करुणालय", "प्रायश्चित्त" और "एक घुँट" हैं।

         17. छायावाद/रहस्यवाद/हालाबाद/प्रगतिवाद/प्रयोगवाद किसे कहते हैं? 

लक्षण बताइये:

    छायावाद:

          युग की उबुद्ध चेतना ने बाह्य अभिव्यक्ति से निराश होकर जो आत्मबद्ध अन्तर्मुखी साधना आरम्भ की वही काव्य में छायावाद कहा जाता है। कवि प्रकृति के साथ अपनापन जोड लेता है और अपनी मानसिक दशा का सहभागी बना लेता है। अपनी अनुभुतियों की छाया जब वह बाह्य जगत में देखने लगता है, तब छायावादी कविता का जन्म होता है। छायावाद की प्रथमविशेषता है प्रेम-अनुभूति या श्रृंगारिकता। छायावाद में प्रकृति-रूप विश्वसुन्दरी का विशेष महत्व आंका गया है। कवियों ने प्रकृति के साथ अपनी आत्मा के तादात्म्य का अनुभव किया है। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा ये छायावाद के चार प्रमुख स्तंभ कहे जाते हैं।

      रहस्यवाद:

          आत्मा और परमात्मा के संबंध में रचित काव्य को रहस्यवाद कहते हैं। समस्त संसार का संचालन करनेवाले सत्ता को ब्रह्म या परमात्मा भी कहा जा सकता है। इस अदृश्य सत्ता को खोजने और उससे मिलने के लिए साधक बेचैन हो उठे पर इस दशा में विरह की व्याकुलता का वर्णन अनेक साधकों ने बडे मर्म स्पर्शी शब्दों में किया है। रहस्यवादी कवियों में जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

     हालावाद:

          छायावादी युग के अन्तिम चरण में हिन्दी साहित्य में एक ऐसी मादक भावना की हिलोर थी जिसने कुछ समय के लिए सम्पूर्ण हिन्दी जगत को मन्त्रमुग्ध सा कर लिया था । यह हिलोर "हालावाद" के नाम से प्रसिद्ध हुई। हरिवंशराय बच्चन इसके प्रवर्तक और कवि माने जाते हैं। हालावाद से प्रभावित होकर अनेक नवयुवक कवि इस ओर झुके और ऐसे ही मादक साहित्य का निर्माण करने लगे। हालावाद के कवियों में हरिवंशराय बञ्चन पद्मकांत मालवीय, हृदयनारायण पांडेय, हृदयेश, "नवीन" आदि इसके समर्थक कवि थे। हालावाद तूफान की तरह आया  और 1933 से लेकर 1936 तक केवल चार वर्ष जीवित रह उसी गति से निलीन हो गया।

     प्रगतिवाद:-

           प्रगतिवादी साहित्य वा साहित्य है जो साम्यवादी भावनाओं से प्रेरित होकर लिखा गया है। प्रगतिवादी साहित्य साम्यवादी भावनाओं से अनुप्राणित रहता है। प्रगतिवादी को प्राचीन संस्कृति का विरोधी कहा जाता है। प्रगतिवाद ने साहित्य की दिशा ही मोड दी है। सूक्ष्म के प्रति स्थूल की प्रतिक्रिया ने प्रगतिवाद को जन्म दिया। प्रगतिवादी कवियों की दृष्टि मानव के बाहरी जीवन पर गयी। उनकी आस्ता मानव के सामूहिक जीवन में है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर प्रगतिवाद के सर्वप्रमुख कवि माने जाते हैं। प्रगतिवादी काव्य धारा का सूत्रपात करनेवाले कविद्वय पंत और निराला हैं। उदा:- निराला वह तोडती पत्थर, बच्चन बंगाल का काल और पंत - ग्राम्या। 

     प्रयोगवाद:

      व्यापक सामाजिक सत्यों की अनुभूति और अभिव्यक्ति जिन कविताओं में हैं उन्हें प्रयोगवादी कविता कहते हैं। प्रयोगवादी कविता में भावना है और बुद्धि-प्रधान है। प्रयोग का व्यापक अर्थ बड़ा उपयोगी है। प्रयोगवाद उन कविताओं के लिए रूढ हो गया है जो कुछ नये बोधों, संवेदनाओं तथा उन्हें प्रेषित करनेवाले शिल्पगत चमत्कारों को लेकर शुरू-शुरू में "तार सप्तक" के माध्यम से सन् 1943 में प्रकाशन जगत में आयीं। प्रयोगवादी कविता मध्यवर्गीय समाज के जीवन का चित्र है। इस दाद के प्रमुख प्रवर्तक "अज्ञेय", गजानन मुक्तिबोध, नेमिचन्द, भारत भूषण, प्रभाकर माचवे, गिरिजाकुमार माथुर, डॉ. रामविलास शर्मा, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती, भवानी प्रसाद, नर्मता प्रसाद खरे आदि। 

                                                 खण्ड (ई)

                                सभा तथा हिन्दी प्रचार आन्दोलन

     1. दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की स्थापना कब हुई? 

          सन् 1918 में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की स्थापना हुई।

    2.  इस संस्था की स्थापना किसकी प्रेरणा से हुई?

         महात्मा गाँधीजी की प्रेरणा से इस संस्था की स्थापना हुई।

    3. द.भा. हिन्दी प्रचार सभा  के प्रथम प्रचारक कौन है?

          द.भा. हिन्दी प्रचार सभा के प्रथम प्रचारक देवदास गाँधी हैं।

           (महात्मा गाँधी के कनिष्ठ पुत्र) 

     4 . बाकायदा द.भा.हि.प्र. सभा का पंजीकरण कब हुआ? 

           सन् 1927 में द.भा.हि.प्र. सभा का पंजीकरण हुआ।

      5. सभा के प्रथम अध्यक्ष कौन थे?

          सभा के प्रथम अध्यक्ष महात्मा गाँधी थे। 

      6. सभा के प्रथम प्रधान मंत्री (प्रथान सचिव) कौन थे? 

          सबा के प्रथम प्रधान मंत्री श्री हरिहर शर्मा थे। 

       7. सभा के विकास में श्री मोटूरि सत्यनारायणजी का योगदान क्या रहा?

            श्री मोटूरि सत्यनारायणजी और सभा को कभी अलग नहीं किया जा सकता। वे सभा के परीक्षा मंत्री, प्रचार मंत्री और प्रधान मंत्री भी बने थे। भारत के कोने-कोने में भ्रमण करके उस अनुभव तथा योग्यता के बल पर सभा के कार्य का इतना विस्तार आपने किया कि आज दक्षिण की ही नहीं, बल्कि हिन्दुस्तान भर की संस्थाओं में से दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा भी एक मानी गयी। श्री सत्यनारायणजी के कारण दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा का गौरव बढ़ा।

      8. आणाल सभा के काम किन किन विभागों के दवारा संचालित होते हैं?

           आजकल सभा के कार्यकलाप कार्यालय, विरत विभाग, उस शिक्षा और सोध संस्थान, उच्च परीक्षा विभाग, प्रारंभिक परीक्षा विभाग, साहित्य विभाग, शिक्षा विभाग, पुस्तक विक्री विभाग, पुस्तकालय विभाग, हिन्दी प्रचार प्रेस विभाग, पत्रिका विभाग, कम्प्यूटर विभाग आदि के द्वारा संचालित होते हैं । COM

      9. सभा की रजत जयन्ती किनकी अध्यक्षता में कब मनायी गयी? 

          सभा की रजत जयन्ती महात्मा गांधी की अध्यक्षता में सन् 1946 को मनायी गयी।

    10. सभा की स्वर्णजयन्ती कब मनायी गयी? 

          सभा की स्वर्ण जयन्ती दि. 29, 30 अप्रैल 1971 में मनायी गयी।

    11. सभा की हीरक जयन्ती कब मनायी गयी?

          सभा की हीरक जयन्ती दि. 25, 26, 27 दिसंबर 1979 में मनायी गयी।

   12. सभा के पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर कौन-सी जयन्ती मनायीं गधी?

          अमृत जयन्ती" सभा के पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर मनायी गयी।

   13. सभा में राष्ट्रभाषा विशारद परीक्षा कब से शुरू की गायी? 

          राष्ट्रभाषा विशारद परीक्षा 1930 से शुरू की गयी।

   14. राष्ट्रभाषा प्रवीण परीक्षा कब शुरू की गयी? 

         1948 से राष्ट्रभाषा प्रवीण परीक्षा शुरू की गयी।

    15. सभा की प्रारंभिक एवं उ परीक्षाओं के नाम बताइये? 

          प्राथमिक, मध्यमा, राष्ट्रभाषा, प्रवेशिका, राष्ट्रभाषा विशारद पूर्वा, राष्ट्रभाषा विशारद    

         उत्तरार्द्ध, राष्ट्रभाषा प्रवीण पूर्वार्द, राष्ट्रभाषा प्रवीण उत्तरार्द्ध, आदि।

    16. सभा में पदधीवान समारोह मनाने की प्रथा का प्रारंभ दुई? 

          अब तक कितने पदवीदान समारोह मनाये गये? सभा में पदवीदान समारोह मनाने की प्रथा 1931 से शुरू हुई। अब तक 64 पदवीदान समारोह मनाये गये।

     17. सभा की प्रान्तीय शाखाएँ कब शुरू की गयी है?

ये शाखाएँ कहाँ कहाँ शुरू की गयी? सभा की प्रांतीय शाखाएँ 1936 में शुरू हुई तमिलनाडु के

तिरुचिरापल्ली में, आंध्र के विजयवाडा में, कर्नाटक के बेंगलूर में, केरल के मंजीरा (एरणाकुलम जिला) में शुरू हुई।

    18. स्वामी दयानन्द सरस्वती कौन वे? उन्होंने हिन्दी में कौन-सी पुस्तक लिखी है?

           स्वामी दयानन्द सरस्वती आर्य समाज के संस्थापक और महान सुधारक नेता थे। उन्होंने हिन्दी में "सत्यार्थ प्रकाश" नामक पुस्तक लिखी।

    19. हिन्दी प्रचारक प्रशिक्षण विद्यालय का आरंभ कब हुआ?

           हिन्दी प्रचारक प्रशिक्षण विद्यालय का आरंभ सन् 1922 को इरोड में आरंभ हुआ।


                                                      खण्ड (उ)

        पाठ्यक्रम से संबंधित प्रश्न:

     1 . नाटक एवं एकांकी में अन्तर क्या है?

           एकांकी में केवल एक ही दृश्य होता है और उसी एक दृश्य में  कहानी या घटना का आशय पूर्ण होता है। नाटक में अनेक दृश्यों का होना आवश्यक है और बातचीत भी बहुत समय तक चलती रहती है। कहानी से भी थोडी लंबी होती है।

    2. एकांकी नाटक के प्रमुख लक्षण बताइये?

          एकांकी नाटक एक ही दृश्य में शुरू होता है और समाप्त भी होता है। एकाकी जीवन की एक झलक मात्र है। कया पात्र नाटक की अपेक्षा कम रहते हैं। एकांकी नाटक दर्शकों की मनोवृत्ति के अधिक अनुकूल हो। एकांकी नाटक में कहानियों के समान एक तथ्यता रहती है। संकलनत्रय का सुविधा के साथ पालन होता है। यह एक अंकवाली रचना है। मनोरंजन, कलात्मक तथा अत्यन्त सशक्त विधा है एकांकी नाटक ।

      3. "जयशंकर प्रसाद" के किसी एक काव्य का नाम बताइये;-

           जयशंकर प्रसाद के एक काव्य का नाम है "ऑसू"।

      4. कामायनी" किनका काव्य है? इसके बारे में पांच वाक्य बोलिए। 

         "कामायनी" जयशंकर प्रसाद का काव्य है। कामायनी की कथा मनु के जीवन पर आधारित है। इस काव्य का आरम्भ जल प्लावन की परिसमाप्ति पर मनु द्वारा आरम्भ होता है। कामायनी में नौ सर्ग हैं। कामायनी में मनु, श्रद्धा और इडा ये तीन पात्र है। यह एक उत्तम प्रबन्ध काव्य है और महाकाव्य भी है। 

      5. प्रसाद के नाटकों के नाम बताइये?

          जयशंकर प्रसाद के नाटक राजश्री, विशाख, अजातशत्रु, स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त, 

          जनमेजय का नागयज्ञ, कामना, करुणालय, एक घूँट, ध्रुवस्वामिनी आदि हैं।

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एकांकी

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