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Monday, February 19, 2024

"बड़े घर की बेटी" 

 

               "बड़े घर की बेटी" 


 *कहानीकार का परिचय* 


मुशी प्रेमचन्द का स्थान हिन्दी कथा साहित्य में सबसे ऊँचा है। उनको तीन सौ से अधिक कहानियाँ हिन्दी साहित्य की अमर निधि है। ग्यारह उत्तम उपन्यास भी इनकी देन है। मुंशी प्रेमचन्द उपन्यास सम्राट कहलाते है। उनकी सबसे बडी विशेषता यह है कि जीवन के हर क्षेत्र का व्यक्ति उनके साहित्य में स्थान पा सका है। प्रेमचन्द यथार्थवादी थे साथ साथ आदर्शवादी भी। बड़े घर की बेटी प्रेमचन्द की प्रसिद्ध भावात्मक तथा मनोवैज्ञानिक कहानी है।


 *कथानक:* 


आनंदी ठाकुर बेनीमाधव सिंह के पहले बेटे श्रीकंठ की पत्नी थी। शहरी सभ्यता में पली हुई, पढी-लिखी लडकी थी। पर ससुराल में न कोई विलास सामग्री थी न टीमटाम। वह तो देहाती परिवार था। फिर भी आनंदी ने बहुत जल्दी ही अपने को वातावरण के अनुरूप बदल लिया। पति श्रीकंठ बगल के शहर में नौकरी करता था और केवल छुट्टी के दिनों में घर आया करता था। श्रीकंठ का छोटा भाई लाल बिहारी अनपढ था और गाँव में ही मौज मस्ती करता था। 


एक दिन दोपहर को वह दो चिडियाँ लेकर घर आया और आनंदी से पकाने को कहा। आनंदी ने खूब घी डालकर मांस बनाया। लाल बिहारी खाने बैठा तो दाल में घी नहीं था। पूछने पर आनंदी ने कहा कि सारा घी मांस में पड़ गया। इस बात को लेकर दोनों में कहासुनी हुई। गुस्से में आकर लाल बिहारी ने उसपर खडाऊँ दे मारी। आनंदी के रोकने के कारण सिर तो बच गया पर उंगली में चोट लगी। वह इतना अपमान और दर्द सह न सकी। उसने निश्चय कर लिया कि इस उद्दण्ड लडके को दंड देकर ही छोड़ेगी। 


शनिवार को जब श्रीकंठ घर आया तो लाल बिहारी ने आनंदी की शिकायत की और पिता बेनीमाधव ने भी उसका पक्ष लिया। जब आनंदी द्वारा श्रीकंठ को वास्तविक बात मालूम हुई तो वह तिलमिला उठा। जिस घर में अपनी पत्नी का अपमान और अनादर होता है उस घर में नहीं रहना चाहा। पिताजी के बहुत समझाने पर भी श्रीकंठ अपने इरादे में अटल रहा और लाल बिहारी का मुँह तक देखना नहीं चाहता था। 


लाल बिहारी को अपने बडे भाई का तिरस्कार बहुत बुरा लगा। उसे अपने किये का बड़ा दुख हुआ। उसने आनंदी से माफी मांगी और कहा कि बड़े भाई घर न छोड़ें और मैं खुद घर छोड़ चला जाऊँगा। आनंदी का कोमल हृदय पछताने लगा। लाल बिहारी के आंसुओं ने आनंदी के दिल को पिघला दिया। आनंदी खुद कमरे से बाहर आयी और लाल बिहारी का हाथ पकड़कर उसे रोक डाला। दोनों के पवित्र आंसुओं ने दिलों का सारा मैल धो डाला। दयावती आनंदी ने बिगडते परिवार को जुटा लिया। बेनी माधव पुलकित होकर बोल उठे "बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं। बिगड़ता हुआ काम बना लेती हैं।"

Tuesday, January 9, 2024

जयशंकर प्रसाद / रचनाएँ

 

                        जयशंकर प्रसाद

         बाबू जयशंकर प्रसाद की प्रतिभा हिन्दी साहित्य में सर्वतोमुखी है। वे कवि, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार और निबन्धकार है। -



काव्य : 

प्रसाद जी ने प्रेम राज्य (1909 ई.), वन मिलन (1909 ई.), अयोध्या का उद्धार (1910 ई.), शोकोच्छवास (1910 ई.), प्रेम पथिक (1914 ई.), महाराणा का महत्त्व (1914 ई.), कानन कुसुम, चित्रकार (1918 ई.), झरना (1918. ई.), आँसू (1925 ई.), लहर (1933 ई.) और कामायनी (1934 ई.) नामक काव्य लिखे हैं। कामायनी की गणना विश्व साहित्य में की जाती है।


नाटक : 

प्रसाद ने चौदह नाटक लिखे और दो का संयोजन किया था।

(1) 'सज्जन' (सन् 1910-11) : 

उनकी प्रारंभिक एकांकी नाट्य कृति है। उसकी कथावस्तु महाभारत की एक घटना पर आधारित है। चित्ररथ कौरवों को पराजित कर बंदी बनाता है। युधिष्ठिर को इसका पता चलता है तो वे अर्जुन आदि को चित्ररथ से युद्ध करने केलिए भेजते हैं। युद्ध में चित्ररथ पराजित होता। दुर्योधन की निष्कृति होती है। युधिष्ठर के उदात्त चरित्र को देखकर चित्ररथ, इंद्र आदि देवता प्रसन्न होते हैं।

इसमें प्रसाद ने प्राचीन भारतीय नाट्य-तत्त्वों (नांदी, प्रस्तावना, भरतवाक्य आदि) का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं पाश्चात्य तत्त्वों का भी प्रयोग किया है।

(2) कल्याणी परिणय (सन् 1912) : 

इसकी कथावस्तु यह है कि चन्द्रगुप्त चाणक्य की सहायता से नंद वंश का विनाश करता है और उसकी कन्या कल्याणी से विवाह कर लेता है। इसमें भी प्राचीन नाट्य तत्त्वों का प्रयोग किया गया है।

(3).प्रायश्चित्त (सन् 1912) : 

इसमें मुसलमान शासन के आरंभ और राजपूत राजाओं के अवसान का वर्णन मिलता है। जयचंद्र मुहम्मद गोरी को आमंत्रित करता है और पृथ्वीराज को ध्वस्त करा देता है। जब अपनी बेटी संयोगिता की करुणा विगलित मूर्ति उसके ध्यान में आती है तो वह पश्चात्ताप से काँप उठता है। गंगा में डूबकर आत्म-हत्या कर लेता है। इसमें प्रसादजी ने प्राचीन परिपाटी (नांदी पाठ, प्रशस्ति आदि) को छोड दिया है।

(4) करुणालय (सन् 1913) :

 हिन्दी में नीति-नाट्य की दृष्टि से यह प्रथम प्रयास है। यह एकांकी नाटक है। यह पाँच दृश्यों में विभक्त है। इसमें राजा हरिश्चंद्र की कथा है। नाट्य-कला से अधिक इसमें कहानी-कला का विकास लक्षित होता है।

(5) यशोधर्म देव : 

प्रसाद जी ने इसकी रचना सन् 1915 में की थी। परन्तु यह अप्रकाशित है।

(6) राज्यश्री (सन् 1915) : 

नाट्य-कला की दृष्टि से प्रसाद ने इसमें पूर्ण सफलता प्राप्त की है। इसकी कथा संक्षेप में इस प्रकार है- राज्यश्री राज्यवर्धन तथा हर्षवर्धन की बहन है। वह शांतिदेव के चंगुल में फँसती है। अंततः वह दिवाकर की सहायता से उसके चंगुल से मुक्त होती है। वह आत्मदाह करना चाहती है। हर्षवर्धन उसे वैसे करने से रोक देता है। अन्त में भाई-बहन बौद्ध-धर्म के अनुयायी बनते हैं। यह प्रसाद का पहला ऐतिहासिक नाटक है।

(7) विशाख (सन् 1921) : 

प्रसादजी ने सन् 1921 में इसकी रचना की। इसमें व्यवस्थित भूमिका मिलती है। इसमें प्रसाद ने अपनी रचनाओं के उद्देश्य को बताया है। इस नाटक का प्रमुख पात्र विशाख है। वह तक्षशिला के गुरुकुल से शिक्षा समाप्त कर वापस आ रहा है। वह सुश्रुदा नामक नाग को एक बौद्ध भिक्षु के कर्ज से मुक्त करा देता है। इससे प्रसन्न सुश्श्रुदा अपनी बेटी चंद्रलेखा का विवाह विशाख से कर देता है। परन्तु तक्षशिला के राजा नरदेव चन्द्रलेखा को पहले छल-छद्म से और बाद में बलप्रयोग से अपने वश करना चाहता है। परन्तु वह इस प्रयत्न में असफल होता है। उसकी लंपटता और कुपथगामिता से खिन्न उसकी पत्नी आत्महत्या कर लेती है।

(8) अजातशत्रु (सन् 1922) : 

इसमें प्रसाद ने भारतीय और पाश्चात्य नाट्य सिद्धांतों का सश्लिष्ट एवं उत्कृष्ट प्रयोग किया है। भगवान बुद्ध के प्रभाव से, बिंबसार शासन से विरक्त होकर अपने पुत्र अजातशत्रु को राज्य-सत्ता सौंपता है। परन्तु देवदत्त (गौतम बुद्ध का प्रतिबन्दी) की उत्प्रेरणा से कोशल के राजकुमार विरुद्धक के पक्ष में अजातशत्रु अपने पिता बिम्बसार और अपनी बडी माँ वासवी को प्रतिबन्ध में रखने लगता है। कौशम्बी नरेश अजातशत्रु को कैद कर देता है। वासवी की सहायता से अजातशत्रु की निष्कृति होती है। जब अजातशत्रु पिता बनता है तो उसमें पितृत्व के आलोक का उदय होता है। वह अपने पिता से क्षमा-याचना करता है।

(9) जनमेजय का नागयज्ञ (सन् 1923) : 

प्रसिद्ध पौराणिक कथा के आधार पर इस नाटक की रचना की गयी है।

(10) कामना (सन् 1923-24) : 

यह प्रसाद का प्रतीकात्मक नाटक है। इसमें ईर्ष्या, द्वेष आदि मनोवृत्तियों का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है।

(11) स्कन्दगुप्त (सन् 1924) : 

आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के अनुसार यह प्रसादजी के नाटकों में सर्वश्रेष्ठ है। इसकी कथा इस प्रकार है-"मगध सम्राट के दो रानियाँ हैं। छोटी रानी अनंतदेवी अपूर्व सुंदरी और कुटिल चालों की है। वह अपने पुत्र पुरुगुप्त को सिंहासनारूढ़ कराकर शासन का सूत्र अपने हाथ में लेती है। बडी रानी देवकी का सुयोग्य पुत्र स्कन्दगुप्त राजसत्ता से उदासीन हो जाता है। परन्तु जब हूण कुसुमपुर को आक्रमण कर लेते हैं तो स्कन्दगुप्त उनको पराजित कर कुसुमपुर को स्वतंत्र कर देता है। हिंसा, विशेष गृह-कलह से विरक्त होकर वह पुरुगुप्त को राज्य सौंप देता है। प्रेममूर्ति देवसेना और देश-प्रेम की साक्षात् मूर्ति स्कन्दगुप्त की विदा से नाटक का अन्त होता है।


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Skanda gupt natak VIDEO SUMMARY


(12) चन्द्रगुप्त (सन् 1928) : 

इसमें चन्द्रगुप्त द्वारा नंद वंश का नाश, सेल्यूकस की बेटी कार्नेलिया से उसका विवाह आदि वर्णित हैं। चरित्र चित्रण, वातावरण का निर्माण और घटनाओं का घात-प्रतिघात समीचीन और स्थायी प्रभाव डालनेवाला है।

(13) एक घूँट् (सन् 1929) : 

यह एक एकांकी नाटक है। इसमें मानवीय विकारों के कोमल एवं उलझे हुए तन्तुओं के आधार पर चरित्रों का गठन किया गया है। आनन्द स्वच्छंद प्रेम का पुजारी है। उसका कहना है कि आनंद ही सब कुछ है। परन्तु बनलता कहती है कि समाज-विहित, गुरुजनों द्वारा संपोषित वैवाहिक जीवन ही सार्थक और सही दिशा निर्देशक है।

(14) ध्रुवस्वामिनी (सन् 1933) : 

इसमें रामगुप्त की कथा है। प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी को एक जागृत नारी के रूप में चित्रित किया है। उन्होंने उसके द्वारा अनमेल विवाह की समस्या को हमारे सामने प्रस्तुत किया है।

(15) सुंगमित्र (अपूर्ण) :

प्रसाद ने नाटकों के अतिरिक्त कहानियाँ, निबन्ध और उपन्यास भी लिखे हैं। यथा-


निबन्ध : काव्य-कला तथा अन्य निबन्ध

उपन्यास : तितली, कंकाल, इरावती (अपूर्ण)

कहानी-संग्रह : 

1. छाया (सन् 1913), 2. आकाशदीप (सन् 1928), 3. आँधी (सन् 1929), 4. इन्द्रजाल (सन् 1936) 5. प्रतिध्वनि ।

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Tuesday, August 22, 2023

"Gaban" novel written by Munshi Premchand SUMMARY



"Gaban" is a novel written by Munshi Premchand, one of the most celebrated Hindi-Urdu writers of the 20th century. The novel was published in 1931 and is considered a significant work of Indian literature. The title "Gaban" translates to "Embezzlement" in English.

The story of "Gaban" revolves around the life of Ramanath, a well-meaning but weak-willed protagonist. Ramanath, the main character, is an ordinary clerk who gets easily influenced by his materialistic desires and societal pressures. He succumbs to the temptation of embezzling money from his workplace to fulfill his wife's and his own extravagant desires.

The novel delves into the complexities of human psychology, exploring the moral and ethical dilemmas faced by Ramanath as he grapples with his decisions. He tries to justify his actions, even though he knows they are wrong, by rationalizing that he is merely borrowing the money temporarily. As his guilt and fear increase, Ramanath's life starts to unravel, and he finds himself entangled in a web of lies and deception.

Through Ramanath's journey, Premchand highlights the corrosive impact of greed and societal pressures on an individual's moral fiber. The novel critiques the materialistic and hypocritical nature of society, where appearances often matter more than values. It also portrays the harsh consequences that can arise from unethical choices, affecting not only the individual but also their relationships and overall well-being.

Overall, "Gaban" is a powerful portrayal of human weaknesses and the clash between personal desires and societal expectations. It remains relevant today as a timeless exploration of the complexities of human behavior and the ethical challenges faced by individuals in their pursuit of materialistic gains.

हिंदी साहित्य का इतिहास HINDI SAHITYA KA ITHIHAS


हिंदी साहित्य का इतिहास HINDI SAHITYA KA ITHIHAS

हिंदी साहित्य का इतिहास बहुत विशाल है और यह विभिन्न कालों में विकसित हुआ है। 
यहाँ पर मुख्य युगों के बारे में एक संक्षिप्त जानकारी दी गई है:

आदिकाल (संदर्भित करीब 7वीं शताब्दी तक): 
हिंदी साहित्य की शुरुआत वैदिक संस्कृति के अंतर्गत हुई। वेदों, उपनिषदों और स्मृतियों के अध्ययन से हिंदी कविता और प्रोज़ा विकसित हुई।


मध्यकाल (7वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक)
इस युग में भक्तिकाल और रीतिकाल के दौरान हिंदी साहित्य का विकास हुआ। 
संत कवियों ने भगवान के प्रति अपनी आदर्शवादी भावनाओं को व्यक्त किया।
सूरदास, तुलसीदास, कबीर आदि इस युग के प्रमुख लेखक और कवियों में शामिल हैं।


आधुनिक काल (19वीं शताब्दी से 20वीं शताब्दी तक):
 ब्रिटिश शासन के दौरान, हिंदी साहित्य में प्रेरणा और प्रतिक्रियाएँ आई। 
नाटक, कहानी, उपन्यास आदि में नई दिशाएँ आईं। 
भगवतीचरण वर्मा, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर आदि 
इस युग के प्रमुख लेखक थे।


आधुनिकता काल (20वीं शताब्दी के बाद)
इस युग में भारतीय समाज में तेजी से परिवर्तन हुआ और साहित्य में भी 
नए दिशानिर्देश दिखाई दिए। साहित्यिक आविष्कार और विभिन्न धाराएँ उत्पन्न हुईं।

यह थी कुछ मुख्य युगों की एक संक्षिप्त झलक। हिंदी साहित्य का इतिहास और विकास बहुत विस्तृत और गहरा है, जिसमें विभिन्न काव्य, उपन्यास, नाटक, कहानी आदि के महत्वपूर्ण यथार्थ हैं।

                   1.आदिकाल (संदर्भित करीब 7 वीं शताब्दी तक): 

आदिकाल भारतीय साहित्य का पहला युग है, जो वैदिक समय से लेकर प्राचीन भारतीय साहित्य की शुरुआत तक विकसित हुआ। यह युग करीब 7वीं शताब्दी तक चलता है और इसका मुख्य विशेषता वेदों का संग्रहण और प्राचीन भाषा और साहित्य के प्रयोग की है।

इस युग में वैदिक साहित्य का महत्वपूर्ण स्थान है, जो वेदों में दर्शाया गया है। वेदों में विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक विचार व्यक्त हैं जो उस समय के समाज, धर्म और जीवन की चर्चाओं को प्रकट करते हैं। चार प्रमुख वेद होते हैं: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद। वेदों की भाषा संस्कृत होती है, जो इस युग की प्रमुख भाषा थी।

इसके अलावा, इस युग में वेदांत दर्शन का विकास हुआ, जिसमें ब्रह्मसूत्र, उपनिषद्यों, और भगवद गीता के माध्यम से आध्यात्मिक और दार्शनिक विचार प्रस्तुत किए गए। इन ग्रंथों में मानव जीवन के महत्वपूर्ण मुद्दे, धर्म, आत्मा, ब्रह्म, कर्म, और मोक्ष के विचार प्रस्तुत होते हैं।

आदिकाल का यह युग विचारशीलता, ध्यान, तपस्या, और ध्यान पर आधारित था, जिससे वैदिक साहित्य में दार्शनिक और आध्यात्मिक विचार विकसित हुए।

                  2.मध्यकाल (7 वीं शताब्दी से 18 वीं शताब्दी तक):

मध्यकाल भारतीय साहित्य का दूसरा महत्वपूर्ण युग है, जो 7वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक के बीच विकसित हुआ। इस युग में हिंदी साहित्य का विकास और परिपक्वता होती है, और इसकी विशेषता भक्तिकाल और रीतिकाल के दौरान हुई थी।

भक्तिकाल: इस युग में भक्ति और आध्यात्मिकता को महत्व दिया गया था। संत कवियों ने देवी-देवताओं की उपासना, भगवान के प्रति श्रद्धा, और मानवता के प्रति सहानुभूति की भावना को अपने काव्य में व्यक्त किया। इसके प्रमुख प्रतिनिधि संत कवियाँ थीं: सूरदास, तुलसीदास, कबीर, मीराबाई, रैदास, नामदेव, एकनाथ आदि।

रीतिकाल: इस युग में हिंदी साहित्य में रस, अलंकार, छंद, और काव्यशास्त्र के विकास का ध्यान था। रीतिकाल काव्य में भाषा की शोभा, भावुकता, और कला को महत्व दिया गया। इस काल में मुक्तक काव्य (कृति या चरित) भी विकसित हुए, जिनमें धार्मिक और दार्शनिक विचारों की चित्रण की गई।

महाकवि तुलसीदास का 'रामचरितमानस' इस युग की प्रमुख रचनाओं में से एक है, जो भगवान श्रीराम की कथा को अद्वितीय रूप में प्रस्तुत करता है। सूरदास के पद, कबीर के दोहे, और मीराबाई के भजन भी इस युग की महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं।

मध्यकाल में भाषा के विकास, साहित्यिक रसों की समृद्धि, और धार्मिक तथा सामाजिक विचारों की प्रतिष्ठा का उदाहरण है।

              3. आधुनिक काल (19 वीं शताब्दी से 20 वीं शताब्दी तक):

आधुनिक काल भारतीय साहित्य का तीसरा महत्वपूर्ण युग है, जो 19वीं शताब्दी से 20वीं शताब्दी तक के दौरान विकसित हुआ। यह युग ब्रिटिश साम्राज्य के आगमन, भारतीय समाज में सामाजिक और धार्मिक उत्थान, और विश्व के साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण परिवर्तनों का साक्षी रहा।

इस काल की मुख्य विशेषताएँ:

1. भारतीय समाज में सुधार: आधुनिक काल के दौरान भारतीय समाज में सुधारों की शुरुआत हुई। समाज में जातिवाद, परम्परागत प्रथाओं, और अशिक्षा के खिलाफ आवाज उठाई गई। समाज सुधारकों ने समाज में शिक्षा, जाति-प्रथा और सामाजिक बदलाव की दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए।

2. भाषा के विकास: आधुनिक काल में भाषा का विकास भी हुआ। हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दी गई और उसके लिए समृद्ध साहित्यिक परिवर्तन हुआ।

3. साहित्यिक उत्थान: इस काल में साहित्य के कई प्रमुख प्रांतिक और राष्ट्रीय उत्थान हुए। भाषा, साहित्य, कला, और साहित्यिक संगठनों में गतिविधियाँ बढ़ी।

4. स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा: आधुनिक काल के दौरान भारत में स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा और उत्तेजना बढ़ी। साहित्यिक कार्यक्रम, नाटक, कविता, और उपन्यास में स्वतंत्रता संग्राम की भावना उजागर होती है।

5. साहित्यिक प्रगति: इस काल में भारतीय साहित्य में विभिन्न प्रांतिक स्कूलों का विकास हुआ। नवजवान लेखकों ने नए विचारों की प्रस्तावना की और उन्होंने समाज की समस्याओं को उजागर किया।

6. उपन्यासों का विकास: आधुनिक काल में उपन्यास का विकास हुआ और यह साहित्य की मुख्य शृंखला बन गया। उपन्यासों में समाज, राजनीति, आध्यात्मिकता, और मानवीय विचारों को उजागर किया गया।



इस काल में समाज में विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक परिवर्तन हुए जिनसे नए विचार और आदर्श उत्पन्न हुए।

*आधुनिकता की शुरुआत: आधुनिक काल की शुरुआत 19वीं शताब्दी में हुई जब ब्रिटिश शासन भारत में प्रबल होने लगा। यह समय भारतीय समाज में सुधार और समाजिक उत्थान की दिशा में नए विचारों की उत्पत्ति की शुरुआत थी।

*लोकप्रियता और संघर्ष: इस काल में भारतीय लोकप्रियता और जागरूकता में बड़ी वृद्धि हुई। महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद, रवींद्रनाथ टैगोर, बाल गंगाधर तिलक जैसे महान व्यक्तियों ने भारतीय समाज को जागरूक करने के लिए कई सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन चलाए।

*साहित्यिक परिवर्तन: आधुनिक काल में हिंदी साहित्य में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। यहाँ कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएँ हैं:

*बाँधकाम साहित्य: इस काल में व्यक्तिगत और सामाजिक मुद्दों पर आधारित कहानियाँ, कविताएँ, निबंध, उपन्यास आदि लिखी गई।


*नवजवान साहित्य: युवा पीढ़ी के लेखकों ने समाज की समस्याओं को उजागर किया और उन्हें समाधान की दिशा में विचार किया।


*भाषा की परिवर्तन: हिंदी साहित्य में भाषा की परिवर्तन भी दिखाई दी, जिसमें उसमें उपयोग होने वाली विभिन्न भाषाओं का प्रभाव दिखाई दिया।


*सामाजिक चिंतन: लोगों ने सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त किए और समाज को सशक्त बनाने की दिशा में काम किया।


*नाटक और कविता: नाटक और कविता के क्षेत्र में भी नए प्रयोग और आदर्श दिखाए गए।

यह काल भारतीय साहित्य के नए आदर्शों और नए दिशानिर्देशों की शुरुआत थी, जो आज तक साहित्यिक और सामाजिक विचारधारा में महत्वपूर्ण हैं।

इस युग में महान कवियों और लेखकों ने अपने काव्य, उपन्यास, कहानियाँ और नाटकों के माध्यम से समाज में जागरूकता, उत्तरदायित्व और स्वतंत्रता की महत्वपूर्ण बातें प्रस्तुत की।

4. आधुनिकता काल (20वीं शताब्दी के बाद):


20वीं शताब्दी के बाद का आधुनिकता काल भारतीय साहित्य में और भी नए परिवर्तन और विकास की दिशा में हुआ। इस काल में साहित्यिक और सामाजिक बदलाव हुआ, तकनीकी प्रगति का प्रभाव महसूस हुआ, और साहित्यिक दृष्टिकोण से नए प्रयास देखने को मिले।

विभिन्न प्रायोजनों का साहित्य: आधुनिकता काल में साहित्य कई प्रायोजनों की सेवा करने लगा, जैसे कि विज्ञान, सामाजिक चिंतन, राजनीति, व्यापार, और नौकरी आदि के प्रायोजनों को पूरा करने का।

नई विचारधाराएँ:
इस काल में विभिन्न विचारधाराएँ उत्तरदायित्व, असमानता, मानवाधिकार, स्वतंत्रता, और विकास के चर्चाओं के साथ उत्पन्न हुई।

उपन्यास की महत्वपूर्ण भूमिका: उपन्यास इस काल में एक महत्वपूर्ण साहित्यिक रूप बन गया, जिसमें समाज के विभिन्न पहलुओं का परिचय दिया गया।

स्त्री लेखन: आधुनिकता काल में स्त्री लेखन का महत्वपूर्ण योगदान था, जिससे स्त्रियों के विचार और दृष्टिकोण को सामाजिक रूप से दर्शाने का मौका मिला।

नए साहित्यिक चुनौतियाँ: नए साहित्यिक चुनौतियों ने उत्कृष्ट काव्य, उपन्यास, कहानी, नाटक, और गद्य के क्षेत्र में नये प्रयोग और रूपों का निर्माण किया।

भाषा का विकास: भाषा में भी विकास हुआ, जिसमें संवादीय भाषा का उपयोग और साहित्यिक अर्थप्रति में परिवर्तन दिखाई दिया।

विभिन्न प्रवृत्तियाँ: आधुनिकता काल में भी विभिन्न प्रवृत्तियाँ दिखाई दी, जैसे रोमांटिकिज्म, रियलिज्म, मानववाद, नायकवाद, आदि।

महत्वपूर्ण लेखक: इस काल के महत्वपूर्ण लेखकों में मुंशी प्रेमचंद, सुरेन्द्रनाथ, भूपेन्द्रनाथ मधुकर, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, हरिवंश राय बच्चन, प्रेमचंद, और अखिल शर्मा श्रेणी शामिल हैं।

आधुनिकता काल ने भारतीय साहित्य को नए दिशानिर्देशों में ले जाने का काम किया और आज के भारतीय साहित्य की अवश्यक आधारभूत नींव रखी।


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Sunday, December 26, 2021

💁‍♀️ कुछ प्रचलित लोकोक्तियाँ  Lokokti

 

     कुछ प्रचलित लोकोक्तियाँ 


1. अंगूर खट्टे हैं ।

     --वस्तु दुर्लभ है, इसलिए बुरी है।

2. अंधों में काना राजा

    -अज्ञानियों में अल्पज्ञान वाला व्यक्ति भी श्रेष्ठ माना जाता है।

3. अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता ।

    -- अकेला आदमी कठिन काम नहीं कर सकता ।

4. अधजल गगरी छलकत जाय । 

     -- ओछ आदमी में अधिक अहंकार होता है।

5. अपना हाथ जगन्नाय ।

    -श्रम ही ईश्वर का रूप है।

6. आँख का अंघा नाम नैन सुख ।

    - नाम के विपरीत आचरण। •

7. आप भला सो जग भला ।

    -अच्छे आदमी के लिए सारा संसार अच्छा है।

8. आम के आम गुठलियों के दाम ।

    - दोहरा लाभ ।

9. आसमान से गिरा खजर पे अटका ।

   -एक विषम स्थिति से निकलकर दूसरी विषम स्थिति में फँसना ।     (इसी अर्थ में 'पहाड़ से गिरा खजूर पे अटका' कहावत भी प्रचलित है।)

10. इघर कुंआ, उधर खाई ।

    — दोनों ओर संकट की स्थिति। किंकर्तव्यता की स्थिति

11. ऊँची दुकान फीका पकवान

      -- प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा के अनुरूप स्तर का अभाव

12. ऊँट के मुंह में जीरा ।

       --अत्यल्प और अपर्याप्त वस्तु

13. उतर गयी लोई, अब क्या करेगा कोई ?

      - बेशर्मी अपना लेने पर बदनामी का क्या डर 

14. एक और एक ग्यारह होते हैं।

     -संगठन और एकता में बड़ा बल है। 'संघे शक्तिः कलौ युगे संस्कृत लोकोक्ति ।

15. एक तो करेला, दूजे नीम चढ़ा।

     -स्वभाव से ही दुष्ट व्यक्ति कुसंगति में पड़ जाये तो उसकी स्थिति और भी बदतर हो जाती है।

16. ओखली में सर, तो मुसल का क्या डर ?

      — खतरे का सामना करने का संकल्प कर लिया, तो फिर डर कैसा ? 

17. कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर

      - स्थितियां बदलती रहती हैं। कभी मैं बाप पर अवलंबित रहता हूँ, कभी आप मुझ पर

18. कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली ? 

      —दोनों की कोई तुलना नहीं ।

19. कहीं की ईंट कही का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा।

     - इधर-उधर से सामान जुटाकर सम्पन्नता का दिखावा करना। 

20. काजी के घर के चूहे भी सयाने होते हैं।

      -चतुर व्यक्ति के संपर्क में रहकर सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी चतुर हो जाता है।

21. काजीजी दुबले क्यों ? शहर के अंदेशे से । 

      --अपने घर की चिता छोड़कर दुनिया भर की चिंता करना व्यर्थ प्रयास है।

22. कोयले की दलाली में हाथ काले ।

      -बुरों की मध्यस्थता करना बदनामी का कारण होता है ।

23. खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे ।

       --पराजय से खिन्न व्यक्ति कमजोर आदमी पर अपना क्रोध उतारता है।

24. खोदा पहाड़, निकली चुहिया । 

      --वडी अपेक्षा, अल्प उपलब्धि

25. गंगा गये गंगादास, जमना गये जमनादास ।

      -- अवसरवादी, गिरगिट की तरह रंग बदलने वाला व्यक्ति ।

26. गरीबी में आटा गोला। 

      --अभावों के बीच और खर्च आ पड़ना।

27. गाय न बच्छी, नींद आये अच्छी । 

     --निर्धन व्यक्ति को किसी चीज की रखवाली नहीं करनी पड़ती।

वह निश्चित होकर सोता है । 

28. गुड़ खाये गुलगुलों से परहेज करे ।

       - समान गुणधर्म वाली वस्तुओं में से एक का प्रयोग करना और दूसरी को त्याज्य समझना । 

      (कई व्यक्ति चाय नहीं पीते, काफी पी लेते हैं।)

29. गुड़ न दे, गुड़ की-सी बात तो करे ।

       -- किसी की सहायता न कर सकें तो कम-से-कम सांत्वना तो दें । इसमें तो कोई खर्च नहीं होता। दो मीठे वचन तो बोल ही सकते हैं।

30. गुरु गुड़ के गुड़ रहे, चेले शक्कर हो गये । 

      --कई वार शिष्य गुरु से आगे निकल जाता है।

31.घर में आया नाग न पूजे, बांबी पूजन जाए। 

     -पास आए सहायक की उपेक्षा करना और फिर सहायक ढूंढ़ते फिरना अव्यावहारिकता है। 

32. घर का जोगी जोगड़ा, आन गाँव का सिद्ध ।

      --हम परिचित ज्ञानी व्यक्ति को उचित सम्मान नहीं देते और दूर के अल्पज्ञानी को भी पंडित मानकर पूजते हैं ।

33. घर का भेदी लंका ढावे ।

      -परिचित व्यक्ति ही शत्रु से मिलकर घर का भेद देता है और परा जय या हानि का कारण बनता है । 

34. घर की मुर्गी दाल बराबर ।

       -घर पर पैदा हुई कीमती चीज बाजार की सस्ती चीज के बराबर महत्त्वहीन होती है। उसका उपभोग करते समय हम उसके मूल्य का विचार नहीं करते ।

35. चमड़ी जाये, दमड़ी न जाये । 

      -- कंजूस आदमी जान पर बन आने पर भी पैसा खर्च करना नहीं चाहता ।

36. चूहे को मिल गयी हल्दी की गाँठ, वही पंसार बन बैठा । 

      --तुच्छ व्यक्ति थोड़ा-सा पाते ही अपने-आपको धनी समझने लगता है।

37. चोर-चोर मौसेरे भाई ।

      --दुष्ट प्रकृति के लोगों में सहज मित्रता होती है।

38. चोरी का माल मोरी में ।

      --अनुचित साधनों से कमाया पैसा शीघ्र नष्ट हो जाता है। 

39. जान बची और लाखों पाये। लौट के बुद्ध घर को आये । 

       -आपत्ति में पढ़कर सुरक्षित निकल आना भी बहुत बड़ा लाभ है

40. जिसकी लाठी, उसको भैंस । 

       --कुशासन में शक्तिशाली व्यक्ति ही संपत्ति का स्वामी होता है।


41. जिसने की शर्म, उसके फूटे कर्म । 

      -- लोक व्यवहार में शर्म करने वाला व्यक्ति सदा नुकसान उठाता है।

(संस्कृत में इस अर्थ को व्यक्त करने वाली एक सूक्ति है, 'आहारे व्यवहारे च व्यक्त लज्जा सुखी भवेत् ।'

42. जैसा देश, वैसा भेष । 

      --मनुष्य को समाज और परिवेश के अनुसार व्यवहार करना चाहिए।

43. जैसे साँपनाथ, वैसे नागनाथ । 

       —दो दुष्ट आदमियों में कोई किसी से कम नहीं होता।

44. झगड़ा झूठा, कब्जा सच्चा । 

     --वस्तु पर जिसका कब्जा होता है, वही उसका मालिक होता है। झगड़ा करने से प्रायः कोई लाभ नहीं होता ।

45. थोथा चना, बाजे घना ।

     --अपूर्णता में अधिक अहंकार देखा जाता है।

46. दूध का जला छाछ की भी फूंककर पीता है।

      --हानि उठाकर व्यक्ति सशंक और सतर्क हो जाता है। 

47. दूर के ढोल सुहावने ।

      --दूर की चीज आकर्षक लगती है।

         'पर्वतशिखरा: दूरादेव रम्याः' - संस्कृत सूक्ति

48. घोबी का कुत्ता घर का न घाट का ।

     --दुविधा की स्थिति में मनुष्य न इधर का रहता है न उधर का। 

49. नक्कारखाने में तूती की आवाज।

      —बड़े लोगों के बीच छोटे व्यक्ति की आवाज दबकर रह जाती है। 

50. न रहेगा वाँस, न बजेगी बाँसुरी ।

      —अवांछित वस्तु का मूल नष्ट कर देने से ही उससे छुटकारा मिलता है।

51. नाच न जाने आँगन टेढ़ा ।

     --अपनी असफलता के लिए साधनों को दोष देना उचित नहीं।

52. नीम हकीम खतरा ए जान ।

       -अधूरा ज्ञान खतरनाक होता है।

53. नेकी कर कुएं में डाल।

      --उपकार करके प्रतिफल की आशा नहीं करनी चाहिए।

54. नौ नकद न तेरह उधार । 

      - देरी से मिलने वाले अधिक लाभ से, तत्काल मिला कम लाभ बेहतर है ।

55. टके की बुढिया नो टके सिर मुंडाई।

      -कम मूल्य की वस्तु पर रख-रखाव का अधिक खर्च कोई पसंद नहीं करता ।

56. की इंडिया गयी, कुत्ते की जात पहचानी गयी।

       --हमारा थोड़ा-सा नुकसान हुआ तो क्या, उसके चरित्र तो हो गयी ।

57. पढ़ें फारसी बेचें तेल, ये देखो किस्मत के खेल की परीक्षा।

      -पढ़ा-लिखा व्यक्ति यदि जीविका के लिए तुच्छ काम करे तो इसे भाग्य की विडम्बना ही समझिए ।

58. पर उपदेश कुशल बहुतेरे ।

      -- दूसरे को उपदेश देने में सभी कुशल होते हैं।

59. पूत के पाँव पालने में ही पहचाने जाते हैं।

      --व्यक्ति की प्रवृत्तियों का (गुण-दोषों का) पता बचपन में ही चल जाता है । 

60. बंद मुट्ठी लाख की ।

      -अपनी शक्ति या सम्पन्नता का किसी को मेद न दो ।

61. बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद ?

      -- उत्तम कृति का सौंदर्य आँकने के लिए सौंदर्य बोध आवश्यक है।

62. बगल में छोरा, शहर में ढिंढोरा ।

     --पास की चीज न देख पाना और इधर-उबर पूछते फिरना हास्या स्पद होता है।

63. बड़े मियाँ सो बड़े मियाँ, छोटे मियाँ शुभान अल्लाह ।

       -बड़े तो लाजवाब थे ही, छोटे उनसे भी बढ़कर निकले ।

64. बद अच्छा बदनाम बुरा ।

      --बुराई से बदनामी अधिक हानिप्रद होती है।

65. बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से आय ? 

      --बुरा काम करके अच्छे फल की आशा नहीं की जा सकती।

66. भागते चोरको सँगोटी भी भली ।

      --डूबते पैसे में से जो कुछ मिल जाए, अच्छा है।

67. भेड तो जहां जायेगी, वहीं मुंडेगी।

      -मोघा आदमी जहाँ जायेगा, वहीं ठगा जायेगा । 

68. मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।

     - सफलता प्राप्त करने के लिए आत्मविश्वास आवश्यक है।

69. मन चंगा तो कठौती में गंगा।

    - पवित्र आचरण वाले व्यक्ति को तोथं स्नान की जरूरत नहीं होती ।

70. मान न मान, मैं तेरा मेहमान 

       --जबरदस्ती गले पड़ना बुरी बात है।।

71. मियाँ बीवी राजी तो क्या करेगा काजी ।

     - दोनों पक्षों में सद्भाव हो, तो मध्यस्थ का कोई महत्व नहीं होता।

72. मुंह में राम, बगल में छुरी।

--वचन साबु जैसा और व्यवहार राक्षस जैसा ।

73. मुर्गा बांग न देगा तो क्या सुवह न होगी। 

      -किसी की सहायता के बिना काम नहीं रुकता।

74. यथा राजा तथा प्रजा ।

     -जैसे शासक होंगे, वैसी ही प्रजा होगी। 

75. राम नाम जपना, पराय। माल अपना ।

      -ऊपर से साधु की तरह व्यवहार करना और मन ही मन दूसरे की संपत्ति पर नजर रखना अनीति है।

76. रोते जायें मरे की खबर लायें । 

     - अनमने ढंग से किया हुआ काम कभी सफल नहीं होता।

77. लातों के भूत बातों से नहीं मानते ।

      -दुष्ट आदमी को दंड देना आवश्यक है, समझाने-बुझाने से काम नहीं चलता।

78. वक्त पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है। 

      - जरूरत पड़ने पर तुच्छ व्यक्ति की भी खुशामद करनी पड़ती है।

79. शेर भूखों मर जायेगा, पर घास नहीं खायेगा ।

      - श्रेष्ठ व्यक्ति आपत्ति में पड़कर भी तुच्छ काम नहीं करते।

80. सब दिन जंगी त्यौहार के दिन नंगी। 

      -बभागा व्यक्ति आनंद के क्षणों का उपयोग नहीं कर पाता।

81. समरथ को नहि दोस गुसाईं ।

      - समर्थ व्यक्ति कैसा भी व्यवहार करे, कोई दोष नहीं दे सकता। 

82. सस्ता रोवे बार-बार महँगा रोवे एक बार । 

       सस्ती चीज खरीद कर बार-बार पछताना पड़ता है। वह टिकाऊ नहीं होती और रख-रखाव का खर्च ज्यादा होता है। किंतु महंगी चीज लेकर अधिक मूल्य देने का कष्ट एक ही बार होता है।

83. साँप निकल गया, अब लकीर पीटते रहो। 

      - अवसर बीत जाने पर सारे प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं

84. साँप मरे, न लाठी टूटे।

      - ऐसी युक्ति से काम लो कि काम भी बन जाये और हानि भी न हो ।

85. सावन के अंधे को हरा ही हरा सूझता है।

      -पूर्वग्रह से दूषित व्यक्ति हर चीज को अपनी ही दृष्टि से देखता है।

86. सिर मुंड़ाते ही ओले पड़े।

       -कार्य प्रारंभ करते ही बाघा आ गयी ।

        'प्रथमे ग्रासे मक्षिका पातः' - संस्कृत सूक्ति

87. सिर सलामत तो पगड़ी पचास ।

    -स्वाभिमान रहेगा तो सम्मान करने वाले पचास मिल जायेंगे ।

88. सोवी उँगलियों से घी नहीं निकलता। 

      -सफलता पाने के लिए कुटिल व्यवहार करना पड़ता है ।

89. सुबह का भूला शाम को घर लौट आये तो उसे भूला नहीं कहते । 

     -बुरा काम करके शीघ्र ही पछतावा करने वाला व्यक्ति क्षम्य होता है।

90. सैंया भये कोतवाल, अब डर काहे का।

     - ऊपर का अधिकारी अपना हो तो भ्रष्टाचार को खूब बढ़ावा मिलता है।

91. सौ दिन चोर के एक दिन साध का ।

      -दुष्ट व्यक्ति एक न एक दिन पकड़ा ही जाता है।

92. सौ सुनार की एक लुहार की ।

      -शक्तिशाली व्यक्ति का एक ही आघात निर्बल के सो आघातों से बढ़कर होता है।

93. सौ चूहे खाय के बिल्ली हज को चली।

-जीवन-भर पाप करके अब पूजा-पाठ का ढोंग ।

94. हमारी बिल्ली हमसे हो ग्याँउ ?

     - हमारे सिखाये दाँवों का हम पर ही इस्तेमाल करते हो ?

95. हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा आये ।

—कोई खर्च न हो, और काम उत्तम हो जाये ।

96. हाँडी का मुंह बड़ा हो तो बिल्ली को तो शर्म चाहिए ।

-किसी की उदारता का अनुचित लाभ नहीं उठाना चाहिए। 

97. हाथ कंगन को आरसी क्या ? 

     -प्रत्यक्ष वस्तु को देखने के लिए दर्पण की जरूरत नहीं होती।

      'प्रत्यक्षं कि प्रमाणम्' - संस्कृत सूक्ति ।

98. हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और ।

    —आंतरिक और बाहरी व्यवहार में अंतर ढोंग है।

99. हाथी निकल गया, पूंछ रह गयी ।

      --सारा काम पूर्ण हो गया बस, थोड़ा-सा बाकी है।

100. हारे को हरिनाम।

       -कमजोर की ईश्वर रक्षा करता है।

101. हिम्मत का राम हिमायती ।

       - साहसी की ईश्वर भी सहायता करता है।

102. होनहार बिरवान के होत चीकने पात।

        -होनहार व्यक्ति का बचपन भी असामान्य होता है।


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Friday, September 10, 2021

4. मंत्र - श्री मुंशी प्रेमचंद


          4. मंत्र
         श्री मुंशी प्रेमचंद

            संध्या का समय था। डॉक्टर चड्ढा गोल्फ खेलने के लिए तैयार हो रहे थे। मोटर के सामने खड़ी थी। दो आदमी एक डोली लिये आते दिखायी दिये। डोली के पीछे द्वार एक बूढ़ा लाठी टेकता चला आ रहा था। डोली औषधालय के सामने आकर रुक गयी। बूढ़े ने धीरे-धीरे आकर द्वार पर पड़ी हुई चिक से झाँका। ऐसी साफ़-सुथरी ज़मीन पर पैर रखते हुए भय हो रहा था कि कोई घुड़क न बैठे। डॉक्टर साहब को खड़े देख कर भी उसे कुछ कहने का साहस न हुआ।

       डॉक्टर साहब ने चिक के अंदर से गरज कर कहा- कौन है? क्या चाहता है?

        बूढ़े ने हाथ जोड़कर कहा- हुज़ूर, बड़ा गरीब आदमी हूँ। मेरा लड़का कई दिन से..... डॉक्टर साहब ने सिगार जला कर कहा - कल सबेरे आओ, कल सबेरे, हम इस वक्त मरीज़ों को नहीं देखते।

       बूढ़े ने घुटने टेक कर ज़मीन पर सिर रख दिया और बोला- दुहाई है सरकार की, लड़का मर जायगा, चार दिन से आँखें नहीं ......

      डॉक्टर चड्ढा ने कलाई पर नज़र डाली। केवल दस मिनट समय और बाकी था । गोल्फ स्टिक खूँटी से उतारते हुए बोले - कल सबेरे आओ, कल सबेरे; यह हमारे खेलने का समय है।

       बूढ़े ने पगड़ी उतार कर चौखट पर रख दी और रोकर बोला- हुज़ूर, एक निगाह देख लें। बस, एक निगाह! लड़का हाथ से चला जायगा । हुज़ूर, सात लड़कों में यही एक बच रहा है, हुज़ूर । हम दोनों आदमी रो-रोकर मर जायेंगे, सरकार! आपकी बढ़ती होय, दीनबंधु!

       ऐसे उजड्ड देहाती यहाँ प्रायः रोज आया करते थे। डॉक्टर साहब उनके स्वभाव से खूब परिचित थे। कोई कितना ही कुछ कहे; पर वे अपनी ही रट लगाते जायँगे। किसी की सुनेंगे नहीं। धीरे से चिक उठाई और बाहर निकल कर मोटर की तरफ़ चले । बूढ़ा यह कहता हुआ उनके पीछे दौड़ा-सरकार, बड़ा धरम होगा। हुज़ूर, दया कीजिए, बड़ा दीन दुखी हूँ; संसार में कोई और नहीं है, बाबू जी।

         मगर डॉक्टर साहब ने उसकी ओर मुँह फेर कर देखा तक नहीं। मोटर पर बैठ बोले - कल सबेरे आना ।

         मोटर चली गयी। बूढ़ा कई मिनट तक मूर्ति की भाँति निश्चल खड़ा रहा। संसार में ऐसे मनुष्य भी होते हैं, जो अपने आमोद-प्रमोद के आगे किसी की जान की भी परवाह नहीं करते, शायद इसका उसे अब भी विश्वास न आता था। सभ्य संसार इतना निर्मम, कठोर है, इसका ऐसा मर्मभेदी अनुभव अब तक न हुआ था। वह उन पुराने जमाने के जीवों में था, जो लगी हुई आग को बुझाने, मुर्दे को कंधा देने, किसी के छप्पर को उठाने और किसी कलह को शांत करने के लिए सदैव तैयार रहते थे । इतना

        उसी रात उसका हँसता-खेलता सात साल का बालक अपनी बाल-लीला समाप्त करके इस संसार से सिधार गया । बूढ़े माँ-बाप के जीवन का यही एक आधार था। इसी का मुँह देख कर जीते थे। इस दीपक के बुझते ही जीवन की अँधेरी रात भाँय-भाँय करने लगी। बुढ़ापे की विशाल ममता टूटे हुए हृदय से निकल कर अंधकार आर्त्त-स्वर से रोने लगी।

                                          2

          कई साल गुजर गये। डॉक्टर चड्ढा ने खूब यश और धन कमाया; लेकिन इसके साथ ही अपने स्वास्थ्य की रक्षा भी की, जो एक साधारण बात थी। यह उनके नियमित जीवन का आशीर्वाद था कि पचास वर्ष की अवस्था में उनकी चुस्ती और फुर्ती युवकों को भी लज्जित करती थी। उनके हर एक काम का समय नियत था, इस नियम से वह जौ-भर भी न टलते थे। उनके केवल दो बच्चे हुए, एक लड़का और एक लड़की । लड़की का तो विवाह हो चुका था । लड़का कालेज़ में पढ़ता था। आज उसकी बीसवीं सालगिरह थी।

      संध्या का समय था। हरी - हरी घास पर कुर्सियाँ बिछी हुई थीं। शहर के रईस और हुक्काम एक तरफ़, कालेज़ के छात्र दूसरी तरफ़ बैठ भोजन कर रहे थे। बिजली के प्रकाश से सारा मैदान जगमगा रहा था । आमोद-प्रमोद का सामान भी जमा था।

          मृणालिनी और कैलाश दोनों सहपाठी थे और एक-दूसरे के प्रेम में पगे हुए। कैलाश को साँपों के पालने, खेलाने और नचाने का शौक था । तरह-तरह के साँप पाल रखे थे। उनके स्वभाव और चरित्र की परीक्षा करता रहता था। थोड़े दिन हुए, उसने विद्यालय में ‘साँपों' पर एक मार्के का व्याख्यान दिया था। साँपों को नचा कर दिखाया भी था।

प्राणिशास्त्र के बड़े-बड़े पंडित भी यह व्याख्यान सुन कर दंग रह गये थे। यह विद्या उसने एक बड़े सँपेरे से सीखी थी। साँपों की जड़ी-बूटियाँ जमा करने का उसे मरज था।

         ज्योंहि प्रीति-भोज समाप्त हुआ और गाना शुरू हुआ, उसने मृणालिनी और अन्य मित्रों को साँपों के दरबे के सामने ले जाकर महुअर बजाना शुरू किया। फिर एक-एक खाना खोलकर एक-एक साँप को निकालने लगा। वाह! क्या कमाल था। ऐसा जान पड़ता था कि वे कीड़े उसकी एक-एक बात, उसके मन का एक-एक भाव समझते हैं। किसी को उठा लिया, किसी को गरदन में डाल लिया, किसी को हाथ में लपेट लिया।

        एक मित्र ने टीका की-दाँत तोड़ डाले होंगे।

         कैलाश हँसकर बोला-दाँत तोड़ डालना मदारियों का काम है। किसी के दाँत नहीं तोड़े गये कहिए तो दिखा दूँ? कहकर उसने एक काले साँप को पकड़ लिया और बोला “मेरे पास इससे बड़ा और जहरीला साँप दूसरा नहीं है, अगर किसी को काट ले, तो आदमी आनन-फानन में मर जाय । लहर भी न आये। इसके काटे पर मंत्र नहीं। इसके दाँत दिखा दूँ?"

        मृणालिनी ने उसका हाथ पकड़कर कहा - नहीं-नहीं कैलाश, ईश्वर के लिए इसे छोड़ दो। तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ।

          इस पर एक दूसरे मित्र बोले- मुझे तो विश्वास नहीं आता, लेकिन तुम कहते हो, तो मान लूँगा।

          इसलिए कैलाश ने उस साँप की गर्दन खूब दबा कर मुँह खोल दिया और उसके ज़हरीले दाँत दिखाते हुए बोला "जिन सज्जनों को शक हो, आकर देखे लें। आया विश्वास ? या अब भी कुछ शक है?" मित्रों ने आकर उसके दाँत देखे और चकित हो गये। प्रत्यक्ष प्रमाण के सामने संदेह का स्थान कहाँ ? मित्रों का शंका-निवारण करके कैलाश ने साँप की गर्दन ढीली कर दी और उसे ज़मीन पर रखना चाहा, पर वह काला गेहुँवन क्रोध से पागल हो रहा था। गर्दन नरम पड़ते ही उसने सिर उठा कर कैलाश की उँगली में जोर से काटा और वहाँ से भागा । कैलाश की उँगली से टप-टपकर खून टपकने लगा। उसने जोर से उँगली दबा ली और अपने कमरे की तरफ़ दौड़ा। वहाँ मेज़ की दराज में एक जड़ी रखी हुई थी, जिसे पीस कर लगा देने से घातक विष भी रफू हो जाता था। मित्रों में  हलचल पड़ गई। बाहर महफिल में भी खबर हुई। डॉक्टर साहब घबरा कर दौड़े। फौरन उँगली की जड़ कस कर बाँधी गयी और जड़ी पीसने के लिए दी गयी। डॉक्टर साहब जड़ी के कायल न थे। वह उँगली का डसा भाग नश्तर से काट देना चाहते थे, मगर कैलाश को जड़ी पर पूर्ण विश्वास था। यह खबर सुनते ही मृणालिनी दौड़ी, और कैलाश की उँगली से टपकते हुए खून को रूमाल से पोंछने लगीं। जड़ी पीसी जाने लगी; पर उसी एक मिनट में कैलाश की आँखें झपकने लगीं, ओंठों पर पीलापन दौड़ने लगा। यहाँ तक कि वह खड़ा न रह सका। फर्श पर बैठ गया। सारे मेहमान कमरे में जमा हो गए। कोई कुछ कहता था। कोई कुछ। इतने में जड़ी पीसकर आ गयी। मृणालिनी ने उँगली पर लेप किया। एक मिनट और बीता। कैलाश की आँखें बंद हो गयीं। वह लेट गया और हाथ से पंखा झलने का इशारा किया। माँ ने दौड़कर उसका सिर गोद में रख लिया और बिजली का टेबुल-फेन लगा दिया।

         डॉक्टर साहब ने झुक कर पूछा- कैलाश, कैसी तबीयत है? कैलाश ने धीरे से हाथ उठा लिए; पर कुछ बोल न सका। मृणालिनी ने करुण स्वर में कहा-“क्या जड़ी कुछ असर न करेगी?” डॉक्टर साहब ने सिर पकड़ कर कहा-क्या बतलाऊँ, मैं इसकी बातों में आ गया । अब तो नश्तर से भी कुछ फायदा न होगा ।

         आधे घंटे तक यही हाल रहा। कैलाश की दशा प्रतिक्षण बिगड़ती जाती थी। यहाँ तक कि उसकी आँखें पथरा गयी, हाथ-पाँव ठंडे पड़ गये, मुख की कांति मलिन पड़ गयी, में नाड़ी का कहीं पता नहीं। मौत के सारे लक्षण दिखायी देने लगे। घर में कुहराम मच गया। मृणालिनी एक ओर सिर पीटने लगी; माँ अलग पछाड़े खाने लगी। डॉक्टर चड्ढा को मित्रों ने पकड़ लिया, नहीं तो वह नश्तर अपनी गर्दन पर मार लेते।

          एक महाशय बोले - कोई मंत्र झाड़ने वाला मिले, तो संभव है, अब भी जान बच जाय ।

           एक मुसलमान सज्जन ने इसका समर्थन किया-अरे साहब कब्र में पड़ी हुई लाशें जिंदा हो गयी हैं। ऐसे-ऐसे बाकमाल पड़े हुए है। हैं।

           डॉक्टर बोले-मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गया था कि इसकी बातों में आ चड्ढा गया। नश्तर लगा देता, तो यह नौबत ही क्यों आती। बार-बार समझाता रहा कि बेटा, सॉप न पालो, मगर कौन सुनता था । बुलाइए, किसी झाड़-फूक करने वाले ही को  बुलाइए। मेरा सब कुछ ले ले, मैं अपनी सारी जायदाद उसके पैरों पर रख दूँगा। लँगोटी बाँधकर घर से निकल जाऊँगा; मगर मेरा कैलाश, मेरा प्यारा कैलाश उठ बैठे। ईश्वर के लिए किसी को बुलवाइए।

        एक महाशय का किसी झाड़ने वाले से परिचय था। वह दौड़कर उसे बुला लाये; मगर कैलाश की सूरत देखकर उसे मंत्र चलाने की हिम्मत न पड़ी। बोला- अब क्या हो सकता है, सरकार ? जो कुछ होना था, हो चुका।

         अरे मूर्ख, यह क्यों नहीं कहता कि जो कुछ न होना था, वह कहाँ हुआ?

                                            3


            शहर से कई मील दूर एक छोटे-से घर में एक बूढ़ा और बुढ़िया अँगीठी के सामने बैठे जाड़े की रात काट रहे थे। बूढ़ा नारियल पीता था और बीच-बीच में खाँसता था। बुढ़िया दोनों घुटनों में सिर डाले आग की ओर ताक रही थी। एक मिट्टी के तेल की कुप्पी ताक पर जल रही थी। घर में न चारपाई थी, न बिछौना। एक किनारे थोड़ी-सी पुआल पड़ी हुई थी। इसी कोठरी में एक चूल्हा था । बुढ़िया दिन-भर उपले और सूखी लकडियाँ बटोरती थी। बूढ़ा रस्सी बट कर बाज़ार में बेच आता था । यही उनकी जीविका थी। उन्हें न किसी ने रोते देखा, न हँसते । उनका सारा समय जीवित रहने में कट जाता था। मौत द्वार पर खड़ी थी, रोने या हँसने की कहाँ फुरसत! बुढ़िया ने पूछा-कल के लिए सन तो है नहीं, काम क्या करोगे?

       'जाकर झगडू साह से दस सेर सन उधार लाऊँगा?'

       'उसके पहले के पैसे तो दिये ही नहीं, और उधार कैसे देगा?'

        ‘न देगा न सही। घास तो कहीं नहीं गयी। दोपहर तक क्या दो आने की भी न काँगा?'

        इतने में एक आदमी ने द्वार पर आवाज़ दी-भगत, भगत, क्या सो गये? ज़रा किवाड़ खोलो।

         भगत ने उठकर किवाड़ खोल दिये। एक आदमी ने अंदर आकर कहा- कुछ सुना, डॉक्टर चड्ढा बाबू के लड़के को साँप ने काट लिया।

        भगत ने चौंक कर कहा- चड्ढा बाबू के लड़के को। वही चड्ढा बाबू हैं न, जो छावनी में बंगले में रहते हैं?

        'हाँ हाँ वही। शहर में हल्ला मचा हुआ है। जाते हो तो जाओ, आदमी जाओगे।'

        बूढ़े ने कठोर भाव से सिर हिला कर कहा-मैं नहीं जाता। मेरी बला जाय। वहीं सुन है। खूब जानता हूँ। भैया, लेकर उन्हीं के पास गया था। खेलने जा रहे थे। पैरों पर चड्ढा गिर पड़ा कि एक नज़र देख लीजिए, मगर सीधे मुँह से बात तक न की। भगवान बैठे रहे थे। अब जान पड़ेगा कि बेटे का गम कैसा होता है। कई लड़के हैं ।

        'नहीं जी, यही तो एक लड़का था। सुना है, सबने जवाब दे दिया है।'

        'भगवान बड़ा कारसाज है। उस बखत मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े थे, पर उन्हें तनिक भी दया न आयी थी। मैं तो उनके द्वार पर होता, तो भी बात न पूछता।' ‘तो न जाओगे? हमने जो सुना था, सो कह दिया।'

        'अच्छा किया—अच्छा किया। कलेजा ठंडा हो गया, आँखें ठंडी हो गयीं। लड़का भी ठंडा हो गया होगा। तुम जाओ आज चैन की नींद सोऊँगा । (बुढ़िया से) जरा तंबाकू ले ले! एक चिलम और पीऊँगा । अब मालूम होगा लाला को। सारी साहबी निकल जायगी, हमारा क्या बिगड़ा। लड़के के मर जाने से कुछ राज तो नहीं चला गया? जहाँ छः बच्चे गये थे, वहाँ एक और चला गया, तुम्हारा तो राज सूना हो जायेगा। इन्होंने उसी के वास्ते सबका गला दबा-दबाकर जोड़ा था न अब क्या करोगे? एक बार देखने जाऊँगा; पर कुछ दिन बाद मिजाज का हाल पूछूंगा।'

           आदमी चला गया। भगत ने किवाड़ बंद कर लिये, तब चिलम पर तंबाखू रख कर पीने लगा। बुढ़िया ने कहा-इतनी रात गए, जाड़े-पाले में कौन जायगा?

          'अरे, दोपहर ही होता तो मैं न जाता। सवारी दरवाजे पर लेने आती, तो भी न जाता। भूल नहीं गया हूँ। पन्ना की सूरत आँखों में फिर रही है। इस निर्दयी ने उसे एक नज़र देखा तक नहीं। क्या मैं न जानता था कि वह न बचेगा? खूब जानता था। चड्ढा भगवान नहीं थे, कि उनके एक निगाह देख लेने से अमृत बरस जाता। नहीं, खाली मन की दौड़ थी। अब किसी दिन जाऊँगा और कहूँगा-क्यों साहब, कहिए, क्या रंग है? दुनिया बुरा कहेगी, कहे; कोई परवाह नहीं। छोटे आदमियों में तो सब ऐब हैं। बड़ों में कोई ऐब नहीं होता, देवता होते हैं।'

          भगत के लिए यह जीवन में पहला अवसर था कि ऐसा समाचार पा कर वह बैठा रह गया हो।

        अस्सी वर्ष के जीवन में ऐसी कभी न हुआ था कि साँप की ख़बर पाकर वह दौड़ न गया हो। माघ-पूस की अँधेरी रात, चैत-बैसाख की धूप और लू, सावन-भादों की चढ़ी हुई नदी और नाले, किसी की उसने कभी परवाह न की वह तुरंत घर से निकल पड़ता था निःस्वार्थ, निष्काम । लेन-देन का विचार कभी दिल में आया नहीं। यह ऐसा काम ही न था। जान का मूल्य कौन दे सकता है? यह एक पुण्य-कार्य था। सैकड़ों निराशों को उसके मंत्रों ने जीवन-दान दे दिया था; पर आप वह घर से कदम नहीं निकाल सका। यह खबर सुन कर सोने जा रहा है ।

          बुढ़िया ने कहा–तमाखू अँगीठी के पास रखी हुई है। उसके भी आज ढाई पैसे हो गये । देती ही न थी।

          बुढ़िया यह कहकर लेटी । बूढ़े ने कुप्पी बुझायी, कुछ देर खड़ा रहा, फिर बैठ गया। अंत को लेट गया; पर यह खबर उसके हृदय पर बोझे की भाँति रखी हुई थी। उसे मालूम हो रहा था, उसकी कोई चीज़ खो गयी है, जैसे सारे कपड़े गीले हो गये है या पैरों में कीचड़ लगा हुआ है, जैसे कोई उसके मन में बैठा हुआ उसे घर से निकालने के लिए कुरेद रहा है। बुढ़िया ज़रा देर में खर्राटे लेनी लगी। बूढ़े बातें करते-करते सोते हैं और ज़रा-सा खटा होते ही जागते हैं। तब भगत उठा, अपनी लकड़ी उठा ली, और धीरे से किवाड़ खोले ।

        बुढ़िया ने पूछा–कहाँ जाते हो?

        'कहीं नहीं, देखता था कि कितनी रात है।'

        'अभी बहुत रात है, सो जाओ'।

         'नींद नहीं आती।'

         ‘नींद काहे आयेगी? मन तो चड्ढा के घर पर लगा हुआ है।'

         'चड्ढा ने मेरे साथ कौन-सी नेकी कर दी है, जो वहाँ जाऊँ? वह आ कर पैरो पड़े, तो भी न जाऊँ ।'

          'उठे तो तुम इसी इरादे से ही?"

           'नहीं री, ऐसा पागल नहीं हूँ कि जो मुझे काँटे बोये, उसके लिए फूल बोता फिरूँ।'

            बुढ़िया फिर सो गयी। भगत ने किवाड़ लगा दिए और फिर आकर बैठा। पर उसके मन की कुछ ऐसी दशा थी, तो बाजे की आवाज़ कान में पड़ते ही उपदेश सुननेवालों की होती हैं। आँखें चाहे उपदेशक की ओर हों; पर कान बाजे ही की ओर होते हैं। दिल में भी बापे की ध्वनि गूँजती रहती है। शर्म के मारे जगह से नहीं उठता। निर्दयी प्रतिघात का भाव भगत के लिए उपदेशक था, पर हृदय उस अभागे युवक की ओर था, जो इस समय मर रहा था, जिसके लिए एक-एक पल का विलंब घातक था ।

           उसने फिर किवाड़ खोले, इतने धीरे से कि बुढ़िया को खबर भी न हुई। बाहर निकल आया। उसी वक्त गाँव के चौकीदार गश्त लगा रहा था, बोला- कैसे उठे भगत? आज तो बड़ी सरदी है। कहीं जा रहे हो क्या ?

        भगत ने कहा-नहीं जी, जाऊँगा कहाँ, देखता था, अभी कितनी रात है। भला, के बजे होंगे?

            चौकीदार बोला-एक बजा होगा और क्या, अभी थाने से आ रहा था, तो डॉक्टर चड्ढा बाबू के बँगले पर बड़ी भीड़ लगी हुई थी। उनके लड़के का हाल तो तुमने सुना होगा, कीड़े ने छू लिया है। चाहे मर भी गया हो। तुम चले जाओ तो शायद बच जाय । सुना है, दस हज़ार तक देने को तैयार हैं। भगत - " मैं तो न जाऊँ चाहे वह दस लाख भी दें। मुझे दस हज़ार या दस लाख लेकर करना क्या है? कल मर जाऊँगा, फिर कौन है।" भोगनेवाला बैठा हुआ है। "

             चौकीदार चला गया। भगत ने आगे पैर बढ़ाया। जैसे नशे में आदमी की देह अपने काबू में नहीं रहती, पैर कहीं रखता है, पड़ता कहीं है, कहता कुछ है, जबान से निकलता कुछ है, वही हाल इस समय भगत का था। मन में प्रतिकार था; पर कर्म, मन के अधीन न था। जिसने कभी तलवार नहीं चलायी, वह इरादा करने पर भी तलवार नहीं चला सकता। उसके हाथ काँपते हैं, उठते ही नहीं।

               भगत लाठी खट-खट करता लपका चला जाता था। चेतना रोकती थी, पर उपचेतना ठेलती थी। सवेक स्वामी पर हावी था।

             आधी राह निकल जाने के बाद सहसा भगत रुक गया। हिंसा ने क्रिया पर विजय पायी-मैं यों ही इतनी दूर चला आया। इस जाड़े-पाले में मरने की मुझे क्या पड़ी थी? आराम से सोया क्यों नहीं? नींद न आती, न सही; दो-चार भजन ही गाता । व्यर्थ इतनी दूर दौड़ा आया । चड्ढा का लड़का रहे या मरे, मेरी कला से। मेरे साथ उन्होंने ऐसा कौन-सा सलूक किया था कि मैं उनके लिए मरूँ? दुनिया में हज़ारों मरते हैं हज़ारों जीते हैं। मुझे किसी के मरने-जीने से मतलब ।

           मगर उपचेतना ने अब एक दूसरा रूप धारण किया, जो हिंसा से बहुत कुछ मिलता-जुलता था-वह झाड़-फूँक करने नहीं जा रहा है; वह देखेगा, कि लोग क्या कर रहे हैं। डॉक्टर साहब का रोना-पीटना देखेगा, किस तरह सिर पीटते हैं, किस तरह पछाड़े खाते हैं। वे लोग तो विद्वान होते हैं, सबर कर जाते होंगे। हिंसा-भाव को यों धीरज देता हुआ वह फिर आगे बढ़ा।

            इतने में दो आदमी आते दिखायी दिये। दोनों बातें करते चले आ रहे थे-चड्ढा बाबू का घर उजड़ गया, वही तो एक लड़का था। भगत के कान में यह आवाज़ पड़ी। उसकी चाल और भी तेज़ हो गयी। थकान के मारे पाँव न उठते थे। शिरोभाग इतना बढ़ा जाता था, मानों अब मुँह के बल गिर पड़ेगा। इस तरह वह कोई दस मिनट चला होगा कि डॉक्टर साहब का बँगला नज़र आया । बिजली की बत्तियाँ जल रही थीं; मगर सन्नाटा छाया हुआ था। रोने-पीटने की आवाज़ भी न आती थी । भगत का कलेजा धक धक करने लगा। कहीं मुझे बहुत देर तो नहीं हो गयी? वह दौड़ने लगा। अपनी उम्र में वह इतना तेज़ कभी न दौड़ा था । बस, यही मालूम होता था, मानो उसके पीछे मौत दौड़ी आ रही है ।


                                                  4

           दो बज गये थे। मेहमान विदा हो गये। रोनेवालों में केवल आकाश के तारे रह गये थे। और सभी रो-रोकर थक गये थे। बड़ी उत्सुकता के साथ लोग रह-रह आकाश की ओर देखते थे कि किसी तरह सुबह हो और लाश गंगा की गोद में दी जाय।

            सहसा भगत ने द्वार पर पहुँच कर आवाज दी। डॉक्टर साहब समझे, कोई म आया होगा। किसी और दिन हो तो उन्होंने उस आदमी को दुत्कार दिया होता; मगर बाहर निकल आये। देखा एक बूढ़ा आदमी खड़ा है कमर झुकी हुई, पोपला मुँह, सफ़ेद हो गयी थी। लकड़ी के सहारे काँप रहा था। बड़ी नम्रता से बोले- क्या है मई, आर तो हमारे ऊपर ऐसी मुसीबत पड़ गयी है कि कुछ कहते नहीं बनता, फिर कभी आना। इधर एक महीना तक तो शायद में किसी भी मरीज को न देख सकूँगा।

            भगत ने कहा-सुन चुका हूँ बाबू जी, इसीलिए आया हूँ। भैया कहाँ है? जरा मुझे दिखा दीजिए। भगदान बड़ा कारसाज है, मुरदे को भी जिला सकता है। कौन जाने भी उसे दया आ जाय। चड्ढा ने व्यथित स्वर से कहा चलो, देख लो, मगर तीन-चार घंटे हो गये। जो कुछ होना था, हो चुका। बहुतेरा झाड़ने-फूंकनेवाले देख-देखकर चले गये।

          डॉक्टर साहब को आशा तो क्या होती हाँ, बूढ़े पर दया आ गयी। अंदर ले गये। भगत ने लाश को एक मिनट तक देखा। तब मुस्कराकर बोला- अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, बाबू जी यह नारायण चाहेंगे, तो आधे घंटे में भैया उठ बैठेगा। आप नाहक दिल छोटा कर रहे हैं। जरा किसी से कहिए, पानी तो भरे।

           किसी ने पानी भर-भरकर कैलाश को नहलाना शुरू किया। पाइप बंद हो गया। था। नौकरों की संख्या अधिक न थी. इसलिए मेहमानों ने अहाते के बाहर के कुएँ से पानी भर-भरकर दिया, मृणालिनी कैलाश के लिए पानी ला रही थी। बूढा भगत खड़ा मुस्करा- मुस्कराकर मंत्र पढ़ रहा था मानो विजय उसके सामने खड़ी है। जब एक बार मंत्र समाप्त हो जाता, तब एक जड़ी कैलाश के सिर पर डाली गयी और न जाने कितनी बार भगत ने मंत्र फूँका आखिर जब उषा ने अपनी लाल-लाल आँखें खोली तो कैलाश की भी लाल-लाल आँखें खुल गयीं। एक क्षण में उसने अंगड़ाई ली और पानी पीने को माँगा। डॉक्टर चड्ढा ने दौड़कर नारायणी को गले लगा लिया। नारायणी दौड़कर भगत के पैरों पर गिर पड़ी और मृणालिनी कैलाश के सामने आँखों में आंसू-भरे पूछने लगी-"अब कैसी तबीयत है ?"

               एक क्षण में चारों तरफ़ खबर फैल गयी। मित्रगण मुबारकबाद देने आने लगे। डॉक्टर साहब बड़ी श्रद्धा से हर एक के सामने भगत का यश गाते फिरते थे। सभी लोग भगत के दर्शनों के लिए उत्सुक हो उठे; मगर अंदर जाकर देखा, तो भगत का कहीं पता न था। नौकरों ने कहा-अभी तो यहीं बैठे चिलम पी रहे थे। हम लोग तमाखू देने लगे, तो नहीं ली, अपने पास से तमाखु निकाल कर भरी।

            यहाँ तो भगत की चारों ओर तलाश होने लगी, और भगत लपका हुआ घर चला जा रहा था कि बुढ़िया के उठने से पहले पहुँच जाऊँ। 

             जब मेहमान लोग चले गये, तो डॉक्टर साहब ने नारायणी से कहा- बुड्ढा न जाने कहाँ चला गया। एक चिलम तमाखू का भी रवादार न हुआ।

            नारायणी - “ मैंने तो सोचा था, इसे कोई बड़ी रकम दूँगी।”

            चड्ढा - "रात को तो मैंने नहीं पहचाना, पर जरा साफ़ हो जाने पर पहचान गया। एक बार यह एक मरीज़ को लेकर आया था। मुझे अब याद आती है कि मैं खेलने जा रहा था और मरीज़ को देखने से इनकार कर दिया था। अब उस दिन की बात याद करके मुझे जितनी ग्लानि हो रही है, उसे प्रकट नहीं कर सकता। मैं उसे अब खोज़ निकालूँगा और उसके पेरों पर गिर कर अपना अपराध क्षमा कराऊँगा। वह कुछ लेगा नहीं, यह जानता हूँ, उसका जन्म यश की वर्षा करने ही के लिए हुआ है। उसकी सज्जनता ने मुझे ऐसा आदर्श दिखा दिया है, जो अब से जीवनपर्यंत मेरे सामने रहेगा।"

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कहानी का सारांश 

                  मंत्र



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                        मंत्र

            "मंत्र" उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद्र की एक प्रसिद्ध कहानी है। इस कहानी में प्रतिकूल परिस्थिति में भी अपने नेक स्वभाव को न छोड़नेवाले व्यक्ति का चरित्र चित्रण है।

             भगत, साँप से कटे व्यक्तियों को अपने मंत्रों के द्वारा बचानेवाला ग्रामीण है। अपनी सात संतानों में से बची आखिरी बीमार बच्चे को लेकर डाक्टर चड्ढा के पास चिकित्सा के लिए ले जाता है। डाक्टर साहब इसलिए उस बच्चे को देखने मना करते हैं कि अब उनके खेलने का समय है। बहुत अनुनय विनय करने पर भी वे नहीं मानते। बूढ़ा अपने जीवन के एक मात्र सहारे को खो बैठता है।

               समय के फेर से यही परिस्थिति डाक्टर साहब के जीवन में भी आ खड़ी होती है। डाक्टर साहब के बेटे कैलाश को साँपों के पालने, खेलाने और नचाने का शौक था। वह अपनी बीसवीं सालगिरह में अपनी प्रेमिका मृणालिनी के आग्रह तथा मित्रों के उकसाने पर अपने सर्प-कला प्रदर्शन दिखाने लगता है। एक जहरीली साँप के गले दबाते समय, वह क्रोधित होकर कैलाश को काट देता है। सब लोग घबरा जाते हैं। डाक्टर साहब के होश उड़ जाते हैं। किसी भी जड़ी का असर नहीं पड़ता। मंत्र पढ़ने पर ही जान बचने की नौबत आ जाती है।

                यह खबर मिलने पर पहले भगत को सांतवना मिलती है कि भगवान ने डाक्टर साहब को अच्छा सबक सिखाया। लेकिन उसके अंतःकरण ने उसे चैन की नींद नही सोने दिया। उसे लगता है कि उसकी हर क्षण की देरी कैलाश के लिए घातक है। उसके पैर अपने आप डाक्टर साहब के घर की ओर बढ़ता है। बहुत देर तक मंत्र पढ़कर कैलाश को बचा लेता है। अपना कर्तव्य समाप्त होने पर तुरंत वहाँ से निकल जाता है। आधी रात में डाक्टर साहब उसे पहचान नहीं पाते। लेकिन पहचानने के बाद वे आत्मग्लानि से भर जाते हैं। किसी भी तरह उसे ढूँढकर क्षमा याचना करने का निश्चय कर लेते हैं।

 सीख:- प्रतिकूल परिस्थिति में ईमानदारी का पालन करना नेक व्यक्ति का लक्षण है।




















Friday, April 2, 2021

तुलसीदास रामचरित मानस - अयोध्याकाँड 1-5


              तुलसीदास
              रामचरित मानस - अयोध्याकाँड  
1-5 

दो- सब के उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु । 

     आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु ।।1।।

     सब के हृदय में ऐसी अभिलाषा है और सब महादेव जी को मनाकर (प्रार्थना करके) कहते हैं कि राजा अपने जीते-जी श्रीरामचन्द्रजी को युवराज-पद दे दें।

      एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा।। 

      सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू।।

      एक समय रघुकुल के राजा दशरथ जी अपने सारे समाज सहित राजसभा में विराजमान थे। महाराज समस्त पुण्यों की मूर्ति हैं, उन्हें श्रीरामचन्द्रजी का सुन्दर यश सुनकर अत्यन्त आनन्द हो रहा है।

      नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषा । लोकप करहिं प्रीति रुख रखें । । 

      त्रिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरिभाग दसरथ सम नाहीं।

         सब राजा उनकी कृपा चाहते हैं और लोकपालगण उनके रुख को रखते हुए (अनुकूल होकर) प्रीति करते हैं। [पृथ्वी, आकाश, पाताल] तीनों भुवनों में और [भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालों में दशरथजी के समान बड़ भागी और कोई नहीं है।

       मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिअ थोर सबु तासू।। 

      रॉय सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकिमुकुटु सम कीन्हा ।

          मङ्गलों के मूल श्रीरामचंद्रजी जिनके पुत्र हैं उनके लिए जो कुछ कहा जाय सब थोड़ा है। राजा ने स्वाभाविक ही हाथ में दर्पण ले लिया और उसमें अपना मुँह देखखर मुकुट को सीधा किया।

        श्रवण समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा।। 

        नृप जुबराजु राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू।।

           कानों के पास बाल सफेद हो गए हैं; मानो बुढ़ापा ऐसा उपदेश कर रहा है कि हे राजन! श्रीरामचन्द्र जी को युवराज-पद देकर अपने जीव और जन्म का लाभ क्यों नहीं लेते।


दो.-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ। 

     प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनाथउ जाइ ।।2।।

             हृदय में यह विचार लाकर (युवराज-पद देने का निश्चय कर) राजा दशरथजी ने दिन और सुन्दर समय पाकर, प्रेम से पुलकित शरीर हो आनन्द मग्न मन से उसे गुरु वसिष्ठजी शुभ को जा सुनाया।

        कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक

        सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी ।।

        राजाने कहा- हे मुनिराज ! कृपया यह निवेदन] सुनिए। श्रीरामचन्द्र अब सब प्रकार में सब योग्य हो गए हैं। सेवक, मन्त्री, सब नगर निवासी और जो हमारे शत्रु, मित्र या उदासीन हैं।

       सबहि रामुप्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही।। 

       बिप्र सहित परिवार गोसाई। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई ।।

       सभी को श्रीरामचन्द्र वैसे ही प्रिय हैं जैसे वे मुझको हैं। आप का आशीर्वाद ही मानो शरीर धारण करके शोभित हो रहा है। हे स्वामी ! सारे ब्राह्मण परिवार सहित, आपके ही समान उन पर स्नेह करते हैं।

        जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं। 

        मोहि सम यहु अनुमान दूजें । सबु पायउँ रज पावनि पूजें ।।

         जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तकपर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने वश में कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किनी ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण रज की पूजा करके मैंने सब कुछ पा लिया।

         अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजिहि नाथ अनुग्रह तोरें। । 

         मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू।।

          अब मेरे मन में एक ही अभिलाषा है। हे नाथ ! वह भी आप ही के अनुग्रह से पूरी होगी। राजा का सहज प्रेम देखकर मुनि ने प्रसन्न होकर कहा-नरेश ! आज्ञा दीजिए । (कहिये, क्या अभिलाषा है?)

       दो.-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार। 

            फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाशु तुम्हार ।।3।।

       है राजन् ! आपका नाम और यश ही सम्पूर्ण मनचाही वस्तुओं को देनेवाला है। हे राजाओं के मुकुटमणि ! आपके मन की अभिलाषा फल का अनुगमन करती है (अर्थात् आपके या करने के पहले ही फल उत्पन्न हो जाता है)।

        सब विधि गुरु प्रसन्न जुयेँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी।। 

        नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअकृपा करि करिअ समाजू।।

      अपने जी में गुरुजी को सब प्रकार से प्रसन्न जानकर, हर्षित होकर राजा कोमल वाणी से नेते-हे नाथ ! श्रीरामचन्द्र को युवराज कीजिये। कृपा करके कहिये तो तैयारी की जाय ।

         मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू।।

         प्रभु प्रसाद सिव सबई निबाही। वह लालसा एक मन माहीं।।

        मेरे जीते-जी यह आनन्द-उत्सव हो जाय, सब लोग अपने नेत्रों का लाभ प्राप्त करें। प्रभु (आप के) प्रसाद से शिवजी ने सब कुछ निबाह दिया, केवल यही एक लालसा मन में रह गयी है।

         पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ। ।

         सुनि मुनि जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं।

      इस लालसा के पूर्ण हो जाने पर फिर सोच नहीं, शरीर रहे या चला जाय, जिससे मुझे पीछे पछतावा न हो। दशरथ जी के मङ्गल और आनन्द के मूल सुन्दर वचन सुनकर मुनि मन में बहुत प्रसन्न हुए।

          भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी।।

 दो.-वेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।

      सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु ।।4।।

         हे राजन् ! अब देर न कीजिये, शीघ्र सब सामान सजाइये। शुभ दिन और सुन्दर मङ्गल तभी है जब श्रीरामचन्द्रजी युवराज हो जायँ । (अर्थात् उनके अभिषेक के लिए सभी दिन शुभ और मङ्गलमय है)।

       मुदित महीपति मंदिर आए सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए।।

       कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए।

      राजा आनन्दरत होकर महल में आए और उन्होंने सेवकों को तथा मन्त्री सुमन्त्र को बुलवाया। उन लोगों ने 'जय-जीव' कहकर सिर नवाये। तब राजा में सुन्दर मङ्गलमय वचन (श्रीरामजी को युवराज-पद देने का प्रस्ताव) सुनाए।

         जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हिरामहि टीका।।

     यदि पंचों को (आप सब को) यह मत अच्छा लगे, तो हृदय में हर्षित होकर आप लोग श्रीरामचन्द्र का राजतिलक कीजिये।

         मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरवा परेउ जनु पानी।। 

         बिनती सचिव करहिं कर जोरी। जिअहु जगतपति बरिस करोरी।।

        इस प्रिय वाणी को सुनते ही मन्त्री ऐसे आनन्दित हुए मानो उनके मनोरथ रूपी पौधे पर पानी पड़ गया हो। मन्त्री हाथ जोड़कर विनती करते हैं कि हे जगत्पति ! आप करोड़ों वर्ष जियें।

        जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ बारा।

        नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बैंड जनु लही सुसाखा।।

           आपने जगत्भर का मङ्गल करनेवाला भला काम सोचा है। हे नाथ ! शीघ्रता कीजिये देर न लगाइए। मन्त्रियों की सुन्दर वाणी सुनकर राजा को ऐसा आनन्द हुआ मानो बढ़ती हुई बेल सुन्दर डाली का सहारा पा गयी हो।

          दो.-कहेउ भूप मुनिराज कर जोड़ आयसु होइ। 

              राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ ।।5।।

           राजा ने कहा-श्रीरामचन्द्र के राज्याभिषेक के लिए मुनिराज वसिष्ठ जी की जो-जो आज्ञा हो, आपलोग वही सब तुरंत करें।

           हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी।। 

           औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना।।

        मुनिराज ने हर्षित होकर कोमल वाणी से कहा कि सम्पूर्ण श्रेष्ठ तीर्थों का जल ले आओ। फिर उन्होंओने औषधि, मूल, फूल, फल और पत्र आदि अनेकों माङ्गलिक वस्तुओं के नाम गिनकर बताये।

        चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती।।

         मनिगन मंगल बस्तु अनेका जो जग जोगु भूप अभिषेका।।

         चँवर, मृगचर्म, बहुत प्रकार के वस्त्र, असंख्यों जातियों के ऊनी और रेशमी कपड़े [नाना की] मणियाँ (रत्न) तथा और भी बहुत-सी मङ्गल-वस्तुएँ, जो जगत् में राज्याभिषेक के प्रकार योग्य होती हैं, [सब को मँगाने की उन्होंने आज्ञा दी)।

          वेद विदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर विविध बिताना

           सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा।।

          मुनि ने वेदों में कहा सब विधान बताकर कहा-नगर में बहुत-से मण्डप सजाओ। फलों समेत आम, सुपारी और केले के वृक्ष नगर की गलियों में चारों ओर रोप दो।

           रचहु मंजु मनि चौके चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू । 

           पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब विधि करहु भूमिसुर सेवा।। 1.

            सुन्दर मणियों के मनोहर चौक पुरवाओ और बाजार को तुरंत सजाने के लिए कह दो। श्रीगणेशजी, गुरु और कुलदेवता की पूजा करो और भूदेव ब्राह्मणों की सब प्रकार से सेवा करो।



Tuesday, March 23, 2021

निर्मला / कथासार/ Nirmala /Novel- Summary-Mumshi Prem chand

                

                            निर्मला


                      उपन्यास  /  कथासार




         उदयभानुलाल बनारस के एक प्रसिद्ध वकील थे। उनकी आमदनी अच्छी थी। लेकिन वे बचत करना नहीं जानते थे। जब उनकी बड़ी लड़की निर्मला के विवाह का वक्त आया तब दहेज की समस्या उठ खडी हुई। बाबू भालचंद्र सिन्हा के ज्येष्ठ पुत्र भुवनमोहन सिन्हा से निर्मला की शादी की बात पक्की हो गई। सौभाग्य से सिन्हा साहब ने दहेज पर जोर नहीं दिया। इससे उदयभानुलाल को राहत मिली। निर्मला केवल पन्द्रह वर्ष की थी। इसलिए विवाह की बात सुनकर उसे भय ही ज्यादा हुआ। एक दिन उसने एक भयंकर स्वप्न देखा। वह एक नदी के किनारे पर खडी थी। एक सुंदर नाव आयी। पर मल्लाह ने निर्मला को उस पर चढ़ने नहीं दिया। फिर एक टूटी-फूटी नाव में उसे जगह मिली। नाव उलट जाती है और निर्मला पानी में डूब जाती है। तभी निर्मला की नींद टूटी।

         निर्मला के विवाह की तैयारियां शुरू हो गयीं। दहेज देने की ज़रूरत न होने से उदयभानुलाल बारातियों का स्वागत धूमधाम से करने के लिए पानी की तरह रुपए खर्च करने लगे। यह बात उनकी पत्नी कल्याणी को पसंद नहीं आयी। इस कारण से पति पत्नी के बीच में जोरदार वाद-विवाद चला। कल्याणी ने मायके जाने की धमकी दी। पत्नी के कठोर वचन से दुखित होकर उदयभानुलाल ने उसे एक सबक सिखाना चाहा। नदी के किनारे पहुंचकर, वहां कुरता आदि छोडकर उन्होंने किसी अन्य शहर में कुछ दिनों के लिए चले जाने का निश्चय किया। लोग समको के मे नदी में डूब गए। तब पत्नी की धर्मड दूर हो जायेगी। उदयभानुत्ताल आधी रात को नदी की ओर चल पडे। एक बदमाश रे, जो उनका पुराना दुश्मन था, उन पर लाठी चलाकर मार गिरा दिया।

       अब निर्मला के विवाह की जिम्मेदारी कल्याणी पर आ पड़ी। उसने पुरोहित मोटेराम के द्वारा सिन्हा को पत्र भेजा। वर्तमान हालत को देखकर साधारण ढंग से शादी के लिए स्वीकृति देने की प्रार्थना की। सिन्हा असल में लालची थे। वे उदयभानुलाल के स्वभाव से परिचित थे। उनका विचार था कि दहेज का इनकार करने पर उससे भी ज्यादा रकम मिल जायेगी। उदयभानु लात की मृत्यु की खबर सुनकर उनका विचार बदल गया। उनकी स्वी रंगीली बाई को कल्याणी के प्रति सहानुभूति थी। लेकिन पति की इच्छा के विरुद्ध वह कुछ नहीं कर सकी। बेटा भुवनमोहन भी बढ़ा लालची था। वह दहेज के रूप में एक मोटी रकम मांगता बा चाहे कन्या में कोई भी ऐब हो।

       मोटेराम निर्मला के लिए अन्य छरों की खोज करने लगे। अगर लड़का कुतीन या शिक्षित या नौकरी में हो तो दहेज अवश्य मांगता था । आखिर मन मारकर कल्याणी ने निर्मला के लिए लगभग चालीस साल के वकील तोताराम को वर के रूप में चुन लिया । वे काफ़ी पैसेवाले थे । उन्होंने दहेज की मांग भी नहीं की ।

        निर्मला का विवाह तोताराम से हो गया । उनके तीन लड़के थे मंसाराम, जियाराम, सियाराम । मंसाराम सोलह बरस का था । वकील की विधवा बहिन रुक्मिणी स्थाई रूप से उसी घर में रहती थी । तोताराम निर्मला को खुश रखने के लिए सब तरह के प्रयत्न करते थे । अपनी कमाई उसीके हाथ में देते थे । लेकिन निर्मला उनसे प्रेम नहीं कर सकी; उनका आदर ही कर सकी । रुक्मिणी बात-बात में निर्मला की आलोचना और निन्दा करती थी । लड़कों को निर्मला के विरुद्ध उकसाती थी । एक बार निर्मला ने तोताराम से शिकायत की तो उन्होंने सियाराम को पीट दिया । 

       निर्मला समझ गयी कि अब अपने भाग्य पर रोने से कोई लाभ नहीं है। अतः वह बच्चों के पालन-पोषण में सारा समय बिताने लगी । मंसाराम से बातें करते हुए उसे तृप्ति मिल जाती थी । निर्मला पर प्रभाव डालने के लिए तोताराम रोज अपने साहसपूर्ण कार्यों का वर्णन करने लगे जो असल में झूठ थे । एक दिन उन्होंने बताया कि घर आते समय तलवार सहित तीन डाकू आ गए और उन्होंने अपनी छडी से उनको भगा दिया । तभी रुक्मिणी आकर बोली कि कमरे में एक सांप घुस गया है। तुरंत तोताराम भयभीत होकर घर में बाहर निकल गए । निर्मला समझ गयी कि सुशी जी क्या चाहते हैं । उसने पत्नी के रूप में अपने को कर्तव्य पर मिटा देने का निश्चय किया।

        निर्मला अब सज-धजका रहने और पति से हंसकर बातें करने लगी । लेकिन जब मुंशी जी को मालूम हुआ कि वह मंसाराम से अंग्रेजो सोस रही है तब वे सोचने लगे कि शायद इसलिए आज का मिर्मसा प्रसन्न दिखती है। उनके मन में शंका पेदा हो ची। इनको एक उपाय सुशा । मंसाराम पर यह आक्षेप लगाया किया आधार घूमता है। इसलिए वह स्कूल में ही रहा करे मंत्रियों ने सोचा कि निर्मला ने मसाराम को शिकायत की होगा। यह निमंता में झगड़ा करने लगी । निर्मला ने तोलाराम से अपना निर्माय बदलने को कहा । मुंशी जी का हदय और भी शंकित हो गया।

      मंसाराम दुखी होकर सारा दिन घर पर ही रहने लगा। वह बहुत कमजोर भी हो गया। मुंशी जी को शंका जरा कम हुई। एक दिन संसाराम अपने कमरे में बैठे रो रहा था। मुशी जी ने उसे सांत्वना देते हुए मारा दोष निर्मल पर मड़ दिया । निष्कपट बालक उस पर विश्वास करके अपनी विमाता से नफरत करने लगा निर्मला भी अपने पति के शक्को स्वभाव को समझ गयी उसने पसाराम में बोलना भी बंद कर दिया ।

       मंसाराम को गहरा दुख हुआ कि निर्मला ने उसके पिताजी से उसको शिकायत की थी । वह अपने को अनाथ समड़ाकर कमरे में ही पड़ा रहता था । एक रात को वह भोजन काने के लिए भो नहीं उठा । निर्मला लड़प उठी । मुंशी जी बाहर गये हुए थे । निर्मला सासाराम के कमरे में जाकर उसे प्यार से समझाने लगी। उसी वक्त तोताराम आ गए। तुरंत निर्मला कठोर स्वर में बोलने लगी और मंसाराम की शिकायत करने लगी । ममाराम इस भाव-परिवर्तन को नहीं समझ सका । निर्मला के व्यवहार में उसे वेदना हुई। अगले दिन वह हेडमास्टर से मिलकर हास्टल में रहने का प्रबंध कर आया निर्मला से कहे बिना वह अपना सामान लेकर चला गया।

          निर्मला ने सोचा कि चुट्टी के दिन भसाराम घर आएगा । पर वह नहीं आया । मसाराम की आर्म पोडा का अनुमान कर उसे अपार दुख हुआ। एक दिन उसे मालूम हुआ कि मंसाराम को बुखार हो गया है। वह मुंशी जी से प्रार्थना करने लगी कि वे मसाराम को हास्टल से घर लाएं ताकि उसकी सेवा ठीक तरह से हो सके । यह सुनकर मुंशी जी का संदेह फिर ज्यादा हो गया।

         मंसाराम कई दिनों तक गहरी चिन्ता में डूबा रहा । उसे पढ़ने में बिलकुल जी नहीं लगा । जियाराम ने आकर घर को हालत बतायी । यह भी कहा कि पिताजी के कारण ही निर्मला को कठोर व्यवहार का स्वांग करना पड़ा । इस विषय पर मंसाराम गहराई से सोचने लगा । तब अचानक यह समझ गया कि पिता जो के मन में निर्मला और उसको लेकर संदेह पैदा हुआ है । यह इस अपमान को सह नहीं सका । उसके लिए जीवन भार- स्वरूप हो गया। गहरी चिन्ता के कारण उसे जोर से बुखार हो गया । वह स्कूल के डाक्टर के पास गया । उनसे बातें करते हुए उसे एक जहरीली दवा के बारे में जानकारी मिली जिसे पीते ही दर्द के बिना मनुष्य मर जा सकता है । तुरंत वह खुश हो गया । थियेटर देखने गया । लौटकर हास्टल में शरारतें कीं । अगले दिन ज्वर को तोवता से वह बेहोश हो गया । तोताराम बुलाये गये । स्कूल के अध्यक्ष ने मंसाराम को घर ले जाने को कहा । अपने संदेह के कारण मुंशी जी उसे घर ले जाने को तैयार नहीं थे । इसे समझकर मंसाराम ने भी घर जाने से इनकार कर दिया । उसे अस्पताल में दाखिल कर दिया गया ।

        यह जानकर निर्मला सिहर उठी । लेकिन मुंशी जी के सामने उसे अपने भावों को छिपाना पड़ा । वह खूब श्रृंगार करके सहास वदन से उनसे मिलती-बोलती थी । अस्पताल में मंसाराम की हालत चिन्ताजनक हो गई।

        तीन दिन गुज़र गये । मुंशी जी घर न आए । चौथे दिन निर्मला को मालूम हुआ कि ताजा खून दिये जाने पर ही मंसाराम बच सकता है यह सुनते हो निर्मला ने तुरंत अस्पताल जाने और अपना खून देने का निश्चय कर लिया। उसने ऐसी हालत में मुंशी जी से डरना या उनकी शंका की परवाह करना उचित नहीं समडा। यह देखकर रुक्मिणी को पहली बार निर्मला पर दया आयी । निर्मला को देखते ही मंसाराम चौंककर उठ बैठा । मुंशी जी निर्मला को कठोर शब्दों से डांटने लगे मंसाराम निर्मला के पैरों पर गिरकर रोते हुए बोला - "अम्मा जी, मैं अगले जन्म में आपका पुत्र बनना चाहूंगा । आपकी उम्र मुझसे ज्यादा न होने पर भी मैंने हमेशा आपको माता की दृष्टि से ही देखा ।" जब मुंशी जी ने सुना कि निर्मला खून देने आयी है तब उनकी सारी शंका दूर हो गयी और निर्मला के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई ।

    डाॅक्टर निर्मला की देह से खून निकाल रहे थे । तभी मंसाराम का देहांत हो गया । मुंशी जी को अपना भयंकर अपराध महसूस हुआ। उनका जीवन भारस्वरूप हो गया । कचहरी का काम करने में दिल नहीं लगा। उनकी तबीयत खराब होने लगी।

      मुंशी जी और उस डाक्टर में दोस्ती हो गयी जिसने मंसाराम की चिकित्सा की थी । डाक्टर की पत्नी सुधा और निर्मला सहेलियां बन गयीं । निर्मला अकसर सुधा से मिलने उसके घर जाने लगी । एक बार उसने सुधा को अपने अतीत का सारा हाल सुनाया । सुधा समझ गयी कि उसका पति ही वह वर था जिसने दहेज के अभाव में निर्मला से शादी करने से इनकार किया था। उसने अपने पति की तीव्र आलोचना की । पूछने पर उसने अपने पति से बताया कि निर्मला की एक अविवाहित बहिन है।

        तीन बातें एकसाथ हुई। निर्मला की कन्या ने जन्म लिया । उसकी बहिन कृष्णा का विवाह तय हुआ । मुंशी जी का मकान नीलाम हो गया। बच्चे का नाम आशा रखा गया । डाक्टर (भुवनमोहन सिन्हा) ने निर्मला के प्रति अपने अपराध के प्रायश्चित्त के रूप में अपने भाई का विवाह कृष्णा से दहेज के बिना तय करा दिया। यह बात निर्मला को मालूम नहीं थी । सुधा ने निर्मला से छिपाकर उसकी मां को विवाह के लिए रुपए भी भेजे थे ।

       ये सारी बाते निर्मला को विवाह के समय ही मालूम हुई । वह डा. सिन्हा के प्रायश्चित्त से प्रभावित हुई । विवाह के दिन उसने डाक्टर से अपनी कृतज्ञता प्रकट कर दी । आगे कुछ समय के लिए निर्मला मायके में ही ठहर गई ।

      इधर जियाराम का चरित्र बदलने लगा । वह बदमाश हो गया । वह बात-बात पर अपने पिताजी से झगडा करने लगा। यहां तक उसने कह डाला कि मंसाराम को आप ही ने मार डाला । उनको बाजार में पिटवा देने की धमकी दी । एक दिन डा. सिन्हा ने उसे खूब समझाया तो वह पछताने लगा । उसने निश्चय किया कि आगे वह पिताजी की बात मानेगा । परंतु डाक्टर से मिलकर जब वह घर आया तब आधी रात हो चुकी थी। मुंशी जी उस पर व्यंग्य करने लगे । जियाराम का जागा हुआ सद्भाव फिर विलीन हो गया।

       निर्मला बच्ची के साथ घर वापस आयी । उसी दिन बच्ची के लिए मिठाई खरीदमे के संबंध में बाप-बेटे में झगडा हो गया । निर्मला ने जियाराम को डांटा । मुंशी जी ने जियाराम को पीटने के लिए हाथ उठाया । लेकिन निर्मला पर थप्पड़ पड़ा । जियाराम पिताजी को धमकी देकर बाहर चला गया निर्मला को भविष्य की चिन्ता सताने लगी उसने सोचा कि उसके पास जो गहने हैं वे ही भविष्य में काम आएंगे।

       उस रात को अचानक उसकी नींद खुली । उसने देखा कि जियाराम की आकृतिवाला कोई उसके कमरे से बाहर जा रहा है। अगले दिन वह सुधा के घर जाने की तैयारी कर रही थी। तभी उसे मालूम हुआ कि उसके गहनों की संदेश गायब है । उसे रातवाली घटना याद आयी। जियाराम से पूछताछ करने पर उसने कह दिया कि वह घर पर नहीं था। वकील साहब को मालूम होने पर थाने के लिए चल दिये । निर्मला को जियाराम पर संदेह था । परन्तु विमाता होने के कारण उसे चुप रहना पड़ा । इसलिए वह मुंशी जी को रोक न सकी । थानेदार ने घर आकर और जांच करके बताया कि यह घर के आदमी का ही काम है । कुछ दिनों में माल बरामद हो गया। तभी मुंशी जी को असली बात मालूम हुई। जियाराम को कैद होने से बचाने के लिए थानेदार को पांच सौ रुपये देने पड़े । मुंशी जी घर आये तो पता चला कि जियाराम ने आत्महत्या कर ली।

       गहनों की चोरी हो जाने के बाद निर्मला ने सव गर्व कम कर दिया। उसमा स्वभाव भी बदल गया । वह कशा हो गयी । पैसे बचाने के लिए वह नौकरानी के बदले पियाराम को हो बार-बार बाजार दाहालले था । वह एक दिन जो पी लाया उसे खराब बनाकर लाटा देने को कह दिया । दुकानदार वापस लेने के लिए तैयार न हुआ। वहा बेठे एक साध को मियाराम पर दया आयी। उनके कहने पर वासिय ने अलाण यी दिया । गधु को सियाराम के घर की हालत पालामा दई । जा वे चालने लगे लय सियाराम भी उनके साथ हो लिया । साधू ने बताया कि वे भी विमाता के अत्याचार से पीड़ित थे। इसलिए घर छोड़कर भाग गये। एक साधु के शिष्य वनका योगपिदमा मीच ली । वे उसको सहायता से अपनी मृत मां के दर्शन कर लेते हैं । साधु की बातों से सियाराम प्रभावित हुआ आर अपने घर को ओर चला असल में यह बाबा जी एक धूतं था आर लड़की को भगा ले जानेवाला था।

        सियाराम पर लौटा नो निर्मला ने लकड़ी के लिए जाने को कहा। वह इनकार करके बाहर चला गया । घर के काम अधिक होने के कारण वह ठीक तरह से स्कूल में जा पाला था । उस दिन भी वह स्कूल नजाका एक पेड़ के नीचे बैठ गया । उसे भूख सता रही थी। इसे घर लौटने को इच्छा नहीं हुई ।बावा जो से मिलने के लिए उत्सुक होकर बने इडने लगा । सहसा वे रास्ते में मिल पडे। पता चला कि वे उसी दिन हरिद्वार जा रहे हैं । सियाराम ने अपने को भी ले चलने की प्रार्थना को । साध ने मान लिया। वेारा सियाराम जान न सका कि वह बाधा जी के जाल मे फस गया है।

       मुंशी जी बड़ी थकावट के साथ शामको घर आये। उन्हें सारा दिन भोजन नहीं मिला था। उनके पास मुकदमे आते नहीं थे या आने पर हार जाते थे। नत्र वे किसीसे उधार लेका निर्मला के साथ देने थे। उस दिन उनको मालूम हुआ कि सियाराम मे कुछ भी नहीं पापा और उसे पैसे भी नहीं दिये गये। उनको निर्मला पर पहली चार क्रोध आया। यजुन गत बोलने पर भी सिया नहीं आया तो पुशी जी धवगये। बाहर जाकर सब जगह टूटने पर भी सिया का पता नहीं चला। अगले दिन भी सुबह में आधी रात तक दृढकार वे हार गये।

        तीसरे दिन शमको पुंशी जी ने निर्मला से पूछा कि क्या उसके पास रुपये हैं । निर्मला झूठ बोली कि उसके पास नहीं है। रात को मुंशी जी अन्य शहरों में सियाराम को ढूंढने के लिए निकल पड़े। निर्मला को ऐसा जान पड़ा कि उनसे फिर भेंट न होगी । 

        एक महीना पूरा हुआ। न तो मुशो जो नोटे आर न उनका कोई खन मिला । निर्मला के पास जो रुपा थे वे कम होते जा रहे थे । के सुधा के यहां उसे थोड़ी मानसिक शांति मिलती थी। एक दिन सवेरे वह सुधा के यहां पहुंची । सुधा नदी-स्नान करने गयी हुई थी। निर्मला सुधा के कमरे में जा बैठी । डा सिन्हा ऐनक ढूँढते हुए उस कमरे में आये निर्मला को एकांत में पाकर उनका मन न हो उता । वे उससे प्रेम को याचना करने लगे।

        तुरंत वह कापरे से भागकर दरवाजे पर पहुंची । तब सुधा को नारो से उतरते देखा । उसके लिये रुके बिना निर्मला तेजी से अपने पाक और चली गयी । सुधा कुछ समझा नहीं सकी। उसने डाक्टर को पूजा । उन्होंने स्पष्ट उत्तर नहीं दिया । सुधा तुरंन निर्मला के या महुली । निर्मला चारपाईयर पड़ी रही थी। उसने स्पष्ट रूप मे तो अपने रोने का कारण नहीं बताया । लेकिन बुद्धिमति सुण समन गयी कि डाक्टर ने दुवहार किया है। अत्यंत क्रोधित होकर यह निकल पड़ी निर्मला उसे रोक न सकी ।

      उसे ज्वर चढ़ आया । दूसरे दिन उसे रुक्मिणी के जरिये मालूम हुआ कि डा. सिन्हा को मृत्यु हो चुकी थी । निर्मला को अपार वेदना हुई कि उसोक कारण डाक्टर का अंत असमय हो गया। जल निर्मला डाक्टर के यहां पहुची तब तक लाश उठ चुकी थी। सुधा ने बताया कि उसने पर लौटकर पति की कड़ी आलोचना मार दी। इससे क्षुब्ध होकर डाक्टर ने अपना अंत कर लिया।

      एक महीना गुज़र गया । सुधा वह शहर छोडकर अपने देवर के साथ बली जा चुकी थी निर्मला के जीवन में सुनापन छा गया। अब रोना ही एक काम रह गया । उसका स्वास्ट्य अत्यंत खराव ही गया। तो समझ गयी कि उसके जीवन का अंत निकट आ गया है। उसने मक्मिणी से माफी मागा कि वह उसकी उचित सेवा न कर सकी। रक्रिमणी ने भी उससे अपने कपटपूर्ण व्यवहार  के लिए क्षमा याचना को । निर्मला ने बच्ची को रुकमणी के  हाथ सौंप दिया ।

   फिर तीन दिन तक वह रोये चली जाती थी । यह न किसीसे बोलती थी, न किसी की ओर देखती थी और न किसी का कुछ सूती थी । चौथे दिन संध्या समय निर्मला ने अंतिम सांस ली । मुहल्ले के लोग जमा हो गये । लाश बाहर निकाला गयो । यह प्रश्न उठा कि कान दाह करेगा । लोग इसी चिन्ता में थे कि महसा एक बड़ा पथिक आकर खड़ा हो गया वह मुशी तोताराम थे।


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Tuesday, February 2, 2021

हिन्दी-साहित्य का इतिहास/M.A.HINDI /First year / Paper - 1

                             

                     प्रश्न पत्र-1

          हिन्दी-साहित्य का इतिहास

                       क . आदिकाल

         हिन्दी साहित्य का आरम्भ कब से हुआ, इस सम्बन्ध में विद्वानों के तीन मत रहे हैं।

पहले मत के अनुसार हिन्दी साहित्य का आरम्भ आठवीं सदी से माना जाता है। इस मत के अन्तर्गत ग्रियर्सन, मिश्रबन्धु, राहुल सांकृत्यायन, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, डॉ. रामकुमार वर्मा आदि शामिल हैं। दूसरे मत के अनुसार हिन्दी साहित्य का आरम्भ नौवीं शताब्दी से माना जाता है। इसमें श्री जायसवाल आदि विद्वान् सम्मिलित हैं। तीसरे मत के अन्तर्गत आचार्य शुक्ल, डॉ. श्यामसुन्दर दास, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि विद्वानों ने हिन्दी साहित्य का आरम्भ ग्यारहवीं सदी से माना है।

           आदिकाल के उदय के मूल कारणों में तत्कालीन अव्यवस्थित धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा साहित्यिक प्रवृत्तियाँ ही रही हैं। विदेशी मुस्लिम और यवन आक्रमण कारियों तथा विकृत धार्मिक भावना से संत्रस्त होकर आदि काल का उदय हुआ।


                            1. आदिकाल का नामकरण :


     1. रामचन्द्र शुक्ल-वीरगाथाकाल (वीरभाव की प्रवृत्ति के कारण)।

     2. डॉ. रामकुमार वर्मा-चारणकाल (चारण या भाटों के द्वारा रचित कृतियों के कारण)।

     3. राहुल सांकृत्यायन-सिद्ध-सामन्त युग (साहित्य में सिद्धों की वाणी और 

          सामन्तों की स्तुति के प्राधान्य के कारण)। 

     4. महावीरप्रसाद द्विवेदी-बीजवपनकाल।

     5. डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी-आदिकाल (बाद में स्वयं द्विवेदी जी ने इस नामकरण का खण्डन 

         किया, क्योंकि यह नाम एक भ्रामक आदिम भावना को व्यक्त करने वाला था.)।

     6. मिश्रबन्धु-आरम्भिककाल।


    2 .आदिकालीन साहित्य की सामाजिक, राजनैतिक तथा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि 


         अपभ्रंश की अंतिम अवस्था से हिन्दी का आविर्भाव माना जाता है। हिन्दी साहित्य के आदिकाल का प्रवर्तन यहीं से होता है । सातवीं सदी के मध्य में सम्राट हर्षवर्धन का निधन हुआ । उस समय देश में सुख-समृद्धि थी, धर्म और समाज में व्यवस्था थी। वह संस्कृत साहित्य का भी स्वर्णकाल था । संगीत, और साहित्य के साथ चित्रकला और वास्तुकला उत्कर्ष में रही।


सामाजिक पृष्ठभूमि :-

           जनता शासन और धर्म की ओर से निराश हो चुकी थी। वैदिक मत की वर्णाश्रम व्यवस्था के कारण समाज में ऊँच-नीच का भेद-भाव चलता था । अतः निम्नवर्ग के लोगों पर बौद्ध सिद्धों और नाथ-पंथियों का प्रभाव रहा । कई स्थानों पर निम्न जाति के लोगों ने इस्लाम धर्म को कबूल कर लिया । राजाओं के बीच, आये दिन जो लड़ाई चल रही थी, इससे जन-जीवन अशांत रहा । लोगों की जान और माल की सुरक्षा नहीं थी। बहुसंख्यक सामान्य जन को धर्माचार्यों का भी आश्रय नहीं मिला। समाज में नारियों की स्थिति शोचनीय थी । नारी भोग की वस्तु मानी गयी। स्त्रियों का अपहरण करके बेच डालना आम बात थी। कुल मिलाकर देश और समाज में हर समय सांप्रदायिक तनाव रहता था।


राजनैतिक पृष्ठभूमि:-

           सम्राट हर्षवर्धन के निधन के बाद देश की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गयी । राज्य अनेक छोटे-छोटे रजवाडो में बैट गये। अनेक छोटे-छोटे राजवंश जैसे - तोमर, राठौर, चौहान, चालुक्य, चंडेल आदि आपस में लड़-भिड़कर अपनी शक्ति का ह्रास करने लगे इन राजाओं के परस्पर आक्रमणों में प्रजा की भी जान और माल की क्षति होती थी। जबसे मुहम्मद गजनी ने सोमनाथ मंदिर में आक्रमण करके सोना-चाँदी आदि अमूल्य संपत्तियाँ लूटीं, तबसे पश्चिम से निरंतर मुसलमानों के आक्रमण होते रहे । देखते-देखते दिल्ली, कन्नौज, अजमेर सहित समस्त हिन्दी प्रदेश मुस्लिम शासकों के अधीन आ गया राजनीतिक अव्यवस्था और राजाओं के आपसी कलह के कारण देश में एक विदेशी सभ्यता और संस्कृति का प्रसार होने लगा।


सांस्कृतिक पृष्ठभूमि:- 

            सम्राट हर्षवर्धन के समय भारतीय संस्कृति, साहित्य और संगीत, चित्रकला और मूर्तिकला आदि अपने उत्कर्ष में थी । भुवनेश्वर, खजुराहो, पुरी, कांची और तंजाऊर जैसे स्थानों पर अनेक भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ। मुसलमान शासकों ने भी स्थापत्य संगीत और चित्रकला को प्रोत्साहन दिया । इस तरह हिंदू-मुस्लिम संस्कृतियों का मैल इस युग की देन है।

             इस तरह आदिकाल में राजनैतिक उथल-पुथल और सामाजिक अशांति के वातावरण में भी साहित्य को ख रहा। रचनाएँ होती रहीं और यह स्वाभाविक भी था।


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                           3.आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ :- 


      1. आश्रयदाताओं की अतिशयोक्तिपूर्ण स्तुति

      2. व्यापक राष्ट्रीयता का अभाव

      3. चरित-काव्य लिखने की प्रधानता

      4. अपभ्रंश प्रभावित हिन्दी

      5. प्रबन्ध एवं मुक्तक काव्य की रचना

      6. वीर तथा श्रृंगार रस प्रधान काव्य 

      7. लोक साहित्य की रचना

      ৪. सिद्ध, जैन एवं नाथ सम्प्रदाय द्वारा धार्मिक काव्य की रचना


         अपभ्रंश साहित्य 

            अपभ्रंश काल में चार प्रकार की रचनाएँ उपलब्ध होती है। सम्पूर्ण अपभ्रंश-युग की कृतियों को हम चार मारो मे वर्गीकृत कर सकते हैं

        1. अपभ्रंश साहित्य (आठवीं शताब्दी से 1050 तक) 

        1. सिद्ध साहित्य, 2. जैन साहित्य, 3. नाथ साहित्य, 4. लौकिक साहित्य

    (i) नाथ साहित्य, सिद्ध साहित्य और जैन साहित्य         

    **नाथ साहित्य**

         चौरासी सिद्धों की परम्परा में आने वाले प्रभावशाली तथा धार्मिक नेतृत्व की क्षगता से परिपूर्ण व्यक्तित्व सम्पन्न  गोरखनाथ या गोरक्षपा हस सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। 'नाथ' शब्द मुक्ति दान करने वाले के अर्थ में व्यवहार होता है। इस सम्प्रदाय के सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं-चौरासी सिद्धों के इस सम्प्रदाय से नौ सिद्धों ने अपने आपको अलग कर लिया। योगियों की इस हिन्दू शाखा मे चजयानियों के अश्लील और वीभत्स विधानी से अपने का अलग रखा। ये नौ सिता कश्मीर की तराई में चले गए और वहाँ जाकर इन्होने नाय सम्प्रदाय की स्थापना की। इस कनपटी साधु भी कहा जाता था।) डो. रामकुमार वर्मा ने नाथ साम्प्रदाय की शिष्य परम्परा में आने वाले संते नामावली इस प्रकार दी है- 

       1. आदिनाथ, 2. मत्स्येन्द्रनाथ, 3. गोरखनाथ, 4. गाहिणीनाथ, 5. चर्पटनाथ,

       6. चोरंगीनाथ, 7. ज्वावेळ   8. भर्तृनाथ, 9. गोपीचन्दनाथ।

  नाथ सम्प्रदाय की विशेषताएँ

        भाषा पुरानी हिन्दी या अपभ्रंश है। उस समय जिस भाषा का व्यवहार गुजरात, राजपूताना, ब्रजमण्डल से लेकर बिहार तक होता था, उसी का प्रयोग किया गया है। 

     विषय सामग्री

       साम्प्रदायिक प्रवृत्ति और संस्कारों की परम्परा की सूचना देने वाले भावों का सृजन हुआ है। धर्म सम्बन्धी चर्चाओं की बहुलता है। नाथपंथियों की वाणियों में प्रतीकात्मक शब्दावली का प्रयोग हुआ, जिसमें निर्गुण संत कवियों ने अपना काव्य कौशल प्रस्तुत किया। डॉ. रामकुमार वर्मा के शब्दों में- "नाथ साहित्य का वर्ण्य-विषय दार्शनिक विचारधारा और आध्यात्मिक साधना के विविध उपाय और शैलियाँ हैं। इन कवियों ने सम्प्रदाय के चिन्तन पक्ष और आचार पक्ष पर सविस्तार विचार प्रकट किया है। इन्होंने धर्म और समाज के बाह्याडन्वरों एवं बाह्याचारों की निन्दा की है।.. हठयोग की प्रक्रियाओं का सविस्तार वर्णन नाथ साहित्य में हुआ है।

      रस : विषय योजना की प्रवृत्ति ने शान्त रस प्रवाह बहाया। शिव शक्ति की भावना के कारण श्रृंगारमयी वाणी 'शक्ति संगम मंत्र आदि में मिलती है।

      नाथ साहित्य का महत्त्व- नाथ पंथी संतों की काव्यधारा, निर्गुणी संत कवियों के लिए आविर्भाव की भूमिका का काम करती है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी इनकी रचनाओं में साहित्य की आत्मा के दर्शन करते हैं ।


         **सिद्ध साहित्य – **

        ये साधक सिद्ध कहलाते थे इनका प्रादुर्भाव सातवीं सदी में हुआ था । इन सिद्धों की संख्या चौरासी (84) थी। इन सिद्धों ने उपदेशात्मक काव्य रचा।

      सिद्ध साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ - 

       सिद्धों की अटपटी वाणियों से योग एवं तांत्रिक क्रियाओं का स्वर द्वंकवा होता है। अपनी रहस्यात्मक अनुभूति को व्यक्त करनेवाले प्रतीकात्मक शब्दों एवम् वचनों का खुलकर प्रयोग किया गया। 

      भाषा 

       सिद्धों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली भाषा को 'सान्ध्य' भाषा कहा जाता है। अधिकतर सिद्धों का जन्म स्थान बिहार में मगध और नालन्दा था। परिणाम स्वरूप इनकी भाषा में अर्दधमागधी अपग्रेश की प्रमुखता है।

 इस काल में प्रायः चर्यागीत, दोहा, चौपाई आदि पदों की योजना की गई।

     सिद्ध साहित्य का महत्वः

          वास्तव में भाषाविज्ञान के अन्वेषकों के लिए यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण काल है। पुरानी हिन्दी की जड़ो में से हिन्दी का बीज अंकुरण पा रहा था। जहाँ धर्म के क्षेत्र में यह युग सिद्धों के चमत्कारपूर्ण प्रदर्शनों का काल है. वहाँ साहित्य के क्षेत्र में आगे आने वाले रहस्यवादी, ज्ञानमार्गी और प्रेममार्गी कवियों-संतों के लिए पृष्ठभूमि तैयार करने का काल रहा।

      सिद्धों के नाम इस प्रकर मिलते हैं- सरहपा (सं.817 ) शवरपा कर्णरीपा, लुहिपा, भुसुक, विरूपा, घंटापा, लीलपा, चम्पकपा आदि।

       सरहपा :-  राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें हिन्दी का प्रथम कवि माना है। इन्हें राहुल भद्र या सरोज मद्र भी कहते हैं। इनका समय 690 वि. माना जाता है। इनकी रचित कृतियों की संख्या 32 मानी जाती है। इन्होंने पाखण्ड का घोर विरोध किया। राहुल जी ने अपभ्रंश को पाली तथा प्राकृत से भित्न और हिन्दी से अमित्र सिद्ध करने के प्रयास में हिन्दी काव्य धारा का प्रारम्भ सरहपा से ही माना है।

       शबरपा :-  ये सरहपा के शिष्य थे। चर्यापद इनकी प्रसिद्ध रचना है।


         **  जैन साहित्य: **

           हिन्दु धर्म की प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न हुए जैन धर्म को, अन्तिम और चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने देश व्यापी और लोक जीवन में प्रतिष्ठित किया। जैन धर्म हिन्दू धर्म से अधिक मेल खाता है। इस कारण इसका खूब प्रचार हुआ। परन्तु आगे चलकर इनकी आन्तरिक फूट के चलते इनमें दो भाग हो गए -  श्वेताम्बर और दिगम्बर

          सर्वप्रथम प्राकृत भाषा में लिखित ग्रन्थों का चयन 454 ई. में देवर्षिंगण ने सम्पन्न किया। जैन साहित्य की रचना करने वाले इन कवियों की रचनाओं द्वारा भारतीय समाज की ऐतिहासिकता की रक्षा हुई। इन कवियों ने धार्मिक रूढ़ियों तथा अंधविश्वासों की परम्पराओं की कड़ी आलोचना की है । सांसारिक विषयों के साथ-साथ प्रेमकथाओं पर रचनाएँ की गई हैं। हिन्दी साहित्य के प्रेममार्गी कवियों को प्रेमतत्व यहीं से मिला। इन कवियों में स्वयंभूदेव, देवसेन, पुष्पदन्त, आचार्य देवचन्द्र सूरी, हेमचन्द्र, मुनिराम सिंह जैन, धनपाल आदि प्रसिद्ध हैं। )

    जैन साहित्य की मुख्य विशेषताएं:

       * सिद्धों की तरह आध्यात्मिक और लौकिक अलोकिक वस्तुओं को लक्ष्य बनाकर 

        इस काल की कविता रची गई। 

       * इसमें अनेक विषयों की विविधता का समावेश हुआ ।

       * लौकिक प्रेम कथाएँ एवं परम परिउ' को आगार बनाया गया। 

       * अवतारो की कश्या के सामा- साम्य नीति कथन भी किया गया है। तत्कालीन अप में 

          कविता कराने लोगों को रचनाओं को भी इन्होंने अपने प्रयों में स्नान दिया है, जिससे 

          विषयों की अनेकता को काणा में मान मिला है।

     रसः श्रृंगार और शान्त रस की प्रधानता है।

    भाषा- इन की कविताओं में प्राचीन हिन्दी की झलक मिलती है। 

              इनकी भाषा नागर अपभ के निकट है। 

              यह  काल भाषा का निर्माण काल है।

      छन्द-दो-चौपाई की पद्धति का पालन किया गया है, जिसकी परम्परा  पालन चरित्र 

              कथन में 'कृष्णायन तक हुआ है। इसके अतिरिक्त इस काल में सोरठा, चतुष्पदी, 

              कवित, पद्धरि, हरिगीतिका छन्दों का भी प्रयोग हुआ है।

       जैन साहित्य का महत्व

   * साहित्य के विकास में इनका योगदान तो है ही परन्तु भाषा का क्षेत्र में इनकी देन 

       महत्वपूर्ण है। 

   *आध्यात्मिक-साम्प्रदायिक साहित्य का निर्माण इस युग में हुआ, जिसके भीतर हिन्दी 

        भाषाविद के लिए अमूल्य समाति सुरक्षित है।

  * जैन साहित्य का दूसरा महत्व यह है कि कदि में गीति शैली का जन्म इस काल में हुआ ।

  * इस काल में महान व्यक्तियों की जीवनिया एवं धरित्री देवार रामकुमार का यह सामान सत्य है-

   जैन साहित्य वारा इतिहास की विष रक्षा हुई है।

    जैनाचार्य हेमचन्द्र - गुजरात के सालकगी राजा सिद्धराज जयसिंह [सं.750-199] के समय 

     में जैनाचार्ग हेमचन्द ने एक बूहय व्याकरण अन्य सिद्ध-हेमचन्द शब्दानुशासन रचा था।

   विजयसेन सूरी : संवत 298 में रेवंत गिरिरास' की रचना की जो जैन तीर्थकर नेमिनाथ

      और रेवंत गिरि तीर्य से सम्बन्धित है।

  सोमप्रभ सूरी- इन्होंने स.1241 में कुमारपाल प्रतिबोध' नामक एक संस्कृत-कृत काव्य  

       लिखा. था। इसमें कुछ प्राचीन अपभंज्ञा काव्य के नमूने मिलते है।

  जैनाचार्य मेरुतुंग - इन्होंने संवत 1561 में 'प्रबन्ध चिन्तामणि' नामक गाय बनाया था। 

     जिसमें प्राचीन राजाओं की कथाएँ संग्रहीत है। इन कथाओं में राजा भोज के चाचा मुँज

       के कहे दोहे मिलते हैं।

    iii. वीरगाथा  साहित्य

         हिदी -साहित्य का वीरगाथा काल संवत् 1050 से लेकर संवत् 1375 तक) अर्थात महाराजा भोज के समय से लेकर हम्मीरदेव के समय के कुछ पीछे तक माना जाता है।

         यह समय युद्ध का और शौर्य प्रदर्शन का समय था। एक ओर भारत पर मुसलमानों की चढाइयों का आरंभ हुआ तो दूसरी ओर भारत के राजा लोग आपस में लड़ते रहते थे। इसलिए राजाश्रिता कवि लोग अपने अपने आश्रयदाताओं के पराक्रमपूर्ण चरित्रों या गाथाओं का वर्णन किया करते थे। अतः इस समय बीररसपूर्ण साहित्य का आविर्भाव हुआ।

         जैसे योरोप में वीरगाथाओं का प्रसंग युद्ध और प्रेम रहा वेसे ही भारत में भी था। किसी राजा के कन्या के रूप का संवाद पाकर दलबल के साथ चढाई करना और प्रतिपक्षियों को हरण कर लाना वीरो के गौरव और अभिमान का काम माना जाता था। इस प्रकार इन काव्यों में श्रृगार केवल सहायक रूप में रहता था।

          ये वीर गाथाएँ दो रूप में मिलती हैं-प्रबन्ध के साहित्यक रूप में और वीर गीतों के रूप में। साहित्यक रूप में जो अब प्राचीन ग्रन्थ मिलता है वह पृथ्वीराज रासो' है। वीर गीत के रूप में सबसे पुरानी पुस्तक "बीसलदेव रासो" मिलती है।

          इस वीरगाथा परंपरा के ग्रंथ "रासो" कहलाते हैं। कुछ विद्वानों का कहना है कि रासी का उद्भव "रहस्य" से हुआ है और कुछ का कहना है कि "रासायन" से राशि का तात्पर्य भी हो सकता है चाहे जो भी हो, "रासो" का ताप्मर्य वीर-रसपूर्ण वीरगाथा काल के ग्थो है।

     इस समय के प्रधान रासो ग्रन्थ तीन है- 

    (1) खुमान सासो (2) बीसलदेव रासो (3) पृथ्वी राज रासो।)

    1. खुमान रोसो

        यह तो "दलपति विजय" नामक कवि का रचा हुआ ग्रंथ है। इस में प्रसिद्ध चितौड के रावल खुमान के वीरतापूर्ण युद्धों का वर्णन है। खुमान ने कुल मिलाकर 24 युद्ध किये और उन्होंने चितौड पर वि. सं. 869 से 893 तक राज्य किया था। लेकिन वर्तमानकाल में खुमान रासो की जो प्रतियों मिलती हैं, उसमें महाराणा प्रताप तक का उल्लेख पाया जाता है। किंतु इस ग्रंथ की सत्यता पर भारी सदेह बना हुआ है आर कहना है कि एक प्रति में श्रीरामचन्द्र से खुमान तक के युद्धों का वर्णन था।

   2. बीसलदेव रासो :

         यह नरपति नाल्ह कवि का रचा हुआ छोटा-सा ग्रथ है। यह ग्रंथ वीरगीत के रूप में है। इसका निर्माण काल यों दिया गया है 

        बारह से बहोतारौँ मझारि। जेठ वदी नवमी बुधवारी 

        'नाल्ह' रसायण आरभइ। सारदा तूठी ब्रह्मा कुमारि। 

उपर्युक्त पद्य के अनुसार इसका निर्माण काल विक्रम संवत् 1212 है। इस ग्रंथ में विग्रहराज चतुर्थ उपनाम बीसलदेव के जीवन-वृत्तात का विशदपूर्ण वर्णन है। और यह लगभग 2000 चरणों में समाप्त हुआ है। 'पृथ्वीराज रासो' के समान यह कोई बड़ा काव्य ग्रन्थ नहीं है। यह केवल गाने के लिए रचा गया छोटा-सा ग्रन्थ है। वह गाने की चीज होने के कारण इसकी भाषा का समय समय पर परिवर्तन होता आया है। अतःआज की मिली उसकी प्रतियों में फारसी अरबी और तुरकी के शब्द भी मिलते हैं। इस ग्रन्थ की भाषा साहित्यिक नहीं ।

    3. पृथ्वीराज रासो :

            चंदबरदाई कृत बृहत काव्य ग्रथ है। यह हिंदी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है। यह ढाई हजार पृष्ठों का एक बहुत बढ़ा ग्रन्थ है। इसमें दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज के वीरतापूर्ण युद्धों का बहुत ही विशदपूर्ण वर्णन हुआ है। यह 69 अध्यायों का महाकाव्य है।) इस में प्राचीन समय के प्रचलित समस्त छन्दों का प्रयोग किया गया है। मुख्य छन्द है कविता (छप्पय) दूहा. तोमर, श्रोता, गाहा और आर्या । (प्रसिद्ध है कि इस ग्रंथ का उत्तरार्थ चदबरदाई के पुत्र जल्हन ने पूरा किया है। इसकी भाषा ठिकाने की नहीं है। इसमें कई प्रकार का व्याकरण के दोष मिलते हैं। लता

    4. जयचंद्र प्रकाश :

         यह भट्ट केदार का रचा हुआ काव्य है। उसमें कन्नौज के सम्राट जयचन्द्र के प्रताप और पराक्रम का विस्तृत वर्णन है।

    5. आल्हा खण्ड:

           यह महोबे के चन्देल राजा परमाल के राजकवि जगनिक के द्वारा रचा गया अधिक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसमें आल्हा और ऊदल नामक दो प्रसिद्ध वीरों की 52 लड़ाइयों और उनके विवाहों का वर्णन है । यह एक वीरगीतात्म काव्य के रूप में रचा गया है। कारण यही है कि इस गृथ के वीर गीतों का प्रचार समग्र उत्तर भारत में हुआ है। इसके गीतों का एक नमूना इस प्रकार है।

     बारह बरसि लै कूकर जीये

         औ तेरह लै जिये सियार।

     बरिस अठारह क्षत्री जीये, 

          आगे जीवन के धिक्कार।।

          उपर्युक्त उदाहरणों से मालूम होता है कि वीरगाथाकाल के काव्य ग्रथ वीररस प्रधान हुए हैं। इस समय के काव्य का विषय अपने आश्रय दाता राजाओं की जीवन घटनाओं का विस्तृत वर्णन है। इस काल के कवियों में खुसरो, विद्यापति आदि कवि भी मिलते हैं, जिनकी कविताएँ वीररस प्रधान नही हुई है। हाँ, ये इसके अपवाद मात्र हैं।

                

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एकांकी

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