Friday, April 2, 2021

तुलसीदास रामचरित मानस - अयोध्याकाँड 1-5


              तुलसीदास
              रामचरित मानस - अयोध्याकाँड  
1-5 

दो- सब के उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु । 

     आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु ।।1।।

     सब के हृदय में ऐसी अभिलाषा है और सब महादेव जी को मनाकर (प्रार्थना करके) कहते हैं कि राजा अपने जीते-जी श्रीरामचन्द्रजी को युवराज-पद दे दें।

      एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा।। 

      सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू।।

      एक समय रघुकुल के राजा दशरथ जी अपने सारे समाज सहित राजसभा में विराजमान थे। महाराज समस्त पुण्यों की मूर्ति हैं, उन्हें श्रीरामचन्द्रजी का सुन्दर यश सुनकर अत्यन्त आनन्द हो रहा है।

      नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषा । लोकप करहिं प्रीति रुख रखें । । 

      त्रिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरिभाग दसरथ सम नाहीं।

         सब राजा उनकी कृपा चाहते हैं और लोकपालगण उनके रुख को रखते हुए (अनुकूल होकर) प्रीति करते हैं। [पृथ्वी, आकाश, पाताल] तीनों भुवनों में और [भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालों में दशरथजी के समान बड़ भागी और कोई नहीं है।

       मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिअ थोर सबु तासू।। 

      रॉय सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकिमुकुटु सम कीन्हा ।

          मङ्गलों के मूल श्रीरामचंद्रजी जिनके पुत्र हैं उनके लिए जो कुछ कहा जाय सब थोड़ा है। राजा ने स्वाभाविक ही हाथ में दर्पण ले लिया और उसमें अपना मुँह देखखर मुकुट को सीधा किया।

        श्रवण समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा।। 

        नृप जुबराजु राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू।।

           कानों के पास बाल सफेद हो गए हैं; मानो बुढ़ापा ऐसा उपदेश कर रहा है कि हे राजन! श्रीरामचन्द्र जी को युवराज-पद देकर अपने जीव और जन्म का लाभ क्यों नहीं लेते।


दो.-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ। 

     प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनाथउ जाइ ।।2।।

             हृदय में यह विचार लाकर (युवराज-पद देने का निश्चय कर) राजा दशरथजी ने दिन और सुन्दर समय पाकर, प्रेम से पुलकित शरीर हो आनन्द मग्न मन से उसे गुरु वसिष्ठजी शुभ को जा सुनाया।

        कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक

        सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी ।।

        राजाने कहा- हे मुनिराज ! कृपया यह निवेदन] सुनिए। श्रीरामचन्द्र अब सब प्रकार में सब योग्य हो गए हैं। सेवक, मन्त्री, सब नगर निवासी और जो हमारे शत्रु, मित्र या उदासीन हैं।

       सबहि रामुप्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही।। 

       बिप्र सहित परिवार गोसाई। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई ।।

       सभी को श्रीरामचन्द्र वैसे ही प्रिय हैं जैसे वे मुझको हैं। आप का आशीर्वाद ही मानो शरीर धारण करके शोभित हो रहा है। हे स्वामी ! सारे ब्राह्मण परिवार सहित, आपके ही समान उन पर स्नेह करते हैं।

        जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं। 

        मोहि सम यहु अनुमान दूजें । सबु पायउँ रज पावनि पूजें ।।

         जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तकपर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने वश में कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किनी ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण रज की पूजा करके मैंने सब कुछ पा लिया।

         अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजिहि नाथ अनुग्रह तोरें। । 

         मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू।।

          अब मेरे मन में एक ही अभिलाषा है। हे नाथ ! वह भी आप ही के अनुग्रह से पूरी होगी। राजा का सहज प्रेम देखकर मुनि ने प्रसन्न होकर कहा-नरेश ! आज्ञा दीजिए । (कहिये, क्या अभिलाषा है?)

       दो.-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार। 

            फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाशु तुम्हार ।।3।।

       है राजन् ! आपका नाम और यश ही सम्पूर्ण मनचाही वस्तुओं को देनेवाला है। हे राजाओं के मुकुटमणि ! आपके मन की अभिलाषा फल का अनुगमन करती है (अर्थात् आपके या करने के पहले ही फल उत्पन्न हो जाता है)।

        सब विधि गुरु प्रसन्न जुयेँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी।। 

        नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअकृपा करि करिअ समाजू।।

      अपने जी में गुरुजी को सब प्रकार से प्रसन्न जानकर, हर्षित होकर राजा कोमल वाणी से नेते-हे नाथ ! श्रीरामचन्द्र को युवराज कीजिये। कृपा करके कहिये तो तैयारी की जाय ।

         मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू।।

         प्रभु प्रसाद सिव सबई निबाही। वह लालसा एक मन माहीं।।

        मेरे जीते-जी यह आनन्द-उत्सव हो जाय, सब लोग अपने नेत्रों का लाभ प्राप्त करें। प्रभु (आप के) प्रसाद से शिवजी ने सब कुछ निबाह दिया, केवल यही एक लालसा मन में रह गयी है।

         पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ। ।

         सुनि मुनि जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं।

      इस लालसा के पूर्ण हो जाने पर फिर सोच नहीं, शरीर रहे या चला जाय, जिससे मुझे पीछे पछतावा न हो। दशरथ जी के मङ्गल और आनन्द के मूल सुन्दर वचन सुनकर मुनि मन में बहुत प्रसन्न हुए।

          भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी।।

 दो.-वेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।

      सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु ।।4।।

         हे राजन् ! अब देर न कीजिये, शीघ्र सब सामान सजाइये। शुभ दिन और सुन्दर मङ्गल तभी है जब श्रीरामचन्द्रजी युवराज हो जायँ । (अर्थात् उनके अभिषेक के लिए सभी दिन शुभ और मङ्गलमय है)।

       मुदित महीपति मंदिर आए सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए।।

       कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए।

      राजा आनन्दरत होकर महल में आए और उन्होंने सेवकों को तथा मन्त्री सुमन्त्र को बुलवाया। उन लोगों ने 'जय-जीव' कहकर सिर नवाये। तब राजा में सुन्दर मङ्गलमय वचन (श्रीरामजी को युवराज-पद देने का प्रस्ताव) सुनाए।

         जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हिरामहि टीका।।

     यदि पंचों को (आप सब को) यह मत अच्छा लगे, तो हृदय में हर्षित होकर आप लोग श्रीरामचन्द्र का राजतिलक कीजिये।

         मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरवा परेउ जनु पानी।। 

         बिनती सचिव करहिं कर जोरी। जिअहु जगतपति बरिस करोरी।।

        इस प्रिय वाणी को सुनते ही मन्त्री ऐसे आनन्दित हुए मानो उनके मनोरथ रूपी पौधे पर पानी पड़ गया हो। मन्त्री हाथ जोड़कर विनती करते हैं कि हे जगत्पति ! आप करोड़ों वर्ष जियें।

        जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ बारा।

        नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बैंड जनु लही सुसाखा।।

           आपने जगत्भर का मङ्गल करनेवाला भला काम सोचा है। हे नाथ ! शीघ्रता कीजिये देर न लगाइए। मन्त्रियों की सुन्दर वाणी सुनकर राजा को ऐसा आनन्द हुआ मानो बढ़ती हुई बेल सुन्दर डाली का सहारा पा गयी हो।

          दो.-कहेउ भूप मुनिराज कर जोड़ आयसु होइ। 

              राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ ।।5।।

           राजा ने कहा-श्रीरामचन्द्र के राज्याभिषेक के लिए मुनिराज वसिष्ठ जी की जो-जो आज्ञा हो, आपलोग वही सब तुरंत करें।

           हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी।। 

           औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना।।

        मुनिराज ने हर्षित होकर कोमल वाणी से कहा कि सम्पूर्ण श्रेष्ठ तीर्थों का जल ले आओ। फिर उन्होंओने औषधि, मूल, फूल, फल और पत्र आदि अनेकों माङ्गलिक वस्तुओं के नाम गिनकर बताये।

        चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती।।

         मनिगन मंगल बस्तु अनेका जो जग जोगु भूप अभिषेका।।

         चँवर, मृगचर्म, बहुत प्रकार के वस्त्र, असंख्यों जातियों के ऊनी और रेशमी कपड़े [नाना की] मणियाँ (रत्न) तथा और भी बहुत-सी मङ्गल-वस्तुएँ, जो जगत् में राज्याभिषेक के प्रकार योग्य होती हैं, [सब को मँगाने की उन्होंने आज्ञा दी)।

          वेद विदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर विविध बिताना

           सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा।।

          मुनि ने वेदों में कहा सब विधान बताकर कहा-नगर में बहुत-से मण्डप सजाओ। फलों समेत आम, सुपारी और केले के वृक्ष नगर की गलियों में चारों ओर रोप दो।

           रचहु मंजु मनि चौके चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू । 

           पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब विधि करहु भूमिसुर सेवा।। 1.

            सुन्दर मणियों के मनोहर चौक पुरवाओ और बाजार को तुरंत सजाने के लिए कह दो। श्रीगणेशजी, गुरु और कुलदेवता की पूजा करो और भूदेव ब्राह्मणों की सब प्रकार से सेवा करो।



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