Thursday, April 1, 2021

तुम कब जाओगे, अतिथि (When will you go. Oh Guest) / (व्यंग्य कथा/ Satire) - शरद जोशी

 

         तुम कब जाओगे, अतिथि 

     (When will you go. Oh Guest)

                (व्यंग्य कथा/ Satire)

               - शरद जोशी


               The satire 'तुम कब जाओगे, अतिथि' is written by a well known satirist Sharad Joshi. This satire is focused on such a guest who overstays and thus misuses the hospitality of the host. Such an awkward situation disturbs the family atmosphere at the host.


              आज तुम्हारे आगमन के चतुर्व दिवस पर यह प्रश्न बार-बार मन में बुमड़ रहा है - तुम कच जाओगे, अतिथि ?

     तुम्हारे ठीक सामने एक कैलेंडर है। देख रहे हो ना । इसको तारीखें अपनी सीमा में नम्रता से फाडफदाती रहती हैं। विगत दो दिनों से मैं तुम्हें दिखाकर तारीखें बदल रहा हूँ। तुम जानते हो, अगर तुम्हें हिसाब लगाना आता है कि यह चौथा दिन है, तुम्हारे सत्तत आतिथ्य का चौथा भारी दिन ! पर तुम्हारे जाने की कोई संभावना प्रतीत नहीं होती । लाखों मील लंबी यात्रा करने के बाद वे दोनों पस्ट्रॉनाट्स भी इतने समय चाँद पर नहीं रुके थे, जितने समय तुम एक छोटी-सी यात्रा कर मेरे घर आए । तुम अपने भारी चरण-कमलों की छाप मेरी जमीन पर अंकित कर चुके, तुमने एक अंतरंग निरजी संबंध मुझसे स्थापित कर लिया, तुमने मेरी आर्थिक सीमाओं की बैजनों चट्टान देख ली, तुम मेरी काफी मिट्टी खोद बुके । अब तुम लौट जाओ, अतिथि । तुम्हारे जाने के लिए यह उच्च समय अर्थात् हाईटाइम है। क्या तुम्हें तुम्हारी पृथ्वों नहीं पुकारती ?

          उस दिन जब तुम आए थे, मेरा हृदय किसी अज्ञात आशंका से धड़क उठा था अंदर-हो-अंदर कहीं मेरा बटुआ आँप गया। उसके बावजूद एक स्नेह-भीगी मुस्कराहट के साथ मैं तुमसे गले मिला था और मेरी पत्नी ने तुम्हें सादर नमस्ते की थी। तुम्हारे सम्मान में ओ अतिथि, हमने रात के भोजन को एकाएक उच्च मध्यमवर्ग के डिनर बदल दिया था । तुम्हें स्मरण होगा कि दो सब्जियों और रायते के अलावा हमने मीठा भी बनाया था । इस सारे उत्साह और लगन के मूल में एक आशा थी । आशा थी कि दूसरे दिन किसी रेल से एक शानदार मेहमान नवाजी की छाप अपने हृदय में ले तुम चले जाओगे। हम तुमसे रुकने के लिए आह करेंगे, मगर तुम नहीं मानोगे और एक अच्छे अतिथि को तरह चले जाओगे । पर ऐसा नहीं हुआ । दूसरे दिन भी तुम अपनी अतिथि-सुलभ मुस्कान लिए घर में ही बने तो । हमने अपनी पीड़ा पी ली और पसल बने रहे । स्वागत-सत्कार के जिस उच्च बिंदु पर हम तुम्हें ले जा चुके थे वहाँ से नीचे उतर हमने फिर दोपहर के भोजन को लंब को गरिमा प्रदान को और गति को तुम्ने सिनमा दिखाया । जमारे सत्कार का यह आखिरी छोर है, जिसमें आगे हम किसी के लिए नहीं बहे। इसके तुरंत बाद भावमीनी विदा का यह भीगा हुआ शरण आ जाना चाहिए था जबं तुम विदा डोते और दम तुम्हें रटगन तक जोड़ने जाते पर तमने ऐसा नहीं किया।

       तीसरे दिन की मुचा तुमने मुझसे कहा, "मैं सॉन्डो में कपड़ देना चाहता है।"

       यह आघात अप्रत्याशित था और इसकी चोट मार्मिक थी । तुमारे सामीप्य की बेता एकाएक यो स्वर की तरह खिंच जाएगी, इसका मुझे अनुमान न था । पहली बार मुझे लगा कि अतिथि सदैव देवता नहीं होता, यह मानव और धोडे अंशों में गवास भी हो सकता है।

      "कहाँ है लॉन्द ?"

       "चलो मानते हैं " मैने कहीं और अपनी सहज बनियान पर औपचारिक कृता इलने लगा

        कहाँ जा रहे है " पली ने पुखा

       "उनके कपड़े लॉन्दी पर देते हैं। मैंने कहा।

        मेरी पत्नी की आँखें एकाएक अहा-बाों हो गई । आज में कुछ बरस पूर्व उनकी एसो मैंने अपने अकेलेपन की यात्रा समाप्त कर बिस्तर खाल दिया था। पर अब जब चे हा आँख बड़ी होती है तो मन छोटा होने लगता है। इस आशका और भय से हड़ी हुई था कि अतिथि अधिक दिनों ठहरेगा ।

       और आशंका निर्मूल नहीं थी अतिथि तुम जा नहीं रहे। लॉन्ड्री पर दिए कपड़े पुलकर आ गए और तुम यहाँ हो । तुम्हारे भरकम शरीर से सलचरें पड़ी चादर बदली जा चुकी और तुम यही हो तुम्हें देखकर फूट पड़ने वाली मुस्कराहट धीरे-धीरे फीकी पड़कर अच लुप्त हो गई है उहाफों के रंगीन गुब्बारे जो कल तक इस कमरे के आकाश में उड़ते थे, अन दिखाई नहीं पड़ते । बातचीत की उछलती हुई गेंद चर्चा को क्षेत्र के सभी कोणों से टप्पे खाकर फिर सेंटर में आकर चुप पड़ी है । अब इसे न तुम हिला रहे हो, न में । कल से में पड़ रहा है और 'तुम फिल्मी पत्रिका के पन्ने पलट रहे हो । शब्दों का लेन-देन मिट गया और चर्चा के विषय चुक गए । परिवार, बच्चे, नौकरी, फिल्म, राजनीति, रिश्तेदारी, पन्यास पर जतागलं. पुराने दोस्त, मरिचार-निपाजन, महंगाई, साहित्य और यहाँ तक कि आँख मार-मारकर हमने पुरानी प्रेमिकाओं का भी जिक्र कर लिया और अब एक चुप्पी है। मौहद अच गने-शनेः छोग्यित में रूपांतरित हो रहा है । भावनाएँ गालियों का स्वरूप ग्रहण कर रही हैं पर तुम जा नहीं रहे। किस अदृश्य गोद में तुम्गारा व्यक्तित्व यहाँ चिपक गया है, में इस मंद को सपरिवार नहीं समझ पा रहा हूँ। बार-बार प्रश्न उठ रहा तुम कब जाओगे, अतिथि ?

        कल पत्नी ने धीरे से पूछा था, "कर तक टिकने वे ?

        मैंने कंधे उचका दिए "क्या कह सकता "

        मैं तो आज खिचड़ी बना रही हूँ । हल्की रहेगी ।"

       "बनाओ।"

        सत्कार की ऊष्मा समाप्त हो रही थी । डिनर से चले थे, खिचड़ी पर आ गए । अब भी अगर तुम अपने बिस्तर को गोलाकार रूप नहीं प्रदान करते तो हमें उपवास तक जाना होगा । तुम्हारे मेरे संबंध एक संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं । तुम्हारे जाने का यह चरम क्षण है। तुम जाओ न अतिथि ।

       तुम्हें यहाँ अच्छा लग रहा है ना ? मैं जानता हूँ । दूसरों के यहाँ अच्छा लगता है । अगर बस चलता तो सभी लोग दूसरों के यहाँ रहते, पर ऐसा नहीं हो सकता । अपने घर की महत्ता के गीत इसी कारण गाए गए हैं। 'होम' को इसी कारण 'स्वीट-होम' कहा गया है कि लोग दूसरे के होम की स्वीटनेस को काटने न दौड़े । तुम्हें यहाँ अच्छा लग रहा है, पर सोचो प्रिय, कि शराफत भी कोई चीज़ होती है और गेट आउट भी एक वाक्य है, जो बोला जा सकता है ।

      अपने खर्राटों से एक और रात गुंजायमान करने के बाद कल जो किरण तुम्हारे बिस्तर पर आएगी वह तुम्हारे यहाँ आगमन के बाद पाँचवें सूर्य की परिचित किरण होगी । आशा है, वह तुम्हें चूमेगी और तुम घर लौटने का सम्मानपूर्ण निर्णय ले लोगे मेरी सहनशीलता की वह अंतिम सुबह होगी । उसके बाद मैं स्टेंड नहीं कर सकूंगा और लड़खड़ा जाऊँगा । मेरे अतिथि, मैं जानता हूँ कि अतिथि देवता होता है, पर आखिर मैं भी मनुष्य हूँ मैं कोई तुम्हारी तरह देवता नहीं । एक देवता और एक मनुष्य अधिक देर साथ नहीं रहते । देवता दर्शन देकर लौट जाते हैं । तुम लौट जाओ अतिथि । इसी में तुम्हारा देवत्व सुरक्षित रहेगा इसके पूर्व कि मैं अपनी वाली पर उतरूँ लौट जाओ

        उफ्, तुम कब जाओगे, अतिथि ?


 SUMMARY OF THE STORY (कथा का सार)


        लेखक के घर में एक अतिथि आया है । प्रारंभ में उसका बहुत आदर-सत्कार हुआ । अतिथि ऐसा है कि जाने का नाम ही नहीं लेता। इस बात से परिवार के लोग दुखी हो गए । लेखक चाहता है कि किसी प्रकार अतिथि विदा हो । किंतु उसे ऐसा संकेत दिखाई नहीं पड़ता । पहले मेहमान के लिए बढ़िया भोजन बनाया जाता था । अब खिचड़ी और उपवास तक की स्थिति आ गई है ।

         भारतीय परंपरा में अतिथि को देवता माना गया है । लेखक सोचता है देवता तो दर्शन देकर चले जाते हैं । यह अतिथि जाने का नाम क्यों नहीं ले रहा है?


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