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Saturday, March 30, 2024

हिन्दी गद्य साहित्य की विकास-यात्रा

 


हिन्दी गद्य साहित्य की विकास-यात्रा

       हिन्दी साहित्य के इतिहास का संक्षिप्त परिचय यहाँ भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। हिन्दी गद्य-साहित्य के विकास को जानने से पूर्व ऐतिहासिक काल-विभाजन और साहित्य की प्रवृत्तियों का अवलोकन अप्रासंगिक नहीं होगा।


🔴 आदिकालः

     आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रारंभिक काल आदिकाल अथवा वीरगाथा-काल की अवधि, संवत् 1050 से लेकर 1375 तक मानी जाती है। 'वीरगाथा' शब्द से ही उस काल- गत काव्य की प्रमुख विशेषता का बोध हो जाता है। यद्यपि भक्ति, श्रृंगार, सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर भी कविगण अपनी रचनाएँ करते रहे, फिर भी साहित्य के समग्र रूप का आकलन करते समय युद्ध- साहित्य, युद्ध के वर्णन की प्रधानता के कारण यह नामकरण सर्वमान्य रहा। इस काल की रचनाओं में विजयपालरासो, हम्मीररासो, कीर्तिलता और कीर्तिपताका को अपभ्रंश-साहित्य मानते हुए गिनती में नहीं लिया गया। खुमानरासो, बीसलदेवरासो, पृथ्वीराजरासो, जयचंद प्रकाश, जयमयंक जसचंद्रिका, परमालरासो, खुसरो की पहेलियाँ और विद्यापति की पदावली प्रमुख मानी जाती हैं। इसी युग के अंतर्गत नाथ-सिद्ध-साहित्य भी समाविष्ट है। जैन मुनियों का विशाल धार्मिक साहित्य भी उपलब्ध है। कवि अब्दुर रहमान का 'संदेश रासक' इसी युग की अत्यंत रमणीय कृति है। विषय-वस्तु की दृष्टि से स्पष्ट है कि इस कालखण्ड में वीरगाथात्मक रचनाएँ ही नहीं, बल्कि विभिन्न रसों की साहित्यिक कृतियाँ भी समाविष्ट की गई हैं।

🔴 भक्तिकालः

          संवत् 1375 से लेकर 1700 तक का समय भक्ति काल माना जाता है। नामकरण की समस्या ने इस कालखण्ड को भी अछूता नहीं छोड़ा है। भक्ति-काल, जो कि पूर्व मध्यकाल भी कहलाता है, के दौरान भक्ति की भावधारा ने ही साहित्य को समृद्ध बनाया है; यों कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी। इस काल में भक्ति की भी विभिन्न शाखाएँ और धारणाएँ प्रचलन में रहीं। पं. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार भक्ति- आन्दोलन भारतीय चिंतन का ही स्वाभाविक विकास है। नाथ-सिद्धों की साधना, अवतारवाद, लीलावाद आदि प्रवृत्तियाँ दक्षिण भारत से आकर, इस धारा में घुलमिल गयीं। यह आन्दोलन और साहित्य लोकोन्मुख और मानवीय करुणा के महान् आदर्श से युक्त था। भक्ति की ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी रूपी दो शाखाएँ निकल पड़ी। हिन्दु-मुस्लिम संप्रदाय के समन्वय की प्रवृत्ति को लेकर ज्ञानाश्रयी शाखा का कबीर ने नेतृत्व किया तो सूफ़ी संप्रदाय के अनुयायी प्रेमाश्रयी पंथ पर चल पड़े।


👉 निर्गुण धाराः - 

    भक्ति-काल के प्रारंभ की संत काव्य-परंपरा अत्यंत महत्व रखती है। कबीरदास के पहले भी यद्यपि निर्गुणोपासक भक्त संत कवि के रूप में प्रसिद्ध रहे तथापि कबीर के समय से ही इस काव्य धारा को स्थायित्व प्राप्त हुआ। संत काव्य की अनेक विशेषताएँ हैं।

   कवि निराकार ब्रह्म का वर्णन करते हैं, उनके साथ साक्षात्कार और मिलन की अनुभूति प्रकट करते हैं। निर्गुण साहित्य में अंतर्निहित रहस्यवाद इसी अनुभूति की उपज है।

     इस धारा के कवि समाज-सुधारक भी थे। जाति-भेद, वर्ण-भेद, शोषण आदि का खंडन इनके काव्य के माध्यम से लक्षित होता है। गुरु की महिमा, वाह्याडंबर एवं रूढ़िवाद का खंडन, इनकी अन्य विशेषताएँ हैं।

संत रैदास, धरमदास, दादूदयाल, सुंदरदास, मलूकदास आदि अन्य प्रमुख कवि हैं। ब्रजभाषा और खड़ीबोली दोनों में इस पंथ के कवि लिखा करते थे। इन कवियों की भाषा आम तौर पर सधुक्कड़ी मानी जाती है।

उदाहरण के लिए कबीरदास का दोहा इस प्रकार है-

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोइ। 

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सु पंडित होइ ।।

मलूकदास की रचना का उदाहरण देखें:-

अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।

 दास मलूका कहि गये, सबके दाता राम।।

गुरुनानक जैसे पंजाब के संत कवि ने भी इसी पंथ को अपनाया था।

     प्रेमाख्यान परंपरा के अंतर्गत दो प्रकार के प्रेमाख्यान मिल रहे हैं। आध्यात्मिक प्रेमपरक काव्य और विशुद्ध लौकिक प्रेमगाथा काव्य। मुसलमान सूफी कवियों के द्वारा तथा हिन्दू भक्त कवियों के द्वारा विरचित प्रेमाख्यानों में कुतुबन का "मृगावती", मंझन का "मधुमालती" जैसे काव्य प्रसिद्ध हैं। मलिक मुहम्मद जायसी, जो प्रसिद्ध सूफी संत थे, के पद्मावत काव्य ने हिन्दी प्रेमकाव्य परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है। सूफी कवियों की रचनाएँ प्रायः कल्पना पर आधारित हुआ करती थीं, पर जायसी ने कल्पना के साथ-साथ इतिहास का भी समावेश किया।

      सूफ़ी शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं। ज्ञानी के अर्थ में प्रचलित यूनानी शब्द सूफ़ी से संबंध जोड़ा जाता है। दूसरी राय के अनुसार सूफ़ - अर्थात् पवित्रता के आधार पर परमात्मा से जुड़कर, सादा और पवित्र जीवन जीनेवाले सूफी संत कहलाये।

👉 सगुणधारा

    सगुण भक्तिधारा के अंतर्गत रामभक्ति और कृष्णभक्ति के नाम से दो शाखाएँ प्रचलन में आयीं। रामचरितमानस और अन्य विशिष्ट कृतियों के रचयिता के रूप में गोस्वामी तुलसीदास ने इस शाखा का नेतृत्व किया। कृष्णभक्ति शाखा को वल्लभाचार्य ने और उनके शिष्यों, जिन्हें "अष्टछाप" के नाम से जाना जाता है- ने अपने साहित्य से पुष्ट किया।


👉 रामभक्ति शाखा

      रामभक्ति शाखां के श्रेष्ठ कवि हैं गोस्वामी तुलसीदास। उन्होंने रामचरितमानस के माध्यम से हिन्दी को प्रौढ़तम साहित्य दिया है। रामचरितमानस के अलावा आपके "कवितावली" रामलीला नहछु, वरवै रामायण, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, गीतावली, वैराग्य सन्दीपनी, कृष्ण गीतावली, रामाज्ञा प्रश्न, दोहावली और विनय पत्रिका आदि ग्रंथ प्रामाणिक माने गये हैं।

     नाभादास, प्राणचन्द्र चौहान, हृदयराम आदि रामभक्ति शाखा के अन्य कवि हैं।


👉 कृष्णभक्ति शाखा

       कृष्णभक्ति शाखा के सबसे प्रसिद्ध कवि सूरदास हुए। सूरसागर, सूर-सारावली और साहित्यलहरी इनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में "हमारे जाने हुए साहित्य में इतनी तत्परता, मनोहारिता और सरलता के साथ लिखी हुई बाललीला अलभ्य है। बाल लीला की प्रत्येक चेष्टा के चित्रण में कवि कमाल की होशियारी और सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय देता है। न उसे शब्दों की कमी है, न अलंकारों की, न भावों की, न भाषा की।"

     मीराबाई के अलावा घनानन्द और रसखान जैसे मुसलमान कवियों ने भी कृष्णभक्ति साहित्य को अपना योगदान दिया है। सूर, तुलसी, मीराबाई जैसे महान् भक्त कवियों के साहित्य की उत्कृष्टता और विलक्षणता के कारण भक्ति काल को "स्वर्ण काल" भी कहा गया है।


👉 रीतिकाल:-

        संवत् 1700 से 1900 तक का समय रीतिकाल के नाम से जाना जाता है। रीतिकाल के साहित्य में श्रृंगार रस की प्रधानता है। रीतिकाल के कवि काव्य को ही सब कुछ मानते थे। काव्य के बाह्य रूप को सँवारने में अपनी शक्ति लगाते थे। कविगण अपने अधिक से अधिक श्रृंगारपूर्ण काव्यों द्वारा अपने आश्रयदाताओं का मनोरंजन करने लगे।

       पहले लक्ष्य-ग्रन्थ लिखे गये और बाद लक्षण ग्रंथ इस प्रकार से रीति ग्रंथों की रचना इस कालखण्ड की विशेषता रही।

     काव्य-शास्त्र के अनेक संप्रदाय बने। भरतमुनि का रस संप्रदाय, कुन्तल का वक्रोक्ति संप्रदाय, भामह, दण्डी और रुद्रट का अलंकार सम्प्रदाय, बामन का रीति-सम्प्रदाय और आनन्द वर्द्धन का ध्वनि संप्रदाय प्रमुख हैं। साहित्य शास्त्र का विधिवत् विवेचन केशवदास ने प्रारंभ किया।

    लौकिक शृंगारिकता, लक्षण ग्रन्थों का निर्माण, अलंकारिकता, ब्रजभाषा की प्रमुखता, मुक्तक-काव्य शैली की प्रधानता, भक्ति और नीति साहित्य, प्रकृति का उद्दीपन रूप नारी-वर्णन इस काल के साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ मानी जाती हैं।

     इस काल में केशवदास, बिहारी, चिन्तामणित्रिपाठी, मतिराम, ललित ललाम आदि प्रमुख कवि हुए हैं।


आधुनिक हिन्दी साहित्य का आरम्भः

        आधुनिक हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ सन् 1868 ई0 से मानना उचित होगा। आधुनिक हिन्दी के जनक भारतेन्दु ने अपने अद्भुत प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व से हिन्दी-साहित्य का नेतृत्व अपने हाथों में लिया था। इसके पूर्व का 70-80 वर्षों का समय आधुनिक हिन्दी साहित्य के मुख्य माध्यम, अर्थात् खड़ी बोली के, साहित्य-क्षेत्र में अधिकार जमाने का समय था; वह भूमिका-स्वरूप था।

     इतिहासज्ञों ने आधुनिक हिन्दी-साहित्य के सन् 1868 से लेकर आज तक के समय को चार चरणों में विभक्त किया है। सन् 1868 से 1893 ई० तक के प्रथम चरण को भारतेन्दु-युग भी कहते है। सन् 1896 से 1918 तक का समय द्वितीय चरण अथवा द्विवेदी-युग के नाम से प्रसिद्ध है। सन् 1918 से 1936 तक को तृतीय चरण या छायावाद-युग के नाम से अभिहित करते है। सन् 1936 से लेकर आज तक का समय चतुर्थ उत्थान अथवा प्रगतिशील युग के नाम से चल रहा है। प्रत्येक उत्थान की साहित्यिक, कलात्मक और भाषा-सम्बन्धी उपलब्धियों का मूल्यांकन संक्षेप में निम्न प्रकार से किया जा सकता है।


⭕ प्रथम चरणः भारतेन्दु-युगः-

     भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जब हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में पदार्पण किया, उस समय तक यद्यपि खड़ी बोली, गद्य के माध्यम के रूप में, अपनी श्रेष्ठता प्रतिपादित कर चुकी थी तो भी राजनैतिक एवं सामाजिक विचार- भेदों के कारण हिन्दी के मार्ग में रोड़े बहुत थे और उर्दू का प्रभाव भी फैलता जा रहा था। परन्तु "भारतेन्दु" के उदय के साथ "सितारेहिन्द" की आभा मन्द हो चली। प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, जगमोहन सिंह, श्रीनिवासदास, बदरीनारायण चौधरी, राधाकृष्णदास, कार्तिकप्रसाद खत्री, रामकृष्ण वर्मा आदि तेजस्वी व्यक्तित्ववाले लेखकों के सामर्थ्यवान् गुट का सक्रिय सहयोग प्राप्त कर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी के मार्ग की सारी बाधाएँ दूर कर उसका भविष्य सदा के लिए निष्कंटक बना दिया। खड़ी बोली हिन्दी में गद्य रचना का अटूट क्रम चल निकला। भारतेन्दु-युग की भाषा- सम्बन्धी यह उपलब्धि हिन्दी के लोगों द्वारा सदैव स्मरण की जायेगी।

     खड़ी बोली को गद्य के क्षेत्र में प्रतिठित करने के साथ भारतेन्दु-वर्ग के लेखकों ने जो दूसरा महान् कांर्य किया वह है तत्कालीन नवीन विचारों से उद्वेलित राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को साहित्य में प्रतिमूर्त करने का। इस प्रकार उन्होंने साहित्य को जीवन के प्रसंग में लाकर खड़ा किया। भारतेन्दु और उनके साथियों ने मिलकर साहित्य के क्षेत्र से रीतिकालीन प्रवृत्तियों को जड़-मूल से निकाला और उनके स्थान में नवीन भावनाओं, विचारधाराओं और चेतना को स्थापित किया। यह इस युग की दूसरी महान् उपलब्धि है।

     साहित्य-भण्डार की पूर्ति की दृष्टि से भारतेन्दु-युग में यों तो साहित्य के अनेक ग्रंथों पर ध्यान गया, पर नाटक और निबन्ध उस युग की विशेष देन है। नाटककारों में स्वयं भारतेन्दु का नाम सर्वश्रेष्ठ है। निबन्ध- लेखकों में भारतेन्दु के अतिरिक्त प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट आदि लेखक उल्लेख्य हैं। उपन्यास-लेखन की ओर भी प्रवृत्ति लक्षित होती है। हिन्दी का प्रथम उपन्यास 'परीक्षा-गुरु' इसी काल में लिखा गया। पर मौलिक उपन्यासों की अपेक्षा अंग्रेज़ी, बंगला, संस्कृत से अनुवादों की संख्या अधिक थी। इतिहास और जीवन-वृत्त लेखन का भी श्रीगणेश इसी युग में हो गया था। भारतेन्दु-लिखित 'इतिहास-तिमिर-नाशक' और जयदेव का 'जीवन-वृत्त' प्रसिद्ध हैं।

     भारतेन्दु-युग में काव्य की भाषा ब्रजभाषा ही रही। ब्रजभाषा की काव्य-परम्पराएँ भी बहुत कुछ पुरानी वनी रहीं। परन्तु देश-भक्ति, लोक- हित, समाज-सुधार, मातृ-भाषा-प्रेम जैसे नए विषयों के समावेश द्वारा उसमें भी नए वातावरण की सृष्टि हुई और रीतिकालीन नायिका-भेद, नख-शिख-वर्णन के स्थान पर नई काव्यधारा का प्रवर्त्तन हुआ। अतः काव्य के क्षेत्र में भी भारतेन्दु-युग की अपनी उपलब्धि है।


⭕ द्वितीय चरणः द्विवेदी-युगः-

       भारतेन्दु का अवसान उनकी 35 वर्ष की आयु में सन् 1885 में हुआ। उनके वर्ग के अन्य अवशिष्ट लेखक बहुत समय बाद तक साहित्य- सेवा करते रहे। आधुनिक हिन्दी-साहित्य के द्वितीय उत्थान का आरम्भ सन् 1893 से माना जाता है। यह तिथि सुविधाजनक इसलिए है कि इसी वर्ष 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई, जो सचमुच ही हिन्दी-साहित्य-जगत की चिर-स्मरणीय घटना है। इसके कुछ ही समय बाद 'सरस्वती' पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ, जिसके सम्पादक के रूप में पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी का आगमन सन् 1900 ई. में हुआ। द्विवेदी जी ने एक पूरे युग पर अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ी, जिसके फलस्वरूप वह युग ही द्विवेदी-युग कहा जाता है।

     भारतेन्दु और उनके सहयोगियों ने जिस खड़ीबोली की गद्य के लिए, प्रतिष्ठा की थी उसमें शक्ति थी, ओज था, भाव-प्रकाशन की क्षमता थी, पर उस काल के लेखकों का ध्यान व्याकरण की शुद्धता और भाषा के रूप की स्थिरता पर उतना नहीं गया था; उनके वाक्य-विन्यास में भी प्रायः शैथिल्य दिखाई पड़ता था। इन कमियों को द्विवेदी जी ने दूर किया। इसी से वे हमारी साहित्य-वाटिका के माली के नाम से विख्यात हैं।

      गद्य के क्षेत्र में द्विवेदी-युग में कथा-साहित्य की विशेष प्रगति हुई। मौलिक उपन्यास लिखे जाने लगे। जैसे काव्य में गुप्त जी, वैसे ही उपन्यास में प्रेमचन्द जी की प्रतिभा का प्रस्फुटन यहीं से आरम्भ हुआ। इनका पूर्ण विकास हम आगे के युग में देखते हैं। इस युग के अन्य प्रतिनिधि कथाकार गुलेरी, कौशिक, सुदर्शन और ज्वालादत्त शर्मा है। अन्य भाषाओं से अनुवाद का क्रम पहले युग जैसा ही चलता रहा।

     भारतेन्दु-युग में जिन दो साहित्यांगों, नाटक और निवन्ध की उन्नति हुई थी, द्विवेदी-युग में वह रुक-सी गई। उपन्यासों के प्रति वढ़ती हुई रुचि के कारण नाटक की प्रगति विशेष रूप से अवरुद्ध प्रतीत होती है।

      साहित्य-समालोचना की वास्तविक नींव इसी युग में पड़ी, यद्यपि नाम के लिए इस विषय में थोड़ा कार्य भारतेन्दु-युग में हो गया था। द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' में नवीन पुस्तकों की 'समीक्षा' के रूप में यह कार्य आरम्भ किया। फिर 'हिन्दी कालिदास की आलोचना', 'विक्रमांक देव चरित चर्चा', 'नैषध- चरित-चर्चा', 'कालिदास की निरंकुशता' आदि आलोचनात्मक पुस्तकों द्वारा उन्होंने अपने साहित्य के इस विशेष अंग की पूर्ति की। मिश्रवन्धुओं ने ऐतिहासिक आलोचना की पद्धति 'नवरत्न' लिखकर चलाई। पद्मसिंह शर्मा, कृष्ण विहारी मिश्र और लाला भगवानदीन ने बिहारी और देव को लेकर हिन्दी में तुलनात्मक आलोचना को जन्म दिया।

        साहित्यिक दृष्टि से जीवन चरित लिखने का काम पंडित माधवप्रसाद मिश्र ने 'स्वामी विशुद्धानन्द' लिखकर आरम्भ किया। फिर बाबू शिवनन्दन सहाय ने हरिश्चन्द्र, गोस्वामी तुलसीदास और चैतन्य महाप्रभु की जीवनियाँ लिखीं।

     ऊपर जिन साहित्यांगों का वर्णन हुआ है उनका आरम्भ किसी-न- किसी रूप में भारतेन्दु-युग में हो चुका था। जिस साहित्य-अवयव का आरम्भ द्विवेदी-युग में सर्वथा नया हुआ वह है कहानी। हिन्दी की सर्वप्रथम मौलिक कहानी पंडित किशोरीलाल गोस्वामी लिखित 'इन्दुमती' है जो 1900 में 'सरस्वती' में प्रकाशित हुई थी। 'प्रसाद', 'कौशिक', जी.पी. श्रीवास्तव, ज्वालादत्त शर्मा, राधिकारमणसिंह, गुलेरी आदि कलाकारों ने द्वितीय उत्थान में कहानियाँ लिखकर कहानी-कला का रूप हिन्दी में स्थिर किया; परन्तु उसका पूर्ण उत्कर्ष तृतीय उत्थान में देखने को मिलता है।


⭕ तृतीय चरणः छायावाद युगः-

    सन् 1918 में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के साहित्य से संयास ग्रहण करते-करते देश की परिस्थितियों में बड़ा भारी परिवर्तन संघटित हुआ। इसी समय प्रथम महायुद्ध की समाप्ति हुई, जिससे भारतीयों ने बहुत अधिक राजनैतिक आशा लगी रखी थी, पर जिसका परिणाम उन्हें जलियाँ वालावाग के भीषण नर-हत्याकांड के रूप में भुगतना पड़ा। देश में अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध विक्षोभ की लहर दौड़ने लगी जिसका सक्रिय रूप गांधी जी के नेतृत्व में 1921 के असहयोग आन्दोलन में देखने को मिला। युद्ध के फलस्वरूप जीवन की आवश्यक वस्तुओ के अभाव में होड़ सी मच गई। आर्थिक विषमता का विकराल रूप दिखाई पड़ने लगा। इनका प्रभाव साहित्य पर होना अनिवार्य था। द्विवेदी-युग की साहित्यिक प्रवृत्तियों के विरुद्ध भी प्रतिक्रिया आरम्भ हो गई थी। सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रों में द्विवेदी-युग 'यथा-स्थिति' का समर्थक था, जिसका तात्पर्य, दूसरे शब्दों में, यह है कि वह प्रगति का विरोधी था। साहित्य में उसकी इतिवृत्तात्मकता, नीरस भावाभिव्यक्ति-शैली और पुराण-पंथी आदतों से लोगों को ऊब हो चली थी। अंग्रेज़ी और बँगला के प्रभावों से हिन्दी साहित्य की नई प्रतिभाएँ नई दिशा की खोज में लग गई थीं।

       तृतीय चरण में हिन्दी-काव्य का क्षेत्र नवीन परिस्थितियों का सबसे अधिक प्रतिविम्वित करने वाला हुआ। भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से इसने इतनी अधिक महत्ता अर्जित की कि पूरे युग को यह अपना नाम दे गया। 1928 ई. से 1936 ई. तक के समय को 'छायावाद-युग' के नाम से अभिहित करने का मुख्य कारण यही है कि इस युग में काव्य की छायावादी प्रवृत्ति प्रधान रही। द्विवेदी-युग से विल्कुल स्वतंत्र नया वस्तु- विधान, नई अभिव्यंजना-शैली, नया छन्द-विधान, गीति, कल्पना, लाक्षणिकता, प्रगल्भता, व्यक्ति-स्वातन्त्र्य-उद्घोष, प्रकृति-प्रेम आदि इस नवीन प्रवृत्ति की कुछ उल्लेख्य विशेषताएँ हैं। 'प्रसाद', 'पंत', 'निराला' छायावाद के प्रवर्त्तक हैं। बाद में महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, भगवतीचरण वर्मा आदि कवियों ने इस धारा को अग्रसर करने में सहायता की। पचासों नाम इस सम्बन्ध में और गिनाए जा सकते हैं।

       छायावादी काव्य के अतिरिक्त तृतीय चरण की मुख्य सफलता उपन्यास और कहानी के क्षेत्र में रही। प्रेमचन्द ने 'रंगभूमि', 'कर्मभूमि', 'गवन', 'निर्मला', 'प्रेमाश्रम' आदि उपन्यासों द्वारा गांधी जी की राजनीतिक और सामाजिक विचारधारा का साहित्य में प्रतिनिधित्व किया और साथ ही मानव-प्रकृति का निरूपण भी भली-भाँति कर दिखाया। वृन्दावनलाल वर्मा ने 'गढ़-कुँडार' और 'बिराटा की पद्मिनी' लिखकर ऐतिहासिक उपन्यास का मार्ग प्रशस्त किया। उपन्यासों से भी प्रचुर विकास छोटी कहानियों का हुआ। यहाँ भी प्रेमचन्द ने ही मार्ग-प्रदर्शन किया। उपन्यास- कहानी के क्षेत्र में इस युग में जितने लेखक हुए उनकी संख्या छायावादी कवियों से कम कदापि न होगी।

      तीसरा साहित्यांग जो इस युग में समृद्धि को प्राप्त हुआ वह नाटक है। दूसरे उत्थान में इसकी गति अवरुद्ध थी। इस तीसरे उत्थान में पहुँचकर यह नई उमंग से आगे बढ़ा। प्राचीनता का आवरण छोड़कर इसने नवीन अथवा पाश्चात्य रूप उत्तरोत्तर अपनाया। 'प्रसाद' और 'प्रेमी' ने ऐतिहासिक नाटकों से हिन्दी को उपकृत किया तो उदयशंकर भट्ट ने पौराणिक कथावस्तु को अपनाया। सेठ गोविन्ददास ने वर्तमान जीवन से सम्बन्धित राजनीतिक और सामाजिक पक्षों को लिया तो लक्ष्मीनारायण मिश्र ने 'समस्या' नाटक लिखे। 'उग्र', पंत आदि जाने कितने नाटककार इस तृतीय उत्थान में उत्पन्न हुए, जिनकी रचनाओं से साहित्य की श्रीवृद्धि हुई।

       निबन्ध-लेखकों में प्रमुख नाम पंडित रामचन्द्र शुक्ल का है, और यह एक अकेला नाम ही हिन्दी निबन्ध-साहित्य की गरिमा का घोष करने के लिए पर्याप्त है। 'चिन्तामणि' हिन्दी का गौरव-ग्रन्थ है। गद्य-काव्य नाम का नया साहित्यांग इस चरण में उद्भूत होकर पल्लवित हुआ। गद्य-काव्य ग्रन्थों के प्रणेता कई हुए जिनमें चतुरसेन शास्त्री, वियोगी हरि, राय कृष्णदास, रघुवीर सिंह प्रमुख हैं।

      साहित्य के इतिहास-लेखन का कार्य भी इसी युग में वैज्ञानिक ढंग से हुआ। आचार्य शुक्ल का 'हिन्दी साहित्य का इतिहास', आचार्य श्यामसुन्दरदास का 'हिन्दी भाषा और साहित्य', रामकुमार वर्मा का 'विवेचनात्मक इतिहास' आदि इसी युग में प्रकाशित हुए।

    इस तृतीय चरण में समालोचना का आदर्श भी बदला। गुण-दोष के कथन के आगे बढ़कर कवियों की विशेषताओं और उनकी अन्तःप्रवृत्ति की छानबीन की ओर भी ध्यान दिया गया। आचार्य शुक्ल द्वारा लिखित सूर, तुलसी और जायसी पर आलोचनाएँ इस दिशा को बताने वाली हुई। फिर तो 'कलाओं' और 'साधनाओं' का ताँता बँध गया। पचासों की संख्या में प्राचीन और अर्वाचीन कवियों की 'कला' और 'काव्य-साधना' पर पुस्तकें प्रकाशित हुईं जिनसे हमारा समीक्षा-साहित्य समृद्ध बना। कृष्णशंकर शुक्ल की 'केशव की काव्य-कला', सत्येन्द्र की 'गुप्त जी की कला' जनार्दन झा द्विज की 'प्रेमचन्द की उपन्यास-कला', अखौरी गंगाप्रसादसिंह की 'पद्माकर की काव्य-साधना', सुमन-कृत 'प्रसाद की काव्य-साधना', भुवनेश्वर प्रसाद मिश्र-कृत 'मीरा की प्रेम-साधना' आदि केवल पहले खेमे की रचनाएँ हैं। बाद में कितने ही और एक-से-एक बढ़कर सफल समालोचना-ग्रन्थ प्रकाशित हुए। विशेष कवियों की आलोचना के अतिरिक्त साहित्य-समीक्षा-सिद्धान्त पर भी पुस्तकें लिखी गई और कला के सम्बन्ध में सोच-विचार हुआ।


⭕ चतुर्थ चरण - प्रगतिवाद-युगः

      1936 के आस-पास विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी अपनी चरम सीमा को पहुँच गई। वस्तुओं के मूल्य में अकल्पनीय ह्रास हुआ; परिणामस्वरूप उनके उत्पादक कृषक और मज़दूर आर्थिक विषमता की चक्की में बुरी तरह पिसे। प्रथम महायुद्ध के प्रतिक्रिया के रूप में यह मन्दी शुरू हुई थी। उसे रोकने का प्रयत्न तो दूर रहा, संसार की महान् शक्तियाँ दूसरे महायुद्ध की तैयारी में जी-जान से लग गई थीं। संसार मानो गोले-बारूद के ढेर पर बैठा था। भारतीय समाज में भी त्राहि-त्राहि मची थी। देश के स्वातन्त्र्य युद्ध की धार जितनी ही तेज हो गई थी, आर्थिक दशा उतनी ही क्षीण थी। शासकों का अत्याचार, निहित स्वार्थों का शोषण अपनी सीमा पर था। ऐसे ही समय में सुमित्रानन्दन पंत का 'युगान्त' प्रकाशित हुआ और युग की प्रवृत्तियों का दर्पण 'साहित्य' मानो एक नए युग में प्रविष्ट हुआ। जव राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के विरुद्ध प्रतिक्रिया शुरू हो गई हो तो कैसे सम्भव था कि हिन्दी साहित्य 'छायावाद' की छाया-सदृश कोमल भाव-भूमि पर विचरण करता रहता। उसे वहाँ से उतर कर यथार्थवाद की कठोर भूमि पर आना ही था।

     चतुर्थ चरण का जो दूसरा नाम प्रगतिशील-युग है उसका कारण यही है कि इस युग में किसानों, मजदूरों और शोषितों के उद्धार की ओर कवियों और लेखकों का ध्यान गया है। गद्य के क्षेत्र में प्रेमचन्द ने प्रगति का मार्ग वताया। 1936 में हुए 'प्रगतिशील लेखक संघ' के प्रथम अधिवेशन का सभापतित्व उन्हीं के द्वारा हुआ। 'गांधीवाद' से आस्था हटाकर यथार्थवादी बनकर वह कहीं और जा रहे थे, इसका पक्का प्रमाण वह 'गोदान' में मरते-मरते दे गए। काव्य के क्षेत्र में नवीन प्रवृत्ति का सृजन पंत जी के द्वारा हुआ, इसका संकेत हमने ऊपर किया है।

     हम हिन्दी साहित्य के चतुर्थ चरण के मध्य से निकल रहे हैं, अतः उसकी उपलब्धियों पर कुछ कह सकना कठिन है। प्रत्यक्ष देखने में यह आ रहा है कि यह चरण 'वादों' का है। काव्य के क्षेत्र में न केवल 'प्रगतिवाद' का वोलवाला है, वरन् प्रतीकवाद और प्रयोगवाद का भी ज़ोर है। फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद का भी प्रभाव कम नहीं है। साम्यवाद और समाजवाद प्रगतिवाद के मुख से वोल रहे हैं। काव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना सभी क्षेत्रों में सम्प्रति प्रगति हो रही है, पर किसी न किसी 'वाद' की छाया में। यह खटके की बात भी है।


हिन्दी गद्य साहित्य की आधुनिक विधाएँ:-

        🍓 नाटक:-गद्य की यह प्राचीन विधा है। इसके रचना-विधान में पद्म का भी प्रयोग किया जाता है। प्राचीन काल में नाटक को रूपक का एक भेद माना जाता था। आजकल रूपक के अर्थ में नाटक का प्रयोग शामिल हो गया है। नाटक में दो विपरीत समस्याओं या स्थितियों का संवादों के माध्यम से द्वन्द्वात्मक प्रस्तुतीकरण होता है। भारतेन्दु, प्रसाद, हरिकृष्ण प्रेमी, मोहन राकेश, लक्ष्मीनारायण लाल आदि प्रसिद्ध नाटककार हैं। नाटक की एक विधा एकांकी है। रेडियो नाटक भी इसी वर्ग में आते हैं। एकांकी नाटककारों में रामकुमार वर्मा, उपेंद्रनाथ अश्क, विष्णु प्रभाकर आदि प्रमुख हैं।

   🍓 उपन्यासः- मध्यवर्गीय यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए गद्य की व्यापक विधा उपन्यास का विकास पश्चिम के नॉवेल की प्रेरणा से हुआ है। साहित्य समाज का दर्पण है, यह उक्ति उपन्यास के लिए सबसे अधिक चरितार्थ होती है। मानव-चरित्र के व्यापक क्षेत्र से सम्बद्ध यह विधा महाकाव्य का विकल्प बनती जा रही है। कुछ उपन्यासों के लिए महाकाव्यात्मक विशेषण प्रयुक्त होने लगा है। प्रेमचन्द, भगवतीचरण वर्मा, जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय, अश्क आदि उपन्यासकारों ने इस विधा को समृद्ध किया है।

  🍓कहानी:- जीवन के किसी एक प्रसंग या स्थिति या अनुभव को कलात्मक कसावट के साथ एक निश्चित आयाम और शिल्प में प्रस्तुत करने वाली गद्य विधा को कहानी कहते हैं। उपन्यास में जीवन की विविध घटनाओं को व्यापक रूप से ग्रहण किया जाता है, किन्तु कहानी में कोई एक मार्मिक घटना या प्रसंग होता है। कहानी का विकास तेजी से चरम सीमा की ओर होता है, चरम सीमा पर ही उसकी समाप्ति हो जाती है। इसमें निश्चित परिणति या फलागम का आग्रह नहीं रहता। प्रेमचन्द, प्रसाद, अज्ञेय, जैनेन्द्र, कमलेश्वर, मन्नू भंडारी शिवानी आदि हिन्दी के प्रसिद्ध कहानीकार हैं।

    🍓 निवन्ध :- गद्य की अन्य विधाओं की तुलना में आधुनिक विधा है। इसमें किसी विषय का आत्मिक स्वच्छन्दता, स्वनिर्मित अनुशासन के साथ एक निश्चित सीमा के अन्तर्गत विवेचन किया जाता है। इसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्तित्व की छाप रहती है। वर्णनात्मक, विवरणात्मक, विचारात्मक और भावात्मक इसके कई भेद हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, शांतिप्रिय द्विवेदी, वासुदेवशरण अग्रवाल, गुलाबराय, कुबेरनाथ राय, आदि हिन्दी के श्रेष्ठ निबंधकार हैं।

🍓 आलोचनाः-किसी साहित्यिक कृति का सम्यक् रूप से परीक्षण,विश्लेषण एवं विवेचन को आलोचना कहते हैं। समीक्षा, अनुशीलन, समालोचना आदि अन्य इसके पर्याय हैं। आलोचना के क्षेत्र में शुक्लजी के अतिरिक्त नंददुलारे वाजपेयी, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, डा. नगेन्द्र, डा. रामविलास शर्मा आदि का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

🍓 जीवनी:- इस विधा में किसी लेखक या महापुरुष के जीवन की घटनाओं, क्रिया-कलापों तथा अन्य गुणों का वर्णन बड़ी आत्मीयता के साथ गम्भीर एवं व्यवस्थित ढंग से किया जाता है। जीवनी लेखक व्यक्ति विशेष के जीवन की उन घटनाओं को विशेष रूप से उजागर करता है जो पाठकों के लिए प्रेरणादायक होती हैं। गुलाबराय, रामविलास शर्मा, अमृतराय आदि ने हिन्दी के जीवनी साहित्य को विकसित किया है।

🍓 आत्मकथाः- यह भी एक तरह की जीवनी है। आत्मकथा में व्यक्ति अपने विषय में स्वयं लिखता है, जब कि जीवनी भिन्न व्यक्ति के द्वारा लिखी जाती है। श्यामसुंदरदास, सेठ गोवनिद दास, डा. राजेन्द्र प्रसाद, बच्चन आदि ने प्रेरक आत्मकथाएँ लिखी हैं।

🍓 रेखाचित्र:- चित्रकला के आधार पर 'रेखाचित्र' वस्तुतः अंग्रेज़ी के 'स्खेत्व' Sketch और "पोट्रेट पेंटिंग" Portrait painting के समान है। 'रेखाचित्र' अथवा 'शब्दचित्र' वाली विधा अधिक प्रचलन में आयी है। जिस प्रकार कुछ थोड़ी-सी रेखाओं का प्रयोग करके चित्रकार किसी व्यक्ति या वस्तु की मूलभूत विशेषता को उभार देता है, उसी प्रकार कुछ थोड़े शब्दों में साहित्यकार किसी व्यक्ति या वस्तु की विशेषता को सजीव कर देता है। महादेवी वर्मा, बनारसी दास चतुर्वेदी, श्रीराम शर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि ने उत्कृष्ट रेखाचित्रों का सृजन किया है।

🍓संस्मरणः - संस्मरण का अर्थ है सम्यकु स्मरण करना। इसमें लेखक किसी घटना या वस्तु या व्यक्ति से जुड़े हुए अनुभवों को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है। स्मरणीय व्यक्ति कोई महापुरुष ही होता है। इसमें तथ्य परकता अधिक होती है। यशपाल, रामवृक्ष बेनीपुरी, महादेवी वर्मा आदि अनेक लेखकों ने महापुरुषों से सम्बद्ध अपने संस्मरण लिखे हैं। यात्रा साहित्यः- इसमें यात्रा सम्बन्धी वृत्तांत होता है। यह साहित्य करोचक और मनोरंजक विधा है। यात्रा साहित्य के प्रमुख लेखकों में अज्ञेय, न राहुल सांकृत्यायन, दिनकर, प्रभाकर माचवे आदि के नाम लिये जा सकते हैं।

🍓 पत्र-साहित्यः- साहित्यकारों तथा चिन्तकों द्वारा लिखित पत्रों को भाषा की साहित्यिकता तथा विचारात्मकता के कारण साहित्य की कोटि में रखा जाता है। महाबीर प्रसाद द्विवेदी के पत्रों को द्विवेदी पत्रावली, प्रेमचन्द के पत्रों को चिट्ठी-पत्री के नाम से संकलित किया गया है।

🍓 डायरी:- साहित्यकार नित्य प्रति के अनुभवों को मानसिक प्रतिक्रिया के साथ अपनी डायरी में नोट कर लेते हैं। कतिपय दृष्टियों से इनका भी साहित्यिक महत्व माना जाता है। देवराज ने 'अजय की डायरी' नाम से डायरी शैली में एक उपन्यास भी लिखा है।

🍓 रिपोर्ताज:- किसी घटना को अपने मूल्यों और आदर्शों के अनुसार प्रस्तुत करना रिपोर्ताज कहलाता है। रांगेय राघव रचित "तूफानों के बीच" और रघुवीर सहाय की 'सीढ़ियों पर धूप में' इसी तरह की रचनाएँ हैं।

🍓 इंटरव्यूः - श्रेष्ठ साहित्यकार, राजनेता, कलाकार, दार्शनिक, वैज्ञानिक आदि से किसी विषय से सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर का प्रस्तुतीकरण इन्टरव्यू कहलाता है। पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो व दूरदर्शन में इस विधा का पर्याप्त विकास देखने में आता है। डॉ. पद्मसिंह शर्मा कमलेश, देवेन्द्र सत्यार्थी, रणवीर रांग्रा आदि ने इस विधा के माध्यम से अनेक हस्तियों का परिचय दिया है।

🍓 केरीकेचरः- स्वभाव, शारीरिक अंग, चित्र, नाटक आदि से अत्युक्तिपूर्ण व्यंग्यात्मक या विकृत चित्रण जो हास्य उत्पन्न करे, उसे केरीकेचर कहते हैं। धर्मवीर भारती का 'ठेले पर हिमालय' ऐसी ही रचना है।

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हिन्दी लेखक परिचय

 

हिन्दी लेखक परिचय 

1. श्यामसुंदरदास

      श्यामसुंदरदास का जन्म वाराणासी (उत्तर प्रदेश) में सन् 1875 ई. में हुआ था। इनकी मृत्यु सन् 1945 ई. में हुई। प्रयाग विश्वविद्यालय से बी.ए. की उपाधि प्राप्त कर इन्होंने सेण्ट्रल हिन्दू स्कूल, वाराणसी में अंग्रेज़ी के अध्यापक- रूप में कार्य प्रारंभ किया। यद्यपि ये अंग्रेज़ी भाषा के कुशल अध्यापक थे, फिर भी इनकी रुचि प्रारंभ से ही हिन्दी-भाषा और साहित्य-सेवा की ओर थी। इन्होंने अनुभव किया कि हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने की अत्यंत आवश्यकता है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए इन्होंने कुछ हिन्दी-प्रेमी मित्रों के सहयोग से सन् 1893 ई. में "काशी नागरी प्रचारिणी सभा" की स्थापना की। जब हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी-विभाग खुला तो महामना मालवीय जी ने उसकी अध्यक्षता के लिए इन्हें साग्रह निमंत्रित किया। वहाँ इन्होंने विश्वविद्यालय की उच्चतम कक्षाओं के लिए पाठ्यक्रम का आयोजन किया और जीवन-भर हिन्दी- भाषा तथा साहित्य के विकास एवं प्रसार में संलग्न रहे।

      आपके ग्रंथों में "भाषाविज्ञान", "साहित्यालोचन", हिन्दी-भाषा और साहित्य", "रूपक रहस्य", "भाषा रहस्य", "गोस्वामी तुलसीदास" विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इन ग्रंथों का महत्व इस बात से आँका जा सकता है कि आज तक उच्चतम कक्षाओं के पाठ्यक्रम में इनका स्थान है। इनके अतिरिक्त इन्होंने अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों का संपादन भी किया। हिन्दी-भाषा में अनुसंधान-कार्य का श्रीगणेश भी इन्हीं के द्वारा हुआ। काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित "हिन्दी शब्द सागर" का संपादन इन्हीं के निर्देश में हुआ।

       श्यामसुंदरदास जी की भाषा पुष्ट एवं प्रांजल है और उसका झुकाव तत्सम शब्दों की ओर है। शैली में दुरूहता नहीं मिलती; सर्वत्र एक स्वच्छ वाग्धारा प्रवाहित रहती है। विषय का सम्यक् प्रतिपादन ही लेखक का मुख्य ध्येय रहता है।


2. रामचंद्र शुक्ल



        आचार्य शुक्ल का जन्म बस्ती ज़िले (उत्तर प्रदेश) के अगौना ग्राम में सन् 1884 ई0 में हुआ था और इनकी मृत्यु सन् 1940 ई0 में वाराणासी में हुई।

इनकी प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और अंग्रेज़ी में हुई थी। विधिवत् शिक्षा ये केवल इंटरमीडिएट तक कर सके। प्रारंभ में कुछ वर्षों तक इन्होंने मिर्ज़ापुर के मिशन स्कूल में अध्यापन-कार्य किया। बाद में बाबू श्यामसुंदरदास ने इनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर हिन्दी-शब्दसागर के संपादन में इन्हें अपना सहयोगी बनाया। फिर ये हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणासी के हिन्दी-विभाग में अध्यापक नियुक्त हुए और बाबू श्यामसुंदरदास के अवकाश ग्रहण करने पर हिन्दी-विभाग के अध्यक्ष हो गए।

स्वाध्याय द्वारा इन्होंने संस्कृत, अंग्रेज़ी, बंगला और हिन्दी के प्राचीन साहित्य का गंभीर अध्ययन किया। हिन्दी-साहित्य में इनका प्रवेश कवि और निबंधकार के रूप में हुआ और इन्होंने बंगला तथा अंग्रेज़ी से कुछ सफल अनुवाद भी किए। आगे चलकर आलोचना इनका मुख्य विषय बन गई। इनके कुछ प्रसिद्ध ग्रंथ इस प्रकार हैं:

     तुलसीदास, जायसी ग्रंथावली की भूमिका, सूरदास, चिन्तामणि (2 भाग), हिन्दी साहित्य का इतिहास, रसमीमांसा ।

     शुक्ल जी हिन्दी के युगप्रवर्त्तक आलोचक हैं। इनके 'तुलसीदास' ग्रंथ से हिन्दी में प्रौढ़ आलोचना-पद्धति का सूत्रपात हुआ। शुक्ल जी ने जहाँ एक ओर आलोचना के शास्त्रीय पक्ष का विशद विवेचन किया वहाँ दूसरी ओर तुलसी, जायसी तथा सूर की मार्मिक आलोचनाओं द्वारा व्यावहारिक आलोचना का भी मार्ग प्रशस्त किया।

   निबंध के क्षेत्र में भी शुक्ल जी का स्थान अप्रतिम है। 'चिन्तामणि' में संगृहीत मनोवैज्ञानिक निबंध हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इन निबंधों में गंभीर चिन्तन, सूक्ष्म निरीक्षण और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का सुंदर संयोग है। इनकी भाषा प्रांजल और सूत्रात्मक है। गंभीर प्रतिपादन के समय भी ये हास्य का पुट देते चलते हैं।


3. प्रेमचंद



    मुंशी प्रेमचंद का जन्म सन् 1880 ई. में वाराणासी जिले के लमही ग्राम में हुआ था। ये साहित्य में प्रेमचंद के नाम से प्रसिद्ध हैं पर इनका वास्तविक नाम धनपतराय था। शिक्षा-काल में इन्होंने अंग्रेज़ी के साथ उर्दू का ही अध्ययन किया था। प्रारंभ में ये कुछ वर्षों तक स्कूल में अध्यापक रहे फिर शिक्षा-विभाग में सब-डिप्टी इंस्पेक्टर हो गए। कुछ दिनों बाद असहयोग आंदोलन से सहानुभूति रखने के कारण इन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और आजीवन साहित्य-सेवा करते रहे। इनकी मृत्यु सन् 1936 ई. में हुई।

     प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास "सेवासदन", "निर्मला", "कर्मभूमि", "ग़बन", और "गोदान" हैं। इनकी कहानियों का विशाल संग्रह अनेक भागों में "मानसरोवर" नाम से प्रकाशित है, जिसमें लगभग तीन सौ कहानियाँ संकलित हैं। "कर्बला", "संग्राम" और "प्रेम की वेदी" इनके नाटक हैं। साहित्यिक निबंध "कुछ विचार" नाम से प्रकाशित हुए हैं।

      प्रेमचंद का साहित्य समाजसुधार और राष्ट्रीय भावना से प्रेरित है। वह अपने समय की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का पूरा प्रतिनिधित्व करता है। उसमें किसानों की दशा, सामाजिक बंधनों में तड़पती नारियों की वेदना और वर्णव्यवस्था की कठोरता के भीतर संत्रस्त हरिजनों की पीड़ा का मार्मिक चित्रण मिलता है। सामयिकता के साथ ही इनके साहित्य में ऐसे तत्त्व भी विद्यमान हैं जो उसे शाश्वत और स्थायी बनाते हैं। प्रेमचंद अपने युग के उन सिद्ध कलाकारों में थे जिन्होंने हिन्दी को नवीन युग की आशा-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का सफल माध्यम बनाया।

  इनकी भाषा में उर्दू की स्वच्छता, गति और मुहावरों के प्रयोग के साथ संस्कृत की भावमयी स्निग्ध पदावली का सुंदर संयोग है। कथा-साहित्य के लिए यह भाषा आदर्श है।


4. डॉ. राजेन्द्रप्रसाद



स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 26 जनवरी 1850 में हुआ और उन्का निधन 13 मई 1962 में हुआ। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की राजनीतिक सेवाओं से सभी परिचित हैं। उच्च कोटि के त्यागी नेता होने के 

साथ ही वे अच्छे विद्वान और लेखक थे। जब वे विद्यार्थी थे, उन्हीं दिनों लिखने का अभ्यास शुरू किया और तब से बराबर कुछ लिखते रहे। हिन्दी साहित्य को उन्होंने कई उत्तम कृतियाँ प्रदान की हैं। उनकी "आत्मकथा" हिन्दी की श्रेष्ठ जीवनियों में एक है। "बापू के कदमों में", "गांधीजी की देन", "खंडित भारत" आदि कई पुस्तकें उन्होंने लिखी हैं। भाषा का शिष्ट और प्रांजल रूप उनकी रचनाओं में हमें मिलता है। शैली भी उनकी अपनी अलग विशिष्टता ली हुई है।

   राष्ट्रपिता बापू के वे शुरू से ही अनुगामी रहे हैं। उनके व्यक्तित्व और आदर्श की छाप उनपर बहुत गहरी पड़ी है और उनके सच्चे अनुयायियों में उनका स्थान सर्वोपरि है।


5. आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी



    उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में 'आरत दूबे का छपरा' नामक गाँव में जन्मे हज़ारी प्रसादजी की मुख्य शिक्षा दीक्षा काशी विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में हुई थी। उन्होंने ज्योतिष में शास्त्राचार्य परीक्षा पास की। हिन्दी भाषा व साहित्य के प्रति उनकी सहज रुचि और रामचरितमानस पर प्रवचन आदि ने मदनमोहन मालवीय का ध्यान आकृष्ट किया। उन्होंने हज़ारी प्रसादजी को विश्वभारती शांतिनिकेतन में हिन्दी अध्ययन के लिए भेजा। शांतिनिकेतन के लंबे दिनों में हज़ारी प्रसाद जी बड़े समीक्षक, भारतीय संस्कृति के आचार्य, प्रगल्भ वक्ता, स्वच्छंद ललित निबंधों के रचयिता और उपन्यासकार बन गये। महाकवि रवींद्रनाथ तथा अन्य मनीषियों के सत्संग से वे प्रेरणाग्रहण कर सके थे।

      हिन्दी गद्य साहित्यकार के रूप में आचार्य द्विवेदीजी का योगदान बहुमुखी रहा है। (1) उपन्यासकार (2) समीक्षात्मक निबंधकार (3) सांस्कृतिक निबंधकार (4) ललित निबंधकार। आचार्य हज़ारी प्रसाद जी हिन्दी ललित निबंधकला के प्रमुख प्रवर्तक स्वीकार किये गये हैं। उनके ललित निबंध संग्रहों में 'अशोक के फूल', 'कुटज', 'देवदारु' आदि प्रसिद्ध हैं। इन गद्य संग्रहों में हज़ारी प्रसाद द्विवेदजी के अनेक अच्छे सांस्कृतिक निबंध भी हैं। प्राचीन एवं मध्यकालीन भारतीय संस्कृति एवं कलाओं के विशेषज्ञ द्विवेदीजी के ये निबंध विद्वत्तापूर्ण तो हैं। साथ ही मनोरंजक एवं सरस भी हैं। आपका जन्म सन् 1907 में और निधन सन् 1979 में हुआ।


6. बाबू गुलाबराय



    बाबू गुलाब राय का जन्म 17 जनवरी 1888 में और निधन 13 अप्रैल 1963 में हुआ। बाबू गुलाब राय हिन्दी के प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् लेखक और आलोचक हैं। आपने दर्शन-शास्त्र में एम.ए., और एल.एल.बी. भी पास किए हैं। 28 वर्ष तक छतरपुर राज्य के प्राइवेट सेक्रेटरी रह चुके हैं। संस्कृत और अंग्रेज़ी के अतिरिक्त बंगला पर भी अधिकार रखते हैं। पूर्व और पाश्चात्य- दर्शन-शास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन किया है। दो बार हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के अन्तर्गत होनेवाली दर्शन-परिषद् के सभापति भी रह चुके हैं। "नवरस" आपकी सर्वश्रेष्ठ कृति है। "तर्क-शास्त्र", "कर्त्तव्य-शास्त्र" आदि ग्रंथ लिखकर आपने बड़े अभाव को पूर्ति की है। आप हिन्दी के निबन्धकारों में सम्मान का पद रखते हैं। आपके निबन्ध "फिर निराशा क्यों" में संकलित है। वे भावात्मक और विचारात्मक दोनों कोटि के हैं। “ठलुआ क्लब" और "मेरी असफलताएँ" आपके हास्यरस की कृतियाँ हैं, जिनमें "मेरी असफलताएँ" उनके निजी जीवन से सम्बन्ध रखती हैं। यह पुस्तक बड़ी लोक-प्रिय हुई है। आप हिन्दी के आलोचना प्रधान मासिक पत्र, "साहित्य सन्देश" के सम्पादक भी रहे।

     आपकी भाषा सरल और सुबोध होती है कठिन से कठिन बात को सरल से सरल बनाकर कहने में आप हिन्दी में सबसे आगे हैं। संस्कृत की सूक्तियों का प्रयोग बराबर करते हैं।


7. आचार्य नरेन्द्र देव



     आप उपनिषद-गीता का अभ्यास करनेवाले पिता की सन्तान थे। इनका जन्म 31 अक्तूबर सन् 1886 में हुआ। आप सरकारी संस्कृत कालेज, बनारस में एम.ए. संस्कृत विशेषीकरण 'एपिग्राफी' (पुरालेख शास्त्र) में बाद को इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा एल.एल.बी. में भी उत्तीर्ण हुए। बाद में गरम दल की राजनीति की ओर आकृष्ट हुए। फिर मार्क्सवादी चिन्तन की ओर। बौद्ध करुणा ने भी उन्हें आकृष्ट किया। वे एक ओर लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी के व्यक्तित्वों की ओर आकृष्ट हुए तो दूसरी ओर राजर्षि टण्डन और पंडित नेहरू की मैत्री के स्नेहापाश में बंध गये। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेकर कई बार जेल गये थे। काशी विद्यापीठ के अध्यापक, अध्यक्ष, आचार्य, कुलपति रह चुके। लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति भी रह चुके। इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ "राष्ट्रीयता और समाजवाद", "बौद्ध धर्म दर्शन"। आपने "विद्यापीठ" त्रैमासिक पत्रिका के संपादक के दौरान कई निबंध लिखे। सन् 1956 फरवरी 19 में इनका देहांत हुआ।


8. हरिशंकर परसाई



      होशंगाबाद जिले में जमानी नामक स्थान पर एक मध्यवित्तीय परिवार में हरिशंकर परसाई का जन्म सन् 1924 में हुआ। इनके पिताजी कोयले का छोटा मोटा व्यापार करते थे। पारिवारिक जिम्मेदारियाँ नौकरी करके निभाते हुए वे हिन्दी में एम.ए. में उत्तीर्ण हुए। सरकारी कार्यालय, स्कूल, कालेज में अध्यापन आदि के बाद वे जबलपुर में स्वतंत्र लेखन करते हुए स्थायी रूप से रहे। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना और "वसुधा" पत्रिका का संपादन- प्रकाशन में उनका बड़ा योगदान रहा। सन् 1995 में आपका देहांत हुआ।

      हरिशंकर परसाई आधुनिक हिन्दी व्यंग्य साहित्य के सबसे प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उन्होंने पत्रिकाओं में व्यंग्य कालम लिखे और स्वतंत्र लेख भी। राजनीति, समाज, परिवार सभी पृष्ठभूमियों में वे प्रभावशाली व्यंग्य बराबर लिखते रहे। उनका पूरा लेखन 'परसाई रचनावली' के नाम से संगृहीत है। उनकी कलम से निकले भोलाराम (भोलाराम का जीव) इंस्पेक्टर मातादीन, चाचा चौधरी आदि व्यंग्यपात्र अमर हो गये हैं। व्यंग्य लेखन की अलग भाषा-गठन भी परसाई की देन है। वे वर्षों तक शारीरिक विवशता से उठ फिर नहीं पाते थे। फिर भी उनका व्यक्तित्व एवं लेखन जिवंत रहा। अनेक व्यक्ति संस्थाएँ व अधिकारी उनको सम्मानित करने घर पहुँचते थे।


9. महादेवी वर्मा



      श्रीमती महादेवी वर्मा का जन्म फर्रुखाबाद (उत्तरप्रदेश) में सन् 1907 ई. में हुआ था। सन् 1933 ई. में प्रयाग विश्वविद्यालय से एम.ए. की उपाधि प्राप्त कर ये प्रयाग महिला विद्यापीठ की आचार्या नियुक्त हुई। इनकी विविध साहित्यिक, शैक्षिक तथा सामाजिक सेवाओं के लिए भारत सरकार ने उनको 'पद्मभूषण' अलंकार से सम्मानित किया है।

       महादेवी जी छायावाद युग की प्रतिनिधि कलाकार हैं। इनकी कविताओं में वेदना का स्वर प्रधान है और भाव, संगीत तथा चित्र का अपूर्व संयोग है।

      'स्मृति की रेखाएँ' और 'अतीत के चलचित्र' में इनका कविहृदय गद्य के माध्यम से व्यक्त हुआ है। 'पथ के साथी' में इस युग के प्रमुख साहित्यिकों के अत्यंत आर्थिक व्यक्ति-चित्र संकलित हैं। 'श्रृंखला की कड़ियाँ' में आधुनिक नारी की समस्याओं को प्रभावपूर्ण भाषा में प्रस्तुत कर उन्हें सुलझाने के उपायों का निर्देश किया गया है।

     "संस्मरण" के आत्मकथ्य में महादेवी वर्मा ने लिखा है कि मेरा यह सौभाग्य रहा है कि अपने युग के विशिष्ट व्यक्तियों का मुझे साथ मिला और मैंने उन्हें टिकट से देखने का अवसर पाया। उनके संबंधों में कुछ लिखना उनके अभिनन्दन से अधिक मेरा पर्व स्नान है।

      इनकी गद्य-शैली प्रवाहपूर्ण, चित्रात्मक तथा काव्यमयी है और भाषा संस्कृत-प्रधान है। इस शैली के दो स्पष्ट रूप हैं-विचारात्मक तथा भावात्मक। विचारात्मक गद्य में तर्क और विश्लेषण की प्रधानता है तथा भावात्मक गद्य में कल्पना और अलंकार की। सन् 1987 में आपका निधन हुआ।


10. राधाकृष्ण



      आप बिहार के रहनेवाले हैं। अच्छे साहित्यिक और कहानीकार हैं। कुछ समय तक 'कहानी' पत्रिका के संपादक भी रह चुके हैं। 'आदिवासी' साप्ताहिक के संपादक भी रहे।

    प्रस्तुत संग्रह में आपकी एक कहानी 'अवलंब' दी गयी है। इसमें ग़रीबी की जिन्दगी का एक सजीव चित्रण है। कहानी पढ़ने पर बेचारे सीताराम और सीताराम जैसे अनेक लोगों के प्रति पाठक के हृदय की सहानुभूति सक्रिय हो उठती है।

आपकी भाषा सरस, सरल और चलती हुई होती है।


11.  डॉ. रामकुमार वर्मा



     डॉ. रामकुमार का जन्म सन् 1905 में और निधन सन् 1990 में हुआ। वर्माजी पहले इतिवृत्तात्मक रचनाओं द्वारा काव्य-क्षेत्र में प्रविष्ट हुए। अब आपकी रचनाओं में अनुभूति की प्रधानता रहती है। आप पर कबीर के रहस्यवाद और पश्चिम का भी प्रभाव है। पर इनके रहस्यवाद में यह विशेषता है कि ये उससे तादात्म्य होने पर भी आत्मविस्मृत नहीं होते। इन्हें अपनी आत्मा का ज्ञान बना रहता है।

    आपकी रचनाओं में तत्सम शब्दों की प्रधानता होने पर भी क्लिष्टता नहीं है। उसमें प्रसाद-गुण की प्रधानता के साथ मृदुलता एवं माधुर्य का प्राचुर्य है।

     कवि के अतिरिक्त वर्माजी सफल आलोचक और नाटककार भी हैं। आपका गद्य भी काव्यमय है। 'हिन्दी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास' लिखकर इन्होंने इतिहास-लेखन की नवीन परिपाटी स्थापित की है। 'साहित्य समालोचना' नामक पुस्तक लिखकर आपने कहानी, नाटक, उपन्यास, कविता तथा समालोचना पर विग्तृत प्रकाश डाला। आपका 'हिम हास' नामक एक गद्य-गीत-संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है, जिसकी प्रत्येक पंक्ति में आपके कवि-हृदय के दर्शन होते हैं।


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Friday, January 12, 2024

महादेवी वर्मा



       महादेवी वर्मा

ममता का ही नाम महादेवी वर्मा

जन्म : 1907         निधन : 1987

रचनाएँ

काव्य  - नीहार, रश्मि, नीरज, दीपशिखा, सांध्यगीत आदि ।


रेखाचित्र -  अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी आदि ।


निबन्ध  - श्रृंखला की कडियाँ, साहित्यकार की आस्था, क्षणदा, कसौटी पर आदि ।



महादेवी वर्मा (सन् 1907 से 1987 तक)

           सालों पुरानी बात है । जाडे के दिन थे । एक कुत्तिया ने कुछ बच्चे दिये । रात हो जाने पर जाड की ठण्डी के कारण पिल्लों की कूँ- कूँ की ध्वनि सुननेवालों के मन में करुण भावना उत्पन्न करती थी । अनेकों ने अनसुनी कर दी । लेकिन सात साल की एक लड़की ने कहा - बहुत जाडा है, पिल्ले जड़ रहे हैं। मैं उनको उठा लाती हूँ । सबेरे वहीं रख दूँगी । लड़की के हठ के कारण घर के सारे लोग जग गये और पिल्ले घर लाये गये । इसके बाद ही उस लड़की एवं पिल्लों को आश्वासन मिला । यह सात साल की लड़की थी - महादेवी वर्मा । बचपन से ही महादेवी वर्मा को जीव-जन्तुओं के प्रति असीम प्यार था । इसी प्यार के बल से ही महादेवी को अपना नाम सार्थक बनाने का मौका मिला । सच है ममता का दूसरा रूप है - महादेवी वर्मा ।

       विशिष्ट साहित्यकार, करुण भरी कवयित्री महादेवी वर्मा का जन्म मंगलमय एवं रंगभरी, कपडों में ही नहीं बल्कि मन में भी खुशी के रंग भरनेवाली होली के दिन में सन् 1907 को विशिष्ट साहित्यकारों की जन्मभूमि उत्तर प्रदेश के फरुखाबाद में हुआ था । महादेवी अपने माँ- बाप की पहली संतान थी । होली के दिन में इन्हें पाकर पिताजी गोविन्द प्रसाद आनन्द सागर में डूब गये थे । माताजी हेमरानी का भी खुशी का टिकाना नहीं रहा । दोनों इतने प्रसन्न हो गये थे कि अपनी कुल देवता दुर्गा देवी के नाम से इन्हें महादेवी बुलाने लगे । महादेवी स्वभाव में भी महादेवी ही थीं ।

       सात साल की उम्र में ही इनमें कवित्व शक्ति स्थान पाने लगी । आठवें वर्ष में इनसे लिखी गयी 'दिया' कविता की पंक्तियाँ उसकी कवित्व की साक्षी है।

"प्रेम का ही तेल भर जो हम बने निशोक, 

तो नया फैले जगत के तिमिर में आलोक !”

       वैसे बचपन इनका बहुत ही सुखमय था । इनकी माताजी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं और घर में रामायण का सस्वर पाठ किया करती थीं । आर्य समाजी संस्कारों के साथ इन्दोर के मिशन स्कूल में इनकी भर्ती हुई। घर में भी विशेष शिक्षकों की नियुक्ति हुई । इस कारण महादेवी वर्मा हिन्दी, उर्दू और चित्रकला में भी प्रवीण हो गयीं । नौ वर्ष तक इन्होंने खडीबोली हिन्दी में कविता लिखने की पूर्ण क्षमता पायी ।

      बचपन इनका बहुत ही मनोहर था । अपने छोटे भाई तथा बहन के साथ ये पूर्ण उल्लास के साथ खेलती कूदती थीं । महादेवी पढाकू होने के साथ साथ लडाकू भी थीं । प्रकृति और प्राणियों के प्रति इनकी रुचि इनके बचपन को महकते उपवन बना चुकी थी । सब प्रकार से इनका बचपन तथा लडकपन सुखमय था ।

      श्री गंगाप्रसाद पाण्डेय के अनुसार महादेवी वर्मा की शादी नौ वर्ष की छोटी उम्र में करा दी गयी थी । इनके पिता ने अपनी प्यारी बेटी की शादी बहुत कम उम्र में, बडी धूम-धाम से करा दी । लेकिन जैसे ही ये बरेली के पास नवाबगंज नामक कस्बे में स्थित ससुराल भेजी गयी, तो वहाँ रो-धोकर, खाना, पीना, सोना, बोलना आदि सबको त्यागकर दूसरे दिन ही अपना घर पहुँच गई । तेज ज्वर आ जाने के कारण उनके ससुर ने इनको घर छोड दिया । 

       इनके वैवाहिक जीवन की यहीं समामि हो गई। बी.ए. पास होते ही महादेवी वर्मा को उनके ससुराल ले जाने का प्रश्न उपस्थित हुआ । महादेवी वर्मा ने दृढ़ता पूर्वक इनकार कर दिया । उन्होंने अपने पिताजी को अपना यह निश्चय सुना दिया । बाबूजी महादेवी को दूसरा विवाह करने की इच्छा हो तो उसे करवा देने के लिए तैयार थे । लेकिन महादेवी विवाह करना ही नहीं चाहती थी । पढ़ाई में मन जाने के कारण वैवाहिक दायित्व को इन्होंने स्वीकार नहीं किया ।

          सन् 1919 में इन्होंने प्रयाग के क्रास्थवेट कॉलेज में मिडिल की परीक्षा में सर्वप्रथम आने के कारण इनको राजकीय छात्रवृत्ति प्राप्त हुई थी । सन् 1929 में इन्होंने बी.ए. की परीक्षा पास की । सन् 1931 में प्रयाग महिला विश्वविद्यालय में संस्कृत में एम.ए. पास करके प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बन गयी थी । प्रयाग महिला विद्यापीठ को आगे बढाने में, प्रशस्त एवं प्रसिद्ध बनाने में इनका योगदान अतुलनीय है । प्रधानाचार्य से बाद में उसी विद्यापीठ के कुलपति के दायित्व को भी सालों तक इन्होंने संभाला ।

       साहित्य में महादेवी वर्मा का प्रवेश 'नीहार' कविता संग्रह के साथ हुआ था । इनकी कविताओं में करुणा तथा पीडा को उचित स्थान दिया गया है । महादेवी वर्मा की करुण तथा आध्यात्मिक चेतना को उनकी इन पंक्तियों से हम समझ सकते हैं -

     मेरे बिखरे प्राणों में
          सारी करुणा दुलका दो ।
    मेरी छोटी सीमा में 
        अपना अस्तित्व मिटा दो । 
    पर शेष नहीं होगी यह 
        मेरे प्राणों की क्रीड़ा, 
    तुमको पीड़ा में ढूँढ़ा 
     तुममें ढूँढ़ेंगी पीड़ा ।

महादेवी वर्मा की रचनाओं में करुण भावना की प्रधानता के लिए एक और उदाहरण है -

सजनि मैं इतनी करुण हूँ 
करुण जितनी रात 
सजनि मैं उतनी सजल 
जितनी सजल बरसात ।

करुण भावना के साथ-साथ पीडा को भी इन्होंने महत्वपूर्ण स्थान दिया है । सन्धिनी से चंद पंक्तियाँ -

विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात !
वेदना में जन्म करुणा में मिला आवास !
अश्रु चनता दिवस इसका अश्रु गिनती रात !
जीवन विरह का जलजात !

      काव्य में शब्द-योजना और लय की जरूरत के बारे में महादेवी के विचार है - "हमारा समस्त दृश्य जगत् परिवर्तनशील ही नहीं, एक निश्चित गति-क्रम में परिवर्तनशील है, जो अपनी निरन्तरता से एक लययुक्त आकर्षण-निकर्षण को छन्दायित करता है । काव्य व्यष्टिगत तथा समष्टिगत जीवन को एक विशेष गति-क्रम की ओर प्रेरित करने का साधन है, अतः उसकी शब्द-योजना में भी एक प्रवाह, एक लय अपेक्षित रहेगी ।"

     सुप्रसिद्ध छायावाद की कवयित्री महादेवी वर्मा के बारे में श्री विनय मोहन ने कहा है - "छायावाद युग ने महादेवी को जन्म दिया और महादेवी ने छायावाद को जीवन । यह सच है कि छायावाद के चरम उत्कर्ष के मध्य में महादेवी ने काव्य भूमि में प्रवेश किया और छायावाद के सृजन, व्याख्यान तथा विश्लेषण द्वारा उसे प्रतिष्ठित किया ।"

     प्रकृति वर्णन में महादेवी महान देवी थी । उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ इस बात की साक्षी है -

यह स्वर्ण रश्मि छू श्वेत भाल, 
बरसा जाती रंगीन हास, 
सेली बनता है इन्द्रधनुष, 
परिमल मल मल जाता बतास, 
पर रागहीन तू हिम निधान !

       महादेवी की कविताओं में महान प्रेरणा भी मिलती है । उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति पर प्रकाश डालने के साथ मनुष्य के मन में महान आशा प्रदीप्त करने में समर्थ निकलती हैं -

      सब बुझे दीपक जला लूँ ।
 घिर रहा तम आज दीपक-रागिनी अपनी जगा लूँ ।

दीप मेरे जल अकम्पित, घुल अचंचल । 
पथ न भूले एक पग भी, 
घर न खोये, लघु वहग भी, 
स्निग्ध लौ की तूलिका से 
आँक सब की छाँह उज्जवल !


देशभक्ति इनमें एक और विशेषता है । देश भक्तों के बारे में 'सन्धिनी' में लिखती हैं -

"हे धरा के अमर सुत ! 
तुमको अशेष प्रणाम ! 
जीवन के अजय प्रणाम ! 
मानव के अनन्त प्रणाम !”


“हिमालय" पर लिखी हुई महत्वपूर्ण कविताओं का संकलन अपने-आप में भी एक बहुत बडी राष्ट्रीय उपलब्धि है। 'हिमालय' के समर्पण में महादेवी लिखती हैं -

        "जिन्होंने अपनी मुक्ति की खोज में नहीं, वरन् भारत-भूमि को मुक्त रखने के लिए अपने स्वप्न समर्पित किये हैं, जो अपना सन्ताप दूर करने के लिए नहीं, वरन् भारत की जीवन-ऊष्मा को सुरक्षित रखने के लिए हिम में गले हैं, जो आज हिमालय में मिलकर धरती के लिए हिमालय बन गए हैं, उन्हीं भारतीय वीरों की पुण्य स्मृति में ।"

     देश भक्ति मनुष्य मन में अपूर्व शक्ति प्रदान करनेवाली है। देश भक्ति की झलक इन वाक्यों में निखर उठता है । मानवीय गुणों को रचनाओं में स्थान देकर महादेवी साहित्य में सदा सर्वथा के लिए महान देवी बनी है। 'नीरजा' महादेवी की कविताओं का तीसरा संग्रह है और साहित्यकारों के मतानुसार इनकी सर्वसुन्दर कृति है । इसके लिए इन्हें 'साहित्य सम्मेलन' से पारितोषिक दिया जा चुका है ।

       करुण, कोमल कविताएँ ही नहीं बल्कि सुन्दर सुरुचिपूर्ण गद्य लेखन में भी महादेवी वर्मा का स्थान सर्वोपरी है । 'अतीत के चल चित्र' इनकी प्रथम गद्य पुस्तक है । इसमें महादेवी जी की कुछ संस्मरणात्मक कहानियाँ का संग्रह है । इनके संस्मरणों में यथार्थता की झलक मिलती है। इनकी कहानियों में पात्रों का चित्रण सजीव एवं सहज रूप से किया गया है । साहित्य में व्यक्तिगत अनुभूतियों को स्थान देने में महादेवी का स्थान काफी अग्रगण्य है । अपने घर के नौकर रामा के बारे में महादेवी तद्रूप चित्रण प्रस्तुत करती है

       "रामा के संकीर्ण माथे पर खूब धनी भौंहें और छोटे-छोटे स्नेह तरल आँखें किसी थके झुंझलाये शिल्पी की अन्तिम भूल जैसी मोटी नाक, साँस के प्रवाह से फैले हुए से नथुने, मुक्त हँसी से भर कर फूले हुए से होंठ तथा काले पत्थर की प्याली में दही की याद दिलानेवाली सघन और सफेद दन्तपंक्ति ।" इन शब्दों को पढ़ लेने से रामा का रूप पाठकों के सामने अपने आप उभर आयेगा । बदलू कुम्हार का वर्णन भी यथार्थता का बोध कराता है । उनका सभी पात्र यथार्थता का बोध कराने में सक्षम है। “श्रृंखला की कडियाँ" महादेवी की दूसरी गद्य-पुस्तक है । इसमें नारी-समस्याओं को प्रधानता दी गयी है ।

'महादेवी का विवेचनात्मक गद्य' पुस्तक में महादेवी ने अपनी विवेचनात्मक गद्य लेखन की क्षमता दर्शायी है । भावात्मक, विचारात्मक एवं विवेचनात्मक गद्य साहित्य में महादेवी का अलग पहचान है ।

       "साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबन्ध" महादेवी वर्मा के बहुप्रशंसिय आलोचनात्मक निबन्धों का संग्रह है। “गीतिकाव्य" पर महादेवी वर्मा का निबन्ध इस प्रकार के निबंधों में प्रथम एवं प्रमाणित है । "यथार्थ और आदर्श" निबन्ध इनकी कौशल पर प्रकाश डालता है । साहित्यिक विवादों पर महादेवी का विचार है - "हमारे साहित्यिक विवाद इन सब अभिशापों से ग्रसित और दुखद हैं, क्योंकि उनके मूल में जीवन के ऊपरी सतह की विवेचना नहीं है, वरन उसकी अन्तर्निहित एकता का खण्डों में बिखरकर विकासशून्य हो जाना प्रमाणित करते हैं । 

         साहित्य गहराई की दृष्टि से पृथ्वी की वह एकता रखता है, जो बाह्य विविधता को जन्म देकर भीतर तक रहती है । सच्चा साहित्यकार भेदभाव की रेखाएँ मिटाते-मिटाते स्वयं मिट जाना चाहेगा, पर उन्हें बना-बनाकर स्वयं बनना उसे स्वीकार न होगा ।" साहित्य में समाज और सामाजिक महत्ववाले विषयों के लेकर लिखने में भी ये सक्षम थीं ।

          पशु-पक्षियों तथा जीव-जंतुओं के प्रति महादेवी वर्मा को अपार प्यार था । इनका मेरा परिवार इस बात की साक्षी है । 'निक्की, रोजी, रानी' लेख में अपने तथा परिवार के सदस्यों से पाले गये निक्की-नेवला, रोजी-कुत्ती तथा रानी-घोडा का वर्णन यथार्थ रूप से किया गया है । 'गिल्लू' में गिलहरी का व्यवहार, लेखिका के प्रति उसका प्यार आदि का चित्रण बखूबी ढंग से किया है । "नीलकंठ मोर" में नीलकंठ और राधा का सच्चा प्यार, नीलकंठ का अद्भुत व्यवहार, "कुब्जा" मोरनी की ईर्ष्या आदि का विवरण करके पशु-पक्षियों के प्रति पाठकों का भी दिल आकर्षित करने का स्तुत्य प्रयास महादेवी वर्मा के द्वारा किया गया है।   

       महादेवी वर्मा साहित्य के क्षेत्र में सचमुच महान देवी है । इनकी 'दीपशिखा' काव्य-कृति को पढ़ने के बाद निरालाजी ने लिखा - 

हिन्दी के विशाल मन्दिर की वीणा-वाणी, 

स्फूर्ति-चेतना-रचना की प्रतिमा कल्याणी ।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी इनकी प्रशंसा मुक्त कंठ से की थी । उनकी उन्नत पंक्तियाँ हैं -

  सहज भिन्न हो महादेवियाँ एक रूप में मिलीं मुझे, 

बता बहन साहित्य-शारदा वा काव्यश्री कहूँ तुझे ।

      सचमुच महादेवी वर्मा साहित्य-शारदा ही हैं । करुण तथा पीडा से युक्त कविताएँ, महानता तथा मानवता पर जोर देनेवाली कहानियाँ, श्रेष्ठ-मानव के साथ पशु-पक्षियों के प्रति भी उनका प्यार दर्शानेवाले गद्य रचनाएँ, संस्मरण, रेखा-चित्र, विचारात्मक, विवेचनात्मक निबंध आदि से महादेवी वर्मा महान कवयित्री ही नहीं बल्कि उत्कृष्ट गद्य लेखिका के रूप में हिन्दी प्रेमियों के मन में सम्माननीय स्थान पाती हैं ।

      सामाजिक जीवन में प्रतिफलित होनेवाले प्रायः सभी महत्वपूर्ण विषयों को लेकर पाठकों के मन में जड-चेतन, शीलता-अश्लीलता, यथार्थ-आदर्श, सभ्यता-संस्कृति, अतीत-वर्तमान, सिद्धान्त-क्रिया, नर-नारी, आत्मा-परमात्मा आदि के बारे में सजगता उत्पन्न करने में महादेवी महानदेवी साबित हुई है ।

      लेखिका का व्यक्तिगत जीवन सदा परमार्थ, सेवार्थ के लिए ही रहा । त्योहारों के दिन इनके घर में बडी भीड़ होती थी । सुप्रसिद्ध कवयित्री, महान लेखिका, ममता तथा मानवता की मूर्ति महादेवी वर्मा का निधन अपनी अस्सी साल की उम्र में 11 सितम्बर 1987 को हुआ था । शरीर के मिट जाने पर भी सद्भावनों के कारण, अतुलनीय साहित्य सेवा के कारण आज भी महादेवी वर्मा हिन्दी प्रमियों के मन में जी रही हैं।

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विष्णु प्रभाकर


               विष्णु प्रभाकर


उत्तम भावना से भरे उन्नतम् उपन्यासकार

जन्म : 1912

रचनाएँ

उपन्यास     6

कहानी संग्रह   19

लघुकथा संग्रह 3

नाटक   19

रूपान्तर 3

एकांकी नाटक 19

अनुदित    2

जीवनी और संस्मरण  15

यात्रा वृतांत    5

विचार निबंध   2

बाल नाटक व एकांकी संग्रह   11

जीवनियाँ     2

बाल कथा संग्रह   12

विविध पुस्तकें    19

तथा रूपक संग्रह





मूर्धन्य उपन्यासकार विष्णु प्रभाकर (सन् 1912 से अब तक)

       भारतीय उपन्यास के अंतिम दशक (1991 से 2000 तक) में श्री विष्णु प्रभाकर का स्थान प्रशंसनीय है । कहानीकार, एकांकीकार, उपन्यासकार, आलोचक, साहित्यिक चिंतक आदि विभिन्न साहित्य विधाओं के प्रशस्त साहित्यकार विष्णु प्रभाकर की साहित्य सेवा सराहनीय एवं अनुकरणीय है । ये अपनी रचनाओं में सामाजिक समस्याओं को प्रधानता देते हैं । खासकर नारी समस्याओं पर इन्होंने अपनी कलम चलायी । विशिष्ट सामाजिक चिंतक विष्णु प्रभाकर समाज तथा सामाजिक समस्याओं पर प्रकाश डालने में सशक्त हैं ।

       विष्णु प्रभाकर का जन्म मुजफ्फर नगर के जानसठ तहसील स्थित मीरापुर गाँव में 20 जुलाई 1912 को हुआ । प्रमाण पत्रों के अनुसार इनका जन्म 21 जून सन् 1912 होने पर भी असल में इनका जन्म 20 जुलाई 1912 को ही हुआ था । अपनी आत्मकथा पंखहीन में ये कहते हैं 

     "मेरा जन्म 20 जुलाई, 1912 को हुआ । लेकिन मेरे सभी प्रमाण पत्रों में 21 जून 1912 लिखा हुआ है ।"

      इनको अपनी जन्मभूमि, अपने गाँव के प्रति विशेष प्यार है । अपना गाँव मीरापुर के बारे में इनका कथन है - -

   "मेरा जन्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से कस्बे मीरापुर में हुआ था । वास्तव में यह कभी आस-पास के गाँवों के 'बाजार' के रूप मैं विकसित हुआ होगा । कभी इसका नाम मेरा-पुर था । बाद में न जाने कैसे मीरा नाम की देवी से इसका सम्बन्ध हो गया । बचपन में हमारे घर में "मीरा की कढाई" जैसा एक त्योहार भी मनाया जाता था । इसकी तहसील है जानसठ और जिला है मुजफ्फर नगर ।"

       तीसरी कक्षा तक इन्होंने अपने ही गाँव में शिक्षा पायी । गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ रहे थे । लेकिन उसके बाद अपने मामाजी के कारण उन्हें गाँव छोडकर पंजाब के हिसार जाना पडा । पंजाब के हिसार में अपने मामा के यहाँ रहते हुए वहाँ के चन्दूलाल एंग्लो हाई स्कूल से सन् 1929 में इन्होंने मैट्रिक परीक्षा पास की । गणित और हिन्दी इनका प्रिय विषय रहा । हिन्दी में भूषण, प्राज्ञ, विशारद तक पढाई की । इनके बाद प्रभाकर तथा बी.ए. परीक्षाएँ पास की ।

       धन कमाने के लिए अपने परिवार की आर्थिक स्थिति में मदद करने के लिए ये हिसार के पशु-पालन फार्म पर काम करने लगे । इसी फार्म पर 15 साल तक क्लर्क के रूप में काम किया । फिर बाद में अकावुंटेंड बने । इन्होंने सन् 1955 से 1957 तक आकाशवाणी में ड्रामा प्रोड्यूसर के पद पर काम किया ।

        विष्णु प्रभाकर का असली नाम विष्णु था । घर में इन्हें विष्णु दयाल या विष्णु सिंह के नाम से पुकारते थे । प्राइमरी स्कूल में इनका नाम विष्णु दयाल था । अपने मामा के साथ पंजाब जाने के बाद वहाँ के आर्यसमाजी विद्यालय में वर्ण के अनुसार विष्णु गुप्त के नाम से बुलाये जाते थे । पशु पालन फार्म पर अनेक गुप्त के होने के कारण ये विष्णु दत्त बना दिये गये थे । अंत में 'प्रभाकर' परीक्षा पास करने के कारण एक प्रकाशक ने उनका नाम विष्णु प्रभाकर बना दिया था । विष्णु प्रभाकर नाम उन्हें धीरे-धीरे पसन्द भी आया । अभी अब पूर्ण रूप से विष्णु प्रभाकर है ।

           अपनी 26 वर्ष की आयु में विष्णु प्रभाकर की शादी सुशीला नामक सुशील युवती से सन् 1938 को हुई थी । अपनी पत्नी के प्रति इनका प्यार अटूट एवं अतुलनीय है । इनका वैवाहिक जीवन काफी सुखमय था । अब वे विधुर हैं और अपने पुत्र के साथ दिल्ली में जी रहे हैं। अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद विष्णु प्रभाकर ने अपना प्रसिद्ध उपन्यास, कर्ममयी नारी की कहानी का उपन्यास "कोई तो" (1995) को अपनी प्यारी पत्नी सुशीला को अर्पण करते हुए लिखे हैं - 

"सुशीला को जो अब नहीं है पर जो इस उपन्यास के शब्द-शब्द में रमी हुई है ।"

          साहित्यिक क्षेत्र में इनका प्रवेश एक कवि के रूप में हुआ था । फिर बाद में इन्हें कहानी साहित्य में रुचि बढने लगी । इन्होंने लगभग दो सौ कहानियाँ लिखी । लेकिन इनकी कहानी संग्रह में 150 कहानियाँ ही स्थान पायी हैं। बाकी में कुछ खो गया, कुछ को खुद विष्णु प्रभाकर ने खोने दिया । विष्णु प्रभाकर की सम्पूर्ण कहानियाँ आश्रिता, अभाव, मेरा वतन, मुरब्बी आदि खण्डों में संग्रहित हैं । इनकी ज्यादातर कहानियाँ समाज तथा सामाजिक समस्याओं से सम्बन्धित है ।

        विष्णु प्रभाकर एक सफल कवि भी हैं । शुरू में ये कविताएँ लिखते थे । फिर धीरे-धीरे गद्य साहित्य में खासकर कहानी साहित्य में इनकी रुचि बढ़ने लगी । विष्णु प्रभाकर के शब्दों में... "शुरू में मैंने कविताएँ लिखीं । वह युग पद्य काव्य का भी था, तो मैंने कुछ गद्य काव्य भी लिखे, फिर कहानी भी लिखी, पर अंतत: कहानी लिखना ही मुझे रास आया । शुरू में जब ये सरकारी फार्म पर काम कर रहे थे तब प्रेमबन्धु के नाम से लिखा करते थे । फिर बाद में विष्णु प्रभाकर के नाम से जाने जाने लगे ।"

        उपन्यास के प्रति इनकी विशिष्ट रुचि का भी विशेष कारण है। विष्णु प्रभाकर के अनुसार उपन्यास के मुक्त क्षेत्र में अभिव्यक्ति पर कोई बंधन नहीं है। वह संपूर्ण की उपलब्धि है । एक साथ कई स्तरों और धरातलों पर वह चलता है । विभिन्न कहानियों का चित्रण स्वतंत्र सत्ता के साथ उभर सकते हैं । यथार्थ को प्रकट करने के लिए उपन्यास ही सबसे सशक्त माध्यम है । अपने आप को मुक्त करने का आनन्द जितना उपन्यास के माध्यम से संभव हो सकता है उतना कहानी या नाटक के माध्यम से नहीं । इसी कारण से श्री विष्णु प्रभाकर अपने आपको श्रेष्ठ एवं मूर्धन्य उपन्यासकार साबित करने में सक्षम रहे ।

         विष्णु प्रभाकर की भाषा सरल, सहज खडीबोली है । विषय के अनुरूप, वातावरण एवं आवश्यकता के अनुरूप सरल, सबल एवं सहज भाषा का प्रयोग इनकी विशेषता है । पात्रों की मनोभावनाओं को समझाने में, उनके रहन-सहन, आचार-विचार पर प्रकाश डालने में विष्णु प्रभाकर की भाषा अतुलनीय है । उपन्यास में इनकी शैली बहुत भिन्न एवं प्रशंसनीय है । इनकी ज्यादातर रचनाओं में पत्रात्मक शैली का प्रयोग किया है । उपन्यास में पत्रों के साथ स्वप्नों को भी उचित स्थान देने में आप विशिष्ट स्थान पाते हैं । छोटे नाटकों को भी उन्होंने स्थान दिया है। कहानी तथा उपन्यास की कथावस्तु के बारे में विष्णु प्रभाकर का विचार इस प्रकार है ।

       "जहाँ तक कथावस्तु का संबंध है, वह जीवन से भी मिलता है और विचार से भी । लेकिन प्रत्येक घटना तो कहानी नहीं होती । कलाकार का संस्पर्श ही उस घटना को कहानी का रूप देता है।"

        उनके साहित्य में उत्कृष्ट मानवता की खोज ही मुख्य उद्देश्य बनता है। वाद के बारे में भी इनका विचार सबसे भिन्न है। अपने लेखन के बारे में विष्णु प्रभाकर खुद कहते हैं - "आदर्श मुझे वहीं तक प्रिय है जहाँ तक वह यथार्थ का संबल है । 'वाद' में मैं आज तक विश्वास नहीं कर पाया । मेरे साहित्य में अग्नि नहीं है । मात्र सहज संवेदना है, जिसे आज के लेखक दुर्बलता ही मानते हैं । मैं जो हूँ वह हूँ। मैं मूलतः मानवतावादी हूँ । उत्कृष्ट मानवता की खोज मेरा लक्ष्य है ।"

      भारतीय स्वाधीनता संग्राम को लेकर सन् 1950 में आकाशवाणी के लिए 6 रूपक नाटक लिखे थे । उनमें से एक की यह कविता उनकी देश भक्ति का परिचायक है -

   "मैं बोलो किसकी जय बोलूँ जनता की या कि जवाहर की ? या भूला भाई देसाई - से, कानूनी नर-नाहर की ? या कहूँ समय की बलिहारी, जिसने यह कर दिखाया है ।"

       विष्णु प्रभाकर पहले कहानियाँ ही लिखा करते थे । फिर बाद में कहानी से एकांकी के क्षेत्र में आ गए । इसका मूल कारण सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री प्रभाकर माचवे हैं। उन्होंने ही विष्णु प्रभाकर को नाटकें लिखने के लिए प्रोत्साहन किया । एक बार उन्होंने विष्णु प्रभाकर से कहा कि उनकी कहानियों में संवाद की मात्रा अधिक एवं प्रभावशाली है, अगर वे नाटक लिखेंगे तो सफल नाटककार बन सकते हैं। सन् 1939 में विष्णु प्रभाकर ने अपना पहला एकांकी नाटक "हत्या के बाद" लिख डाला ।

        विष्णु प्रभाकर विशुद्ध गाँधीवादी एवं देश भक्त हैं । स्वतंत्रता के पहले से आज तक वे खद्दर के ही कपडे पहनते हैं । इसके पीछे भी एक रोचक घटना है । लडकपन में अपने चाचा के साथ एक सभा में इन्होंने भाग लिया । उस सभा में एक छोटा सा लड़का खद्दर पहनकर सब से यह विनती करने लगा कि मैं छोटा बच्चा हूँ, खद्दर पहनता हूँ । आप सब बडे हैं, सदा खद्दर ही पहनिए । इस भाषण से, उस बालक से प्रभावित होकर पूर्ण मन से इन्होंने खद्दर पहनना शुरू किया । आज तक खद्दर ही पहनते हैं। यह उनकी देशभक्ति तथा दृढ़ निश्चय के लिए एक सशक्त उदाहरण है।

         विष्णु प्रभाकर के विचार में अपने दुख को जो सबका दुख बना लेता है वही महान साहित्यकार होता है, व्यक्ति के सुख-दुख, दर्द- पीडा, प्यार, व्यथा-वेदना को जो रचना सबका दुख-सुख, पीडा-प्यार, व्यथा-वेदना बना देने में समर्थ होती है वही महान है । व्यक्ति और समाज के यथार्थ से कटकर लेखक नहीं हो सकता । लेखक के यहीविचार ने उन्हें उन्नतम साहित्यकार साबित किया है ।

       नारीमुक्ति की भावना इनकी कहानियों तथा उपन्यासों में प्रमुख स्थान पाती है । विष्णु प्रभाकर 'नारी' को मनुष्य के पद पर, शक्तिस्वरूपिणी के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते थे । उन्हीं के शब्दों में... "मैं नारी की पूर्ण मुक्ति का समर्थक हूँ। अंकुश यदि आवश्यक ही है तो यह काम भी वह स्वयं करें ।" समाज एवं सामाजिक प्रगति के बारे में भी इनका ध्यान आकृष्ट हुआ है । समाज की विभिन्न समस्याओं पर प्रकाश डालकर उनके प्रति जागरूकता पैदा करना इनका लक्ष्य रहा है । इस प्रकार वे श्रेष्ठ सामाजिक चिंतक साबित होते हैं ।

       विष्णु प्रभाकर के साहित्य में ही नहीं, उनके जीवन में, उनके व्यक्तित्व में भी यथार्थता की झलक मिलती है । एक सुप्रसिद्ध साहित्यकार होने के बावजूद भी अपने बारे में, अपने साहित्य के बारे में इन्होंने जो कुछ कहा है वह इस बात की साक्षी है - "मैंने अपनी रचनाओं की चर्चा नहीं की है, करने योग्य कुछ है भी नहीं । मुझे अपनी रचनाएँ प्राय: अच्छी नहीं लगती और दूसरों का प्राय: अच्छी लगती हैं ।"

         अभिव्यक्ति के बारे में विष्णु प्रभाकर का मत है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का लेखक के लिए वही महत्व है जो जीवन के लिए गति का । जहाँ गति का अभाव है, वहाँ मृत्यु है, जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है वहाँ साहित्य भी नहीं है क्योंकि साहित्य मानवात्मा की बंधनहीन अभिव्यक्ति है ।

     " आवारा मसीहा " के नाम से बंगला के उन्नतम कथाकार श्री शरच्चंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी लिखकर इन्होंने बंगला और हिन्दु साहित्य के बीच में संबंध लाने का स्तुत्य प्रयास किया है। यह अन्यतम कृति भारत की रागात्मक एकता का ज्वलंत उदाहरण है । शरच्चंद्र सिर्फ बंगाल के ही नहीं, सारे देश के गौरव हैं । इनकी जीवनी "आवारा मसीहा" विष्णु प्रभाकर की कीर्ति पताका है । आवारा मसीहा का अनुवाद भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में हुआ है ।

       "आवारा मसीहा” की रचना के बारे में विष्णु प्रभाकर का कथन है - "शरत मेरे प्रिय लेखक थे । मैं अकसर उनके उपन्यासों के पात्रों को लेकर सोचा करता था । लेकिन मैं आसानी से उनके जीवन की सामग्री प्राप्त नहीं कर सका । यद्यपि मैंने बंगला सीख ली थी, कुछ किताबें भी पढ़ी थीं लेकिन उनमें ऐसा कुछ भी नहीं था जो मुझे जीवनी लिखने के लिए पर्याप्त सामग्री जुटा पाता । इसलिए अन्ततः मैं उनके वास्तविक जीवन की खोज में निकल पडा । सोचा था कि अधिक से अधिक एक साल लगेगा । लेकिन लगे चौदह साल । कहाँ-कहाँ नहीं घूमना पड़ा मुझे ? देश-विदेश में उन सब स्थानों पर गया जिनका सम्बन्ध उनके जीवन से था या उनके पात्र वहाँ रहे थे । इसलिए जब यह जीवनी प्रकाशित हुई तो हिन्दी साहित्य में मेरा स्थान सुरक्षित हो गया ।

      विष्णु प्रभाकर के उपन्यासों में निशिकांत, टूटते परिवेश, संस्कार, संकल्प, स्वप्नमयी, अर्धनारीश्वर तथा कोई तो सर्वप्रमुख हैं। इन सब में सामाजिक समस्याओं को, खासकर नारी पर शोषण का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया गया है । यह नायिका प्रधान कहानी है । इसमें नायिका कमला विधवा है और अपने चरित्र के बल से वह धीरे-धीरे पाठकों के मन और प्राण में बसती जाती है । निडर विधवा कमला को देखकर लोग मंत्रमुग्ध हो जाते हैं । 'तट के बंधन' की नीलम और स्वप्नमयी की अलका भी भुलाए नहीं भूलेंगी । 

          "कोई तो" एक कर्ममयी नारी की कहानी है । इस उपन्यास की नायिका वर्तिका यथार्थ जीवन जीना चाहती है और किसी भी हालत में अपने आपको छिपाना या मुखौटा लगाना नहीं चाहती । वर्तिका को प्रधानता देने के साथ उससे सम्बन्धित अन्य पात्रों के द्वारा आज के भ्रष्ट, दूषित समाज का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करने में विष्णु प्रभाकर अपने आपको विशिष्ट साहित्यकार के रूप में दर्शाने में सफल हुए हैं। "कोई तो" में नारी तथा वैवाहिक समस्याएँ, राजनैतिक तथा धार्मिक समस्याएँ, गरीबी तथा आर्थिक विपन्नता की समस्याएँ आदि का यथार्थ चित्रण किया गया है । “संकल्प” की साहसी विधवा सुमति भी नारी शक्ति का प्रतीक है । नारी स्वतंत्रता एवं शक्ति पर विष्णु प्रभाकर ने अपनी कलम अधिकतम चलायी ।

          मूर्धन्य उपन्यासकार विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित हैं । सन् 1953-54 में अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में 'शरीर से परे' को प्रथम पुरस्कार । आवारा मसीहा पर पब्लो नेरुदा सम्मान, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार । सत्ता के आरपार नाटक के लिए भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 'मूर्ति-देवी' पुरस्कार । सूर पुरस्कार-हरियाणा अकादमी, तुलसी पुरस्कार - उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, शरत् पुरस्कार - बंग साहित्य परिषद भगलपुर, शलाका सम्मान - हिन्दी अकादमी, दिल्ली । सन् 2002 को भारत सरकार की पद्मभूषण की उपाधि से विष्णु प्रभाकर सम्मानित हैं ।

     हिन्दी साहित्य सेवा में पूर्ण रूप से लगे हुए विष्णु प्रभाकर हिन्दी जगत में चमकनेवाले तारों में से एक हैं। यह तो सौभाग्य की बात है कि तिरानबे साल की लंबी उम्र पार करके साहित्य सेवा में लगे हुए हैं । ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मूर्धन्य उपन्यासकार, मूल्यवान साहित्यकार विष्णु प्रभाकर को और अनेक साल हमारे साथ रहने दें ।


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Tuesday, January 9, 2024

जयशंकर प्रसाद / रचनाएँ

 

                        जयशंकर प्रसाद

         बाबू जयशंकर प्रसाद की प्रतिभा हिन्दी साहित्य में सर्वतोमुखी है। वे कवि, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार और निबन्धकार है। -



काव्य : 

प्रसाद जी ने प्रेम राज्य (1909 ई.), वन मिलन (1909 ई.), अयोध्या का उद्धार (1910 ई.), शोकोच्छवास (1910 ई.), प्रेम पथिक (1914 ई.), महाराणा का महत्त्व (1914 ई.), कानन कुसुम, चित्रकार (1918 ई.), झरना (1918. ई.), आँसू (1925 ई.), लहर (1933 ई.) और कामायनी (1934 ई.) नामक काव्य लिखे हैं। कामायनी की गणना विश्व साहित्य में की जाती है।


नाटक : 

प्रसाद ने चौदह नाटक लिखे और दो का संयोजन किया था।

(1) 'सज्जन' (सन् 1910-11) : 

उनकी प्रारंभिक एकांकी नाट्य कृति है। उसकी कथावस्तु महाभारत की एक घटना पर आधारित है। चित्ररथ कौरवों को पराजित कर बंदी बनाता है। युधिष्ठिर को इसका पता चलता है तो वे अर्जुन आदि को चित्ररथ से युद्ध करने केलिए भेजते हैं। युद्ध में चित्ररथ पराजित होता। दुर्योधन की निष्कृति होती है। युधिष्ठर के उदात्त चरित्र को देखकर चित्ररथ, इंद्र आदि देवता प्रसन्न होते हैं।

इसमें प्रसाद ने प्राचीन भारतीय नाट्य-तत्त्वों (नांदी, प्रस्तावना, भरतवाक्य आदि) का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं पाश्चात्य तत्त्वों का भी प्रयोग किया है।

(2) कल्याणी परिणय (सन् 1912) : 

इसकी कथावस्तु यह है कि चन्द्रगुप्त चाणक्य की सहायता से नंद वंश का विनाश करता है और उसकी कन्या कल्याणी से विवाह कर लेता है। इसमें भी प्राचीन नाट्य तत्त्वों का प्रयोग किया गया है।

(3).प्रायश्चित्त (सन् 1912) : 

इसमें मुसलमान शासन के आरंभ और राजपूत राजाओं के अवसान का वर्णन मिलता है। जयचंद्र मुहम्मद गोरी को आमंत्रित करता है और पृथ्वीराज को ध्वस्त करा देता है। जब अपनी बेटी संयोगिता की करुणा विगलित मूर्ति उसके ध्यान में आती है तो वह पश्चात्ताप से काँप उठता है। गंगा में डूबकर आत्म-हत्या कर लेता है। इसमें प्रसादजी ने प्राचीन परिपाटी (नांदी पाठ, प्रशस्ति आदि) को छोड दिया है।

(4) करुणालय (सन् 1913) :

 हिन्दी में नीति-नाट्य की दृष्टि से यह प्रथम प्रयास है। यह एकांकी नाटक है। यह पाँच दृश्यों में विभक्त है। इसमें राजा हरिश्चंद्र की कथा है। नाट्य-कला से अधिक इसमें कहानी-कला का विकास लक्षित होता है।

(5) यशोधर्म देव : 

प्रसाद जी ने इसकी रचना सन् 1915 में की थी। परन्तु यह अप्रकाशित है।

(6) राज्यश्री (सन् 1915) : 

नाट्य-कला की दृष्टि से प्रसाद ने इसमें पूर्ण सफलता प्राप्त की है। इसकी कथा संक्षेप में इस प्रकार है- राज्यश्री राज्यवर्धन तथा हर्षवर्धन की बहन है। वह शांतिदेव के चंगुल में फँसती है। अंततः वह दिवाकर की सहायता से उसके चंगुल से मुक्त होती है। वह आत्मदाह करना चाहती है। हर्षवर्धन उसे वैसे करने से रोक देता है। अन्त में भाई-बहन बौद्ध-धर्म के अनुयायी बनते हैं। यह प्रसाद का पहला ऐतिहासिक नाटक है।

(7) विशाख (सन् 1921) : 

प्रसादजी ने सन् 1921 में इसकी रचना की। इसमें व्यवस्थित भूमिका मिलती है। इसमें प्रसाद ने अपनी रचनाओं के उद्देश्य को बताया है। इस नाटक का प्रमुख पात्र विशाख है। वह तक्षशिला के गुरुकुल से शिक्षा समाप्त कर वापस आ रहा है। वह सुश्रुदा नामक नाग को एक बौद्ध भिक्षु के कर्ज से मुक्त करा देता है। इससे प्रसन्न सुश्श्रुदा अपनी बेटी चंद्रलेखा का विवाह विशाख से कर देता है। परन्तु तक्षशिला के राजा नरदेव चन्द्रलेखा को पहले छल-छद्म से और बाद में बलप्रयोग से अपने वश करना चाहता है। परन्तु वह इस प्रयत्न में असफल होता है। उसकी लंपटता और कुपथगामिता से खिन्न उसकी पत्नी आत्महत्या कर लेती है।

(8) अजातशत्रु (सन् 1922) : 

इसमें प्रसाद ने भारतीय और पाश्चात्य नाट्य सिद्धांतों का सश्लिष्ट एवं उत्कृष्ट प्रयोग किया है। भगवान बुद्ध के प्रभाव से, बिंबसार शासन से विरक्त होकर अपने पुत्र अजातशत्रु को राज्य-सत्ता सौंपता है। परन्तु देवदत्त (गौतम बुद्ध का प्रतिबन्दी) की उत्प्रेरणा से कोशल के राजकुमार विरुद्धक के पक्ष में अजातशत्रु अपने पिता बिम्बसार और अपनी बडी माँ वासवी को प्रतिबन्ध में रखने लगता है। कौशम्बी नरेश अजातशत्रु को कैद कर देता है। वासवी की सहायता से अजातशत्रु की निष्कृति होती है। जब अजातशत्रु पिता बनता है तो उसमें पितृत्व के आलोक का उदय होता है। वह अपने पिता से क्षमा-याचना करता है।

(9) जनमेजय का नागयज्ञ (सन् 1923) : 

प्रसिद्ध पौराणिक कथा के आधार पर इस नाटक की रचना की गयी है।

(10) कामना (सन् 1923-24) : 

यह प्रसाद का प्रतीकात्मक नाटक है। इसमें ईर्ष्या, द्वेष आदि मनोवृत्तियों का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है।

(11) स्कन्दगुप्त (सन् 1924) : 

आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के अनुसार यह प्रसादजी के नाटकों में सर्वश्रेष्ठ है। इसकी कथा इस प्रकार है-"मगध सम्राट के दो रानियाँ हैं। छोटी रानी अनंतदेवी अपूर्व सुंदरी और कुटिल चालों की है। वह अपने पुत्र पुरुगुप्त को सिंहासनारूढ़ कराकर शासन का सूत्र अपने हाथ में लेती है। बडी रानी देवकी का सुयोग्य पुत्र स्कन्दगुप्त राजसत्ता से उदासीन हो जाता है। परन्तु जब हूण कुसुमपुर को आक्रमण कर लेते हैं तो स्कन्दगुप्त उनको पराजित कर कुसुमपुर को स्वतंत्र कर देता है। हिंसा, विशेष गृह-कलह से विरक्त होकर वह पुरुगुप्त को राज्य सौंप देता है। प्रेममूर्ति देवसेना और देश-प्रेम की साक्षात् मूर्ति स्कन्दगुप्त की विदा से नाटक का अन्त होता है।


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Skanda gupt natak VIDEO SUMMARY


(12) चन्द्रगुप्त (सन् 1928) : 

इसमें चन्द्रगुप्त द्वारा नंद वंश का नाश, सेल्यूकस की बेटी कार्नेलिया से उसका विवाह आदि वर्णित हैं। चरित्र चित्रण, वातावरण का निर्माण और घटनाओं का घात-प्रतिघात समीचीन और स्थायी प्रभाव डालनेवाला है।

(13) एक घूँट् (सन् 1929) : 

यह एक एकांकी नाटक है। इसमें मानवीय विकारों के कोमल एवं उलझे हुए तन्तुओं के आधार पर चरित्रों का गठन किया गया है। आनन्द स्वच्छंद प्रेम का पुजारी है। उसका कहना है कि आनंद ही सब कुछ है। परन्तु बनलता कहती है कि समाज-विहित, गुरुजनों द्वारा संपोषित वैवाहिक जीवन ही सार्थक और सही दिशा निर्देशक है।

(14) ध्रुवस्वामिनी (सन् 1933) : 

इसमें रामगुप्त की कथा है। प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी को एक जागृत नारी के रूप में चित्रित किया है। उन्होंने उसके द्वारा अनमेल विवाह की समस्या को हमारे सामने प्रस्तुत किया है।

(15) सुंगमित्र (अपूर्ण) :

प्रसाद ने नाटकों के अतिरिक्त कहानियाँ, निबन्ध और उपन्यास भी लिखे हैं। यथा-


निबन्ध : काव्य-कला तथा अन्य निबन्ध

उपन्यास : तितली, कंकाल, इरावती (अपूर्ण)

कहानी-संग्रह : 

1. छाया (सन् 1913), 2. आकाशदीप (सन् 1928), 3. आँधी (सन् 1929), 4. इन्द्रजाल (सन् 1936) 5. प्रतिध्वनि ।

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Tuesday, August 22, 2023

हिंदी साहित्य का इतिहास HINDI SAHITYA KA ITHIHAS


हिंदी साहित्य का इतिहास HINDI SAHITYA KA ITHIHAS

हिंदी साहित्य का इतिहास बहुत विशाल है और यह विभिन्न कालों में विकसित हुआ है। 
यहाँ पर मुख्य युगों के बारे में एक संक्षिप्त जानकारी दी गई है:

आदिकाल (संदर्भित करीब 7वीं शताब्दी तक): 
हिंदी साहित्य की शुरुआत वैदिक संस्कृति के अंतर्गत हुई। वेदों, उपनिषदों और स्मृतियों के अध्ययन से हिंदी कविता और प्रोज़ा विकसित हुई।


मध्यकाल (7वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक)
इस युग में भक्तिकाल और रीतिकाल के दौरान हिंदी साहित्य का विकास हुआ। 
संत कवियों ने भगवान के प्रति अपनी आदर्शवादी भावनाओं को व्यक्त किया।
सूरदास, तुलसीदास, कबीर आदि इस युग के प्रमुख लेखक और कवियों में शामिल हैं।


आधुनिक काल (19वीं शताब्दी से 20वीं शताब्दी तक):
 ब्रिटिश शासन के दौरान, हिंदी साहित्य में प्रेरणा और प्रतिक्रियाएँ आई। 
नाटक, कहानी, उपन्यास आदि में नई दिशाएँ आईं। 
भगवतीचरण वर्मा, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर आदि 
इस युग के प्रमुख लेखक थे।


आधुनिकता काल (20वीं शताब्दी के बाद)
इस युग में भारतीय समाज में तेजी से परिवर्तन हुआ और साहित्य में भी 
नए दिशानिर्देश दिखाई दिए। साहित्यिक आविष्कार और विभिन्न धाराएँ उत्पन्न हुईं।

यह थी कुछ मुख्य युगों की एक संक्षिप्त झलक। हिंदी साहित्य का इतिहास और विकास बहुत विस्तृत और गहरा है, जिसमें विभिन्न काव्य, उपन्यास, नाटक, कहानी आदि के महत्वपूर्ण यथार्थ हैं।

                   1.आदिकाल (संदर्भित करीब 7 वीं शताब्दी तक): 

आदिकाल भारतीय साहित्य का पहला युग है, जो वैदिक समय से लेकर प्राचीन भारतीय साहित्य की शुरुआत तक विकसित हुआ। यह युग करीब 7वीं शताब्दी तक चलता है और इसका मुख्य विशेषता वेदों का संग्रहण और प्राचीन भाषा और साहित्य के प्रयोग की है।

इस युग में वैदिक साहित्य का महत्वपूर्ण स्थान है, जो वेदों में दर्शाया गया है। वेदों में विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक विचार व्यक्त हैं जो उस समय के समाज, धर्म और जीवन की चर्चाओं को प्रकट करते हैं। चार प्रमुख वेद होते हैं: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद। वेदों की भाषा संस्कृत होती है, जो इस युग की प्रमुख भाषा थी।

इसके अलावा, इस युग में वेदांत दर्शन का विकास हुआ, जिसमें ब्रह्मसूत्र, उपनिषद्यों, और भगवद गीता के माध्यम से आध्यात्मिक और दार्शनिक विचार प्रस्तुत किए गए। इन ग्रंथों में मानव जीवन के महत्वपूर्ण मुद्दे, धर्म, आत्मा, ब्रह्म, कर्म, और मोक्ष के विचार प्रस्तुत होते हैं।

आदिकाल का यह युग विचारशीलता, ध्यान, तपस्या, और ध्यान पर आधारित था, जिससे वैदिक साहित्य में दार्शनिक और आध्यात्मिक विचार विकसित हुए।

                  2.मध्यकाल (7 वीं शताब्दी से 18 वीं शताब्दी तक):

मध्यकाल भारतीय साहित्य का दूसरा महत्वपूर्ण युग है, जो 7वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक के बीच विकसित हुआ। इस युग में हिंदी साहित्य का विकास और परिपक्वता होती है, और इसकी विशेषता भक्तिकाल और रीतिकाल के दौरान हुई थी।

भक्तिकाल: इस युग में भक्ति और आध्यात्मिकता को महत्व दिया गया था। संत कवियों ने देवी-देवताओं की उपासना, भगवान के प्रति श्रद्धा, और मानवता के प्रति सहानुभूति की भावना को अपने काव्य में व्यक्त किया। इसके प्रमुख प्रतिनिधि संत कवियाँ थीं: सूरदास, तुलसीदास, कबीर, मीराबाई, रैदास, नामदेव, एकनाथ आदि।

रीतिकाल: इस युग में हिंदी साहित्य में रस, अलंकार, छंद, और काव्यशास्त्र के विकास का ध्यान था। रीतिकाल काव्य में भाषा की शोभा, भावुकता, और कला को महत्व दिया गया। इस काल में मुक्तक काव्य (कृति या चरित) भी विकसित हुए, जिनमें धार्मिक और दार्शनिक विचारों की चित्रण की गई।

महाकवि तुलसीदास का 'रामचरितमानस' इस युग की प्रमुख रचनाओं में से एक है, जो भगवान श्रीराम की कथा को अद्वितीय रूप में प्रस्तुत करता है। सूरदास के पद, कबीर के दोहे, और मीराबाई के भजन भी इस युग की महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं।

मध्यकाल में भाषा के विकास, साहित्यिक रसों की समृद्धि, और धार्मिक तथा सामाजिक विचारों की प्रतिष्ठा का उदाहरण है।

              3. आधुनिक काल (19 वीं शताब्दी से 20 वीं शताब्दी तक):

आधुनिक काल भारतीय साहित्य का तीसरा महत्वपूर्ण युग है, जो 19वीं शताब्दी से 20वीं शताब्दी तक के दौरान विकसित हुआ। यह युग ब्रिटिश साम्राज्य के आगमन, भारतीय समाज में सामाजिक और धार्मिक उत्थान, और विश्व के साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण परिवर्तनों का साक्षी रहा।

इस काल की मुख्य विशेषताएँ:

1. भारतीय समाज में सुधार: आधुनिक काल के दौरान भारतीय समाज में सुधारों की शुरुआत हुई। समाज में जातिवाद, परम्परागत प्रथाओं, और अशिक्षा के खिलाफ आवाज उठाई गई। समाज सुधारकों ने समाज में शिक्षा, जाति-प्रथा और सामाजिक बदलाव की दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए।

2. भाषा के विकास: आधुनिक काल में भाषा का विकास भी हुआ। हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दी गई और उसके लिए समृद्ध साहित्यिक परिवर्तन हुआ।

3. साहित्यिक उत्थान: इस काल में साहित्य के कई प्रमुख प्रांतिक और राष्ट्रीय उत्थान हुए। भाषा, साहित्य, कला, और साहित्यिक संगठनों में गतिविधियाँ बढ़ी।

4. स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा: आधुनिक काल के दौरान भारत में स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा और उत्तेजना बढ़ी। साहित्यिक कार्यक्रम, नाटक, कविता, और उपन्यास में स्वतंत्रता संग्राम की भावना उजागर होती है।

5. साहित्यिक प्रगति: इस काल में भारतीय साहित्य में विभिन्न प्रांतिक स्कूलों का विकास हुआ। नवजवान लेखकों ने नए विचारों की प्रस्तावना की और उन्होंने समाज की समस्याओं को उजागर किया।

6. उपन्यासों का विकास: आधुनिक काल में उपन्यास का विकास हुआ और यह साहित्य की मुख्य शृंखला बन गया। उपन्यासों में समाज, राजनीति, आध्यात्मिकता, और मानवीय विचारों को उजागर किया गया।



इस काल में समाज में विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक परिवर्तन हुए जिनसे नए विचार और आदर्श उत्पन्न हुए।

*आधुनिकता की शुरुआत: आधुनिक काल की शुरुआत 19वीं शताब्दी में हुई जब ब्रिटिश शासन भारत में प्रबल होने लगा। यह समय भारतीय समाज में सुधार और समाजिक उत्थान की दिशा में नए विचारों की उत्पत्ति की शुरुआत थी।

*लोकप्रियता और संघर्ष: इस काल में भारतीय लोकप्रियता और जागरूकता में बड़ी वृद्धि हुई। महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद, रवींद्रनाथ टैगोर, बाल गंगाधर तिलक जैसे महान व्यक्तियों ने भारतीय समाज को जागरूक करने के लिए कई सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन चलाए।

*साहित्यिक परिवर्तन: आधुनिक काल में हिंदी साहित्य में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। यहाँ कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएँ हैं:

*बाँधकाम साहित्य: इस काल में व्यक्तिगत और सामाजिक मुद्दों पर आधारित कहानियाँ, कविताएँ, निबंध, उपन्यास आदि लिखी गई।


*नवजवान साहित्य: युवा पीढ़ी के लेखकों ने समाज की समस्याओं को उजागर किया और उन्हें समाधान की दिशा में विचार किया।


*भाषा की परिवर्तन: हिंदी साहित्य में भाषा की परिवर्तन भी दिखाई दी, जिसमें उसमें उपयोग होने वाली विभिन्न भाषाओं का प्रभाव दिखाई दिया।


*सामाजिक चिंतन: लोगों ने सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त किए और समाज को सशक्त बनाने की दिशा में काम किया।


*नाटक और कविता: नाटक और कविता के क्षेत्र में भी नए प्रयोग और आदर्श दिखाए गए।

यह काल भारतीय साहित्य के नए आदर्शों और नए दिशानिर्देशों की शुरुआत थी, जो आज तक साहित्यिक और सामाजिक विचारधारा में महत्वपूर्ण हैं।

इस युग में महान कवियों और लेखकों ने अपने काव्य, उपन्यास, कहानियाँ और नाटकों के माध्यम से समाज में जागरूकता, उत्तरदायित्व और स्वतंत्रता की महत्वपूर्ण बातें प्रस्तुत की।

4. आधुनिकता काल (20वीं शताब्दी के बाद):


20वीं शताब्दी के बाद का आधुनिकता काल भारतीय साहित्य में और भी नए परिवर्तन और विकास की दिशा में हुआ। इस काल में साहित्यिक और सामाजिक बदलाव हुआ, तकनीकी प्रगति का प्रभाव महसूस हुआ, और साहित्यिक दृष्टिकोण से नए प्रयास देखने को मिले।

विभिन्न प्रायोजनों का साहित्य: आधुनिकता काल में साहित्य कई प्रायोजनों की सेवा करने लगा, जैसे कि विज्ञान, सामाजिक चिंतन, राजनीति, व्यापार, और नौकरी आदि के प्रायोजनों को पूरा करने का।

नई विचारधाराएँ:
इस काल में विभिन्न विचारधाराएँ उत्तरदायित्व, असमानता, मानवाधिकार, स्वतंत्रता, और विकास के चर्चाओं के साथ उत्पन्न हुई।

उपन्यास की महत्वपूर्ण भूमिका: उपन्यास इस काल में एक महत्वपूर्ण साहित्यिक रूप बन गया, जिसमें समाज के विभिन्न पहलुओं का परिचय दिया गया।

स्त्री लेखन: आधुनिकता काल में स्त्री लेखन का महत्वपूर्ण योगदान था, जिससे स्त्रियों के विचार और दृष्टिकोण को सामाजिक रूप से दर्शाने का मौका मिला।

नए साहित्यिक चुनौतियाँ: नए साहित्यिक चुनौतियों ने उत्कृष्ट काव्य, उपन्यास, कहानी, नाटक, और गद्य के क्षेत्र में नये प्रयोग और रूपों का निर्माण किया।

भाषा का विकास: भाषा में भी विकास हुआ, जिसमें संवादीय भाषा का उपयोग और साहित्यिक अर्थप्रति में परिवर्तन दिखाई दिया।

विभिन्न प्रवृत्तियाँ: आधुनिकता काल में भी विभिन्न प्रवृत्तियाँ दिखाई दी, जैसे रोमांटिकिज्म, रियलिज्म, मानववाद, नायकवाद, आदि।

महत्वपूर्ण लेखक: इस काल के महत्वपूर्ण लेखकों में मुंशी प्रेमचंद, सुरेन्द्रनाथ, भूपेन्द्रनाथ मधुकर, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, हरिवंश राय बच्चन, प्रेमचंद, और अखिल शर्मा श्रेणी शामिल हैं।

आधुनिकता काल ने भारतीय साहित्य को नए दिशानिर्देशों में ले जाने का काम किया और आज के भारतीय साहित्य की अवश्यक आधारभूत नींव रखी।


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Saturday, August 19, 2023

What are the benefits of learning Sanskrit for an Indian student (Tamil medium)?

What are the benefits of learning Sanskrit for an Indian student (Tamil medium)?

Learning Sanskrit can offer several benefits to an Indian student from a Tamil medium background. While Tamil and Sanskrit are distinct languages, studying Sanskrit can still provide valuable advantages. Here are some benefits:

Enhanced Cognitive Skills: Learning Sanskrit involves understanding complex grammatical structures and linguistic concepts. This can sharpen your analytical thinking, problem-solving abilities, and cognitive skills.


Language Learning Proficiency: Studying Sanskrit can improve your overall language learning abilities. Since Tamil and Sanskrit share some linguistic features, learning Sanskrit can enhance your understanding of both languages.


Improved Vocabulary: Many words in Tamil have Sanskrit origins. By studying Sanskrit, you can uncover the etymology of words used in Tamil, leading to a deeper understanding of their meanings.


Access to Classical Literature: Sanskrit is the language of many ancient Indian texts, including literature, philosophy, science, and more. Learning Sanskrit allows you to access and appreciate these timeless works in their original form.


Academic Advantage: If you're interested in fields like philosophy, linguistics, literature, or history, knowing Sanskrit can open doors to studying original texts and conducting in-depth research.


Cultural and Religious Understanding: Sanskrit is closely connected to Indian culture and religious traditions. Learning the language can help you understand the cultural and philosophical nuances that have shaped India's identity.


Career Opportunities: Proficiency in Sanskrit can lead to opportunities in teaching, translation, research, and cultural preservation. It can also enhance your resume by showcasing your language and analytical skills.


Linguistic Awareness: Studying Sanskrit provides insights into linguistic evolution and relationships. This knowledge can be beneficial if you're interested in studying languages or linguistic history.


Personal Enrichment: Learning Sanskrit is intellectually rewarding and fosters a sense of achievement. It encourages a lifelong pursuit of knowledge and personal growth.


Cross-Linguistic Skills: Learning Sanskrit can make it easier to learn other languages, as you become skilled at recognizing linguistic patterns, roots, and structures shared across different languages.


Preservation of Heritage:
Learning Sanskrit contributes to the preservation of India's rich linguistic and cultural heritage. By learning this ancient language, you help ensure it's passed down to future generations.


Understanding Indian Identity: Sanskrit is integral to India's historical and cultural identity. Learning the language enables you to grasp the intricate threads that have woven India's diverse heritage together.


Multidisciplinary Learning: Studying Sanskrit can lead to interdisciplinary insights, allowing you to bridge various academic disciplines and gain a holistic perspective on Indian culture and history.

Remember that while Tamil and Sanskrit are distinct languages, the skills you acquire from studying Sanskrit can complement your existing language abilities and broaden your understanding of linguistic and cultural diversity within India. It's a journey that can enrich your academic pursuits, personal development, and cultural connections.

एकांकी

✍तैत्तिरीयोपनिषत्

  ॥ तैत्तिरीयोपनिषत् ॥ ॥ प्रथमः प्रश्नः ॥ (शीक्षावल्ली ॥ தைத்திரீயோபநிஷத்து முதல் பிரச்னம் (சீக்ஷாவல்லீ) 1. (பகலுக்கும் பிராணனுக்கும் அதிஷ்ட...