हिन्दी लेखक परिचय
1. श्यामसुंदरदास
श्यामसुंदरदास का जन्म वाराणासी (उत्तर प्रदेश) में सन् 1875 ई. में हुआ था। इनकी मृत्यु सन् 1945 ई. में हुई। प्रयाग विश्वविद्यालय से बी.ए. की उपाधि प्राप्त कर इन्होंने सेण्ट्रल हिन्दू स्कूल, वाराणसी में अंग्रेज़ी के अध्यापक- रूप में कार्य प्रारंभ किया। यद्यपि ये अंग्रेज़ी भाषा के कुशल अध्यापक थे, फिर भी इनकी रुचि प्रारंभ से ही हिन्दी-भाषा और साहित्य-सेवा की ओर थी। इन्होंने अनुभव किया कि हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने की अत्यंत आवश्यकता है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए इन्होंने कुछ हिन्दी-प्रेमी मित्रों के सहयोग से सन् 1893 ई. में "काशी नागरी प्रचारिणी सभा" की स्थापना की। जब हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी-विभाग खुला तो महामना मालवीय जी ने उसकी अध्यक्षता के लिए इन्हें साग्रह निमंत्रित किया। वहाँ इन्होंने विश्वविद्यालय की उच्चतम कक्षाओं के लिए पाठ्यक्रम का आयोजन किया और जीवन-भर हिन्दी- भाषा तथा साहित्य के विकास एवं प्रसार में संलग्न रहे।
आपके ग्रंथों में "भाषाविज्ञान", "साहित्यालोचन", हिन्दी-भाषा और साहित्य", "रूपक रहस्य", "भाषा रहस्य", "गोस्वामी तुलसीदास" विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इन ग्रंथों का महत्व इस बात से आँका जा सकता है कि आज तक उच्चतम कक्षाओं के पाठ्यक्रम में इनका स्थान है। इनके अतिरिक्त इन्होंने अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों का संपादन भी किया। हिन्दी-भाषा में अनुसंधान-कार्य का श्रीगणेश भी इन्हीं के द्वारा हुआ। काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित "हिन्दी शब्द सागर" का संपादन इन्हीं के निर्देश में हुआ।
श्यामसुंदरदास जी की भाषा पुष्ट एवं प्रांजल है और उसका झुकाव तत्सम शब्दों की ओर है। शैली में दुरूहता नहीं मिलती; सर्वत्र एक स्वच्छ वाग्धारा प्रवाहित रहती है। विषय का सम्यक् प्रतिपादन ही लेखक का मुख्य ध्येय रहता है।
2. रामचंद्र शुक्ल
आचार्य शुक्ल का जन्म बस्ती ज़िले (उत्तर प्रदेश) के अगौना ग्राम में सन् 1884 ई0 में हुआ था और इनकी मृत्यु सन् 1940 ई0 में वाराणासी में हुई।
इनकी प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और अंग्रेज़ी में हुई थी। विधिवत् शिक्षा ये केवल इंटरमीडिएट तक कर सके। प्रारंभ में कुछ वर्षों तक इन्होंने मिर्ज़ापुर के मिशन स्कूल में अध्यापन-कार्य किया। बाद में बाबू श्यामसुंदरदास ने इनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर हिन्दी-शब्दसागर के संपादन में इन्हें अपना सहयोगी बनाया। फिर ये हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणासी के हिन्दी-विभाग में अध्यापक नियुक्त हुए और बाबू श्यामसुंदरदास के अवकाश ग्रहण करने पर हिन्दी-विभाग के अध्यक्ष हो गए।
स्वाध्याय द्वारा इन्होंने संस्कृत, अंग्रेज़ी, बंगला और हिन्दी के प्राचीन साहित्य का गंभीर अध्ययन किया। हिन्दी-साहित्य में इनका प्रवेश कवि और निबंधकार के रूप में हुआ और इन्होंने बंगला तथा अंग्रेज़ी से कुछ सफल अनुवाद भी किए। आगे चलकर आलोचना इनका मुख्य विषय बन गई। इनके कुछ प्रसिद्ध ग्रंथ इस प्रकार हैं:
तुलसीदास, जायसी ग्रंथावली की भूमिका, सूरदास, चिन्तामणि (2 भाग), हिन्दी साहित्य का इतिहास, रसमीमांसा ।
शुक्ल जी हिन्दी के युगप्रवर्त्तक आलोचक हैं। इनके 'तुलसीदास' ग्रंथ से हिन्दी में प्रौढ़ आलोचना-पद्धति का सूत्रपात हुआ। शुक्ल जी ने जहाँ एक ओर आलोचना के शास्त्रीय पक्ष का विशद विवेचन किया वहाँ दूसरी ओर तुलसी, जायसी तथा सूर की मार्मिक आलोचनाओं द्वारा व्यावहारिक आलोचना का भी मार्ग प्रशस्त किया।
निबंध के क्षेत्र में भी शुक्ल जी का स्थान अप्रतिम है। 'चिन्तामणि' में संगृहीत मनोवैज्ञानिक निबंध हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इन निबंधों में गंभीर चिन्तन, सूक्ष्म निरीक्षण और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का सुंदर संयोग है। इनकी भाषा प्रांजल और सूत्रात्मक है। गंभीर प्रतिपादन के समय भी ये हास्य का पुट देते चलते हैं।
3. प्रेमचंद
मुंशी प्रेमचंद का जन्म सन् 1880 ई. में वाराणासी जिले के लमही ग्राम में हुआ था। ये साहित्य में प्रेमचंद के नाम से प्रसिद्ध हैं पर इनका वास्तविक नाम धनपतराय था। शिक्षा-काल में इन्होंने अंग्रेज़ी के साथ उर्दू का ही अध्ययन किया था। प्रारंभ में ये कुछ वर्षों तक स्कूल में अध्यापक रहे फिर शिक्षा-विभाग में सब-डिप्टी इंस्पेक्टर हो गए। कुछ दिनों बाद असहयोग आंदोलन से सहानुभूति रखने के कारण इन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और आजीवन साहित्य-सेवा करते रहे। इनकी मृत्यु सन् 1936 ई. में हुई।
प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास "सेवासदन", "निर्मला", "कर्मभूमि", "ग़बन", और "गोदान" हैं। इनकी कहानियों का विशाल संग्रह अनेक भागों में "मानसरोवर" नाम से प्रकाशित है, जिसमें लगभग तीन सौ कहानियाँ संकलित हैं। "कर्बला", "संग्राम" और "प्रेम की वेदी" इनके नाटक हैं। साहित्यिक निबंध "कुछ विचार" नाम से प्रकाशित हुए हैं।
प्रेमचंद का साहित्य समाजसुधार और राष्ट्रीय भावना से प्रेरित है। वह अपने समय की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का पूरा प्रतिनिधित्व करता है। उसमें किसानों की दशा, सामाजिक बंधनों में तड़पती नारियों की वेदना और वर्णव्यवस्था की कठोरता के भीतर संत्रस्त हरिजनों की पीड़ा का मार्मिक चित्रण मिलता है। सामयिकता के साथ ही इनके साहित्य में ऐसे तत्त्व भी विद्यमान हैं जो उसे शाश्वत और स्थायी बनाते हैं। प्रेमचंद अपने युग के उन सिद्ध कलाकारों में थे जिन्होंने हिन्दी को नवीन युग की आशा-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का सफल माध्यम बनाया।
इनकी भाषा में उर्दू की स्वच्छता, गति और मुहावरों के प्रयोग के साथ संस्कृत की भावमयी स्निग्ध पदावली का सुंदर संयोग है। कथा-साहित्य के लिए यह भाषा आदर्श है।
4. डॉ. राजेन्द्रप्रसाद
स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 26 जनवरी 1850 में हुआ और उन्का निधन 13 मई 1962 में हुआ। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की राजनीतिक सेवाओं से सभी परिचित हैं। उच्च कोटि के त्यागी नेता होने के
साथ ही वे अच्छे विद्वान और लेखक थे। जब वे विद्यार्थी थे, उन्हीं दिनों लिखने का अभ्यास शुरू किया और तब से बराबर कुछ लिखते रहे। हिन्दी साहित्य को उन्होंने कई उत्तम कृतियाँ प्रदान की हैं। उनकी "आत्मकथा" हिन्दी की श्रेष्ठ जीवनियों में एक है। "बापू के कदमों में", "गांधीजी की देन", "खंडित भारत" आदि कई पुस्तकें उन्होंने लिखी हैं। भाषा का शिष्ट और प्रांजल रूप उनकी रचनाओं में हमें मिलता है। शैली भी उनकी अपनी अलग विशिष्टता ली हुई है।
राष्ट्रपिता बापू के वे शुरू से ही अनुगामी रहे हैं। उनके व्यक्तित्व और आदर्श की छाप उनपर बहुत गहरी पड़ी है और उनके सच्चे अनुयायियों में उनका स्थान सर्वोपरि है।
5. आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में 'आरत दूबे का छपरा' नामक गाँव में जन्मे हज़ारी प्रसादजी की मुख्य शिक्षा दीक्षा काशी विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में हुई थी। उन्होंने ज्योतिष में शास्त्राचार्य परीक्षा पास की। हिन्दी भाषा व साहित्य के प्रति उनकी सहज रुचि और रामचरितमानस पर प्रवचन आदि ने मदनमोहन मालवीय का ध्यान आकृष्ट किया। उन्होंने हज़ारी प्रसादजी को विश्वभारती शांतिनिकेतन में हिन्दी अध्ययन के लिए भेजा। शांतिनिकेतन के लंबे दिनों में हज़ारी प्रसाद जी बड़े समीक्षक, भारतीय संस्कृति के आचार्य, प्रगल्भ वक्ता, स्वच्छंद ललित निबंधों के रचयिता और उपन्यासकार बन गये। महाकवि रवींद्रनाथ तथा अन्य मनीषियों के सत्संग से वे प्रेरणाग्रहण कर सके थे।
हिन्दी गद्य साहित्यकार के रूप में आचार्य द्विवेदीजी का योगदान बहुमुखी रहा है। (1) उपन्यासकार (2) समीक्षात्मक निबंधकार (3) सांस्कृतिक निबंधकार (4) ललित निबंधकार। आचार्य हज़ारी प्रसाद जी हिन्दी ललित निबंधकला के प्रमुख प्रवर्तक स्वीकार किये गये हैं। उनके ललित निबंध संग्रहों में 'अशोक के फूल', 'कुटज', 'देवदारु' आदि प्रसिद्ध हैं। इन गद्य संग्रहों में हज़ारी प्रसाद द्विवेदजी के अनेक अच्छे सांस्कृतिक निबंध भी हैं। प्राचीन एवं मध्यकालीन भारतीय संस्कृति एवं कलाओं के विशेषज्ञ द्विवेदीजी के ये निबंध विद्वत्तापूर्ण तो हैं। साथ ही मनोरंजक एवं सरस भी हैं। आपका जन्म सन् 1907 में और निधन सन् 1979 में हुआ।
6. बाबू गुलाबराय
बाबू गुलाब राय का जन्म 17 जनवरी 1888 में और निधन 13 अप्रैल 1963 में हुआ। बाबू गुलाब राय हिन्दी के प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् लेखक और आलोचक हैं। आपने दर्शन-शास्त्र में एम.ए., और एल.एल.बी. भी पास किए हैं। 28 वर्ष तक छतरपुर राज्य के प्राइवेट सेक्रेटरी रह चुके हैं। संस्कृत और अंग्रेज़ी के अतिरिक्त बंगला पर भी अधिकार रखते हैं। पूर्व और पाश्चात्य- दर्शन-शास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन किया है। दो बार हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के अन्तर्गत होनेवाली दर्शन-परिषद् के सभापति भी रह चुके हैं। "नवरस" आपकी सर्वश्रेष्ठ कृति है। "तर्क-शास्त्र", "कर्त्तव्य-शास्त्र" आदि ग्रंथ लिखकर आपने बड़े अभाव को पूर्ति की है। आप हिन्दी के निबन्धकारों में सम्मान का पद रखते हैं। आपके निबन्ध "फिर निराशा क्यों" में संकलित है। वे भावात्मक और विचारात्मक दोनों कोटि के हैं। “ठलुआ क्लब" और "मेरी असफलताएँ" आपके हास्यरस की कृतियाँ हैं, जिनमें "मेरी असफलताएँ" उनके निजी जीवन से सम्बन्ध रखती हैं। यह पुस्तक बड़ी लोक-प्रिय हुई है। आप हिन्दी के आलोचना प्रधान मासिक पत्र, "साहित्य सन्देश" के सम्पादक भी रहे।
आपकी भाषा सरल और सुबोध होती है कठिन से कठिन बात को सरल से सरल बनाकर कहने में आप हिन्दी में सबसे आगे हैं। संस्कृत की सूक्तियों का प्रयोग बराबर करते हैं।
7. आचार्य नरेन्द्र देव
आप उपनिषद-गीता का अभ्यास करनेवाले पिता की सन्तान थे। इनका जन्म 31 अक्तूबर सन् 1886 में हुआ। आप सरकारी संस्कृत कालेज, बनारस में एम.ए. संस्कृत विशेषीकरण 'एपिग्राफी' (पुरालेख शास्त्र) में बाद को इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा एल.एल.बी. में भी उत्तीर्ण हुए। बाद में गरम दल की राजनीति की ओर आकृष्ट हुए। फिर मार्क्सवादी चिन्तन की ओर। बौद्ध करुणा ने भी उन्हें आकृष्ट किया। वे एक ओर लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी के व्यक्तित्वों की ओर आकृष्ट हुए तो दूसरी ओर राजर्षि टण्डन और पंडित नेहरू की मैत्री के स्नेहापाश में बंध गये। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेकर कई बार जेल गये थे। काशी विद्यापीठ के अध्यापक, अध्यक्ष, आचार्य, कुलपति रह चुके। लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति भी रह चुके। इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ "राष्ट्रीयता और समाजवाद", "बौद्ध धर्म दर्शन"। आपने "विद्यापीठ" त्रैमासिक पत्रिका के संपादक के दौरान कई निबंध लिखे। सन् 1956 फरवरी 19 में इनका देहांत हुआ।
8. हरिशंकर परसाई
होशंगाबाद जिले में जमानी नामक स्थान पर एक मध्यवित्तीय परिवार में हरिशंकर परसाई का जन्म सन् 1924 में हुआ। इनके पिताजी कोयले का छोटा मोटा व्यापार करते थे। पारिवारिक जिम्मेदारियाँ नौकरी करके निभाते हुए वे हिन्दी में एम.ए. में उत्तीर्ण हुए। सरकारी कार्यालय, स्कूल, कालेज में अध्यापन आदि के बाद वे जबलपुर में स्वतंत्र लेखन करते हुए स्थायी रूप से रहे। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना और "वसुधा" पत्रिका का संपादन- प्रकाशन में उनका बड़ा योगदान रहा। सन् 1995 में आपका देहांत हुआ।
हरिशंकर परसाई आधुनिक हिन्दी व्यंग्य साहित्य के सबसे प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उन्होंने पत्रिकाओं में व्यंग्य कालम लिखे और स्वतंत्र लेख भी। राजनीति, समाज, परिवार सभी पृष्ठभूमियों में वे प्रभावशाली व्यंग्य बराबर लिखते रहे। उनका पूरा लेखन 'परसाई रचनावली' के नाम से संगृहीत है। उनकी कलम से निकले भोलाराम (भोलाराम का जीव) इंस्पेक्टर मातादीन, चाचा चौधरी आदि व्यंग्यपात्र अमर हो गये हैं। व्यंग्य लेखन की अलग भाषा-गठन भी परसाई की देन है। वे वर्षों तक शारीरिक विवशता से उठ फिर नहीं पाते थे। फिर भी उनका व्यक्तित्व एवं लेखन जिवंत रहा। अनेक व्यक्ति संस्थाएँ व अधिकारी उनको सम्मानित करने घर पहुँचते थे।
9. महादेवी वर्मा
श्रीमती महादेवी वर्मा का जन्म फर्रुखाबाद (उत्तरप्रदेश) में सन् 1907 ई. में हुआ था। सन् 1933 ई. में प्रयाग विश्वविद्यालय से एम.ए. की उपाधि प्राप्त कर ये प्रयाग महिला विद्यापीठ की आचार्या नियुक्त हुई। इनकी विविध साहित्यिक, शैक्षिक तथा सामाजिक सेवाओं के लिए भारत सरकार ने उनको 'पद्मभूषण' अलंकार से सम्मानित किया है।
महादेवी जी छायावाद युग की प्रतिनिधि कलाकार हैं। इनकी कविताओं में वेदना का स्वर प्रधान है और भाव, संगीत तथा चित्र का अपूर्व संयोग है।
'स्मृति की रेखाएँ' और 'अतीत के चलचित्र' में इनका कविहृदय गद्य के माध्यम से व्यक्त हुआ है। 'पथ के साथी' में इस युग के प्रमुख साहित्यिकों के अत्यंत आर्थिक व्यक्ति-चित्र संकलित हैं। 'श्रृंखला की कड़ियाँ' में आधुनिक नारी की समस्याओं को प्रभावपूर्ण भाषा में प्रस्तुत कर उन्हें सुलझाने के उपायों का निर्देश किया गया है।
"संस्मरण" के आत्मकथ्य में महादेवी वर्मा ने लिखा है कि मेरा यह सौभाग्य रहा है कि अपने युग के विशिष्ट व्यक्तियों का मुझे साथ मिला और मैंने उन्हें टिकट से देखने का अवसर पाया। उनके संबंधों में कुछ लिखना उनके अभिनन्दन से अधिक मेरा पर्व स्नान है।
इनकी गद्य-शैली प्रवाहपूर्ण, चित्रात्मक तथा काव्यमयी है और भाषा संस्कृत-प्रधान है। इस शैली के दो स्पष्ट रूप हैं-विचारात्मक तथा भावात्मक। विचारात्मक गद्य में तर्क और विश्लेषण की प्रधानता है तथा भावात्मक गद्य में कल्पना और अलंकार की। सन् 1987 में आपका निधन हुआ।
10. राधाकृष्ण
आप बिहार के रहनेवाले हैं। अच्छे साहित्यिक और कहानीकार हैं। कुछ समय तक 'कहानी' पत्रिका के संपादक भी रह चुके हैं। 'आदिवासी' साप्ताहिक के संपादक भी रहे।
प्रस्तुत संग्रह में आपकी एक कहानी 'अवलंब' दी गयी है। इसमें ग़रीबी की जिन्दगी का एक सजीव चित्रण है। कहानी पढ़ने पर बेचारे सीताराम और सीताराम जैसे अनेक लोगों के प्रति पाठक के हृदय की सहानुभूति सक्रिय हो उठती है।
आपकी भाषा सरस, सरल और चलती हुई होती है।
11. डॉ. रामकुमार वर्मा
डॉ. रामकुमार का जन्म सन् 1905 में और निधन सन् 1990 में हुआ। वर्माजी पहले इतिवृत्तात्मक रचनाओं द्वारा काव्य-क्षेत्र में प्रविष्ट हुए। अब आपकी रचनाओं में अनुभूति की प्रधानता रहती है। आप पर कबीर के रहस्यवाद और पश्चिम का भी प्रभाव है। पर इनके रहस्यवाद में यह विशेषता है कि ये उससे तादात्म्य होने पर भी आत्मविस्मृत नहीं होते। इन्हें अपनी आत्मा का ज्ञान बना रहता है।
आपकी रचनाओं में तत्सम शब्दों की प्रधानता होने पर भी क्लिष्टता नहीं है। उसमें प्रसाद-गुण की प्रधानता के साथ मृदुलता एवं माधुर्य का प्राचुर्य है।
कवि के अतिरिक्त वर्माजी सफल आलोचक और नाटककार भी हैं। आपका गद्य भी काव्यमय है। 'हिन्दी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास' लिखकर इन्होंने इतिहास-लेखन की नवीन परिपाटी स्थापित की है। 'साहित्य समालोचना' नामक पुस्तक लिखकर आपने कहानी, नाटक, उपन्यास, कविता तथा समालोचना पर विग्तृत प्रकाश डाला। आपका 'हिम हास' नामक एक गद्य-गीत-संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है, जिसकी प्रत्येक पंक्ति में आपके कवि-हृदय के दर्शन होते हैं।
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