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Sunday, May 2, 2021

पंचवटी -101- 128

 

          पंचवटी -101- 128



       "जो अन्धे होते हैं बहुधा.....   .तुम भी परम धन्य होगी।(101)

           व्याख्या :- रामचंद्र शूर्पणखा से बोलते जा रहे हैं- “अंधों के बारे में कहा जाता है कि वे ज्ञान नेत्रवाले प्रज्ञाचक्षु कहलाते हैं। मेरे प्रति प्रेम के कारण ये बाकी सबको भूलकर मेरे साथ आ गये हैं। अगर तुम इस युवक के मन को अपनी ओर आकृष्ट कर पाओगी, तो मैं मज़ाक नहीं करता हूँ और समझता हूँ कि तुम परम धन्य हो जाओगी।


      "भेद दृष्टि से फिर लक्ष्मण को........ जब अन्याय बदान्या तुम ।। " (102)

        व्याख्या :- रामचंद्र से तिरस्कृत शूर्पणखा अब अपनी रहस्यमयी कपट दृष्टि से फिर से लक्ष्मण की ओर मुड़ी। लक्ष्मण अपनी तर्जनी को होंठों पर रखते हुए नकारात्मक इशारा किया और बोलने लगे- “सुनो! तुम अब चुप रहो ! विभिन्न विरोधी विचारों को तरह-तरह से बोलनेवाली हो। तुम तो मेरे पूज्य स्वामी रामचंद्र पर अनुरक्त हुई हो, तो बस, मेरे लिए माननीय बन गयी हो।"


         प्रभु ने कहा कि "तब तो तुमको और पवन के भिन्नाघात । (103)

           व्याख्या :- अब श्रीरामचंद्र बोल उठे- “हे शूर्पणखे। अब तुम्हारे लिए दोनों ओर संकट की स्थिति लग रही है। तुम तो पहले मेरे छोटे भाई की वधू बन चुकी हो। अब तुम्हारा बदला हुआ प्रस्ताव कैसे मुझसे स्वीकृत होगा ? रामचंद्र और लक्ष्मण दोनों की बातों को सुनकर शूर्पणखा पसोपेश में पड़ गयी। उनकी ऐसी दशा हो गयी मानो ज़ोर से चलनेवाली हवा की प्रतिकूल दिशा में चलनेवाली प्रवाह की धारा में चलनेवाली नाव फँस गयी हो । 

     कहा कुछ होकर तब उसने .... ..... तुमको फिर मुझपर अनुरक्ति ।। (104)

            व्याख्या :- अब शूर्पणखा ने उन दोनों की बातों पर अपना क्रोध प्रकट करते हुए कहा-"तो क्या मैं अपनी आशा छोड़ दूँ? जिस संबंध को मैंने सयत्न जोड़ा है, क्या उसी संबंध को मैं स्वयं तोड़ डालूँ? परंतु सावधान! तुम  लोग यह न भूलना कि मुझमें ऐसी शक्ति है कि तुम्हें फिर से मेरी ओर आकृष्ट करके मुझपर अनुरक्त होने को विवश कर सकूँगी।"


      मेरे भृकृटि कटाक्ष तुल्य भी. . होती नहीं भीति में प्रीति (105)

           व्याख्या :- शूर्पणखा आगे कहती है कि, 'तुम्हारे धनुष-बाण मेरी क्रोध भरी दृष्टि के सामने टिकेंगे नहीं, तब रघुपति राम बोले- “हो सकता है कि तुझमें ऐसी ताकत छुपी हो। परंतु प्राणिसुलभ गुण यह होता है कि विवशता में तो कुछ कर सकते हैं, परंतु प्रेम नहीं कर सकते। जबरदस्ती और विवशता में प्रेम और अनुराग पैदा नहीं किये जा सकते।"


     " इतना कहकर मौन हुए प्रभु............ रख सकते है नर कितना?" (106)

           व्याख्या :- श्रीरामचंद्र के इतना समझाने के बाद गंभीर मुद्रा में मौन हो गये। परंतु लक्ष्मण का क्रोध कम नहीं हुआ और वे चुप न रह सके। शूर्पणखा से बोल उठे- “हे नारी।, तुम एक बात न भूलना कि स्त्री होकर तुम इतना अहंकार प्रदर्शित करने लगी हो, तो पुरुषों में क्या कम अंहकार रहेगा?


     “झंकृत हुई विषम तारों की........ प्रबलाएँ अपमान विचार ।” (107)

           व्याख्या :- अब उस उच्छृंखल नारी शूर्पणखा के विषैले हृदय रूपी विषम तारवाली वीणा का झंकार हुआ। वह बोलने लगी- "तब क्या तुम लोग समझते हो कि बेचारी महिलाएँ हमेशा अबलाएँ रह जाएँगी? यह नहीं जानते हो कि अपने प्रेम संबंधों में विफल हो जाने पर अबला नारियाँ अपमान के कारण कितनी प्रबल हो जाती हैं?"


    “पक्षपात मय सानुरोध है. ...... ...... द्वेष-पूर्ण अपना प्रतिशोध ।। " (108)

            व्याख्या :- शूर्पणखा आगे बोलती है, तो कामिनी स्त्री का प्रेम जितना पक्षपातमय अर्थात् एकांगी और विनयपूर्वक और अटल होता है, उनका वैर और विरोध उतना ही शक्तिशाली और प्रबल होता है। नारी का यह भाव क्रोध से भी भंयकर रूप ले लेता है। फिर वही द्वेषपूर्ण प्रतिशोध का विशेष कार्य रूप धारण कर लेता है।


     "देख क्यों न लो तुम, में जितनी.......... सहसा बना विकट- विकराल (109)

           व्याख्या :- शूर्पणखा आगे बोलती है, "क्या तुम देख नहीं पा रहे हो कि में जितनी सुंदर थी, अब उतनी ही घोर लग रही हूँ? मेरी बातें जितनी कोमल और मधुर रहीं, क्या अब उतनी कठोर और निष्ठुर नहीं लग रही हैं?"

         शूर्पणखा के इस तत्काल विचित्र व्यवहार को सबने अपनी आँखों के सामने घटते हुए आश्चर्य के साथ देखा कि वह जो अत्यंत मोहक रूप था, सहसा घोर और भयंकर बन गया है।


      "सबने मृदु मारुत का दारुण......... यह परिवर्तन देखा था, " (110)

             व्याख्या :- सभी लोग अब एक ऐसा दृश्य देखने लगे जहाँ मंद मारुत की कोमल हवाएँ थीं, वे अब झंझा नर्तन करती हैं। अर्थात् तूफ़ानी हवा का भयंकर रूप धारण करके नाचते हुए देखा। सुहावनी शाम के हट जाने पर अंधेरी रात के विकृत परिवर्तन को देखा। समय रूपी कीट को उम्र रूपी पुष्प के सुंदर पटलों को काटते हुए और नष्ट करते हुए देखा। परंतु अभी तक किसीने इतने आश्चर्यजनक भयंकर परिवर्तन को देखा नहीं होगा।


       "गोल कपोल पलटकर सहसा......      प्रकटे पूरी बाढ़ों से ।। (111)

             व्याख्या :- वहाँ जो आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ था, उसका वर्णन कवि आगे यों करते हैं शूर्पणखा का सुंदर और यौवन-रूप जो था, वह अब गोल-गोल गाल बरै नामक कीड़े से काटे गये फूल की पंखुड़ियों की तरह नष्ट-भ्रष्ट रूप में दिखाई पड़ रहे हैं। चमेली की कलियों की तरह जो दाँत चमकते रहे, वे अब वराह के भयंकर दाँत बन गये हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो बीभत्स, भयानक और रौद्र तीनों रसों का प्रदर्शन एक ही समय और एक ही जगह हो रहा हो।


    जहाँ लाल साड़ी थी तनु में... ......हुई मुण्डमाला सुविशाल । (112)

            व्याख्या :- शूर्पणखा का रूप परिवर्तन आश्चर्यजनक ही नहीं, बल्कि भयानक भी होने लगा है। यथा पहले वह लाल साड़ी पहनी हुई एक भद्र नारी की तरह सामने आयी थी, अब लाल साड़ी की जगह चमड़े के वस्त्र दिखाई पड़े। मणियों और मोतियों के हार पहनी हुई थी। उसकी जगह अस्थियों के आभूषण बन गये। कंधों पर लटक रहे वे सुन्दर केश अब आँतों के जाल बन गये। सुंदर वन फूलों की माला की जगह मुंडमाला ली हुई उसका भयानक और बीभत्स रूप दिखाई पड़ा है।


      हो सकते थे दो द्रुमादि ही..........रुद्ध कण्ठ से बोल सकी ।। (113)

           व्याख्या :- शूर्पणखा के उस कराल रूप को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता था कि उसके दीर्घ शरीर भारी पेड़ और पहाड़ों के समूह सामने खड़े हैं। इस विलक्षण रूपवाली के नाखून उसके नाम को प्रमाणित कर रहे थे। सीताजी इस भंयकर रूप को देखकर स्तंभित हो गयीं और जड़ की तरह अचेत रह गयीं। कंठ भी अवरुद्ध हो गया।


         अग्रज और अनुज दोनों ने...........सावधान कर उसे सुजान (114)

          व्याख्या :- राम और लक्ष्मण दोनों भाइयों ने एक दूसरे को देखा। रामचंद्रजी ने सीताजी को उस राक्षसी की ओर देखने से रोका। छोटा भाई लक्ष्मण उससे बात करने लगा। इतने में रामचंद्रजी की मुस्कुराहट देखकर सीताजी संभल गयीं। होशियार लक्ष्मण ने शूर्पणखा को सावधान करते हुए कहा।


     मायाविनी, उस रम्य रूप का ?............. हरा सकेगी तू न हमें।। (115)

         व्याख्या :- 'हे मायाविनी। तुम्हारे इस मोहक सुंदर रूप पीछे क्या इतनी छल-कपट की भावना छिपी थी? उस प्रदर्शन का क्या यही परिणाम था? क्या इस प्रकार लोगों को छलना और धोखे से उन्हें पराजित करना ही तुम्हारा काम है? तुम अपने इस वास्तविक और विकराल रूप से हमें परास्त नहीं कर सकती। अबला हमेशा अवला ही होती है। अतः हमें तुम किसी प्रकार से हरा नहीं सकोगी।


    बाह्य सृष्टि सुन्दरता है क्या..........जिससे छिप न सके पहचान। (116)

          व्याख्या :- लक्ष्मण आगे कहते हैं: बाहर से सुंदर दिखनेवाली सृष्टि में क्या इतना भयंकर रूप छिपा है? जो भी हो, मैं अपने बारे में कह ही देता हूँ कि मैं भी तुम्हारा सामना करने के लिए तैयार हूँ। मैं ऐसा काम करूंगा, जिससे कि तुम फिर कभी किसीको छल नहीं सकोगी। तुम नारी हो और इसलिए तुम्हें मारूँगा भी नहीं; मैं तुम्हें अवश्य विकलांगी कर डालूँगा, जिस विकलांगता को छिपा भी नहीं पाओगी।


     उस आक्रमणकारिणी के झट..........भगी वहाँ से चिल्लाती । (117)

        व्याख्या :- सीताजी पर आक्रमण करने तैयार रही शूर्पणखा की ओर झपटते हुए लक्ष्मण ने अपनी तेज तलवार से उसके नाक-कान काट डाले । लक्ष्मण ने उसके पापी प्राण नहीं लिये। तब शूर्पणखा हाय! हाय! चिल्लाते हुए, हाहाकार मचाते हुए भागने लगी।


     गूँजा किया देर तक उसका ............जिससे सोने की लंका ।। (118)

      व्याख्या : शूर्पणखा की चिल्लाहट और हाहाकार वहाँ के वायुमंडल में गूंजता था। उसके वहाँ से चले जाने के बाद भी बहुत देर तक गूँजता रहा। वैदेही सीताजी उदास, व्याकुल और अधीर हो उठी। उनके मन में आतंक से भरी शंका होने लगी कि कहीं जो शंका बाद को सचमुच सोने की लंका मिट्टी में मिल गयी।


     “हुआ आज अपशकुन सबेरे,........किसका डर है तुम्हीं कहो।। " (119)

          व्याख्या :- सीताजी लंबी साँस लेकर बोल उठीं, "सबेरे-सबेरे आज अपशकुन जैसे हो गया है कि कहीं किसी प्रकार का संकट आनेवाला हो।" भगवान कुशल ही रखें। लक्ष्मण उत्तर में बोले; "आये। तुम निश्चिन्त रहो भाभी। इस सेवक के रहते हुए तुम्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी है।


     नहीं विघ्न-बाधाओं को हम...........जिनकी शिक्षा दीक्षाएँ ।” (120)

        व्याख्या :- लक्ष्मण आगे कहते हैं- "हम किसी प्रकार की विघ्न बाधाओं का आह्वान नहीं करते। यदि आ भी जाएँ तो उससे कभी हम घबराते नहीं, मेरे विचार में विपदाएँ तो प्राकृतिक ही हैं। ये ही लोग उनसे डरते हैं, जिन की शिक्षा दीक्षाएँ पक्की नहीं होतीं।"

     कहा राम ने कि "यह सत्य है..........डटकर शूर समर ठानें ।।" (121)

      व्याख्या :- इन सारी बातों को सुनने के बाद रामचंद्रजी ने कहा, "लक्ष्मण का कहना ठीक ही है कि सुख दुख समयाधीन हैं। परंतु मनुष्य में वह गुण चाहिए कि वह सुख में गर्व से नहीं फूलना चाहिए और कभी दुख में दीन न हो जाएँ। जब तक संकट स्वयं न आ जाएँ, तब तक उनसे बचकर दूर रहें और अनावश्यक न डरें; डटकर उनका सामना करें, शूर की तरह उनके विरुद्ध लड़ाई लड़ें।


     "यदि संकट ऐसे ही जिनको........ सहन शक्ति रखता हूँ मैं ।।" (122)

        व्याख्या :- रामचंद्रजी कहने लगे, “यदि ऐसे संकट अनिवार्य रूप से उपस्थित हो जाएँ, तो तुम लोगों को उनसे बचाते हुए मैं उनका सामना करूंगा। मेरी इच्छा भी है कि उनसे एक बार खेल भी लूँ। तभी तो मुझे भी पता चलेगा कि संकट झेलने की कितनी शक्ति मुझमें है।"


   "नहीं जानता मैं, सहने को ...       . किन्तु तुम्हारा यह कहना" (123)

        व्याख्या :- राम आगे कहते हैं: मैं समझता हूँ कि तुममें संकट सहने की कोई शक्ति अब शेष नहीं, क्योंकि न जाने कितने कष्ट और संकट मेरे लिए तुमने झेले हैं लक्ष्मण रामचंद्रजी को जवाब देते हैं:- “आपके इस सेवक के लिए कष्ट सहना कोई कठिन कार्य नहीं। परंतु आपका यह कहना कि मैंने आपके लिए बहुत कुछ सहा है, सहना बहुत कठिन है।"


    सीता कहने लगी कि 'ठहरो... .... यों ही निभृत प्रवाह बहे ।।" (124)

         व्याख्या :- राम और लक्ष्मण की उपर्युक्त बातों को सुनने के बाद अब सीताजी बोल उठीं- "ठहरो! छोड़ो ऐसी बातों को क्यों संकटों को और आपदाओं को सहने की इच्छा स्वयं करते हो ? हमें राज-वैभव और अधिकार नहीं चाहिए। हमने उन्हें त्याग दिया है। कोई हमपर ईर्ष्या न करें। बस, हमारी जीवन धारा सरल और शांत प्रवाह बनकर बहे।"


    "हमने छोड़ नहीं राज्य क्या.....    इसको सभी जानते है।।" (125)

       व्याख्या :- सीताजी पूछती हैं- "क्या हमने अपना राजवैभव और राज्यश्री का त्याग नहीं कर दिया? क्या भाग्य विधाता इतना भी नहीं सहेगा कि हम इतनी सामान्य सुविधाएँ भोगे?” लक्ष्मण बोले- "मैं विधि और भाग्य की बातों पर विश्वास नहीं रखता। वे ही, बड़े लोग उन्हें मानते हैं। मैं तो पुरुषार्थ का पक्षपाती हूँ। यह बात आप सब जानते ही हैं। "


       यह कहकर लक्ष्मण मुस्काये,......नेत्र प्रेम से भर आये ।। (126)

         व्याख्या :- यों कहते हुए लक्ष्मण मुस्कुराये और रामचंद्रजी भी मुस्कुराये। सीताजी के चेहरे पर भी मुस्कुराहट झलकी। तीनों में अब विनोद से भरा हर्ष छा गया। अब सीताजी व्यंग्य करते हुए बोलीं: “ठहरो! ठहरो। पुरुषार्थ की बड़ी-बड़ी बातें जो करते हो, अपनी पत्नी तक को साथ न लाये?" यों कहते हुए सीता की आँखों से आँसू टपकने लगे।


    "चलो नदी को घड़े उठा लो,....   राघव महा मोद- मद से (127)

        व्याख्या :- अब सुबह होने पर जैसे अपनी दिनचर्या की याद दिलाते हुए सीता ने कहा, “पुरुषार्थ और क्षमा को कार्यरूप में दिखाओ। अब चलो। घड़े उठाकर नदी तट पर चलेंगे। मुझे भी मछलियों को धान आदि खिलाना है। तत्काल लक्ष्मण भावुकता के साथ घड़े के साथ उपस्थित हो गये। उन दोनों को इस तरह देखकर श्रीरामचंद्रजी प्रसन्न होकर बोले ।”


      तनिक देर ठहरो, मैं देखूँ,........बरसाये नव विकसित फूल ।। " (128)

           व्याख्या :- रामचंद्रजी परम संतुष्ट होकर बोलने लगे- “जरा ठहर जाओ ! मैं जरा देख लूँ, तुम दोनों भाभी - देवर को। यह हर्ष की तरंगें बड़े विरले ही देखने को मिलती हैं। अपने हृदय को सुखी कर लूँ।” यों कहते हुए रामचंद्र हर्ष से पुलकित हो उठे और अपने आपको भूले जैसे रह गये। तब उन दोनों के द्वारा सींचे गये और बढ़ाये गये पौधों के नव-विकसित कोमल फूल दो-चार को तोड़कर इन भाभी देवर पर बरसाये और आशीर्वाद दिये ।


           ****   “शुभम्”    ***









Tuesday, April 27, 2021

पंचवटी - 51 - 100

 

 पंचवटी -51 - 100

     वृक्ष लगाने की ही इच्छा......... मैंने तुम से पाई है। (51)

         व्याख्या : - शूर्पणखा आगे प्रश्न करती है, “संसार में कितने लोगों को वृक्ष लगाने की इच्छा रहती है ? परंतु उन वृक्षों में जब फल लगते हैं, ये जन सब के सब उसका स्वाद तो लेते हैं और सुख भोगते हैं। इस तर्क को सुनकर लक्ष्मण अब हँस पड़े और कहने लगे- हाँ, बात तो सही है। मैंने यों ही यह तपस्वी की पदवी, तुमसे मुफ़्त में ही पा ली है।" -


   यों ही यदि तप का फल पाऊँ.........क्यों अमूल्य अवसर खोऊँ ?" (52)

    व्याख्या :- 'अगर इसी तरह मुझे इस तपस्या का फल मिल भी जाए तो मैं उसे न चखूँगा और अपने लिए न रखूंगा। तुम्हारे जैसे लोगों के लिए सुरक्षित रखूँगा।'

शूर्पणखा हँस पड़ी और फिर बोलने लगी 'मान लो कि वह फल स्वयं मैं ही हूँ, तब तुम क्या करोगे? बताओ इस बहुमूल्य अवसर को मैं खोऊँ ?"


 'तो मैं योग्य पात्र खोजूंगा.........हुई तनिक लज्जित हो मौन।' (53)

        व्याख्या :- लक्ष्मण बोले: अगर वह फल तुम ही हो, तो मैं तुम्हारे लिए योग्य वर ढूँढूँगा। तब शूर्पणखा बोली- “मैंने तो स्वयं उस वर को ढूँढ लिया है। अब तक मैं उसका नाम नहीं जानती। परंतु वह मेरे लिए निश्चय ही उपयुक्त है। वह स्वयं अब मेरे ही सामने है।"

       इन बातों से लक्ष्मण ने चौंककर पूछा- कौन? सुंदरी से उत्तर मिला- 'तुम' परंतु यों कहते हुए वह युवती थोड़ी-सी लज्जा से मौन खड़ी हो गयी।


     'पाप शांत हो, पाप शांत हो,.........पहले ही कर बैठे नर ।" (54)

      व्याख्या :- शूर्पणखा के मुँह से ऐसे वचन सुनकर विस्मय के साथ अपनी नाराजगी भी प्रकट करते हुए ज़ोर से लक्ष्मण बोलने लगे- 'पाप शांत हो! पाप शांत हो। हे नारी, तुम कैसी औरत हो और कैसी बातें करती हो ? मैं एक विवाहित पुरुष हूँ।' सुधरकर शूर्पणखा बोलने लगी, 'इससे क्या है? क्या इस संसार में पुरुष दो-दो पत्नीवाले नहीं होते? पुरुषों के लिए इसमें आपत्ति क्या है? सारे शास्त्र तो पुरुषों के द्वारा रचित हैं तथा स्त्रियों को बंधन में डालनेवाले हैं। पुरुष वर्ग ने सारी सुविधाएँ अपने स्वार्थ के लिए कर ली हैं।


       तो नारियाँ शास्त्र रचना कर........आचारों का सुविचारी । (55)

    व्याख्या :- उत्तर में लक्ष्मण बोल उठे : 'तो क्या अब नारियाँ अपनी सुविधा के लिए नीति शास्त्र को अपने अनुकूल लिखवाना चाहती हैं? पुरुष तो नारी के सतीत्व के आदर्श पर उनका आदर करते हैं, नारी का गुणगान करने में संकोच नहीं करते। मेरे विचार में, लाख नियम होने पर भी मनुष्य अपने अन्तःकरण के अनुसार व्यवहार करें तो वही श्रेष्ठ होगा। मन के विचारों के चिंतन-मंधन के बाद जो निष्कर्ष निकलता है, वही सर्वोत्तम नीति बन सकती है। स्वयं आप ही यहाँ न्यायाधीश हैं। हमारे लिए अपना-अपना आचरण ही उनका मापदंड है।


     'नारी के जिस भव्य-भाव का,......... करो कहीं कृतकृत्य, वरो।' (56)

    व्याख्या :- लक्ष्मण बोलने लगे, 'जिस तरह के उच्च भाव और आचारण पर मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, उसी प्रकार पुरुषों में भी आदर्शपूर्ण श्रेष्ठ भाव देखने का अभिलाषी हूँ। बहुविवाह बड़े खतरे की बात है। इसके अतिरिक्त मैं क्या कहूँ। सुंदरी, मुझे क्षमा कर दो। मैं तुम्हारी अभिलाषा पूरी नहीं कर सकता। तुम होशियार नारी हो। कहीं और जाकर अपनी चतुराई से काम ले सकती हो।'


    "पर किस मन से वरूँ किसी को ?........होकर विवश, विकल, निरुपाय।' (57)

     व्याख्या :- शूर्पणखा बोल उठी: मेरे मन को तुमने जीत लिया है, फिर, मैं कैसे और किस मन से किसी और को चुनूँ !

       लक्ष्मण ने इसको टालते हुए कहा कि क्या मेरे ऊपर चोरी का इलजाम भी लगा रही हो? बाद प्रतिवाद में उतरी हुई मतवाली शूर्पणखा बोली- 'क्या मैं तुझपर झूठा इलज़ाम लगा रही हूँ? हाय! मेरा मन तो विवश, विकल और विफल होकर निरुपाय अवस्था में मेरे हाथों से निकल गया है।


    'कह सकते हो तुम कि चन्द्र का .......... व्याध पकड़ता नहीं कुरंग?" (58)

       व्याख्या :- शूर्पणखा प्रश्न करती है तुम कह सकते हो कि चंद्रमा का क्या दोष है कि चकोर प्रेमासक्त जाता है। परंतु क्या चंद्रमा ने उसपर अपनी किरणों के माध्यम से मोह-जाल नहीं फेंका कि चकोर उसमें स्वाभाविक रूप से फँस जाए। इसी तरह अगर दीप अपना प्रकाश नहीं फैलाता तो बेचारा पतंग उससे मोहित होकर उस कूदकर क्यों जल जाता? और फिर संगीत और वाद्यों के बजने पर उससे मोहित होकर फँसनवाले हिरण को शिकारी पकड़ नहीं लेता ?


      लेकर इतना रूप कहो तुम...........जिधर-तिधर मत फहरो तुम। (59)

      व्याख्या :-  शूर्पणखा आगे कहने लगी, "हे वीर व्रती! कहो कि तुमने अपने सौंदर्य से क्यों मुझे मो किया? प्रातःकाल की ठंडी हवा चलने लगी, फिर भी क्या कमल की कोमल पंखुड़ियाँ खिलीं नहीं? इतना और सौंदर्य सहित जो सामने हो, मैं छले बिना कैसे रह सकती हूँ? सुलक्षण लक्ष्मण ने पूछा, “हे सुंदर युवती ! क्या इतना अधीर हो रही हो? हवा के झोंको से इधर-उधर फहरनेवाली पताका की तरह डगमगा रही हो ?"


 "जिसकी रूप स्तुति करती हो,..........अब तुम हाय! हृदय हरके ?" (60)

    व्याख्या :- लक्ष्मण और भी प्रश्न करते हैं, “तुम जिसका रूप वर्णन इतनी उत्सुकता से करने ल क्या तुम्हें उसके कुल और शील के संबंध में कोई जानकारी है?" तब सुंदरी शूर्पणखा अपने अंग शिथिल कर उठी, “हे नर। तुम निर्दयी होकर यह क्या पूछ रहे हो ?"


 "अपना ही कुल-शील प्रेम में ......... - हृदय-कपाट खोल दो तुम।" (61)

     व्याख्या :- शूर्पणखा तर्क करती है, “हम स्त्रियाँ प्रेम जाल में पड़कर अपने ही कुल और शील का ख्याल नहीं रखतीं। प्रियतम की पात्रता क्या देखेंगी और क्या समझेंगी। अब व्यर्थ की बातें छोड़ दो। रात बीतने के पहले कुछ मीठी बातें तो बोलो। मैं अब तुम्हारे द्वार पर खड़ी एक प्रेमातिथि हूँ, जो प्रेम की आशा से आयी अतिथि हूँ। अतः अपने दिल का दरवाज़ा खोल दो।


   "अहा नारी! किस भ्रम में है तू ...........अति अनीति है, नीति नहीं ।। " (62)

        व्याख्या :- लक्ष्मण बोलते हैं हे नारी! तुम किस भ्रम में हो? तुम्हारी जो इच्छा है, वह प्रेम नहीं, मोह है। तू  मोह में पड़ी हो। यह तुम्हारा आत्म विश्वास नहीं, तुम्हारे मन का विद्रोह है, तुम वासना से ग्रस्त हो। यह अमृत से भरा अनुराग नहीं है, जहर भरा व्यामोह है। यह हमारा रिवाज़ नहीं; व्यतिक्रम है। नीति नहीं, अनीति है; सरासर क्रम और नियम के खिलाफ़ है।


   आत्मवंचना करती है, तू.........छोड भावना की यह भ्रान्ति ।(63)

      व्याख्या :- "हे नारी! बोल तू किस गलत धारणा के भ्रम में यह आत्म वंचना करती हो? खुले झरोखे से ऐसे झंझावत के झोंके में झाँको मत। इस मृगतृष्णा रूपी भ्राँति जो उत्पात मचा रही है, वह तुम्हें किसी प्रकार की शांति देनेवाली नहीं। तुम अभी सावधान हो जाओ। मैं तो दूसरी नारी का पति हूँ। इस तरह की दुर्भावना को छोड़ ही


   इस समय पौ फटी पूर्व में.........खडी स्वयं क्या ऊषा थी। (64)

        व्याख्या :- इतनें में सूर्योदय हुआ। रात समाप्त होनेवाली और सुबह खुलनेवाली थी। काले आकाश में सूर्य अपने अंग के चमक-दमक के साथ अपनी किरण फैलाने लगा। पूरब की दिशा में निकलनेवाली ये किरणें कुछ कुछ लाल और कुछ कुछ सुनहरी लगती थीं। इतने में पंचवटी की कुटी के द्वार खोलते हुए वहाँ एक दिव्य मूर्ति खड़ी हो गयी मानो स्वयं यही वह ऊषा थी। (यहाँ सीताजी के दिव्य दर्शन का संकेत है।)


     अहा! अम्बरस्था ऊषा भी ..... • लेने लगी अपूर्व हिलोर ।। (65)

     व्याख्या :- कवि माता सीता की उस दिव्य छवि का वर्णन इस प्रकार कर रहे हैं- "अहा! यह क्या दिव्य सौंदर्य है। कितनी आभा है। आकाश में प्रज्वलित उषा में भी इतनी स्वच्छता शायद ही रहती होगी। यह तो इस धरती की सजीव उषा है, आकाश की मूर्ति-सी नहीं। उधर पश्चिम की ओर देखें तो सुबह होने के कारण चंद्रमा का मुँह पीला पड़ गया है।

    लक्ष्मण के मुख पर भी अपूर्व ढंग से लज्जा की झलक दिखाई पड़ी।


  चौंक पड़ी प्रमदा भी सहसा........ देखी विगताडम्बर में।। (66)

     व्याख्या :- सामने सीताजी को अचानक देखकर वह युवती भी चौंक उठी। उस पवित्र और उत्तम देवी को देखकर कुमुदिनी-सी यह युवती सिमट गयी। शूर्पणखा ने एक बार आकाश की ऊषा की ओर देखा और फिर किसी प्रकार के आडंबर के बिना अपने सहज सौंदर्य में झलकती हुई सीताजी की ओर देखा।


     एक बार अपने अंगों की........रखते थे शुभ भूषण थे। (67)

     व्याख्या :- शूर्पणखा ने सीताजी को देखने के बाद एक बार अपने अंगों और आभूषणों की ओर देखा। उसने अपने आपको आभूषणों की भरमार में उलझे हुए देखा। फिर एक बार किसी प्रकार के आभूषण के बिना सरल एवं सीधी-सादी खड़ी हुई वैदेहीजी की और उसने अपनी नजर दौड़ाई। उसके पवित्र अंगों की शोभा देखी। उसने तब सोचा कि यह ऐसी शोभा है, जैसे अरुणोदय के समय कुछ ही नक्षत्रों की चमक से उषा के दर्शन होते हैं।


  हँसने लगे कुसुम कानन में  .......... जुठ आई भौरों की भीर ।। (68)

       व्याख्या :- जंगल के तरह तरह के फूल सीताजी की मुस्कुराहट से भरे इस सौंदर्य को देखकर झूमने लगे मानो वे एक भव्य चित्र देख रहे हों। डाल-डाल पर कलियाँ तो प्रसन्नता से खिल उठीं। मंद बहनेवाली हवा इन खिले फूलों को गिनने लगी और भँवरों का झुंड इन फूलों पर मंडराते हुए गुनगुनाने लगा।


   नाटक के इस नये दृश्य के........प्रिय भावों भरते थे। (69)

        व्याख्या :- अनुपम सुंदरी सीताजी के सौंदर्य से भरे इस नाटकीय नज़ारे के दर्शक थे इस वन के पक्षीवृंद | ये वृक्षों की डालियों पर जगह बनाकर इस दृश्य का सुमधुर रसास्वादन कर रहे थे। इनका कोलाहल और कुतूहल ऐसा था, मानो दर्शकों की भीड़ नाटक के (अभिनय के) प्रारंभ के पहले ही सीटी और तालियाँ बजा बजाकर अपने उत्साह को अपने व्यवहार से प्रकट करने लगते। लग रहा था मानो पंचवटी अब रंगमंच बन गया है। प्रेक्षकगण अपने कौतूहल से और उत्तेजित करते थे।


  "सीता ने भी उस रमणी को देखा,......चाहे तुमको प्राण समान ? (70)

       व्याख्या :- इस परिस्थिति में सीताजी ने उस नारी को देखा और फिर लक्ष्मण की ओर भी देखा। सीताजी ने उन दोनों के बीच में एक मुस्कुराहट भरी दृष्टि चलायी। सीताजी लक्ष्मण से पूछने लगीं- “देवर! तुम कितने निर्दयी व्यक्ति हो? घर आये मेहमान को बाहर ही खड़ा करके कैसे उसका अपमान कर सकते हो? उसके लिए तुम कुछ भी बन सकते हो, जैसा वह चाहे, उसके प्राणों के बराबर।


याचक को निराश करने में....... तो लेने में है क्या सोच ? (71)

      व्याख्या :- सीता आगे कहती हैं, "किसी याचक को कुछ देने के संदर्भ में कभी लाचारी हो भी सकती है। परंतु यहाँ अब वह नारी तुमसे आश्रय लेने के लिए नहीं आयी है। उल्टा, वह बिना किसी संकोच के, तुम पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने आयी है। कुछ देने में तुझमें कंजूसी हो सकती है, पर लेने में क्यों संकोच करते हो ?"


     उनके अरुण चरण-पद्मों में...... नूतन शुक रम्भा संवाद ? (72)

       व्याख्या :- सीताजी के चरण पद्म में सिर झुकाकर लक्ष्मण ने प्रणाम कर लिया और भाभी ने देवर को अपने आशीर्वाद यों दिये, "सफल हो तुम्हारी कामना!" सीताजी ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, "मैंने आप दोनों का संवाद पूरा नहीं सुना है। अब तुम्हीं बोलो, कब से चल रहा है यह “शुक-रंभा का नया संवाद ?" 


     बोली फिर उस बाला से वे ........... यह विराग लाये हैं ये। (73)

      व्याख्या :- उसी मुस्कुराहट के साथ सीताजी उस सुंदरी से बोलने लगीं- “हे वाले! हमारे देवर की बातों से तुम यों ही दुखी न हो जाना। ये ऐसे ही हैं। घर में पत्नी को छोड़कर यहाँ वन में आ गये हैं। इनकी उम्र ही क्या है, वैराग्य को लेकर आ गये हैं। यह मानवोचित व्यवहार नहीं। युवावस्था में संन्यास लेना कहाँ तक उचित है?".


   किन्तु तुम्हारी इच्छा है तो.........स्वयं स्वामिनी दासी हैं। (74)

       व्याख्या :- सीताजी शूर्पणखा से बोलती हैं- तुम्हारे मन में इस युवक से विवाह करने की इच्छा हो, तो कहो; मैं इन्हें मनाकर राजी कराऊँगी। तुम यहीं रहो। परंतु एक बात की समस्या तो है। तुम तो ऐश्वर्यवती हो और हम निर्धन वनवासी ठहरे। हमारे यहाँ कोई नौकर-चाकर नहीं हैं। हम स्वयं मालिक हैं और अपने लिए नौकर भी हैं। स्वयं अपनी स्वामिनी हैं, उसी समय अपनी दासी भी हैं।


    पर करना होगा न तुम्हें कुछ....... कह रखती हूँ इसे अभी । (75)

       व्याख्या :- यहाँ किसी प्रकार के नौकर-चाकर की सुविधा तो नहीं है। फिर भी मैं अभी कह देती हूँ कि मैं तुम्हें अपने कोमल हाथों से किसी प्रकार का काम करने न दूंगी। यहाँ तक कि पके हुए अन्न आदि को अपने हाथों से परोसने भी नहीं दूंगी।

      "हाँ! एक और बात मुझे तुमसे अभी कहनी है। वह यह है कि यहाँ हमारे द्वारा पालित कुछ पशु-पक्षी भी हैं। कभी वे अनजाने में ही सही तुम्हें तंग करें, तो उन्हें क्षमा कर देना।"


   रमणी बोली- “ रहे तुम्हारा....... मैं कृतार्थ हो जाऊँगी।” (76)

       व्याख्या :- शूर्पणखा बोलने लगी, “हे देवी! तुम्हारी बातों से मेरा रोम रोम तुम्हारे प्रति कृतज्ञता प्रकट कर रहा है कि तुम मुझे अपनी देवरानी बना लोगी।"

       सीता बोलीं, “इस वन में यदि तुम जैसी एक बहन मिलेगी, तो मैं भी तुमसे बात करके धन्य हो जाऊँगी।"


   "इस भाषा विषयक भाभी को.........मुझे मोद की आभा भी।" (77)

        व्याख्या :- लक्ष्मण मन ही मन खुश रहे कि 'भाभी को इस औरत के प्रति मेरे विचार तो अपरिचित नहीं हैं। फिर भी लक्ष्मण मुँह मोड़कर खड़े रहे। अब लक्ष्मण बोल उठे, “भाभी! इन व्यर्थ की बातों में क्या सार है ? इस हास्य-व्यंग्य में मुझे किसी प्रकार के हास्य-विनोद की झलक नहीं मिल रही है। "


     "तो क्या मैं विनोद करती हूँ........मेरे लिए निरन्तर रोती है।" (78)

       व्याख्या :- सीताजी बोली, "तब क्या मैं हँसी-मज़ाक करती हूँ? भातृप्रेमी रहते हुए भी तुम क्यों सूखते जा रहे हो? अब तुम्हारे मन में सदा उर्मिला की चिंता तुम्हें सताती है कि कहीं उर्मिला मेरे लिए निरंतर रोती बैठी होगी।"


   "तो मैं कहती हूँ, वह मेरी यही ध्यान में लाती हैं।" (79)

       व्याख्या :- सीताजी आगे बोलती हैं- "तो दावे के साथ कहती हूँ वह मेरी बहन तुम्हें दोषी नहीं कहेगी ऊपर से तुम्हारे सुखी रहने की खबर सुनकर उसे संतोष होगा। हम लोग अपने प्रियतम से प्रेम करके सुखी रहती हैं। वे हमारे लिए सर्वस्व हैं, ऐसा विचार करके हम संतुष्ट हो जाती हैं।


   जो वर माला लिए, आप ही ......उससे भी ऐसा बर्ताव ? (80)

      व्याख्या :- सीताजी लक्ष्मण से पूछने लगती हैं, “एक सुंदरी, जो स्वेच्छा से अपने हाथ में वर-माला लिये तुम्हारा वरण करने के लिए आयी है, नारी सुलभ लज्जा को त्यागकर, तुम्हें अपना तन, मन और धन अर्पण करने का प्रस्ताव लेकर आयी है, ऐसी नारी के साथ तुम्हारा यह निर्मम व्यवहार क्या उचित है ?"


   मुसकाये लक्ष्मण फिर बोले.....देख उटज की ओर कहा- (81)

      व्याख्या :- मुस्कुराते हुए लक्ष्मण उत्तर देने लगे, "इस प्रस्ताव को मैं किस मन से ठीक कहूँ। अपने सुख दुख सहने में फिर कैसे मैं अपने सुख-दुख का अनुभव कर सकता है।" तब सीताजी अपनी गरदन को मोड़ते हुए कहा, अच्छा! तब ज़रा ठहरो। (भाभी को रामचंद्रजी की ओर मुड़ते हुए देखकर) लक्ष्मण अरे। अरे! भाभी! कहने लगे और इतने में सीता ने श्रीरामचंद्र को बुला लिया।


  "आर्य पुत्र उठकर तो देखा,....दिखलाई निज नर-झाँकी ।" (82)

       व्याख्या :- आज प्रातः काल की कितनी शोभा है। श्रीरामचंद्र से कहा कि "आर्यपुत्र! जरा उठकर तो देखो! आज का प्रातःकाल कितना सुहावना है! यहाँ यह नारी स्वयं सिद्धि बनकर भाई की वधू के रूप में शृंगार करके द्वार पर खड़ी है ।" तुरंत जैसे ही श्रीराम कुटी से बाहर आये, तो क्षणभर के लिए उनके श्यामल रूप सौंदर्य पर मुग्ध हुई जैसी खड़ी रही। ऐसा लगा, मानो शस्य श्यामला धरती अपने सौंदर्य को इस पुरुष के रूप में प्रकट करती हो ।


    किंवा उतर पड़ा अवनी पर.....छिपा लिया सब ओर समेट। (83)

      व्याख्या :- अथवा यह सौंदर्य इस पृथ्वी पर कामरूप के किसी धन या किसी देवता का अवतरण है? इसमें एक अपूर्व ज्योति है और जीवन का गहरापन भी है। सुंदरी शूर्पणखा ने रामचंद्र के चरणों पर नतमस्तक होकर उनसे भेंट करने का दृश्य देखा तो ऐसा लगा मानो चंद्रक्रोध से अपने आपको मेघों में छिपा लिया हो।


    सीता बोलीं- “नाथ, निहारो.........सुनते नहीं नम्र विनती ? (84)

         व्याख्या :- सीता बोलीं, "हे प्रभु! देखो, यह अवसर अपूर्व है। तुम्हारे प्राणों से प्यारे भाई का तप देखकर देवेंद्र भी हिल गया और मान लिया कि इसके सामने इंद्र पद भी तुच्छ है। किंतु ये अप्सराओं की नम्र विनती को भी क्यों न सुनते ?


    तुम सबका स्वभाव ऐसा ही........मानों कुण्ठित कर डाला।।" (85)

      व्याख्या :- सीता आगे कहने लगीं, “तुम पुरुषों का स्वभाव ऐसा ही निराला है। अन्यथा घर आयी लक्ष्मी को कौन लौटा देगा? लो! उस सुंदरी का चेहरा उतर गया है। हाथ में वरमाला लेकर स्वयंवर के लिए खड़ी है। परंतु लग रहा है देवर लक्ष्मण ने अपना मुँह मोड़ लिया है।


    मुसकाकर राघव ने पहले........क्या चन्दन है, कुंकुम क्या! (86)

       व्याख्या :- रामचंद्र मुस्कुराते हुए पहले अपने छोटे भाई की ओर और बाद में इस सुंदरी की ओर देखकर कहने लगे, मानो मोर बोलने लगा हो। "हे शुभे ! पहले बताओ कि तुम कौन हो और चाहती क्या हो?" उनके मीठे शब्द सुनते ही शूर्पणखा का चेहरा खिल उठा। उसके सामने चंदन और कुंकुम नगण्य हो गये।


     बोली वह पूछा तो तुमने...... प्रकट हो चुका निश्चय है। (87)

     व्याख्या :- रमणी बोलने लगी, आपने तो पूछा कि मैं क्या चाहती हूँ। आपका यह रूप सौंदर्य भी कितना मोहक है। इन दाँतों और अधरों के आगे भला सफ़ेद मोती और मूँगा भी किस मूल्य के हैं? मैं कौन हूँ, इस प्रश्न का उत्तर मेरी वेश-भूषा से पता चल जाता है और चाहती क्या हूँ, यह भी निश्चय ही प्रकट हो चुका है।


    जो कह दिया, उसे कहने में.......दाव-पेंच या घात नहीं ।। (88)

      व्याख्या :- जो उत्तर मैंने पहले ही दे दिया है, उसे दुहराने में मुझे कोई संकोच नहीं और मेरे भावी जीवन की भी मेरी कोई योजना नहीं। मन में कुछ छिपाये रखते हुए बाहर के लिए कुछ और कहने की बात मुझमें है ही नहीं। मुझमें अमोघ और सहज शक्ति है। दाव-पेंच अथवा छल-कपट मैं नहीं जानती।


  "मैं अपने ऊपर अपना ही...... उनसे आप डरूंगी क्या ?" (89)

      व्याख्या :- शूर्पणखा आगे बोलती है- “मैं हमेशा अपने ऊपर अधिकार रखती हूँ। अपनी इच्छा के अनुसार जहाँ जाना चाहती चली जाती हूँ। मैं समय-असमय का विचार नहीं करती। किसी प्रकार की बाधा का भय नहीं। बाधाएँ स्वयं मुझसे डरती हैं। उनसे मैं क्यों डरूँ ?

    शूर्पणखा अपना तामसी गुण परोक्ष रूप से प्रकट करती है।


   अर्द्धयामिनी होने पर भी........भाव- सिन्धु में पैठे हैं। (90)

    व्याख्या :- आधी रात होने पर भी मेरे मन में बाहर घूम आने की इच्छा हुई और मैं इस वन में विहार करते आयी। मैंने यहाँ आकर आपके प्राणानुज को बैठे हुए देखा कि ये ऊपर शिला पर इस तरह बैठे हैं, जैसे विचारों के सागर में डुबकियाँ ले रहे हों।

      भाव सिन्धु विचारों का सागर (रूपक अलंकार)


    सत्य मुझे प्रेरित करता है,.......मुग्ध, लुब्ध कर सका नहीं ।। (91)

     व्याख्या :- शूर्पणखा कहती है, “मुझे सत्य की प्रेरणा मिल रही है कि मैं अब आपके सामने सच्ची बात की घोषणा कर दूँ। लक्ष्मण को देखकर मैं मुग्ध हुई और सोचा कि मैं अपना मन समर्पित कर दूँ। जो मन समर्पित हो चुका है, वह बहुत मूल्यवान है। उसे अब तक कोई भी चंचल नहीं कर सका और मोहित भी नहीं कर सका। कोई ललचा भी नहीं सका। ऐसा मन इनके सामने मैं स्वयं समर्पित कर चुकी हूँ।


    इन्हें देखती हुई आड़ में.........भेंट इन्हें देने आई ।। (92)

       व्याख्या :- शूर्पणखा रामचंद्र से आगे कहती है, "मैं बहुत समय से आड़ में छिपकर इनको देखती खड़ी रही। किस प्रकार की मनोदशा में मैं बेचैन रही, वह कैसे बतलाऊँ ? मन के प्रेमपूर्ण भावों से भरे सुमनों से एक माला बनाकर लायी थी। इस माला के बहाने इन्हें भेंट करने सामने आ गयी।"


   परये तो बस- 'कहो कौन तुम?"........छोटे रहते हैं छोटे। (93)

     व्याख्या :- शूर्पणखा आगे कहने लगी कि इस महाशय ने मुझे देखकर प्रश्न कर दिया कि- तुम कौन हो ? इतना भी नहीं कि तुम क्या चाहती हो, जैसे अभी आपने पूछा। आप दोनों या तो अच्छे होंगे अथवा बुरे होंगे। एक बात तो सच ही है कि बड़े हमेशा बड़े ही होते हैं और छोटे हमेशा छोटे ।


   तुम सबका यह हास्य भले ही........इनमें एक कड़ाई है। (94)

       व्याख्या :- शूर्पणखा कहती है, अजी! यद्यपि तुम सभी बातों में हास्य-व्यंग्य करते हो और मेरी हँसी मज़ाक उड़ाते हो, फिर भी मेरे मन में अपने अनुभव और अपने विचारों पर दृढ़ विश्वास है। तुम मेरी बात भी सुन लो। तुम बड़े हो, और इसलिए तुममें बड़प्पन है। दृढ़ता और साथ-साथ कोमलता भी है। तुम्हारे इस छोटे भाई में सिर्फ़ कड़ाई है।


    पहनो कान्त। तुम्हीं यह मेरी .......... सुख भोगोगे मेरे संग । (95)

      व्याख्या :- शूर्पणखा धीरे-धीरे अपने छल-भरे मन का उद्घाटन करती है। हे पुरुष! मेरी यह वरमाला तुम्ही पहन लो! तुम्हारी यह पर्णकुटी राजमहल बन जाएगा। मुझे ग्रहण कर लोगे, तो इस नारी (सीताजी) के कटाक्ष को बिलकुल भूल जाओगे। मेरे साथ रहने से सुमेरु और कैलाश पर्वत पर भी सुख भोगोगे।


     मुसकाई मिथिलेशनन्दिनी.......पकड़ प्रकोष्ठ पकड़ लेना ।। (96)

       व्याख्या :- मिथिलेशनन्दिनी सीताजी मुस्कुरायीं और अपने उदार हृदय का परिचय देती है कि "यह अनोखी बात है। पहले तुमने मेरी देवरानी बनने का प्रस्ताव रखा और अब मेरी सौत बनना चाहती हो? ठीक है। मेरी प्रार्थना तुमसे इतनी है कि मेरे स्वामी के नित्य दर्शन करने के सौभाग्य से वंचित न करना। तुम्हारी इसी चाल को कहते हैं "उँगली पकड़कर प्रकोष्ठ पकड़ लेना।"


    रामानुज ने कहा कि "भाभी, .........यदि औरों के लिए लड़ो।" (97)

       व्याख्या :- राम के भाई लक्ष्मण ने कहा, "अरे भाभी, यह बात तुम्हें भी मालूम है न कि कभी दूसरों के झगड़े में नहीं पड़ना चाहिए? तुम तो पंचायत करने आई और इस छल में क्यों फँसती हो? यह सच ही है कि दूसरों की तरफ़दारी करने जो आगे बढ़ते हैं, उन्हें कुछ न कुछ नुकसान उठाना पड़ता ही है।"


    रामचन्द्र रमणी से बोले.........सपत्नीक में रहता हूँ (98)

       व्याख्या :- राम उस सुंदर युवती शूर्पणखा से बोल उठे : हे कल्याणी! तुम्हारी आकृति से ही तुम्हारे स्वाभाव का परिचय हो ही जाता है। मानता हूँ कि तुममें अद्भुत गुण छिप हुए हैं। एक बात मेरी भी तुम सुन लेना कि यद्यपि मैं अपना घर-बार छोड़कर यहाँ जंगल में वास कर रहा हूँ, तथापि अपनी पत्नी सहित रह रहा हूँ।


     किन्तु विवाहित होकर भी यह . .......   प्रबल प्रेम का दान दिया। (99)

        व्याख्या :- राघव आगे कहते हैं एक और बात भी सुन लेना, "यह मेरा भाई विवाहित होकर भी यहाँ अकेला ही है। उसने मेरी खातिर अपने स्वजनों की उपेक्षा की है। तुमने अभी-अभी इसका हठ और एकनिष्ठ स्वभाव देखा है, पर तुमने अपने तीव्र प्रेम-दान का प्रस्ताव उसीको किया है ।


     एक अपूर्व चरित लेकर जो............तुम सत्यता जना दोगी ।। (100)

        व्याख्या :- रामचंद्र अपनी बातों को बढ़ाते हुए बोलते हैं, जो कोई एक अपूर्व चरित्र और भी लक्ष्य से निकलकर उसमें सफलतापूर्वक काम करते हैं, वे ही दृढ़ निश्चयी कहलाकर अपार गौरव के पात्र बनते हैं। इससे भी बढ़कर तुम अपनी ओर उन्हें मोह लोगी, तो तुम अपनी बातों में व्यक्त किये गुणों की सत्यता सबके सामने सिद्ध कर पाओगी।


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Friday, March 19, 2021

PANCHAVATI/पंचवटी/ भावार्थ : 26-50

 

                      PANCHAVATI/पंचवटी/ 

                         भावार्थ : 26-50


स्वजनों की चिन्ता है हमको, होगा उन्हें हमारा सोच,

यहाँ एक इस विपन - वास में दोनों और रहा संकोच। 

सब सह सकता है, परोक्ष ही कभी नहीं सह सकता प्रेम, 

बस प्रत्यक्ष भाव में उसका रक्षित-सा रहता है क्षेम ।। 26

         लक्ष्मण सोचते हैं-वन में हमें सब तरह का सुख प्राप्त है। हाँ! अपने सगे संबंधियों की चिन्ता अवश्य सताती रहती है। उन्हें भी हमारा सोच रहता है। प्रेम सब कुछ सहन कर सकता है पर अपने प्रेम पात्रों का अपनी आँखों से दूर रहना (वियोग) कभी नहीं सह सकता । आँखों के सामने रहने में कुशल सुरक्षित-सा दीखता है। वियोग के समय अपने प्रियजनों के बारे में नाना प्रकार की भावनाएँ उठती रहती हैं।

       लक्ष्मण अपने स्वजनों के प्रति सहानुभूति और प्रेम प्रकट कर रहे हैं।


इच्छा होती है स्वजनों को एक बार वन ले आऊँ, 

और यहाँ की अनुपम महिमा उन्हें घुमाकर दिखलाऊँ। 

विस्मित होंगे देख आर्य को वे घर की ही भाँति प्रसन्न, 

मानो वन-विहार में रत हैं ये वैसे की श्रीसम्पन्न ।। 27

              लक्ष्मण सोचते हैं - कभी-कभी यह इच्छा होती है कि एक बार अपने स्वजनों को वन ले आऊं और यहाँ की अनुपम शोभा उन्हें घुमाकर भली-भांति दिखाऊँ। वे लोग आर्य राम को यहाँ घर जैसा ही प्रसन्न देखकर विस्मित हो जाएँगे। शायद वे यह अनुमान लगा लेंगे कि श्रीराम वन विहार के लिए आए हैं। (वनवास के लिए नहीं।) अर्थात् यहाँ श्रीराम वैसे ही शोभा संपन्न है जितने अयोध्या में युवराज के रूप में थे।

          कवि यहाँ स्पष्ट रूप से दिखाते कि कष्टों और अभावों के बीच में भी मनुष्य सुखी-संपन्न रह सकता है। सचमुच लक्ष्मण विचारशील हैं ।


यदि बाधाएँ हुई हमें तो उन बाधाओं के ही साथ, 

जिससे बाधा-बोध न हो, वह सहनशक्ति भी आयी हाथ । 

जब बाधाएँ न भी रहेंगी तब भी शक्ति रहेगी यह, 

पुर में जाने पर भी वन की स्मृति अनुरक्ति रहेगी यह ।। 28

          लक्ष्मण सोचते हैं यह सच है कि वनवास के समय हमें बहुत-सी विपत्तियों का सामना करना पड़ा। इससे हमारा भला ही हुआ कि इन कष्टों को सहने और सामना करने के लिए बल भी मिला। कुछ दिनों में हमारा वनवास पूरा होगा अयोध्या लौटने पर कष्ट तो नहीं रहेंगे पर सहन-शक्ति तो बनी रहेगी। हम वन का स्मरण और प्रेम नहीं भूल सकते।

          सच ही है कि जीवन में जितनी कठिनाइयाँ आती हैं उतना ही मनुष्य का आत्मिक विकास होता है।

तुलना :

          वेदने तू भली बनी। (साकेत-गुप्त)


नहीं जानती हाय । हमारा माताएँ आमोद-प्रमोद, 

मिली हमें है जितनी कोमल, कितनी बड़ी प्रकृति की गोद। 

इसी खेल को कहते हैं क्या विद्वज्जन जीवन-संग्राम?

तो इसमें सुनाम कर लेना है कितना साधारण काम । 29

         हमारी माताएँ तथा अन्य नगरवासी यह नहीं जानते होंगे कि प्रकृति की गोद में हमें कितना आनंद मिलता है। क्या इसी जीवन को लोग जीवन-संग्राम कहते हैं? यह तो मामूली खेल - सा है।

        यदि विद्धान लोग इसी खेल को जीवन-संग्राम की संज्ञा देते हैं तो इस पर विजय करके यश कमाना कितना आसान है।

         लक्ष्मण के विचार दार्शनिक हैं।


बेचारी उर्मिला हमारे लिए व्यर्थ रोती होगी, 

क्या जाने वह, हम सब वन में होंगे इतने सुख-भोगी 

" मग्न हुए सौमित्र चित्र-सम नेत्र निमीलित एक निमेव, 

फिर आँखें खोलें तो यह क्या अनुपम रूप, अलौकिक वेश। 30

         स्वजनों की चर्चा करते हुए लक्ष्मण को अपनी पत्नी ऊर्मिला की याद आ गयी।

         बेचारी ऊर्मिला सोचती होगी कि हम वन में कितने कष्ट पा रहे होंगे । वह भोली क्या जाने कि हम कितना सुख और आनंद पा रहे हैं। ऊर्मिला के स्मरण में पल भर के लिए पलकें बंद कर लक्ष्मणा मग्न और चित्रवत हो गये जब पलकें खुली तो देखते हैं कि सामने अपूर्व रूप लावण्यवाली विलक्षण वस्त्रभूषण धारिणी एक युवती खडी है।

        लक्ष्मण वीर ही नहीं बल्कि सहृदय भी है।


चकाचौंध-सी लगी देखकर प्रखर ज्योति की वह ज्वाला, 

निसंकोच खड़ी थी सम्मुख, एक हास्यवदिनी बाला। 

रत्नाभरण भरे अंगों में ऐसे सुन्दर लगते थे ज्यों

प्रफुल्ल वर्ली पर सौ-सौ जुगनू जगमग जगते थे। 31

        कवि शूर्पणखा के रूप सौंदर्य की चर्चा करते हैं।

        लक्ष्मण ने जब आँखें खोलीं तो अपने सम्मुख एक हंसती हुई सुन्दरी को निस्संकोच खडे देखा। उसकी अलौकिक सुन्दरता की ज्वाला देखकर लक्षमण चकित हो गए। उनकी आँखों में चकाचौंध सी लग गयी। शूर्पणखा के शरीर पर रत्नों के आभूषण ऐसे लग रहे थे मानों खिली हुई लता पर सौ-सौ जुगनू जगमगा रहे हैं।

         शूर्पणखा के सौंदर्य का आलंकारिक चित्रण है। कवि ने उपमा अलंकार के आश्रय से शूर्पणखा को बेल और रत्नों को जुगनू कहा है।


थी अत्यन्त अतृप्त वासना दीर्घ हगों से झलक रही, 

कमलों की मकरन्द-मधुरिमा मानो छवि से झलक रही। 

किन्तु दृष्टि थी जिसे खोजती मानो उसे पा चुकी थी, 

भूली-भटकी मृगी अन्त में अपनी ठौर आ चुकी थी। 32

           शूर्पणखा के विशाल नेत्रों से उसकी अतृप्त वासना टपक रही थी। उसके रूप में कमल के पराग जैसी मधुरिमा थी। ऐसा प्रतीत होता था कि वह जिसे रही थी उसे उसने पा लिया है। वह एक भूली-भटकी हिरणी के समान थी जो आखिर अपने ठीक स्थान पर पहुँच गयी हो।

         शूर्पणका के हृदयगत तामसी वृत्ति का चित्रण मिलता है।


कटि के नीचे चिकुर-जाल में उलझ रहा था बायाँ हाथ, 

खेल रहा हो ज्यों लहरों से लोल कमल भौरों के साथ। 

दायाँ हाथ लिये था सुरभित- चित्र-विचित्र-सुमन-माला, 

टाँगा धनुष कि कल्पलता पर मनसिज ने झूला डाला।।   33

        उस सुन्दरी के लंबे काले सुन्दर बाल कमर के नीचे घुटनों

        तक फैले हुए थे। उसमें उलझा हुआ उसका बायां हाथ ऐसा शोभित होता था मानों लहरों के कारण हिलता हुआ (चंचल) कमल भौरो के साथ क्रीडा कर रहा हो। उसके दाहिने हाथ में अनेक रंगों के चित्रविचित्र सुन्दर सुगंधित पुष्पों की माला थी जिसे देखकर संदेह होने लगता था कि यह कामदेव का लटकाकर रखा हुआ सुन्दर पुष्प-धनुष है या कामदेव के द्वारा कल्पलता पर डाला हुआ झूला है।

      इसमें उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकार का सुन्दर प्रयोग हुआ है।


पर सन्देह-दोल पर ही था लक्ष्मण का मन झूल रहा, 

भटक भावनाओं के भ्रम में भीतर ही था भूल रहा। 

पड़े विचार-चक्र में थे वे, कहाँ न जाने कूल रहा, 

आज जागरित-स्वप्न-शाल यह सम्मुख कैसा फूल रहा।  34

            लक्ष्मण का मन संदेह रूपी झूले पर झूल रहा था। वह विभिन्न प्रकार की भावनाओं के चक्कर में पड़कर अंदर ही अंदर भूलने भटकने लगा। वे विचारों के भंवर में डूबते जा रहे थे। सोचते थे-यह रमणी कौन है? इस भयंकर वन में ऐसे समय यहाँ क्यों आयी? इसे इस प्रकार घूमने का साहस ही कैसे हुआ? उनके विचारों की नदी का कोई किनारा ही नहीं दीखता था सोचते थे कि आज मेरे सामने जाग्रत अवस्था में स्वप्न रूपी यह शाल वृक्ष कैसे पुष्पित हो रहा है?


देख उन्हें विरिमत विशेष वह सुस्मितवदनी ही बोली 

(रमणी की मूरत मनोज्ञ थी किन्तु न थी सूरत भोली) 

"शूरवीर होकर अबला को देख सुभग तुम थकित हुए; 

संसृति की स्वाभाविकता पर चंचल होकर चकित हुए। 35

           लक्ष्मण को अत्यंत विस्मय में मग्न देखकर मुस्कुराती हुई बोली - (यद्यपि उसका शरीर अत्यंत सुन्दर था पर उसके चेहरे में सरलता न दिखाई देती थी।) हे सुन्दर युवक! तुम तो बडे शूर-वीर हो। फिर तुम एक साधारण अबला को देखकर क्यों हैरान हो रहे हो? सृष्टि के स्वाभाविक सौंदर्य देखकर तुम क्यों विस्मित और अधीर हो रहे हो?

          यहाँ शूर्पणखा की निर्लज्जता स्पष्ट होती है।


प्रथम बोलना पड़ा मुझे ही, पूछी तुमने बात नहीं, 

इससे पुरुषों की निर्ममता होती क्या प्रतिभात नहीं?

" संभल गये थे अब तक लक्ष्मण वे थोड़े से मुसकाये, 

उत्तर देते हुए उसे फिर निज गंभीर भाव लाये 

            अपने सामने खडी हुई मुझे देखकर तुम ने कोई बात तक न पूछी। पहले मुझे ही तुमसे बोलना पड़ा। क्या इस आचरण से पुरुष की निर्दयता प्रकट नहीं होती? विचारों के प्रवाह में बहते हुए लक्ष्मण अब तक संभल चुके थे । उनके मुख पर थोडी मुस्कुराहट दिखाई दी। उस युवती के प्रश्नों का जवाब देते हुए उन्होंने फिर अपना स्वाभाविक गंभीर भाव धारण किया


"सुन्दरि, मैं सचमुच विस्मित हूँ तुमको सहसा देख यहाँ, 

दलती रात, अकेली अबला, निकल पड़ी तुम । 

कौन कहाँ? पर अबला कहकर अपने को तुम प्रगल्भता रखती हो, 

निर्ममता निरीह पुरुषों में निस्सन्देह निरखती हो। 37

            लक्ष्मण बोले- हे सुन्दरी! तुमको अचानक इस तरह देखकर मैं वास्तव में विस्मित ही हूँ। यह रात का आखिरी पहर है। ऐसे समय में अकेली आनेवाली युवती तुम कौन हो? कहाँ जा रही हो? तुम अपने को अबला कहती हो पर तुम में बड़ी चतुराई और साहस हैं। तुमको मुझे जैसे कामना रहित निस्पृह पुरुषों में कठोरता अवश्य दिखाई देती है।

            यहाँ शूर्पणखा के चरित्र का सहज उद्घाटन है।


पर मैं ही यदि परनारी से पहले सम्भाषण करता, 

तो छिन जाती आज कदाचित् पुरुषों की सुधर्मपरता । 

जो हो, पर मेरे बारे में बात तुम्हारी सच्ची है, 

चण्डि, क्या कहू तुमसे मेरी ममता कितनी कच्ची है। । 38

            लक्ष्मण बोले-मगर तुम पर-स्त्री हो। अगर मैं ही पहले तुमसे बोलता तो शायद पुरुषों की सच्ची धर्मपरायणता भंग हो जाती। (अब तुम मुझे निर्मम कहती हो तब अधर्मी कहती ।) चाहे जो भी हो, मेरे संबंध में तुम्हारा यह कहना बिलकुल ठीक ही है कि तुम पर मेरे मन में ममता का भाव बहुत ही कच्च है।

          शूर्पणखा के लिए "चंडी" का संबोधन बहुत आकर्षक है।


माता, पिता और पत्नी की, धन की, धाम-धरा की भी, 

मुझे न कुछ भी ममता व्यापी जीवन परम्परा की भी। 

एक-किन्तु उन बातों से क्या, फिर भी हूँ मैं परम सुखी, 

ममता तो महिलाओं में ही होती है हे मंजुमुखी ॥ 39

        वास्तव में मैं बडा ही निर्मम हूँ। माता, पिता, पत्नी, धरबार, धन, संपत्ति आदि किसी की ममता या मोह मुझे नहीं है। मुझे अपने जीवन पर भी ममता नहीं है। हाँ, एक बात की ममता अवश्य है। लेकिन उन सब बातों की चर्चा अनावश्यक है। यद्यपि मैं ममता शून्य हूँ फिर भी अत्यंत सुखी हूँ। हे सुन्दरी! ममत्व तो स्त्रियों में ही अधिक होती है । (वह रित्रयों को ही शोभा दती है ।)

      लक्ष्मण का उच्च आदर्शवाद स्पष्ट है।


शूरवीर कहकर भी मुझको तुम जो भीरु बताती हो, 

इससे सूक्ष्मदर्शिता ही तुम अपनी मुझे जताती हो। 

भाषण-भंगी देख तुम्हारी हाँ, मुझको भय होता है, प्रमदे, 

तुम्हें देख वन में यों मन में संशय होता है। 40

           तुम शूर -वीर कहकर मेरी प्रशंसा भी कर रही हो साथ ही कायर भी कहती हो । तुम अपनी बातों में बडी बुद्धि-सूक्ष्मता प्रदर्शित करती हो। हाँ, तुम्हारे वार्तालाप की रीति देखकर मेरे मन में शंका हो रही है कि तुम्हारा मन साफ नहीं है। हे युवती! इस तरह इस भयंकर वन में अकेली आयी हुई तुम्हें देखकर मेरा अवश्य ही शंकित है।

         लक्ष्मण की शंका बिलकुल सही है। लक्ष्मण की बुद्धि-सूक्षमता  प्रकट होती है।


कहूँ मानवी यदि मैं तुमको तो वैसा संकोच कहाँ? 

कहूँ दानवी तो उसमें है यह लावण्य कि लोच कहाँ? 

वनदेवी सम तो वह तो होती है भोली-भाली, 

तुम्ही बताओ कि तुम कौन हो हे रंजित रहस्यवाली?" 41

           मैं तुम्हें मानवी नहीं मान सकता, क्योंकि तुम में लज्जा नहीं, यदि दानवी कहूँ तो वह भी ठीक नहीं लगता, क्योंकि दानवों में ऐसा लावण्य और शारीरिक सौंदर्य नहीं। तुम्हें वन देवी समझना भी भूल होगी, क्योंकि वन देवी सरल हृदया होती है। सो हे रहस्यमयी रमणी! तुमहीं बताओ कि वास्तव में तुम हो कौन?

        कवि ने यहाँ नाटकीय शैली अपनायी है। संदेह अलंकार का प्रयोग हुआ है। 


"केवल इतना कि तुम कौन हो" बोली वह-"हा निष्ठुर कांत।

यह भी नहीं चाहती हो क्या कैसे हो मेरा मन शान्त? 

मुझे जान पड़ता है, तुमसे आज छली जाऊँगी मैं; 

किन्तु आ गयी हूँ जब तब क्या सहज चली जाऊँगी मैं? 42

         लक्ष्मण की बात सुनकर शूर्पणखा ने निराशा भरी लंबी सांस ली और कहा-हे प्यारे! तुम्हारा रूप कितना मनोहर और हृदय कितना कठोर है । तुम बडे निहुर हो । तुमने केवल यही पूछा "तुम्ही बताओं कि तुम कौन हो?" यह नहीं पूछा कि "तुमको चाहिए क्या?" अगर तुम इतना पूछते तो मेरे मन को कुछ आशा होती अब मेरे मन को शांति कैसे मिलेगी? आज शायत मैं ठगी भी जाऊँगी। जब तुम्हारे पास आ ही गयी तब आसानी से नहीं चली जाऊँगी।

        यहाँ शूर्पणखा की वासनावृत्ति का पता चलता है।


समझो मुझे अतिथि ही अपना कुछ आतिथ्य मिलेगा क्या? 

पत्थर पिघले, किन्तु तुम्हारा तब भी" हृदय हिलेगा क्या?" 

किया अधर-दंशन रमणी ने लक्ष्मण फिर भी मुस्काये, 

मुसकाकर ही बोले उससे - "हे शुभ मूर्तिमती माये। 43

        शूर्पणखा आत्म-निवेदन करती हुई लक्ष्मण से प्रेमाग्रह करती है।

         हे निठुर! मुझे तुम अपना अतिथि ही समझो। फिर शूर्पणखा को लक्ष्मण के आतिथ्य-सत्कार में संदेह है। वह आगे कहती है "पत्थर तो पिघल सकता है पर तुम्हारा हृदय नहीं । यह मेरा पूर्ण विश्वास है। इतना कहकर रमणी ने अपने ओंठ काट लिए। मुस्कुराकर लक्ष्मण बोले - हे मंगल की साकार मूर्ति-सी मालूम होनेवाली माये।

तुलना :

        माया महा ठगिनी हम जानी। (कबीरदास)

तुम अनुपम ऐश्वर्यवती हो, एक अकिंचन जन हूँ मैं, 

क्या आतिथ्य करुं, लज्जित हूँ, वन-वासी, निर्धन हूँ मैं !

" रमणी ने फिर कहा कि "मैने भाव तुम्हारा जान लिया, 

जो पैन तुम्हें दिया है विधि ने देवों को भी नहीं दिया। 44

         लक्ष्मण बोले -तुम्हें देखने से ही मालूम है कि तुम अनुपम वैभवशालिनी हो। मैं दरिद्र वनवासी हूँ। मैं क्या आतिथ्य कर सकता हूँ? मैं अपनी असमर्थता पर लज्जित हूँ। यह सुनकर सुन्दरी बोली तुम्हारा अभिप्राय जान लिया। तुम अपने को धनहीन कह रहे मैने हो। मैं तुमसे-कोई धन नहीं मांगती। सृष्टिकर्ता ने तुम्हें जो धन (अनुपम सौन्दर्य) प्रदान किया है, वह देवताओं के पास भी नहीं।

        शूर्पणखा की वाक्पटुता और कार्यकुशलता आश्चर्यजनक है।


किन्तु विराग भाव धारणकर बने स्वयं यदि तुम त्यागी 

तो ये रत्नाभरण वार दूं तुम पर मैं हे बड़भागी। 

धारण करुं योग तुम-सा ही भोग - लालसा के कारण, 

वर कर सकती हूँ मैं यों ही विपुल-विघ्न-बाधा वारण ॥ 45

          शूर्पणखा पुन : आत्म निवेदन करती है आश्चर्य की बात है कि इतने हसीन होते हुए भी अपने को त्यागी कहते हो। हे भाग्यशाली! में तुम्हारे लिए समस्त रत्नाभरणों को न्यौछावर कर सकती हैं। अपनी वासना की पूर्ति के लिए मैं तुम्हारे जैसे योग भी धारण कर सकती हूँ। लेकिन तुम्हें योग धारण करने की क्या आवश्यकता है? जितने तुम्हारे कष्ट हैं मैं उनका निवारण कर दूंगी। तुम मुझे अपनी इच्छा बताओ।

         शूर्पणखा की वाक्पटुता मनोवैज्ञानिक है।


इस व्रत में किस इच्छा से तुम व्रती हुए हो, बतलाओ? 

मुझमें वह सामर्थ्य है कि तुम जो चाहो सो सब पाओ। 

घन की इच्छा हो तुमको तो सोने का मेरा भू-भाग, 

शासक भूप बनो तुम उसके, त्यागो यह अति विषम विराग! 46

       शूर्पणखा लक्ष्मण से पूछती है - तुमने किस अभिलाषा की पूर्ति के लिए यह व्रत धारण किया है? अपने मन की अभिलाषा बताओ। मुझमें ऐसी शक्ति है कि मै तुम्हारी इच्छा पूर्ण कर सकती हूँ। अगर तुम्हें धन एश्वर्य की अभिलाषा हो तो कहो मैं अपने सोने का प्रदेश (लंका) दे दूंगी और तुम्हें उसका राजा बनाऊंगी। इस अतयंत कठोर वैराग्य को छोड दो।

       शूर्पणखा की व्यवहार कुशलता यहाँ स्पष्ट है।


और, किसी दुर्जय वैरी से, लेना है तुमको प्रतिशोध, 

तो आज्ञा दो, उसे जला दे कालानल-सा मेरा क्रोध। 

प्रेम-पिपासु किसी कान्ता के तपस्कूप यदि खनते को, 

तो सचमुच ही तुम भोले हो, क्यों मन को यों हनते हो। 47

            शूर्पणखा लक्ष्मण से कहती है यदि तुम्हें अपने किसी शक्तिशाली शत्रु से बदला लेना है तो तुम आज्ञा दो मेरी काल रूपी क्रोधाग्नि उसे जला डालेगी। यदी किसी प्रेमिका की प्यास में तपकर यह कुआँ खोद रहे हो तो तुम सचमुच भोले हो। तुम अपने मन को क्यों इस तरह मार रहे हो?


अरे, कौन है, वार न देगा जो इस यौवन-धन पर प्राण? 

खोओ इसे न यों ही हा हा! करो यत्न से इसका त्राण। 

किसी हेतु संसार भार-सा देता हो यदि तुमको ग्लानि, 

तो अब मेरे साथ उसे तुम एक और अवसर दो दानि!" 48

          लक्ष्मण के रूप की प्रशंसा करती हुई शूर्पणखा कहती है - तुम्हारे इस अनुपम यौवन धन पर अपने प्राणों को न्यौछावर न कर देनेवाली मूर्ख कौन होगी? तुम इस अमूल्य धन को वैराग्य और तप द्वारा नए मत करो प्रयत्नपूर्वक सावधानी से इसकी रक्षा करो। यदि यह संसार तुम्हें भार स्वरूप लगता है तो है दानी मुझे एक मौका और दो। मेरे साथ इस संसार में प्रवेश करो और देखो कि संसार तुम्हें कितना सुख और आनंद पहुँचायेगा।

         गुप्तजी ने नारी हृदय की ईर्ष्या की अभिव्यक्ति की है।


लक्ष्मण फिर गंभीर हो गये, बोले-"धन्यवाद, धन्ये! 

लालना सुलभ सहानुभूति है निश्चय तुममें नृपकन्ये । 

साधारण रमणी कर सकती है ऐसे प्रस्ताव कहीं?

पर मैं तुमसे सच कहता हूँ, कोई मुझे अभाव नहीं । ।"

               शूर्पणखा का निवेदन सुन्कर लक्ष्मण फिर गंभीर होकर बोले हे धन्ये! तुम्हारी इस सहानुभूति के लिए धन्यवाद । तुम्हारी यह भावना नारी सुलभ है। तुम अवश्य ही राजकुमारी हो, क्योंकि कोई साधारण स्त्री इतनी सुन्दर और स्पष्ट भाषा में प्रेम-प्रस्ताव नहीं कर सकती। लेकिन मै सच ही कहता हूँ कि मुझे किसी प्रकार की कमी नहीं है।


"तो फिर क्या निष्काम तपस्या करते हो तुम इस वय में ? 

पर क्या पाप न होगा तुमको आश्रम के धर्म्मक्षय में ? 

मान लो कि वह न हो, किन्तु इस तप का फल तो होगा ही, 

फिर वह स्वयं प्राप्त भी तुमसे, क्या न जायगा भोगा ही ? 50

             शूर्पणखा तर्क करती है - अगर तुम्हें किसी प्रकार की कमी नहीं है तो इस युवावस्था में क्यों निष्काम तपस्या कर रहे हो? क्या तुम्हें आश्रम की मर्यादा का भंग करने में पाप न लगेगा? यह उम्र गृहस्थाश्रम में रहने की है। तुम्हारा तप कामना रहित हो या कामना सहित, अवश्य उसका फल मिलेगा ही। क्या उसे स्वयं ही प्राप्त करके अकेले ही भोगना चाहते हो? (उस सुख को भोगने के लिए. तुम मुझे अपने साथ ले लो।)

           शूर्पणखा का शास्त्रीय ज्ञान यहाँ प्रकट होता है।

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PANCHAVATI/पंचवटी/ भावार्थ :1-25

 

                            पंचवटी

                                         - श्री मैथिलीशरन गुप्त



            पूर्वाभास

       पंचवटी काव्य की कथा प्रारंभ करने के पहले "पूर्वाभास" में कवि राम के वनगमन का कारण बताते हैं।


 पूज्य पिता के सहज सत्य पर वार सुधाम, धरा, धन को,

 चले राम, सीता भी उनके पीछे चली गहन वन को।

 उनके पीछे भी लक्ष्मण थे, कहा राम ने कि "तुम कहाँ?' 

 विनत वदन से उत्तर पाया "तुम मेरे सर्वस्व जहाँ।॥।" 1 

भावार्थ :

        मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र ने अपने सत्यवादी पूज्य पिता दशरथ के सत्य स्वभाव की रक्षा के लिए अयोध्या के सुन्दर राजभवन, साम्राज्य और धन वैभव को छोड़ दिया और जंगल की राह ली। सुकुमारी सीता भी उनके पीछे चल पड़ों। सीता के पीछे जब लक्ष्मण भी चलने लगे तो राम ने लक्ष्मण से पूछा-तुम कहाँ के लिए चल रहे । हो? नम्रता के साथ लक्ष्मण ने उत्तर दिया-मेरे सर्वस्व, तुम जहाँ रहे हो वहाँ।

विशेष :

       यहाँ राम की पितृ भक्ति, सीता का पति-प्रेम तथा लक्ष्मण का भ्रातृ-प्रेम चित्रित हैं। छेकानुप्रास एवं अनुप्रास अलंकारों का प्रयोग हुआ है और प्रश्नोत्तर शैली का सुन्दर विधान है।


सीता बोली कि “ये पिता की आज्ञा से सब छोड़ चले, 

पर देवर, तुम त्यागी बनकर क्यों घर से मुँह मोड़ चले?" 

उत्तर मिला कि “आर्थे, बरबस बना न दो मुझको त्यागी, 

आर्य - चरण - सेवा में समझो मुझको भी अपना भागी॥" 2

           लक्ष्मण की बात सुनकर सीताजी ने राम की ओर संकेत कर लक्ष्मण से कहा - हे देवर, ये तो पिताजी के आज्ञानुसार राजपाट छोडकर वनवास के लिए जा रहे हैं। तुम्हें तो वनवास की आज्ञा नहीं दी गयी। फिर तुम क्यों अनावश्यक वैराग्य धारण कर घर-बार छोडकर हमारे साथ आ रहे हो? उत्तर में लक्ष्मण ने कहा - तुम मुझे जबरदस्ती से त्यागी का वैरागी का पद मत दो। आर्य श्री रामचन्द्र की सेवा में मुझे भी अपना साझेदार समझो। तुमको भी वनवास की आज्ञा नहीं दी गयी थी। श्री राम की सेवा करने का अधिकार जिस तरह तुमको है, उसी तरह मुझे भी है।

         यहाँ सीता का ममतामय वात्सल्य रूप और लक्ष्मण की दास्य भक्ति व्यंजित है। "मुँह मोड चले" मुहावरा है । "त्यागी" में श्लेष अलंकार है।


"क्या कर्तव्य यही है भाई?" लक्ष्मण ने सिर झुका लिया, 

"आर्या, आपके प्रति इस जन ने कब कब क्या कर्तव्य किया?" 

"प्यार किया है तुमने केवल!" सीता यह कह मुसकाई, 

किन्तु राम की उज्जवल आँखें सफल सीप - सी भर आई। 3

           राम ने लक्षमण से पूछा - हे भाई, मेरी चरण-सेवा करना ही इस समय तुम्हारा कर्तव्य है? लक्ष्मण ने सिर झुकाकर कहा - हे आर्य, इस सेवक ने आपके प्रति करने लायक कर्तव्य का पालन कब किया? तब सीता ने मुस्कुराकर सविनोद कहा - तुमने तो केवल प्रेम किया है। लक्ष्मण की प्रेम और भक्ति भरी बातें सुनकर श्रीराम के नेत्र करुणाश्रुओं से इस प्रकार भर गये मानों सीपियों में मोती भर आये हों (राम की सीपियों जैसी आंखों में प्रेम और करूणा के आंसू मोतियों की तरह चमकने लगे।)

         श्रीराम के हृदय में अपने अनुज लक्ष्मण के प्रति अनन्य प्रेम व्यंजित है। अनुप्रास, पुनरुक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है। अंतिम पंक्ति उपमा अलंकार द्रष्टव्य है।


                                             पंचवटी

 चारू चन की चंचल किरणे खेल रही हैं जल-धल में, 

स्वच्छ - चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में। 

पुलक प्रकट करती है धरती हरित तृणों की नोकों से 

मानो झीम रहे हैं तरु भी मन्द पवन के झोंकों से।  1

        आकाश में शरद्काल का मनोहर चन्द्रमा निकला है। उसकी चंचल किरणें जल और स्थल में इस तरह लहराती हैं मानों उनके साथ खेल रही हो। ऐसा प्रतीत होता है मानों आकाश से पृथ्वी तक स्वच्छ, धवल चांदनी बिछी हुई हो। पृथ्वी हर अंकुरों के द्वारा अपना रोमांच प्रकट करती है। मन्द वायु के झोकों से हिलते हुए पेड ऐसे जान पड़ते हैं मानों आनंद में मस्त होकर झूम रहे हों।

        यहाँ प्रकृति के सुरम्य रूप का मनोहारी वर्णन हुआ है। वृतयानुप्रासे, छेकानुप्रास, मानकीकरण, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है। शैली चित्रमयी है।


पंचवटी की छाया में है सुन्दर पर्ण-कुटीर बना, 

उसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर धीर वीर निर्भीकमना, 

जाग सा यह कौन धनुर्धर जब कि भुवन भर सोता है?

भोगी कुसुमायुध योगी-सा बना दृष्टगत होता है। 2

          गोदावरी के तट पर पांचवट वृक्षों की छाया में पत्तों से निर्मित एक अत्यंत मनोहर कुटीर है। उसके सामने एक सफ- सुथरी शिला पर निर्भय मनवाला एक धीर-वीर पुरुष हाथों में धनुष-बाण लिये आसीन है। इस रात में जब सारा संसार सो रहा है तब जागते रहनेवाला यह युवक कौन है? यह अत्यन्त सुन्दर युवक योगी का वेष धारण किया हुआ कामदेव-सा दीख रहा है।

          इसमें लक्ष्मण की कर्तव्यनिष्ठा का वर्णन हुआ है। उपमा अलंकार का प्रयोग हुआ है। "भोगी और योगी" में विरोधाभास अलंकार है। संदेह अलंकार भी विद्यमान है।


किस व्रत में है व्रती वीर यह निद्रा का यों त्याग किये, 

राजभोग के योग्य विपिन में बैठा आज दिराग लिये। 

बना हुआ है प्रहरी जिसका उस कुटीर में क्या धन है? 

जिसकी रक्षा में रत इसका तन है, मन , जीवन है !  3

           ऐसे प्रशांत रात के समय में निद्रा को छोडकर यह वीर किस व्रत का पालन कर रहा है? इसका अत्यंत सुन्दर रूप तो राजभोग भोगने के लायक है फिर वैराग्य धारण कर वन में क्यों बैठा है? ऐसा सुन्दर वीर युक्त तन, और प्राण लगाकर इतनी तत्परता और जागरूकता से पहरेदार बनकर जिस कुटीर की रक्षा कर रहा है उस कुटीर में कौन-सा अलौकिक धन है?

          इन पंक्तियों में लक्ष्मण के दृढ संकल्प का वर्णन हुआ है।


मर्त्यलोक - मालिन्य मेटने स्वामि- संग जो आयी है, 

तीन लोक की लक्ष्मी ने यह कुटी आज अपनायी है। 

वीर-वंश की लाज यही है फिर क्यों वीर न हो प्रहरी ? 

विजन देश है, निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी।  4

          लक्ष्मी का अवतार जनक पुत्री जानकी पृथ्वी के पाप और दुख दूर करने अपने पति के साथ यहाँ आयी हैं त्रिभुवन की लक्ष्मी होकर भी उन्होंने इस पूर्ण कुटीर को अपने निवास स्थान बना लिया है। यह तो वीर रघुवंशियों की मर्यादा स्वरूपा हैं । इसलिए ही ऐसा अलौकिक वीर इस कुटीर का पहरेदार बना हुआ है। यह पहरा आवश्यक ही है क्योंकि यह प्रदेश निर्जन है। अभी रात का अंत नहीं हुआ। आसपास मायावी राक्षस घूमते रहते हैं। सावधान न रहें तो मायावी राक्षस न जाने क्या करेंगे।

         सीता के चरित्र का आदर्श रूप चित्रित हुआ है।


कोई पास न रहने पर भी जन-मन मौन नहीं रहता; 

आप आपकी सुनता है वह आप आपसे है कहता । 

बीच-बीच में इधर उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी, 

मन ही मन बातें करता है धीर धनुर्धर नयी नयी।  5

              मनुष्य का चंचल मन कभी चुप नहीं रहता । चाहे पास में कोई रहे या न रहे, पर मनुष्य का मन अपने आप से ही बातचीत या प्रश्नोत्तर करता रहता है। यही दशा उस समय लक्ष्मण की है। वह अपनी आनन्दमयी दृष्टि इधर-उधर डालकर मन ही मन अनेक प्रकार की नयी-नयी बातें कर रहा है।

           इन पंक्तियों में गुप्तजी ने इस मनोवैज्ञानिक सत्य का उद्घाटन किया है कि मनुष्य एकांत में भी चुप नहीं रहता ।


"क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा; 

है स्वछन्द सुमन्द गन्धवह, निरानन्द है कौन दिशा? 

बन्द नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप 

पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!  6

            वीरवर लक्ष्मण पंचवटी में पर्ण कुटीर के सामने शिला पर बैठे मन ही मन सोच रहा है - अभी! कैसी निर्मल चांदनी छिटक रही हैं। 1. कैसी निस्तब्ध रात्रि है! शीतल मन्द सुगन्ध वायु स्वच्छन्दता से बह रही है। सभी दिशाएँ आनंद से भरी है। यद्यपि सारा संसार निद्रामग्न है पर नियति नटी के कार्य-समूह में कोई शिथिलता नहीं है। उसका कोई भी काम नहीं रुका है। सभी काम शांत, मौन और एकांत भाव से अपने नियमानुसार कैसे चल रहे हैं।

            इसमें भाग्यवाद की ओर इशारा हुआ है।


है बिखेर देती वसुन्धरा मोती, सबके सोने पर, 

रवि बटोर लेता है उनको सदा सबेरा होने पर

और विरामदायिनी अपनी सन्धया को दे जाता है, 

शून्य श्याम-तनु जिससे उसका नया रूप छलकाता है। 7

         कवि लक्ष्मण के माध्यम से पंचवटी के सौन्दर्य का वर्णन करते हैं।

         जब सारा संसार निद्रामग्न हो जाता है तब पृथ्वी ओस रूपी मोतियों की वर्षा कर देती है प्रात: काल होते ही सूर्य अपनी किरणों द्वारा उन्हें एकत्रित कर लेता है और फिर उन्हें विश्राम देनेवाली संध्या का प्रदान कर देता है । इससे संध्या का शून्य श्याम शरीर अपने नये रूप में झलक उठता है। (प्रात: काल की ओस की बूंदें ही रात के समय नक्षत्र बन जाती हैं।)

         गुप्तजी ने बहुत ही अलंकृत रूप में प्रकृति को सजाया है।


सरल तरल जिन तुहिन कणों से हँसती हर्षित होती है; 

अति आत्मीया प्रकृति हमारे साथ उन्हीं से रोती है। 

अनजानी भूलों पर भी वह अदय दण्ड तो देती है, 

पर बूढों को भी बच्चों-सा सदय भाव से सेती है।  8

            कवि कहते हैं - प्रकृति और मनुष्य का संबंध पुराना है। जैसी मनुष्य की भावना होती है वह प्रकृति को उसी रूप में देखता है। प्रसन्न प्राणी को प्रकृति भी प्रसन्न दिखायी देती हैं; दुखी प्राणी को दुखी दिखायी देती है। सुख के क्षणों में ओस की बुँदें मोती प्रतीत होती हैं तो दुख के क्षणों में आंसू । प्रकृति कभी किसी के साथ पक्षपात नहीं करती । प्रकृति निष्ठुर भी है दयावती भी है। वह अज्ञानजन्य भूलों का भी दंड देती है, साथ-साथ वृद्धों की सेवा भी करती है। प्रकृति में समरसता है, समानता है, छोटे-बड़े सब उसकी दृष्टि में बराबर हैं।

           यहाँ प्रकृति का आलंबन रूप में चित्रण है।

तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात, 

वन को आते देख हमें जब आर्त अचेत हुए थे तात । 

अब वह समय निकट ही है जब अवधि पूर्ण होगी वन की, 

किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की?  9

           लक्ष्मण सोचने लगा - देखते-देखते तेरह साल बीत गए। हमारा वन को जाना देखकर पूज्य पिता का मुर्छित होना कल की घटी बात-सी लगती है। बहुत शीघ्र ही वनवास का समय पूरा होनेवाला है। लेकिन मुझे इससे क्या? मुझे तो अयोध्या जाने पर भी आर्य रामचन्द्रजी की सेवा से बढकर कौन-सा अधिक सौभाग्य प्राप्त हो सकता है?

         यहाँ राम के प्रति लक्ष्मण के अनन्यभाव का परिचय मिलता है।


और आर्य को, राज्य-भार तो वे प्रजार्थ ही धारेंगे,

व्यस्त रहेंगे, हम सबको भी मानो विवश विसारेंगे। 

कर विचार लोकोपकार का हमें न इससे होगा शोक; 

पर अपना हित आप नहीं क्या कर सकता है यह नरलोक। 10

           लक्ष्मण सोच-विचार में पड़ जाता है-श्री रामचन्द्र को वनवास के चौदह वर्ष बीतने पर राज्य का भार स्वीकार करना ही पडेगा । तब हमारी ओर अब की तरह ध्यान नहीं दे सकेंगे। लोकोपकार को ध्यान में रखने के कारण हमें उससे दुख न होगा मगर सोचने की बात यह है कि क्या मनुष्य-समाज अपना भला आप स्वयं नहीं कर सकता? क्या उसके लिए राजा की आवश्यकता बनी ही रहेगी?

          यहाँ लक्ष्मण के आदर्श रूप की झांकी मिलती है। लक्ष्मण स्वावलंबन पर बल देते हुए आधुनिक नेताओं पर आश्रित मनुष्य को सचेत करते हैं।


मंझली माँ ने क्या समझा था, कि "मैं राजमाता हूँगी, 

निर्वासित कर आय्र्य राम को अपनी जड़े जमा लूँगी"। 

चित्रकूट में किन्तु उसे ही, देख स्वयं करुणा थकती, 

उसे देखते थे सब, वह थी निज को हीन देख सकती ॥ 11

            लक्ष्मण मन ही मन सोचता है - मंझली माँ कैकेई ने सोचा था कि राम को वनवास देकर मैं राजमाता बनूँगी । परन्तु चित्रकूट में स्थिति बिलकुल परिवर्तित हो गयी थी। अब वह दया की प्रतिमूर्ति थी। अपने दुष्कृत्य पर इतनी लज्जित हो रही थी कि दूसरों को क्या स्वयं अपने को दृष्टि उठाकर नहीं देख सकी । पश्चाताप के कारण सिर नीचा हो गया था।

           इसमें भरत मिलाप के समय चित्रकूट में आयी हुई कैकई मनोदशा का वर्णन है।


अहो! राजमातृत्व यही था, हुए भरत भी सब त्यागी 

पर सौ सौ सम्राटों से भी हैं सचमुच वे बड़भागी। 

एक राज्य का मूड जगत् ने कितना महा मूल्य रक्खा, 

हमको तो मानो वन में ही है विश्वानुकूल्य रक्खा ।। 12

            कैकेई का यही राजमातृत्व था। बुरा सोचने का परिणाम बुरा ही होता है। किन्तु भरत का चरित्र महान है। वे सैकडों राजाओं से भी अधिक भाग्यशाली हैं जिन्होंने सर्वस्व त्याग कर राम-चरण सेवा को अपनाया है। यह संसार कितना मूर्ख है जो राज्य को अधिक महत्व देता है। हमें तो जंगल में ही मंगल है।

             लक्ष्मण ने कैकेई की भर्त्सना के साथ-साथ भरत के त्याग की प्रशंसा की है। ये पंक्तियां व्यंग्य से भरी हैं।


 होता यदि राजत्व मात्र ही लक्ष्य हमारे जीवन का, 

तो क्यों अपने पूर्वज उसको छोड़ मार्ग लेते वन का? 

परिवर्तन ही यदि उन्नति है तो हम बढ़ते जाते हैं, 

किन्तु मुझे तो सीधे सच्चे, पूर्व-भाव ही भाते हैं ॥  13

           लक्ष्मण मन में तर्क कर रहा है - हमारे जीवन का प्रधान उद्देश्य राज्य पालन करना नहीं है। अगर ऐसा होता तो हमारे पूर्वज अपनी राज-सत्ता छोड तपस्या हेतु वन-गमन क्यों करते? परिवर्तन का नाम ही प्रगति है, तो हम नित्य प्रति विकास-पथ पर अग्रसर होते जा रहे हैं। लेकिन मुझे तो पूर्वजों के सीधे सच्चे सरल भाव ही अच्छे लगते हैं।

          लक्ष्मण के विचार अत्यधिक ऊँचे हैं। हाँ! त्याग और पूर्व संस्कार ही हमारी संस्कृति के प्राण हैं।


जो हो, जहाँ आर्य रहते हैं वहीं राज्य वे करते हैं, 

उनके शासन में बनचारी सब स्वच्छन्द विहरते हैं। 

रखते हैं सयत्न हम पुर में जिन्हें पिंजरों में कर बन्द, 

वे पशु-पक्षी भाभी से हैं हिले यहाँ स्वयमपि, सानन्द । 14

            कुछ भी हो, जहाँ राम वहीं अयोध्या । आज श्रीराम वन के राजा बने हैं। उनकी प्रजा (वनचारी प्राणी) स्वच्छन्द रूप से विचरण कर रही है। तोते, मैना, हिरण वगैरह जिन पशु-पक्षियों को हम मनोविनोद के लिए नगरों में पिंजडों और बंधनों में रखते हैं, वे यहाँ स्वयं अपने आप आनन्द पूर्वक हमारी भाभी सीता जी के साथ हिल मिल गये हैं।

        लक्ष्मण के विचार मनोवैज्ञानिक हैं।

 तुलना:

अवध तहाँ जहाँ राम निवासू। (तुलसी)


करते हैं हम पतित जनों में बहुदा पशुता का आरोप, 

करता है पशु वर्ग किन्तु क्या निज निसर्ग नियमों का लोप? 

मैं मनुष्यता को सुरत्व की जननी भी कह सकता हूँ, 

किन्तु पतित को पशु कहना भी कभी नहीं सह सकता हूँ। 15

               हम प्रायः (आचार, नीति या धर्म से भ्रष्ट) पतित लोगों को पशु कहते हैं । यह बिलकुल अन्याय है। पशु तो अपने स्वाभाविक नियमों के अनुसार खाते, पीते और अन्य कार्य करते हैं। लेकिन अपने को सर्वश्रेष्ठ और बुद्धिमान माननेवाला मनुष्य प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करके दुराचारी और पापी बनता है। ऐसे मनुष्य से पशु हजार गुने अच्छे हैं। सच्ची मनुष्यता तो देवत्व की जननी है। मगर धर्म-विमुख मनुष्य को पशु कहें तो उससे पशु का अपमान होता है।

            लक्ष्मण ने मनुष्यता की सुन्दर अभिव्यक्ति की है। लक्ष्मण विशाल दिलवाला है।


आ आकर विचित्र पशु-पक्षी यहाँ बिताते दोपहरी, 

भाभी भोजन देती उनको, पञ्चवटी छाया गहरी। 

चारुचपल बालक ज्यों मिलकर माँ को घेर खिझाते हैं, 

खेल-खिझाकर भी आया को वे सब यहाँ रिझाते हैं। 16

             पंचवटी की घनी छाया में दोपहर की धूप से दुखी अनेक पक्षी आकर विश्राम करते हैं। भाभी समयानुसार उनको जब भोजन देती हैं तो वे सुन्दर और चंचल बालकों की तरह घेर लेते हैं और भोजन के लिए तंग करते हैं । इस खिझाने में भी सीताजी को आनंद का अनुभव मिलता है।

            इन पंक्तियों में पशु पक्षियों के प्रति सीता का अनुराग स्पष्ट होता है।


गोदावरी नदी का तट वह ताल दे रहा है अब भी, 

चंचल-जल कल-कल कर मानो तान दे रहा है अब भी। 

नाच रहे हैं अब भी पत्ते, मन-से सुमन महकते हैं, 

खंद्र और नक्षत्र ललककर लालच भरे लहकते हैं। 17

           सामने गोदावरी नदी का वह सुंदर किनारा लहरों की आवाज के कारण ताल देता हुआ-सा दीख रहा है। मधुर - मनोहर शब्द के साथ बहता हुआ चंचल जल ऐसा दीख रहा है मानों राग अलाप रहा हो। किनारे के पेड़ों के हिलते हुए पत्ते उस ताल और राग के अनुसार नृत्य करते हुए-से जान पड़ते हैं। यह सब देखकर पुष्प आनंदित होकर स्वेच्छा से सुगन्ध फैला रहे हैं। चन्द्रमा और नक्षत्र प्रेमवश लालच भरी निगाहों से इन सबको देखते हुए शोभित होते हैं।

         यह पद्य प्रकृति चित्रण का सुन्दर उदाहरण है। गुप्तजी ने प्रकृति की आभा का वर्णन एक नाच-गान कार्यक्रम के माध्यम से किया है। प्रकृति का मनोहारी चित्रण हुआ है।


बैतालिक विहंग भाभी के सम्प्रति ध्यानलग्न-से हैं, 

नये गान की रचना में वे कवि-कुल तुल्य मग्न-से हैं। 

बीच-बीच में नर्तक केकी मानो यह कह देता है 

मैं तो प्रस्तुत हूँ देखें कल कौन बड़ाई लेता है ॥ 18

         राजमहलों में रहनेवाली जानकी वन में रहती हैं। वन के पक्षी बन्दी जन बनकर अपने कलरव द्वारा उनका यशोगान करते हैं । 

         लक्ष्मण सोते हुए पक्षियों को देखकर सोचता है भाभी जी के जैतालिक बने हुए ये पक्षी इस समय सन्नाटे में आँखें मूंदे निद्रा में मग्न होकर नये गान की रचना में एकाग्र और तल्लीन कविगण की तरह जान पड़ते हैं। नृत्य कला में निपुण मोर की कूक बीच-बीच में ऐसी सुनाई देती है मानों वह सब पक्षियों को चुनौती देता है कि मैं सीताजी को प्रसन्न करने के लिए अभी तैयार हूँ। देखें, प्रात: काल होने पर जब जानकी के सामने सब पक्षी अपनी कला प्रदर्शित करेंगे तब किसकी प्रशंसा होगी।

      प्रकृति की छटा का यह वर्णन अति है। सुन्दर

आँखों के आगे हरियाली रहती है हर घड़ी यहाँ, 

जहाँ तहाँ झाड़ी में झिरती है झरनों की झड़ी यहाँ। 

बन की एक एक हिमकणिका जैसी सरस और शुचि है,

क्या सौ-सौ नागरिक जनों की वैसी विमल रम्य रुचि है?

        लक्ष्मण नगर निवास और वनवास की तुलना करते हुए सोचता है।

         यहाँ (पंचवटी में) हमारी आँखों के सामने बहुत दूर तक चारों ओर वृक्षों की हरियाली ही हरियाली दिखाई देती है। जगह-जगह पर झाडियों के बीच से झरते हुए झरने दिखाई देते हैं। इस वन के एक-एक तुषार कण की मनोहरता और स्वच्छता की समानता क्या सैकड़ों नागरिकों की स्वच्छ भावना कर सकती है?

        इस पद्य में गुप्तजी के ग्राम्य प्रेम की झलक मिलती है।


मुनियों का सत्संग यहाँ है, जिन्हें हुआ है तत्व-ज्ञान,

सुनने को मिलते हैं उनसे नित्य नये अनुपम आख्यान । 

जितने कष्ट - कण्टकों में है जिनका जीवन-सुमन खिला, 

गौरव गन्ध उन्हें उतना ही अत्र-तत्र सर्वत्र मिला ॥ 20

         लक्ष्मण ऋषि-मुनियों के सत्संग की चर्चा करते हुए जीवन के रहस्य का परिचय देता है।

         यहाँ उन ऋषि-मुनियों का सत्संग है जिन्होंने वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया है। समय-समय पर उनके सुन्दर उपदेश सुनने को मिलते हैं। इन मुनियों ने कठिन साधना के द्वारा तत्व- ज्ञान प्राप्त किया है। सच है, जिसका जीवन रूपी पुष्प जितने कष्ट रूपी कंटकों में विकसित होगा, उसे उतनी ही गौरव रूपी सुगन्धि प्राप्त होगी।

       दुख हमारी भावनाओं को परिष्कृत करता है। पुष्प का रूपक बांधकर कवि ने इसी सत्य का उद्घाटन किया है।


शुभ सिद्धान्त वाक्य पढ़ते हैं शुक-सारी भी आश्रम के. 

मुनिकन्याएं यश गाती हैं क्या ही पुण्य-पराक्रम के अहा। 

आर्य के विपिन राज्य में सुखपूर्वक सब जीते हैं,

सिंह और मृग एक घाट पर आकर पानी पीते हैं॥ 21

            यहाँ वन में श्रीरामचन्द्र जी का राज्य पालन भी कितना अच्छा हैं! तोते और मैना भी शास्त्रों के मंगलप्रद वाक्य सुनाते रहते हैं। आश्रम की मुनि कुमारियाँ श्रीराम के पुण्य पराक्रम का यशोगान करती हैं। जंगल के प्राणी सब स्वेच्छा और निर्भयता के साथ जीवन यापन कर रहे हैं। भगवान राम के राज्य में सभी प्राणी सुखपूर्वक जीते हैं। सिंह और हिरण (परस्पर शत्रु-भाव छोडकर) एक ही घाट पर पानी पीते हैं।

           रामराज्य का सुन्दर चित्रण यहाँ मिलता है। अंतिम पंक्ति में सुन्दर मुहावरे का प्रयोग हुआ है । शांत रस का सुन्दर उदाहरण हमें मिलता है।


गुह निषाद शवरों तक का मन रखते हैं प्रभु कानन में, 

क्या ही सरल वचन रहते हैं इनके भोले आनन में! 

इनें समाज नीच कहता है पर हैं ये भी तो प्राणी, 

इनमें भी मन और भाव हैं किन्तु नहीं वैसी वाणी ॥  22

            श्रीरामचन्द्र के इस राज्य में ऊँच नीच का भेद-भाव नहीं है। गुह, निषाद और शबरी जैसी जंगली जातियों के व्यक्तियों पर भी राम ध्यान देते हैं। वे लोग बडे भोले हैं और मीठे शबदों का उच्चारण करते हैं। समाज इन लोगों को नीच कहता है तो यह समाज का अन्याय है। ये भी हम जैसे प्राणी है। हमारी ही तरह मन और भाव रखते है। हाँ, एक अंतर अवश्य है। ये सथ्य कहलानेवाले हम लोगों को तरह सथ्य (कृत्रिम और पुणई) भाषा नहीं बोलते।

             इस पद्य में गांधीवाद का प्रभाव है। कवि सामाजिक दर्शन का समर्थन करते हैं। जाती -पांति का विरोध खुल्लम-खुल्ला मिलता है।


कभी विपिन में हमें व्यंजन का पड़ता नहीं प्रयोजन है,

निर्मल जल, मधु कन्द मूल, फल- आयोजनमय भोजन है। 

मनःप्रसाद चाहिए केवल, क्या कुटीर फिर क्या प्रासाद? 

भाभी का आहलाद अतुल है, मंझली माँ का विपुल विषाद। 23

       लक्ष्मण वन-जीवन में सुलभ आनंद का वर्णन करते हुए आत्म-संतोष का अनुभव करते हैं।

         यहाँ प्रकृति की गोद में हमें पंखे की आवश्यकता नहीं पडती। पीने के लिए स्वच्छ जल मिलता है। वन के मधुर मधु और कन्द, मूल फल आदि से भरा सात्विक तथा स्वाभाविक भोजन मिलता है। कुटीर हो या प्रसाद, मन की तृप्ति ही इच्छित वस्तु है। यहाँ वन के पर्ण कुटीर में भाभी जी कैसे असीम आनंद के साथ रहती हैं। वहाँ अयोध्या के राजमहलों में मंझली माँ कैकेई कितनी व्याकुलता से रहती हैं।

        लक्ष्मण के विचार अत्यधिक मनोवैज्ञानिक हैं। कवि ने संतोष को ही सुख-दुख की कसौटी माना है।


अपने पौधों में जब भाभी भर भर पानी देती हैं, 

खुरपी लेकर आप निराती जब वे अपनी खेती हैं। 

पाती हैं तब कितना गौरव कितना सुख, कितना सन्तोष। 

स्वावलम्ब की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष ।॥ 24

             लक्ष्मण सोचते हैं - जब भाभी सीताजी अपने हाथों से अपने पौधों को पानी देती हैं और खुरपि लेकर अपने खेत निराती हैं तब उन्हें कितना आत्म-संतोष मिलता है। वे गर्व से भर जाती हैं। आत्म संतोष के इस सुख पर कुबेर का धन कोष भी न्योछावर है।

            इस अवतरण में कवि गुप्त जी ने स्वावलंबन के महत्व का प्रतिपादन किया है। आज के अकर्मण्य व्यक्तियों को कर्मण्यता संदेश दिया गया है।

   तुलना :

   जब आवत संतोष धन, सब धन धूरि समान। (तुलसीदास)


सांसारिकता में मिलती है यहाँ निराली निस्पृहता, 

अत्रि और अनुसूया की-सी होगी कहाँ पुण्य गृहता? 

मानो है यह भुवन भिन्न ही, कृत्रिमता का काम नहीं, 

प्रकृति अधिष्ठात्री है इसकी, कहीं प्रकृति का नाम नहीं

         लक्ष्मण नागरिक जीवन और प्राकृतिक जीवन का तुलनात्मक अध्ययन कर रहे हैं।

         इस वन में लौकिक काम-काज में मग्न रहने पर भी हम में एक पवित्र अनासक्त भाव आ जाता है। महर्षि अत्रि और महासती अनसूया के समान आदर्श पुण्य दंपति को हम कहाँ देख सकते हैं? वन में रहकर उनके समान पुण्य संपादन कौन कर सकता है? शायद यह संसार ही भिन्न है। यहाँ आडंबर या कृत्रिमता नहीं है। स्वयं प्रकृति देवी ही इस स्थान की स्वामिनी है। नगरों का जीवन तो  बिलकुल उल्टा और अप्राकृतिक है। यहाँ इस प्राकृतिक जीवन में विकृति (छल, कपट, मोह, मद, लोभ, ईर्ष्या, हिंसा, द्वेष) का नाम तक नहीं है।

        कवि ने "प्रकृति की ओर लौटो" सिद्धांत पर जोर दिया है।

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PANCHAVATI भावार्थ 26-50









एकांकी

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