पंचवटी -101- 128
"जो अन्धे होते हैं बहुधा..... .तुम भी परम धन्य होगी।(101)
व्याख्या :- रामचंद्र शूर्पणखा से बोलते जा रहे हैं- “अंधों के बारे में कहा जाता है कि वे ज्ञान नेत्रवाले प्रज्ञाचक्षु कहलाते हैं। मेरे प्रति प्रेम के कारण ये बाकी सबको भूलकर मेरे साथ आ गये हैं। अगर तुम इस युवक के मन को अपनी ओर आकृष्ट कर पाओगी, तो मैं मज़ाक नहीं करता हूँ और समझता हूँ कि तुम परम धन्य हो जाओगी।
"भेद दृष्टि से फिर लक्ष्मण को........ जब अन्याय बदान्या तुम ।। " (102)
व्याख्या :- रामचंद्र से तिरस्कृत शूर्पणखा अब अपनी रहस्यमयी कपट दृष्टि से फिर से लक्ष्मण की ओर मुड़ी। लक्ष्मण अपनी तर्जनी को होंठों पर रखते हुए नकारात्मक इशारा किया और बोलने लगे- “सुनो! तुम अब चुप रहो ! विभिन्न विरोधी विचारों को तरह-तरह से बोलनेवाली हो। तुम तो मेरे पूज्य स्वामी रामचंद्र पर अनुरक्त हुई हो, तो बस, मेरे लिए माननीय बन गयी हो।"
प्रभु ने कहा कि "तब तो तुमको और पवन के भिन्नाघात । (103)
व्याख्या :- अब श्रीरामचंद्र बोल उठे- “हे शूर्पणखे। अब तुम्हारे लिए दोनों ओर संकट की स्थिति लग रही है। तुम तो पहले मेरे छोटे भाई की वधू बन चुकी हो। अब तुम्हारा बदला हुआ प्रस्ताव कैसे मुझसे स्वीकृत होगा ? रामचंद्र और लक्ष्मण दोनों की बातों को सुनकर शूर्पणखा पसोपेश में पड़ गयी। उनकी ऐसी दशा हो गयी मानो ज़ोर से चलनेवाली हवा की प्रतिकूल दिशा में चलनेवाली प्रवाह की धारा में चलनेवाली नाव फँस गयी हो ।
कहा कुछ होकर तब उसने .... ..... तुमको फिर मुझपर अनुरक्ति ।। (104)
व्याख्या :- अब शूर्पणखा ने उन दोनों की बातों पर अपना क्रोध प्रकट करते हुए कहा-"तो क्या मैं अपनी आशा छोड़ दूँ? जिस संबंध को मैंने सयत्न जोड़ा है, क्या उसी संबंध को मैं स्वयं तोड़ डालूँ? परंतु सावधान! तुम लोग यह न भूलना कि मुझमें ऐसी शक्ति है कि तुम्हें फिर से मेरी ओर आकृष्ट करके मुझपर अनुरक्त होने को विवश कर सकूँगी।"
मेरे भृकृटि कटाक्ष तुल्य भी. . होती नहीं भीति में प्रीति (105)
व्याख्या :- शूर्पणखा आगे कहती है कि, 'तुम्हारे धनुष-बाण मेरी क्रोध भरी दृष्टि के सामने टिकेंगे नहीं, तब रघुपति राम बोले- “हो सकता है कि तुझमें ऐसी ताकत छुपी हो। परंतु प्राणिसुलभ गुण यह होता है कि विवशता में तो कुछ कर सकते हैं, परंतु प्रेम नहीं कर सकते। जबरदस्ती और विवशता में प्रेम और अनुराग पैदा नहीं किये जा सकते।"
" इतना कहकर मौन हुए प्रभु............ रख सकते है नर कितना?" (106)
व्याख्या :- श्रीरामचंद्र के इतना समझाने के बाद गंभीर मुद्रा में मौन हो गये। परंतु लक्ष्मण का क्रोध कम नहीं हुआ और वे चुप न रह सके। शूर्पणखा से बोल उठे- “हे नारी।, तुम एक बात न भूलना कि स्त्री होकर तुम इतना अहंकार प्रदर्शित करने लगी हो, तो पुरुषों में क्या कम अंहकार रहेगा?
“झंकृत हुई विषम तारों की........ प्रबलाएँ अपमान विचार ।” (107)
व्याख्या :- अब उस उच्छृंखल नारी शूर्पणखा के विषैले हृदय रूपी विषम तारवाली वीणा का झंकार हुआ। वह बोलने लगी- "तब क्या तुम लोग समझते हो कि बेचारी महिलाएँ हमेशा अबलाएँ रह जाएँगी? यह नहीं जानते हो कि अपने प्रेम संबंधों में विफल हो जाने पर अबला नारियाँ अपमान के कारण कितनी प्रबल हो जाती हैं?"
“पक्षपात मय सानुरोध है. ...... ...... द्वेष-पूर्ण अपना प्रतिशोध ।। " (108)
व्याख्या :- शूर्पणखा आगे बोलती है, तो कामिनी स्त्री का प्रेम जितना पक्षपातमय अर्थात् एकांगी और विनयपूर्वक और अटल होता है, उनका वैर और विरोध उतना ही शक्तिशाली और प्रबल होता है। नारी का यह भाव क्रोध से भी भंयकर रूप ले लेता है। फिर वही द्वेषपूर्ण प्रतिशोध का विशेष कार्य रूप धारण कर लेता है।
"देख क्यों न लो तुम, में जितनी.......... सहसा बना विकट- विकराल (109)
व्याख्या :- शूर्पणखा आगे बोलती है, "क्या तुम देख नहीं पा रहे हो कि में जितनी सुंदर थी, अब उतनी ही घोर लग रही हूँ? मेरी बातें जितनी कोमल और मधुर रहीं, क्या अब उतनी कठोर और निष्ठुर नहीं लग रही हैं?"
शूर्पणखा के इस तत्काल विचित्र व्यवहार को सबने अपनी आँखों के सामने घटते हुए आश्चर्य के साथ देखा कि वह जो अत्यंत मोहक रूप था, सहसा घोर और भयंकर बन गया है।
"सबने मृदु मारुत का दारुण......... यह परिवर्तन देखा था, " (110)
व्याख्या :- सभी लोग अब एक ऐसा दृश्य देखने लगे जहाँ मंद मारुत की कोमल हवाएँ थीं, वे अब झंझा नर्तन करती हैं। अर्थात् तूफ़ानी हवा का भयंकर रूप धारण करके नाचते हुए देखा। सुहावनी शाम के हट जाने पर अंधेरी रात के विकृत परिवर्तन को देखा। समय रूपी कीट को उम्र रूपी पुष्प के सुंदर पटलों को काटते हुए और नष्ट करते हुए देखा। परंतु अभी तक किसीने इतने आश्चर्यजनक भयंकर परिवर्तन को देखा नहीं होगा।
"गोल कपोल पलटकर सहसा...... प्रकटे पूरी बाढ़ों से ।। (111)
व्याख्या :- वहाँ जो आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ था, उसका वर्णन कवि आगे यों करते हैं शूर्पणखा का सुंदर और यौवन-रूप जो था, वह अब गोल-गोल गाल बरै नामक कीड़े से काटे गये फूल की पंखुड़ियों की तरह नष्ट-भ्रष्ट रूप में दिखाई पड़ रहे हैं। चमेली की कलियों की तरह जो दाँत चमकते रहे, वे अब वराह के भयंकर दाँत बन गये हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो बीभत्स, भयानक और रौद्र तीनों रसों का प्रदर्शन एक ही समय और एक ही जगह हो रहा हो।
जहाँ लाल साड़ी थी तनु में... ......हुई मुण्डमाला सुविशाल । (112)
व्याख्या :- शूर्पणखा का रूप परिवर्तन आश्चर्यजनक ही नहीं, बल्कि भयानक भी होने लगा है। यथा पहले वह लाल साड़ी पहनी हुई एक भद्र नारी की तरह सामने आयी थी, अब लाल साड़ी की जगह चमड़े के वस्त्र दिखाई पड़े। मणियों और मोतियों के हार पहनी हुई थी। उसकी जगह अस्थियों के आभूषण बन गये। कंधों पर लटक रहे वे सुन्दर केश अब आँतों के जाल बन गये। सुंदर वन फूलों की माला की जगह मुंडमाला ली हुई उसका भयानक और बीभत्स रूप दिखाई पड़ा है।
हो सकते थे दो द्रुमादि ही..........रुद्ध कण्ठ से बोल सकी ।। (113)
व्याख्या :- शूर्पणखा के उस कराल रूप को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता था कि उसके दीर्घ शरीर भारी पेड़ और पहाड़ों के समूह सामने खड़े हैं। इस विलक्षण रूपवाली के नाखून उसके नाम को प्रमाणित कर रहे थे। सीताजी इस भंयकर रूप को देखकर स्तंभित हो गयीं और जड़ की तरह अचेत रह गयीं। कंठ भी अवरुद्ध हो गया।
अग्रज और अनुज दोनों ने...........सावधान कर उसे सुजान (114)
व्याख्या :- राम और लक्ष्मण दोनों भाइयों ने एक दूसरे को देखा। रामचंद्रजी ने सीताजी को उस राक्षसी की ओर देखने से रोका। छोटा भाई लक्ष्मण उससे बात करने लगा। इतने में रामचंद्रजी की मुस्कुराहट देखकर सीताजी संभल गयीं। होशियार लक्ष्मण ने शूर्पणखा को सावधान करते हुए कहा।
मायाविनी, उस रम्य रूप का ?............. हरा सकेगी तू न हमें।। (115)
व्याख्या :- 'हे मायाविनी। तुम्हारे इस मोहक सुंदर रूप पीछे क्या इतनी छल-कपट की भावना छिपी थी? उस प्रदर्शन का क्या यही परिणाम था? क्या इस प्रकार लोगों को छलना और धोखे से उन्हें पराजित करना ही तुम्हारा काम है? तुम अपने इस वास्तविक और विकराल रूप से हमें परास्त नहीं कर सकती। अबला हमेशा अवला ही होती है। अतः हमें तुम किसी प्रकार से हरा नहीं सकोगी।
बाह्य सृष्टि सुन्दरता है क्या..........जिससे छिप न सके पहचान। (116)
व्याख्या :- लक्ष्मण आगे कहते हैं: बाहर से सुंदर दिखनेवाली सृष्टि में क्या इतना भयंकर रूप छिपा है? जो भी हो, मैं अपने बारे में कह ही देता हूँ कि मैं भी तुम्हारा सामना करने के लिए तैयार हूँ। मैं ऐसा काम करूंगा, जिससे कि तुम फिर कभी किसीको छल नहीं सकोगी। तुम नारी हो और इसलिए तुम्हें मारूँगा भी नहीं; मैं तुम्हें अवश्य विकलांगी कर डालूँगा, जिस विकलांगता को छिपा भी नहीं पाओगी।
उस आक्रमणकारिणी के झट..........भगी वहाँ से चिल्लाती । (117)
व्याख्या :- सीताजी पर आक्रमण करने तैयार रही शूर्पणखा की ओर झपटते हुए लक्ष्मण ने अपनी तेज तलवार से उसके नाक-कान काट डाले । लक्ष्मण ने उसके पापी प्राण नहीं लिये। तब शूर्पणखा हाय! हाय! चिल्लाते हुए, हाहाकार मचाते हुए भागने लगी।
गूँजा किया देर तक उसका ............जिससे सोने की लंका ।। (118)
व्याख्या : शूर्पणखा की चिल्लाहट और हाहाकार वहाँ के वायुमंडल में गूंजता था। उसके वहाँ से चले जाने के बाद भी बहुत देर तक गूँजता रहा। वैदेही सीताजी उदास, व्याकुल और अधीर हो उठी। उनके मन में आतंक से भरी शंका होने लगी कि कहीं जो शंका बाद को सचमुच सोने की लंका मिट्टी में मिल गयी।
“हुआ आज अपशकुन सबेरे,........किसका डर है तुम्हीं कहो।। " (119)
व्याख्या :- सीताजी लंबी साँस लेकर बोल उठीं, "सबेरे-सबेरे आज अपशकुन जैसे हो गया है कि कहीं किसी प्रकार का संकट आनेवाला हो।" भगवान कुशल ही रखें। लक्ष्मण उत्तर में बोले; "आये। तुम निश्चिन्त रहो भाभी। इस सेवक के रहते हुए तुम्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी है।
नहीं विघ्न-बाधाओं को हम...........जिनकी शिक्षा दीक्षाएँ ।” (120)
व्याख्या :- लक्ष्मण आगे कहते हैं- "हम किसी प्रकार की विघ्न बाधाओं का आह्वान नहीं करते। यदि आ भी जाएँ तो उससे कभी हम घबराते नहीं, मेरे विचार में विपदाएँ तो प्राकृतिक ही हैं। ये ही लोग उनसे डरते हैं, जिन की शिक्षा दीक्षाएँ पक्की नहीं होतीं।"
कहा राम ने कि "यह सत्य है..........डटकर शूर समर ठानें ।।" (121)
व्याख्या :- इन सारी बातों को सुनने के बाद रामचंद्रजी ने कहा, "लक्ष्मण का कहना ठीक ही है कि सुख दुख समयाधीन हैं। परंतु मनुष्य में वह गुण चाहिए कि वह सुख में गर्व से नहीं फूलना चाहिए और कभी दुख में दीन न हो जाएँ। जब तक संकट स्वयं न आ जाएँ, तब तक उनसे बचकर दूर रहें और अनावश्यक न डरें; डटकर उनका सामना करें, शूर की तरह उनके विरुद्ध लड़ाई लड़ें।
"यदि संकट ऐसे ही जिनको........ सहन शक्ति रखता हूँ मैं ।।" (122)
व्याख्या :- रामचंद्रजी कहने लगे, “यदि ऐसे संकट अनिवार्य रूप से उपस्थित हो जाएँ, तो तुम लोगों को उनसे बचाते हुए मैं उनका सामना करूंगा। मेरी इच्छा भी है कि उनसे एक बार खेल भी लूँ। तभी तो मुझे भी पता चलेगा कि संकट झेलने की कितनी शक्ति मुझमें है।"
"नहीं जानता मैं, सहने को ... . किन्तु तुम्हारा यह कहना" (123)
व्याख्या :- राम आगे कहते हैं: मैं समझता हूँ कि तुममें संकट सहने की कोई शक्ति अब शेष नहीं, क्योंकि न जाने कितने कष्ट और संकट मेरे लिए तुमने झेले हैं लक्ष्मण रामचंद्रजी को जवाब देते हैं:- “आपके इस सेवक के लिए कष्ट सहना कोई कठिन कार्य नहीं। परंतु आपका यह कहना कि मैंने आपके लिए बहुत कुछ सहा है, सहना बहुत कठिन है।"
सीता कहने लगी कि 'ठहरो... .... यों ही निभृत प्रवाह बहे ।।" (124)
व्याख्या :- राम और लक्ष्मण की उपर्युक्त बातों को सुनने के बाद अब सीताजी बोल उठीं- "ठहरो! छोड़ो ऐसी बातों को क्यों संकटों को और आपदाओं को सहने की इच्छा स्वयं करते हो ? हमें राज-वैभव और अधिकार नहीं चाहिए। हमने उन्हें त्याग दिया है। कोई हमपर ईर्ष्या न करें। बस, हमारी जीवन धारा सरल और शांत प्रवाह बनकर बहे।"
"हमने छोड़ नहीं राज्य क्या..... इसको सभी जानते है।।" (125)
व्याख्या :- सीताजी पूछती हैं- "क्या हमने अपना राजवैभव और राज्यश्री का त्याग नहीं कर दिया? क्या भाग्य विधाता इतना भी नहीं सहेगा कि हम इतनी सामान्य सुविधाएँ भोगे?” लक्ष्मण बोले- "मैं विधि और भाग्य की बातों पर विश्वास नहीं रखता। वे ही, बड़े लोग उन्हें मानते हैं। मैं तो पुरुषार्थ का पक्षपाती हूँ। यह बात आप सब जानते ही हैं। "
यह कहकर लक्ष्मण मुस्काये,......नेत्र प्रेम से भर आये ।। (126)
व्याख्या :- यों कहते हुए लक्ष्मण मुस्कुराये और रामचंद्रजी भी मुस्कुराये। सीताजी के चेहरे पर भी मुस्कुराहट झलकी। तीनों में अब विनोद से भरा हर्ष छा गया। अब सीताजी व्यंग्य करते हुए बोलीं: “ठहरो! ठहरो। पुरुषार्थ की बड़ी-बड़ी बातें जो करते हो, अपनी पत्नी तक को साथ न लाये?" यों कहते हुए सीता की आँखों से आँसू टपकने लगे।
"चलो नदी को घड़े उठा लो,.... राघव महा मोद- मद से (127)
व्याख्या :- अब सुबह होने पर जैसे अपनी दिनचर्या की याद दिलाते हुए सीता ने कहा, “पुरुषार्थ और क्षमा को कार्यरूप में दिखाओ। अब चलो। घड़े उठाकर नदी तट पर चलेंगे। मुझे भी मछलियों को धान आदि खिलाना है। तत्काल लक्ष्मण भावुकता के साथ घड़े के साथ उपस्थित हो गये। उन दोनों को इस तरह देखकर श्रीरामचंद्रजी प्रसन्न होकर बोले ।”
तनिक देर ठहरो, मैं देखूँ,........बरसाये नव विकसित फूल ।। " (128)
व्याख्या :- रामचंद्रजी परम संतुष्ट होकर बोलने लगे- “जरा ठहर जाओ ! मैं जरा देख लूँ, तुम दोनों भाभी - देवर को। यह हर्ष की तरंगें बड़े विरले ही देखने को मिलती हैं। अपने हृदय को सुखी कर लूँ।” यों कहते हुए रामचंद्र हर्ष से पुलकित हो उठे और अपने आपको भूले जैसे रह गये। तब उन दोनों के द्वारा सींचे गये और बढ़ाये गये पौधों के नव-विकसित कोमल फूल दो-चार को तोड़कर इन भाभी देवर पर बरसाये और आशीर्वाद दिये ।
**** “शुभम्” ***