Friday, March 19, 2021

PANCHAVATI/पंचवटी/ भावार्थ : 26-50

 

                      PANCHAVATI/पंचवटी/ 

                         भावार्थ : 26-50


स्वजनों की चिन्ता है हमको, होगा उन्हें हमारा सोच,

यहाँ एक इस विपन - वास में दोनों और रहा संकोच। 

सब सह सकता है, परोक्ष ही कभी नहीं सह सकता प्रेम, 

बस प्रत्यक्ष भाव में उसका रक्षित-सा रहता है क्षेम ।। 26

         लक्ष्मण सोचते हैं-वन में हमें सब तरह का सुख प्राप्त है। हाँ! अपने सगे संबंधियों की चिन्ता अवश्य सताती रहती है। उन्हें भी हमारा सोच रहता है। प्रेम सब कुछ सहन कर सकता है पर अपने प्रेम पात्रों का अपनी आँखों से दूर रहना (वियोग) कभी नहीं सह सकता । आँखों के सामने रहने में कुशल सुरक्षित-सा दीखता है। वियोग के समय अपने प्रियजनों के बारे में नाना प्रकार की भावनाएँ उठती रहती हैं।

       लक्ष्मण अपने स्वजनों के प्रति सहानुभूति और प्रेम प्रकट कर रहे हैं।


इच्छा होती है स्वजनों को एक बार वन ले आऊँ, 

और यहाँ की अनुपम महिमा उन्हें घुमाकर दिखलाऊँ। 

विस्मित होंगे देख आर्य को वे घर की ही भाँति प्रसन्न, 

मानो वन-विहार में रत हैं ये वैसे की श्रीसम्पन्न ।। 27

              लक्ष्मण सोचते हैं - कभी-कभी यह इच्छा होती है कि एक बार अपने स्वजनों को वन ले आऊं और यहाँ की अनुपम शोभा उन्हें घुमाकर भली-भांति दिखाऊँ। वे लोग आर्य राम को यहाँ घर जैसा ही प्रसन्न देखकर विस्मित हो जाएँगे। शायद वे यह अनुमान लगा लेंगे कि श्रीराम वन विहार के लिए आए हैं। (वनवास के लिए नहीं।) अर्थात् यहाँ श्रीराम वैसे ही शोभा संपन्न है जितने अयोध्या में युवराज के रूप में थे।

          कवि यहाँ स्पष्ट रूप से दिखाते कि कष्टों और अभावों के बीच में भी मनुष्य सुखी-संपन्न रह सकता है। सचमुच लक्ष्मण विचारशील हैं ।


यदि बाधाएँ हुई हमें तो उन बाधाओं के ही साथ, 

जिससे बाधा-बोध न हो, वह सहनशक्ति भी आयी हाथ । 

जब बाधाएँ न भी रहेंगी तब भी शक्ति रहेगी यह, 

पुर में जाने पर भी वन की स्मृति अनुरक्ति रहेगी यह ।। 28

          लक्ष्मण सोचते हैं यह सच है कि वनवास के समय हमें बहुत-सी विपत्तियों का सामना करना पड़ा। इससे हमारा भला ही हुआ कि इन कष्टों को सहने और सामना करने के लिए बल भी मिला। कुछ दिनों में हमारा वनवास पूरा होगा अयोध्या लौटने पर कष्ट तो नहीं रहेंगे पर सहन-शक्ति तो बनी रहेगी। हम वन का स्मरण और प्रेम नहीं भूल सकते।

          सच ही है कि जीवन में जितनी कठिनाइयाँ आती हैं उतना ही मनुष्य का आत्मिक विकास होता है।

तुलना :

          वेदने तू भली बनी। (साकेत-गुप्त)


नहीं जानती हाय । हमारा माताएँ आमोद-प्रमोद, 

मिली हमें है जितनी कोमल, कितनी बड़ी प्रकृति की गोद। 

इसी खेल को कहते हैं क्या विद्वज्जन जीवन-संग्राम?

तो इसमें सुनाम कर लेना है कितना साधारण काम । 29

         हमारी माताएँ तथा अन्य नगरवासी यह नहीं जानते होंगे कि प्रकृति की गोद में हमें कितना आनंद मिलता है। क्या इसी जीवन को लोग जीवन-संग्राम कहते हैं? यह तो मामूली खेल - सा है।

        यदि विद्धान लोग इसी खेल को जीवन-संग्राम की संज्ञा देते हैं तो इस पर विजय करके यश कमाना कितना आसान है।

         लक्ष्मण के विचार दार्शनिक हैं।


बेचारी उर्मिला हमारे लिए व्यर्थ रोती होगी, 

क्या जाने वह, हम सब वन में होंगे इतने सुख-भोगी 

" मग्न हुए सौमित्र चित्र-सम नेत्र निमीलित एक निमेव, 

फिर आँखें खोलें तो यह क्या अनुपम रूप, अलौकिक वेश। 30

         स्वजनों की चर्चा करते हुए लक्ष्मण को अपनी पत्नी ऊर्मिला की याद आ गयी।

         बेचारी ऊर्मिला सोचती होगी कि हम वन में कितने कष्ट पा रहे होंगे । वह भोली क्या जाने कि हम कितना सुख और आनंद पा रहे हैं। ऊर्मिला के स्मरण में पल भर के लिए पलकें बंद कर लक्ष्मणा मग्न और चित्रवत हो गये जब पलकें खुली तो देखते हैं कि सामने अपूर्व रूप लावण्यवाली विलक्षण वस्त्रभूषण धारिणी एक युवती खडी है।

        लक्ष्मण वीर ही नहीं बल्कि सहृदय भी है।


चकाचौंध-सी लगी देखकर प्रखर ज्योति की वह ज्वाला, 

निसंकोच खड़ी थी सम्मुख, एक हास्यवदिनी बाला। 

रत्नाभरण भरे अंगों में ऐसे सुन्दर लगते थे ज्यों

प्रफुल्ल वर्ली पर सौ-सौ जुगनू जगमग जगते थे। 31

        कवि शूर्पणखा के रूप सौंदर्य की चर्चा करते हैं।

        लक्ष्मण ने जब आँखें खोलीं तो अपने सम्मुख एक हंसती हुई सुन्दरी को निस्संकोच खडे देखा। उसकी अलौकिक सुन्दरता की ज्वाला देखकर लक्षमण चकित हो गए। उनकी आँखों में चकाचौंध सी लग गयी। शूर्पणखा के शरीर पर रत्नों के आभूषण ऐसे लग रहे थे मानों खिली हुई लता पर सौ-सौ जुगनू जगमगा रहे हैं।

         शूर्पणखा के सौंदर्य का आलंकारिक चित्रण है। कवि ने उपमा अलंकार के आश्रय से शूर्पणखा को बेल और रत्नों को जुगनू कहा है।


थी अत्यन्त अतृप्त वासना दीर्घ हगों से झलक रही, 

कमलों की मकरन्द-मधुरिमा मानो छवि से झलक रही। 

किन्तु दृष्टि थी जिसे खोजती मानो उसे पा चुकी थी, 

भूली-भटकी मृगी अन्त में अपनी ठौर आ चुकी थी। 32

           शूर्पणखा के विशाल नेत्रों से उसकी अतृप्त वासना टपक रही थी। उसके रूप में कमल के पराग जैसी मधुरिमा थी। ऐसा प्रतीत होता था कि वह जिसे रही थी उसे उसने पा लिया है। वह एक भूली-भटकी हिरणी के समान थी जो आखिर अपने ठीक स्थान पर पहुँच गयी हो।

         शूर्पणका के हृदयगत तामसी वृत्ति का चित्रण मिलता है।


कटि के नीचे चिकुर-जाल में उलझ रहा था बायाँ हाथ, 

खेल रहा हो ज्यों लहरों से लोल कमल भौरों के साथ। 

दायाँ हाथ लिये था सुरभित- चित्र-विचित्र-सुमन-माला, 

टाँगा धनुष कि कल्पलता पर मनसिज ने झूला डाला।।   33

        उस सुन्दरी के लंबे काले सुन्दर बाल कमर के नीचे घुटनों

        तक फैले हुए थे। उसमें उलझा हुआ उसका बायां हाथ ऐसा शोभित होता था मानों लहरों के कारण हिलता हुआ (चंचल) कमल भौरो के साथ क्रीडा कर रहा हो। उसके दाहिने हाथ में अनेक रंगों के चित्रविचित्र सुन्दर सुगंधित पुष्पों की माला थी जिसे देखकर संदेह होने लगता था कि यह कामदेव का लटकाकर रखा हुआ सुन्दर पुष्प-धनुष है या कामदेव के द्वारा कल्पलता पर डाला हुआ झूला है।

      इसमें उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकार का सुन्दर प्रयोग हुआ है।


पर सन्देह-दोल पर ही था लक्ष्मण का मन झूल रहा, 

भटक भावनाओं के भ्रम में भीतर ही था भूल रहा। 

पड़े विचार-चक्र में थे वे, कहाँ न जाने कूल रहा, 

आज जागरित-स्वप्न-शाल यह सम्मुख कैसा फूल रहा।  34

            लक्ष्मण का मन संदेह रूपी झूले पर झूल रहा था। वह विभिन्न प्रकार की भावनाओं के चक्कर में पड़कर अंदर ही अंदर भूलने भटकने लगा। वे विचारों के भंवर में डूबते जा रहे थे। सोचते थे-यह रमणी कौन है? इस भयंकर वन में ऐसे समय यहाँ क्यों आयी? इसे इस प्रकार घूमने का साहस ही कैसे हुआ? उनके विचारों की नदी का कोई किनारा ही नहीं दीखता था सोचते थे कि आज मेरे सामने जाग्रत अवस्था में स्वप्न रूपी यह शाल वृक्ष कैसे पुष्पित हो रहा है?


देख उन्हें विरिमत विशेष वह सुस्मितवदनी ही बोली 

(रमणी की मूरत मनोज्ञ थी किन्तु न थी सूरत भोली) 

"शूरवीर होकर अबला को देख सुभग तुम थकित हुए; 

संसृति की स्वाभाविकता पर चंचल होकर चकित हुए। 35

           लक्ष्मण को अत्यंत विस्मय में मग्न देखकर मुस्कुराती हुई बोली - (यद्यपि उसका शरीर अत्यंत सुन्दर था पर उसके चेहरे में सरलता न दिखाई देती थी।) हे सुन्दर युवक! तुम तो बडे शूर-वीर हो। फिर तुम एक साधारण अबला को देखकर क्यों हैरान हो रहे हो? सृष्टि के स्वाभाविक सौंदर्य देखकर तुम क्यों विस्मित और अधीर हो रहे हो?

          यहाँ शूर्पणखा की निर्लज्जता स्पष्ट होती है।


प्रथम बोलना पड़ा मुझे ही, पूछी तुमने बात नहीं, 

इससे पुरुषों की निर्ममता होती क्या प्रतिभात नहीं?

" संभल गये थे अब तक लक्ष्मण वे थोड़े से मुसकाये, 

उत्तर देते हुए उसे फिर निज गंभीर भाव लाये 

            अपने सामने खडी हुई मुझे देखकर तुम ने कोई बात तक न पूछी। पहले मुझे ही तुमसे बोलना पड़ा। क्या इस आचरण से पुरुष की निर्दयता प्रकट नहीं होती? विचारों के प्रवाह में बहते हुए लक्ष्मण अब तक संभल चुके थे । उनके मुख पर थोडी मुस्कुराहट दिखाई दी। उस युवती के प्रश्नों का जवाब देते हुए उन्होंने फिर अपना स्वाभाविक गंभीर भाव धारण किया


"सुन्दरि, मैं सचमुच विस्मित हूँ तुमको सहसा देख यहाँ, 

दलती रात, अकेली अबला, निकल पड़ी तुम । 

कौन कहाँ? पर अबला कहकर अपने को तुम प्रगल्भता रखती हो, 

निर्ममता निरीह पुरुषों में निस्सन्देह निरखती हो। 37

            लक्ष्मण बोले- हे सुन्दरी! तुमको अचानक इस तरह देखकर मैं वास्तव में विस्मित ही हूँ। यह रात का आखिरी पहर है। ऐसे समय में अकेली आनेवाली युवती तुम कौन हो? कहाँ जा रही हो? तुम अपने को अबला कहती हो पर तुम में बड़ी चतुराई और साहस हैं। तुमको मुझे जैसे कामना रहित निस्पृह पुरुषों में कठोरता अवश्य दिखाई देती है।

            यहाँ शूर्पणखा के चरित्र का सहज उद्घाटन है।


पर मैं ही यदि परनारी से पहले सम्भाषण करता, 

तो छिन जाती आज कदाचित् पुरुषों की सुधर्मपरता । 

जो हो, पर मेरे बारे में बात तुम्हारी सच्ची है, 

चण्डि, क्या कहू तुमसे मेरी ममता कितनी कच्ची है। । 38

            लक्ष्मण बोले-मगर तुम पर-स्त्री हो। अगर मैं ही पहले तुमसे बोलता तो शायद पुरुषों की सच्ची धर्मपरायणता भंग हो जाती। (अब तुम मुझे निर्मम कहती हो तब अधर्मी कहती ।) चाहे जो भी हो, मेरे संबंध में तुम्हारा यह कहना बिलकुल ठीक ही है कि तुम पर मेरे मन में ममता का भाव बहुत ही कच्च है।

          शूर्पणखा के लिए "चंडी" का संबोधन बहुत आकर्षक है।


माता, पिता और पत्नी की, धन की, धाम-धरा की भी, 

मुझे न कुछ भी ममता व्यापी जीवन परम्परा की भी। 

एक-किन्तु उन बातों से क्या, फिर भी हूँ मैं परम सुखी, 

ममता तो महिलाओं में ही होती है हे मंजुमुखी ॥ 39

        वास्तव में मैं बडा ही निर्मम हूँ। माता, पिता, पत्नी, धरबार, धन, संपत्ति आदि किसी की ममता या मोह मुझे नहीं है। मुझे अपने जीवन पर भी ममता नहीं है। हाँ, एक बात की ममता अवश्य है। लेकिन उन सब बातों की चर्चा अनावश्यक है। यद्यपि मैं ममता शून्य हूँ फिर भी अत्यंत सुखी हूँ। हे सुन्दरी! ममत्व तो स्त्रियों में ही अधिक होती है । (वह रित्रयों को ही शोभा दती है ।)

      लक्ष्मण का उच्च आदर्शवाद स्पष्ट है।


शूरवीर कहकर भी मुझको तुम जो भीरु बताती हो, 

इससे सूक्ष्मदर्शिता ही तुम अपनी मुझे जताती हो। 

भाषण-भंगी देख तुम्हारी हाँ, मुझको भय होता है, प्रमदे, 

तुम्हें देख वन में यों मन में संशय होता है। 40

           तुम शूर -वीर कहकर मेरी प्रशंसा भी कर रही हो साथ ही कायर भी कहती हो । तुम अपनी बातों में बडी बुद्धि-सूक्ष्मता प्रदर्शित करती हो। हाँ, तुम्हारे वार्तालाप की रीति देखकर मेरे मन में शंका हो रही है कि तुम्हारा मन साफ नहीं है। हे युवती! इस तरह इस भयंकर वन में अकेली आयी हुई तुम्हें देखकर मेरा अवश्य ही शंकित है।

         लक्ष्मण की शंका बिलकुल सही है। लक्ष्मण की बुद्धि-सूक्षमता  प्रकट होती है।


कहूँ मानवी यदि मैं तुमको तो वैसा संकोच कहाँ? 

कहूँ दानवी तो उसमें है यह लावण्य कि लोच कहाँ? 

वनदेवी सम तो वह तो होती है भोली-भाली, 

तुम्ही बताओ कि तुम कौन हो हे रंजित रहस्यवाली?" 41

           मैं तुम्हें मानवी नहीं मान सकता, क्योंकि तुम में लज्जा नहीं, यदि दानवी कहूँ तो वह भी ठीक नहीं लगता, क्योंकि दानवों में ऐसा लावण्य और शारीरिक सौंदर्य नहीं। तुम्हें वन देवी समझना भी भूल होगी, क्योंकि वन देवी सरल हृदया होती है। सो हे रहस्यमयी रमणी! तुमहीं बताओ कि वास्तव में तुम हो कौन?

        कवि ने यहाँ नाटकीय शैली अपनायी है। संदेह अलंकार का प्रयोग हुआ है। 


"केवल इतना कि तुम कौन हो" बोली वह-"हा निष्ठुर कांत।

यह भी नहीं चाहती हो क्या कैसे हो मेरा मन शान्त? 

मुझे जान पड़ता है, तुमसे आज छली जाऊँगी मैं; 

किन्तु आ गयी हूँ जब तब क्या सहज चली जाऊँगी मैं? 42

         लक्ष्मण की बात सुनकर शूर्पणखा ने निराशा भरी लंबी सांस ली और कहा-हे प्यारे! तुम्हारा रूप कितना मनोहर और हृदय कितना कठोर है । तुम बडे निहुर हो । तुमने केवल यही पूछा "तुम्ही बताओं कि तुम कौन हो?" यह नहीं पूछा कि "तुमको चाहिए क्या?" अगर तुम इतना पूछते तो मेरे मन को कुछ आशा होती अब मेरे मन को शांति कैसे मिलेगी? आज शायत मैं ठगी भी जाऊँगी। जब तुम्हारे पास आ ही गयी तब आसानी से नहीं चली जाऊँगी।

        यहाँ शूर्पणखा की वासनावृत्ति का पता चलता है।


समझो मुझे अतिथि ही अपना कुछ आतिथ्य मिलेगा क्या? 

पत्थर पिघले, किन्तु तुम्हारा तब भी" हृदय हिलेगा क्या?" 

किया अधर-दंशन रमणी ने लक्ष्मण फिर भी मुस्काये, 

मुसकाकर ही बोले उससे - "हे शुभ मूर्तिमती माये। 43

        शूर्पणखा आत्म-निवेदन करती हुई लक्ष्मण से प्रेमाग्रह करती है।

         हे निठुर! मुझे तुम अपना अतिथि ही समझो। फिर शूर्पणखा को लक्ष्मण के आतिथ्य-सत्कार में संदेह है। वह आगे कहती है "पत्थर तो पिघल सकता है पर तुम्हारा हृदय नहीं । यह मेरा पूर्ण विश्वास है। इतना कहकर रमणी ने अपने ओंठ काट लिए। मुस्कुराकर लक्ष्मण बोले - हे मंगल की साकार मूर्ति-सी मालूम होनेवाली माये।

तुलना :

        माया महा ठगिनी हम जानी। (कबीरदास)

तुम अनुपम ऐश्वर्यवती हो, एक अकिंचन जन हूँ मैं, 

क्या आतिथ्य करुं, लज्जित हूँ, वन-वासी, निर्धन हूँ मैं !

" रमणी ने फिर कहा कि "मैने भाव तुम्हारा जान लिया, 

जो पैन तुम्हें दिया है विधि ने देवों को भी नहीं दिया। 44

         लक्ष्मण बोले -तुम्हें देखने से ही मालूम है कि तुम अनुपम वैभवशालिनी हो। मैं दरिद्र वनवासी हूँ। मैं क्या आतिथ्य कर सकता हूँ? मैं अपनी असमर्थता पर लज्जित हूँ। यह सुनकर सुन्दरी बोली तुम्हारा अभिप्राय जान लिया। तुम अपने को धनहीन कह रहे मैने हो। मैं तुमसे-कोई धन नहीं मांगती। सृष्टिकर्ता ने तुम्हें जो धन (अनुपम सौन्दर्य) प्रदान किया है, वह देवताओं के पास भी नहीं।

        शूर्पणखा की वाक्पटुता और कार्यकुशलता आश्चर्यजनक है।


किन्तु विराग भाव धारणकर बने स्वयं यदि तुम त्यागी 

तो ये रत्नाभरण वार दूं तुम पर मैं हे बड़भागी। 

धारण करुं योग तुम-सा ही भोग - लालसा के कारण, 

वर कर सकती हूँ मैं यों ही विपुल-विघ्न-बाधा वारण ॥ 45

          शूर्पणखा पुन : आत्म निवेदन करती है आश्चर्य की बात है कि इतने हसीन होते हुए भी अपने को त्यागी कहते हो। हे भाग्यशाली! में तुम्हारे लिए समस्त रत्नाभरणों को न्यौछावर कर सकती हैं। अपनी वासना की पूर्ति के लिए मैं तुम्हारे जैसे योग भी धारण कर सकती हूँ। लेकिन तुम्हें योग धारण करने की क्या आवश्यकता है? जितने तुम्हारे कष्ट हैं मैं उनका निवारण कर दूंगी। तुम मुझे अपनी इच्छा बताओ।

         शूर्पणखा की वाक्पटुता मनोवैज्ञानिक है।


इस व्रत में किस इच्छा से तुम व्रती हुए हो, बतलाओ? 

मुझमें वह सामर्थ्य है कि तुम जो चाहो सो सब पाओ। 

घन की इच्छा हो तुमको तो सोने का मेरा भू-भाग, 

शासक भूप बनो तुम उसके, त्यागो यह अति विषम विराग! 46

       शूर्पणखा लक्ष्मण से पूछती है - तुमने किस अभिलाषा की पूर्ति के लिए यह व्रत धारण किया है? अपने मन की अभिलाषा बताओ। मुझमें ऐसी शक्ति है कि मै तुम्हारी इच्छा पूर्ण कर सकती हूँ। अगर तुम्हें धन एश्वर्य की अभिलाषा हो तो कहो मैं अपने सोने का प्रदेश (लंका) दे दूंगी और तुम्हें उसका राजा बनाऊंगी। इस अतयंत कठोर वैराग्य को छोड दो।

       शूर्पणखा की व्यवहार कुशलता यहाँ स्पष्ट है।


और, किसी दुर्जय वैरी से, लेना है तुमको प्रतिशोध, 

तो आज्ञा दो, उसे जला दे कालानल-सा मेरा क्रोध। 

प्रेम-पिपासु किसी कान्ता के तपस्कूप यदि खनते को, 

तो सचमुच ही तुम भोले हो, क्यों मन को यों हनते हो। 47

            शूर्पणखा लक्ष्मण से कहती है यदि तुम्हें अपने किसी शक्तिशाली शत्रु से बदला लेना है तो तुम आज्ञा दो मेरी काल रूपी क्रोधाग्नि उसे जला डालेगी। यदी किसी प्रेमिका की प्यास में तपकर यह कुआँ खोद रहे हो तो तुम सचमुच भोले हो। तुम अपने मन को क्यों इस तरह मार रहे हो?


अरे, कौन है, वार न देगा जो इस यौवन-धन पर प्राण? 

खोओ इसे न यों ही हा हा! करो यत्न से इसका त्राण। 

किसी हेतु संसार भार-सा देता हो यदि तुमको ग्लानि, 

तो अब मेरे साथ उसे तुम एक और अवसर दो दानि!" 48

          लक्ष्मण के रूप की प्रशंसा करती हुई शूर्पणखा कहती है - तुम्हारे इस अनुपम यौवन धन पर अपने प्राणों को न्यौछावर न कर देनेवाली मूर्ख कौन होगी? तुम इस अमूल्य धन को वैराग्य और तप द्वारा नए मत करो प्रयत्नपूर्वक सावधानी से इसकी रक्षा करो। यदि यह संसार तुम्हें भार स्वरूप लगता है तो है दानी मुझे एक मौका और दो। मेरे साथ इस संसार में प्रवेश करो और देखो कि संसार तुम्हें कितना सुख और आनंद पहुँचायेगा।

         गुप्तजी ने नारी हृदय की ईर्ष्या की अभिव्यक्ति की है।


लक्ष्मण फिर गंभीर हो गये, बोले-"धन्यवाद, धन्ये! 

लालना सुलभ सहानुभूति है निश्चय तुममें नृपकन्ये । 

साधारण रमणी कर सकती है ऐसे प्रस्ताव कहीं?

पर मैं तुमसे सच कहता हूँ, कोई मुझे अभाव नहीं । ।"

               शूर्पणखा का निवेदन सुन्कर लक्ष्मण फिर गंभीर होकर बोले हे धन्ये! तुम्हारी इस सहानुभूति के लिए धन्यवाद । तुम्हारी यह भावना नारी सुलभ है। तुम अवश्य ही राजकुमारी हो, क्योंकि कोई साधारण स्त्री इतनी सुन्दर और स्पष्ट भाषा में प्रेम-प्रस्ताव नहीं कर सकती। लेकिन मै सच ही कहता हूँ कि मुझे किसी प्रकार की कमी नहीं है।


"तो फिर क्या निष्काम तपस्या करते हो तुम इस वय में ? 

पर क्या पाप न होगा तुमको आश्रम के धर्म्मक्षय में ? 

मान लो कि वह न हो, किन्तु इस तप का फल तो होगा ही, 

फिर वह स्वयं प्राप्त भी तुमसे, क्या न जायगा भोगा ही ? 50

             शूर्पणखा तर्क करती है - अगर तुम्हें किसी प्रकार की कमी नहीं है तो इस युवावस्था में क्यों निष्काम तपस्या कर रहे हो? क्या तुम्हें आश्रम की मर्यादा का भंग करने में पाप न लगेगा? यह उम्र गृहस्थाश्रम में रहने की है। तुम्हारा तप कामना रहित हो या कामना सहित, अवश्य उसका फल मिलेगा ही। क्या उसे स्वयं ही प्राप्त करके अकेले ही भोगना चाहते हो? (उस सुख को भोगने के लिए. तुम मुझे अपने साथ ले लो।)

           शूर्पणखा का शास्त्रीय ज्ञान यहाँ प्रकट होता है।

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