4. मंत्र
श्री मुंशी प्रेमचंद
संध्या का समय था। डॉक्टर चड्ढा गोल्फ खेलने के लिए तैयार हो रहे थे। मोटर के सामने खड़ी थी। दो आदमी एक डोली लिये आते दिखायी दिये। डोली के पीछे द्वार एक बूढ़ा लाठी टेकता चला आ रहा था। डोली औषधालय के सामने आकर रुक गयी। बूढ़े ने धीरे-धीरे आकर द्वार पर पड़ी हुई चिक से झाँका। ऐसी साफ़-सुथरी ज़मीन पर पैर रखते हुए भय हो रहा था कि कोई घुड़क न बैठे। डॉक्टर साहब को खड़े देख कर भी उसे कुछ कहने का साहस न हुआ।
डॉक्टर साहब ने चिक के अंदर से गरज कर कहा- कौन है? क्या चाहता है?
बूढ़े ने हाथ जोड़कर कहा- हुज़ूर, बड़ा गरीब आदमी हूँ। मेरा लड़का कई दिन से..... डॉक्टर साहब ने सिगार जला कर कहा - कल सबेरे आओ, कल सबेरे, हम इस वक्त मरीज़ों को नहीं देखते।
बूढ़े ने घुटने टेक कर ज़मीन पर सिर रख दिया और बोला- दुहाई है सरकार की, लड़का मर जायगा, चार दिन से आँखें नहीं ......
डॉक्टर चड्ढा ने कलाई पर नज़र डाली। केवल दस मिनट समय और बाकी था । गोल्फ स्टिक खूँटी से उतारते हुए बोले - कल सबेरे आओ, कल सबेरे; यह हमारे खेलने का समय है।
बूढ़े ने पगड़ी उतार कर चौखट पर रख दी और रोकर बोला- हुज़ूर, एक निगाह देख लें। बस, एक निगाह! लड़का हाथ से चला जायगा । हुज़ूर, सात लड़कों में यही एक बच रहा है, हुज़ूर । हम दोनों आदमी रो-रोकर मर जायेंगे, सरकार! आपकी बढ़ती होय, दीनबंधु!
ऐसे उजड्ड देहाती यहाँ प्रायः रोज आया करते थे। डॉक्टर साहब उनके स्वभाव से खूब परिचित थे। कोई कितना ही कुछ कहे; पर वे अपनी ही रट लगाते जायँगे। किसी की सुनेंगे नहीं। धीरे से चिक उठाई और बाहर निकल कर मोटर की तरफ़ चले । बूढ़ा यह कहता हुआ उनके पीछे दौड़ा-सरकार, बड़ा धरम होगा। हुज़ूर, दया कीजिए, बड़ा दीन दुखी हूँ; संसार में कोई और नहीं है, बाबू जी।
मगर डॉक्टर साहब ने उसकी ओर मुँह फेर कर देखा तक नहीं। मोटर पर बैठ बोले - कल सबेरे आना ।
मोटर चली गयी। बूढ़ा कई मिनट तक मूर्ति की भाँति निश्चल खड़ा रहा। संसार में ऐसे मनुष्य भी होते हैं, जो अपने आमोद-प्रमोद के आगे किसी की जान की भी परवाह नहीं करते, शायद इसका उसे अब भी विश्वास न आता था। सभ्य संसार इतना निर्मम, कठोर है, इसका ऐसा मर्मभेदी अनुभव अब तक न हुआ था। वह उन पुराने जमाने के जीवों में था, जो लगी हुई आग को बुझाने, मुर्दे को कंधा देने, किसी के छप्पर को उठाने और किसी कलह को शांत करने के लिए सदैव तैयार रहते थे । इतना
उसी रात उसका हँसता-खेलता सात साल का बालक अपनी बाल-लीला समाप्त करके इस संसार से सिधार गया । बूढ़े माँ-बाप के जीवन का यही एक आधार था। इसी का मुँह देख कर जीते थे। इस दीपक के बुझते ही जीवन की अँधेरी रात भाँय-भाँय करने लगी। बुढ़ापे की विशाल ममता टूटे हुए हृदय से निकल कर अंधकार आर्त्त-स्वर से रोने लगी।
2
कई साल गुजर गये। डॉक्टर चड्ढा ने खूब यश और धन कमाया; लेकिन इसके साथ ही अपने स्वास्थ्य की रक्षा भी की, जो एक साधारण बात थी। यह उनके नियमित जीवन का आशीर्वाद था कि पचास वर्ष की अवस्था में उनकी चुस्ती और फुर्ती युवकों को भी लज्जित करती थी। उनके हर एक काम का समय नियत था, इस नियम से वह जौ-भर भी न टलते थे। उनके केवल दो बच्चे हुए, एक लड़का और एक लड़की । लड़की का तो विवाह हो चुका था । लड़का कालेज़ में पढ़ता था। आज उसकी बीसवीं सालगिरह थी।
संध्या का समय था। हरी - हरी घास पर कुर्सियाँ बिछी हुई थीं। शहर के रईस और हुक्काम एक तरफ़, कालेज़ के छात्र दूसरी तरफ़ बैठ भोजन कर रहे थे। बिजली के प्रकाश से सारा मैदान जगमगा रहा था । आमोद-प्रमोद का सामान भी जमा था।
मृणालिनी और कैलाश दोनों सहपाठी थे और एक-दूसरे के प्रेम में पगे हुए। कैलाश को साँपों के पालने, खेलाने और नचाने का शौक था । तरह-तरह के साँप पाल रखे थे। उनके स्वभाव और चरित्र की परीक्षा करता रहता था। थोड़े दिन हुए, उसने विद्यालय में ‘साँपों' पर एक मार्के का व्याख्यान दिया था। साँपों को नचा कर दिखाया भी था।
प्राणिशास्त्र के बड़े-बड़े पंडित भी यह व्याख्यान सुन कर दंग रह गये थे। यह विद्या उसने एक बड़े सँपेरे से सीखी थी। साँपों की जड़ी-बूटियाँ जमा करने का उसे मरज था।
ज्योंहि प्रीति-भोज समाप्त हुआ और गाना शुरू हुआ, उसने मृणालिनी और अन्य मित्रों को साँपों के दरबे के सामने ले जाकर महुअर बजाना शुरू किया। फिर एक-एक खाना खोलकर एक-एक साँप को निकालने लगा। वाह! क्या कमाल था। ऐसा जान पड़ता था कि वे कीड़े उसकी एक-एक बात, उसके मन का एक-एक भाव समझते हैं। किसी को उठा लिया, किसी को गरदन में डाल लिया, किसी को हाथ में लपेट लिया।
एक मित्र ने टीका की-दाँत तोड़ डाले होंगे।
कैलाश हँसकर बोला-दाँत तोड़ डालना मदारियों का काम है। किसी के दाँत नहीं तोड़े गये कहिए तो दिखा दूँ? कहकर उसने एक काले साँप को पकड़ लिया और बोला “मेरे पास इससे बड़ा और जहरीला साँप दूसरा नहीं है, अगर किसी को काट ले, तो आदमी आनन-फानन में मर जाय । लहर भी न आये। इसके काटे पर मंत्र नहीं। इसके दाँत दिखा दूँ?"
मृणालिनी ने उसका हाथ पकड़कर कहा - नहीं-नहीं कैलाश, ईश्वर के लिए इसे छोड़ दो। तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ।
इस पर एक दूसरे मित्र बोले- मुझे तो विश्वास नहीं आता, लेकिन तुम कहते हो, तो मान लूँगा।
इसलिए कैलाश ने उस साँप की गर्दन खूब दबा कर मुँह खोल दिया और उसके ज़हरीले दाँत दिखाते हुए बोला "जिन सज्जनों को शक हो, आकर देखे लें। आया विश्वास ? या अब भी कुछ शक है?" मित्रों ने आकर उसके दाँत देखे और चकित हो गये। प्रत्यक्ष प्रमाण के सामने संदेह का स्थान कहाँ ? मित्रों का शंका-निवारण करके कैलाश ने साँप की गर्दन ढीली कर दी और उसे ज़मीन पर रखना चाहा, पर वह काला गेहुँवन क्रोध से पागल हो रहा था। गर्दन नरम पड़ते ही उसने सिर उठा कर कैलाश की उँगली में जोर से काटा और वहाँ से भागा । कैलाश की उँगली से टप-टपकर खून टपकने लगा। उसने जोर से उँगली दबा ली और अपने कमरे की तरफ़ दौड़ा। वहाँ मेज़ की दराज में एक जड़ी रखी हुई थी, जिसे पीस कर लगा देने से घातक विष भी रफू हो जाता था। मित्रों में हलचल पड़ गई। बाहर महफिल में भी खबर हुई। डॉक्टर साहब घबरा कर दौड़े। फौरन उँगली की जड़ कस कर बाँधी गयी और जड़ी पीसने के लिए दी गयी। डॉक्टर साहब जड़ी के कायल न थे। वह उँगली का डसा भाग नश्तर से काट देना चाहते थे, मगर कैलाश को जड़ी पर पूर्ण विश्वास था। यह खबर सुनते ही मृणालिनी दौड़ी, और कैलाश की उँगली से टपकते हुए खून को रूमाल से पोंछने लगीं। जड़ी पीसी जाने लगी; पर उसी एक मिनट में कैलाश की आँखें झपकने लगीं, ओंठों पर पीलापन दौड़ने लगा। यहाँ तक कि वह खड़ा न रह सका। फर्श पर बैठ गया। सारे मेहमान कमरे में जमा हो गए। कोई कुछ कहता था। कोई कुछ। इतने में जड़ी पीसकर आ गयी। मृणालिनी ने उँगली पर लेप किया। एक मिनट और बीता। कैलाश की आँखें बंद हो गयीं। वह लेट गया और हाथ से पंखा झलने का इशारा किया। माँ ने दौड़कर उसका सिर गोद में रख लिया और बिजली का टेबुल-फेन लगा दिया।
डॉक्टर साहब ने झुक कर पूछा- कैलाश, कैसी तबीयत है? कैलाश ने धीरे से हाथ उठा लिए; पर कुछ बोल न सका। मृणालिनी ने करुण स्वर में कहा-“क्या जड़ी कुछ असर न करेगी?” डॉक्टर साहब ने सिर पकड़ कर कहा-क्या बतलाऊँ, मैं इसकी बातों में आ गया । अब तो नश्तर से भी कुछ फायदा न होगा ।
आधे घंटे तक यही हाल रहा। कैलाश की दशा प्रतिक्षण बिगड़ती जाती थी। यहाँ तक कि उसकी आँखें पथरा गयी, हाथ-पाँव ठंडे पड़ गये, मुख की कांति मलिन पड़ गयी, में नाड़ी का कहीं पता नहीं। मौत के सारे लक्षण दिखायी देने लगे। घर में कुहराम मच गया। मृणालिनी एक ओर सिर पीटने लगी; माँ अलग पछाड़े खाने लगी। डॉक्टर चड्ढा को मित्रों ने पकड़ लिया, नहीं तो वह नश्तर अपनी गर्दन पर मार लेते।
एक महाशय बोले - कोई मंत्र झाड़ने वाला मिले, तो संभव है, अब भी जान बच जाय ।
एक मुसलमान सज्जन ने इसका समर्थन किया-अरे साहब कब्र में पड़ी हुई लाशें जिंदा हो गयी हैं। ऐसे-ऐसे बाकमाल पड़े हुए है। हैं।
डॉक्टर बोले-मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गया था कि इसकी बातों में आ चड्ढा गया। नश्तर लगा देता, तो यह नौबत ही क्यों आती। बार-बार समझाता रहा कि बेटा, सॉप न पालो, मगर कौन सुनता था । बुलाइए, किसी झाड़-फूक करने वाले ही को बुलाइए। मेरा सब कुछ ले ले, मैं अपनी सारी जायदाद उसके पैरों पर रख दूँगा। लँगोटी बाँधकर घर से निकल जाऊँगा; मगर मेरा कैलाश, मेरा प्यारा कैलाश उठ बैठे। ईश्वर के लिए किसी को बुलवाइए।
एक महाशय का किसी झाड़ने वाले से परिचय था। वह दौड़कर उसे बुला लाये; मगर कैलाश की सूरत देखकर उसे मंत्र चलाने की हिम्मत न पड़ी। बोला- अब क्या हो सकता है, सरकार ? जो कुछ होना था, हो चुका।
अरे मूर्ख, यह क्यों नहीं कहता कि जो कुछ न होना था, वह कहाँ हुआ?
3
शहर से कई मील दूर एक छोटे-से घर में एक बूढ़ा और बुढ़िया अँगीठी के सामने बैठे जाड़े की रात काट रहे थे। बूढ़ा नारियल पीता था और बीच-बीच में खाँसता था। बुढ़िया दोनों घुटनों में सिर डाले आग की ओर ताक रही थी। एक मिट्टी के तेल की कुप्पी ताक पर जल रही थी। घर में न चारपाई थी, न बिछौना। एक किनारे थोड़ी-सी पुआल पड़ी हुई थी। इसी कोठरी में एक चूल्हा था । बुढ़िया दिन-भर उपले और सूखी लकडियाँ बटोरती थी। बूढ़ा रस्सी बट कर बाज़ार में बेच आता था । यही उनकी जीविका थी। उन्हें न किसी ने रोते देखा, न हँसते । उनका सारा समय जीवित रहने में कट जाता था। मौत द्वार पर खड़ी थी, रोने या हँसने की कहाँ फुरसत! बुढ़िया ने पूछा-कल के लिए सन तो है नहीं, काम क्या करोगे?
'जाकर झगडू साह से दस सेर सन उधार लाऊँगा?'
'उसके पहले के पैसे तो दिये ही नहीं, और उधार कैसे देगा?'
‘न देगा न सही। घास तो कहीं नहीं गयी। दोपहर तक क्या दो आने की भी न काँगा?'
इतने में एक आदमी ने द्वार पर आवाज़ दी-भगत, भगत, क्या सो गये? ज़रा किवाड़ खोलो।
भगत ने उठकर किवाड़ खोल दिये। एक आदमी ने अंदर आकर कहा- कुछ सुना, डॉक्टर चड्ढा बाबू के लड़के को साँप ने काट लिया।
भगत ने चौंक कर कहा- चड्ढा बाबू के लड़के को। वही चड्ढा बाबू हैं न, जो छावनी में बंगले में रहते हैं?
'हाँ हाँ वही। शहर में हल्ला मचा हुआ है। जाते हो तो जाओ, आदमी जाओगे।'
बूढ़े ने कठोर भाव से सिर हिला कर कहा-मैं नहीं जाता। मेरी बला जाय। वहीं सुन है। खूब जानता हूँ। भैया, लेकर उन्हीं के पास गया था। खेलने जा रहे थे। पैरों पर चड्ढा गिर पड़ा कि एक नज़र देख लीजिए, मगर सीधे मुँह से बात तक न की। भगवान बैठे रहे थे। अब जान पड़ेगा कि बेटे का गम कैसा होता है। कई लड़के हैं ।
'नहीं जी, यही तो एक लड़का था। सुना है, सबने जवाब दे दिया है।'
'भगवान बड़ा कारसाज है। उस बखत मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े थे, पर उन्हें तनिक भी दया न आयी थी। मैं तो उनके द्वार पर होता, तो भी बात न पूछता।' ‘तो न जाओगे? हमने जो सुना था, सो कह दिया।'
'अच्छा किया—अच्छा किया। कलेजा ठंडा हो गया, आँखें ठंडी हो गयीं। लड़का भी ठंडा हो गया होगा। तुम जाओ आज चैन की नींद सोऊँगा । (बुढ़िया से) जरा तंबाकू ले ले! एक चिलम और पीऊँगा । अब मालूम होगा लाला को। सारी साहबी निकल जायगी, हमारा क्या बिगड़ा। लड़के के मर जाने से कुछ राज तो नहीं चला गया? जहाँ छः बच्चे गये थे, वहाँ एक और चला गया, तुम्हारा तो राज सूना हो जायेगा। इन्होंने उसी के वास्ते सबका गला दबा-दबाकर जोड़ा था न अब क्या करोगे? एक बार देखने जाऊँगा; पर कुछ दिन बाद मिजाज का हाल पूछूंगा।'
आदमी चला गया। भगत ने किवाड़ बंद कर लिये, तब चिलम पर तंबाखू रख कर पीने लगा। बुढ़िया ने कहा-इतनी रात गए, जाड़े-पाले में कौन जायगा?
'अरे, दोपहर ही होता तो मैं न जाता। सवारी दरवाजे पर लेने आती, तो भी न जाता। भूल नहीं गया हूँ। पन्ना की सूरत आँखों में फिर रही है। इस निर्दयी ने उसे एक नज़र देखा तक नहीं। क्या मैं न जानता था कि वह न बचेगा? खूब जानता था। चड्ढा भगवान नहीं थे, कि उनके एक निगाह देख लेने से अमृत बरस जाता। नहीं, खाली मन की दौड़ थी। अब किसी दिन जाऊँगा और कहूँगा-क्यों साहब, कहिए, क्या रंग है? दुनिया बुरा कहेगी, कहे; कोई परवाह नहीं। छोटे आदमियों में तो सब ऐब हैं। बड़ों में कोई ऐब नहीं होता, देवता होते हैं।'
भगत के लिए यह जीवन में पहला अवसर था कि ऐसा समाचार पा कर वह बैठा रह गया हो।
अस्सी वर्ष के जीवन में ऐसी कभी न हुआ था कि साँप की ख़बर पाकर वह दौड़ न गया हो। माघ-पूस की अँधेरी रात, चैत-बैसाख की धूप और लू, सावन-भादों की चढ़ी हुई नदी और नाले, किसी की उसने कभी परवाह न की वह तुरंत घर से निकल पड़ता था निःस्वार्थ, निष्काम । लेन-देन का विचार कभी दिल में आया नहीं। यह ऐसा काम ही न था। जान का मूल्य कौन दे सकता है? यह एक पुण्य-कार्य था। सैकड़ों निराशों को उसके मंत्रों ने जीवन-दान दे दिया था; पर आप वह घर से कदम नहीं निकाल सका। यह खबर सुन कर सोने जा रहा है ।
बुढ़िया ने कहा–तमाखू अँगीठी के पास रखी हुई है। उसके भी आज ढाई पैसे हो गये । देती ही न थी।
बुढ़िया यह कहकर लेटी । बूढ़े ने कुप्पी बुझायी, कुछ देर खड़ा रहा, फिर बैठ गया। अंत को लेट गया; पर यह खबर उसके हृदय पर बोझे की भाँति रखी हुई थी। उसे मालूम हो रहा था, उसकी कोई चीज़ खो गयी है, जैसे सारे कपड़े गीले हो गये है या पैरों में कीचड़ लगा हुआ है, जैसे कोई उसके मन में बैठा हुआ उसे घर से निकालने के लिए कुरेद रहा है। बुढ़िया ज़रा देर में खर्राटे लेनी लगी। बूढ़े बातें करते-करते सोते हैं और ज़रा-सा खटा होते ही जागते हैं। तब भगत उठा, अपनी लकड़ी उठा ली, और धीरे से किवाड़ खोले ।
बुढ़िया ने पूछा–कहाँ जाते हो?
'कहीं नहीं, देखता था कि कितनी रात है।'
'अभी बहुत रात है, सो जाओ'।
'नींद नहीं आती।'
‘नींद काहे आयेगी? मन तो चड्ढा के घर पर लगा हुआ है।'
'चड्ढा ने मेरे साथ कौन-सी नेकी कर दी है, जो वहाँ जाऊँ? वह आ कर पैरो पड़े, तो भी न जाऊँ ।'
'उठे तो तुम इसी इरादे से ही?"
'नहीं री, ऐसा पागल नहीं हूँ कि जो मुझे काँटे बोये, उसके लिए फूल बोता फिरूँ।'
बुढ़िया फिर सो गयी। भगत ने किवाड़ लगा दिए और फिर आकर बैठा। पर उसके मन की कुछ ऐसी दशा थी, तो बाजे की आवाज़ कान में पड़ते ही उपदेश सुननेवालों की होती हैं। आँखें चाहे उपदेशक की ओर हों; पर कान बाजे ही की ओर होते हैं। दिल में भी बापे की ध्वनि गूँजती रहती है। शर्म के मारे जगह से नहीं उठता। निर्दयी प्रतिघात का भाव भगत के लिए उपदेशक था, पर हृदय उस अभागे युवक की ओर था, जो इस समय मर रहा था, जिसके लिए एक-एक पल का विलंब घातक था ।
उसने फिर किवाड़ खोले, इतने धीरे से कि बुढ़िया को खबर भी न हुई। बाहर निकल आया। उसी वक्त गाँव के चौकीदार गश्त लगा रहा था, बोला- कैसे उठे भगत? आज तो बड़ी सरदी है। कहीं जा रहे हो क्या ?
भगत ने कहा-नहीं जी, जाऊँगा कहाँ, देखता था, अभी कितनी रात है। भला, के बजे होंगे?
चौकीदार बोला-एक बजा होगा और क्या, अभी थाने से आ रहा था, तो डॉक्टर चड्ढा बाबू के बँगले पर बड़ी भीड़ लगी हुई थी। उनके लड़के का हाल तो तुमने सुना होगा, कीड़े ने छू लिया है। चाहे मर भी गया हो। तुम चले जाओ तो शायद बच जाय । सुना है, दस हज़ार तक देने को तैयार हैं। भगत - " मैं तो न जाऊँ चाहे वह दस लाख भी दें। मुझे दस हज़ार या दस लाख लेकर करना क्या है? कल मर जाऊँगा, फिर कौन है।" भोगनेवाला बैठा हुआ है। "
चौकीदार चला गया। भगत ने आगे पैर बढ़ाया। जैसे नशे में आदमी की देह अपने काबू में नहीं रहती, पैर कहीं रखता है, पड़ता कहीं है, कहता कुछ है, जबान से निकलता कुछ है, वही हाल इस समय भगत का था। मन में प्रतिकार था; पर कर्म, मन के अधीन न था। जिसने कभी तलवार नहीं चलायी, वह इरादा करने पर भी तलवार नहीं चला सकता। उसके हाथ काँपते हैं, उठते ही नहीं।
भगत लाठी खट-खट करता लपका चला जाता था। चेतना रोकती थी, पर उपचेतना ठेलती थी। सवेक स्वामी पर हावी था।
आधी राह निकल जाने के बाद सहसा भगत रुक गया। हिंसा ने क्रिया पर विजय पायी-मैं यों ही इतनी दूर चला आया। इस जाड़े-पाले में मरने की मुझे क्या पड़ी थी? आराम से सोया क्यों नहीं? नींद न आती, न सही; दो-चार भजन ही गाता । व्यर्थ इतनी दूर दौड़ा आया । चड्ढा का लड़का रहे या मरे, मेरी कला से। मेरे साथ उन्होंने ऐसा कौन-सा सलूक किया था कि मैं उनके लिए मरूँ? दुनिया में हज़ारों मरते हैं हज़ारों जीते हैं। मुझे किसी के मरने-जीने से मतलब ।
मगर उपचेतना ने अब एक दूसरा रूप धारण किया, जो हिंसा से बहुत कुछ मिलता-जुलता था-वह झाड़-फूँक करने नहीं जा रहा है; वह देखेगा, कि लोग क्या कर रहे हैं। डॉक्टर साहब का रोना-पीटना देखेगा, किस तरह सिर पीटते हैं, किस तरह पछाड़े खाते हैं। वे लोग तो विद्वान होते हैं, सबर कर जाते होंगे। हिंसा-भाव को यों धीरज देता हुआ वह फिर आगे बढ़ा।
इतने में दो आदमी आते दिखायी दिये। दोनों बातें करते चले आ रहे थे-चड्ढा बाबू का घर उजड़ गया, वही तो एक लड़का था। भगत के कान में यह आवाज़ पड़ी। उसकी चाल और भी तेज़ हो गयी। थकान के मारे पाँव न उठते थे। शिरोभाग इतना बढ़ा जाता था, मानों अब मुँह के बल गिर पड़ेगा। इस तरह वह कोई दस मिनट चला होगा कि डॉक्टर साहब का बँगला नज़र आया । बिजली की बत्तियाँ जल रही थीं; मगर सन्नाटा छाया हुआ था। रोने-पीटने की आवाज़ भी न आती थी । भगत का कलेजा धक धक करने लगा। कहीं मुझे बहुत देर तो नहीं हो गयी? वह दौड़ने लगा। अपनी उम्र में वह इतना तेज़ कभी न दौड़ा था । बस, यही मालूम होता था, मानो उसके पीछे मौत दौड़ी आ रही है ।
4
दो बज गये थे। मेहमान विदा हो गये। रोनेवालों में केवल आकाश के तारे रह गये थे। और सभी रो-रोकर थक गये थे। बड़ी उत्सुकता के साथ लोग रह-रह आकाश की ओर देखते थे कि किसी तरह सुबह हो और लाश गंगा की गोद में दी जाय।
सहसा भगत ने द्वार पर पहुँच कर आवाज दी। डॉक्टर साहब समझे, कोई म आया होगा। किसी और दिन हो तो उन्होंने उस आदमी को दुत्कार दिया होता; मगर बाहर निकल आये। देखा एक बूढ़ा आदमी खड़ा है कमर झुकी हुई, पोपला मुँह, सफ़ेद हो गयी थी। लकड़ी के सहारे काँप रहा था। बड़ी नम्रता से बोले- क्या है मई, आर तो हमारे ऊपर ऐसी मुसीबत पड़ गयी है कि कुछ कहते नहीं बनता, फिर कभी आना। इधर एक महीना तक तो शायद में किसी भी मरीज को न देख सकूँगा।
भगत ने कहा-सुन चुका हूँ बाबू जी, इसीलिए आया हूँ। भैया कहाँ है? जरा मुझे दिखा दीजिए। भगदान बड़ा कारसाज है, मुरदे को भी जिला सकता है। कौन जाने भी उसे दया आ जाय। चड्ढा ने व्यथित स्वर से कहा चलो, देख लो, मगर तीन-चार घंटे हो गये। जो कुछ होना था, हो चुका। बहुतेरा झाड़ने-फूंकनेवाले देख-देखकर चले गये।
डॉक्टर साहब को आशा तो क्या होती हाँ, बूढ़े पर दया आ गयी। अंदर ले गये। भगत ने लाश को एक मिनट तक देखा। तब मुस्कराकर बोला- अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, बाबू जी यह नारायण चाहेंगे, तो आधे घंटे में भैया उठ बैठेगा। आप नाहक दिल छोटा कर रहे हैं। जरा किसी से कहिए, पानी तो भरे।
किसी ने पानी भर-भरकर कैलाश को नहलाना शुरू किया। पाइप बंद हो गया। था। नौकरों की संख्या अधिक न थी. इसलिए मेहमानों ने अहाते के बाहर के कुएँ से पानी भर-भरकर दिया, मृणालिनी कैलाश के लिए पानी ला रही थी। बूढा भगत खड़ा मुस्करा- मुस्कराकर मंत्र पढ़ रहा था मानो विजय उसके सामने खड़ी है। जब एक बार मंत्र समाप्त हो जाता, तब एक जड़ी कैलाश के सिर पर डाली गयी और न जाने कितनी बार भगत ने मंत्र फूँका आखिर जब उषा ने अपनी लाल-लाल आँखें खोली तो कैलाश की भी लाल-लाल आँखें खुल गयीं। एक क्षण में उसने अंगड़ाई ली और पानी पीने को माँगा। डॉक्टर चड्ढा ने दौड़कर नारायणी को गले लगा लिया। नारायणी दौड़कर भगत के पैरों पर गिर पड़ी और मृणालिनी कैलाश के सामने आँखों में आंसू-भरे पूछने लगी-"अब कैसी तबीयत है ?"
एक क्षण में चारों तरफ़ खबर फैल गयी। मित्रगण मुबारकबाद देने आने लगे। डॉक्टर साहब बड़ी श्रद्धा से हर एक के सामने भगत का यश गाते फिरते थे। सभी लोग भगत के दर्शनों के लिए उत्सुक हो उठे; मगर अंदर जाकर देखा, तो भगत का कहीं पता न था। नौकरों ने कहा-अभी तो यहीं बैठे चिलम पी रहे थे। हम लोग तमाखू देने लगे, तो नहीं ली, अपने पास से तमाखु निकाल कर भरी।
यहाँ तो भगत की चारों ओर तलाश होने लगी, और भगत लपका हुआ घर चला जा रहा था कि बुढ़िया के उठने से पहले पहुँच जाऊँ।
जब मेहमान लोग चले गये, तो डॉक्टर साहब ने नारायणी से कहा- बुड्ढा न जाने कहाँ चला गया। एक चिलम तमाखू का भी रवादार न हुआ।
नारायणी - “ मैंने तो सोचा था, इसे कोई बड़ी रकम दूँगी।”
चड्ढा - "रात को तो मैंने नहीं पहचाना, पर जरा साफ़ हो जाने पर पहचान गया। एक बार यह एक मरीज़ को लेकर आया था। मुझे अब याद आती है कि मैं खेलने जा रहा था और मरीज़ को देखने से इनकार कर दिया था। अब उस दिन की बात याद करके मुझे जितनी ग्लानि हो रही है, उसे प्रकट नहीं कर सकता। मैं उसे अब खोज़ निकालूँगा और उसके पेरों पर गिर कर अपना अपराध क्षमा कराऊँगा। वह कुछ लेगा नहीं, यह जानता हूँ, उसका जन्म यश की वर्षा करने ही के लिए हुआ है। उसकी सज्जनता ने मुझे ऐसा आदर्श दिखा दिया है, जो अब से जीवनपर्यंत मेरे सामने रहेगा।"
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कहानी का सारांश
मंत्र
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मंत्र
"मंत्र" उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद्र की एक प्रसिद्ध कहानी है। इस कहानी में प्रतिकूल परिस्थिति में भी अपने नेक स्वभाव को न छोड़नेवाले व्यक्ति का चरित्र चित्रण है।
भगत, साँप से कटे व्यक्तियों को अपने मंत्रों के द्वारा बचानेवाला ग्रामीण है। अपनी सात संतानों में से बची आखिरी बीमार बच्चे को लेकर डाक्टर चड्ढा के पास चिकित्सा के लिए ले जाता है। डाक्टर साहब इसलिए उस बच्चे को देखने मना करते हैं कि अब उनके खेलने का समय है। बहुत अनुनय विनय करने पर भी वे नहीं मानते। बूढ़ा अपने जीवन के एक मात्र सहारे को खो बैठता है।
समय के फेर से यही परिस्थिति डाक्टर साहब के जीवन में भी आ खड़ी होती है। डाक्टर साहब के बेटे कैलाश को साँपों के पालने, खेलाने और नचाने का शौक था। वह अपनी बीसवीं सालगिरह में अपनी प्रेमिका मृणालिनी के आग्रह तथा मित्रों के उकसाने पर अपने सर्प-कला प्रदर्शन दिखाने लगता है। एक जहरीली साँप के गले दबाते समय, वह क्रोधित होकर कैलाश को काट देता है। सब लोग घबरा जाते हैं। डाक्टर साहब के होश उड़ जाते हैं। किसी भी जड़ी का असर नहीं पड़ता। मंत्र पढ़ने पर ही जान बचने की नौबत आ जाती है।
यह खबर मिलने पर पहले भगत को सांतवना मिलती है कि भगवान ने डाक्टर साहब को अच्छा सबक सिखाया। लेकिन उसके अंतःकरण ने उसे चैन की नींद नही सोने दिया। उसे लगता है कि उसकी हर क्षण की देरी कैलाश के लिए घातक है। उसके पैर अपने आप डाक्टर साहब के घर की ओर बढ़ता है। बहुत देर तक मंत्र पढ़कर कैलाश को बचा लेता है। अपना कर्तव्य समाप्त होने पर तुरंत वहाँ से निकल जाता है। आधी रात में डाक्टर साहब उसे पहचान नहीं पाते। लेकिन पहचानने के बाद वे आत्मग्लानि से भर जाते हैं। किसी भी तरह उसे ढूँढकर क्षमा याचना करने का निश्चय कर लेते हैं।
सीख:- प्रतिकूल परिस्थिति में ईमानदारी का पालन करना नेक व्यक्ति का लक्षण है।