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Tuesday, January 9, 2024

जयशंकर प्रसाद / रचनाएँ

 

                        जयशंकर प्रसाद

         बाबू जयशंकर प्रसाद की प्रतिभा हिन्दी साहित्य में सर्वतोमुखी है। वे कवि, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार और निबन्धकार है। -



काव्य : 

प्रसाद जी ने प्रेम राज्य (1909 ई.), वन मिलन (1909 ई.), अयोध्या का उद्धार (1910 ई.), शोकोच्छवास (1910 ई.), प्रेम पथिक (1914 ई.), महाराणा का महत्त्व (1914 ई.), कानन कुसुम, चित्रकार (1918 ई.), झरना (1918. ई.), आँसू (1925 ई.), लहर (1933 ई.) और कामायनी (1934 ई.) नामक काव्य लिखे हैं। कामायनी की गणना विश्व साहित्य में की जाती है।


नाटक : 

प्रसाद ने चौदह नाटक लिखे और दो का संयोजन किया था।

(1) 'सज्जन' (सन् 1910-11) : 

उनकी प्रारंभिक एकांकी नाट्य कृति है। उसकी कथावस्तु महाभारत की एक घटना पर आधारित है। चित्ररथ कौरवों को पराजित कर बंदी बनाता है। युधिष्ठिर को इसका पता चलता है तो वे अर्जुन आदि को चित्ररथ से युद्ध करने केलिए भेजते हैं। युद्ध में चित्ररथ पराजित होता। दुर्योधन की निष्कृति होती है। युधिष्ठर के उदात्त चरित्र को देखकर चित्ररथ, इंद्र आदि देवता प्रसन्न होते हैं।

इसमें प्रसाद ने प्राचीन भारतीय नाट्य-तत्त्वों (नांदी, प्रस्तावना, भरतवाक्य आदि) का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं पाश्चात्य तत्त्वों का भी प्रयोग किया है।

(2) कल्याणी परिणय (सन् 1912) : 

इसकी कथावस्तु यह है कि चन्द्रगुप्त चाणक्य की सहायता से नंद वंश का विनाश करता है और उसकी कन्या कल्याणी से विवाह कर लेता है। इसमें भी प्राचीन नाट्य तत्त्वों का प्रयोग किया गया है।

(3).प्रायश्चित्त (सन् 1912) : 

इसमें मुसलमान शासन के आरंभ और राजपूत राजाओं के अवसान का वर्णन मिलता है। जयचंद्र मुहम्मद गोरी को आमंत्रित करता है और पृथ्वीराज को ध्वस्त करा देता है। जब अपनी बेटी संयोगिता की करुणा विगलित मूर्ति उसके ध्यान में आती है तो वह पश्चात्ताप से काँप उठता है। गंगा में डूबकर आत्म-हत्या कर लेता है। इसमें प्रसादजी ने प्राचीन परिपाटी (नांदी पाठ, प्रशस्ति आदि) को छोड दिया है।

(4) करुणालय (सन् 1913) :

 हिन्दी में नीति-नाट्य की दृष्टि से यह प्रथम प्रयास है। यह एकांकी नाटक है। यह पाँच दृश्यों में विभक्त है। इसमें राजा हरिश्चंद्र की कथा है। नाट्य-कला से अधिक इसमें कहानी-कला का विकास लक्षित होता है।

(5) यशोधर्म देव : 

प्रसाद जी ने इसकी रचना सन् 1915 में की थी। परन्तु यह अप्रकाशित है।

(6) राज्यश्री (सन् 1915) : 

नाट्य-कला की दृष्टि से प्रसाद ने इसमें पूर्ण सफलता प्राप्त की है। इसकी कथा संक्षेप में इस प्रकार है- राज्यश्री राज्यवर्धन तथा हर्षवर्धन की बहन है। वह शांतिदेव के चंगुल में फँसती है। अंततः वह दिवाकर की सहायता से उसके चंगुल से मुक्त होती है। वह आत्मदाह करना चाहती है। हर्षवर्धन उसे वैसे करने से रोक देता है। अन्त में भाई-बहन बौद्ध-धर्म के अनुयायी बनते हैं। यह प्रसाद का पहला ऐतिहासिक नाटक है।

(7) विशाख (सन् 1921) : 

प्रसादजी ने सन् 1921 में इसकी रचना की। इसमें व्यवस्थित भूमिका मिलती है। इसमें प्रसाद ने अपनी रचनाओं के उद्देश्य को बताया है। इस नाटक का प्रमुख पात्र विशाख है। वह तक्षशिला के गुरुकुल से शिक्षा समाप्त कर वापस आ रहा है। वह सुश्रुदा नामक नाग को एक बौद्ध भिक्षु के कर्ज से मुक्त करा देता है। इससे प्रसन्न सुश्श्रुदा अपनी बेटी चंद्रलेखा का विवाह विशाख से कर देता है। परन्तु तक्षशिला के राजा नरदेव चन्द्रलेखा को पहले छल-छद्म से और बाद में बलप्रयोग से अपने वश करना चाहता है। परन्तु वह इस प्रयत्न में असफल होता है। उसकी लंपटता और कुपथगामिता से खिन्न उसकी पत्नी आत्महत्या कर लेती है।

(8) अजातशत्रु (सन् 1922) : 

इसमें प्रसाद ने भारतीय और पाश्चात्य नाट्य सिद्धांतों का सश्लिष्ट एवं उत्कृष्ट प्रयोग किया है। भगवान बुद्ध के प्रभाव से, बिंबसार शासन से विरक्त होकर अपने पुत्र अजातशत्रु को राज्य-सत्ता सौंपता है। परन्तु देवदत्त (गौतम बुद्ध का प्रतिबन्दी) की उत्प्रेरणा से कोशल के राजकुमार विरुद्धक के पक्ष में अजातशत्रु अपने पिता बिम्बसार और अपनी बडी माँ वासवी को प्रतिबन्ध में रखने लगता है। कौशम्बी नरेश अजातशत्रु को कैद कर देता है। वासवी की सहायता से अजातशत्रु की निष्कृति होती है। जब अजातशत्रु पिता बनता है तो उसमें पितृत्व के आलोक का उदय होता है। वह अपने पिता से क्षमा-याचना करता है।

(9) जनमेजय का नागयज्ञ (सन् 1923) : 

प्रसिद्ध पौराणिक कथा के आधार पर इस नाटक की रचना की गयी है।

(10) कामना (सन् 1923-24) : 

यह प्रसाद का प्रतीकात्मक नाटक है। इसमें ईर्ष्या, द्वेष आदि मनोवृत्तियों का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है।

(11) स्कन्दगुप्त (सन् 1924) : 

आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के अनुसार यह प्रसादजी के नाटकों में सर्वश्रेष्ठ है। इसकी कथा इस प्रकार है-"मगध सम्राट के दो रानियाँ हैं। छोटी रानी अनंतदेवी अपूर्व सुंदरी और कुटिल चालों की है। वह अपने पुत्र पुरुगुप्त को सिंहासनारूढ़ कराकर शासन का सूत्र अपने हाथ में लेती है। बडी रानी देवकी का सुयोग्य पुत्र स्कन्दगुप्त राजसत्ता से उदासीन हो जाता है। परन्तु जब हूण कुसुमपुर को आक्रमण कर लेते हैं तो स्कन्दगुप्त उनको पराजित कर कुसुमपुर को स्वतंत्र कर देता है। हिंसा, विशेष गृह-कलह से विरक्त होकर वह पुरुगुप्त को राज्य सौंप देता है। प्रेममूर्ति देवसेना और देश-प्रेम की साक्षात् मूर्ति स्कन्दगुप्त की विदा से नाटक का अन्त होता है।


WATCH SUMMARY WITH TAMIL EXPLANATION

Skanda gupt natak VIDEO SUMMARY


(12) चन्द्रगुप्त (सन् 1928) : 

इसमें चन्द्रगुप्त द्वारा नंद वंश का नाश, सेल्यूकस की बेटी कार्नेलिया से उसका विवाह आदि वर्णित हैं। चरित्र चित्रण, वातावरण का निर्माण और घटनाओं का घात-प्रतिघात समीचीन और स्थायी प्रभाव डालनेवाला है।

(13) एक घूँट् (सन् 1929) : 

यह एक एकांकी नाटक है। इसमें मानवीय विकारों के कोमल एवं उलझे हुए तन्तुओं के आधार पर चरित्रों का गठन किया गया है। आनन्द स्वच्छंद प्रेम का पुजारी है। उसका कहना है कि आनंद ही सब कुछ है। परन्तु बनलता कहती है कि समाज-विहित, गुरुजनों द्वारा संपोषित वैवाहिक जीवन ही सार्थक और सही दिशा निर्देशक है।

(14) ध्रुवस्वामिनी (सन् 1933) : 

इसमें रामगुप्त की कथा है। प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी को एक जागृत नारी के रूप में चित्रित किया है। उन्होंने उसके द्वारा अनमेल विवाह की समस्या को हमारे सामने प्रस्तुत किया है।

(15) सुंगमित्र (अपूर्ण) :

प्रसाद ने नाटकों के अतिरिक्त कहानियाँ, निबन्ध और उपन्यास भी लिखे हैं। यथा-


निबन्ध : काव्य-कला तथा अन्य निबन्ध

उपन्यास : तितली, कंकाल, इरावती (अपूर्ण)

कहानी-संग्रह : 

1. छाया (सन् 1913), 2. आकाशदीप (सन् 1928), 3. आँधी (सन् 1929), 4. इन्द्रजाल (सन् 1936) 5. प्रतिध्वनि ।

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Saturday, November 12, 2022

MADHYAMA PATYA PUSTAK /

 


MADHYAMA PATYA PUSTAK 


               वाक्यों में प्रयोग कीजिए :-


1. आनंद - जीवन में आनंद भरो ।

2. विनोद करना - बच्चे विनोद करते हैं

3. घूरकर देखना - तुम क्यों ऐसे घूरकर देखते हो ?

4. थपथपाना - जीतने पर अध्यापक छात्र के पीठ थपथपाते हैं ।

5. मनोभाव - यह कैसा मनोभाव है ?

6. संस्था - शबरी महान संस्था है ।

7. नींव डालना - भारतीय संस्कृति की नींव डालो ।

8. बहुभाषी - अनेक भारतीय बहुभाषी हैं ।

9. आजीवन - मैं आजीवन हिन्दी की सेवा करूँगा ।

10. लाभान्वित होना - हिन्दी से सभी लाभान्वित होते हैं

11. भाँति-भाँति - यहाँ भाँति-भाँति के फूल है ।

12. कमाल - तुलसी के दोहे कमाल के हैं

13. ज़रूरत - आपसी एकता की जरूरत है।

14. फसल - किसान फसल काटते हैं।

15. अवाक्  - मैं अवाक् रह गया

16. शुद्धता -  शुद्धता ही स्वर्ग है ।

17. पर्यावरण - पर्यावरण की रक्षा करो ।

18. प्रतिबिंब - अहिंसा शांति का प्रतिबिंब है ।

19. बलिदान देश के लिए बलिदान हो जाओ ।

20. समृद्धि - समृद्धि ही उन्नति का लक्षण है ।

21. साधारण  - मैं साधारण नहीं हूँ

22. प्रतिदिन - प्रतिदिन पाठ पढ़ो ।

23. शुरूआत - करना पेड़ लगाने की शुरूआत करो ।

24. विभूषित करना - कबीर साहित्य को विभूषित करते थे ।

25. बुलंदियों को छूना - मेहनत से ही बुलंदियों को छू सकते हैं ।

26. वेला - यह वेला सुखमय है ।

27. भाग्यवती  - प्रकृति माँ भाग्यवती है।

28. खोजना -  नित ज्ञान की खोज करो ।

29. भिक्षा - भिक्षा देना कभी मत लेना ।

30. प्रतीक्षा - मैं तेरी प्रतीक्षा कर रहा हूँ ।

31. आवश्यक - हिन्दी आवश्यक भाषा है

32. मनाया जाना - उत्सव हर साल मनाया जाता है ।

33. राष्ट्रभाषा - हिन्दी राष्ट्रभाषा है

34. फलस्वरूप - विजय मेहनत का फलस्वरूप है ।

35. व्यवहार - तुम्हारा व्यवहार ठीक नहीं है ।

36. बहुतेरा - यहाँ बहुतेरा नारियल मिलता है ।

37. प्रयत्न - सदा प्रयत्न करो, विजयी बनो ।

38. ताकत - मुझमें ताकत है ।

39. कर्तव्य - यह तुम्हारा कर्तव्य है ।

40. नाराज़ - नाराज़ बुद्धि को नष्ट कर देता है ।

41. जीत '- मैं जरूर जीत जाऊँगा

42. अभ्यास - हर रोज़ अभ्यास करो ।

43. घायल - मैं घायल नहीं हूँ

44. खिताब - क्या खिताब है ?

45. विशिष्ट - रामायण विशिष्ट है ।

46. सर्वथा -  सर्वथा सच बोलो

47. व्याकुल - कभी व्याकुल मत होना ।

48. विरुद्ध - देश के विरुद्ध कुद मत करो ।

49. उत्तीर्ण - वह उत्तीर्ण हो गया है।

50. ख्याति - हिन्दी ख्याति बढाती है ।








MADHYAMA/जोड़े बनाइए :-

 

       MADHYAMA 

           जोड़े बनाइए :-

1. गाँधीजी को बच्चों के साथ -  हँसने खेलने में बड़ा आनंद आता था ।

2. गाँधीजी ये सब - देख रहे थे ।

3. आप कुरता - क्यों नहीं पहनते ?

4. मेरे तो चालीस करोड़ - भाई-बन्धु हैं । 

5. बालक के मुँह से - कोई शब्द नहीं निकला ।

6. दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा - राष्ट्रीय महत्व की संस्था है ।

7. भारत - बहुभाषी देश है। 

8. आंध्र शाखा - स्रवंति

9. कर्नाटक शाखा - भारत वाणी

10. केंद्र सभा - हिन्दी प्रचार समाचार एवं दक्षिण भारत

11. व्यापारी संदूक के साथ - राजा के दरबार में आया ।

12. बिना पानी के - पेड़ उगाता हूँ ।

13. रातभर दोनों ने -पेड़ उगाता हूँ । 

14. संदूक में - आतिशबाज़ी का सामान था ।

15. व्यापारी मायूस हुआ क्योंकि - गोनूझा ने रहस्य बता दिया ।

16. तिरंगा - तीन रंगोंवाला । 

17. सफेद - शुद्धता और शांति का प्रतीक ।

18. हरा रंग - विश्वास और समृद्धि का प्रतीक ।

19. 22 जुलाई 1947 को - वैधानिक मान्यता दी गई ।

20. प्लास्टिक की पन्नियों में - छापा जा रहा है।

21. डॉ. ए.पी.जे. अब्दुलकलाम - भारत के ग्यारहवें राष्ट्रपति थे ।

22. कलाम का जन्म - रामेश्वरम में हुआ था ।

23. वे प्रतिदिन - 18 घंटे काम करते थे ।

24. श्याम पट पर - चिड़िया का चित्र बनाया ।

25. "इसरो” में - राकेट इंजिनियरिंग का कोर्स किया ।

26. मैं आज तक सोया हुआ था - अब तो जागने की वेला आ गई है ।

27. राहुल अपनी माँ के अंक में - सुख की नींद सो रहा है ।

28. हम कपिलवस्तु से - बहुत दूर हैं ।

29. मैं भिक्षुक हूँ - तुम्हीं से पहली भिक्षा माँगता हूँ ।

30. चारों दिशाएँ - तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं ।

31. 14 नवम्बर - बाल दिवस

32. हिन्दी दिवस - 14 सितम्बर

33. प्रतियोगिता - का आयोजन किया जाता है

34. हिन्दी - संघ की राजभाषा

35. हिन्दी सप्ताह - मनाया जाता है

36. वह तो कई जमाने से - वहीं बसी थी

37. उसने श्रीमान पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना - तब से मृतप्राय हो रही थी 

38. श्रीमान के सब प्रयत्न निष्फल हुए - तब अपनी ज़मींदारी चाल चलाने लगे ।

39. विधवा पास पड़ोस में - कहीं जाकर रहने लगी ।

40. अपनी ताकत लगाकर 

41. साक्षी मलिक - पहलवानी

42. साईना नेहवाल - टोकरी को उठाना चाहा ।

43. मेरी कॉम - मुक्केबाज

44. कर्णम मल्लेश्वरी - भारोत्तलन

45. पी. टी. उषा - एथलीट

46. खेड़ा जिला - गुजरात

47. पटेल के पिता -  झवेर पटेल

48. पटेल का जन्म - 1875

49. स्वाधीनता संग्राम - 1857

50. झंड़ा सत्याग्रह - सेनापति का गौरव







MADHYAMA / हिन्दी में अर्थ लिखिए :- meanings

 


MADHYAMA PATYA PUSTAK 

        हिन्दी में अर्थ लिखिए :-


1. आनंद - खुशी

2. सहमकर - घबराकर

3. ज़रूर - अवश्य

4. शरीर - तन

5. बन्धु - रिश्देतार

6.प्यार - प्रेम

7. स्थित - बसा हुआ

8. उद्देश्य - लक्ष्य

9. आजीवन - जीवन भर

10. प्रतिवर्ष- हर साल

11. खुद - स्वयं

12. गुज़रना - बीतना

13. संदूक - पेटी

14. उपहार - तोहफा

15. परिस्थिति - वातावरण

16. आतिशबाज़ी - पटाखे

17. मायूस - उदास

18. संवाद - बातचीत

19. परिवर्तन - बदलाव

20. आयोजन - प्रबंध

21. तिरंगा - तीन रंगोंवाला

22. प्रतिबिंब - परछाई

23. आज़ादी - स्वतंत्रता

24.मानस- मन

25. दुम - पूँछ

26. धुन - लगन

27. गणना -  गिनती

28. शिखर - चोटी

29. सर्वोत्तम - सर्वोच्च

30. शिक्षक - अध्यापक

31. चौंक - अचरज

32. वेला - समय

33. सीमा - हद

34. शेष - बाकी

35. विश्राम -आराम

36. कल्याण - भलाई

37. दिवस - दिन

38. प्रयास - कोशिश

39. शहीद - त्यागी

40. कार्यालय - दफ़्तर

41. पखवाडा - अर्द्धमास

42. सप्ताह - हफ़्ता

43. हाता - सीमित स्थान (अहाता)

44. बहुतेरा - अधिक

45. अदालत - न्यायालय

46. मृतप्राय - मारा सा

47. धारा - बहाव

48. आज्ञा - आदेश

49. महिला - स्त्री

50. रजत - चाँदी

51. खिलाड़ी - खेलनेवाला

52. झेलना - भुगतना

53.बेहद - असीम

54. सराहनीय - प्रशंसनीय

55. उत्साह - उमंग

56. योद्धा  - वीर

57. विचार - सोच

58. अभिमानी - घमंडी

59. छाप - असर

60. ख्याति - कीर्ति


विलोम शब्द लिखिए :-


1. उठना x बैठना

2. हँसना x रोना

3. छोटा X बड़ा

4. आनंद x कष्ट

5. बाहर x अंदर

6. समझ X नासमझ

7. दक्षिण X उत्तर

8.सुपुत्र x कुपुत्र

9. प्रथम X अंतिम

10. आरंभ x अंत

11. साकार x निराकार

12. उपयुक्त x अनुपयुक्त 

13. ज्ञानी x अज्ञानी

14.पंडित x मूर्ख

15. स्वीकार x अस्वीकार

16. निश्चिंत x चिंतित

17. धृष्टता  X सज्जनता

18. प्रशंसनीय x निंदनीय

19. लंबा X चौड़ा

20. स्वार्थ x परार्थ

21. ईमानदार x बेईमान

22. स्वच्छ x गंदा

23. आकार x निराकार

24. सुन्दर x कुरूप

25. साधारण x असाधारण

26. कठिन X सरल

27. पूर्ण x अपूर्ण

28. बचपन X बुढ़ापा

29. सफलता X विफलता

30. प्राप्त x अप्राप्त

31. सूर्योदय x सूर्यास्त

32. थोड़ा X ज़्यादा

33. अच्छा X बुरा

34. भाग्यवती X अभाग्यवती

35. सुख x दुख

36. उतारकर x  पहनकर

37. स्वतंत्रता x परतंत्रता

38. प्रयास X निष्प्रयास

39. आवश्यक X अनावश्यक

40. देना X लेना

41. एक x अनेक

42. बढ़ावा X घटावा

43. झोंपड़ी X महल

44. इच्छा x अनिच्छा

45. वृद्धावस्था X युवावस्था

46. भीतर X बाहर

47. पुरानी x नयी

48. आगे X पीछे

49. आशाजनक x निराशाजनक

50. पहला X अंतिम

51. सराहनीय x निंदनीय

52. पूरा X अधूरा

53. जीत X हार

54. अपनी X परायी

55. उचित x अनुचित

56. उत्तीर्ण x अनुत्तीर्ण

57. उत्साह x निरुत्साह

58. मृत्यु X जन्म

59. स्वाधीनता X  पराधीनता

60. विदेश x स्वदेश


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Friday, September 10, 2021

4. मंत्र - श्री मुंशी प्रेमचंद


          4. मंत्र
         श्री मुंशी प्रेमचंद

            संध्या का समय था। डॉक्टर चड्ढा गोल्फ खेलने के लिए तैयार हो रहे थे। मोटर के सामने खड़ी थी। दो आदमी एक डोली लिये आते दिखायी दिये। डोली के पीछे द्वार एक बूढ़ा लाठी टेकता चला आ रहा था। डोली औषधालय के सामने आकर रुक गयी। बूढ़े ने धीरे-धीरे आकर द्वार पर पड़ी हुई चिक से झाँका। ऐसी साफ़-सुथरी ज़मीन पर पैर रखते हुए भय हो रहा था कि कोई घुड़क न बैठे। डॉक्टर साहब को खड़े देख कर भी उसे कुछ कहने का साहस न हुआ।

       डॉक्टर साहब ने चिक के अंदर से गरज कर कहा- कौन है? क्या चाहता है?

        बूढ़े ने हाथ जोड़कर कहा- हुज़ूर, बड़ा गरीब आदमी हूँ। मेरा लड़का कई दिन से..... डॉक्टर साहब ने सिगार जला कर कहा - कल सबेरे आओ, कल सबेरे, हम इस वक्त मरीज़ों को नहीं देखते।

       बूढ़े ने घुटने टेक कर ज़मीन पर सिर रख दिया और बोला- दुहाई है सरकार की, लड़का मर जायगा, चार दिन से आँखें नहीं ......

      डॉक्टर चड्ढा ने कलाई पर नज़र डाली। केवल दस मिनट समय और बाकी था । गोल्फ स्टिक खूँटी से उतारते हुए बोले - कल सबेरे आओ, कल सबेरे; यह हमारे खेलने का समय है।

       बूढ़े ने पगड़ी उतार कर चौखट पर रख दी और रोकर बोला- हुज़ूर, एक निगाह देख लें। बस, एक निगाह! लड़का हाथ से चला जायगा । हुज़ूर, सात लड़कों में यही एक बच रहा है, हुज़ूर । हम दोनों आदमी रो-रोकर मर जायेंगे, सरकार! आपकी बढ़ती होय, दीनबंधु!

       ऐसे उजड्ड देहाती यहाँ प्रायः रोज आया करते थे। डॉक्टर साहब उनके स्वभाव से खूब परिचित थे। कोई कितना ही कुछ कहे; पर वे अपनी ही रट लगाते जायँगे। किसी की सुनेंगे नहीं। धीरे से चिक उठाई और बाहर निकल कर मोटर की तरफ़ चले । बूढ़ा यह कहता हुआ उनके पीछे दौड़ा-सरकार, बड़ा धरम होगा। हुज़ूर, दया कीजिए, बड़ा दीन दुखी हूँ; संसार में कोई और नहीं है, बाबू जी।

         मगर डॉक्टर साहब ने उसकी ओर मुँह फेर कर देखा तक नहीं। मोटर पर बैठ बोले - कल सबेरे आना ।

         मोटर चली गयी। बूढ़ा कई मिनट तक मूर्ति की भाँति निश्चल खड़ा रहा। संसार में ऐसे मनुष्य भी होते हैं, जो अपने आमोद-प्रमोद के आगे किसी की जान की भी परवाह नहीं करते, शायद इसका उसे अब भी विश्वास न आता था। सभ्य संसार इतना निर्मम, कठोर है, इसका ऐसा मर्मभेदी अनुभव अब तक न हुआ था। वह उन पुराने जमाने के जीवों में था, जो लगी हुई आग को बुझाने, मुर्दे को कंधा देने, किसी के छप्पर को उठाने और किसी कलह को शांत करने के लिए सदैव तैयार रहते थे । इतना

        उसी रात उसका हँसता-खेलता सात साल का बालक अपनी बाल-लीला समाप्त करके इस संसार से सिधार गया । बूढ़े माँ-बाप के जीवन का यही एक आधार था। इसी का मुँह देख कर जीते थे। इस दीपक के बुझते ही जीवन की अँधेरी रात भाँय-भाँय करने लगी। बुढ़ापे की विशाल ममता टूटे हुए हृदय से निकल कर अंधकार आर्त्त-स्वर से रोने लगी।

                                          2

          कई साल गुजर गये। डॉक्टर चड्ढा ने खूब यश और धन कमाया; लेकिन इसके साथ ही अपने स्वास्थ्य की रक्षा भी की, जो एक साधारण बात थी। यह उनके नियमित जीवन का आशीर्वाद था कि पचास वर्ष की अवस्था में उनकी चुस्ती और फुर्ती युवकों को भी लज्जित करती थी। उनके हर एक काम का समय नियत था, इस नियम से वह जौ-भर भी न टलते थे। उनके केवल दो बच्चे हुए, एक लड़का और एक लड़की । लड़की का तो विवाह हो चुका था । लड़का कालेज़ में पढ़ता था। आज उसकी बीसवीं सालगिरह थी।

      संध्या का समय था। हरी - हरी घास पर कुर्सियाँ बिछी हुई थीं। शहर के रईस और हुक्काम एक तरफ़, कालेज़ के छात्र दूसरी तरफ़ बैठ भोजन कर रहे थे। बिजली के प्रकाश से सारा मैदान जगमगा रहा था । आमोद-प्रमोद का सामान भी जमा था।

          मृणालिनी और कैलाश दोनों सहपाठी थे और एक-दूसरे के प्रेम में पगे हुए। कैलाश को साँपों के पालने, खेलाने और नचाने का शौक था । तरह-तरह के साँप पाल रखे थे। उनके स्वभाव और चरित्र की परीक्षा करता रहता था। थोड़े दिन हुए, उसने विद्यालय में ‘साँपों' पर एक मार्के का व्याख्यान दिया था। साँपों को नचा कर दिखाया भी था।

प्राणिशास्त्र के बड़े-बड़े पंडित भी यह व्याख्यान सुन कर दंग रह गये थे। यह विद्या उसने एक बड़े सँपेरे से सीखी थी। साँपों की जड़ी-बूटियाँ जमा करने का उसे मरज था।

         ज्योंहि प्रीति-भोज समाप्त हुआ और गाना शुरू हुआ, उसने मृणालिनी और अन्य मित्रों को साँपों के दरबे के सामने ले जाकर महुअर बजाना शुरू किया। फिर एक-एक खाना खोलकर एक-एक साँप को निकालने लगा। वाह! क्या कमाल था। ऐसा जान पड़ता था कि वे कीड़े उसकी एक-एक बात, उसके मन का एक-एक भाव समझते हैं। किसी को उठा लिया, किसी को गरदन में डाल लिया, किसी को हाथ में लपेट लिया।

        एक मित्र ने टीका की-दाँत तोड़ डाले होंगे।

         कैलाश हँसकर बोला-दाँत तोड़ डालना मदारियों का काम है। किसी के दाँत नहीं तोड़े गये कहिए तो दिखा दूँ? कहकर उसने एक काले साँप को पकड़ लिया और बोला “मेरे पास इससे बड़ा और जहरीला साँप दूसरा नहीं है, अगर किसी को काट ले, तो आदमी आनन-फानन में मर जाय । लहर भी न आये। इसके काटे पर मंत्र नहीं। इसके दाँत दिखा दूँ?"

        मृणालिनी ने उसका हाथ पकड़कर कहा - नहीं-नहीं कैलाश, ईश्वर के लिए इसे छोड़ दो। तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ।

          इस पर एक दूसरे मित्र बोले- मुझे तो विश्वास नहीं आता, लेकिन तुम कहते हो, तो मान लूँगा।

          इसलिए कैलाश ने उस साँप की गर्दन खूब दबा कर मुँह खोल दिया और उसके ज़हरीले दाँत दिखाते हुए बोला "जिन सज्जनों को शक हो, आकर देखे लें। आया विश्वास ? या अब भी कुछ शक है?" मित्रों ने आकर उसके दाँत देखे और चकित हो गये। प्रत्यक्ष प्रमाण के सामने संदेह का स्थान कहाँ ? मित्रों का शंका-निवारण करके कैलाश ने साँप की गर्दन ढीली कर दी और उसे ज़मीन पर रखना चाहा, पर वह काला गेहुँवन क्रोध से पागल हो रहा था। गर्दन नरम पड़ते ही उसने सिर उठा कर कैलाश की उँगली में जोर से काटा और वहाँ से भागा । कैलाश की उँगली से टप-टपकर खून टपकने लगा। उसने जोर से उँगली दबा ली और अपने कमरे की तरफ़ दौड़ा। वहाँ मेज़ की दराज में एक जड़ी रखी हुई थी, जिसे पीस कर लगा देने से घातक विष भी रफू हो जाता था। मित्रों में  हलचल पड़ गई। बाहर महफिल में भी खबर हुई। डॉक्टर साहब घबरा कर दौड़े। फौरन उँगली की जड़ कस कर बाँधी गयी और जड़ी पीसने के लिए दी गयी। डॉक्टर साहब जड़ी के कायल न थे। वह उँगली का डसा भाग नश्तर से काट देना चाहते थे, मगर कैलाश को जड़ी पर पूर्ण विश्वास था। यह खबर सुनते ही मृणालिनी दौड़ी, और कैलाश की उँगली से टपकते हुए खून को रूमाल से पोंछने लगीं। जड़ी पीसी जाने लगी; पर उसी एक मिनट में कैलाश की आँखें झपकने लगीं, ओंठों पर पीलापन दौड़ने लगा। यहाँ तक कि वह खड़ा न रह सका। फर्श पर बैठ गया। सारे मेहमान कमरे में जमा हो गए। कोई कुछ कहता था। कोई कुछ। इतने में जड़ी पीसकर आ गयी। मृणालिनी ने उँगली पर लेप किया। एक मिनट और बीता। कैलाश की आँखें बंद हो गयीं। वह लेट गया और हाथ से पंखा झलने का इशारा किया। माँ ने दौड़कर उसका सिर गोद में रख लिया और बिजली का टेबुल-फेन लगा दिया।

         डॉक्टर साहब ने झुक कर पूछा- कैलाश, कैसी तबीयत है? कैलाश ने धीरे से हाथ उठा लिए; पर कुछ बोल न सका। मृणालिनी ने करुण स्वर में कहा-“क्या जड़ी कुछ असर न करेगी?” डॉक्टर साहब ने सिर पकड़ कर कहा-क्या बतलाऊँ, मैं इसकी बातों में आ गया । अब तो नश्तर से भी कुछ फायदा न होगा ।

         आधे घंटे तक यही हाल रहा। कैलाश की दशा प्रतिक्षण बिगड़ती जाती थी। यहाँ तक कि उसकी आँखें पथरा गयी, हाथ-पाँव ठंडे पड़ गये, मुख की कांति मलिन पड़ गयी, में नाड़ी का कहीं पता नहीं। मौत के सारे लक्षण दिखायी देने लगे। घर में कुहराम मच गया। मृणालिनी एक ओर सिर पीटने लगी; माँ अलग पछाड़े खाने लगी। डॉक्टर चड्ढा को मित्रों ने पकड़ लिया, नहीं तो वह नश्तर अपनी गर्दन पर मार लेते।

          एक महाशय बोले - कोई मंत्र झाड़ने वाला मिले, तो संभव है, अब भी जान बच जाय ।

           एक मुसलमान सज्जन ने इसका समर्थन किया-अरे साहब कब्र में पड़ी हुई लाशें जिंदा हो गयी हैं। ऐसे-ऐसे बाकमाल पड़े हुए है। हैं।

           डॉक्टर बोले-मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गया था कि इसकी बातों में आ चड्ढा गया। नश्तर लगा देता, तो यह नौबत ही क्यों आती। बार-बार समझाता रहा कि बेटा, सॉप न पालो, मगर कौन सुनता था । बुलाइए, किसी झाड़-फूक करने वाले ही को  बुलाइए। मेरा सब कुछ ले ले, मैं अपनी सारी जायदाद उसके पैरों पर रख दूँगा। लँगोटी बाँधकर घर से निकल जाऊँगा; मगर मेरा कैलाश, मेरा प्यारा कैलाश उठ बैठे। ईश्वर के लिए किसी को बुलवाइए।

        एक महाशय का किसी झाड़ने वाले से परिचय था। वह दौड़कर उसे बुला लाये; मगर कैलाश की सूरत देखकर उसे मंत्र चलाने की हिम्मत न पड़ी। बोला- अब क्या हो सकता है, सरकार ? जो कुछ होना था, हो चुका।

         अरे मूर्ख, यह क्यों नहीं कहता कि जो कुछ न होना था, वह कहाँ हुआ?

                                            3


            शहर से कई मील दूर एक छोटे-से घर में एक बूढ़ा और बुढ़िया अँगीठी के सामने बैठे जाड़े की रात काट रहे थे। बूढ़ा नारियल पीता था और बीच-बीच में खाँसता था। बुढ़िया दोनों घुटनों में सिर डाले आग की ओर ताक रही थी। एक मिट्टी के तेल की कुप्पी ताक पर जल रही थी। घर में न चारपाई थी, न बिछौना। एक किनारे थोड़ी-सी पुआल पड़ी हुई थी। इसी कोठरी में एक चूल्हा था । बुढ़िया दिन-भर उपले और सूखी लकडियाँ बटोरती थी। बूढ़ा रस्सी बट कर बाज़ार में बेच आता था । यही उनकी जीविका थी। उन्हें न किसी ने रोते देखा, न हँसते । उनका सारा समय जीवित रहने में कट जाता था। मौत द्वार पर खड़ी थी, रोने या हँसने की कहाँ फुरसत! बुढ़िया ने पूछा-कल के लिए सन तो है नहीं, काम क्या करोगे?

       'जाकर झगडू साह से दस सेर सन उधार लाऊँगा?'

       'उसके पहले के पैसे तो दिये ही नहीं, और उधार कैसे देगा?'

        ‘न देगा न सही। घास तो कहीं नहीं गयी। दोपहर तक क्या दो आने की भी न काँगा?'

        इतने में एक आदमी ने द्वार पर आवाज़ दी-भगत, भगत, क्या सो गये? ज़रा किवाड़ खोलो।

         भगत ने उठकर किवाड़ खोल दिये। एक आदमी ने अंदर आकर कहा- कुछ सुना, डॉक्टर चड्ढा बाबू के लड़के को साँप ने काट लिया।

        भगत ने चौंक कर कहा- चड्ढा बाबू के लड़के को। वही चड्ढा बाबू हैं न, जो छावनी में बंगले में रहते हैं?

        'हाँ हाँ वही। शहर में हल्ला मचा हुआ है। जाते हो तो जाओ, आदमी जाओगे।'

        बूढ़े ने कठोर भाव से सिर हिला कर कहा-मैं नहीं जाता। मेरी बला जाय। वहीं सुन है। खूब जानता हूँ। भैया, लेकर उन्हीं के पास गया था। खेलने जा रहे थे। पैरों पर चड्ढा गिर पड़ा कि एक नज़र देख लीजिए, मगर सीधे मुँह से बात तक न की। भगवान बैठे रहे थे। अब जान पड़ेगा कि बेटे का गम कैसा होता है। कई लड़के हैं ।

        'नहीं जी, यही तो एक लड़का था। सुना है, सबने जवाब दे दिया है।'

        'भगवान बड़ा कारसाज है। उस बखत मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े थे, पर उन्हें तनिक भी दया न आयी थी। मैं तो उनके द्वार पर होता, तो भी बात न पूछता।' ‘तो न जाओगे? हमने जो सुना था, सो कह दिया।'

        'अच्छा किया—अच्छा किया। कलेजा ठंडा हो गया, आँखें ठंडी हो गयीं। लड़का भी ठंडा हो गया होगा। तुम जाओ आज चैन की नींद सोऊँगा । (बुढ़िया से) जरा तंबाकू ले ले! एक चिलम और पीऊँगा । अब मालूम होगा लाला को। सारी साहबी निकल जायगी, हमारा क्या बिगड़ा। लड़के के मर जाने से कुछ राज तो नहीं चला गया? जहाँ छः बच्चे गये थे, वहाँ एक और चला गया, तुम्हारा तो राज सूना हो जायेगा। इन्होंने उसी के वास्ते सबका गला दबा-दबाकर जोड़ा था न अब क्या करोगे? एक बार देखने जाऊँगा; पर कुछ दिन बाद मिजाज का हाल पूछूंगा।'

           आदमी चला गया। भगत ने किवाड़ बंद कर लिये, तब चिलम पर तंबाखू रख कर पीने लगा। बुढ़िया ने कहा-इतनी रात गए, जाड़े-पाले में कौन जायगा?

          'अरे, दोपहर ही होता तो मैं न जाता। सवारी दरवाजे पर लेने आती, तो भी न जाता। भूल नहीं गया हूँ। पन्ना की सूरत आँखों में फिर रही है। इस निर्दयी ने उसे एक नज़र देखा तक नहीं। क्या मैं न जानता था कि वह न बचेगा? खूब जानता था। चड्ढा भगवान नहीं थे, कि उनके एक निगाह देख लेने से अमृत बरस जाता। नहीं, खाली मन की दौड़ थी। अब किसी दिन जाऊँगा और कहूँगा-क्यों साहब, कहिए, क्या रंग है? दुनिया बुरा कहेगी, कहे; कोई परवाह नहीं। छोटे आदमियों में तो सब ऐब हैं। बड़ों में कोई ऐब नहीं होता, देवता होते हैं।'

          भगत के लिए यह जीवन में पहला अवसर था कि ऐसा समाचार पा कर वह बैठा रह गया हो।

        अस्सी वर्ष के जीवन में ऐसी कभी न हुआ था कि साँप की ख़बर पाकर वह दौड़ न गया हो। माघ-पूस की अँधेरी रात, चैत-बैसाख की धूप और लू, सावन-भादों की चढ़ी हुई नदी और नाले, किसी की उसने कभी परवाह न की वह तुरंत घर से निकल पड़ता था निःस्वार्थ, निष्काम । लेन-देन का विचार कभी दिल में आया नहीं। यह ऐसा काम ही न था। जान का मूल्य कौन दे सकता है? यह एक पुण्य-कार्य था। सैकड़ों निराशों को उसके मंत्रों ने जीवन-दान दे दिया था; पर आप वह घर से कदम नहीं निकाल सका। यह खबर सुन कर सोने जा रहा है ।

          बुढ़िया ने कहा–तमाखू अँगीठी के पास रखी हुई है। उसके भी आज ढाई पैसे हो गये । देती ही न थी।

          बुढ़िया यह कहकर लेटी । बूढ़े ने कुप्पी बुझायी, कुछ देर खड़ा रहा, फिर बैठ गया। अंत को लेट गया; पर यह खबर उसके हृदय पर बोझे की भाँति रखी हुई थी। उसे मालूम हो रहा था, उसकी कोई चीज़ खो गयी है, जैसे सारे कपड़े गीले हो गये है या पैरों में कीचड़ लगा हुआ है, जैसे कोई उसके मन में बैठा हुआ उसे घर से निकालने के लिए कुरेद रहा है। बुढ़िया ज़रा देर में खर्राटे लेनी लगी। बूढ़े बातें करते-करते सोते हैं और ज़रा-सा खटा होते ही जागते हैं। तब भगत उठा, अपनी लकड़ी उठा ली, और धीरे से किवाड़ खोले ।

        बुढ़िया ने पूछा–कहाँ जाते हो?

        'कहीं नहीं, देखता था कि कितनी रात है।'

        'अभी बहुत रात है, सो जाओ'।

         'नींद नहीं आती।'

         ‘नींद काहे आयेगी? मन तो चड्ढा के घर पर लगा हुआ है।'

         'चड्ढा ने मेरे साथ कौन-सी नेकी कर दी है, जो वहाँ जाऊँ? वह आ कर पैरो पड़े, तो भी न जाऊँ ।'

          'उठे तो तुम इसी इरादे से ही?"

           'नहीं री, ऐसा पागल नहीं हूँ कि जो मुझे काँटे बोये, उसके लिए फूल बोता फिरूँ।'

            बुढ़िया फिर सो गयी। भगत ने किवाड़ लगा दिए और फिर आकर बैठा। पर उसके मन की कुछ ऐसी दशा थी, तो बाजे की आवाज़ कान में पड़ते ही उपदेश सुननेवालों की होती हैं। आँखें चाहे उपदेशक की ओर हों; पर कान बाजे ही की ओर होते हैं। दिल में भी बापे की ध्वनि गूँजती रहती है। शर्म के मारे जगह से नहीं उठता। निर्दयी प्रतिघात का भाव भगत के लिए उपदेशक था, पर हृदय उस अभागे युवक की ओर था, जो इस समय मर रहा था, जिसके लिए एक-एक पल का विलंब घातक था ।

           उसने फिर किवाड़ खोले, इतने धीरे से कि बुढ़िया को खबर भी न हुई। बाहर निकल आया। उसी वक्त गाँव के चौकीदार गश्त लगा रहा था, बोला- कैसे उठे भगत? आज तो बड़ी सरदी है। कहीं जा रहे हो क्या ?

        भगत ने कहा-नहीं जी, जाऊँगा कहाँ, देखता था, अभी कितनी रात है। भला, के बजे होंगे?

            चौकीदार बोला-एक बजा होगा और क्या, अभी थाने से आ रहा था, तो डॉक्टर चड्ढा बाबू के बँगले पर बड़ी भीड़ लगी हुई थी। उनके लड़के का हाल तो तुमने सुना होगा, कीड़े ने छू लिया है। चाहे मर भी गया हो। तुम चले जाओ तो शायद बच जाय । सुना है, दस हज़ार तक देने को तैयार हैं। भगत - " मैं तो न जाऊँ चाहे वह दस लाख भी दें। मुझे दस हज़ार या दस लाख लेकर करना क्या है? कल मर जाऊँगा, फिर कौन है।" भोगनेवाला बैठा हुआ है। "

             चौकीदार चला गया। भगत ने आगे पैर बढ़ाया। जैसे नशे में आदमी की देह अपने काबू में नहीं रहती, पैर कहीं रखता है, पड़ता कहीं है, कहता कुछ है, जबान से निकलता कुछ है, वही हाल इस समय भगत का था। मन में प्रतिकार था; पर कर्म, मन के अधीन न था। जिसने कभी तलवार नहीं चलायी, वह इरादा करने पर भी तलवार नहीं चला सकता। उसके हाथ काँपते हैं, उठते ही नहीं।

               भगत लाठी खट-खट करता लपका चला जाता था। चेतना रोकती थी, पर उपचेतना ठेलती थी। सवेक स्वामी पर हावी था।

             आधी राह निकल जाने के बाद सहसा भगत रुक गया। हिंसा ने क्रिया पर विजय पायी-मैं यों ही इतनी दूर चला आया। इस जाड़े-पाले में मरने की मुझे क्या पड़ी थी? आराम से सोया क्यों नहीं? नींद न आती, न सही; दो-चार भजन ही गाता । व्यर्थ इतनी दूर दौड़ा आया । चड्ढा का लड़का रहे या मरे, मेरी कला से। मेरे साथ उन्होंने ऐसा कौन-सा सलूक किया था कि मैं उनके लिए मरूँ? दुनिया में हज़ारों मरते हैं हज़ारों जीते हैं। मुझे किसी के मरने-जीने से मतलब ।

           मगर उपचेतना ने अब एक दूसरा रूप धारण किया, जो हिंसा से बहुत कुछ मिलता-जुलता था-वह झाड़-फूँक करने नहीं जा रहा है; वह देखेगा, कि लोग क्या कर रहे हैं। डॉक्टर साहब का रोना-पीटना देखेगा, किस तरह सिर पीटते हैं, किस तरह पछाड़े खाते हैं। वे लोग तो विद्वान होते हैं, सबर कर जाते होंगे। हिंसा-भाव को यों धीरज देता हुआ वह फिर आगे बढ़ा।

            इतने में दो आदमी आते दिखायी दिये। दोनों बातें करते चले आ रहे थे-चड्ढा बाबू का घर उजड़ गया, वही तो एक लड़का था। भगत के कान में यह आवाज़ पड़ी। उसकी चाल और भी तेज़ हो गयी। थकान के मारे पाँव न उठते थे। शिरोभाग इतना बढ़ा जाता था, मानों अब मुँह के बल गिर पड़ेगा। इस तरह वह कोई दस मिनट चला होगा कि डॉक्टर साहब का बँगला नज़र आया । बिजली की बत्तियाँ जल रही थीं; मगर सन्नाटा छाया हुआ था। रोने-पीटने की आवाज़ भी न आती थी । भगत का कलेजा धक धक करने लगा। कहीं मुझे बहुत देर तो नहीं हो गयी? वह दौड़ने लगा। अपनी उम्र में वह इतना तेज़ कभी न दौड़ा था । बस, यही मालूम होता था, मानो उसके पीछे मौत दौड़ी आ रही है ।


                                                  4

           दो बज गये थे। मेहमान विदा हो गये। रोनेवालों में केवल आकाश के तारे रह गये थे। और सभी रो-रोकर थक गये थे। बड़ी उत्सुकता के साथ लोग रह-रह आकाश की ओर देखते थे कि किसी तरह सुबह हो और लाश गंगा की गोद में दी जाय।

            सहसा भगत ने द्वार पर पहुँच कर आवाज दी। डॉक्टर साहब समझे, कोई म आया होगा। किसी और दिन हो तो उन्होंने उस आदमी को दुत्कार दिया होता; मगर बाहर निकल आये। देखा एक बूढ़ा आदमी खड़ा है कमर झुकी हुई, पोपला मुँह, सफ़ेद हो गयी थी। लकड़ी के सहारे काँप रहा था। बड़ी नम्रता से बोले- क्या है मई, आर तो हमारे ऊपर ऐसी मुसीबत पड़ गयी है कि कुछ कहते नहीं बनता, फिर कभी आना। इधर एक महीना तक तो शायद में किसी भी मरीज को न देख सकूँगा।

            भगत ने कहा-सुन चुका हूँ बाबू जी, इसीलिए आया हूँ। भैया कहाँ है? जरा मुझे दिखा दीजिए। भगदान बड़ा कारसाज है, मुरदे को भी जिला सकता है। कौन जाने भी उसे दया आ जाय। चड्ढा ने व्यथित स्वर से कहा चलो, देख लो, मगर तीन-चार घंटे हो गये। जो कुछ होना था, हो चुका। बहुतेरा झाड़ने-फूंकनेवाले देख-देखकर चले गये।

          डॉक्टर साहब को आशा तो क्या होती हाँ, बूढ़े पर दया आ गयी। अंदर ले गये। भगत ने लाश को एक मिनट तक देखा। तब मुस्कराकर बोला- अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, बाबू जी यह नारायण चाहेंगे, तो आधे घंटे में भैया उठ बैठेगा। आप नाहक दिल छोटा कर रहे हैं। जरा किसी से कहिए, पानी तो भरे।

           किसी ने पानी भर-भरकर कैलाश को नहलाना शुरू किया। पाइप बंद हो गया। था। नौकरों की संख्या अधिक न थी. इसलिए मेहमानों ने अहाते के बाहर के कुएँ से पानी भर-भरकर दिया, मृणालिनी कैलाश के लिए पानी ला रही थी। बूढा भगत खड़ा मुस्करा- मुस्कराकर मंत्र पढ़ रहा था मानो विजय उसके सामने खड़ी है। जब एक बार मंत्र समाप्त हो जाता, तब एक जड़ी कैलाश के सिर पर डाली गयी और न जाने कितनी बार भगत ने मंत्र फूँका आखिर जब उषा ने अपनी लाल-लाल आँखें खोली तो कैलाश की भी लाल-लाल आँखें खुल गयीं। एक क्षण में उसने अंगड़ाई ली और पानी पीने को माँगा। डॉक्टर चड्ढा ने दौड़कर नारायणी को गले लगा लिया। नारायणी दौड़कर भगत के पैरों पर गिर पड़ी और मृणालिनी कैलाश के सामने आँखों में आंसू-भरे पूछने लगी-"अब कैसी तबीयत है ?"

               एक क्षण में चारों तरफ़ खबर फैल गयी। मित्रगण मुबारकबाद देने आने लगे। डॉक्टर साहब बड़ी श्रद्धा से हर एक के सामने भगत का यश गाते फिरते थे। सभी लोग भगत के दर्शनों के लिए उत्सुक हो उठे; मगर अंदर जाकर देखा, तो भगत का कहीं पता न था। नौकरों ने कहा-अभी तो यहीं बैठे चिलम पी रहे थे। हम लोग तमाखू देने लगे, तो नहीं ली, अपने पास से तमाखु निकाल कर भरी।

            यहाँ तो भगत की चारों ओर तलाश होने लगी, और भगत लपका हुआ घर चला जा रहा था कि बुढ़िया के उठने से पहले पहुँच जाऊँ। 

             जब मेहमान लोग चले गये, तो डॉक्टर साहब ने नारायणी से कहा- बुड्ढा न जाने कहाँ चला गया। एक चिलम तमाखू का भी रवादार न हुआ।

            नारायणी - “ मैंने तो सोचा था, इसे कोई बड़ी रकम दूँगी।”

            चड्ढा - "रात को तो मैंने नहीं पहचाना, पर जरा साफ़ हो जाने पर पहचान गया। एक बार यह एक मरीज़ को लेकर आया था। मुझे अब याद आती है कि मैं खेलने जा रहा था और मरीज़ को देखने से इनकार कर दिया था। अब उस दिन की बात याद करके मुझे जितनी ग्लानि हो रही है, उसे प्रकट नहीं कर सकता। मैं उसे अब खोज़ निकालूँगा और उसके पेरों पर गिर कर अपना अपराध क्षमा कराऊँगा। वह कुछ लेगा नहीं, यह जानता हूँ, उसका जन्म यश की वर्षा करने ही के लिए हुआ है। उसकी सज्जनता ने मुझे ऐसा आदर्श दिखा दिया है, जो अब से जीवनपर्यंत मेरे सामने रहेगा।"

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कहानी का सारांश 

                  मंत्र



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                        मंत्र

            "मंत्र" उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद्र की एक प्रसिद्ध कहानी है। इस कहानी में प्रतिकूल परिस्थिति में भी अपने नेक स्वभाव को न छोड़नेवाले व्यक्ति का चरित्र चित्रण है।

             भगत, साँप से कटे व्यक्तियों को अपने मंत्रों के द्वारा बचानेवाला ग्रामीण है। अपनी सात संतानों में से बची आखिरी बीमार बच्चे को लेकर डाक्टर चड्ढा के पास चिकित्सा के लिए ले जाता है। डाक्टर साहब इसलिए उस बच्चे को देखने मना करते हैं कि अब उनके खेलने का समय है। बहुत अनुनय विनय करने पर भी वे नहीं मानते। बूढ़ा अपने जीवन के एक मात्र सहारे को खो बैठता है।

               समय के फेर से यही परिस्थिति डाक्टर साहब के जीवन में भी आ खड़ी होती है। डाक्टर साहब के बेटे कैलाश को साँपों के पालने, खेलाने और नचाने का शौक था। वह अपनी बीसवीं सालगिरह में अपनी प्रेमिका मृणालिनी के आग्रह तथा मित्रों के उकसाने पर अपने सर्प-कला प्रदर्शन दिखाने लगता है। एक जहरीली साँप के गले दबाते समय, वह क्रोधित होकर कैलाश को काट देता है। सब लोग घबरा जाते हैं। डाक्टर साहब के होश उड़ जाते हैं। किसी भी जड़ी का असर नहीं पड़ता। मंत्र पढ़ने पर ही जान बचने की नौबत आ जाती है।

                यह खबर मिलने पर पहले भगत को सांतवना मिलती है कि भगवान ने डाक्टर साहब को अच्छा सबक सिखाया। लेकिन उसके अंतःकरण ने उसे चैन की नींद नही सोने दिया। उसे लगता है कि उसकी हर क्षण की देरी कैलाश के लिए घातक है। उसके पैर अपने आप डाक्टर साहब के घर की ओर बढ़ता है। बहुत देर तक मंत्र पढ़कर कैलाश को बचा लेता है। अपना कर्तव्य समाप्त होने पर तुरंत वहाँ से निकल जाता है। आधी रात में डाक्टर साहब उसे पहचान नहीं पाते। लेकिन पहचानने के बाद वे आत्मग्लानि से भर जाते हैं। किसी भी तरह उसे ढूँढकर क्षमा याचना करने का निश्चय कर लेते हैं।

 सीख:- प्रतिकूल परिस्थिति में ईमानदारी का पालन करना नेक व्यक्ति का लक्षण है।




















अकबरी लोटा - श्री अन्नपूर्णानंद वर्मा

 


        अकबरी लोटा - 

    श्री अन्नपूर्णानंद वर्मा

       लाला झाऊलाल को खाने-पीने की कमी नहीं थी। काशी के ठठेरी बाजार में मकान था । नीचे की दुकानों से एक सौ रुपये मासिक के करीब किराया उतर आता था। अच्छा खाते थे, अच्छा पहनते थे, पर ढाई सौ रुपये तो एक साथ आँख सेंकने के लिए भी न मिलते थे।

      इसलिए जब उनकी पत्नी ने एक दिन एकाएक ढाई सौ रुपये की माँग पेश की, तब उनका जी एक बार ज़ोर से सनसनाया और फिर बैठ गया। उनकी यह दशा देखकर पत्नी ने कहा-"डरिए मत, आप देने में असमर्थ हों तो मैं अपने भाई से माँग लूँ?”

       लाला झाऊलाल तिलमिला उठे। उन्होंने रोब के साथ कहा- "अजी हटो, ढाई सौ रुपये के लिए भाई से भीख माँगोगी, मुझसे ले लेना।"  

     "लेकिन मुझे इसी जिंदगी में चाहिए।"  

     "अजी इसी सप्ताह में ले लेना।"

     "सप्ताह से आपका तात्पर्य सात दिन से है या सात वर्ष से ?' लाला झाऊलाल ने रोब के साथ खड़े होते हुए कहा-"आज से सातवें दिन मुझसे ढाई सौ रुपये ले लेना।"

      लेकिन जब चार दिन ज्यों-ज्यों में यों ही बीत गए और रुपयों का कोई प्रबंध न हो सका तब उन्हें चिंता होने लगी। प्रश्न अपनी प्रतिष्ठा का था, अपने ही घर में अपनी साख का था।

        खैर, एक दिन और बीता। पाँचवें दिन घबराकर उन्होंने पं. बिलवासी मिश्र को अपनी विपदा सुनाई। संयोग कुछ ऐसा बिगड़ा था कि बिलवासी जी भी उस समय बिलकुल खुक्ख थे। उन्होंने कहा- "मेरे पास है तो नहीं, पर मैं कहीं से माँग जाँचकर लाने की कोशिश करूँगा और अगर मिल गया तो कल शाम को तुमसे मकान पर मिलूँगा।"

       वही शाम आज थी। हफ़्ते का अंतिम दिन। कल ढाई सौ रुपये या तो गिन देना है। या सारी हेकड़ी से हाथ धोना है। यह सच है कि कल रुपया न आने पर उनकी स्त्री उन्हें डामलफाँसी न कर देगी-केवल ज़रा-सा हँस देगी। पर वह कैसी हँसी होगी, कल्पना मात्र से झाऊलाल में मरोड़ पैदा हो जाती थी।

     आज शाम को पं. बिलवासी मिश्र को आना था। यदि न आए तो? या कहीं रुपये का प्रबंध न कर सके ?

      इसी उधेड़-बुन में पड़े लाला झाऊलाल छत पर टहल रहे थे। कुछ, प्यास मालूम हुई। उन्होंने नौकर को आवाज़ दी। नौकर नहीं था, खुद उनकी पत्नी पानी लेकर आई।

      वह पानी तो ज़रूर लाई, पर गिलास लाना भूल गई थी। केवल लोटे में पानी लिए वह प्रकट हुई। फिर लोटा भी संयोग से वह जो अपनी बेंढ़गी सूरत के कारण लाला झाऊलाल को सदा से नापसंद था। था तो नया, साल दो साल का ही बना, पर कुछ ऐसी गढ़न उस लोटे की थी कि उसका बाप डमरू, माँ चिलम रही हो।

     लाला अपना गुस्सा पीकर पानी पीने लगे। उस समय के छत की मुँडेर के पास ही खड़े थे।

      लाला झाऊलाल मुश्किल से दो-एक घूँट पी पाए होंगे कि न जाने कैसे उनका हाथ हिल उठा और लोटा छूट गया।

      लोटे ने दाएँ देखा न बाएँ, वह नीचे गली की ओर चल पड़ा। अपनी वेग में उलका को लजाता हुआ वह आँखों से ओझल हो गया।

      लाला को काटो तो बदन में खून नहीं। ऐसी चलती हुई गली में ऊँचे तिमंजले से, भरे हुए लाटे का गिरना हँसी-खेल नहीं। यह लोटा न जाने किस अधिकारी के झोंपड़े पर काशीवास का संदेश लेकर पहुँचेगा।

      कुछ हुआ भी ऐसा ही। गली में ज़ोर का हल्ला उठा। लाला झाऊलाल जब तब दौड़कर नीचे उतरे तब तक एक भारी भीड़ उनके आँगन में घुस आई।

      लाला झाऊलाल ने देखा कि इस भीड़ में प्रधान पात्र एक अंग्रेज़ है जो नखशिख से भीगा हुआ है और जो अपने एक पैर को हाथ से सहलाता हुआ दूसरे पैर पर नाच रहा है। उसी के पास अपराधी लोटे को भी देखकर लाला झाऊलाल जी ने फौरन दो और दो जोड़कर स्थिति को समझ लिया।

      गिरने के पूर्व लोटा एक दुकान के सायबान से टकराया। वहाँ टकराकर उस दुकान पर खड़े उस अंग्रेज़ को उसने संगोपांग स्नान कराया और फिर उसीके बूट पर आ गिरा।

       उस अंग्रेज़ को जब मालूम हुआ कि लाला झाऊलाल ही उस लोटे के मालिक हैं तब उसने केवल एक काम किया। अपने मुँह को खोलकर खुला छोड़ दिया। लाला झाऊलाल को आज ही यह मालूम हुआ कि अंग्रेज़ी भाषा में गालियों का ऐसा प्रकांड कोष है।

     इसी समय पं. बिलवासी मिश्र भीड़ को चीरते हुए आँगन में आते दिखाई पड़े। उन्होंने आते ही पहला काम यह किया कि उस अंग्रेज़ को छोड़कर और जितने आदमी आँगन में घुस आए थे, सबको बाहर निकाल दिया। फिर आँगन में कुर्सी रखकर उन्होंने साहब से कहा- “आपके पैर में शायद कुछ चोट आ गई है। अब आप आराम से कुर्सी पर बैठ जाइए।"

       साहब बिलवासी जी को धन्यवाद देते हुए बैठ गए और लाला झाऊलाल की ओर इशारा करके बोले - "आप इस शख्स को जानते हैं?"

 "बिलकुल नहीं। और मैं ऐसे आदमी को जानना भी नहीं चाहता जो निरीह  राहचलतों पर लोटे के वार करे।”

       परमात्मा ने लाला झाऊलाल की आँखों को इस समय कहीं देखने के साथ खाने की भी शक्ति दे दी होती तो यह निश्चय है कि अब तक बिलवासीजी को वे अपनी आँखों से खा चुके होते। वे कुछ समझ नहीं पाते थे कि बिलवासीजी को इस समय क्या हो गया है। 

      साहब ने बिलवासीजी से पूछा "तो क्या करना चाहिए?”

      "पुलिस में इस मामले की रिपोर्ट कर दीजिए जिससे यह आदमी फौरन हिरासत में ले लिया जाए।"

     "पुलिस स्टेशन है कहाँ?”

     "पास ही है, चलिए मैं बताऊँ।" "चलिए।"

      "अभी चला। आपकी इजाजत हो तो पहले मैं इस लोटे को इस आदमी से खरीद लूँ। क्यों जी बेचोगे? मैं पचास रुपये तक इसके दाम दे सकता हूँ।"

      लाला झाऊलाल तो चुप रहे, पर साहब ने पूछा- "इस रद्दी लोटे के लिए आप पचास रुपये क्यों दे रहे हैं?"

      "आप इस लोटे को रद्दी बताते हैं? आश्चर्य! मैं तो आपको एक विज्ञ और सुशिक्षित आदमी समझता था।”

      "आखिर बात क्या है, कुछ बाताइए भी । ”

       “जनाब यह एक ऐतिहासिक लोटा जान पड़ता है। जान क्या पड़ता है, मुझे पूरा विश्वास है। यह वह प्रसिद्ध अकबरी लोटा है जिसकी तलाश में संसार-भर के म्यूज़ियम परेशान हैं।"

    "यह बात?"

     "जी, जनाब। सोलहवीं शताब्दी की बात है। बादशाह हुमायूँ शेरशाह से हारकर भागा था और सिंध के रेगिस्तान में मारा-मारा फिर रहा था। एक अवसर पर प्यास से उसकी जान निकल रही थी। उस समय एक ब्राह्मण ने इसी लोटे से पानी पिलाकर उसकी जान बचाई थी । हुमायूँ के बाद अकबर ने उस ब्राह्मण का पता लगाकर उससे इस लोटे को ले लिया और इसके बदले में उसे इसी प्रकार के दस सोने के लोटे प्रदान किए। यह लोटा सम्राट अकबर को बहुत प्यारा था। इसी से इसका नाम अकबरी लोटा पड़ा । यह बराबर इसी से वजू करता था। सन् 57 तक इसके शाही घराने में रहने का पता है। पर इसके बाद लापता हो गया। पता नहीं यह लोटा इस आदमी के पास कैसे आया ? म्यूज़ियम वालों को पता चले तो फैंसी दाम देकर खरीद ले जाएँ।”

     इस विवरण को सुनते-सुनते साहब की आँखों पर लोभ और आश्चर्य का रस घुल गया और उसने बिलवासी जी से पूछा-"तो आप इस लोटे का क्या करिएगा?"

       "मुझे पुरानी और ऐतिहासिक चीज़ों के संग्रह का शौक है।”

        "मुझे भी पुरानी और ऐतिहासिक चीज़ों के संग्रह का शौक है। जिस समय यह लोटा मेरे ऊपर गिरा था, उस समय मैं यही कर रहा था। उस दुकान से पीतल की कुछ पुरानी मूर्तियाँ खरीद रहा था।”

    “जो कुछ हो, लोटा मैं ही खरीदूँगा।”

     "वाह, आप कैसे खरीदेंगे, मैं खरीदूंगा, यह मेरा हक है।"

    "हक है?"

    "जरूर हक है। यह बताइए कि इस लोटे के पानी से आपने स्नान किया या मैंने

    "आपने।"

    "वह आपके पैरों पर गिरा या मेरे ?"

    "आपके।"

    "अंगूठा इसने आपका भुरता किया या मेरा?"

    "आपका।"

   "इसलिए इसे खरीदने का हक मेरा है।"

    "यह सब बकवास है। दाम लगाइए जो अधिक दे, वह ले जाए।"   

     "यही सही। आप इसका पचास रुपया लगा रहे थे, मैं सौ देता हूँ।"

     "मैं डेढ़ सौ देता हूँ।"

     "मैं दो सौ देता हूँ।"

        "अजी मैं ढाई सौ देता हूँ।" यह कहकर बिलवासी जी ने ढाई सौ के नोट लाला झाऊलाल के आगे फेंक दिए।

        साहब को भी ताव आ गया। उसने कहा-"आप ढाई सौ देते हैं, तो में पाँच सौ देता हूँ। अब चलिए।"

     बिलवासी जी अफ़सोस के साथ अपने रुपये उठाने लगे, मानो अपनी आशाओं की लाश उठा रहे हों। साहब की ओर देखकर उन्होंने कहा - "लोटा आपका हुआ, ले जाइए, मेरे पास ढाई सौ से अधिक नहीं है।"

       यह सुनते ही अंग्रेज़ साहब के चेहरे पर प्रसन्नता छा गई। उसने झपटकर लोटा लिया और बोला- अब मैं हँसता हुआ अपने देश लौटँगा। मेजर डगलस की डींग सुनते सुनते मेरे कान पक गए थे।"

    "मेजर डगलस कौन हैं ?"

    "मेजर डगलस मेरे पड़ोसी हैं। पुरानी चीज़ों के संग्रह करने में मेरी उनसे होड़ रहती है। गत वर्ष वे हिंदुस्तान आए थे और यहाँ से जहाँगीरी अंडा ले गए थे।”

     "जहाँगीरी अंडा?"

      "हाँ, जहाँगीरी अंडा । मेजर डगलस ने समझ रखा था कि हिंदुस्तान से वे ही अच्छी चीज़े ले जा सकते हैं।"

       "पर जहाँगीरी अंडा है क्या ?"

        "आप जानते होंगे कि एक कबूतर ने नूरजहाँ से जहाँगीर का प्रेम कराया था। जहाँगीर के पूछने पर कि, मेरा एक कबूतर तुमने कैसे उड़ जाने दिया, नूरजहाँ ने उसके दूसरे कबूतर को उड़ाकर बताया था, कि ऐसे। उसके इस भोलेपन पर जहाँगीर दिलोजान से निछावर हो गया। उसी क्षण से उसने अपने को नूरजहाँ के हाथ कर दिया । कबूतर का यह अहसान वह नहीं भूला। उसके एक अंडे को बड़े जतन से रख छोड़ा । एक बिल्लोर की हाँड़ी में वह उसके सामने टँगा रहता था। बाद में वही अंडा "जहाँगीरी अंडा" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसी को मेजर डगलस ने पारसाल दिल्ली में एक मुसलमान सज्जन से तीन सौ रुपये में खरीदा।”

      "यह बात?”

     “हाँ, पर अब मेरे आगे दून की नहीं ले सकते। मेरा अकबरी लोटा उनके जहाँगीरी अंडे से भी एक पुश्त पुराना है।"

     "इस रिश्ते से तो आपका लोटा उस अंडे का बाप हुआ।"

      साहब ने लाला झाउलाल को पाँच सौ रुपये देकर अपनी राह ली। लाला झाऊलाल का चेहरा इस समय देखते ही जान पड़ता था कि मुँह पर छह दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी का एक-एक बाल प्रसन्नता के मारे लहरा रहा है। उन्होंने पूछा - "बिलवासी जी! मेरे लिए ढाई सौ रुपये घर से लेकर आए! पर आपके पास तो थे नहीं।”

     “इस भेद को मेरे सिवाय मेरा ईश्वर ही जानता है। आप उसी से पूछ लीजिए, मैं नहीं बताऊँगा।”

    “पर आप चले कहाँ? अभी मुझे आपसे काम है दो घंटे तक।”

     "दो घंटे तक ?"

      "हाँ, और क्या, अभी मैं आपकी पीठ ठोककर शाबाशी दूँगा, एक घंटा इसमें लगेगा। फिर गले लगाकर धन्यवाद दूँगा, एक घंटा इसमें भी लग जाएगा।"

      "अच्छा पहले पाँच सौ रुपये गिनकर सहेज लीजिए।"

      "रुपया अगर अपना हो, तो उसे सहेजना एक ऐसा सुखद मनमोहक कार्य है कि मनुष्य उस समय सहज में ही तन्मयता प्राप्त कर लेता है। लाला झाऊलाल ने अपना कार्य समाप्त करके ऊपर देखा। पर बिलवासी जी इस बीच अंतर्धान हो गए।"

      उस दिन रात्रि में बिलवासी जी को देर तक नींद नहीं आई। वे चादर लपेटे चारपाई पर पड़े रहे। एक बजे वे उठे। धीरे...बहुत धीरे...बहुत धीरे... से अपनी सोई हुई पत्नी के गले से उन्होंने सोने की वह सिकड़ी निकाली जिसमें एक ताली बँधी हुई थी। फिर उसके कमरे में जाकर उन्होंने उस ताली से संदूक खोला। उसमें ढाई सौ के नोट ज्यों-के त्यों रखकर उन्होंने उसे बंद कर दिया। फिर दबे पाँव लौटकर ताली को उन्होंने पूर्ववत् अपनी पत्नी के गले में डाल दिया। इसके बाद उन्होंने हँसकर अँगड़ाई ली। दूसरे दिन सुबह आठ बजे तक चैन की नींद सोए।

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3.अकबरी लोटा


कहानी का सारांश 

3. अकबरी लोटा

         श्री अन्नपूर्णानंद की एक हास्यास्पद कहानी है "अकबरी लोटा” इस कहानी के नायक लाला झाऊलाल अपने मकान से मिलते किराये के बल पर परिवार चलाते हैं। एक बार उनकी पत्नी ढाई सौ रुपये की माँग कर बैठती है। वे भी एक हफ़्ते में देने का वादा करते हैं। लेकिन उनको कुछ भी नहीं सूझता कि रुपये का प्रबंध कैसे किया जाए। अपने मित्र पं. बिलवासी से मदद माँगते हैं। हफ़्ते का अंतिम दिन आ ही जाता है। लेकिन रुपये का प्रबंध कर नहीं पाते। इसी चिंता में वे पानी से भरे अपने बेढंगे लोटे को तिमंजले से गिरा देते हैं। वह लोटा सीधे, नीचे खड़े एक अंग्रेज़ को भिगाकर, उसके पैर के अँगूठे को चोट पहुँचाता है।

         वह नाराज़ होकर चिल्लाने लगता है। ठीक उसी समय लालाजी के दोस्त बिलवासी भी वहाँ पहुँच जाते हैं। पुरानी और ऐतिहासिक चीज़ों के संग्रह में शौक रखनेवाले उस अंग्रेज़ को बेवकूफ़ बनाने में ही उनकी खूबी है

        वे बताते हैं कि बादशाह हुमायूँ ने इसी लोटे से ही पानी पीकर अपनी प्यास बुझायी थी। इसलिए अकबर ने इस लोटे को दस सोने के लोटे देकर ले लिया था। तब से इस लोटे का नाम " अकबरी लोटा ” पड़ा।

       बिलवासी की इस बात पर विश्वास करके वह अंग्रेज़ पाँच सौ रुपये देकर उस बेढंगे लोटे को खरीद लेता है।

     इस तरह अपने मित्र बिलवासी की समझदारी के कारण लाला जी की समस्या दूर हो जाती है । 

  सीखः किसी भी समस्या का हल समझदारी से करना चाहिए।















Thursday, January 21, 2021

MADHYAMA /Important translataions

         14. अपनी प्रांतीय भाषा में अनुवाद कीजिए :- 5

Important translations 

(1) दक्षिण भारत में करीब-करीब सब जगहों में नारियल होते हैं। नारियल के पेड़ लगाने के लिए मध्यम आयु के पेड़ के फलों को काटकर लाते हैं। काटने के एक महीने के बाद उनको जमीन में गाड़ देते हैं। जब वे आठ नौ महीने के पौधे हो जाते हैं, तब उनको उठाकर दूसरी जगहों पर गाड़ देते हैं। मछलियों की खाद से उनके पौधे बहुत अच्छे बढ़ सकते हैं। अगर अच्छी खाद दी जाए, तो नारियल का पेड़ पाँच-छ: वर्षों में ही फल देने लगता है। नारियल के पेड़ वर्ष में तीन-चार बार या इससे अधिक बार भी फल देते हैं।


தென்னிந்தியாவில் ஏறக்குறைய எல்லா இடங்களிலும் தென்னை மரங்கள் இருக்கின்றன. தென்னை பயிரிட நடுத்தர வயதுடைய மரங்களில் இருந்து முற்றிய காய்களை பறித்துக்கொண்டு வருகிறார்கள். பறித்தெடுத்த ஒரு மாதத்திற்குப்பின் அவற்றை நிலத்தில் புதைத்து விடுகிறார்கள். அவை எட்டு அல்லது ஒன்பது மாதக் கன்றுகளாக இருக்கும் போது அவற்றை எடுத்து வேறு இடத்தில் நடுகிறார்கள். மீன் உரமிடுவதால் அப்பயிர்கள் நன்கு வளரக்கூடும். நல்ல உரமிட்டால் தென்னைமரம் ஐந்து அல்லது ஆறு ஆண்டுகளுக்குள் பலன் தரத் தொடங்கிவிடும். தென்னை மரங்கள் வருடத்திற்கு மூன்று, நான்கு முறையோ அல்லது அதற்கும் அதிகமான பயன் தருகின்றன.


Coconut grows in almost all the parts of south India. To plant the coconut trees, the kernels of the middle aged trees are cut and brought. A month after cutting, they are planted under the ground. When they become eight or nine months old, they are taken out and planted in another place. With fish-manure, the plants grow well. If good manure is used, the coconut tree starts yielding tender coconuts within five or six years. Cocount trees yield atleast three or four times or even more times in a year.


(2) मुझे पहाड़ की चोटी पर पहुँचना था और समय तंग हो रहा था। जंगल में बाघ अपने शिकार पर चार या पाँच बजे ही आ जाता है। इसलिए मैं बड़ा सावधान होकर चल रहा था। कड़ी चढ़ाई पर मैं चला जा रहा था। एक एक पैर संभलकर रखता जा रहा था। एक झाड़ी के आसपास चिड़ियाँ कुछ विचित्र रूप से चिड़चिड़ा रही थीं। उधर जो देखा तो हृदय की धड़कन एकदम बढ़ गयी। सामने तीन सौ गज़ पर झाड़ी के पास बाघ खड़ा हुआ दिग्दर्शन कर रहा था।


நான் மலை உச்சிமீது ஏற வேண்டியிருந்தது. ஆனால் இருட்டும் நேரம் நெருங்கிக் கொண்டிருந்தது. காட்டில் புலி வேட்டையாட நான்கு அல்லது ஐந்து மணிக்கே வந்து விடுகிறது. எனவே நான் மிகவும் எச்சரிக்கையுடன் ஏறிக் கொண்டிருந்தேன். மிகுந்த சிரமமான மலைமீது ஏறிக்கொண்டிருந்தேன், ஒவ்வொரு காலடியை கவனத்துடன்

எடுத்து வைத்துக் கொண்டிருந்தேன். ஒரு புதரின் அருகே பறவைகளின் அதிசயமான சத்தம் வந்து கொண்டிருந்தது அங்கே பார்த்த போது இதயத்துடிப்பு அதிகரித்து விட்டது. முன்னால் முன்னூறு அடி தூரத்தில் புதரின் அருகே புலி நின்று கொண்டு பார்த்துக் கொண்டிருந்தது


I had to reach the peak of the mountain and time was getting dark. In the forest, the tiger comes to hunt at 4 or 5'o clock itself. Therefore I was moving very cautiously. I was climbing on a steep rock. So I was ascending step by step. Near a bush, some birds were making sounds in a strange way. I looked up and my heart beat was suddenly going up. The tiger was standing in full view at a distance of three hundred yards in front of me.


15. हिन्दी में अनुवाद कीजिए :-10


(1) தேங்காய்க்குள் மிகவும் இனிப்பான நீர் இருக்கிறது தேங்காயின் பருப்பை மக்கள் பல வேலைகளுக்குப் பயன்படுத்துகிறார்கள். முற்றிய தேங்காய்ப் பருப்பை உலர்த்திக் கொள்கிறார்கள். அதைக் கொப்பரை என்று சொல்லுகிறோம். அந்தக் கொப்பரையைச் செக்கிலிட்டு ஆட்டி எண்ணெய் எடுக்கிறார்கள், தேங்காயெண்ணெய் விளக்கிற்கும், தலையில் தடவிக் கொள்வதற்கும் உயோகப் படுகிறது. அதனுடைய ஓலைகளைக் கொண்டு பாய்கள் செய்யப்படுகின்றன. அதனுடைய நாரினால் கயிறு, பை முதலிய பலவித பொருள்கள் செய்யப்படுகின்றன


There is very sweet water inside the coconut. People use the kernel of the coconut in many ways. The ripe kernel is dried in the sun. It is then called 'kopra'. It is pressed in the oil press and oil is extracted. Coconut Oil is used for lighting lamps and applyling to the head. Its leaves are used for making mats. Its fibre is used to make ropes, bags and many other useful articles.

नारियल के अन्दर बहुत मीठा पानी है। लोग नारियल की गरी का अनेक कार्यों में उपयोग करते हैं। नारियल की पकी गरी को सूखाकर लेते हैं उसे 'कोपरा' कहते हैं। उसे कोल्हू में डालकर निचोड़ते हैं और तेल निकालते हैं नारियल का तेल दीप जलाने और सिर पर लगाने के काम में आता है। नारियल के पत्ते से चटाइयाँ बनायी जाती हैं। उसके रेशों से चटाइयाँ, रस्सी, थैली आदि अनेक तरह की उपयोगी वस्तुएँ बनायी जाती हैं।


(2) தூக்குமேடையில் நின்று கொண்டு வீரபாண்டிய கட்டபொம்மன் சொன்னார் - "எனக்குச் சாவைப்பற்றி கவலையில்லை; வருத்தமுமில்லை. நான் எனது நாட்டிற்காக இறக்கப்போகிறேன்; நாடுதான் எனக்கு அனைத்தும் அதற்காக உயிரை இழப்பது என்னுடைய தலைசிறந்த நோன்பு. ஆனால் ஒரே ஒரு எண்ணம் மட்டும் எனக்கு வருத்தம் அளிக்கிறது. ஆபத்துக் காலத்தில் தன் நாட்டிற்கு உதவாமல் வந்து விட்டேன். இப்போது அதற்காக வருந்திக் கொண்டிருக்கிறேன்


Standing on the gallows, the brave Kattabomman said, "I am neither afraid of, nor sad about my death. I am going to die for my country. The country is everything for me. It is my sacred duty to give up my life for its sake. But I am sad about one thing. During crisis, I have not helped my country. Now I am felling sad about it.


फाँसी के तख्ते पर खड़े होकर वीरपांडिय कट्टबोम्मन ने कहा- "मुझे मृत्यु का भय नहीं, चिंता भी नहीं । मैं अपने देश के लिए मरने जाता हूँ । देश ही मेरे लिए सब कुछ है। उसके लिए प्राण देना मेरा धर्म है। लेकिन मुझे एक ही खेद है। विपत्ति में अपने देश की मदद किये बिना ही मैं आ गया इस कारण अब मुझे अफ़सोस हैं।


(3) தில்லி அரியணையில் அமர்ந்து நான்கைந்து ஆண்டுகளுக்குப் பிறகு பாபருடைய அன்பான ஒரே மகன் ஹுமாயூன் நோயுற்றான். மிகுந்த மருத்துவம் செய்தும் அவனுடைய நோய் அதிகரித்து வந்தது அரச சபையினரில் ஒருவர் சொன்னார், "தாங்கள் தங்களுடைய மிக விருப்பமான ஒரு பொருளை துறந்து விடுவீர்களே யானால் தங்களுடைய மகன் குணமடைவான்". இதன் பின் பாபர் சொன்னார், ''என்னுடைய அன்பு மகனுக்காக நான் என்னுடைய உயிரையே துறந்துவிடத் தயாராக இருக்கிறேன்


After ruling over Delhi for four to five years Babar's dear and only son Humayun fell ill. In spite of the best treatment his illness became worse and worse. One of the courtiers said, "If you sacrifice one of things which is dearest to you, he will get well". On this Babar said, "I am ready to sacrifice my life to save my son."


दिल्ली के सिंहासन पर बैठने के चार-पाँच वर्षा के बाद बाबर का प्यारा व इकलौता पुत्र हुमायूँ बीमार पड़ा। बढ़िया इलाज करने पर भी उसकी बीमारी बढ़ती गयी। दरबारियों में से एक ने कहा - "अगर आप अपनी सबसे प्यारी चीज़ को त्याग दें तो आपका बेटा अवश्य स्वस्थ हो जाएगा ।" इसपर बाबर बोला - "मैं अपने बेटे के लिए अपनी जान को छोड़ने तैयार हूँ।

एकांकी

✍तैत्तिरीयोपनिषत्

  ॥ तैत्तिरीयोपनिषत् ॥ ॥ प्रथमः प्रश्नः ॥ (शीक्षावल्ली ॥ தைத்திரீயோபநிஷத்து முதல் பிரச்னம் (சீக்ஷாவல்லீ) 1. (பகலுக்கும் பிராணனுக்கும் அதிஷ்ட...