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Friday, September 10, 2021

त्योहार / निबंध

 

                          त्योहार

निबंध 

    भारत में कई त्योहार मनाए जाते हैं। ये त्योहार दो प्रकार के होते हैं। वे हैं में राष्ट्रीय त्योहार और धार्मिक त्योहार ।

राष्ट्रीय त्योहार :

     स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और गांधी जयंती पन्दा भारत के राष्ट्रीय त्योहार हैं।

       सन् 1947 अगस्त 15 को भारत आज़ाद हुआ। इसलिए हर साल अगस्त 15 को भारत का स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है। यह दिवस भारत भर में धूम-धाम से मनाया जाता है। इस दिन दिल्ली के लाल किले पर हमारे प्रधान मंत्री राष्ट्रीय झंडा फहराते हैं।

       सन् 1950 जनवरी 26 को भारत गणतंत्र देश बना। इसलिए हर साल जनवरी 26 को भारत का गणतंत्र दिवस मनाया जाता है। इस दिन राष्ट्रपति राष्ट्रीय झंडा फहराते हैं। अठारह उनहत्तर

       गांधीजी ने भारत को आज़ाद बनाया था। उनका जन्म सन् 1869 अक्तूबर 2 को हुआ था। उनके जन्म-दिवस को गांधी जयंती के रूप में मनाते हैं।

धार्मिक त्योहार :

      भारत में कई धर्मों के लोग रहते हैं। हिन्दुओं के लिए दीपावली, ओणम, गणेश चतुर्थी, होली, दशहरा और पोंगल मुख्य त्योहार हैं। हिन्दू लोग इन त्योहारों को भक्ति-भाव से मनाते हैं।

      इस्लाम धर्म का मुख्य त्योहार रमज़ान है। इस दिन मुसलमान लोग ईदगाह में नमाज़ पढ़ते हैं। ईसाई धर्म के लोगों के लिए क्रिसमस मुख्य त्योहार है। ये सभी त्योहार लोगों के बीच में भाई-चारे की भावना को बढ़ाते हैं ।



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त्योहार



Monday, January 25, 2021

हिन्दी निबंध /TOURISM

 

                                                                         हिन्दी निबंध 

                                                                        TOURISM


        1. मीनाक्षी देवी मन्दिर

             मीनाक्षी मन्दिर तमिलनाडु राज्य के मदुरै शहर के बीच में बसा है। मन्दिर की लम्बाई 847 फीट और चौड़ाई 792 फीट है। मन्दिर की चारों ओर गोपुर हैं। मन्दिर में कुल 9 गोपुर हैं। बाहर के चार गोपुर ही अधिक सुन्दर और ऊँचे हैं। दक्षिणी गोपुर हो सबसे ऊँचा है जो 152 फीट है। उत्तरी गोपुर के द्वार से हम मन्दिर के अन्दर जाते हैं। पूर्वी गोपुर का द्वार हमेशा बन्द रहता है। दक्षिणी, उत्तरी, पूर्वी और पश्चिमी गीपुरों पर पौराणिक कथाएं प्रकट करनेवाली अनेक प्रतिमाएँ हैं।

            मन्दिर के अन्दर पाँच संगीत स्तम्भ देख सकते हैं । प्रत्येक स्तम्भ में 22 छोटे स्तम्भ हैं जो एक ही पत्थर से बने हुए हैं। इन स्तम्भों से मधुर ध्वनि आती है। अर्द्ध मण्डप से मीनाक्षी देवी के दर्शन क्र सकते हैं। मन्दिर के गर्भगृह में सुन्दरेश्वर लिंग के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं। इस मन्दिर में विशालकाय गणेश, शान्त दक्षिणामूर्ति, रजत-सभा दायाँ पैर ऊपर कर नाचनेवाले नटराज की सुन्दर प्रतिमाएं हैं। मन्दिर के भीतर स्वर्ण कमल पुष्करिणी है उसकी चारों और की दीवारों पर भगवान शिव को 64 लोलाओं के चित्र मिलते हैं।




       2. रामेश्वरम

             हिन्दुओं की तीर्थयात्रा में काशी और रामेश्वरम का महत्व सर्वाधिक है। रामेश्वरम एक द्वीप है। रावण-वध के बाद श्री रामचन्द्र और सीताजी अपने दोष मिटाने यहाँ एक शिवलिग की प्रतिमा करना चाहते थे। कैलाश से शिवलिंग के लाने में हनुमानजी को देरी हुई। अत: शुभ मुहूर्त में सीताजी के द्वारा बालू से निर्मित लिंग की प्रतिष्ठा की गयी। हनुमानजी के द्वारा लाये गये शिवलिंग की भी प्रतिष्ठा उसके बाद की गयी। आज भी पहले हनुमानजी के द्वारा लाये गये शिवलिंग और उसके बाद सीता के द्वारा निर्मित लिंग की पूजा की जाती है। मन्दिर के ईश्वर के नाम हैं रामलिंग, रामनाथ और रामेश्वर । देवी का नाम पर्वत वर्द्धनी है। मन्दिर में एक विशालकाय नन्दी है जिसकी लम्बाई 23- फौट चौडाई 12 फीट और ऊँचाई 17.5 फीट हैं।

          रामेश्वर मन्दिर की लम्बाई 1000 फीट है और चौड़ाई 657 फीट है। इसमें तीन प्रदक्षिणा पथ है। उनकी चौड़ाई 20 से 30 फीट है और ऊंचाई 30 फौट है। इसकी लम्बाई 4000 फीट है। ऐसे प्रदक्षिणा पथ संसार में और कहीं भी नहीं है। इस मन्दिर में सेतु माधव की मूर्ति की प्रतिष्ठा कर शैवों और वैष्णवों में एकता लाने का प्रयत्न किया गया है। मन्दिर में अनेक पुण्य-तीर्थ हैं। उनमें यात्री स्नान करते हैं।


        3. महाबलीपुरम

               तमिलनाडु में चेन्नई के पास स्थित महाबलीपुरम में पल्लव राजाओं की मूर्तिकला के उत्कृष्ट नमूने हैं। इनके निर्माण में पल्लव राजा नरसिहवर्मन का योगदान अधिक रहा। उस राजा का दूसरा नाम मामल्लन था। इसलिए यह मामल्लपुरम भी कहलाता या। महाबलीपुरम के तीन भाग हैं मन्दिर, मण्डप और चट्टान-मूर्तियाँ।

              यहाँ दो मन्दिर हैं। गांव के मध्य में विष्णु का मन्दिर है जिसका निर्माण विजय नगर के एक राजा ने किया था। समुद्र तट का मन्दिर राजसिंह नामक पल्लव सम्राट से किया गया था। इस मन्दिर में सिंह को प्रतिमाएँ देखने योग्य हैं इस मन्दिर के गभगृहों में सोमास्कन्द मूर्ति, शिवलिंग और योग-निद्रा में तल्लीन महाविष्णु की प्रतिमाएँ हैं।

             पहाड़ की चट्टानों को खोदकर मण्डपों का निर्माण हुआ है। कुल दस मण्डप हैं। इन्हें गुफा-मन्दिर कहते हैं। एक स्थान में दीवार पर शेषनाग पर योग-निद्रा में डूबे महाविष्णु और महिषासुरमर्दिनी वास्तविक लगते हैं। वराह मण्डप में वराह अवतार की कथा मूर्तियों में वर्णित है। गर्भगृह में लक्ष्मी और दुर्गा को मुर्तियां हैं पशु मण्डप को दीवारों पर श्रीकृष्ण की कथा वर्णित है। यहाँ पाँच मन्दिर रथ के रूप में खोदे गये हैं। इन्हें पंच पाण्डव-रथ कहते हैं। ये हैं-धर्मराज रथ, भीम रथ, अर्जुन रथ, सहदेव रथ और द्रौपदी रथ। ये मन्दिर एक ही विशालकाय चट्टान काटकर बनवाये गये हैं।

           यहाँ एक विशाल चट्टान है जिसकी लम्बाई 80 फीट और ऊँचाई 30 फौट है। इस चट्टान पर लगभग 250 मूर्तियाँ अंकित हैं। उनमें एक पैर से तपस्या करनेवाले भगीरथ, भूतगण, धनुषधारी शिकारी, सिंह, हिरन, हंस, छिपकली, कछुआ, देवलोक के स्त्री-पुरुष, आँखें मूंदकर तप करनेवाली बिल्ली आदि की सजीव मूर्तियाँ हैं।



        4. बृहदीश्वर मन्दिर

          तमिलनाडु में तंजाऊर में राजराज चोलन प्रथम ने बृहदीश्वर मन्दिर का निर्माण किया था। उन्होंने गर्भगृह के गोपुर को अन्य गोपुरों से ऊँचा बनाया यह गोपुर 216 फीट ऊँचा है। पूरे भारतवर्ष में यही सबसे ऊँचा गोपुर है। इस गोपुर के ऊपर एक ही चट्टान से बना गुम्बद है जिसका वजन 80 टन है।

          ईश्वर के सामने नन्दी की बड़ी प्रतिमा है जो एक ही पत्थर से बनी है और उसकी लम्बाई 20 फीट, चौड़ाई 8.5 फीट और ऊँचाई 12 फीट है । मन्दिर के गर्भगृह में भगवान् बृहदीश्वर लिंग के रूप में दर्शन देते हैं। यह लिंग-मूर्ति एक ही पत्थर से निर्मित है। जिसकी ऊँचाई 13 फीट और घेरा 54 फीट है। इस विशाल और बृहद् शिवलिंग के कारण बृहदीश्वर नाम पड़ा है। इस मन्दिर के गर्भगृह की दीवारों पर क्षीरसागर-मन्थन, कण्णप्प नामनार, सुन्दर मूर्ति नामनार का कैलाश-प्रस्थान, भैरव, चिदम्बरम के नटराज का आनन्द-ताण्डव, त्रिपुर दहन आदि उल्लेखनीय चित्र अंकित हैं। साथ ही बृहदीश्वर मन्दिर के कुम्भाभिषेक, सम्राट राजराज चोलन अपने परिवार के साथ चिदम्बरम के नटराज की पूजा करना आदि सुन्दर चित्रों में तत्कालीन लोगों के वस्त्र और आभूषण के बारीक ब्यौरे भी मिलते हैं।

            मन्दिर के अन्दर सुब्रह्मण्य मन्दिर, बृहत्रायकी देवी मन्दिर, नटराज मन्दिर, महागणपति मन्दिर, श्री वराही मन्दिर और करुवा देवर मन्दिर भी हैं।




      5. कन्याकुमारी या कुमारी अन्तरीप

           कन्याकुमारी भारत का दक्षिणी छोर है। यहाँ विवेकानन्द मण्डप है। बहाँ पहुँचकर हिन्द महासागर, बंगाल की खाड़ी और अरब महासागर का संगम देख सकते हैं। यहाँ सूर्योदय और सूर्यास्त का दृश्य मनमोहक होता है। चैत मास की पूर्णिमा के दिन सुर्यास्त और चन्द्रोदय आकाश में एक साथ देख सकते हैं।

          कन्याकुमारी देवी के मन्दिर के अन्दर जाने के लिए दो द्वार हैं जो उत्तर और पूरब की दिशाओं में हैं। पूरब का द्वार हमेशा बन्द रहता है क्योंकि उस द्वार से कन्याकुमारी देवी की नथनी से प्रकट होनेवाले किरण को देखकर दीपक समझकर मछुआरों के नाव पहाड़ों से टकरा गये थे। कन्याकुमारी देवी ने बाणासुर का वध किया था। वहाँ होनेवाले त्योहार में महादानापुरम के नाम से उसका अभिनय हर वर्ष भाद्रपद में होता है। जिस स्थान पर गाँधीजी का अस्थि कलश रखा गया था, वहाँ आज गांधी मण्डप बना हुआ है। गाँधीजी के जन्मदिन 2 अक्टूबर को उस स्थान पर सुर्य-किरण सीधा पड़ता है।



     6. ताजमहल

           ताजमहल शाहंशाह शाहजहाँ के द्वारा अपनी बेगम मुमताज महल की याद में मुमताज महल की कब्र के ऊपर बनाया गया मकबरा है। यह काम 22 सालों में सन् 1653 में पूरा हुआ। संगमरमर पर लिखी गयी कविता ताजमहल है। महल के अन्दर और बारीक नक्काशी हुई है। कीमती पत्थरों से उसकी सजावट की गयी थी। मकबरे का निचला भाग वर्गाकार है और उसका ऊपरी भाग 32.4 मीटर है। उसके चारों कोनों में न्यू बोला है और उसके मध्य गोलाकार गुम्बद है। शाहजहाँ और मुमताज की कब्र जमीन के नीचे है। मुख्य द्वार पर कुरान की आयतों की खुशनवीसी हुई है कि नीचे से ऊपर तक हर अक्षर समान आकार का दिखाई देता है। ताजमहल के सामने सुन्दर बगीचे, फव्वारे और सरोवर हैं। पूर्णिमा की रात को ताजमहल का दृश्य अतिआकर्षक होता है।



       7. कोणार्क मन्दिर

                उड़ीसा में स्थित कोणार्क मन्दिर का निर्माण राजा नरसिंह देव ने तेरहवीं शताब्दी में किया था। वास्तुशिल्प को दृष्टि से अद्भुत ढंग से बना सूर्य-मनदिर यह है। पूरी संरचना में वास्तुकलात्मक एकता है जिसके अंश के रूप में श्रीमन्दिर, जगमोहनमन्दिर, नलमन्दिर और भोगमन्दिर हैं। पूरा मन्दिर सूर्य के रथ के समान बनाया गया। उसमें सात घोड़े और बारह चक्र हैं। हर चक्र की ऊँचाई 3,6 मीटर है जिस पर कलात्मक शिल्प हैं।

             आज भग्नावशेष के रूप में एक छोटा अंश ही प्राप्त है। एक प्रवेश कक्ष है जो 39 मोटर ऊँचा है। विशाल मन्दिर का ऊपरी हिस्सा जो पिरामिड की तरह है, 67.5 मीटर ऊँचा है। भग्न मन्दिर काम-भाव से भरे शिल्पों से भरा है। एक बड़ा नृत्य-प्रांगण है जिसकी लम्बाई 259.5 मीटर और चौड़ाई 162 मीटर है उसके तीन द्वार तीन दिशाओं में खुलते हैं। उड़ीसा की कला का अद्भुत उदाहरण है कोणार्क मन्दिर, जिसके ऊपर रहस्य का परदा है। मन्दिर के अन्दर कुछ नहीं है और बाहर अधिक अलंकृत है।




       8. अजन्ता और एलोरा

           अजन्ता महाराष्ट्र में औरंगाबाद के निकट बना गुफा-मन्दिर है। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में ईस्वी सातवीं शताब्दी तक निर्मित बौद्ध गुफा-मन्दिर कुल 25 हैं और हिन्दू गुफा-मन्दिर 5 हैं। उनमें चैत्य नं० 19 विशेष रूप से उल्लेखनीय है। सब चैत्यों में बुद्ध के रूप मिलते हैं। गुफा-मन्दिरों को दीवारों और छतों पर बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित घटनाओं के चित्रण के साथ उनके चमत्कार के भी चित्रण चित्रों से किये गये हैं।

         एलोरा गुफाएँ अजन्ता से 48 किलोमीटर दूरी पर हैं। इनमें 12 बौद्ध-विहार हैं। 24 खम्भों से बने महावदा विहार में दोनों तरफ 23 कमरे हैं कुछ विहार दुर्मंजिले और तिमंजिले भी हैं। विश्वकर्मा चैत्य अधिक प्रसिद्ध है। एलोरा में हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्मों के गुफा-मन्दिर हैं। कुल 34 गुफा-मन्दिर हैं। उनमें कैलाश का मन्दिर एक पूरे पहाड़ को काटकर बनाया गया है।



         9. कश्मीर

            कश्मीर चारों और पहाड़ों और घाटियों से घिरा एक किले के समान है जो भारत और पाकिस्तान की सीमाओं पर है। कश्मीर में अनेक झीलें हैं। उनमें ऊलर और डल झोल उल्लेखनीय हैं। इल झोल पर लोग नाव घरों में रहते हैं । श्रीनगर से 10 किमी० दूरी पर मुगल बादशाहों ने कई बगीचे चनवाये हैं जिनमें फव्वारे हैं और असंख्य रंग बिरंगे फूल हैं। गुलमर्ग और पहलगांव अनेक यात्राओं के आरम्भिक स्थान हैं। गुलमर्ग से बर्फ से ढके पूर्वी हिमालय के शिखरों के दृश्य देख सकते हैं।



        10. जयपुर

            सन् 1927 को राजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने जयपुर का निर्माण गुलाबी रंग के बालू और पत्थरों से किया था। नगर की चारों ओर दीवारें हैं जिनमें सात प्रवेश स्थान हैं। नगर में पक्की सड़कें हैं। पूरा नगर सात समकोणीय खण्डों में विभाजित है। 'सिटि- पैलेस' के अन्दर कई वैयक्तिक महल, बगीचे और दालान हैं। दरवाजों पर सुन्दर नक्काशी हुई है। इसमें एक अजायबघर है जिसमें पुराने ताड़-पत्र, शस्त्र, कवच, पोशाक, दरियाँ और बौने चित्र हैं। सवाई जयसिंह द्वितीय ने ही 1726 को जन्तर- मन्तर नामक वेधशाला का निर्माण किया था। पांच मंजिलों का हवामहल एक अद्वितीय महल है।

 

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Sunday, January 24, 2021

सुभद्रा कुमारी चौहान

 


                                                     कवयित्री

                                              सुभद्रा कुमारी चौहान 

                                                 जन्म : सन् 1904

                                                  निधन : 1948

       रचनाएँ   -    मुकुल  बिखरे मोती, उन्मादिनी, त्रिधारा, सभा के खेल और सीधे-सादे चित्र।



                    जीवन ईश्वर का वरदान है । इस जीवन को सफल, सार्थक एवं सरस बनाना मनुष्य के हाथों में हैं। इस दुनिया में अनेकानेक लोग जन्म लेते हैं और मर भी जाते हैं। लेकिन जिन्होंने अपना नाम अमर करके स्वर्ग सिधारा उन्होंने सदैव जन-मन में अमिट स्थान पाया भारतियार बहुत कम उम्र में स्वर्ग सिधारे । स्वामी विवेकानन्द ने भी कम उम्र में ही महासमाधि ग्रहण कर ली । सुप्रसिद्ध नेता राजीव गाँधी को भी कम उम्र में इस जगत को छोडना पडा । इनकी सूची में, इन्हीं का अनुकरण करते हुए सुभद्रा कुमारी चौहान ने भी अपनी 44 साल की अवस्था में ही मोटर दुर्घटना के कारण मोक्ष प्राप्त की थी । जीवन की लम्बी यात्रा रुक जाने के कारण इनकी काव्य-यात्रा भी काल का ग्रास बन गयी थी । इनके जीवनकाल में 'त्रिधारा' और 'मुकुल" सिर्फ दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुकी थी । बाकी उनके निधन के बाद जन-मन में स्थान लेने लगीं।

             श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म सन् 1904 ई. में इलाहाबाद के निहालपुर गाँव में हुआ था । इनका बचपन काफी सुखमय रहा । इनके पिताजी ठाकुर रामनाथ-सिंह भजन गाने के अत्यन्त प्रेमी थे । बचपन में अपने पिता के साथ यह भी गाया करती थीं। गेयता इनको विरासत में मिली थी। इनके पिता शिक्षा-प्रेमी भी थे इसलिए इनमें भी शिक्षा के प्रति असीम रुचि बनी रही ।

             महादेवी वर्मा की तरह इनकी भी शिक्षा प्रयाग के क्रास्थवेट कॉलेज में हुई थी। बचपन से चंचल, नटखट, गीत-प्रिय सुभद्रा कुमारी चौहान कॉलेज के अनेक उत्सवों में स्वलिखित कविताएँ की प्रस्तुती करती थीं । शैशव इनका मधुरमय होने के कारण यह उसे कभी भूल नहीं पाती थी। अपनी पंक्तियों में वे कहती हैं -

                      "बार-बार आती है मधुर याद बचपन तेरी 

                      गया ले गया तू जीवन की मस्त खुशियाँ मेरी ।"

              वात्सल्य भरी कविताएँ लिखने में महाकवि सूरदास के बाद सुभद्रा कुमारी चौहान का स्थान स्तुत्य है । निम्नलिखित पंक्तियाँ उनकी मातृत्व का चिन्ह है।

                       कृष्ण चंद्र की क्रीडाओं का 

                       अपने आँगन में देखो

                       कौशल्या के मातृमोद को 

                       अपने ही मन में लेखा ।"

            एक और ज्वलंत प्रतीक है

         “मैं बचपन को बुला रही थी, बोल उठी बिटिया मेरी ।

          नन्दन वन सी फूल उठी यह छोटी से कुटिया मेरी ॥”

           माँ के दिल तथा ममता के बारे में उनका विचार है -

          "परिचय पूछ रहे हो मुझसे, कैसे परिचय दूं इसका 

           वही जान सकता है इसको, माता का दिल है जिसका ।"

              बच्चों के साथ बच्चा बनने में बड़ों को पूर्ण आनन्द मिलता है । पण्डित जवहरलाल नेहरू बच्चों को बहुत चाहते थे । आज के हमारे वैज्ञानिक राष्ट्रपति बच्चों के साथ समय बिताने में अत्यन्त आनन्द का अनुभव करते है। बच्चों के साथ बच्चा बन जाने से ही वात्सल्य रस का परिपूर्ण आनन्द प्राप्त कर सकते हैं । वात्सल्य रस का सुन्दर, सहज, सजीव, यथार्थ एवं सशक्त वर्णन सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताओं में मिलता है

          मैं भी उसकी साथ खेलती, खाती हूँ, तुतलाती हूँ। 

          मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ ।"


वात्सल्य रस का एक और उदाहरण देखिए । माँ बच्चे के पास आकर उसे उठने को कहती है, और बच्चा धीर गंभीर मुख-मुद्रा से माँ से कहता है -

              तुम लिखती हो, हम आते हैं

              तब तुम होती हो नाराज

              मैं भी तो लिखने बैठा हूँ

              कैसे बोल रही हो आज 

              क्या तुम भूल गयीं माँ 

              पढ़ते समय दूर रहना चहिए 

              लिखते समय किसी से कोई

              बात नहीं करना चाहिए ।

               वैवाहिक जीवन इनका काफी सुखमय रहा । इनका विवाह ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ हुआ । ठाकुर लक्ष्मण सिंह के पिता इनके वचपन में ही तीन छोटे बच्चों और निराधार पत्नी को छोड स्वर्ग सिधार चुके थे । उनकी माँ ने ही कठिन परिश्रम के साथ बच्चों का पालन पोषण किया शिक्षा के प्रति ठाकुर लक्ष्मण सिंह की रुचि एवं क्षमता को देखकर प. माखनलाल चतुर्वेदी जो उनके गुरु तथा अभिभावक तुल्य थे उन्होंने इनकी मदद की थी । ठाकुर लक्ष्मण सिंह, सुभद्रा कुमारी चौहान के छोटे भाई के मित्रों में से एक थे । ठाकुर लक्षमण सिंह चौहान सुशिक्षित व्यक्ति ही नहीं बल्कि साहित्य के प्रति पूर्ण रुचि रखनेवाले सज्जन थे । इसी कारण शादी के बाद भी सुभद्रा कुमारी चौहान को पढ़ने का मौका मिला था ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान वकालत की परीक्षा पास किये हुए थे। पं. माखनलाल चतुर्वेदी के साथ कर्मवीर के संपादन करते भी थे । अपनी सुप्रसिद्ध कविता "ठुकरा दो या प्यार करो" में कवयित्री लिखती हैं -

              मैं उन्मत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आई हूँ

              जो कुछ है, बस यही पास है, इसे चढ़ाने आई हूँ

              चरणों पर अर्पित है इसको चाहे तो स्वीकार करो 

              यह तो वस्तु तुम्हारी ही है, ठुकरा दो या प्यार करो । "

              ठाकुर लक्ष्मण सिंह परम उदार विचारोंवाले एक सहृदय सज्जन थे । इसलिए सुभद्रा कुमारी चौहान का वैवाहिक जीवन काफी सुखमय था । वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी के बीचे में सही समझ एवं कुछ भी नहीं छिपाने के उत्तम गुण के होने की जरूरत पर प्रकाश डालते हुए लिखती हैं -

                     "बहुत दिनों की हुई परीक्षा, अब रूखा व्यवहार न हो ।

                       अजी बोल तो लिया करो तुम चाहे मुझपर प्यार न हो ।”

              अपने पति के वियोग में, उन्हें चंद दिनों के लिए, देश के लिए अपने से बिछुडते वक्त, पति के जेल मार्ग लेने पर वे लिखती हैं:-

                       “मैं सदा रूठती आयी, प्रिय ! तुम्हें न मैंने पहचाना । 

                         वह मान बाण-सा चुभता है अब देख तुम्हारा यह जाना ।"

               देश भक्ति सुभद्रा कुमारी चौहान तथा ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान दोनों में कूट-कूटकर भरी पड़ी थी। दोनों ने असहयोग आंदोलन में पूर्ण रूप से भाग लिया । 'बारिस्ट्री' में उत्तीर्ण होने पर भी ठाकुर लक्ष्मण सिंह स्ट्री' नहीं किये । प्रयाग के कॉलेज में श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान पढ़ रही थी । असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी । ठाकुर लक्ष्मण सिंह अनेक बार जेल गये थे । राजनीति में सक्रिय भाग लेने के कारण सुभद्रा कुमारी को भी अनेक बार जेल जाना पडा । श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान की "झाँसी रानी" कविता जन-मन सब में नयी क्रांति पैदा करने में सफल सिद्ध हुई थी । इस कविता के हर शब्दों में मुर्दों में जान फूंकने की शक्ति थी ।

                                "चमक उठी सन् सत्तावन

                                 वह तलवार पुरानी थी,

                                 फिर से नई जवानी थी

                                 बूढ़े भारत में भी आई

                                दूर फिरंगी को करने की

                                सबके मन में ठानी थी 

                                बुन्देले हर बोलों के मुख 

                                हमने सुनी कहानी थी, 

                                खूब लड़ी मरदानी थी । 

                                वह झांसी की रानी थी ।"

               देश भक्ति, नारी मुक्ति तथा नारी-शक्ति पर जोर डालनेवाली पंक्तियों से अपने आपको सुभद्रा कुमारी चौहान उन्नत शिखरों पर पहुँचा चुकी थीं।

                   "तुम्हारे देश बंधु यदि कभी डरें, कायर हो पीछे हटें 

                     बन्धु ! दो बहनों को वरदान, युद्ध में वे निर्भय मर मिटें ।"

             सामान्य जनता में, खासकर महिलाओं में देशभक्ति जगाने में सुभद्रा कुमारी चौहान का काम सचमुच सराहनीय है । निहालपुर के मुहल्ले में दोपहर के समय पर सुभद्रा स्त्रियों की सभा करती थीं । इस सभा में उस मुहल्ले की ज्यादातर स्त्रियाँ भाग लेती थीं। उन सभाओं में सुभद्रा कुमारी चौहान सबके मन में देश भक्ति तथा नारी शक्ति जगाती थीं। विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार, स्त्री शिक्षा की आवश्यकता, पर्दा से बाहर आने की प्रेरणा आदि बातों पर जोर देने के साथ उस मुहल्ले की औरतों में आत्मविश्वास भी भराने का संराहनीय काम करती थीं।

               नारी की शक्ति पर प्रकाश डालने के साथ देश-प्रेम से भरी पंक्तियाँ उनकी मनोभावना को साफ-साफ प्रकट करती हैं।

                  "सबल पुरुष यदि भीरु बने तो इनको दे वरदान सखी । 

                   अबलाएँ उठ पडे देश में करें युद्ध घमसान सखी । 

                   पन्द्रह-कोटि असहयोगिनियाँ दहला दें ब्रह्माण्ड सखी । 

                   भारत-लक्ष्मी लौटाने को दें लंका-काण्ड सखी ।

               सुभद्रा कुमारी की जलियाँवाला बाग में वसन्त, राखी, विजय दशमी, लक्ष्मीबाई की समाधि पर, वीरों का कैसा हो वसन्त आदि कविताएँ देश-भक्ति से ओत-प्रोत हैं । देश के प्रति इनकी भक्ति की साक्षी हैं। "वीरों का कैसा हो वसन्त" में सुभद्रा कुमारी यह विचार व्यक्त करती है कि सरसों के पीले फूलों ने वसुधा रूपी वधु के अंग-अंग को पुलकित कर दिया है, किन्तु उसके क्रन्त वीर वेश में हैं वीरों का वसन्त कैसा होता है ? शिवाजी के दरबार के जोशीले कवि भूषण नहीं हैं और उनके युद्ध का वर्णन करनेवाले, उनके उत्साह को बढ़ानेवाले कवि चन्द ही हैं और इस समय अनेक साहित्यकारों की कलम बंधी गयी है, उनकी कलमों में विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है, इस स्थिति में हमें कौन बताये कि वीरों का वसन्त कैसा हो ? राजनैतिक पराधीनता के विरुद्ध इन्होंने अनेक जोशीली कविताएँ लिखी हैं । अपने इस महान कार्य के कारण ही ये बाद में विधान सभा की सदस्या निर्वाचित हुईं।

                सुभद्रा कुमारी की “आहत की अभिलाषा" कविता परमात्मा या भगवान के प्रति उनकी भक्ति पर प्रकाश डालती है । इस कविता में कवयित्री परमात्मा पर अपने प्रेम को व्यक्त करती है । वे बंताती हैं -

       मैंने अपने सारे जीवन को अर्पण करके सभी सुखों को तुच्छ समझा ।

       मैंने सब कुछ त्याग कर मेरे सर्वस्व को तुममें देखा ।"

        भगवान पर अपने आपको समर्पित करने की भावना इस कविता में मुखरित है।

             श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान एक सफल कहानीकार भी हैं. बिखरे मोती', जन्मादिनी और सीधे-सादे चित्र में उनकी कहानियाँ संग्रहित हैं। बच्चों के लिए, गेयता सहित उनसे लिखी गयी कविताएँ सभा का खेल" पुस्तक में संग्रहित है । त्रिधारा' में पं. माखनलाल चतुर्वेदी और प. केशवप्रसाद पाठक की कविताओं के साथ इनकी कविताएँ भी स्थान पाती हैं । "मुकुल" कविता संग्रह के लिए इन्हें 'सेक्सरिया' पुरस्कार मिला है । 'मुकुल' में देश भक्ति तथा परिवारिक प्रेम स्थान पाते हैं ।

             छायावाद-युग की कवयित्रियों में सुभद्रा कुमारी चौहान का प्रमुख स्थान है । इनकी कविताओं वीरता, धीरता और ओज के साथ-साथ कोमलता, भावुकता तथा मधुरता को भी यथार्थ स्थान मिला है । इनकी रचनाओं में मीठी कल्पनाएँ तथा कला की झलक मिलती हैं। भाव व कला पक्ष दोनों तरफ से इनकी रचनाओं का अपना अलग पहचान है। अपनी अनुभूतियों को उचित शब्दों से, उन्नत रूप से प्रकट करने में सुभद्रा कुमारी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है । इनकी रचनाओं से यह बात स्पष्ट मालूम होती है कि सुभद्रा कुमारी चौहान सचमुच जन्मजात कवयित्री हैं।

       सुभद्रा कुमारी चौहान के आत्मविश्वास का सही उदाहरण है उनसे लिखी गयी यह पंक्तियाँ :-

                               मैं जिधर निकल जाती हूँ 

                               मधुमास उतर आता है । 

                               नीरस जग के जीवन में

                               रस घोल-घोल जाता है ।

                  यथार्थता की अधिकता होने के कारण इन्हें यथार्थवादी कवयित्री कहना सर्वोचित होगा। इनकी सभी कविताओं में भावों की प्रधानता होती है । श्रृंगार, वीर रस के साथ 'वात्सल्य' को भी इनकी रचनाओं में उचित स्थान मिला है । सब प्रकार का वर्णन स्पष्ट एवं सहज हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान खडीबोली भाषा में लिखा करती थी। संस्कृत के तत्सम शब्द और फारसी के एकाध शब्दों का उपयोग करने पर भी प्रवाह में कोई रुकावट या बाधा नहीं है । वीरता के बारे में लिखते वक्त ओज के साथ उत्साह तथा वात्सल्य या श्रृंगार के बारे में लिखते वक्त मधुरता एवं आकर्षण इनकी रचनाओं की विशेषता है । भाषा सरल, सहज, सुबोध होने के साथ-साथ व्यवहारिक है। मुहावरों का उचित प्रयोग रचनाओं को और भी आकर्षक बना दिया है । अभिव्यंजना शिल्प में इनकी रचनाएँ द्विवेदी युगीन कवियों के मेल में है । अधिकांश कविताओं में "राष्ट्र-प्रेम" की भावना इनको देश-भक्त साबित करती हैं। इनकी "झाँसी रानी शीर्षक की कविता घर-घर में, जन-जन में बड़ी उत्सुकता तथा तन्मयता के साथ गायी गयी है । सुभद्रा कुमारी को व्यक्ति-व्यक्ति तक पहुँचाने में इस कविता का योगदान प्रशंसनीय है ।

                  सुभद्रा कुमारी की मानवता एवं महानता के बारे में मुक्तिबोध लिखते हैं - "व्यक्तिगत भावों को निर्वैयक्तिकता कई प्रकार से प्रदान की जाती है। भावों को बहुत गहरे रंगों में उभार कर रखने से भी, उनकी व्यक्ति-मूलक सीमायें टूट जाती हैं और वह अन्य व्यक्ति के द्वारा सहज सम्वेद्य हो जाता है। सुभद्रा जी ने ऐसा नहीं किया है उनके काव्य की सर्वगम्यता और सहज सम्वेद्यता सीधी अभिव्यक्ति के कारण ही नहीं है, वरन् जीवन प्रसंगों की भूमिका में किसी एक भाव क्षण को उपस्थित करने के कारण उनमें वह गुण उत्पन्न हुआ, जिसे हम मानवीयता कहते हैं ।"

                 जन्मजात कवयित्री, भावुक, राष्ट्र-प्रेम से ओत-प्रोत, असहयोग आंदोलन में सम्पूर्ण रूप से सहयोग देनेवाली, नारी मुक्ति तथा नारी शक्ति पर प्रकाश डालनेवाली, सामाजिक चिंतक, आदर्श पत्नी, अतुलनीय माँ, सराहनीय साहित्यकार श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान का निधन सन् 1948 ई. में मोटर दुर्घटना में हो गया था ।

                 44 के साल में जनता से इन्हें छीनकर काल ने अपना घोर रूप दिखा दिया था । अगर सुभद्रा कुमारी का अनेक साल हमारे साथ रहने का सौभाग्य भारतीय जनता को प्राप्त होता तो हिन्दी साहित्य सागर उनकी सृजन-वर्षा से भर जाता । साहित्य के क्षेत्र में इनकी रचनाओं की संख्या कम होने पर भी, उनकी श्रेष्ठता एवं काव्यात्मक विशेषताओं के कारण इनका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य बन गया है । सुभद्रा कुमारी चौहान सब हिन्दी प्रेमियों के मन में सम्माननीय स्थान पाकर आज तक अमर रही हैं ।

महादेवी वर्मा

 

                                                    महादेवी वर्मा

                                                   जन्म : 1907

                                                    निधन : 1987

                                   रचनाएँ

          काव्य        नीहार, रश्मि, नीरज, दीपशिखा, सांध्यगीत आदि ।

          रेखाचित्र     अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी आदि ।

          निबन्ध        श्रृंखला की कडियाँ, साहित्यकार की आस्था, क्षणदा, कसौटी पर आदि ।

    



                  सालों पुरानी बात है । जाडे के दिन थे । एक कुत्तिया ने कुछ बच्चे दिये । रात हो जाने पर जाड की ठण्डी के कारण पिल्लों की कूँ- माँ की ध्वनि सुननेवालों के मन में करुण भावना उत्पन्न करती थी । अनेकों ने अनसुनी कर दी । लेकिन सात साल की एक लड़की ने कहा - बहुत जाडा है, पिल्ले जड़ रहे हैं। मैं उनको उठा लाती हूँ। सबेरे वहीं रख दूँगी । लड़की के हठ के कारण घर के सारे लोग जग गये और पिल्ले घर लाये गये इसके बाद ही उस लड़की एवं पिल्लों को आश्वासन मिला । यह सात साल की लड़की थी - महादेवी वर्मा । बचपन से ही महादेवी वर्मा को जीव-जन्तुओं के प्रति असीम प्यार था । इसी प्यार के बल से ही महादेवी को अपना नाम सार्थक बनाने का मौका मिला । सच है ममता का दूसरा रूप है - महादेवी वर्मा ।

                  विशिष्ट साहित्यकार, करुण भरी कवयित्री महादेवी वर्मा का जन्म मंगलमय एवं रंगभरी, कपड़ों में ही नहीं बल्कि मन में भी खुशी के रंग भरनेवाली होली के दिन में सन् 1907 को विशिष्ट साहित्यकारों की जन्मभूमि उत्तर प्रदेश के फरुखाबाद में हुआ था। महादेवी अपने माँ बाप की पहली संतान थी। होली के दिन में इन्हें पाकर पिताजी गोविन्द प्रसाद आनन्द सागर में डूब गये थे । माताजी हेमरानी का भी खुशी का टिकाना नहीं रहा । दोनों इतने प्रसन्न हो गये थे कि अपनी कुल देवता दुर्गा देवी के नाम से इन्हें महादेवी बुलाने लगे । महादेवी स्वभाव में भी महादेवी ही थीं।

                  सात साल की उम्र में ही इनमें कवित्व शक्ति स्थान पाने लगी । आठवें वर्ष में इनसे लिखी गयी 'दिया' कविता की पंक्तियाँ उसकी कवित्व की साक्षी है ।

                प्रेम का ही तेल भर जो हम बने निशोक, 

               तो नया फैले जगत के तिमिर में आलोक !"

                 वैसे बचपन इनका बहुत ही सुखमय था । इनकी माताजी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं और घर में रामायण का सस्वर पाठ किया करती थीं। आर्य समाजी संस्कारों के साथ इन्दोर के मिशन स्कूल में इनकी भर्ती हुई । घर में भी विशेष शिक्षकों की नियुक्ति हुई । इस कारण महादेवी वर्मा हिन्दी, उर्दू और चित्रकला में भी प्रवीण हो गयीं । नौ वर्ष तक इन्होंने खडीबोली हिन्दी में कविता लिखने की पूर्ण क्षमता पायी।

                बचपन इनका बहुत ही मनोहर था । अपने छोटे भाई तथा बहन के साथ ये पूर्ण उल्लास के साथ खेलती कूदती थीं । महादेवी पढाकू होने के साथ साथ लडाकू भी थीं। प्रकृति और प्राणियों के प्रति इनकी रुचि इनके बचपन को महकते उपवन बना चुकी थी । सब प्रकार से इनका बचपन तथा लडकपन सुखमय था ।

               श्री गंगाप्रसाद पाण्डेय के अनुसार महादेवी वर्मा की शादी नौ वर्ष की छोटी उम्र में करा दी गयी थी । इनके पिता ने अपनी प्यारी बेटी की शादी बहुत कम उम्र में, बड़ी धूम-धाम से करा दी। लेकिन जैसे ही ये बरेली के पास नवाबगंज नामक कस्बे में स्थित ससुराल भेजी गयी, तो वहाँ रो-धोकर, खाना, पीना, सोना, बोलना आदि सबको त्यागकर दूसरे दिन ही अपना घर पहुंच गई । तेज ज्वर आ जाने के कारण उनके ससुर ने इनको घर छोड़ दिया । इनके वैवाहिक जीवन की यहीं समाप्ति हो गई। बी.ए. पास होते ही महादेवी वर्मा को उनके ससुराल ले जाने का प्रश्न उपस्थित हुआ। महादेवी वर्मा ने दृढ़ता पूर्वक इनकार कर दिया। उन्होंने अपने पिताजी को अपना यह निश्चय सुना दिया । बाबूजी महादेवी को दूसरा विवाह करने की इच्छा हो तो उसे करवा देने के लिए तैयार थे । लेकिन महादेवी विवाह करना ही नहीं चाहती थी। पढ़ाई में मन जाने के कारण वैवाहिक दायित्व को इन्होंने स्वीकार नहीं किया ।

              सन् 1919 में इन्होंने प्रयाग के क्रास्थवेट कॉलेज में मिडिल की परीक्षा में सर्वप्रथम आने के कारण इनको राजकीय छात्रवृत्ति प्राप्त हुई थी । सन् 1929 में इन्होंने बी.ए. की परीक्षा पास की । सन् 1931 में प्रयाग महिला विश्वविद्यालय में संस्कृत में एम.ए. पास करके प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बन गयी थी । प्रयाग महिला विद्यापीठ को आगे बढ़ाने में, प्रशस्त एवं प्रसिद्ध बनाने में इनका योगदान अतुलनीय है। प्रधानाचार्य से बाद में उसी विद्यापीठ के कुलपति के दायित्व को भी सालों तक इन्होंने संभाला ।

             साहित्य में महादेवी वर्मा का प्रवेश 'नीहार' कविता संग्रह के साथ हुआ था । इनकी कविताओं में करुणा तथा पीडा को उचित स्थान दिया गया है। महादेवी वर्मा की करुण तथा आध्यात्मिक चेतना को उनकी इन पंक्तियों से हम समझ सकते हैं -

               मेरे बिखरे प्राणों में

                      सारी करुणा ढुलका दो ।

                मेरी छोटी सीमा में

                      अपना अस्तित्व मिटा दो ।

                पर शेष नहीं होगी यह

                       मेरे प्राणों की क्रीड़ा,

               तुमको पीड़ा में ढूँढ़ा

                      तुममें ढूँढूँगी पीड़ा ।

        महादेवी वर्मा की रचनाओं में करुण भावना की प्रधानता के लिए एक और उदाहरण है।

               सजनि मैं इतनी करुण हूँ

               करुण जितनी रात 

               सजनि मैं उतनी सजल

               जितनी सजल बरसात ।

     करुण भावना के साथ-साथ पीडा को भी इन्होंने महत्वपूर्ण स्थान दिया है।

     सन्धिनी से चंद पंक्तियाँ -

                विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात !

                वेदना में जन्म करुणा में मिला आवास !

                अश्रु चनता दिवस इसका अश्रु गिनती रात !

                जीवन विरह का जलजात !

          काव्य में शब्द-योजना और लय की जरूरत के बारे में महादेवी के विचार है "हमारा समस्त दृश्य जगत् परिवर्तनशील ही नहीं, एक निश्चित गति-क्रम में परिवर्तनशील है, जो अपनी निरन्तरता से एक लययुक्त आकर्षण-निकर्षण को छन्दायित करता है । काव्य व्यष्टिगत तथा समष्टिगत जीवन को एक विशेष गति-क्रम की ओर प्रेरित करने का साधन है, अत: उसकी शब्द-योजना में भी एक प्रवाह, एक लय अपेक्षित रहेगी ।"

           सुप्रसिद्ध छायावाद की कवयित्री महादेवी वर्मा के बारे में श्री विनय मोहन ने कहा है - "छायावाद युग ने महादेवी को जन्म दिया और महादेवी ने छायावाद को जीवन । यह सच है कि छायावाद के चरम उत्कर्ष के मध्य में महादेवी ने काव्य भूमि में प्रवेश किया और छायावाद के सृजन, व्याख्यान तथा विश्लेषण द्वारा उसे प्रतिष्ठित किया ।"

           प्रकृति वर्णन में महादेवी महान देवी थी। उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ इस बात की साक्षी है -

                  यह स्वर्ण रश्मि छू श्वेत भाल,

                  बरसा जाती रंगीन हास,

                 सेली बनता है इन्द्रधनुष,

                  परिमल मल मल जाता बतास,

                  पर रागहीन  तू  हिम निधान ! 

                   महादेवी की कविताओं में महान प्रेरणा भी मिलती है । उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति पर प्रकाश डालने के साथ मनुष्य के मन में महान आशा प्रदीप्त करने में समर्थ निकलती हैं

                  सब बुझे दीपक जला लूँ।

                  घिर रहा तम आज दीपक-रागिनी अपनी जगा लूँ ।

                  दीप मेरे जल अकम्पित, घुल अचंचल ।

                  पथ न भूले एक पग भी,

                  घर न खोये, लघु वहग भी,

                  स्निग्ध लौ की तूलिका से 

                  ऑक सब की छाँह उज्जवल !

            देशभक्ति इनमें एक और विशेषता है । देश भक्तों के बारे में 'सन्धिनी' में लिखती हैं -

                   है धरा के अमर सुत ! 

                    तुमको अशेष प्रणाम !

                    जीवन के अजय प्रणाम !

                    मानव के अनन्त प्रणाम !"

                 हिमालय" पर लिखी हुई महत्वपूर्ण कविताओं का संकलन अपने-आप में भी एक बहुत बड़ी राष्ट्रीय उपलब्धि है । 'हिमालय' के समर्पण में महादेवी लिखती हैं

                 जिन्होंने अपनी मुक्ति की खोज में नहीं, वरन् भारत-भूमि को मुक्त रखने के लिए अपने स्वप्न समर्पित किये हैं, जो अपना सन्ताप दूर करने के लिए नहीं, वरन् भारत की जीवन-ऊष्मा को सुरक्षित रखने के लिए हिम में गले हैं, जो आज हिमालय में मिलकर धरती के लिए हिमालय बन गए हैं, उन्हीं भारतीय वीरों की पुण्य स्मृति में ।"

                 देश भक्ति मनुष्य मन में अपूर्व शक्ति प्रदान करनेवाली है । देश भक्ति की झलक इन वाक्यों में निखर उठता है । मानवीय गुणों को रचनाओं में स्थान देकर महादेवी साहित्य में सदा सर्वथा के लिए महान देवी बनी है। 'नीरजा' महादेवी की कविताओं का तीसरा संग्रह है और साहित्यकारों के मतानुसार इनकी सर्वसुन्दर कृति है इसके लिए इन्हें 'साहित्य सम्मेलन' से पारितोषिक दिया जा चुका है ।

                 करुण, कोमल कविताएँ ही नहीं बल्कि सुन्दर सुरुचिपूर्ण गद्य लेखन में भी महादेवी वर्मा का स्थान सर्वोपरी है। अतीत के चल चित्र' इनकी प्रथम गद्य पुस्तक है। इसमें महादेवी जी की कुछ संस्मरणात्मक कहानियाँ का संग्रह है । इनके संस्मरणों में यथार्थता की झलक मिलती है। इनकी कहानियों में पात्रों का चित्रण सजीव एवं सहज रूप से किया गया है । साहित्य में व्यक्तिगत अनुभूतियों को स्थान देने में महादेवी का स्थान काफी अग्रगण्य है। अपने घर के नौकर रामा के बारे में महादेवी तद्रूप चित्रण प्रस्तुत करती है -

                  रामा के संकीर्ण माथे पर खूब धनी भौहें और छोटे-छोटे स्नेह तरल आँखें किसी थके झुंझलाये शिल्पी की अन्तिम भूल जैसी मोटी नाक, साँस के प्रवाह से फैले हुए से नथुने, मुक्त हँसी से भर कर फूले हुए से होंठ तथा काले पत्थर की प्याली में दही की याद दिलानेवाली सघन और सफेद दन्तपंक्ति।” इन शब्दों को पढ़ लेने से रामा का रूप पाठकों के सामने अपने आप उभर आयेगा । बदलू कुम्हार का वर्णन भी यथार्थता का बोध कराता है । उनका सभी पात्र यथार्थता का बोध कराने में सक्षम है । "श्रृंखला की कडियाँ महादेवी की दूसरी गद्य-पुस्तक है। इसमें नारी-समस्याओं को प्रधानता दी गयी है ।

                   'महादेवी का विवेचनात्मक गद्य' पुस्तक में महादेवी ने अपनी विवेचनात्मक गद्य लेखन की क्षमता दर्शायी है। भावात्मक, विचारात्मक एवं विवेचनात्मक गद्य साहित्य में महादेवी का अलग पहचान है ।

                   साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबन्ध" महादेवी वर्मा के बहुप्रशंसिय आलोचनात्मक निबन्धों का संग्रह है । "गीतिकाव्य" पर महादेवी वर्मा का निबन्ध इस प्रकार के निबंधों में प्रथम एवं प्रमाणित है। यथार्थ और आदर्श" निबन्ध इनकी कौशल पर प्रकाश डालता है । साहित्यिक विवादों पर महादेवी का विचार है - "हमारे साहित्यिक विवाद इन सब अभिशापों से ग्रसित और दुखद हैं, क्योंकि उनके मूल में जीवन के ऊपरी सतह की विवेचना नहीं है, वरन उसकी अन्तर्निहित एकता का खण्डों में बिखरकर विकासशून्य हो जाना प्रमाणित करते हैं । साहित्य गहराई की दृष्टि से पृथ्वी की वह एकता रखती है, जो बाह्य विविधता को जन्म देकर भीतर तक रहती है । सच्चा साहित्यकार भेदभाव की रेखाएँ मिटाते-मिटाते स्वयं मिट जाना चाहेगा, पर उन्हें बना-बनाकर स्वयं बनना उसे स्वीकार न होगा ।" साहित्य में समाज और सामाजिक महत्ववाले विषयों के लेकर लिखने में भी ये सक्षम थीं।

                    पशु-पक्षियों तथा जीव-जंतुओं के प्रति महादेवी वर्मा को अपार प्यार था। इनका मेरा परिवार इस बात की साक्षी है 'निक्की, रोजी, रानी' लेख में अपने तथा परिवार के सदस्यों से पाले गये निक्की नेवला, रोजी-कुत्ती तथा रानी-घोडा का वर्णन यथार्थ रूप से किया गया है । गिल्लू में गिलहरी का व्यवहार, लेखिका के प्रति उसका प्यार आदि का चित्रण बखूबी ढंग से किया है। "नीलकंठ मोर" में नीलकंठ और शया का सच्चा प्यार, नीलकंठ का अद्भुत व्यवहार, "कुब्जा" मोरनी की ईर्ष्या आदि का विवरण करके पशु-पक्षियों के प्रति पाठकों का भी दिल आकर्षित करने का स्तुत्य प्रयास महादेवी वर्मा के द्वारा किया गया है।

                      महादेवी वर्मा साहित्य के क्षेत्र में सचमुच महान देवी है। इनकी दीपशिखा' काव्य-कृति को पढ़ने के बाद निरालाजी ने लिखा

                         हिन्दी के विशाल मन्दिर की वीणा-वाणी, 

                         स्फूर्ति-चेतना-रचना की प्रतिमा कल्याणी ।

   राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी इनकी प्रशंसा मुक्त कंठ से की थी। उनकी उन्नत पंक्तियाँ हैं

                         सहज भिन्न हो महादेवियाँ एक रूप में मिलीं मुझे, 

                         बता बहन साहित्य-शारदा वा काव्यश्री कहूँ तुझे ।

                 सचमुच महादेवी वर्मा साहित्य-शारदा ही हैं। करुण तथा पीड़ा से युक्त कविताएँ, महानता तथा मानवता पर जोर देनेवाली कहानियाँ, श्रेष्ठ-मानव के साथ पशु-पक्षियों के प्रति भी उनका प्यार दर्शानिवाले गद्य रचनाएँ, संस्मरण, रेखा-चित्र, विचारात्मक, विवेचनात्मक निबंध आदि से महादेवी वर्मा महान कवयित्री ही नहीं बल्कि उत्कृष्ट गद्य लेखिका के रूप में हिन्दी प्रेमियों के मन में सम्माननीय स्थान पाती हैं।

                 सामाजिक जीवन में प्रतिफलित होनेवाले प्रायः सभी महत्वपूर्ण विषयों को लेकर पाठकों के मन में जड़-चेतन, शीलता- अश्लीलता, यथार्थ-आदर्श, सभ्यता-संस्कृति, अतीत-वर्तमान, सिद्धान्त-क्रिया, नर-नारी, आत्मा-परमात्मा आदि के बारे में सजगता उत्पन्न करने में महादेवी महानदेवी साबित हुई है ।

                  लेखिका का व्यक्तिगत जीवन सदा परमार्थ, सेवार्थ के लिए ही रहा । त्योहारों के दिन इनके घर में बडी भीड़ होती थी । सुप्रसिद्ध कवयित्री, महान लेखिका, ममता तथा मानवता की मूर्ति महादेवी वर्मा का निधन अपनी अस्सी साल की उम्र में 11 सितम्बर 1987 को हुआ था । शरीर के मिट जाने पर भी सद्भावनों के कारण, अतुलनीय साहित्य सेवा के कारण आज भी महादेवी वर्मा हिन्दी प्रमियों के मन में जी रही हैं ।

धन्यवाद!!!!!!

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                                         जयशंकर प्रसाद

                

                                        जन्म : सन् 1889

                                        निधन : सन् 1937

                                रचनाएँ


     महाकाव्य                कामायनी

     खण्डकाव्य              प्रेमपथिक, महाराणा का महत्व

     काव्य                      रसाल-मंजरी, रजनी गंधा, सरोज, दलित कुमुदिनी, नीरद,सांध्यतारा,                                       ग्रीष्म का मध्यान्ह, नव वसंत, जल-विहारिणी, एकांत में भारतेंदु

                                   प्रकाश, श्रीकृष्ण जयंती, अयोध्या का उद्धार, वन-मिलन, प्रेम राज्य, 

                                   चित्रकूट, भरत, शिल्प-सौंदर्य, कुरु -क्षेत्र, वीर-बालक, जगती की        

                                   मंगलमयी उषा, शोला की प्रतिध्वनि, अशोक चिंता, प्रलय की छाया, 

                                   आँसू, लहर, झरना । 

     नाटक                  सज्जन, प्रायश्चित्त, कल्याणी-परिणय, राज्यश्री विशाख, अजातशत्रु,                                        जनमेजय का नागयज्ञ, कामना, स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी

     एकांकी                 एक घूँट

     कहानी संग्रह         आकाशदीप, इंद्रजाल, आँधी, प्रतिध्वनि, छाया

     उपन्यास               कंकाल, तितली (इरावती-अपूर्ण)

      निबंध                   काव्य और कला एवं अन्य निबन्ध



                हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल (सन् 1900 से अब तक) के सशक्त, सुप्रसिद्ध, श्रेष्ठ कवि, नाटककार कहानीकार, उपन्यासकार एवं निबंध लेखक श्री जयशंकर प्रसाद हिन्दी साहित्य के अनुपम रचनाकार हैं। सबसे पहले उन्होंने हिन्दी के साहित्य जगत में कवि के रूप में प्रवेश किया। बाद में गद्य लेखन में अपनी क्षमता दिखाई । जयशंकर प्रसाद हिन्दी साहित्य में छायावादी के प्रवर्तक माने जाते हैं, इनकी रचनाओं में मानव-जीवन तथा जीवन से संबंधित अनेक घटनाओं का यथार्थ वर्णन देखने को मिलता है ।

              व्यक्ति के निर्माण में, उसके आचार-विचार एवं व्यक्तित्व के निर्माण में परिवार तथा पर्यावरण का प्रभाव काफी मात्रा में पड़ता है । अद्वितीय साहित्यकार श्री जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी के सुप्रसिद्ध परिवार, उदारता, दानशीलता, साहित्य-रुचि संपन्नता के लिए विख्यात परिवार "सुंघनी साहू" के घराने में सन् 1889 को हुआ था । श्री जयशंकर प्रसाद के पिताजी श्री देवी प्रसाद व्यवसाय में प्रशस्त थे । आध्यात्मिक क्षेत्र में इनकी रुचि अवर्णनीय थी । साहित्य एवं कला में भी इनकी रुचि सराहनीय थी । इस कारण इनके घर में व्रजभाषा के अनेक विशिष्ट कवि आया करते थे । इन कवियों की सत्संगति प्रसाद को बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार बनाने में सहायता की थी ।

               कुछ लोग जन्म से महान होते हैं, कुछ लोग महानता अर्जित करते हैं। महान विभूतियों के लिए नियमित शिक्षा से आत्म ज्ञान तथा अनुभव ज्ञान ही श्रेष्ठ एवं वांछनीय है। जयशंकर प्रसाद को औपचारिक दृष्टि से विद्यालयी शिक्षा प्राप्त नहीं हुई थी । इन्होंने अपने घर में ही संस्कृत, बंगला, अंग्रेज़ी तथा हिन्दी आदि भाषाओं का उचित ज्ञान प्राप्त किया। विद्वानों, कवियों एवं संगीतज्ञों की सत्संगति के कारण, इन सब कलाकारों को अपने घर में देखने तथा उनके संपर्क में आने के सौभाग्य मिलने के कारण प्रसाद के मन में कला तथा साहित्य के प्रति अतुलनीय एवं अवर्णनीय रुचि उत्पन्न होने लगी । बचपन इतना सुखमय रहने पर भी बचपन में ही इनके माता-पिता तथा भाई का स्वर्गवास हो गया था ।

                प्रसाद के भाव तथा विचार, अध्ययन, मनन, चिंतन तथा स्वानुभव के बाद ही व्यक्त किये जाते थे । प्रसाद की ज्यादातर कविताएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। नाटकों में ये गीतों का प्रयोग किया करते थे । चन्द्रगुप्त नाटक में विदेशी कन्या कार्नेलिया भारत एवं भारतीय का गुणगान करती है

               अरुण यह मधुमय देश हमारा

               जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को भी मिलता एक सहारा

                 नाटकों में योजित गीत भी संग्रह पुस्तक प्रसाद-संगीत" के रूप में छप चुके हैं प्रसाद के प्रशंसनीय रचनाएँ है - चित्राधार, कानन-कुसुम, महाराणा का महत्व, प्रेम पथिक, झरना, आँसू, लहर और कामायनी ।

                 चित्राधार में कवि की बीस वर्ष की अवस्था तक की प्राय: सभी कृतियाँ संकलित हैं । इसमें तीन कविताएँ, बाईस छोटी कविताएँ एवं चालीस कवित्त, सवैया तथा पद हैं। काननकुसुम में ब्रजभाषा तथा खडीबोली दोनों की रचनाएँ स्थान पायी थीं। इस संग्रह में 49 कविताएँ रखी गयी हैं। महाराणा का महत्व कथामूलक काव्य है । भारतीय इतिहास में अमर, वीर महाराणा प्रताप पर यह काव्य आधारित है । प्रेम-पथिक' में प्यार तथा प्रेम से संबंधित जयशंकर प्रसाद का जीवन दर्शन स्पष्ट रूप से दिखाई देता है । 'झरना' में कुल मिलाकर 48 रचनाएँ संकलित हैं । अनेक साहित्यकार इसे छायावादी कविता का प्रथम संग्रह मानते हैं। छायावाद तथा आधुनिक हिन्दी कविता का रूप इसमें नजर आता है। 'आँसू' में यौवन की मादकता की झलक है । शृंगार रस का भरपूर वर्णन मिलता है । 'लहर' में 33 रचनाएँ संकलित है। यह प्रसाद की पंडिताई का प्रतीक है । 'प्रसाद-संगीत' प्रसाद के आत्मज श्री रत्नशंकर प्रसाद के कारण उनके संपादकत्व में नाटकों के गीतों के संग्रह के रूप में निकला ।

            प्रसाद के प्रकाशित नाटक हैं सज्जन (1910 ई.), करुणालय (1913), प्रायश्चित (1913), राज्यश्री (1914), विशाख (1921), अजातशत्रु (1922) जनमेजय का नागयज्ञ ( 1926), कामना (1927), स्कंदगुप्त (1928), एक घूँट (1929), चंद्रगुप्त (1931) और ध्रुवस्वामिनी (1934) ।

             प्रकृति चित्रण इनकी रचनाओं में विशेष स्थान पाता है । "कामायनी महाकाव्य में सर्वत्र प्रकृति का अनंत ऐश्वर्य बिखरा पडा है। इनकी पंक्तियों में प्रकृति का अमृत है

             आह! वह मुख ! पश्चिम के व्योम बीच जब घिरते हैं धनश्याम! 

             अरुण रवि मंडल उनको भेद दिखाई देता हो छविधाम ।

             गद्य लेखन में भी 'जयशंकर प्रसाद' प्रकृति का यथार्थ रूप पाठकों के सामने प्रस्तुत करने में अनुपम थे । 'अशोक' कहानी में उनके शब्द जाल को देखिए - राजकीय कानन में अनेक प्रकार के वृक्ष, सुरभित सुमनों से झूम रहे हैं । कोकिला भी कूक-कूककर आम की डालों को हिलाये देती हैं। नव-वसंत का समागम है। मलयानिल इठलाता हुआ कुसुम-कलियों को ठुकराता जा रहा है।" प्रकृति के सान्निध्य में पाठकों को ले जाना प्रसाद का प्रशंसनीय गुण है ।

          प्रसाद की रचनाओं में छायावाद की आत्मप्रधानता, भावुकता, कल्पना, शास्त्रीय अभिजात्य दृष्टि की उदात्तता के साथ साहित्यिक गरिमा का समन्वय सहज रूप से हुआ करता है। वस्तु विन्यास में प्रसाद के नाटकों में भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्य प्रणालियाँ का समन्वय मिलता है । प्रसादजी की सर्वाधिक सफलता पात्रों के चरित्र-चित्रण में है। पात्रों के मानसिक अंतर्द्वन्द्वों, विचारों तथा अनुभूतियों को उचित रूप से व्यक्त करना इनके नाटकों को सफल बनाने में सहायक रहे हैं । मनोवैज्ञानिकता तथा पात्रोचित, समयोचित कल्पना के कारण इनके नाटक में सफलता स्वाभाविक हो चुकी है।

           जयशंकर प्रसाद के जमाने में व्रजभाषा का प्रचलन काफी मात्रा में था। जमाने का पालन करते हुए प्रसाद भी पहले व्रजभाषा में ही लिखा करते थे । बाद में ही इन्होंने खडीबोली हिन्दी को अपनायी । शब्द चयन में कथा एवं वातावरण के अनुसार सरल तथा क्लिष्ट दोनों का प्रयोग किया गया है । काव्य हो, कहानी हो, नाटक हो या निबन्ध, शैली में जयशंकर प्रसाद का अलग पहचान है । जयशंकर प्रसाद की रचनाओं में इस कारण रोचकता, मौलिकता एवं सहजता स्थान पाती हैं। शैली में स्वाभाविकता इनकी विशेषता है ।

           व्यंजना तथा अभिव्यक्ति की दृष्टि में भी जयशंकर प्रसाद का काव्य जगत में अलग पहचान है । वैज्ञानिक दृष्टि मानवता पर जोर, पाश्चात्य समीक्षा सिद्धान्त का खण्डन, संसार एवं मानव-मुक्ति, जनता के मनोबल को ऊपर उठाने का प्रयास, संस्कृति, सभ्यता एवं आदर्श पर जोर, भारतीय गरिमामय इतिहास पर प्रकाश डालना आदि जयशंकर प्रसाद की अपनी विशेषताएँ हैं। इतिहास के प्रति इनका प्यार या लगाव एकदम अनुपम है । अनेक ऐतिहासिक घटनाओं को इन्होंने अपनी रचनाओं का केन्द्र बिन्दु बनाया है । अतीत के गौरव को अपनी रचनाओं में स्थान देने में ये श्रेष्ठ थे । जयशंकर प्रसाद कला की पुजारी थे । इसलिए ही एक सशक्त कवि, प्रसिद्ध नाटककार, कालजयी कहानीकार, उन्नतम उपन्यासकार एवं श्रेष्ठ निबंध लेखक के रूप में हिन्दी साहित्य में उनको स्थान मिला है ।

           देश के धार्मिक, नैतिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय महत्ववाले विचारों को अपनी रचनाओं में स्थान देने के कारण ही ये हिन्दी साहित्य में अनुपम साहित्यकार माने जाते हैं । इनकी कृतियों में दार्शनिकता, मनोवैज्ञानिकता, नैतिकता एवं ऐतिहासिकता का भी प्रभाव हैं।

           जयशंकर प्रसाद के रचना सागर में अनेकानेक मोती भरे पड़े हैं । 

            कामायनी इनकी कीर्तिपताका है । स्कन्दगुप्त और ध्रुवस्वामिनी इन्हें मूर्धन्य नाटककार सिद्ध करने में सक्षम हैं। इन तीनों का संक्षिप्त परिचय इनकी महानता दिखाने में सफलता प्राप्त करता है ।

    कामायनी :-

              कामायनी श्री जयशंकर प्रसाद कृत अद्वितीय महाकाव्य है । यह मानव सभ्यता, संस्कृति, मनोविज्ञान, दर्शन एवं विकास की कहानी है । कामायनी में श्रद्धा से लेकर आनंद तक पन्द्रह सर्ग हैं । चिन्ता, आशा, श्रद्धा, काम, वासना, लज्जा, कर्म, ईर्ष्या, इडा, स्वप्न, संघर्ष, निर्वेद, दर्शन, रहस्य तथा आनंद आदि इन सर्गों का नाम है। सबके सब मनुष्य के मन, मनोविज्ञान आदि से सम्बन्धित है ।

              काव्य के प्रारम्भ में देव जाति के मनु हिमगिरी शिखर पर चिंताग्रस्त बैठा रहता है। घोर प्रलय के कारण संपूर्ण देव जाति नष्ट हो जाती है। चारों ओर सिर्फ पानी ही पानी दिखायी देता है । चिंताग्रस्त मनु के मन में विभिन्न प्रकार के विचार स्थान पाते हैं। भीषणं प्रलय रात के बाद नवप्रभात के कारण उसके मन में आशा की किरण जगने लगती है। कामायनी श्रद्धा के आने के बाद मनु के मन में काम तथा वासना की भावना जगती है । श्रद्धा में लज्जा तथा कर्ममय भावना जागती है । श्रद्धा के गर्भवती हो जाने पर मनु के मन में अपनी संतान के प्रति ईर्ष्या जागती हैं और वह इडा से मिलता है । श्रद्धा अपना बेटा मानव को संस्कृति का पाठ पढाती है। स्वप्न में इसका वर्णन है । संघर्ष में मनु इडा से बलात्कार करना चाहता है । प्रजा उसे मारती है इसलिए निर्वेद की दशा में पहुँच जाता है । दर्शन तथा रहस्य में श्रद्धा के कारण मनु के मन  में परिवर्तन स्थान पाता है । उसे श्री नटराज (शिव) भगवान के दर्शन मिलता है ।

         मानव और इडा के कारण सारस्वत प्रजा संस्कृति को समझकर आनंद सर्ग के अंतिम सर्ग में सबके सब मानसरोवर पहुँचते हैं, जहाँ श्रद्धा और मनु आध्यात्मिक चिंतन के साथ रहा करते हैं । इस प्रकार संपूर्ण मानव-मन की भावनाओं पर कामायनी महाकाव्य में चित्रण हुआ है। सर्गों के नाम कहानी को समझाने में पूर्ण रूप से मदद करते हैं। कामायनी महाकाव्य जयशंकर प्रसाद को महान कवि के रूप में दर्शाने में सफल सिद्ध हुआ है ।

        कामायनी की भाषा सब प्रकार से सराहनीय एवं प्रशंसनीय है । इसकी भाषा असाधारण एवं अतुलनीय है । ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौंदर्यमय प्रतीकात्मकता एवं चित्रात्मकता के कारण काव्य में कला का उत्कृष्ट रूप देखने को मिलता है । विषय की गरिमा, कथा के विस्तार, वर्णनात्मक शैली आदि के कारण यह अमर काव्य बन पड़ा है । 'कामायनी' निस्सन्देह कालजयी महाकाव्य है ।

   स्कन्दगुप्त :-

          श्री जयशंकर प्रसाद सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटककार है। इतिहास इनका प्रिय विषय रहा । भारत के अतीत गौरव के बारे में लिखने में इनकी आत्मा तृप्त होती थी । उनकी ज्यादातर नाटक कृतियाँ ऐतिहासिक हैं। इनके सब नाटकों में स्कन्दगुप्त नाटक का विशेष स्थान है। इतिहास के साथ प्रसाद की कल्पना, पंडिताई तथा लेखन कौशल के कारण स्कन्दगुप्त सराहनीय नाटक बन पडा है। 

           स्कन्दगुप्त सम्राट कुमारगुप्त का पुत्र स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य की कहानी है । वह प्रतापी था। कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य के बाद सन् 455 से सन् 467 तक राज्य किया था। स्कन्दगुप्त वीर तथा विवेकी राजा था और अपने बाहुबल से राज्यश्री को प्राप्त कर कम से कम बारह वर्षों तक राज्य करता था । नाटक के प्रारम्भ में युवराज स्कन्द्रगुप्त राज्य के उत्तराधिकारी पद के प्रति उदासीन रहता है कुमारगुप्त की दूसरी पत्नी अनंतदेवी अपने पुत्र उपगुप्त को गद्दी पर बिठाना चाहती है। स्कन्दगुप्त राज्य पर अधिकार करना नहीं चाहता लेकिन मालव राज्य पर विद्रोहियों का आक्रमण होने पर उसे अपने बाहुबल की क्षमता को दिखाना पडता है। वह युद्ध में जीतता है और मालव प्रदेश की अधिपति बनता है । अनंतदेवी और पुरगुप्त के षड्यंत्र को भी दबाने का स्कन्दगुप्त पर पडता है । हूणों के विरुद्ध युद्ध करने में पहले उसे पराजय का सामना करना पडता है । उसकी सेना तितर-बितर हो जाती है फिर देशभक्त सैनिक तथा विजया आदि की सहायता से वह हूणों को जीतता है । अपने सौतेले भाई पुरगुप्त को राज्य का उत्तराधिकार सौंप देता है ।

            स्कन्दगुप्त विजया से प्यार करता है । लेकिन विजया पहले स्कन्दगुप्त की भावनाओं पर आघात पहुँचाकर भटार्क से प्यार करती है । लेकिन बाद में स्कन्द्रगुप्त को अपनाना चाहती है । स्कन्दगुप्त मालवेश की बहन देवसेना से प्यार करने लगता है। देवसेना भी उससे प्यार करती है । लेकिन विजया के प्रति उसके आकर्षण को देखकर अपने आपको संयम बना लेती है । विरक्त होकर स्कन्दगुप्त अपनी माँ की समाधि पर शपथ लेता है कि वह जीवन भर कुमार रहेगा ।

            स्कन्दगुप्त का चरित्र महान है । उसके चरित्र के द्वारा भारतीय युवकों में शीलता लाना प्रसाद का उद्देश्य रहा है ।

         ध्रुवस्वामिनी

              "ध्रुवस्वामिनी" प्रसादजी के सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटक है । ध्रुवस्वामिनी नाटक के कथानक का मूल आधार विशाखदत्त के 'देवीचन्द्र गुप्तम्' नाटक है। यह रामगुप्त और ध्रुवस्वामिनी की कहानी है । चन्द्रगुप्त इस कहानी का नायक है । रामगुप्त इसमें खलनायक के समान है । इसकी संक्षिप्त कहानी है समुद्रगुप्त के स्वर्गवास के बाद राज्य के उत्तराधिकारी युवराज चंद्रगुप्त को उसका ज्येष्ठ भ्राता रामगुप्त छल के द्वारा स्वयं अधिपति बन जाता है और ध्रुवस्वामिनी जिससे चन्द्रगुप्त प्यार करता था, जिससे उसकी शादी होनेवाली थी, उसे भी कपट के द्वारा अपनी महादेवी बना लेता है। रामगुप्त विलासी और कापुरुष है । उसकी कायरता का लाभ उठाकर शकराज संधि की शर्तों में ध्रुवस्वामिनी की माँग करता है । कायरता तथा युद्ध से बच जाने की इच्छा के कारण कापुरुष रामगुप्त अपनी धर्मपत्नी ध्रुवस्वामिनी को शकराज के यहाँ भेजता है गुप्तवंश के सम्मान की रक्षा तथा ध्रुवस्वामिनी के प्रति अपने प्यार के कारण चन्द्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी के वेश में उसे भी अपने साथ लेकर शकराज के महल पहुँचता है। वहाँ द्वन्द्र युद्ध में चन्द्रगुप्त शकराज को मारकर ध्रुवस्वामिनी को बचाता है। नाटक के अन्त में ध्रुवस्वामिनी कापुरुष रामगुप्त से दूर होकर चन्द्रगुप्त की रानी बनना चाहती है । ध्रुवस्वामिनी चंद्रगुप्त से विवाह कर लेती है । सामंतकुमार के हाथों से रामगुप्त मर जाता है चन्द्रगुप्त सम्राट बन जाता है ।

                ध्रुवस्वामिनी का चित्रण एक जागृत नारी के रूप में किया गया है। ऐतिहासिक कथानक को लेने पर भी समकालीन समस्या पर खासकर नारी समस्या पर प्रसाद का ध्यान पूर्ण रूप से गया है । ध्रुवस्वामिनी के द्वारा प्रसाद ने अनमेल विवाह की समस्या को हमारे सामने प्रस्तुत किया है। ध्रुवसवामिनी की कहानी को रुचिकर बनाने का श्रेय श्री जयशंकर प्रसाद की विशिष्ट शैली को ही मिलता है। एक सफल नाटक के रूप में इसे प्रस्तुत करके अपने आपको मूर्धन्य नाटककार स्थापित करने में श्री जयशंकर प्रसाद सम्पूर्ण रूप से सफल सिद्ध हुए हैं

               आधुनिक हिन्दी साहित्य के अनुकरणीय साहित्यकार श्री जयशंकर प्रसाद की साहित्य सेवा अनुपम तथा अवर्णनीय है। विविध विधाओं में अपना विराट रूप प्रस्तुत करने के साथ अनेक नवलेखकों को प्रेरणा प्रदान करके कालजयी साहित्यकारों में जयशंकर प्रसाद अपने लिए विशिष्ट स्थान प्राप्त करते हैं।

धन्यवाद!!!!

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एकांकी

✍तैत्तिरीयोपनिषत्

  ॥ तैत्तिरीयोपनिषत् ॥ ॥ प्रथमः प्रश्नः ॥ (शीक्षावल्ली ॥ தைத்திரீயோபநிஷத்து முதல் பிரச்னம் (சீக்ஷாவல்லீ) 1. (பகலுக்கும் பிராணனுக்கும் அதிஷ்ட...