चन्द्रगुप्त नाटक राष्ट्रीय-भावना से ओतप्रोत है।"
प्रसाद के राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना उनकी कविताओं की अपेक्षा नाटकों में अधिक मुखर हुई है। चन्द्रगुप्त नाटक में तो उनकी राष्ट्रीय भावना अपने पूर्ण विकसित रूप में दिखाई देती है। आदि से अन्त तक राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत है। डॉ. शम्भुनाथ पाडेय ने भी यही बात कही है - "प्रसाद जी की राष्ट्रीय भावना जितने प्रखर रूप में 'चंद्रगुप्त मौर्य में व्यक्त हुई है, उतनी अन्य किसी रचना में नहीं। हम यहाँ तक कह सकते हैं कि 'चन्द्रगुप्त मौर्य' का प्रणयन प्रसाद जी ने राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर ही किया है। प्रसाद जी की आदर्श राष्ट्रीय भावनायें, इसी कृति में कलापूर्ण ढंग से व्यक्त की गई हैं।"
प्रसाद जी ने 'चन्द्रगुप्त' नाटक में राष्ट्रीय भावना को प्रमुखतः तीन रूपों में प्रकट किया -
(1) अतीत के गौरव को भव्य रूप में चित्रित करना
(2) आदर्श पात्रों का सृजन और
(3) विदेशी पात्रों के द्वारा भारत की महिमा का बखान करना।
1. अतीत के गौरव को भव्य रूप में चित्रित करना:
प्रसाद जी ने अतीत के गौरव को ऐसे भव्य रूप में रूपांतरित किया है, जो कि सहज ही पाठको का मन आकर्षित कर लेता है, और उनमें राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना को जाग्रत कर देता है। उन्होंने अपने उत्त उद्धेश्य की पूर्ति केलिए भारतीय इतिहास के उन्हीं पृष्ठों को साकार रूप प्रदान किया है, जो कि ऐसी राष्ट्रीय स्फूर्ति को उत्पन्न करने में पूर्ण सक्षम है।
प्रसाद जी ने स्वयं 'विशास्त्रा' की भूमिका में अपनी रचनाओं के उद्देश्य को बताते हुए लिखा है - "मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकाड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है, जिन्होंने कि हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है।"
चन्द्रगुप्त की कथावस्तु को देखने से स्पष्ट होता है कि भारतवासियों में राष्ट्रीय भावना को जाग्रत करना ही इसका प्रमुख उद्देश्य है। यह बात अलका के चरित्र और उसके द्वारा गाये गये 'प्रयाण गान से और भी स्पष्ट हो जाती है। डॉ. जगन्नाथ प्रसाद ने भी लिखा है- "उसके (अलका के) देश-प्रेम में वर्तमान राजनीतिक आदोलन का व्यावहारिक
प्रतिनिधित्व दिखाई पड़ता है।" अलका एक जन-नेत्री के रूप में हमारे सामने आती है। उसका प्रयाण-गान' भारतीय जन-आंदोलन की मूल भाव-धारा को व्यक्त करता है। इसके अतिरिक्त चन्द्रगुप्त नाटक का कथानक भी स्वयं में इतना भव्य है कि वह सहज ही भारतवासियों में राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना को जगा सकता है।
2. आदर्श पात्रों की सृष्टि :
प्रसाद जी ने 'चन्द्रगुप्त' नाटक में कुछ ऐसे आदर्श पात्रों की सृष्टि की है, जो स्वयमेव राष्ट्रीय स्वाभिमान के आदर्श है। चाणक्य, चद्रगुप्त, सिंहरण, अलका आदि पात्र इसी कोटि के है। वे जनता की श्रद्धा के अधिकारी बन जाते हैं। वे ऐसे देश-भक्त हैं जिन्होंने राष्ट्र के लिए अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की तिलांजलि दी है। वे देश केलिए अपने प्राणों को हथेली पर लिये सदैव तत्पर रहने वाले हैं। चन्द्रगुप्त अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए मरण से भी अधिक भयानक का आलिंगन करने केलिए तैयार रहता। चाणक्य अपने कर्त्तव्य-पथ पर सुख-दुःख में समान रूप से अडिग रहता है। उसके मन में सुवासिनी के प्रति जो प्रणय का भाव रहता, उसे बढ़ने नहीं देता। वह चन्द्रगुप्त को भी प्रणय-व्यापारों से सावधान करते हुए कहता है "छोकरियों से बातें करने का समय नहीं है, मौर्य।"
सिंहरण और अलका भारतीय संस्कृति के प्रतीक हैं। वे भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ गुणो (उदारता, सहिष्णुता, निर्भीकता, स्वार्थ-त्याग आदि) से विभूषित हैं। जिस समय सिंह सिकंदर को घायल कर देता है और मालव-सैनिक प्रतिशोध लेने के लिए तैयार हो जाते हैं, उस समय सिंहरण सिकंदर द्वारा पर्वतेश्वर के प्रति किये गये उपकार की याद करता है और सिकंदर के प्राणों की रक्षा करना चाहता है। इसलिए वह मालव-वीरों से कहता है - "ठहरो, मालव-वीरो! ठहरो। यह भी एक प्रतिशोध है। यह भारत के ऊपर एक ऋण था, पर्वतेश्वर के प्रति उदारता दिखाने का यह प्रत्युत्तर है।"
अलका अपने देश की रक्षा केलिए भाई से विद्रोह करती है, माता-पिता तथा राज्य का परित्याग करती है और कानन-पथ-गामिनी बनती है।
इन पात्रों की उक्तियों में भी राष्ट्रीय-भावना प्रकट होती है। चाणक्य । |सिंहरण से कहता है- "तुम मालव हो और यह मागध, यही तुम्हारे मान का अवसान है न? परन्तु आत्म-सम्मान इतने ही से सन्तुष्ट नहीं होगा। मालव और मागध को भूलकर, जब तुम आर्यावर्त का नाम लेंगे, तभी वह मिलेगा।" इसमें देश-भक्ति की भावना मिलती है।
सिंहरण के इस कथन में संकुचित प्रादेशिक भावना के तिरस्कार की व्यंजना है - "---परन्तु मेरा देश मालव ही नहीं, गांधार भी है।"
अलका तो देश के कण-कण से प्यार करती है। उसने देश-प्रेम की उदात्त अभिव्यक्ति दी है- "मेरा देश है, मेरे पहाड़ हैं, मेरी नदियों है और मेरे जंगल हैं, इस भूमि के एक-एक परमाणु मेरे हैं और मेरे शरीर के एक-एक क्षुद्र अंश उन्हीं परमाणुओं के बने हैं।
3. विदेशी पात्रों के द्वारा भारत की महिमा का बखान करना :
प्रसाद जी ने विदेशी पात्रों के मुख से भारत-भूमि की महत्ता सम्बन्धी उक्तियाँ कहलवाकर राष्ट्र-गौरव की भावना को प्रकट किया है। प्रसाद जी का विचार है कि भारत ही विश्व का ज्ञान-गुरु है और वही सम्पूर्ण विश्व-सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र-स्थल है। सिल्यूकस की कन्या कार्नेलिया, यवन युवती, को तो भारत के कण-कण से अत्यधिक प्रेम है। उसके द्वारा गाये गये 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' इसी बात को पुष्ट करता है।
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