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Sunday, February 7, 2021

चन्द्रगुप्त नाटक राष्ट्रीय-भावना से ओतप्रोत है।"

 


                    चन्द्रगुप्त नाटक राष्ट्रीय-भावना से ओतप्रोत है।" 

            प्रसाद के राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना उनकी कविताओं की अपेक्षा नाटकों में अधिक मुखर हुई है। चन्द्रगुप्त नाटक में तो उनकी राष्ट्रीय भावना अपने पूर्ण विकसित रूप में दिखाई देती है। आदि से अन्त तक राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत है। डॉ. शम्भुनाथ पाडेय ने भी यही बात कही है - "प्रसाद जी की राष्ट्रीय भावना जितने प्रखर रूप में 'चंद्रगुप्त मौर्य में व्यक्त हुई है, उतनी अन्य किसी रचना में नहीं। हम यहाँ तक कह सकते हैं कि 'चन्द्रगुप्त मौर्य' का प्रणयन प्रसाद जी ने राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर ही किया है। प्रसाद जी की आदर्श राष्ट्रीय भावनायें, इसी कृति में कलापूर्ण ढंग से व्यक्त की गई हैं।"

          प्रसाद जी ने 'चन्द्रगुप्त' नाटक में राष्ट्रीय भावना को प्रमुखतः तीन रूपों में प्रकट किया -       

     (1) अतीत के गौरव को भव्य रूप में चित्रित करना

     (2) आदर्श पात्रों का सृजन और 

     (3) विदेशी पात्रों के द्वारा भारत की महिमा का बखान करना।

      1. अतीत के गौरव को भव्य रूप में चित्रित करना: 

          प्रसाद जी ने अतीत के गौरव को ऐसे भव्य रूप में रूपांतरित किया है, जो कि सहज ही पाठको का मन आकर्षित कर लेता है, और उनमें राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना को जाग्रत कर देता है। उन्होंने अपने उत्त उद्धेश्य की पूर्ति केलिए भारतीय इतिहास के उन्हीं पृष्ठों को साकार रूप प्रदान किया है, जो कि ऐसी राष्ट्रीय स्फूर्ति को उत्पन्न करने में पूर्ण सक्षम है।

           प्रसाद जी ने स्वयं 'विशास्त्रा' की भूमिका में अपनी रचनाओं के उद्देश्य को बताते हुए लिखा है - "मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकाड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है, जिन्होंने कि हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है।"

           चन्द्रगुप्त की कथावस्तु को देखने से स्पष्ट होता है कि भारतवासियों में राष्ट्रीय भावना को जाग्रत करना ही इसका प्रमुख उद्देश्य है। यह बात अलका के चरित्र और उसके द्वारा गाये गये 'प्रयाण गान से और भी स्पष्ट हो जाती है। डॉ. जगन्नाथ प्रसाद ने भी लिखा है- "उसके (अलका के) देश-प्रेम में वर्तमान राजनीतिक आदोलन का व्यावहारिक

           प्रतिनिधित्व दिखाई पड़ता है।" अलका एक जन-नेत्री के रूप में हमारे सामने आती है। उसका प्रयाण-गान' भारतीय जन-आंदोलन की मूल भाव-धारा को व्यक्त करता है। इसके अतिरिक्त चन्द्रगुप्त नाटक का कथानक भी स्वयं में इतना भव्य है कि वह सहज ही भारतवासियों में राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना को जगा सकता है।

          2. आदर्श पात्रों की सृष्टि : 

          प्रसाद जी ने 'चन्द्रगुप्त' नाटक में कुछ ऐसे आदर्श पात्रों की सृष्टि की है, जो स्वयमेव राष्ट्रीय स्वाभिमान के आदर्श है। चाणक्य, चद्रगुप्त, सिंहरण, अलका आदि पात्र इसी कोटि के है। वे जनता की श्रद्धा के अधिकारी बन जाते हैं। वे ऐसे देश-भक्त हैं जिन्होंने राष्ट्र के लिए अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की तिलांजलि दी है। वे देश केलिए अपने प्राणों को हथेली पर लिये सदैव तत्पर रहने वाले हैं। चन्द्रगुप्त अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए मरण से भी अधिक भयानक का आलिंगन करने केलिए तैयार रहता। चाणक्य अपने कर्त्तव्य-पथ पर सुख-दुःख में समान रूप से अडिग रहता है। उसके मन में सुवासिनी के प्रति जो प्रणय का भाव रहता, उसे बढ़ने नहीं देता। वह चन्द्रगुप्त को भी प्रणय-व्यापारों से सावधान करते हुए कहता है "छोकरियों से बातें करने का समय नहीं है, मौर्य।"

           सिंहरण और अलका भारतीय संस्कृति के प्रतीक हैं। वे भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ गुणो (उदारता, सहिष्णुता, निर्भीकता, स्वार्थ-त्याग आदि) से विभूषित हैं। जिस समय सिंह सिकंदर को घायल कर देता है और मालव-सैनिक प्रतिशोध लेने के लिए तैयार हो जाते हैं, उस समय सिंहरण सिकंदर द्वारा पर्वतेश्वर के प्रति किये गये उपकार की याद करता है और सिकंदर के प्राणों की रक्षा करना चाहता है। इसलिए वह मालव-वीरों से कहता है - "ठहरो, मालव-वीरो! ठहरो। यह भी एक प्रतिशोध है। यह भारत के ऊपर एक ऋण था, पर्वतेश्वर के प्रति उदारता दिखाने का यह प्रत्युत्तर है।"

         अलका अपने देश की रक्षा केलिए भाई से विद्रोह करती है, माता-पिता तथा राज्य का परित्याग करती है और कानन-पथ-गामिनी बनती है। 

        इन पात्रों की उक्तियों में भी राष्ट्रीय-भावना प्रकट होती है। चाणक्य । |सिंहरण से कहता है- "तुम मालव हो और यह मागध, यही तुम्हारे मान का अवसान है न? परन्तु आत्म-सम्मान इतने ही से सन्तुष्ट नहीं होगा। मालव और मागध को भूलकर, जब तुम आर्यावर्त का नाम लेंगे, तभी वह मिलेगा।" इसमें देश-भक्ति की भावना मिलती है।

        सिंहरण के इस कथन में संकुचित प्रादेशिक भावना के तिरस्कार की व्यंजना है - "---परन्तु मेरा देश मालव ही नहीं, गांधार भी है।"

       अलका तो देश के कण-कण से प्यार करती है। उसने देश-प्रेम की उदात्त अभिव्यक्ति दी है- "मेरा देश है, मेरे पहाड़ हैं, मेरी नदियों है और मेरे जंगल हैं, इस भूमि के एक-एक परमाणु मेरे हैं और मेरे शरीर के एक-एक क्षुद्र अंश उन्हीं परमाणुओं के बने हैं।

      3. विदेशी पात्रों के द्वारा भारत की महिमा का बखान करना : 

      प्रसाद जी ने विदेशी पात्रों के मुख से भारत-भूमि की महत्ता सम्बन्धी उक्तियाँ कहलवाकर राष्ट्र-गौरव की भावना को प्रकट किया है। प्रसाद जी का विचार है कि भारत ही विश्व का ज्ञान-गुरु है और वही सम्पूर्ण विश्व-सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र-स्थल है। सिल्यूकस की कन्या कार्नेलिया, यवन युवती, को तो भारत के कण-कण से अत्यधिक प्रेम है। उसके द्वारा गाये गये 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' इसी बात को पुष्ट करता है।


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स्कन्दगुप्त नाटक में भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्य शैलियों का समन्वय हुआ है।

 

              

         स्कन्दगुप्त नाटक में भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्य शैलियों का समन्वय हुआ है। 


                जीवन परिवर्तनशील है। इस परिवर्तनशील जीवन के साथ-साथ साहित्य की मान्यताएँ भी बदलती रहती हैं। इन साहित्यक मान्यताओं के परिवर्तन के साथ साहित्य की कलागत विशेषताओं में भी परिवर्तन होता है।

             प्रसाद जी के पूर्व नाटक अवश्य लिखे जा चुके थे, किन्तु उनमें अधिकांश अनुवाद मात्र थे; कुछ मौलिक थे। यद्यपि उन मौलिक कृतियों में पाश्चात्य तथा बंगला साहित्य की नाट्य शैलियों का आभास मिलता है, तथापि वे भारतीय तथा फ़ारसी नाट्यशैलियों के अधिक निकट थे। किन्तु जब प्रसाद जी नाटक लिखने लगे तब उन्होंने इन दोनों शैलियों का समन्वय करने की चेष्टा की। 

             भारतीय नाट्य सिद्धान्त : 

              भारतीय नाट्य के तीन तत्त्व होते हैं।

             (1) वस्तु (2) नेता और (3) रस।

           1. वस्तु : नाटक के स्थूल कथानक को वस्तु कहते हैं। नाटक की वस्तु तीन प्रकार की हो सकती है प्रख्यात, उत्पाद्य और मिश्र। मुख्यता की दृष्टि से वस्तु के दो भे हैं 

          1) आधिकारिक तथा 2. प्रासंगिक। 

        कथावस्तु दृश्य भी हो सकती और सूच्य भी। स्वगत, विष्कंभक, प्रवेशक, अंतमुख और अंकावतार ये पाँच भेद सूच्य कथा के अन्तर्गत आते हैं।

नाटकीय वस्तु लक्ष्य की गतिविधि के अनुसार पाँच भागों में विभक्त होती है - बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य नायक के द्वारा प्रवर्तित कार्य के विकास को पाँच भागों में विभक्त कर सकते है- प्रारम्भ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम। कथावस्तु पाँच संधियों से समन्वित हो।

        2. नायक :  नायक प्रख्यात वंश का धीरोदात्त, वीर्यवान गुणवान, प्रतापवान, विनीत, मधुर, त्यागी, दक्ष, प्रियवादी, प्रवृत्ति मार्गी, वाणी निपुण, स्थिर स्वभाववाला और युवा हो।

      3. नायिका : नायिका को भी उदात्त गुण सम्पन्न होना चाहिए।

      4. नायक के सहायक पात्र : पीठमर्द, विदूषक, विट आदि नायक के सहायक पात्र होते हैं।

      5. रस : नाटक का प्राणभूत तत्त्व रस माना जाता है। अतः नाटक में रस का सुंदर परिपाक होना चाहिए। रस परिपाक में यदि विघ्न पड़ता है तो उसे श्रेष्ठ नाटक नहीं कह सकते। इसी कारण नायक का दोष-दर्शन नहीं किया जा सकता।

      स्कन्दगुप्त नाटक में भारतीय नाट्य शैली : 'स्कन्दगुप्त नाटक की कथावस्तु ऐतिहासिक होने के कारण प्रख्यात है। इसमें आधिकारिक कथावस्तु के साथ-साथ प्रासंगिक कथायें भी हैं। स्कन्दगुप्त की कथा मुख्य है। अनंतदेवी और प्रपंचबुद्धि, बन्धुवर्मा और देवसेना तथा भटार्क और विजया की कथाएँ प्रासंगिक हैं। 

       इस नाटक में स्वगत कथनों का भी आधिक्य है। यद्यपि इसमें विष्कम्भक, प्रवेशक, अंतमुख, अंकावतार शब्दों का प्रयोग किया गया है तथापि उनकी स्थिति नाटक में पायी जाती समें स्वगत कथनों का आधिक्य है। इसमें अर्थप्रकृतियों एवं यों की ऐसी अच्छी संगति बैठ गयी है जैसी प्रायः प्राचीन को में मिलती है। नाटक का नायक स्कन्दगुप्त और नायिका देवसेना धीरोदात्त से समन्वित हैं। इसमें 'मुद्गल' विदूषक है। इसमें वीर रस का प्राधान्य है और तत्संबंधी सभी अंगों सम्यक् स्थापना हुई है। इस तरह 'स्कन्दगुप्त' नाटक में भारतीय रूप सिद्धान्तों का पूरा योग मिलता है।

      पाश्चात्य नाट्य सिद्धान्त : पाश्चात्य नाट्यकला का उद्गम नान में हुआ है। पश्चिमी नाट्यशास्त्र की सबसे पुरानी पुस्तक रस्तू की 'पोइटिक्स' है। अरस्तू ने नाटक छः तत्त्व माने कथावस्तु, चरित्र, दृश्य, भाषा एवं गीत। इन तत्त्वों में उसने थावस्तु को विशेष महत्व दिया है। उन्होंने वस्तु- विन्यास के र अंग माने हैं - 

    (1) प्रस्तावना (2) उपसंहार (3) अंक और (4) ध्रुवक

      उन्होंने संघर्ष, सक्रियता और समष्टि प्रभाव और कलन-त्रय को महत्व दिया है।

      'स्कन्दगुप्त' नाटक में पाश्चात्य नाट्य-प्रणाली : स्कन्दगुप्त टक में संघर्ष का सुंदर वर्णन मिलता है। नाटक का आरम्भ हिय-संघर्ष से होता है। एक के बाद दूसरा संघर्ष आता है। किन्दगुप्त को पुष्यमित्रों से युद्ध करना पड़ता है। फिर म्लेच्छों पश्चिमी मालव की सुरक्षा केलिए उसे संघर्ष करना पड़ता। ना ही नहीं, अनंतदेवी भटार्क और शवनार्ग की सहायता से विकी की हत्या करने का षड्यंत्र रचती है तो स्कन्दगुप्त उसका भी भंंग कर देता है। नाटक में ब्राह्मणों और बौद्धों का धार्मिक फिर भी चित्रित है। धातुसेन और प्रख्यातकीर्ति धार्मिक संघर्ष काअंत करने में सफल होते हैं। नाटक के अन्त में फल-प्राप्ति भी होती है। स्कन्दगुप्त छिन्न-भिन्न राज्य की व्यवस्था में सुव्यवस्था लाने में और शत्रुओं को देश के बाहर भेजने में सफल होता है। वह अपने सिंहासन को पुरगुप्त को सौंपकर अंतःपर के अतःकलह को भी शांत करता है। संघर्ष का चित्रण पाश्चात्य नाट्य प्रणाली के अनुकूल है।

         प्रासंगिक कथाओं के योग से कथा-विन्यास में जटिलता भी आ गयी है और कथा का वेग भी बढ़ गया है। यह भारतीय तथा पाश्चात्य नाट्य-सिद्धांत दोनों के अनुकूल है।

         नाटक में भारतीय नियताप्ति और पाश्चात्य निगति का मैल भी कराया गया है। नाटक में अंत तक कथावस्तु फलागम तक पहुँच जाती है, किन्तु जब तक वांछित स्थान तक नहीं पहुँच जाती, उसकी गति के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। देवकी भटार्क से पूछती है कि स्कन्दगुप्त कहाँ है? तब भटार्क कहता है- "क्या कहूँ-कुभा की क्षुब्ध लहरों से पूछो-हिमवान की गल जानेवाली बर्फ से पूछो कि वह कहाँ है- मैं नहीं " देवकी सोचती है कि स्कन्ध मर गया है और तुरंत प्राण छोड़ देती है। इस समय देश के भविष्य के सम्बन्ध में हमारी आकांक्षा और औत्सुक्य बढ़ जाता है। भटार्क के पश्चात्ताप और वेष बदले हुए स्कन्दगुप्त के दिखाई पड़ने से फल-प्राप्ति की सम्भावना को निश्चय प्रदान कर देता है। इस तरह पाश्चात्य नाटकों की भाँति कथान वक्रगति से विकसित होता है।

         "स्कन्दगुप्त' नाटक दुःखान्त है, जो पाश्चात्य सिद्धान्त के अनुकूल है। भारतीय नाट्य सिद्धांत के अनुसार नायक का दोष-दर्शन नहीं कराया जाता। किन्तु स्कन्दगुप्त में महत्वाकांक्षा का अभाव है। उसमें अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीनता भी दिखाई  पड़ती है। इस तरह नायक में दोष होना पाश्चात्य सिद्धान्त के अनुकूल है। प्रसाद जी ने नृत्य तथा गीतों की योजना भी की है। किन्तु वह भारतीय नाट्य सिद्धान्त के निकट ही अधिक है।

          संक्षेप में प्रसाद जी ने 'स्कन्दगुप्त' में भारतीय नाट्य-पद्धति की आत्मा की रक्षा की है। साथ ही साथ उसको पाश्चात्य नवीन उपकरणों से सजाया है।


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स्कन्दगुप्त' नाटक सुखांत है या दुखांत?

 


                     स्कन्दगुप्त' नाटक सुखांत है या दुखांत? 

          

            प्राचीन भारतीय नाटकों का उद्देश्य अर्थ, धर्मे या काम की प्राप्ति था। नाटक में जीवन के आदर्शों की व्याख्या होती थी। साथ ही वह सामाजिकों को आनंद भी देता था दुष्टों का दडित होना और सज्जनों का उपकार उन नाटकों का चरम लक्ष्य था। अतः प्राचीन भारतीय नाटकों में दुखांत नाटकों का अभाव है।

          प्राचीन यूनान में दो तरह के नाटक लिखे जाते थे ।

       (1) दुःखान्त (ट्रैजिक) और (2) सुखांत (कॉमेडी)। 

         साधारणतः दुःखान्त नाटक का अन्त दुःखमय होता था और सुखान्त का सुखमय। परन्तु दोनों में विशेष अन्तर यह था कि दुःखान्त में मनुष्य के जीवन की गम्भीर समस्याओं पर विचार होता था और उसकी विपत्तियों और कष्टों का विवरण दिया जाता था। सुखान्त नाटकों में हास्यास्पद और निम्न कोटि के मनुष्यों की मूर्खताओं एवं असंगत कार्यों का विवरण दिया जाता था

       सोलहवीं शताब्दी में नाटक की प्राचीन रूढ़िगत सीमाएँ टूटने लगी। विभिन्न प्रकार के दुःखान्त एवं सुखान्त नाटक लिखे जाने लगे जो न सुखान्त थे, न दुःखान्ता उन्हें सुख-दुःखान्त व टरैजी-कॉमेडी) नाटक कहा करते थे।

       स्कन्दगुप्त नाटक के अन्त में हम देखते हैं कि धार्मिक संघर्ष शांत होता है। स्कन्दगुप्त के विरोधियों की योजना असफल होती है। विदेशो शत्रु गुप्त साम्राज्य की सीमाओं को छोड़कर चले जाते हैं। छिन्न-भिन्न राज्य की व्यवस्था सुधरने लगती है। स्कन्दगुप्त पुरगुप्त को सिंहासन सौंपता है। इस प्रकार स्कन्दगुप्त नाटक के प्रधान कार्य में पूर्ण सिद्धि प्राप्त करता है।

       इतना होने पर भी स्कन्दगुप्त सुखी नहीं दीख पड़ता। वह वृद्ध पर्णदत्त की दशा देखकर दुखी होता है। वह कहता है - "वृद्ध पर्णदत्त - तात पर्णदत्त ! तुम्हारी यह दशा? जिसके लोग से आग बरसती थी, वह जंगल की लकड़ियाँ बटोर कर आग सुलगाता है।" वह गाकर भीख माँगती देवसेना को देखकर खेद प्रकट करता है - "मालवेश कुमारी देवसेना! तुम और यह कमी समय जो चाहे करा ले। आज मैं बंधुवर्मा के आत्मा को क्या उत्तर दूंगा? जिसने निस्वार्थ भाव से सब कुछ मेरे चरणों में अर्पित कर दिया था, उससे कैसे उऋण होऊँगा? मैं यह सब देखता हूँ और जीता हूँ।"

       स्कन्दगुप्त अपनी माँ की स्मृति में दुखी है। वह कहता है- 

          "जननी। तुम्हारी पवित्र स्मृति को प्रणाम । माँ! अंतिम बार आशीर्वाद नहीं मिला, इसी से यह कष्ट यह अपमान! माँ तुम्हारी गोद में पलकर भी तुम्हारी सेवा न कर सका - यह अपराध क्षमा करो।"

             स्कन्दगुप्त के व्यक्तिगत जीवन में भी सुख नहीं मिलता। जब देवसेना स्कन्दगुप्त की और आकृष्ट होती तब वह विजया का स्वप्न देखता रहता किंतु वह विजया भटार्क का वरण करता है। सब ओर से निराश होने के बाद स्कंदगुप्त देवसेना से कहता है- "देवसेना! एकांत में किसी कानन के कोने में तुम्हें देखता हुआ, जीवन व्यतीत करूँगा। साम्राज्य की इच्छा नहीं।” परन्तु देवसेना उसके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करती।

           देवसेना स्कन्दगुप्त नाटक की नायिका है। वह भी सुख नहीं है। वह न स्कन्दगुप्त से ही विवाह करती और न किसी अन्य से ही। वह अपने मन के दुःख को इस प्रकार प्रकट है - "कष्ट हृदय की कसौटी है करती - तपस्या अग्नि है- सम्राट यदि इतना भी न कर सके तो क्या ! सब क्षणिक सुखा अंत है। जिसमें सुखों का अंत न हो, इसलिए सुख करना ही न चाहिए । मेरे इस जीवन के देवता! और उस जीवन के प्राप्य क्षमा"

          इन बातों में भग्न हृदयों की विवशता मिलती है। शोक की इस रेखा ने सारे नाटक को दुःखांत बना दिया है।


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स्कन्दगुप्त नाटक की ऐतिहासिकता

 

                 स्कन्दगुप्त नाटक की ऐतिहासिकता 

        प्रसाद जी की नाट्य-कला का महत्वपूर्ण तत्त्व उनकी ऐतिहासिकता है। उनके गंभीर अध्ययन और मनन का परिचय हमे उनके ऐतिहासिक अन्वेषणों से मिलता है। उनका ऐतिहासिक जान नाटकों की लम्बी-चौड़ी भूमिका तक ही सीमित नही है। उन्होंने अपनी खोजों के तर्क-संगत प्रमाण भी दिये है। अतीत की टूटी कड़ियों को एकत्र करने का जो कार्य उन्होंने किया है वह बहुत ही सराहनीय है। उन्होंने अपनी कल्पना और भाव-भंगिमा से इतिहास के रूखे-सूखे पृष्ठों में जीवन का रस डाल दिया है।

        प्रसाद जी के 'स्कन्दगुप्त नाटक के सभी प्रमुख पुरुष पात्रों के नाम इतिहास में मिलते हैं। उनमें कुमारगुप्त, स्कन्दगुप्त, बन्धुवर्मा, पर्णदत्त, चक्रपालित, भटार्क, शर्वनाग, पृथ्वीसेन, प्रख्यातकीर्ति, भीमवर्मा, गोविंदगुप्त, जिंगल आदि आते हैं। स्त्री पात्रों में स्कन्दगुप्त की माता देवकी और पुरगुप्त की माता अनंतदेवी ऐतिहासिक है।

      स्कन्दगुप्त नाटक की प्रमुख घटनाएँ भी इतिहास सम्मत है। यथा -

    1) मालव राजा द्वारा गुप्त राजा की सार्वभौम सत्ता मान लेना :

        विक्रमाब्द 480 वाले गांधार के शिलालेख द्वारा मालव का स्वतंत्र रहना प्रमाणित है। परन्तु 529 विक्रमाब्द वाले मंदसोर शिलालेख के अनुसार 493 विक्रमीय में कुमार गुप्त की सार्वभौम सत्ता मान ली गयी है। प्रसाद जी ने 'स्कन्दगुप्त' नाटक में थोड़ा परिवर्तन कर दिया है। नाटक में मालव राजा बन्धुवर्मा स्कन्दगुप्त की सार्वभौम सत्ता मान लेता है।

   2) आर्यावर्त पर म्लेच्छो और हूणों का आतंक होना : 

       यह स्कन्दगुप्त के शिलालेखों से प्रमाणित होता है। 

   3) स्कन्दगुप्त द्वारा सौराष्ट्र के शकों का मूलच्छेद: 

      यह बात चक्रपालित के शिलालेख से स्पष्ट होती है।

        प्रसाद ने कुछ ऐतिहासिक उद्देश्यों से अनुप्राणित होकर 'स्कन्दगुप्त' नाटक की रचना की है। 

उनका विवरण इस प्रकार है।

     1. विक्रमीय संवत् के प्रवर्तक का अस्तित्व :

        कुछ विद्वान् लोग विक्रमीय संवत् के प्रवर्तक के ऐतिहासिक महत्व को स्वीकार नहीं करते। वे ये कारण देते हैं - 

    1) इसका कोई शिलालेख नहीं मिलता।

    2) मालव में अति प्राचीन काल  से एक मालव संवत् का प्रचार था।

         अन्य विद्वान् मानते हैं कि द्वितीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ही असली विक्रमादित्य था। उसने ही शकों को पराजित किया और प्रचलित मालव संवत् के साथ अपनी 'विक्रम' उपाधि जोड़कर विक्रमीय संवत् का प्रचार किया।

         प्रसाद जी का विचार है कि द्वितीय चन्द्रगुप्त ने सौराष्ट्र के शकों को पराजित करके विक्रमादित्य की उपाधि प्राप्त की, क्योंकि विक्रमादित्य की उपाधि प्राप्त करने केलिए शकादि का होना आवश्यक था। जब द्वितीय चंद्रगुप्त के समय में विक्रमादित्य उपाधि गयी तो नाम का कोई व्यक्ति उसके पहले हुआ होगा। चन्द्रगुप्त द्वितीय का राज्य काल 385 413 ई. तक माना जाता है। इसलिए 385 ई. के पहले कोई विक्रमादित्य हुआ हो।

      2. हूणों के हाथ स्कन्दगुप्त पराजित नहीं हुआ :

        प्रसाद जी ने 'राजतरंगिणी' और 'सुंगयन' के वर्णन मिलाकर इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ने ही सौराष्ट्र आदि से शकों को और काश्मीर तथा सीमा प्रांत से हूणों का राज्य विध्वंस किया और सनातन धर्म की रक्षा की।

          आगे बताते है कि पिछले काल के स्वर्ण के सिक्कों को देखकर लोग अनुमान लगाते हैं कि उसी के समय में हूणों ने फिर आक्रमण किया और स्कन्दगुप्त पराजित हुआ। किन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं। तोरमाण के शिलालेखों से पता चलता है कि स्कन्दगुप्त हूणों के आक्रमण के पहले ही मर गया था दुर्बल  पुरगुप्त के काल में तोरमाण के द्वारा गुप्त साम्राज्य का विध्वंस हुआ और गोपादि तक उसके हाथ में चला गया।

     3. कालिदास के सम्बन्ध में।

          साधारण पाठक यह मानत है कि कवि कालिदास ने ही नाटक भी लिखे हैं। किन्तु जयशंकर प्रसाद जी ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया है कि तीन कालिदास भिन्न-भिन्न कालों में हुए हैं-

      1) नाटककार कालिदास प्रथम कालिदास है। वह ईसा पूर्व का है।

      2) कवि कालिदास पाँचवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध और छठी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जीवित था।

      3) तीसरा कालिदास बंगाल का था। यही संभवतः ऋतुसंहार, पुष्पबाण विलास, 

           श्रृंगार तिलक और अश्वधाटी काव्यों का रचयिता हो।

      4. मातृगप्त ही  कवि कालिदास है : 

     डाक्टर भाऊदाजी के मत का समर्थन करते हुए जयशंकर प्रसाद जी मातृगुप्त को ही कवि कालिदास मानते हैं। इस मत के समर्थन के आधार ये बताये गये हैं

        1) स्कन्दगुप्त के शिलालेखों में जो पद्य रचना है, वह वैसी ही प्रांजल है जैसी रघुवंश की। रघुवंश में स्कन्दगुप्त और कुमारगुप्त का स्पष्ट उल्लेख मिलता है।

       2) पुरगुप्त के अन्तर्विद्रोह के कारण स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ने मगध और अयोध्या छोड़कर उज्जयनी को अपनी राजधानी बनायी और साम्राज्य का नया संगठन करने लगा। उसी समय मातृगुप्त काश्मीर का शासक नियुक्त किया गया। किन्तु 467 ई में स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य का अन्त होने पर मातृगुप्त काश्मीर छोड़कर काशी चला गया। 

      3) सिंहल के कुमारदास और मातृगुप्त के बीच मैत्री के होने की बात का अविश्वास करने का कोई आधार नहीं है।

      4) यदि स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य के मरने पर दुखी होकर मातृगुप्त के अपने मित्र कुमारदास से मिलने सिंहल जाना ठीक है तो मेघदूत को उसी समय का काव्य माना जाना चाहिए। 'मेघदूत में 'देवपूर्वीगरि ते वाले श्लोक में देवगिरि की स्कन्द राज की प्रतिमा का आँखो देखा वर्णन मिलता है।

     5) 'रघुवंश में गुप्त वंश के अंतिम पतनपूर्ण वर्णन मिलता है।

     6) यदि कवि कालिदास का जीवन-काल 524 ई. तक माना जाता है तो उसी समय कुमारदास सिंहल का राजकुमार था।

     7) सिंहल में यह रूढ़ि है कि कवि कालिदास सिंहल आया था। चीनी यात्री ने भी लिखा है कि कालिदास ने सिंहल में मनोरथ को हराया था।

    8) राजतरंगिणी के अनुसार विक्रमादित्य और मातृगुप्त का कथा भी उसी काल की है। 

   9) सुंगयुन के अनुसार हूण राजकुल में विग्रह हुआ था।

           जयशंकर प्रसाद जी यह मानते हैं कि कालिदास उपाधि है। हम यह मान सकते हैं कि कालिदास नाम का कोई व्यक्ति रहा होगा और बाद में वह उपाधि बन गया हो। 

       इस तरह प्रसाद जी ने 'स्कन्दगुप्त' में ऐतिहासिकता व चित्रण किया है।


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स्कन्दगुप्त नाटक में वर्णित राष्ट्रीय भावना ।

 

        

                       स्कन्दगुप्त नाटक में वर्णित राष्ट्रीय भावना ।

              बाबू जयशंकर प्रसाद जी जिस समय रचनाएँ लिखने लगे थे, उस समय देश में स्वतंत्रता का आंदोलन चल रहा था। नेता लोग जनता में राष्ट्रीय भावना का प्रचार करते थे। लेखक भी अपनी रचनाओं के द्वारा राष्ट्रीय भावना का प्रचार करते थे। इसी प्रकार प्रसाद जी भी अपनी रचनाओं में राष्ट्रीय भावना का चित्रण करते थे। उनके राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना उनकी कविताओं की अपेक्षा नाटकों में अधिक मुखर हुई है। उन्होंने 'चन्द्रगुप्त नाटक में राष्ट्रीय भावना का जिस रूप में चित्रण किया है, उस रूप में अन्य नाटकों में नहीं किया है। फिर भी हरेक नाटक में राष्ट्रीय भावना का चित्रण किसी-न किसी रूप में मिलता है। स्कन्दगुप्त नाटक इसका अपवाद नहीं है।

         प्रसाद ने 'स्कन्दगुप्त' नाटक में कुछ आदर्श पात्रों का चित्रण किया है जो राष्ट्रीय भावना के समर्थक है। ऐसे पात्रों में पर्णदत्त, অक्तपालित, बन्धुवर्मा, देवसेना, स्कंदगुप्त आदि मुख्य है।

         पर्णदत्त मगध का महानायक था। वह बड़ा वीर था। उसने रुड़ ध्वज लेकर आर्य चन्द्रगुप्त की सेना का संचालन किया था। वह गुप्त-साम्राज्य की नासीर-सेना में, उसी गरुड़-ध्वज की छाया में पवित्र क्षात्र-धर्म का पालन करते हुए उसी के मान केलिए मर मिटना चाहता है। वह बड़ा दुखी है कि महाराजा धिराज श्री कुमार गुप्त के विलास की मात्रा बढ़ गयी है। अत:पुर में राज्य की शक्ति को छिन्न-भिन्न करने की योजना बनायी जा रही है। देश पर विदेशी शत्रुओं का आक्रमण हो रहा है। पर्णदत्त बड़ा दुखी है कि ऐसी परिस्थितियों में भी युवराज अपने अधिकारों के प्रति उदासीन है। इसलिए वह स्कन्दगुप्त को कर्त्तव्य का बोध कराते हुए कहता है- "त्रस्त प्रजा की रक्षा केलिए, सतीत्व के सम्मान के लिए, देवता, ब्राह्मण और गौ की मर्यादा में विश्वास. केलिए, आतंक से प्रकृति को आश्वासन देने केलिए-आपको अपने अधिकार का उपयोग करना होगा ।"

         देश पर विदेशी शत्रुओं के आक्रमण के कारण बहुत से सैनिक मर जाते हैं। जो सैनिक बच जाते हैं, वे अन्न केलिए तरसने लगते है। इतना ही नहीं, कई लोगों के बच्चे बच जाते है। वे अन्न के लाले बन जाते। उन्हें पहनने केलिए कपडा भी नहीं मिलता। ऐसी परिस्थिति में पर्णदत्त नागरिकों से भीख माँग-माँगकर अनाथ बच्चों का लालन-पोषण करता है।

         देश की संकटकालीन परिस्थिति को देखकर देवसेना भी गीत गाते. नाचते हुए नागरिकों से भीख मांगकर, उससे प्राप्त धन से अनाथ बच्चों का पालन-पोषण करने में पर्णदत्त की सहायता करती है। देवसना के प्रति असभ्य व्यवहार करनेवाले नागरिकों के साथ पर्णदत्त दुःख प्रकट करता है- "नीचे, दुरात्मा, विलास का नारकीय कीड़ा। बालों को संवार कर, अच्छे कपड़े पहनकर, अब भी घमंड से तना हुआ निकलता है। कुलवधुओं का अपमान सामने देखते हुए भी अकड़कर चल रहा है, अब तक विलास और नीच वासना नहीं गई।"

        पर्णदत्त का भीख माँगना अनोखा है। देखिये- "मुझे जय नहीं चाहिए-भीख चाहिये। जो दे सकता हो अपने प्राण, जो जन्मभूमि केलिए उत्सर्ग कर सकता हो जीवन वैसे वीर चाहिये कोई देगा भीख में"

        चक्रपालित पर्णदत्त का पुत्र है। वह देश की रक्षा को सर्वोपरि मानता है। वह कूर हूणों का सामना करने केलिए सदा प्रस्तुत रहता है। वह स्कन्दगुप्त से भी कहता है- "जीवन में वही तो विजयी होता है, जो दिन-रात युद्धस्व विगत ज्वरः का शंखनाद सुना करता है।" उसका विश्वास है कि राज्य-शक्ति के केन्द्र में अन्याय न हो। वह स्कन्दगुप्त से कहता है कि भटार्क बंदी बनाया जाय। इस प्रकार वह सदा देश-हित की बातें करता रहता है।

        बन्धुवर्मा बड़ा देशभक्त है। वह स्कन्दगुप्त के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अपना सब-कुछ उसे समर्पित करना चाहता है। वह मालव राज्य को गुप्त साम्राज्य में मिलाना चाहता है। जयमाला को यह प्रस्ताव पसंद नहीं है। वह पति से पूछती है "उनका इतना बड़ा साम्राज्य है, तब भी मालव के बिना काम नहीं चलेगा क्या?" उस समय बन्धुवर्मा जयमाला को समझाते हुए कहता है - "देव, तुम नहीं देखती हो कि आर्यावर्त पर विपत्ति की प्रलय-मेघमाला घिर रही है, आर्य-साम्राज्य के अंतर्विरोध और दुर्बलता को आक्रमणकारी भली भौति जान गये है। शीघ्र ही देशव्यापी युद्ध की संभावना है इसलिए यह मेरी ही सम्मति है कि साम्राज्य की सुव्यवस्था केलिए, आर्य-राष्ट्र के त्राण के लिए युवराज उज्जयनी में रहे-इसी में सबका कल्याण है। आर्यावर्त का जीवन केवल स्कन्दगुप्त के कल्याण से है। और उज्जयनी में साम्राज्याभिषेक का अनुष्ठान होगा-सम्राट होंगे स्कंदगुप्त" ।

        वह आगे अपनी पत्नी से व्यक्तिगत स्वार्थ छोड़ने की बात कहता है- "इसी क्षुद्र ममत्व ने हमको दुष्ट भावना की ओर प्रेरित किया है, इसी से हम स्वार्थ का समर्थन करते हैं। इसे छोड़ दो जयमाला।"

        बन्धुवर्मा की ये बातें राष्ट्रीय-भावना से प्रेरित रही हैं। स्कन्दगुप्त बड़ा देश-प्रेमी है। वह अंतःपुर के अंत कलह से देश को बचाने केलिए अपने सिंहासन को पुरगुप्त को देने का निश्चय करता है। इतना ही नहीं, देश को विदेशी शत्रुओं से रक्षा करने और देश में धार्मिक संघर्ष को शांत करने के बाद सिंहासन को पुरगुप्त को ही सौंप देता है।

        देश पर आपत्तियों को घेरे हुए देखकर स्कन्दगुप्त जो दुःख प्रकट करता है उसमें भी उसकी देश-भक्ति देखने को मिलती है। देखिये- "मेरा स्वत्व न हो। मुझे अधिकार की आवश्यकता नहीं। यह नीति और सदाचारों का आश्रय-वृक्ष गुप्त-साम्राज्य हरा-भरा रहे।"

        प्रसाद ने गीतों में भी राष्ट्रीय भावना की अभिव्यक्ति की हैं। 'स्कन्दगुप्त नाटक के अंत में मातृगुप्त जो गीत गाता है उसमे भारत की महिमा वर्णित है। देखिये -- 

           हिमालय के आंगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार। 

           उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक हारा

  

           जिये तो सदा उसी के लिए यहाँ अभिमान रहे यह हर्ष। 

           निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष

       विदेशी पात्रों का भारत की महिमा का गान करना प्रसाद जी के नाटकों की विशेषता है। 'स्कन्दगुप्त नाटक में धातुसेन प्रख्यात कीर्ति से कहता है -

         भारत समग्र विश्व का है, और संपूर्ण वसुंधरा इसके प्रेमपाश में आवद्ध है। अनादि काल से ज्ञान की, मानवता को ज्योति यह विकीर्ण कर रहा है। वसुंधरा का हृदय-भारत-किस मूर्ख को प्यारा नहीं है? तुम देखते नहीं कि विश्व का सबसे जचा श्रृंग इसके सिरहाने, और गंभीर तथा विशाल समुद्र इसके चरणों के नीचे है। एक-से-एक सुन्दर दृश्य प्रकृति ने अपने इस घर में चित्रित कर रखा है।"

       इस प्रकार प्रसाद जी ने 'स्कन्दगुप्त नाटक में राष्ट्रीय भावना का चित्रण किया है।

       

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स्कन्दगुप्त नाटक के नामकरण


                                स्कन्दगुप्त नाटक के नामकरण

        हमारे साहित्य में नामकरण चार प्रकार से हुए हैं। प्रथम तो नामकरण .यक के कारण होता है और उसमें यह ध्यान दिया जाता है कि नायक अपने नायकत्व से पूर्ण हो। दूसरे, नामकरण नायिका के नाम पर होता है। जैसे, चन्द्रावली, राज्यश्री आदि। तीसरे, घटना के आधार पर नामकरण होता है। इस प्रकार की रवानाओं में घटना की ही प्रधानता होती है। नायक या नायिका प्रमुख पात्र होते हुए भी उसके कार्य-कलाप उसे घटना का साधन मात्र प्रतिपादित करते हैं। चौथे, स्थान-विशेष के आधार पर भी नामकरण किया जाता है, परन्तु बहुत ही कम।

       स्कन्दगुप्त नाटक का नामकरण उसके प्रमुख पात्र स्कन्दगुप्त के आधार पर किया गया है। वही नाटक का नायक है। उसमें नायक के सब लक्षण मौजूद है।

          स्कन्दगुप्त नाटक के प्रथम दृश्य में ही दार्शनिक के रूप में हमारे सामने आता है। वह अधिकारों के प्रति उदासीन है । उसकी उदासीनता कायरता से प्रेरित नहीं है, बल्कि उसमें देश-हित की भावना है। वह सिंहासन पर अधिकार छोड़कर अंतःपुर के कलह का अंत करना चाहता है, क्यों कि अंत कलह राज्य को कमजोर बनाता है। विदेशी आक्रमणकारियों को देश पर आक्रमण करने का मौका मिलता है। इस तरह स्कन्दगुप्त की उदासीनता में देश-प्रेम और दूरदर्शिता प्रकट होती है।

          स्कन्दगुप्त त्यागी है। वह सिंहासन को पुरगुप्त को देकर असीम त्याग का परिचय देता है। वह त्याग को प्रधानता देता है। वह चक्रपालित से कहता है - "संसार में जो सबसे महान है वह क्या है? त्याग है।"

          स्कन्दगुप्त वीर है। उसे अपने वाहु-बल पर भरोसा है। वह कहता है - "अकेला स्कंदगुप्त मालव की रक्षा करने केलिए सन्नद्ध है। स्कंदगुप्त के जीते जी मालव का कुछ न बिगड़ सकेगा

          स्कन्दगुप्त शरणागत रक्षक है। पुष्यमित्रों से स्वयं लड़ते रहने पर भी शको तथा हूणों की सम्मिलित सेना से मालव की रक्षा करने केलिए वह तैयार हो जाता है। वह स्वयं बन्धुवर्मा के दूत से कहता है "दुत । केवल संधि-नियम से ही लोग बाध्य नहीं हैं. हम शरणागत की रक्षा भी क्षत्रिय का धर्म है।" वह स्वावलंबी है। वह भटार्क से कहता है - "भटार्क। । यदि कोई साथी न मिले तो साम्राज्य केलिए नहीं, जन्म-भूमि के उद्धार केलिए मै अकेला युद्ध करूँगा।"

          वह व्यवहार-कुशल भी है। स्थिति की गहनता समझकर अनुकूल आचरण का पूरा उद्योग करता है। वह भटार्क पर अविश्वास करते हुए भी उसे प्रकट होने नहीं देता।

          वह स्वाभिमानी है। इसलिए वह असहाय अवस्था में भी विजया के धन से राष्ट्र का उद्धार नहीं करना चाहता। वह कहता है। "साम्राज्य केलिए मैं अपने को बेच नहीं सकता। सुख के लोभ से, मनुष्य के भय से मैं उत्कोच देकर क्रीत साम्राज्य नहीं चाहता।"

          क्षमा स्कन्दगुप्त का राजदंड है। महादेवी की हत्या के कुचक्र में सम्मिलित भटार्क और प्रपंचबुद्धि को पशु का-सा व्यवहार करनेवाले शर्वनाग को, हूण सेनापति खिंगल को वह छोड़ देता है।

          इस प्रकार स्कन्दगुप्त नाटक का प्रमुख पात्र है। स्कन्दगुप्त के बाद बन्धुवर्मा का स्थान होता है। वह शकों और हूणों से मालव की रक्षा करने केलिए स्कन्दगुप्त की सहायता माँगता है। उसके चरित्र की एक मात्र विशेषता यह है कि वह देश के हित को दृति में रखकर, विदेशी शत्रुओं से देश को बचाने केलिए मालव राज्य को स्कन्दगुप्त को सौपता है। वह स्कन्दगुप्त की प्रशंसा करते हुए कहता है कि वह उदार, वीर हृदय, देवोपम सौंदर्य है। उसके अंतःकरण में तीव्र अभिमान के साथ विराग है। आँखों में एक जीवन पूर्ण ज्योति है।

        पर्णदत्त और चक्रपालित के चरित्र का पूर्ण विकास नहीं है। उनके चरित्र की एक ही विशेषता नजर आती है कि देश-भक्त हैं। वे स्कन्दगुप्त को देश की परिस्थितियाँ बताकर उसके अधिकारों का बोध कराते हैं ताकि वह देश की रक्षा के काम में लग जाय। उनको स्कन्दगुप्त पर बड़ा विश्वास है। पर्णदत्त कहता है "त्रस्त प्रजा की रक्षा के लिए, सतीत्व के सम्मान केलिए, देवता, ब्राह्मण और गौ की मर्यादा में विश्वास केलिए, आतंक से प्रकृति को आश्वासन देने केलिए आपको अपने अधिकार का उपयोग करना होगा युवराज !"

        भटार्क खल-नायक है। वह अनंतदेवी की बातों आकर सम्राट का वध कराता है। महादेवी का अंत करने की योजना बनाता है। स्कन्दगुप्त उसकी योजना को असफल बनाता है। वह नीच प्रवृत्ति का है। वह अपनी पत्नी का वध करने में भी संकोच नहीं करता। अंत में अपनी करनी पर पश्चात्ताप प्रकट करता है। स्कन्दगुप्त उसके अपराध की क्षमा करता है।

        अनंतदेवी कुमारगुप्त की दूसरी रानी है। वह स्वार्थ की प्रतिमूर्ति है। वह अपने पुत्र पुरगुप्त को सिंहासन पर बिठाना चाहती है। इसके लिए वह सम्राट का अंत कराती है। महारानी का वध कराने की योजना बनाती है। प्रपंचबुद्धि की सहायता से धार्मिक संघर्ष को बढ़ाती है। विदेशी शत्रुओं को निमंत्रण भिजवाती है। इस तरह वह अपने स्वार्थ के हित केलिए देश के हित की बलि चढ़ाती है। परन्तु स्कन्दगुप्त देश की रक्षा करके अपने सिंहासन को पुरगुप्त को देता है।

        देवसेना का आदर्श प्रेम है। वह स्कन्दगुप्त से प्रेम करती है। स्कन्दगुप्त के प्रति उसके जो भाव हैं, उसके इन वाक्यों में देख सकते है- "मेरे इस जीवन के देवता! और उस जीव के प्राप्य! क्षमा।"

         विजया के प्रेम में चंचलता है। उसके इस स्वभाव की देखकर ही स्कन्दगुप्त उसे पिशाची कहता है। भटाके उसे 'दुश्चरिये कहता है। इस विवेचन से स्पष्ट है कि पूरे नाटक में स्कन्दगुप्त ही प्रमुख पात्र है। उसका नाटक के सब पात्रों से सम्बन्ध है। वही फल का भोक्ता भी है। वह देश को विदेशी शत्रुओं से रक्षा करता है। धार्मिक संघर्ष को समाप्त करता। पुरगुप्त को सिंहासन देकर अंतःपुर के अंत कलह का अंत करता है। इस प्रकार नाटक  के मुख्य कार्य की सिद्धि स्कन्दगुप्त को ही मिलती है। 

        इस तरह नाटक में स्कन्दगुप्त की प्रमुखता को देखकर नाटक का नामकरण उसके आधार पर करना समीचीन लगता है।


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स्कन्दगुप्त' का नायक कौन है? एक पर विचार


             'स्कन्दगुप्त' का नायक कौन है? एक पर विचार 

            स्कन्दगुप्त' नाटक के नामकरण से विदित होता है कि नाटक का मुख्य पात्र स्कन्दगुप्त है। नाटक का आरम्भ ही स्कन्दगुप्त के स्वगत से होता है। नाटक का अन्त भी स्कन्दगुप्त और देवसेना के संवाद से होता है। नाटक की सारी कथा स्कन्दगुप्त के इदगिर्द चक्कर काटती है। अनंतदेवी और भटार्क की कथा, बन्धुवर्मा और देवसेना की कथा, शर्वनाग और रामा की कथा आदि का सम्बन्ध भी स्कन्दगुप्त से ही है। पूरे नाटक स्कन्दगुप्त में के समान कोई महत्त्वपूर्ण पात्र नहीं है। नाटक के सब पात्रों का सम्बन्ध स्कन्दगुप्त से है। 

         नायक केलिए आवश्यक गुण : 

        धनंजय के अनुसार नायक के निम्नलिखित गुण होने चाहिए - 

      नेता विनीतो मधुरस्त्यागी दक्षः प्रियंवदः

      रक्त लोक : सुचिरवाग्मी रूढ़िवंशः स्थिरो युवा। 

      बुद्ध युत्साह स्मृति प्रज्ञा कलामान् समन्वितः

       शूरो दृढ़श्च तेजस्वी शास्त्र चक्षुश्च धार्मिक: ।।

     अर्थात् नायक को ऐसा होना चाहिए-

        (1) विनीत (2) मधुर 3) त्यागी (4) दक्ष (5) प्रियंवद (6) रक्तलोक (7) वाग्मी ৪) रूढ़िवंश (9) शुचि (10) स्थिर (11) युवा (12) बुद्धिमान |13) प्रज्ञावान् (14) स्मृति संपन्न (15) उत्साही (16) कलावान |17) शास्त्र चक्षु (18) आत्मसम्मानी (19) शूर (20) दृढ़। 21) तेजस्वी और (22) धार्मिक।

     इसके अतिरिक्त उसमें शोभा, विलास, माधुर्य, स्थिरता, तेज, लालित्य और औदात्य हों।

   स्कन्दगुप्त नाटक का नायक कौन है।

      उपर्युक्त गुणें के आधार पर हमें यह देखना है कि स्कन्दगुप्त नाटक का नायक कौन है? उनमें अधिकांश गुण स्कन्दगुप्त में ही मिलते हैं।

        नाटक के आरंभ में स्कन्दगुप्त दार्शनिक तथा कल्पना लोक में विचरनेवाले युवराज के रूप में हमारे सामने आता है। साम्राज्य-लक्ष्मी केलिए उसके मन में किसी प्रकार का लोभ नहीं। वह अपने अधिकारों के प्रति उदासीन है। इस उदासीनता का कारण अंत:पुर का कलह है।

        वह बड़ा त्यागी है। उसके त्याग में उसकी दूरदर्शिता भी प्रकट होती है। वह सोचता है कि अंतःपुर के कलह से राज्य की शक्ति कमजोर हो रही है। इसलिए वह अंतःपुर के कलह को मिटाने के उद्देश्य से पुरगुप्त को सिंहासन सौंपने की बात सोचता है। इतना ही नहीं, वह विदेशी शत्रुओं को राज्य से हटाने के बाद पुरगुप्त को ही सिंहासन सौंपता है।

         स्कन्दगुप्त बड़ा वीर है। उसे अपने बाहु-बल पर विश्वास है। वह कहता है - "अकेला स्कंदगुप्त मालव की रक्षा करने केलिए सन्नद्ध है। स्कन्दगुप्त के जीते जी मालव का कुछ न बिगड़ सकेगा।

       वह बड़ा निर्भीक है। जबर्दस्त दुश्मनों के सामने भी वह कभी विचलित नहीं होता। वह हूणों को वंक्षु तट तक खदेड़ता है। वह बड़ा स्वावलंबी तथा कर्त्तव्य परायण है। वह कहता है - "भटार्क! यदि कोई साथी न मिले तो साम्राज्य के लिए नहीं, जन्मभूमि के उद्धार केलिए मैं अकेला युद्ध करूँगा।"

       वह शरणागत रक्षक है। वह शरणागत की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझता है। शकों तथा हूणों की सम्मिलित सेना से देश की रक्षा करने केलिए मालव राजा बंधुवर्मा स्कंदगुप्त की सहायता माँगता है। तब गुप्त-सेना पुष्यमित्रों से लड़ रही थी। फिर भी स्कंदगुप्त मालव की रक्षा करने केलिए तैयार हो जाता है। स्कन्दगुप्त शुद्ध कर्मयोगी है। वह विजया से कहता है "मैं कुछ नहीं हूं, उसका (विश्व नियंता का) अस्त्र हूँ परमात्मा का अमोघ अस्त्र हूँ।"

       स्कन्दगुप्त अपने अधिकारों के प्रति उदासीन रहता है, किन्तु जब पर्णदत्त और चक्रपालित राज्य की परिस्थिति बताकर उसे कर्तव्य का बोध कराते हैं तो वह तुरन्त कर्तव्योन्मुख हो जाता है। वह मालव की रक्षा में लग जाता है। वह देश के हित को ही सर्वोपरि मानता है। अंतःकलह तथा बाहरी आक्रमणों से खिन्न होने पर भी वह देश को हरा भरा देखना चाहता है। वह कहता है - "आर्य साम्राज्य का नाश इन्हीं आँखों से देखना था मेरा स्वत्य न हो, मुझे अधिकार की आवश्यकता नहीं। यह नीति और सदाचारों का आश्रय-वृक्ष गुप्त-साम्राज्य हरा-भरा रहे।"

      क्षमा स्कंदगुप्त का राजदंड है। मनुष्य से पशु बन गये शर्वनाग को, महादेवी की हत्या के कुचक्र में सम्मिलित भटार्क और प्रपंचबुद्धि को, हूण सेनापति सिंगल जैसे क्रूर शत्रु को भी छोड़ देता है।

      स्कन्दगुप्त व्यवहार-कुशल भी है। स्थिति की गहनता समझकर अनुकूल आचरण का पूरा उद्योग करता है। वह भटार्क पर अविश्वास करते हुए भी ऐसा स्पष्ट दिखाई नहीं देता।

      वह आत्माभिमानी है। वह असहाय अवस्था में भी विजया से धन लेकर देश की रक्षा नहीं करना चाहता। वह कहता है साम्राज्य केलिए मैं अपने को बेच नहीं सकता। सुख के लोभ से, मनुष्य के भय से मैं उत्कोच देकर क्रीत साम्राज्य नहीं चाहता।" 

       वह व्यक्तिगत जीवन में असफल होता है। वह पहले विजया की ओर आकृष्ट होता है। जब विजया भटार्क का वरण कर लेती है तो वह देवसेना से प्रेम करता है। अंत में वह देवसेना के सामने यह प्रस्ताव रखता है कि एक दूसरे को देखते हुए बिताये। किन्तु देवसेना उसके प्रस्ताव का तिरस्कार करती है। इस पर वह अविवाहित रहने का निश्चय करता है। जब विजया अपनी योजना को असफल पाकर स्कन्दगुप्त के सामने विवाह का प्रस्ताव रखती है तो वह उसका निरादर करते हुए कहता है- "विजया। पिशाची! हट जा, नहीं जानती, मैं ने आजीवन कौमार्यव्रत की प्रतिज्ञा की है।" इस प्रकार प्रेम के व्यवहार में असफल होते हुए भी वह अपने प्रेम में स्थिर है।

       बन्धुवर्मा के शब्दों में स्कंदगुप्त उदार, वीर हृदय, देवोपम सौंदर्य है। रामा के शब्दों में स्कंदगुप्त 'रमणियों का रक्षक, बालकों का विश्वास, वृद्धों का आश्रय और आर्यावर्त की छत्रछाया है।" इस विवेचन से स्पष्ट है कि स्कन्दगुप्त में धीरोदात्त नायक के सब लक्षण हैं। अतएव वही नाटक का नायक है।


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नाटक के तत्वों के आधार पर 'स्कन्दगुप्त' नाटक की समीक्षा

 


            नाटक के तत्वों के आधार पर 'स्कन्दगुप्त' नाटक की समीक्षा 


      नाटक के ये प्रधान तत्व होते हैं

         (1) कथानक         (2) पात्र तथा चरित्र-चित्रण

         (3) कथोपकथन   (4) भाषा तथा शैली

         (5) देश-काल वातावरण सृष्टि   (6) रस -

         (7) उद्देश्य और      (8) गीत योजना।

         इन तत्वों के आधार पर हम 'चन्द्रगुप्त' पर विचार करेंगे।

      1. कथानक :

           'स्कन्दगुप्त' नाटक ऐतिहासिक है। अनंतदेवी कुमार गुप्त की छोटी रानी है। वह अपने बेटे पुरगुप्त को सिंहासन पर बिठाना चाहती है। अंतःपुर के कलह तथा राज्य पर शकों और हूणों के आक्रमण से विचलित युवराज स्कन्दगुप्त अपने अधिकारों से उदासीन रहता है। अनंतदेवी भटार्क की सहायता से कुमारगुप्त का वध कराती है। पर्णदत्त तथा चक्रपालित का प्रोत्साहन पाकर स्कन्दगुप्त कर्तव्योन्मुख हो जाता है। अनंतदेवी पपंचबद्धि की सहायता से देवकी का अंत करने का षड्यंत्र रचती है। स्कन्दगुप्त बन्धुवर्मा आदि की सहायता से बाहरी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है। इतना ही नहीं, वह अंतःकलह को शांत करने में भी सफल होता है। किन्तु वह अपने व्यक्तिगत जीवन में विजय नहीं प्राप्त करता। वह न विजया के प्रेम को ही प्राप्त करता और न देवसेना के प्रेम को। यही 'स्कन्दगुप्त' नाटक की कथा संक्षेप में है।

           इसमें पाँच अंक है। प्रथम और द्वितीय अंकों में सात-सात, तीसरे अंक में छ, चौथे अंक में सात और पांचवे अंक में छः दृश्य है। नाटक के प्रथम दृश्य में स्कंदगुप्त जीवन के प्रति जो उदासीनता प्रकट करता है, वही उदासीनता नाटक के अंत में भी दिखाई पड़ती है। नाटक के अंतिम दृश्य में स्कन्दगुप्त का यह वाक्य देखिये - "देवसेना - देवसेना ! तुम जाओ - हतभाग्य स्कंदगुप्त । अकेला स्कंद-ओह।"

        2. पात्र और चरित्रचित्रण

       'स्कंदगुप्त' नाटक के अनेक पुरुष पात्रों के नाम इतिहास में मिलते हैं उनमें कुमारगुप्त, बन्धुवर्मा, पर्णदत्त, चक्रपालित, भटार्क, शर्वनाग, पृथ्वीसेन, खिंगल, प्रख्यात कीर्ति, भीमवर्मा, गोविंदगुप्त आदि ऐतिहासिक पात्र हैं। स्त्रीपात्रों में देवकी और अनंतदेवी ऐतिहासिक पात्र हैं। प्रपंचबुद्धि, मुद्गल, देवसेना, जयमाला, विजया, कमला, रामा, मालिनी आदि काल्पनिक पात्र है।

        स्कन्दगुप्त नाटक का धीरोदात्त नायक है। वह वीर, साहसी, दार्शनिक और दूरदर्शी है। इस नाटक में स्कन्दगुप्त के बाद बन्धुवर्मा उल्लेखनीय पात्र है। उसका त्याग अनुपम है। वह देश के हित को दृष्टि में रखकर अपने राज्य को दान में देता है। पर्णदत्त और चक्रपालित सच्चे देशभक्त हैं। भटाक स्कन्दगुप्त खल नायक है। वह अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति कालए विदेशी को हूणो को निमंत्रण देता है। प्रपंचबद्धि  पतन की चरमसीमा को पहुँचे हुए बौद्ध धर्म का प्रप्रतिनिधि है।

       देवसेना का आदर्श प्रेम स्तुत्य है। उसके भाई ने जो राज्य या था, उसके प्रतिदान के रूप में वह स्कन्दगुप्त को पाना ही चाहती। विजया देवसेना से पूर्णतः विभिन्न स्वभाव वाली है। इसका प्रेम बड़ा चंचल है।

       3. कथोपकथन

            'स्कन्दगुप्त' नाटक के कथोपकथन प्रायः न सेट है। उनसे पात्रों के चरित्र पर प्रकाश पड़ता है। देखिये -

       पर्णदत्त:  सन्देह दो बातों से है युवराज!

       स्कन्दगुप्त : वे कौन-सी हैं?

       पर्णदत्त :  अपने अधिकारों के प्रति आपकी उदासानता और 

                     अयोध्या में नित्य नये परिवर्तन। (अंक 1, दृश्य 1, पृ. 47, पं. 19-22)

                     यह पर्णदत्त और स्कन्दगुप्त का संवाद है। पर्णदत्त की बातों से मालूम 

                      पड़ता है कि स्कन्दगुप्त अपने अधिकारों के प्रति उदासीन है।

              कथोपकथनों से कहानी आगे बढ़ती है। यथा 

      भटार्क : कोई - न तो भीतर जाने पावे और न भीतर से बाहर आने पावे।

      शर्वनाग : (चौककर) इसका तात्पर्य)

      भटार्क : (गंभीरता से) तुमको महाबलाधिकृत की आज्ञा का पालन करना चाहिये।

      शर्वनाग : तब भी, क्या स्वयं महादेवी पर नियंत्रण रखना होगा।

      भटार्क :  हाँ । (अंक 1 दृश्य 5, पृ. 66, पं. 1-7) इस संवाद से पाठकों को यह संकेत 

                   मिलता है कि भटार्क कोई दुष्कार्य करने जा रहा है।

                   'स्कन्दगुप्त' नाटक के संवाद पात्रों की मनःस्थिति के अनुकूल है। यथा 

      देवसेना : आज  फिर तुम किस अभिप्राय से आई हो) 

      विजया :  और तुम राजकुमारी? क्या तुम इस महाबीभत्स श्मशान में 

                    आने से नहीं डरती हो?

      देवसेना :  संसार का मूक शिक्षक-श्मशान-क्या डरने की वस्तु है? जीवन की

                    नश्वरता के साथ ही सर्वात्मा के उत्थान का ऐसा सुन्दर स्थल और कौन है।

                   (अंक 3, दृश्य 2, पृ. 112, पं. 17-22)

        यहाँ विजया और देवसेना अपने-अपने स्वभाव के अनुसार बोलती हैं।

        स्कन्दगुप्त' नाटक में स्वगत कथन भी प्रयुक्त हैं। ये भी प्रायः छोटे हैं ।

उदाहरणार्थ :-

        1) द्वितीय अंक के छठे दृश्य में भटार्क को देखकर विजया कहती है - "अहा, कैसी वीरत्व-व्यंजक मनोहर मूर्ति है और गुप्त-साम्राज्य का महाबलाधिकृत!" (पृ. 100)

         2) चतुर्थ अंक के पहले दृश्य में शर्वनाग (नायक) विजया को देखकर कहता है है क्या!" "पागल हो गयी (पृ. 129, पं. 14)

            'स्कन्दगुप्त नाटक के अनेक स्वगत कथन लम्बे हैं। नाटक के आरम्भ में ही स्कन्दगुप्त का यह स्वगत कथन लम्बा है। देखिये- "अधिकार-सुख कितना मादक और सारहीन है। अपने को नियामक और कर्त्ता समझने की बलवती स्पृहा उससे बेगारकराती है। उत्सवों में परिचारक और अस्त्रों में ढाल से भी अधिकार-लोलुप मनुष्य क्या अच्छे हैं?" (अंक 1, दृश्य 1, पृ. 47, पं. 1-5)

          4. भाषा तथा शैली :

           प्रसाद जी की भाषा की ये विशेषतायें है - (1) वह प्रवाहमयी है। (2) वह पत्रों की मनोदशा को प्रकट करनेवाली है। (3) उसमें मार्मिक उक्तियों का संयोजन है। (4) अभीष्ट भावों को प्रकट करने में सक्षम है। (5) तत्सम शब्दावली का अधिक प्रयोग किया गया है।

            विश्वम्भर मानव के शब्दों में प्रसाद की भाषा पर दुरूहता का आरोप न करके अनुपयुक्तता का आक्षेप होना चाहिये। 'स्कन्दगुप्त' नाटक में यत्र- तत्र सूक्तियों का प्रयोग भी किया गया है। 

     देखिये --

        * समय मनुष्य और स्त्री की गेंद लेकर दोनों हाथ से खेलता है। पुल्लिंग और स्त्रीलिंग की समष्टि अभिव्यक्ति की कुंजी है।

       * पवित्रता की माप है मलिनता, सुख का आलोचक दुख है। पुण्य की कसौटी पाप है।

       * धनवानों के हाथ में एक ही माप है। वह विद्या, सौंदर्य, बल, पवित्रता, और तो क्या हृदय भी उसीसे मापते हैं। वह माप है उनका - ऐश्वर्या

       * कष्ट हृदय की कसौटी है, तपस्या अग्नि है।

      5 . देश-काल तथा वातावरण :

         'स्कन्दगुप्त' नाटक ऐतिहासिक नाटक है। इस कारण उसमें स्कन्दगुप्त कालीन आर्यावर्त की परिस्थितियों का चित्रण किया गया है। 

          अ) राजनीतिक परिस्थिति : कुमारगुप्त का शासन काल था। वे विलासमय जीवन बिताते थे। राज्य कार्य को सुचारु रूप से निर्वाह नहीं करते थे। उनकी छोटी रानी अनंतदेवी अपने पुत्र पुरगुप्त को सिंहासन पर बिठाना चाहती थी। वह भटार्क की सहायता से अपने पति का वध कराने की ताक में थी। युवराज स्कन्दगुप्त अंतःपुर के कलह को देखकर अपने अधिकारों के प्रति उदासीन रहता था। मालव पति भी कौटुम्बिक आपत्तियों में फँस गया था। म्लेच्छ वाहिनी से सौराष्ट्र पादाक्रांत हो चला था। पश्चिमी मालव भी सुरक्षित न था। गुप्त साम्राज्य पर हूणों के आक्रमण हो रहे थे। इस कारण स्कन्दगुप्त के काल में राजनीतिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी थी|

        आ) धार्मिक संघर्ष : गुप्त राजा ब्राह्मण धर्म के समर्थक थे। वे धर्म-सहिष्णुता के लिए प्रसिद्ध थे। वे अन्य धर्मों से द्वेष नहीं करते थे। फिर भी बौद्ध ब्राह्मण धर्म से जलते थे, क्यों कि ब्राह्मण धर्म की खूब उन्नति हो रही थी और बौद्ध धर्म का पतन चरमसीमा को पहुँच चुका था। इसलिए बौद्ध और ब्राह्मणों के बीच संघर्ष चलता था। बौद्ध कापालिक अपने धर्म के प्रचार केलिए हिंसा का आश्रय लेने में भी संकोच नहीं करते। इतना ही नहीं, वे मंत्र - तंत्र का भी आश्रय लेते थे।

        इ) आर्थिक स्थिति : युद्ध के वातावरण के कारण देश की आर्थिक परिस्थिति अच्छी नहीं थी। व्यापारी अपने धन को रत्नगरहों में छिपाकर रखते थे। वे आवश्यकता पड़ने पर अपना धन राजाओं को देते थे। राजाओं के पास सेना के संगठन केलिए आवश्यक धन भी नहीं रहता था। युद्धमें कई लोग मारे जाते थे। इस कारण बहुत से बच्चे अनाथ हो जाते थे। उन्हें खाने के लिए आहार और पहनने केलिए कपड़ा भी नहीं मिलता था। पर्णदत्त जैसे देश भक्त भीख माँग-माँगकर उनका पालन-पोषण करते थे।

        ई) सामाजिक परिस्थिति : समाज में वर्ण-व्यवस्था का प्रचलन था। क्षत्रिय तथा वैश्यों के बीच अच्छे सम्बन्ध थे। नारियों की परिस्थिति अच्छी थी। राज परिवार के लोग ही नहीं, बौद्ध कापालिक भी शराब पीते थे। क्षत्रिय नारियाँ दुर्ग की रक्षा का भार भी लेती थीं।

        ड) सांस्कृतिक स्थिति : युद्ध के वातावरण के कारण देश में कलाओं के लिए कम प्रोत्साहन मिलता था। किन्तु राज महलों में नृत्य-गीत का आयोजन किया जाता था।

        6. रस-सृष्टि : 'स्कन्दगुप्त नाटक में युद्धों की प्रधानता है। एक स्कन्दगुप्त बड़ा वीर है। उसमें वीरोचित सभी गुण विद्यमान आदि से अंत तक उसका जीवन संघर्ष में बीतता है इसलिए टक का प्रधान रस वीर है।

          स्कन्दगुप्त वीर ही नहीं, दार्शनिक भी है। युद्ध लड़-लड़कर समें युद्धों के प्रति उदासीनता भी बढ़ती है। इतना ही नहीं, वह में विजय पाने पर भी व्यक्तिगत जीवन में असफल होता अंत में उसका जीवन-संघर्ष शांत होता है। अतएव इस नाटक वीर रस के बाद शांत रस की प्रधानता है।

        7. उद्देश्य : प्रसाद जी ने स्वयं 'विशाखा' की भूमिका में पनी रचनाओं के उद्देश्य को बताते हुए लिखा है मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अश में से उन प्रकांड घटनाओं दर्शन कराने की है, जिन्होंने कि हमारी वर्तमान स्थिति  को बनाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है।" यही 'स्कन्दगुप्त नाटक का भी उद्देश्य है।

          'स्कन्दगुप्त' नाटक की कथावस्तु को देखने से यह बात स्पष्ट होती है कि देश के छोटे-छोटे राज्य मिलकर एक होने से ही बाहरी शत्रुओं का सामना करना आसान हो जाता। अंतःकलह देश की शक्ति को छिन्न-भिन्न कर देता है। इसलिए नेता को अंतः कलह को दबाने में साहस और दूरदर्शिता से काम लेना चाहिए। प्रसाद जी इस नाटक के द्वारा यह भी बताना चाहते हैं कि आदर्श प्रेम वही है, जिसमें त्याग की भावना होती है।

        8. गीत योजना : स्कन्दगुप्त में छोटे-छोटे 16 गीत हैं।

             उनका वर्गीकरण इस प्रकार है -

        अ)   नर्तकियों   के गीत - 2

        आ)  एकांत में गाये गये गीत - 4

        इ)  ईश-प्रार्थना - 3

        ई) प्रेम का महत्व समझानेवाले गीत - 3

        उ) राष्ट्रीयता सम्बन्धी गीत - 1 

        ऊ) नेपथ्य में गाये गये गीत - 2

        ऋ) युद्ध के समय गाया गया गीत - 1

              कुछ गीतों में दार्शनिकता की छाप है। कुछ गीतों में प्रेम-वेदना, सौंदर्यासक्ति आदि भावों की व्याख्या मिलती है। कुछ गीत देश-प्रेम सम्बन्धी हैं। केवल चार गीत खटकनेवाले हैं। उनका विषय समयानुकूल नहीं कहा जा सकता। अभिनय के समय इन गीतों को हटा सकते हैं।

            उपसंहार : इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि नाटक के तत्वों के आधार पर देखने से स्कन्दगुप्त' प्रसाद जी का एक सफल ऐतिहासिक नाटक है।


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Saturday, February 6, 2021

स्कन्दगुप्त' नाटक की संक्षिप्त कथावस्तु और उसके विस्तार की समीक्षा

 

           'स्कन्दगुप्त' नाटक की संक्षिप्त कथावस्तु और 

                उसके विस्तार की समीक्षा 

          कथावस्तु :

            उज्जयनी में गुप्त साम्राज्य के स्कंधावार में युवराज स्कन्दगुप्त मनुष्य की अधिकार-लिप्सा की निस्सारता का विचार करता रहता है। वह मगध के महानायक पर्णदत्त से पूछता है "अधिकार किसलिए?" पर्णदत्त उसे समझाता है- "त्रस्त प्रजा की रक्षा केलिए. सतीत्व के सम्मान केलिए, देवता, ब्राह्मण और गौ की मर्यादा में विश्वास केलिए आपको अपने अधिकारों का उपयोग करना होगा।" इसी समय मालव राजा बन्धुवर्मा का दूत वहाँ आ पहुँचता है। मालव पर विदेशियों का आक्रमण हो गया था। बन्धुवर्मा ने गुप्त सम्राट की सहायता माँगी थी। मालवऔर मगध के बीच जो सन्धि थी, उसके अनुसार मालव की स करना गुप्त सम्राट का कर्तव्य था। किन्तु उस समय गुप्त सेना पुष्यमित्रों के साथ युद्ध कर रही थी। फिर भी स्कन्दगुप्त बन्धुवर्मा के दूत से कहता है- "केवल संधि-नियम से हम लोग बाध्य नहीं हैं, किन्तु शरणागत रक्षा भी क्षत्रिय का धर्म है।" इसके बाद स्कन्दगुप्त मालव की रक्षा केलिए चला जाता है।

            मगध सम्राट् कुमारगुप्त कुसुमपुर में अपनी ढलती उम्र में अपने उत्तरदायित्व से विमुख हो गया है। भोग-विलास ही उसका जीवन-लक्ष्य बन गया है। उसकी दूसरी पत्नी अनंतदेवी अपने सौंदर्य एवं यौवन के प्रभाव से सम्राट को अपने वश में कर चुकी है। वह अपने पुत्र पुरगुप्त को साम्राज्य का उत्तराधिकारी बनाना चाहती है। वह अपने लक्ष्य की पूर्ति केलिए भटार्क और बौद्ध कापालिक प्रपंचबुद्धि को साधन बनाती है। वह भटार्क को साम्राज्य का महाबलाधिकृत बनाने का प्रलोभन देती है।

            प्रपंचबुद्धि अनंतदेवी को आदेश देता है कि भाद्रपद की अमावस्या की रात्रि के पहले पहर में महाराज की हत्या की जाए । भटार्क सोचता है "महाराजा की हत्या होने से मेरी महत्वाकांक्षा पूरी होगी।" इसलिए महाराजा की हत्या करने का भार अपने ऊपर ले लेता है। निश्चित दिन की रात को वह यह खबर फैला देता है कि महाराज अस्वस्थ है। वह अपने विश्वसनीय नौकरों को राजमहल की रक्षा का भार सौपकर महाराज की हत्या का काम देखने राजमहल के भीतर चला जाता है। थोड़ी देर बाद वह पुरगुप्त के साथ बाहर आता है। महाराज को देख लिए आये हुए मंत्री, महाप्रतिधर, दंडनायक आदि लोगों को पिह सूचना मिलती है कि महाराज का स्वर्गवास हो चुका है और उन्होंने ही पुरगुप्त को उत्तराधिकारी बनाया है। 

           नगर प्रांत में विदेशी हूणों के अत्याचार बढ़ते हैं। सम्राट कुमारगुप्त के भाई गोविंदगुप्त हूणों से प्रजा की रक्षा करते हैं। इसी समय बन्धुवर्मा हूणों का सामना करने केलिए निकलता है। अन्तःपुर में बन्धुवर्मा की पत्नी जयमाला, उसकी बहन देवसेना धनकुबेर की कन्या विजया आदि रह जाती हैं। दुर्गे की रक्षा का भार बन्धुवर्मा का भाई भीमव्मा लेता है। किन्तु वह किले की रक्षा नहीं कर सकता। शत्रु-सेना किले में प्रवेश करने लगती है। इतने में स्कंदगुप्त वहाँ आ पहुँचता है। वह शत्रु-संहार करके अंतःपुर के लोगों की रक्षा करता है। उसी समय पहली बार स्कन्दगुप्त की दृष्टि विजया पर पड़ती है। वह उसके सौंदर्य की ओर आकर्षित होता है। विजया भी उसकी सुंदर मूर्ति को देखकर मुग्ध हो जाती है।

             मालव में शिप्रा नदी तट के कुंज में देवसेना तथा विजया वार्तालाप कर रही हैं। विजया देवसेना को बताती है कि वह स्कन्दगुप्त की ओर मुग्ध हो गयी है। देवसेना भी उसकी ओर आकृष्ट हो गयी थी। किन्तु वह अपने मन की बात नहीं प्रकट करती। वह विजया के मार्ग में अवरोध बनना नहीं चाहती।

            स्कन्दगुप्त अपने मित्र चक्रपालित से कहता है - "मैं झगड़ा करना नहीं चाहता। मुझे सिंहासन नहीं चाहिए। पुरगुप्त को रहने दो। मेरा अकेला जीवन है।" विजया ये बातें सुन लेती है। वह स्कन्दगुप्त के सिंहासन के प्रति उदासीनता को देखकर उससे विमुख हो जाती है। उसका मन चक्रपालित की ओर मँडराने लगता है। वह देवसेना से कहती है - "चक्रपालित क्या पुरुष नहीं है - वीर हृदय है। प्रशस्त वक्ष हैं, उदार मुख मंडल है।" स्कन्दगुप्त कुसुमपुर का समाचार पाकर तुरन्त राजधानी को प्रस्थान करता है।

कुसुमपुर में प्रपंचबुद्धि भटार्क को सलाह देता है- "महादेवी देवकी के कारण राजधानी में विद्रोह की संभावना है, उन्हें संसार से हटाना होगा।" भटार्क वह काम शर्वनाग को सौपता है। पहले शर्वनाग निरीह देवकी का वध करना नहीं चाहता। किन्तु धन और पद के लालच में आकर वह उसका वध करने केलिए तैयार होता। यह विषय जानकर विदूषक, मुद्गल तथा धातुसेन महादेवी की रक्षा में लग जाते हैं । मदिरा के नशे में शर्वनाग महादेवी के वध करने की बात अपनी पत्नी रामा से कहता है। रामा अपने पति को वह काम न करने की सलाह देती है; किन्तु शर्वनाग उसकी बात नहीं मानता। तब रामा महादेवी के पास जाकर सारी बातें बताती है। शर्वनाग पहले रामा को ही मारने का निश्चय कर लेता है। तभी मुद्गल और धातुसेन के साथ स्कन्दगुप्त वहाँ आ पहुँचता है। स्कन्दगुप्त शर्वनाग को रोकता है। वह द्वन्द्वं-युद्ध में भटार्क को घायल कर देता है। अनंतदेवी क्षमा की याचना करती है। स्कन्दगुप्त उसे पुरगुप्त के साथ कुसुमपुर में रहने की आज्ञा देता है।

             बन्धुवर्मा सोचता है कि छोटे-छोटे राज्य हों तो विदेशी शत्रुओं का सामना करना मुश्किल होगा वह स्कन्दगुप्त से रक्षित मालव राज्य को स्कन्दगुप्त को देना चाहता है। जयमाला उसके प्रस्ताव का विरोध करती है। वह कहती है - "समष्टि में भी व्यष्टि रहता है। व्यक्तियों से ही जाति बनती है। विश्व-प्रेम, सर्वभूत-हित-कामना परम धर्म है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि अपने पर प्रेम न हो। इस अपने ने क्या अन्याय किया है जो इसका बहिष्कार करे।" किन्तु भीमव्मा और देवसेना के समझाने पर वह बन्धुवर्मा के प्रस्ताव को स्वीकार करती है। वह अपने पति से क्षमा-यांचना करती है ।

           उज्जयनी में स्कन्दगुप्त के राजतिलक की तैयारियाँ होने । लगती है। विजया अपने मन में सोचती है "बन्धुवर्मा ने मालवराज्य स्कन्दगुप्त को समर्पित किया है। इसलिए वह देवसेना को छोड़कर किसी और से विवाह नहीं करेगा।" ऐसा सोचकर । वह भटार्क की ओर आकृष्ट होती है।

          बन्धुवर्मा और जयमाला स्कन्दगुप्त को सिंहासन पर बिठाते है। गोविंदगुप्त महाबलाधिकृत और शर्वनाग अंतर्वेदी का विषयपति बनाया जाता है। स्कन्दगुप्त देवकी के अनुरोध पर भटार्क की क्षमा करता है। विजया भरी-सभा में घोषित करती है "मैं ने भटार्क को वरण किया है।" विद्रोही भटार्क के साथ विजया को देखकर स्कन्दगुप्त चिन्ता प्रकट करते हुए कहता है- "परन्तु विजया तुमने यह क्या किया?"

          द्वेष और प्रतिहिंसा से भरी विजया देवसेना को अपना शत्रु समझती है। वह उससे बदला लेना चाहती है। वह प्रपंचबुद्धि की सहायता माँगती है। प्रपंचबुद्धि उग्रतारा की साधना केलिए राज-बलि की ताक में था। इसलिए वह विजया से देवसेना को श्मशान में ले आने केलिए कहता है। विजया दूसरे दिन देवसेना को बातों में भुलाकर प्रपंचबुद्धि के पास ले आती है और चुपके से खिसक जाती है। जब प्रपंचबुद्धि देवसेना की बलि देना चाहता है तो स्कन्दगुप्त और हैं। मातृगुप्त वहाँ आते हैं और देवसेना की रक्षा करते हैं।

    भटार्क विजया के साथ चला जाता है। अनंतदेवी की प्रेरणा से वह पुरगुप्त की राम्राराट् बनान का षड्यंत्र रचता। वह हूण की सहायता माँगता है। इतना ही नहीं, वह बौद्ध श्रमणों की सहायता से देश में अशांति फैलाने की चेष्टा करता है।

    हूणों को भारतीय सीमा से दूर हटाने का निश्चय करके स्कन्दगुप्त अपने सभी सामंतों को निमंत्रण देता है। शकों पर विजय प्राप्त करके उसी युद्ध में गोविंदगुप्त प्राण छोड़ता है। बंधुवर्मा गांधार की घाटी में युद्ध करते-करते प्राण त्याग देता है। भटार्क कुभा प्रांत में जान-बूझकर मगध सेना को आगे बढ़ने नहीं देता ताकि वहाँ हूणों को जमा होने का अवकाश मिले। स्कन्दगुप्त वहाँ आकर सारी स्थिति को समझ लेता है। वह भटार्क से कहता है - "स्मरण रखना-कृतघ्न और नीचों की श्रेणी में तुम्हारा नाम पहले रहेगा।" भटार्क स्कंदगुप्त को विश्वास दिलाता है। किन्तु वह हूणों की सहायता करने केलिए कुभा नदी का बाँध तुड़वाता है। सेना समेत नदी को पार करते समय स्कन्दगुप्त उसमें बह जाता है।

        विजया पुरगुप्त के सम्राट बनने का स्वप्न देखती है। वह पुरगुप्त को मदिरा का पात्र भर भर कर पिलाती तथा उसका मन बहलाती रहती है। वह देखती है कि अनंतदेवी भटार्क को अपने चंगुल में रखने का प्रयत्न कर रही है। वह सब ओर से निराश होकर विक्षिप्त-सी हो जाती है। वह शर्वनाग की सलाह पर देश-सेवा करना चाहती है।

        भटार्क के मुँह से स्कन्दगुप्त की मृत्यु की खबर सुनकर देवकी अपने प्राण छोड़ बैठती है। कमला अपने बेटे भटार्क को गाली देती है तो भटार्क उससे क्षमा मांगता है - "माँ, क्षमा करो। आज मैं ने शस्त्र-त्याग किया।"

         सारा मगध साम्राज्य हूणों से पादाक्रांत हो जाता है। सारे । राज्य में अराजकता फैल जाती है। बौद्ध तथा ब्राह्मण धर्म के नाम पर संघर्ष करने लगते है। धातुसेन और उसका मित्र बौद्ध श्रमण प्रख्यातकीर्ति इन संघर्षों को शान्त करके सच्चे धर्म का प्रचार करने लगते।

          स्कन्दगुप्त कुभा नदी के प्रवाह से किसी प्रकार बचकर कमला की कुटी के पास आता है। वह देश की परिस्थिति पर दुःख प्रकट करता है - "मुझे दुःखों से भय नहीं है। परंतु आर्य साम्राज्य का नाश इन्ही आँखों से देखना था। हृदय काँप उठता है। मुझे अधिकार की आवश्यकता नहीं। गुप्त-साम्राज्य हरा भरा रहे। कोई भी इसका रक्षक हो।" कमला उसे धैर्य देती है "उठो स्कंदा आर्यावर्त तुम्हारे साथ होगा। आसुरी वृत्तियों का नाश करो.. सोने वालों को जगाओ।" कमला से अपनी माँ की मृत्यु की खबर सुनकर स्कन्दगुप्त बेहोश हो जाता है।

           देवकी की समाधि के पास स्कन्दगुप्त देवसेना को देखता है। उसे पता चलता है कि देवसेना पर्णदत्त की कुटी में रहती है। उसे मालूम होता है कि देवसेना गा-गाकर भीख माँगकर उससे प्राप्त धन से अनाथ बालकों का पालन पोषण कर रही है। वह बन्धुवर्मा की आकांक्षा प्रकट करके उससे उऋण होने का प्रस्ताव रखता है। देवसेना उसे स्वीकार न करते हुए कहती है "क्षमा हो सम्राट! उस समय आप विजया का स्वप्न देखते थे, अब प्रतिदान लेकर मैं उस महत्व को कलंकित न करूंगी। मैं आजीवन दासी बनी रहूँगी; परन्तु आपके प्राप्य में भाग न लूँगी। इस हृदय में स्कंदगुप्त को छोड़कर न तो कोई दूसरा आया, न वह जाएगा! नाथा में आ की ही हूँ, मैं ने अपने को दे दिया है. अब उसके बदले कुछ लिया नहीं चाहती।"

          विजया स्कन्दगुप्त से मिलकर अपनी इच्छा प्रकट करती है। वह उसे अपने रत्न-गृह का प्रलोभन देती है। किन्तु स्कन्दगुप्त कहता है "साम्राज्य केलिए मैं अपने को बेच नहीं सकता वह उसके काम-भाव को भड़काने का प्रयत्न करती। स्कन्दगुप्त उसे पिशाचिनी कहता है। उसी समय भटार्क भी वहाँ आ पहुँचता है। वह उसे 'दुश्चरित्रे' कहकर अपमान करता है। तब विजया अपमान न सहकर आत्म-हत्या कर लेती है।

         स्कंदगुप्त के आदेश पर भटार्क विजया के शव को गाड़ने के लिए भूमि खोदता है। वहाँ रत्न-गृह मिलता है। भटार्क उस न से सेना को संगठित करता है। स्कन्दगुप्त उस सेना से शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है। हूण सेनापति बन्दी हो जाता है। परन्तु सिन्धु नदी के इस पार न आने की प्रतिज्ञा लेकर स्कन्दगुप्त उसे छोड़ देता है। इस प्रकार वह राज्य को पुनः स्थापित करता है। पुरगुप्त को सिंहासन देता है। राज्य की रक्षा का भार भटा्क को सौपता है।

         स्कन्दगुप्त शेष जीवन एक दूसरे को देखते हुए बिताने की इच्छा देवसेना से प्रकट करता है। किन्तु देवसेना उसकी क्षमा माँगते हुए कहती है- "सब क्षणिक सुखों का अंत है। मेरे इस जीवन के देवता! और उस जीवन के प्राप्य! क्षमा। 


       " कथा के विकास की समीक्षा :

           प्रधान कार्य

            अनंतदेवी और भटार्क के कुचक्र से गुप्त-साम्राज्य की शक्ति छिन्न-भिन्न होती है। विदेशी शत्रु हूणों के अत्याचारों से जनता त्राहि-त्राहि मचाती है। देश में अशांति और अराजकता फैल जाती है। धार्मिक संघर्ष चलता है। इन आंतरिक और बाह्य उपद्रवों को शांत करके आर्य- साम्राज्य का उदार करना और उसकी नींव सुदृढ़ करना 'स्कन्दगुप्त नाटक का प्रधान कार्य है। इस कार्य को पूरा करता है नायक स्कन्दगुप्त। 

          कथा का विभाजन

            प्रसाद जा ने नाटक की सारी कथा पाँच अंकों में विभाजित की है। एक-एक अंक में कथा-विकास की एक ही अवस्था का परिचय मिलता है।

           आरम्भ

           पहले अंक में कथा का साधारण परिचय मिलता है। इसमें प्रधान कार्य की ओर संकेत है। आर्य-साम्राज्य की छिन्न-भिन्न स्थिति बतायी गयी है। पुष्यमित्रों, शकों और हुणों के युद्धों की सूचना दी गयी है। इन परिस्थितियों में राज्य की शक्ति को दृढ़ बनाने की आवश्यकता बतायी गयी है। अंतःपुर का कलह, शत्रुओं के आक्रमण, स्कन्दगुप्त की अपने अधिकारों के प्रति उदासीनता नाटक के कार्य की सिद्धि में बाधा रूप है।

          कथा का विकास : 

            दूसरे अंक में स्कंदगुप्त कार्य की सिद्धि केलिए प्रयत्न करता है। अनंतदेवी और भटार्क अपनी योजना को सफल बनाने की दिशा में आगे बढ़ते हैं इससे संघर्ष बढ़ता है; किन्तु परिणाम स्पष्ट नहीं होता। स्कंदगुप्त आंतरिक विद्रोहियों के प्रयत्नों को असफल बनाता है। किन्तु अभी वह बाहरी शत्रुओं से सामना नहीं करता। प्रथम अंक में स्कन्दगुप्त को पाठक अपने अधिकारों के प्रति उदासीन पाते हैं। दूसरे अंक में उसका मन विजया के व्यवहार से टूट जाता है। इससे पाठक उसके भावी कार्यक्रम का अनुमान नहीं लगा सकते।

          चरमसीमा

            तीसरे अंक में नायक पक्ष प्रधान कार्य को पूरा करने में सारी शक्ति लगा देता है। विरोधियों की शक्ति छिन्न-भिन्न होने लगती है। इससे नायक पक्ष की विजय की आशा उत्पन्न होती है। अंक के अन्त में स्कन्दगुप्त और उसके अनुयायियों को कुभा के जल में बहते देख आगे की कथा जानने की उत्सुकता पाठकों में उत्पन्न होती है।

            उतार :

           चौथे अंक में नायक स्कन्दगुप्त शक्तिहीन और निराश्रित-सा है। उसके साथियों का पता नहीं। हूणों की शक्ति बढ़ गयी है। किन्तु अनंतदेवी और विजया के आपस में लड़ने और भटार्क के होश में आने से पाठक यह अनुमान लगाते हैं कि यदि स्कन्दगुप्त फिर प्रयत्न करेगा तो उसे अवश्य विजय मिलेगी।

          समाप्ति :

          पाँचवें अंक में भटार्क के हटने से अंतःकलह समाप्त होता है। इससे नायक को फल की प्राप्ति होती है।


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एकांकी

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