Sunday, February 7, 2021

स्कन्दगुप्त' का नायक कौन है? एक पर विचार


             'स्कन्दगुप्त' का नायक कौन है? एक पर विचार 

            स्कन्दगुप्त' नाटक के नामकरण से विदित होता है कि नाटक का मुख्य पात्र स्कन्दगुप्त है। नाटक का आरम्भ ही स्कन्दगुप्त के स्वगत से होता है। नाटक का अन्त भी स्कन्दगुप्त और देवसेना के संवाद से होता है। नाटक की सारी कथा स्कन्दगुप्त के इदगिर्द चक्कर काटती है। अनंतदेवी और भटार्क की कथा, बन्धुवर्मा और देवसेना की कथा, शर्वनाग और रामा की कथा आदि का सम्बन्ध भी स्कन्दगुप्त से ही है। पूरे नाटक स्कन्दगुप्त में के समान कोई महत्त्वपूर्ण पात्र नहीं है। नाटक के सब पात्रों का सम्बन्ध स्कन्दगुप्त से है। 

         नायक केलिए आवश्यक गुण : 

        धनंजय के अनुसार नायक के निम्नलिखित गुण होने चाहिए - 

      नेता विनीतो मधुरस्त्यागी दक्षः प्रियंवदः

      रक्त लोक : सुचिरवाग्मी रूढ़िवंशः स्थिरो युवा। 

      बुद्ध युत्साह स्मृति प्रज्ञा कलामान् समन्वितः

       शूरो दृढ़श्च तेजस्वी शास्त्र चक्षुश्च धार्मिक: ।।

     अर्थात् नायक को ऐसा होना चाहिए-

        (1) विनीत (2) मधुर 3) त्यागी (4) दक्ष (5) प्रियंवद (6) रक्तलोक (7) वाग्मी ৪) रूढ़िवंश (9) शुचि (10) स्थिर (11) युवा (12) बुद्धिमान |13) प्रज्ञावान् (14) स्मृति संपन्न (15) उत्साही (16) कलावान |17) शास्त्र चक्षु (18) आत्मसम्मानी (19) शूर (20) दृढ़। 21) तेजस्वी और (22) धार्मिक।

     इसके अतिरिक्त उसमें शोभा, विलास, माधुर्य, स्थिरता, तेज, लालित्य और औदात्य हों।

   स्कन्दगुप्त नाटक का नायक कौन है।

      उपर्युक्त गुणें के आधार पर हमें यह देखना है कि स्कन्दगुप्त नाटक का नायक कौन है? उनमें अधिकांश गुण स्कन्दगुप्त में ही मिलते हैं।

        नाटक के आरंभ में स्कन्दगुप्त दार्शनिक तथा कल्पना लोक में विचरनेवाले युवराज के रूप में हमारे सामने आता है। साम्राज्य-लक्ष्मी केलिए उसके मन में किसी प्रकार का लोभ नहीं। वह अपने अधिकारों के प्रति उदासीन है। इस उदासीनता का कारण अंत:पुर का कलह है।

        वह बड़ा त्यागी है। उसके त्याग में उसकी दूरदर्शिता भी प्रकट होती है। वह सोचता है कि अंतःपुर के कलह से राज्य की शक्ति कमजोर हो रही है। इसलिए वह अंतःपुर के कलह को मिटाने के उद्देश्य से पुरगुप्त को सिंहासन सौंपने की बात सोचता है। इतना ही नहीं, वह विदेशी शत्रुओं को राज्य से हटाने के बाद पुरगुप्त को ही सिंहासन सौंपता है।

         स्कन्दगुप्त बड़ा वीर है। उसे अपने बाहु-बल पर विश्वास है। वह कहता है - "अकेला स्कंदगुप्त मालव की रक्षा करने केलिए सन्नद्ध है। स्कन्दगुप्त के जीते जी मालव का कुछ न बिगड़ सकेगा।

       वह बड़ा निर्भीक है। जबर्दस्त दुश्मनों के सामने भी वह कभी विचलित नहीं होता। वह हूणों को वंक्षु तट तक खदेड़ता है। वह बड़ा स्वावलंबी तथा कर्त्तव्य परायण है। वह कहता है - "भटार्क! यदि कोई साथी न मिले तो साम्राज्य के लिए नहीं, जन्मभूमि के उद्धार केलिए मैं अकेला युद्ध करूँगा।"

       वह शरणागत रक्षक है। वह शरणागत की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझता है। शकों तथा हूणों की सम्मिलित सेना से देश की रक्षा करने केलिए मालव राजा बंधुवर्मा स्कंदगुप्त की सहायता माँगता है। तब गुप्त-सेना पुष्यमित्रों से लड़ रही थी। फिर भी स्कंदगुप्त मालव की रक्षा करने केलिए तैयार हो जाता है। स्कन्दगुप्त शुद्ध कर्मयोगी है। वह विजया से कहता है "मैं कुछ नहीं हूं, उसका (विश्व नियंता का) अस्त्र हूँ परमात्मा का अमोघ अस्त्र हूँ।"

       स्कन्दगुप्त अपने अधिकारों के प्रति उदासीन रहता है, किन्तु जब पर्णदत्त और चक्रपालित राज्य की परिस्थिति बताकर उसे कर्तव्य का बोध कराते हैं तो वह तुरन्त कर्तव्योन्मुख हो जाता है। वह मालव की रक्षा में लग जाता है। वह देश के हित को ही सर्वोपरि मानता है। अंतःकलह तथा बाहरी आक्रमणों से खिन्न होने पर भी वह देश को हरा भरा देखना चाहता है। वह कहता है - "आर्य साम्राज्य का नाश इन्हीं आँखों से देखना था मेरा स्वत्य न हो, मुझे अधिकार की आवश्यकता नहीं। यह नीति और सदाचारों का आश्रय-वृक्ष गुप्त-साम्राज्य हरा-भरा रहे।"

      क्षमा स्कंदगुप्त का राजदंड है। मनुष्य से पशु बन गये शर्वनाग को, महादेवी की हत्या के कुचक्र में सम्मिलित भटार्क और प्रपंचबुद्धि को, हूण सेनापति सिंगल जैसे क्रूर शत्रु को भी छोड़ देता है।

      स्कन्दगुप्त व्यवहार-कुशल भी है। स्थिति की गहनता समझकर अनुकूल आचरण का पूरा उद्योग करता है। वह भटार्क पर अविश्वास करते हुए भी ऐसा स्पष्ट दिखाई नहीं देता।

      वह आत्माभिमानी है। वह असहाय अवस्था में भी विजया से धन लेकर देश की रक्षा नहीं करना चाहता। वह कहता है साम्राज्य केलिए मैं अपने को बेच नहीं सकता। सुख के लोभ से, मनुष्य के भय से मैं उत्कोच देकर क्रीत साम्राज्य नहीं चाहता।" 

       वह व्यक्तिगत जीवन में असफल होता है। वह पहले विजया की ओर आकृष्ट होता है। जब विजया भटार्क का वरण कर लेती है तो वह देवसेना से प्रेम करता है। अंत में वह देवसेना के सामने यह प्रस्ताव रखता है कि एक दूसरे को देखते हुए बिताये। किन्तु देवसेना उसके प्रस्ताव का तिरस्कार करती है। इस पर वह अविवाहित रहने का निश्चय करता है। जब विजया अपनी योजना को असफल पाकर स्कन्दगुप्त के सामने विवाह का प्रस्ताव रखती है तो वह उसका निरादर करते हुए कहता है- "विजया। पिशाची! हट जा, नहीं जानती, मैं ने आजीवन कौमार्यव्रत की प्रतिज्ञा की है।" इस प्रकार प्रेम के व्यवहार में असफल होते हुए भी वह अपने प्रेम में स्थिर है।

       बन्धुवर्मा के शब्दों में स्कंदगुप्त उदार, वीर हृदय, देवोपम सौंदर्य है। रामा के शब्दों में स्कंदगुप्त 'रमणियों का रक्षक, बालकों का विश्वास, वृद्धों का आश्रय और आर्यावर्त की छत्रछाया है।" इस विवेचन से स्पष्ट है कि स्कन्दगुप्त में धीरोदात्त नायक के सब लक्षण हैं। अतएव वही नाटक का नायक है।


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