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Sunday, February 14, 2021

साहित्यिक अनुवाद -3 /उपन्यास और कहानी का अनुवाद

 

                                  साहित्यिक अनुवाद -3 

                         उपन्यास और कहानी का अनुवाद

          कविता के समान और विशेषरूप से छायावादी रहस्यवादी, प्रयोगवादी और ध्वनिप्रधान कविता के समान उपन्यास और कहानी का अनुवाद उतना कठिन एवं समस्याग्रस्त नहीं है। उपन्यास और कहानी गद्यात्मकता तथा वर्णन, विवरण के साथ अनेक प्रकार के विश्लेषणों से भरे रहते हैं। उनमें प्रेम सम्बन्ध, हत्या और अपराधों के स्तरपर समस्याएं खड़ी होती हैं। उपन्यास और कहानी के स्वरूप को संक्षेप में जानकर इस दिशा में, आगे बढ़ना आसान होगा।

       उपन्यास के प्राणभूत तत्व हैं- कथा, जनजीवन एवं उद्देश्य । प्रेम, वास्तविकता और सजीचमानव (चैतन्यमय मानव) संघर्षरत मानव को भी उपन्यास में सर्वथा नयी एवं सप्राण व्याख्या मिली है। इन मूलतत्वों की विशिष्टता से अवगत हुए बिना उपन्यास को नहीं समझा जा सकता। उपन्यास में कथा आवश्यक है और चरित्र भी। क्रियाशीलता और भावमयता उपन्यास का सर्वस्व है। वास्तव में कथा में जीवन की आन्तरिक वृत्तियों का विश्लेषण ही महत्वपूर्ण है। मानव की स्थूल वृत्ति, त्वरा, लालसा और हार-जीत मान का वर्णन कथा का शंव है। कहानी में तो कथा या घटना मानव चरित्र से जुड़कर ही किसी व्यक्तित्व को धारण करती है। घटना और उद्देश्य ये दो ही कहानी के प्राणभूत तत्व हैं। शेष तत्व तो परोक्षरूप से जुड़े रहते हैं। कहानी को द्रुतगति से लक्ष्य की ओर अग्रसर होना होता है, अन्यथा वह नीरस होगी।

       अतः स्पष्ट है कि कहानी में उपन्यास की अपेक्षा भाव संक्षेपण, व्यंजना और तीव्रता अधिक होती है अतः उसका अनुवाद कठिन हो सकता है।

   उपन्यास और कहानी में अन्तर :

    उपन्यास                                      कहानी

    1. विशाल कथा                          1. एक स्फूर्त घटना

    2. चरित्रों की भीड़                       2. दो-तीन चरित्र मात्र 

    3. व्यास शैली                             3. समास शैली

    4. वर्णन, विवरण बहुलता              4.अत्यल्प वर्णन

    5. उपकथा, अन्तर्कथा, दृश्य-वर्णन   5. द्रुत लक्ष्यगामिता, सांकेतिकता

        वातावरण आदि

    6. उपन्यास एक पैसेन्जर गाड़ी है     6. कहानी एक वायुयान है।ஓ

    7. उपन्यास असीम                        7. कहानी ससीम

     जहाँ तक उपन्यास और कहानी के अनुवादक की योग्यता का प्रश्न है, उसमें अनुवाद-विधा की स्तरीय जानकारी-अनुवाद्य विषय का अच्छा ज्ञान और रुचि तथा लक्ष्यमाषा का पूर्ण ज्ञान और अनुभव आवश्यक है । मातृ भाषा लक्ष्य भाषा हो तो श्रेयस्कर होगा-अनुवाद सहज एवं सप्राण होगा। साहित्यक अनुवाद में यह सिद्धान्त सत्य मानना हितकारी है। स्त्रोत भाषा की भी स्तरीय क्षमता होनी चाहिए।

      अब हम कतिपय उपन्यासों और कहानियों के नमूने रखकर अनुवाद की सुगमता और कठिनता को समझने का यत्न करेंगे। हिन्दी उपन्यासों को मोटे रूप में प्रेमचन्दपूर्व, प्रेमचन्द कालीन एवं प्रेमचन्दोत्तर कालीन - इन तीन काल खंडों में रखा जा सकता है। आरम्भ में तिलस्म, ऐय्यारी और जासूसी पूर्ण उपन्यासों का दौर चला तो प्रेमचन्द युग में सामाजिक यथार्थ और राष्ट्रीय चेतना मनोविज्ञान और यौन लालसाओं का प्रवाह उमड़ा। नमूने के रूप में हम उक्त तीनों काल खण्डों से कुछ उदाहरण लेकर अनुवाद की दृष्टि से उन्हें देखेंगे, 'परीक्षा गुरू' 1882, आदर्श दम्पति, नए बाबू, 'डबल बीबी' 'जनुकान्ता' 'लवंगलता' आदि उपन्यास वर्णन और विवरण मूलक भाषा का प्रयोग हुआ है। अतः इनके अनुवाद में कठिनाई नहीं होनी चाहिए। हाँ, जहाँ रहस्य-रोमांच है, वहाँ कुछ समस्या उठ सकती है। बस ध्यान यह रहे कि अनुवाद न भावार्थपरक या सूत्रात्मक हो और न भाष्यात्मक। बस अर्थ, भाव मूल जैसे ही हों, केवल भाषान्तरण हो ।

    प्रेमचन्दयुग वस्तुतः 'गोदान' (1936) से 1960 के आसपास तक किसी न किसी प्रकार चलता रहा। यहाँ हम 'गोदान' 'झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई' 'रंगभूमि' और 'दिव्या' उपन्यासों' को नमूने के रूप में देखें

     रंगभूमि' से सूर का कथन

      "तुम जीते, मैं हारा, यह बाज़ी तुम्हारे हाथ रही। मुझसे खेलते नहीं बना। तुम मंजे हुए खिलाड़ी हो। दम नहीं उखड़ता। खिलाड़ियो मिलाकर खेलते हो और तुम्हारा उत्साह भी लूच है। हमारा दम उखड़ जाता है, हाँफने लगते हैं और खिलाड़ियों को मिलाकर भी तहीं खेलते। आपस में झगड़ते हैं गाली गलौज मारपीट करते हैं। कोई किसी की नहीं मानता। - फिर खेलेंगे, जरा दम लेने दो। एक न एक दिन हमारी जीत होगी।"

        इस गद्यांश में जो ग्रामीण सहजता में निजी दुर्बलता, व्यनहारहीनता और अपराजेयता व्यंजित है, वह ध्याता है; केवल सामान्य अर्थ नहीं। इस भीतरी स्थिति का अनुवाद कैसे होगा? हाँ, ग्रामीण वातावरण से सब परिचित व्यक्ति से यह संभव है।

      "झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई" से ---

      "महल की चौखट पर बैठकर वह रोई, लक्ष्मीबाई रोई। वह जिसकी आँखा ने आँसुओं से कभी परिचय भी न किया था। वह जिसका वक्षस्थल बज़ का और हाथ पैर फौलाद के थे। वह जिसके कोश में निराशा का शब्द न था। वह जो भारतीय नारीत्व का गौरव और शान थी। यानी उस दिन हिन्दुओं की दुर्गा रोई।"

      ये पंक्तियाँ उपन्यास की महाप्राण पंक्तियाँ हैं। इनका व्यावहारिक - कामचलाड अनुवाद तो हो ही सकता है, परन्तु मूल लेखक की व्यक्तित्वमयी भाषा-शैली और आधी व्यंजना तो अनुवाद की सीमा में अटेंगी नहीं, वह तो अननुकरणीय ही रहेगा।

     फिर भी नारी की सूक्ष्म भावनाओं को समझनेवाले इरका अनुवाद जरूर बखूबी कर सकता है।

      यशपाल-कृत "दिव्या" से उद्धृत नारी जीवन की नारकीय विवशता की विस्फोटक इन पंक्तियों का अनुवाद तो हो सकता है-पर स्थूल अर्थमूलक ही :-

     "आचार्य, कुलबधू का आसन, कुलमाता का आसन, कुलदेवा का आसन दुर्लभ सम्मान है; परन्तु आचार्य, कुलमाता और कुलमहादेवी निराहत वेश्या की भाँति स्वतन्त्र और आत्मनिर्भर नहीं हैं। यह सम्मान पुरुष को प्रश्रय मात्र है। वह नाही का सम्मान नहीं, उसे भोगने वाले पराक्रमी पुरुष का सम्मान है। आर्य, अपने स्वत्व का त्याग करके ही नारी यह सम्मान प्राप्त कर सकती है।"

      यहाँ "एक नहीं दो-दो मात्राएँ नर से भारी नारी" वाली बात प्रकट हुई। इसे समझकर अनुवाद करें तो वह सफल होगा। 

    "बूँद और समुद्र" अमृतलाल नागर के मन की तपन का अनुपम विश्लेषण है। सम्पूर्ण मानवता के ऐक्य की झलक है। ये पंक्तियाँ मनुष्य का आत्मविश्वास जागना चाहिए। दूसरे के सुख-दुख को अपना समझना चाहिए, जैसे बूंद से बूँद जुड़ी रहती है - लहरों से लहरें। लहरों से समुद्र बनता है " इस तरह बूंद में समुद्र समाया है।

     इसी प्रकार अपराध मनोविज्ञान, आदर्श मनोविज्ञान और रतिमूलक मनोविज्ञान के उपन्यासों का अनुवाद अपेक्षाकृत रूप से अधिक कठिन होगा। "सन्यासी", "सुनीता", "परख", और "शेखर एक जीवनी" इसी प्रकार उपन्यास हैं। "नदी के दीप", "वेदिन", और "दूसरी बार" आदि भी-ऐसे मन जटिलता से बुने हुए उपन्यास है। इनका अनुवाद निरापद नहीं होगा। इनमें प्रायः कहा कम गया है और व्यंजित अधिक किया गया है। सैकड़ों उदाहरण हैं - 

      जहाँ तक कहानी प्रश्न है, उसके भाषान्तरण होगा। कहानी में तो गागर में सागर भरना होता है। कहानी में संक्षिप्तता और विस्तार, यथार्थ और आदर्श तथा स्पष्टता और संश्लिष्टता का एक साथ निर्वाह होता है । तीव्र गति उसका प्रमुख गुण है। पाठक को बाँध रखना भी।

       आज की कहानी में कथा नहीं सोद्देश्यता, उत्सुकता नहीं सहजता, घटना नहीं चरित्र, नाटकीय अन्त नहीं-अधूरा और सहज अन्त, भावुकता नहीं जीवन की और मनोरंजन नहीं मनोभंजन (जागारण) प्रधान है। बहुमुखी मोहभंग उसकी कसौटी है।

      हिन्दी में गुलेरी की - 'उसने कहा था', प्रेमचंद की 'पूस की रात', 'कफन', ईदगाह' और 'शतरंज के खिलाड़ी' रांगेय राघव की गदल, भीष्म साहनी की 'चीफ की दावत', अमरकान्त की 'जिन्दगी और जोंक', प्रसाद की 'मधुआ', कौशिक की 'ताई' जैनन्द्रकुमार की-'एक गौ', अज्ञेय की 'शरणदाता', मोहन राकेश की-'आद्दार', उषा प्रियम्वदा की- 'वापसी', और विष्णु प्रभाकर की - 'आपरेशन' कहानियाँ जीवन के स्थायी सत्य के साथ सामयिक बदलाव भी अपने में संजोए हुए हैं। इनका सफल अनुवाद भारतीय जीवन में भावात्मक एकता का संचार अवश्य ही करेगा। ये कहानियाँ बहुत उच्च स्तर की हैं। 

     अनुबाद को ध्यान में रखाकर कुछ नमूने उद्धृत -

    कहानी-'उसने कहा था -"तेरी कुडमाई हो गई? घाट कल हो गई, देखते नहीं रेशमी बूटों वाला सालू ।"

    कहानी ईदगाह - "बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआएं देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता ?

    कहानी- ताई - "रामेश्वरी चीख मारकर छने पर गिर पड़ी।"

    कहानी- "शरण दाता" "उन्होंने चिट्ठी भी एक छोटी सी गोली बनाकर चुटकी से उड़ा दी।"

    कहानी-"वापसी" अरे नरेन्द्र, बाबू जी की चारपाई कमरे से निकाल दे। उसमें चलने तक को जगह नहीं है।"

     उक्त सभी उद्धरणों में सम्पूर्ण कहानी का निचोड़ व्यंजित है। एक अत्यन्त योग्य अनुवादक ही इनके अनुवाद में सफल हो सकता है। आज अनुवाद विधा को और अधिक सहज तथा वैज्ञानिक बनाने की ज़रूरत है। राष्ट्रभाषा पर भी समुचित ध्यान देना होगा। साहित्य अकाडमी ने इस वर्ष जो अनुवाद-पुरस्कार दिये हैं वे सभी-अनुवाद अनुवादक की मातृभाषा में अनुदित हुए हैं यह उनकी सफलता का एक बड़ा कारण है

    उपन्यास और कहानी के समान गद्य की अनेक नवीन विधाएं-डायरी लेखन, रिपोर्ताज, संस्मरण, रेखाचित्र, इन्टरव्यू आदि भी बहुत महत्वपूर्ण हैं इनके अनुवाद की भी व्यवस्था होना अत्यावश्यक है। यह युग आदान-प्रदान का है और यह अनुवाद द्वारा ही संभव है।



Monday, January 25, 2021

प्रमुख वाद

 

                                                   प्रमुख वाद

  छायावाद/रहस्यवाद/हालावाद/प्रगतिवाद/प्रयोगवाद किसे कहते हैं? लक्षण बताइये:


     छायावाद:

              युग की उद्बुद्ध चेतना ने बाह्य अभिव्यक्ति से निराश होकर जो आत्मबद्ध अन्तर्मुखी साधना आरम्भ की वही काव्य में छायावाद कहा जाता है। कवि प्रकृति के साथ अपनापन जोड लेता है और अपनी मानसिक दशा का सहभागी बना लेता है अपनी अनुभुतियों की छाया जब वह बाह्य जगत में देखने लगता है, तब छायावादी कविता का जन्म होता है। छायावाद की प्रथमविशेषता है प्रेम-अनुभूति या श्रृंगारिकता। छायावाद में प्रकृति-रूप विश्वसुन्दरी का विशेष महत्व आंका गया है। कवियों ने प्रकृति के साथ अपनी आत्मा के तादात्म्य का अनुभव किया है। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा ये छायावाद के चार प्रमुख स्तंभ कहे जाते हैं।


     रहस्यवाद:

            आत्मा और परमात्मा के संबंध में रचित काव्य को रहस्यवाद कहते हैं। समस्त संसार का संचालन करनेवाले सत्ता को ब्रह्म या परमात्मा भी कहा जा सकता है। इस अदृश्य सत्ता को खोजने और उससे मिलने के लिए साधक बेचैन हो उठे। पर इस दशा में विरह की व्याकुलता का वर्णन अनेक साधकों ने बडे मर्म स्पर्शी शब्दों में किया है। रहस्यवादी कवियों में जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।


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       हालावाद:

            छायावादी युग के अन्तिम चरण में हिन्दी साहित्य में एक ऐसी मादक भावना की हिलोर थी जिसने कुछ समय के लिए सम्पूर्ण हिन्दी जगत को मन्त्रमुग्ध सा कर लिया था। यह हिलोर "हालावाद" के नाम से प्रसिद्ध हुई। हरिवंशराय बच्चन इसके प्रवर्तक और कवि माने जाते हैं। हालावाद से प्रभावित होकर अनेक नवयुवक कवि इस ओर झुके और ऐसे ही मादक साहित्य का निर्माण करने लगे। हालावाद के कवियों में हरिवंशराय बच्चन पद्मकांत मालवीय, हृदयनारायण पांडेय, हृदयेश, "नवीन" आदि इसके समर्थक कवि थे। हालावाद तूफान की तरह आया और 1933 से लेकर 1936 तक केवल चार वर्ष जीवित रह उसी गति से विलीन हो गया।

      प्रगतिवाद:

              प्रगतिवादी साहित्य वह साहित्य है जो साम्यवादी भावनाओं से प्रेरित होकर लिखा गया है प्रगतिवादी साहित्य साम्यवादी भावनाओं से अनुप्राणित रहता है। प्रगतिवादी को प्राचीन संस्कृति का विरोधी कहा जाता है प्रगतिवाद ने साहित्य की दिशा ही मोड दी है। सूक्ष्म के प्रति स्थूल की प्रतिक्रिया ने प्रगतिवाद को जन्म दिया। प्रगतिवादी कवियों की दृष्टि मानव के बाहरी जीवन पर गयी। उनकी आस्ता मानव के सामूहिक जीवन में है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर प्रगतिवाद के सर्वप्रमुख कवि माने जाते हैं। प्रगतिवादी काव्य धारा का सूत्रपात करनेवाले कविद्वय पंत और निराला हैं। उदा:- निराला - वह तोडती पत्थर, बच्चन - बंगाल का काल और पंत - ग्राम्या।

      प्रयोगवाद:

              व्यापक सामाजिक सत्यों की अनुभूति और अभिव्यक्ति जिन कविताओं में हैं उन्हें प्रयोगवादी कविता कहते हैं। प्रयोगवादी कविता में भावना है और बुद्धि-प्रधान हैं। प्रयोग का व्यापक अर्थ बड़ा उपयोगी है। प्रयोगवाद उन कविताओं के लिए रूढ हो गया है जो कुछ नये बोधों, संवेदनाओं तथा उन्हें प्रेषित करनेवाले शिल्पगत चमत्कारों को लेकर शुरू-शुरू में "तार सप्तक" के माध्यम से सन् 1943 में प्रकाशन जगत में आयीं। प्रयोगवादी कविता मध्यवर्गीय समाज के जीवन का चित्र है। इस वाद के प्रमुख प्रवर्तक "अज्ञेय", गजानन मुक्तिबोध, नेमिचन्द, भारत भूषण, प्रभाकर माचवे, गिरिजाकुमार माथुर, डॉ. रामविलास शर्मा, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती, भवानी प्रसाद, नर्मता प्रसाद खरे आदि।

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