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Tuesday, January 9, 2024

चौदहवाँ अध्याय / समास

 

                चौदहवाँ अध्याय

                                  समास

      परस्पर सम्बन्ध रखने वाले दो या दो से अधिक शब्द मिल कर जब एक स्वतन्त्र शब्द बनाते हैं तो इस मेल को समास कहा जाता है और इस प्रकार मिले शब्दों को समस्त अथवा सामासिक शब्द कहते हैं। समस्त शब्दों के बीच के विभक्ति-प्रत्ययों का और सम्बन्ध बताने वाले शब्दों का लोप हो जाता है। जैसे- धन का मद = धनमद । घोड़े का सवार = घुड़सवार । काठ की पुतली = कठपुतली । चन्द्र सा मुख = चन्द्रमुख ।

     समास होने पर कई शब्दों में कुछ विकार भी हो जाता है। जैसे-घुड़सवार में 'घोड़े' का 'घुड़' और कठपुतली में 'काठ' का 'कठ' हो गया है।

       उपसर्गों और प्रत्ययों के योग से जो नये शब्द बनते हैं उनमें शब्द और शब्दांश का मेल होता है, परन्तु समास में दो शब्दों के परस्पर मेल से नये शब्द बनते हैं। समस्त शब्द जिन शब्दों के मेल से बनता है, वे शब्द उसके खण्ड कहलाते हैं। समस्त शब्द के खंडों को अलग-अलग अपनी विभक्तियों के रूप में रख कर उनके आपस के सम्बन्ध को स्पष्ट करने की रीति को विग्रह कहते हैं। जैसे- 'रात-दिन' समस्त शब्द का विग्रह है 'रात और दिन'।

      समास में जब शब्द जुड़ते हैं तो उसमें सन्धि के नियमों का प्रयोग होता है। जैसे-पत्र का उत्तर = पत्र + उत्तर = पत्रोत्तर । सन्धि केवल संस्कृत के शब्दों में होती है।

      किसी समास में पहला खण्ड प्रधान होता है और किसी में दूसरा, किसी में कोई भी खण्ड प्रधान नहीं होता और किसी में दोनों खण्ड प्रधान होते हैं। इस प्रकार समासों के मुख्य चार भेद हैं। जिनमें पहला खण्ड प्रधान होता है उसे अव्ययीभाव कहते हैं; जिसमें दूसरा खण्ड प्रधान होता है; उसे तत्पुरुष कहते हैं; जिसमें दोनों ही खण्ड प्रधान होते हैं उसे द्वन्द्व कहते हैं और जिसमें कोई भी खण्ड प्रधान नहीं होता उसे बहुब्रीहि कहते हैं। तत्पुरुष समास का एक और उपभेद कर्मधारय तथा कर्मधारय का उपभेद द्विगु है। कई लोग उन्हें स्वतन्त्र समास कह कर समास के छह भेद करते हैं-अव्ययीभाव, तत्पुरुष, कर्मधारय, द्विगु, द्वन्द्व और बहुव्रीहि ।

       1. अव्ययीभाव

       जिस समास में पहला खण्ड-जो प्राय: अव्यय होता है-प्रधान हो उसे अव्ययीभाव समास कहते हैं। अव्ययीभाव समास का समस्त शब्द भी अव्यय ही होता है और वाक्य में क्रिया की विशेषता का प्रतिपादन करता है। जैसे- यथाशक्ति (शक्ति के अनुसार), बेखटके (खटके के बिना); भरपेट इत्यादि ।

     अव्ययीभाव का अर्थ है अव्यय हो जाना। यही कारण है कि हिन्दी के वैयाकरणों ने हाथोंहाथ रोज-रोज इत्यादि शब्दों में भी अव्ययीभाव समास माना है। यद्यपि इनमें संज्ञाओं की द्विरुक्ति ही हुई है। द्विरुक्ति में 'मात्राओं' और 'ही' का आगमन भी कभी-कभी होता है। जैसे-एकएक, मन ही मन । संज्ञाओं के समान अव्ययों की द्विरुक्ति से भी अव्ययीभाव समास होता है। जैसे-बीचोबीच, धड़ाधड़ ।

          2. तत्पुरुष

       जिस समास में दूसरा पद प्रधान हो उसे तत्पुरुष समास कहते हैं। तत्पुरुष समास के दो भेद हैं- (1) व्याधिकरण तत्पुरुष अर्थात् जिसमें समस्त पद का विग्रह करने पर पहले खण्ड और दूसरे खण्ड में भिन्न-भिन्न विभक्तियाँ लगायी जायें, जैसे-'राज-सभा' = राजा की सभा । इसमें पहले खण्ड में सम्बन्ध कारक की विभक्ति है और दूसरे में कर्त्ता कारक की विभक्ति है। (2) समानाधिकरण तत्पुरुष अर्थात् जिसमें समस्त पद का विग्रह करने पर दोनों खण्डों में एक कर्त्ता कारक ही की विभक्ति रहे; जैसे-चन्द्रमुख = चन्द्रमा सा मुख। इसमें दोनों पदों में एक ही विभक्ति है।


(क) व्याधिकरण तत्पुरुष

        इस समास के पूर्व पद में जिस कारक की विभक्ति का लोप होता है उसी कारक के अनुसार इस समास का नाम होता है; जैसे-

कर्म तत्पुरुष - स्वर्ग-प्राप्त (स्वर्ग को प्राप्त), गिरहकट।

करण तत्पुरुष - अकालपीड़ित (अकाल से पीड़ित), तुलसीकृत तुलसी द्वारा कृत (बनाई हुई), मनमाना (मन से माना हुआ), मदमस्त ।

संप्रदान तत्पुरुष - रसोईघर (रसोई के लिए घर), हवन-सामग्री (हवन के लिए सामग्री), राहखर्च (राह के लिए खर्च), 'हथकड़ी', 'पाठशाला', 'कृष्णार्पण'।

अपादान तत्पुरुष - धर्मभ्रष्ट (धर्म से गिरा हुआ), 'देश निकाला' 'पदच्युत', 'ऋणमुक्त'।

अधिकरण तत्पुरुष - देशोद्धार (देश का उद्धार), घुड़दौड़ (घोड़े की दौड़), 'ठाकुरद्वारा', 'लखपति'।

अधिकरण तत्पुरुष - बनवास' (वन में वास)' आपबीती (अपने आप पर बीती) 'आनन्दमग्न', 'कानाफूसी'।

      कभी-कभी तत्पुरुष समास में पहले शब्द की विभक्ति का लोप नहीं होता। तब उस समास को अलुक् तत्पुरुष कहते हैं, जैसे-युधिष्ठिर (युधि + स्थिर) युद्ध में स्थिर रहने वाला, मानसिज (मनसि + ज) 'मन में पैदा होने वाला' खेचर (खे + चर) आकाश में विचरने वाला।

      अभाव या निषेध के अर्थ हैं 'आ' या 'अन्' लगाने से बनने वाले तत्पुरुष को नञ् तत्पुरुष कहते हैं। जैसे अन्याय (जो न्याय न हो) अनपढ़ (न पढ़ा हुआ) अछूता (न छुआ हुआ) ।

       तत्पुरुष समास का दूसरा पद जब ऐसा कृदन्त होता है जिसका स्वतन्त्र उपयोग नहीं हो सकता तब उस समास को उप पद समास कहते हैं। जैसे कृतज्ञ (किये को जानने वाला) ।

(ख) समानाधिकरण तत्पुरुष या कर्मधारय

     जिस तत्पुरुष समास के विग्रह में दोनों पदों के बाद एक ही-कर्त्ता कारक की-विभक्ति आती है उसे समानाधिकरण तत्पुरुष अथवा कर्मधारय कहते हैं। इस समास के पद उपमान-उपमेय अथवा विशेषण-विशेष्य हैं। जैसे-नील- कमल = नीला कमल, यहाँ नीला विशेषण और कमल विशेष्य है तथा उत्तर पद कमल प्रधान है।

   (उपमान-उपमेय) घनश्याम = घन (बादल) जैसा श्याम (काला) । भव- सागर = भवरूपी सागर । विद्याधन = विद्या रूपी धन । क्रोधाग्नि = क्रोध रूपी अग्नि । आशानदी = आशा रूपी नदी । 

    (विशेषण-विशेष्य) महाराज (महान् राजा) पुच्छलतारा (पूँछ वाला तारा), 'नीलगाय', 'कालीमिर्च' ।

    कर्मधारय समास में कभी-कभी विशेषण या उपमान अन्त में भी रख दिये जाते हैं, अथवा कहीं-कहीं दोनों पद विशेषण होते हैं। जैसे (विशेषण अन्त में) देशान्तर, (उपमान अन्त में) 'चरणकमल' पाणिपल्लव, (दोनों पद विशेषण) 'नील-पति', 'खटा-मिट्टा'।

     कर्मधारय में कभी-कभी सम्बन्ध बताने वाले बीच के पद का लोप भी होता है। जिस 'कर्मधारय' समास में पहले शब्द का दूसरे से सम्बन्ध बताने वाले बीच के पद का लोप हो जाता है उसे 'मध्यमपदलोपी' समास कहते हैं। जैसे-फलान्न (फल मिश्रित अन्न), दहीबड़ा (दही में डूबा हुआ बड़ा) । इसी प्रकार 'गुड़म्बा', 'गुड़धानी' आदि ।

                       ( ग ) द्विगु

        जिस कर्मधारय समास में पहला शब्द संज्ञावाचक विशेषण हो और जिससे किसी समुदाय का बोध हो उसे द्विगु समास कहते हैं। इसमें पहला शब्द संख्यावाचक विशेषण होता है अत: इसे संख्यावाचक कर्मधारय भी कहा जाता है।

जैसे त्रिभुवन (तीन भुवनों का समूह) चौमासा (चार मासों का समूह) 'सतसई' 'दोपहर', 'पंसेरी', 'पंचक्रोसी', 'सप्तपदी' आदि ।

Praveshika/17.समास/हिन्दी व्याकरण प्रवेशिका-1 /Grammar


                 3. द्वन्द्व

       जिस समास में सब खण्ड प्रधान होते हैं और विग्रह करने पर जिसमें 'और', 'या', 'अथवा' आदि योजक लगते हैं उसे द्वन्द्व समास कहते हैं। जैसे- धर्माधर्म - धर्म और अधर्म, पापपुण्य = पाप अथवा पुण्य, भला-बुरा = भला और बुरा। ऐसे ही 'ऋषि-मुनि', 'दाल-रोटी', 'हाथ-पाँव', 'तन-मन', 'भूल-चूक' आदि द्वन्द्व समास के उदाहरण हैं।

        द्वन्द्व समास से बने समस्त शब्दों का लिंग साधारणतया अन्तिम खण्ड के अनुसार होता है, पर यदि पूर्वखण्ड प्रधान या श्रेष्ठ का वाचक हो तो उसी के अनुसार लिंग हो जाता है जैसे-दाल रोटी खाई, दालभात खाया, राजा-रानी आये।

      द्वन्द्व समास में एक से अधिक शब्द जुड़ते हैं अतः इसका प्रयोग बहुवचन में होना चाहिए, पर हिन्दी में कुछ समस्त पद ऐसे हैं जो सदा एकवचन में ही प्रयुक्त होते हैं और कुछ ऐसे हैं जो बहुवचन में। जैसे- (एकवचन) दालरोटी खाई होने पर (बहुवचन), माता-पिता आये, राम-लक्ष्मण कहते थे। परन्तु विभक्ति परे होने पर बहुवचन का चिह्न 'ओ' नहीं लगता है। जैसे-राम लक्ष्मण (राम-लक्ष्मण नहीं) ने वन की ओर प्रस्थान किया। परन्तु जब समस्त होने वाले शब्द बहुत व्यक्तियों या पदार्थों के लिए आये हों तब विभक्ति परे होने पर बहुवचन के चिह्न 'ओ', 'ऐ' आदि लगते हैं, जैसे-धनीमानियों ने, सेठसाहूकारों ने। कभी-कभी तो बहुवचन-सूचक विकार प्रत्येक खण्ड के साथ भी पाया जाता हैं, जैसे - आपके कितने लड़के-लड़कियाँ हैं।

              4. बहुब्रीहि

        जिस समास में कोई भी शब्द प्रधान नहीं होता बल्कि समस्त शब्द अपने खण्डों से भिन्न किसी संज्ञा का विशेषण होता है उसे बहुब्रीहि समास कहते हैं जैसे-दशकन्धर = दश हैं कन्धर (सर) जिसके, यह रावण का विशेषण है। अनन्त = नहीं है अन्त जिसका, ईश्वर का विशेषण है। अनंग = नहीं है अंग जिसके कामदेव का नाम है। बारहसिंगा = बारह हैं सींग जिसके । पंजाब = पंज +

     आब, पाँच हैं आब (नदियाँ) जिसमें । मिठबोला = मीठा है बोल जिसका । दोरंग = दो रंगों वाला।

         कर्मधारय और बहुब्रीहि समास में यह अन्तर है कि कर्मधारय में समस्त शब्द का पहला खण्ड दूसरे खण्ड का विशेषण होता है पर बहुब्रीहि समास में सारा समस्त शब्द अपने खण्डों से भिन्न किसी अन्य शब्द का विशेषण होता है। कई समस्त शब्द अर्थ-भेद से विभिन्न प्रकार के समास हैं। जैसे-

मृगलोचन-मृग के लोचन (सम्बन्ध तत्पुरुष)।

मृगलोचन-मृग के समान लोचन वाला (बहुब्रीहि)।

पीताम्बर-पीला कपड़ा (कर्मधारय) ।

पीताम्बर-पीला है अम्बर (कपड़ा) जिसका वह व्यक्ति (कृष्ण) (बहुब्रीहि)।

        कई बार एक समस्त शब्द में कई समास होते हैं परन्तु सम्पूर्ण शब्द के अन्त का समास मुख्य माना जाता है। जैसे-राकेन्दुबिम्बानन, यह पद राका + इन्दु + बिंब + आनन, इन चार शब्दों के योग से बना है। राका का इन्दु = राकेन्दु (पूर्णिमा का चन्द्र), राकेन्दु का बिम्ब = राकेन्दु बिम्ब, राकेन्दु बिम्ब के समान जिसका आनन (मुख) वह स्त्री राकेन्दुबिम्बानना होगी। इस प्रकार सम्पूर्ण शब्द में बहुब्रीहि समास है।

इस प्रकार के लम्बे समासों का प्रयोग प्राय: संस्कृत में ही होता है।


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तेरहवाँ अध्याय / शब्दों की व्युत्पत्ति

 

                तेरहवाँ अध्याय 

               शब्दों की व्युत्पत्ति

      पिछले अध्यायों में शब्दों के भेदों तथा उनके रूपान्तर का वर्णन किया गया है। अब आगे यह बताया जायेगा कि संज्ञा आदि शब्दों के पारस्परिक मेल से अथवा उनके साथ अन्य प्रत्ययों का मेल होने से किस तरह नये शब्द बनते हैं। इस प्रकार शब्द बनाने को शब्द रचना कहते हैं। नये शब्द के मूल अर्थात् प्रकृति और प्रत्यय बनाने को व्युत्पत्ति कहते हैं।

      शब्दों के वर्गीकरण में बताया जा चुका है कि यौगिक तथा योगरूढ़ि शब्द किसी शब्द और शब्दांग के योग से अथवा दो शब्दों के योग से बनते हैं। इस तरह इन शब्दों की उत्पत्ति तीन तरह से कही जा सकती है-

1. शब्द के पूर्व शब्दांश के लगने से, 

2. शब्द के पीछे शब्दांश के लगने से, 

3. दो शब्दों के मेल से।

       शब्द के पूर्व जो शब्दांश लगते हैं वे उपसर्ग (Prefixes) कहलाते हैं। शब्द के पीछे जो शब्दांश लगते हैं वे प्रत्यय (Suffixes) कहलाते हैं। जब दो या दो से अधिक शब्द मिलकर एक स्वतन्त्र शब्द बनता है तो इस मेल को 'समास' कहा जाता है। सारांश यह है कि नये शब्द उपसर्ग या प्रत्यय लगाने से अथवा समास द्वारा बनते हैं।

                         1. उपसर्ग

       उपसर्ग वे शब्दांश हैं जो किसी शब्द के आदि में आकर उसके अर्थ में विशेषता उत्पन्न कर देते हैं या उसके अर्थ को सर्वथा बदल देते हैं। जैसे-तो 'पराजय' का अर्थ होगा 'हार', जो मूल शब्द के अर्थ के सर्वथा विपरीत है। इसी तरह 'बल' शब्द के पहले 'प्र' उपसर्ग लगा दें तो 'प्रबल' का अर्थ हो जाता है अधिक बल वाला, पर यदि 'प्र' की जगह 'निर' उपसर्ग लगा दिया जाये तो 'निर्बल' शब्द का अर्थ हो जाता है बलरहित (कमजोर)।

       हिन्दी में जो उपसर्ग युक्त शब्द मिलते हैं, वे प्राय: संस्कृत के तत्सम शब्द हैं। शेष में भी जो उपसर्ग लगे हैं, वे प्राय: संस्कृत उपसर्गों के अपभ्रंश ही हैं। ठेठ हिन्दी का तो एक-आध ही उपसर्ग है। अत: पहले संस्कृत में उपसर्ग उनके अर्थ तथा उदाहरण दिये जाते हैं।

                        (क) संस्कृत के उपसर्ग

अति-अधिक - अतिदिन, अतिरिक्त । 
अधि ऊपर, श्रेष्ठ-अधिकार, अध्यक्ष, अधिपति । 
अनु-पीछे, समान-अनुज, अनुचर, अनुरूप। 
अप-बुरा, विरुद्ध - अपमान, अपकर्ष, अपशब्द । 
अभि और, समान इच्छा-अभिमुख, अभ्यागत, अभिप्राय । 
अव-नीचे, हीन-अवगुण, अवतार, अवनति । 
आ-तक, समेत, उलटा-आजीवन, आकर्षण, आगमन । 
उत्=ऊपर, श्रेष्ठ-उत्पत्ति, उत्कर्ष, उत्तम। परन्तु उत्क्रान्ति का अर्थ है मृत्यु। उप-समीप, गौण-उपकूल, उपवन, उपनाम, उपमन्त्री। 
दुस् बुर्-बुरा, कठिन-दुराचार, दुर्ग, दुस्तर, दुष्कर। 
निस्-नीचे, बहुत-निपात, निरोध, निधान। 
निस् निर्-निषेध - निश्चय, निरपराध, निर्गुण, निर्बल । 
परा-पीछे, उलटा-पराजय, पराभव । 
परि-आस-पास, सब तरफ, पूर्ण-परिजन, परिक्रमा, परितोष । 
प्र=अधिक, ऊपर-प्रचार, प्रबल, प्रभाव।
प्रति-विरुद्ध, सामने, हर एक-प्रतिकूल, प्रत्यक्ष, प्रतिदिन।
वि-भिन्न-विशेष, विदेश, विख्यात, विज्ञान ।
सम,- अच्छा, साथ, पूर्ण-संस्कार, संगम, सन्तोष, सम्मति ।
सु-अच्छा, सहज-सुपुत्र, सुकर्श, सुगम।
कभी-कभी एक शब्द के साथ दो तीन उपसर्ग आते हैं। जैसे-निराकरण (निर्+आ+करण), समालोचना (सम्+आ+लोचना), प्रत्युपकार (प्रति+उप+कार)।
       इसके अतिरिक्त संस्कृत के कुछ विशेषण और अव्यय भी उपसर्गों की तरह प्रयुक्त होते हैं, जैसे-

    अ-अभाव, निषेध-अधर्म, अज्ञान, अनीति। स्वरादि शब्दों से पहले 'अ' का 'अन्' हो जाता है; जैसे- अनेक, अनन्त ।

अधस्-नीचे-अध:पतन, अधोगति ।
अन्तर्-भीतर - अन्त:पुर, अन्तःकरण, अन्तर्गत।
कु (क)-बुरा-कुकर्म, कुपुत्र, कापुरुष ।
न-अभाव-नास्तिक, नपुसंक।
पुर:-सामने-पुरोहित, पुरस्कार, पुरावृत्त ।
पुरा-पहले-पुरातन, पुरातत्व, पुरावृत्त ।
पुनर्-फिर-पुनर्जन्म, पुनरुक्त, पुनर्विवाह ।
बहिर् बाहर-बहिष्कार, बहिद्वारे, बहिर्गमन।
स-सहित-सजीव, सफल, सगोत्र।
सत्-अच्छा-सज्जन, सत्पात्र ।
सह-साथ-सहचर, सहोदर, सहपाठी ।

(ख) हिन्दी के उपसर्ग

अ; अन-अभाव, अजान, अचेत, अबेर ।
(हिन्दी में 'अन' व्यंजन के पूर्व भी आता है- अनमोल, अनगिनत ) ।
अध (सं० अर्ध)-आधा-अधकचरा, अधपका।
औ (सं० अब)-हीन, नीच-औगुण, औतार, औघट।
उन (सं० ऊन)-कम, थोड़ा-उन्नीस, उनसठ । 
दु (सं० दुर्) -बुरा-दुबला । 
दु० (सं० द्वि)-दो-दुधारी, दुमुँहा, दुगुना। 
नि (सं० निर)-रहित-निकम्मा, निडर। 
भरपेट, भरपूर, भरसक । 
सुडोल, सुजान, सपूत। 
कु, क-कुचाली, कुटीर, कपूत।


(ग) उर्दू के उपसर्ग

कम-थोड़ा-कमजोर, कमसमझ, कमदाम,
खुश-अच्छा-खुशकिस्मत, खुशबू ।
गैर-भिन्न-गैरमुल्क, गैरहाजिर ।
दर-में-दरअसल, दरहकीकत ।
ना=अभाव, नापसन्द, नालायक।
ब-ओर, में, अनुसार-बदस्तूर, बदनाम ।
बद बुरा-बदबू, बदनाम ।
बा=अनुसार, सहित -बाजाप्ता, बातमीज, बाकायदा।
बिला=बिना-बिलाकसूर, बिलाशक।
बे-बिना -बेचारा, बेईमान, बेरहम ।
(वह उपसर्ग हिन्दी शब्दों के साथ भी लगता है-बेचैन, बेजोड़)
ला=बिना - लाचार, लावारिस ।
सर-मुख्य-सरदार, सरपंच ।
हम साथी, बराबर-हमदर्द, हमउम्र ।
हर=प्रति-हरएक, हररोज, हरघड़ी।


                            2. प्रत्यय

       प्रत्यय शब्दों के अन्त में जोड़े जाते हैं। कारक प्रत्यय, क्रिया प्रत्यय और स्त्री-प्रत्यय आदि कुछ प्रत्ययों का वर्णन पिछले अध्यायों में आ चुका है, उनके अतिरिक्त दो प्रकार के प्रत्यय और हैं-कृत् प्रत्यय और तद्धित प्रत्यय।

       धातुओं के अन्त में जिन प्रत्ययों के लगने से क्रिया को छोड़ कर अन्य शब्द बनें उन्हें कृत्प्रत्यय कहते हैं। वे शब्द जो कृत्प्रत्यय जोड़ने से बनते हैं; दन्त कहलाते हैं। जैसे-करने+वाला=करनेवाला।

       धातुओं को छोड़ शेष शब्दों के अन्त में जिन प्रत्ययों के लगने से अन्य शब्द बनते हैं उन्हें तद्धित प्रत्यय कहते हैं। जो शब्द इस प्रकार बनते हैं उन्हें तद्धितान्त कहते हैं। जैसे लकड़हारा ।


         (क) कृत् प्रत्यय

       कृत् प्रत्यय छह प्रकार के हैं। 1. कर्तृवाचक 2. गुणवाचक 3. कर्मवाचक 4. करणवाचक 5. भाववाचक 6. क्रियाद्योतक ।

 (1) कर्तृवाचक - कर्तृवाचक कृत्प्रत्यय वे हैं जिनके मेल से बने छन्दों सेक्रिया (व्यापार) के करने वाले का बोध होता है। जैसे-वाला, हार, सार, आका इत्यादि ।

कर्तृवाचक कृदन्त बनाने की रीति-

(क) क्रिया के सामान्य रूप के 'न' को 'ने' करके आगे 'वाला' प्रत्यय लगाया जाता है । = बोलनेवाला, पढ़नेवाला।

(ख) क्रिया सामान्य रूप के 'न' को 'ने' करके आगे 'हार' या 'सार' प्रत्यय लगाया जाता है। जैसे-राखनहार, सिरजनहार, मिलनहार ।

(ग) धातु के आगे नीचे लिखे प्रत्यय लगाने पर कर्तृवाचक कृदन्त बनते हैं। अक्कड़-पियक्कड़, कुदक्कड़, घुमक्कड़ ।

ऊ-खाऊ, उड़ाऊ, कमाऊ ।
आक, आका-तैराक, लड़ाका । आड़ी - खिलाड़ी ।
आलू-झगड़ालू
इयल-अड़ियल, सड़ियल ।
इया-जड़िया, धुनिया
एरा-लुटेरा।
एत-लड़ैत ।
ऐया-रखैया।
ओड़ा, ओड़, ओरा - भगोड़ा, हँसोड़ा, चटोरा।
क-घातक, मारक।
वैया-गवैया, सवैया।

   संस्कृत के अक, तृ आदि कर्तृवाचक प्रत्ययों से बने शब्द भी हिन्दी में बहुत प्रयुक्त होते हैं- पाठक, दाता।

   'वाला' प्रत्यय हर धातु के साथ लग सकता है, हर अन्य प्रत्यय हर एक धातु के साथ नहीं लगते । खास-खास प्रत्यय खास-खास धातुओं के साथ ही लगते हैं। धातु के आदि का दीर्घ स्वर प्रत्यय लगने पर प्राय: हस्व हो जाता है। जैसे-खिलाड़ी।

(2) गुणवाचक कृत्प्रत्यय- वे हैं, जिनसे बने शब्दों से किसी खास गुण को रखने वाले का बोध होता है, जैसे-

काऊ-टिकाऊ, बिकाऊ ।
आवना-सुहावना, डरावना
इया-बढ़िया, घटिया ।
वाँ-चुसवाँ, कटवाँ ।

(3) कर्मवाचक कृत्प्रत्यय- वे हैं जिनके लगने से बनी हुई संज्ञाओं से कर्म का बोध होता है, जैसे-

औना-बिछौना
ना-जोड़ना
नी-सुँघनी ।

(4) करणवाचक कृत् प्रत्यय- वे हैं जिनके लगने से बनी हुई संज्ञाओं से क्रिया के साधन का बोध होता है। जैसे-

ला-झूला, ठेला।

आनी-मथानी ।
औटी-कसौटी।
ई-फांसी, बुहारी।
ऊ-झाड़।
न, ना-ढक्कन, बेलन, ढकना,
नौ-कतरनी, धौंकनी,
औना-खिलौना ।


(5) भाववाचक प्रत्यय-वे हैं जिनके लगने से बनी हुई संज्ञाओं से भाव (क्रिया के व्यापार) का बोध हो। जैसे-

अंत-रटंत, गढंत ।
अ-मेल, शायन।
अन-शयन ।
आ-फेरा।
आई-लड़ाई, मिठाई।
आन-उड़ान, मिलान ।
आप-मिलाप ।
आवट-थकावट, मिलावट।
आव-लगाव, बहाव, चढ़ाव ।
आवा-दिखावा, बुलावा, चढ़ावा
आस-प्यास ।
आहट - घबराहट, चिल्लाहट ।
ई-हँसी, बोली।
एरा-बसेरा, निबटेरा।
औती-मनौती, चुनौती, फिरौती ।
त-नचत, खपत, रंगत।
ति-स्तुति ।
ती-बढ़ती, घटती।
न-चलन, गढ़न।
नी-करनी, भरनी।

  कई धातुओं का मूलरूप और भाववाचक कृदन्त एक ही जैसे होते हैं; जैसे-मार, पीट, दौड़, खोज, चाह, पुकार ।

धातु के आगे 'ना' लगाकर बना हुआ क्रिया का साधारण रूप भी भाववाचक संज्ञा के समान प्रयुक्त होता, जैसे-लिखना सबके लिए आवश्यक है।

(6) क्रियाद्योतक प्रत्यय- वे हैं जिनसे क्रियाओं के समान ही भूत या वर्तमान काल के वाचक विशेषण या अव्यय बनते हैं।

    धातु के आगे 'आ' अथवा 'या' प्रत्यय लगाने से भूतकालिक कृदन्त तथा 'ता' प्रत्यय लगाने से वर्तमानकालिक कृदन्त बनते हैं। कभी-कभी इनके आगे 'हुआ' लगा देते हैं। इस कृदन्त का रूप आकारान्त विशेषणों के समान बदलता रहता है। (भूतकालिका) पढ़ा लिखा आदमी, पढ़ी लिखी औरत। गाया हुआ गान, सोया हुआ मनुष्य, सोये हुए मनुष्य, सोई हुई स्त्रियाँ। गुजरा हुआ जमाना । (वर्तमानकालिक) बोलता सुग्गा। उजड़ता घर । आता हुआ घोड़ा। भागतों के आगे । उड़ती बात ।

    इन्हीं अर्थों में संस्कृत के शब्दों में 'त' (क्त) और 'मान' प्रत्यय लगते हैं। कहीं-कहीं 'त' को 'न' हो जाता है-

युक्त, मुक्त, चलायमान, लग्न, मग्न, रुग्ण ।

योग्यता के अर्थ में संस्कृत के 'तव्य और 'अनीय' आदि प्रत्यय भी हिन्दी में प्रयुक्त होते हैं। जैसे-विचारणीय, गन्तव्य, ध्येय।

   अव्यय बनाने के लिए ऊपर लिखे कृदन्तों के अन्त्य 'आ' का 'ए' कर दिया जाता है; जैसे भूख के मारे जान निकली जाती है। पूर्वकालिक, तात्कालिक, अपूर्ण-क्रियाद्योतक तथा पूर्ण-क्रियाद्योतक क्रियाओं में यहाँ कृदन्त अव्यय प्रयुक्त होते हैं।

कर्तृवाचक प्रत्ययों से संज्ञा और विशेषण दोनों बनते हैं। गुणवाचक प्रत्ययों से केवल विशेषण और कर्मबाचक तथा भाववाचक प्रत्ययों से केवल संज्ञाएं बनती हैं। क्रियाद्योतक प्रत्ययों से विशेषण तथा अव्यय दोनों बनते हैं।

                (ख) तद्धित प्रत्यय

     तद्धित प्रत्यय अनन्त है। शब्दों के साथ इन प्रत्ययों का मेल होने पर शब्दों में भी विकार प्रायः हो जाता है। जैसे-सोन+आर-सुनार, लोटा+इया-लुटिया, वर्ष+एक+वार्षिक, गुण-अ-गौण। तद्धित प्रत्ययों से मुख्यतया तीन प्रकार के शब्द बनते हैं-

1. संज्ञाओं में प्रत्यय लगाने से विशेषण; जैसे-भूख-आ-भूखा। पंजाब-ई-पंजाबी। मास इक-मासिक। ग्राम+ईन-ग्रामीण ।

2. विशेषणों में प्रत्यय लगाकर भाववाचक तथा संज्ञाओं में प्रत्यय लगाकर नई संज्ञाएँ, जैसे-मीठा+आस-मिठास, गरम-ई- गरमी, सुन्दर+य-सौन्दर्य, सोना+आर-सुनार ।

3. संज्ञाओं, सर्वनामों और विशेषणों में प्रत्यय लगाकर अव्यय, जैसे-सामना+ए-सामने, आप+स-आपस, कोस+ओं-कोसों।

आगे कुछ मुख्य-मुख्य तद्धित प्रत्यय अर्थ तथा उदाहरण सहित दिये जाते हैं-

(क) कर्तृवाचक- (करनेवाले, बनानेवाले या घड़नेवाले के अर्थ में) प्रत्यय-आर, इया, ई, उआ, एरा, वाला, हारा आदि।

जैसे-सुनार, लोहार। आढ़तिया । भंडारी, तेली। मछुआ । सँपेरा, कसेरा। घरवाला, टोपीवाला, लकड़हारा ।

(ख) भाववाचक प्रत्यय ये हैं-आई, आपा, आस, आयत, इख, ई, औती, डा, त, नी, पुन, हट, क इत्यादि ।

बुराई, भलाई, बुढ़ापा, सुघड़ावा । मिठास । बहुतायत । कालिख । गर्मी, सर्दी। बपौती । दुखड़ा, मुखड़ा, रंगत, संगत। चाँदनी। लड़कपन, बचपन । चिकनाहट । ठंडक ।

अ; इमा (इमन्) ता, त्व, व आदि भाववाचक संस्कृत प्रत्यययुक्त शब्द भी हिन्दी में पर्याप्त प्रयुक्त होते हैं; जैसे-शैशव, लाघव, गौरव । लालिमा, महिला। गुरुता, प्रभुता, गुरुत्व, आलस्य, माधुर्य।

(ग) सम्बन्धवाचक प्रत्यय ये हैं-आल; जा, एरा। जैसे ससुराल ननिहाल । भतीजा, भानजा, । ममेरा; फुफेरा ।

     संस्कृत के अप्रत्ययवाचक शब्द जिनसे सन्तान का भाव पाया जाता है। इसी श्रेणी के अन्दर समझे जा सकते हैं। इनमें आदि स्वर की वृद्धि हो जाती है और शब्द के अन्तिम 'ई' को 'य' तथा 'उ' को 'व' हो जाता है। जैसे-कुन्ती से कौन्तेय, विष्णु से वैष्णव, दनु से दानव, यदु से यादव, कश्यप से काश्यप, गङ्गा से गांगेय, सौमित्र से सुमित्रा, पृथा से पार्थ ।

(घ) ऊन (लघुता) वाचक प्रत्यय ये हैं-आ, इया, री, टी, ड़ी, आदि। जैसे-बबुआ । लुटिया; खटिया; कटोरी। लँगोटी, पगड़ी।

(ङ) पूर्णवाचक प्रत्यय-ला, रा, था, ठा, वाँ आदि। जैसे-पहला । दूसरा, तीसरा । चौथा, छठा । पाँचवाँ; सातवाँ ।

(च) सादृश्यवाचक प्रत्यय ये हैं-सा, हरा। जैसे-काला-सा, सुनहरा ।

(छ) गुणवाचक विशेषण आ, इत, ईय, ई, ईया, ईला, ऊ, ऐला, लु, मान्, वन्त, वान, इक आदि प्रत्यय लगाने से बनते हैं। जैसे-भूखा । आनन्दित । अनुकरणीय । धनी, देशी। रंगीला, सजीला, घरू, बाजारू । विषैली । दयालु ।श्रीमान, मतिमान्। कुलवन्त । रूपवान्। सामाजिक, ऐतिहासिक ।

(ज) स्थानवाचक विशेषण ई, इया, वाल, इत्यादि प्रत्यय लगाने से बनते हैं जैसे-पंजाबी, मद्रासी, अमृतसरिया। अग्रवाल, जायसवाल ।

इनके अतिरिक्त उर्दू के निम्नलिखित प्रत्ययों से बने शब्द भी हिन्दी में बोले जाते हैं। गर, गार, ची, दार, नाक, मन्द, दर, वान, वार, सार, गी, गीन ।

   कलईगर, कारीगर। मददगार । खजानची, मशालची, जमींदार, ताल्लुकेदार । दर्दनाक, खतरनाक । अक्लमन्द, फायदेमन्द । ताकतवर, जोरावर । गाड़ीवान। पैदावार, उम्मीदवार, खाकसार । सादगी, मर्दानगी, जिन्दगी । गमगीन ।


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Wednesday, September 1, 2021

वाक्यों में प्रयोग कीजिये :



         वाक्यों में प्रयोग कीजिये :


1. प्रतीक्षा करना :- हम परीक्षा के फल की प्रतीक्षा करते हैं।

2. इशारा करना  :- उसे अन्दर आने का इशारा करो।

3. हवाले करना :- हम सब कुछ तुम्हारे हवाले कर देते हैं। 

4. हस्ताक्षर करना :- आवेदन पत्र में हस्ताक्षर करो।

5. तारीफ करना :- सब गाँधीजी की तारीफ करते हैं।

6. अनुरोध करना :- 

   हम अनुरोध करते हैं कि आप भी हमारे साथ आएँ।

7. मशहूर :- सेलम आम के लिए मशहूर है।

8. प्रलोभन देना:- प्रलोभन देनेवाले चालाक होंगे।

9. निराश होना :- खिलौना न मिलने पर बच्चा निराश हो गया।

10. दाखिल करना:- सबकुछ दाखिल करना मुश्किल है।

11. तय करना :- रोज का कार्यक्रम तय कर लो।

12. बचपन : - यह बचपन की कहानी है।

13. परिवर्तित करना: हम क्रांति को शांति में परिवर्तित करेंगे।

14 तिरस्कार करना :- बड़ों की बातों का तिरस्कार न करना चाहिए। 

15. प्रभावित होना :- हम गाँधीजी के त्याग पर प्रभावित हुए।

16. तरक्की करना :- भारत कई बातों में तरक्की कर रहा है।

17. गायब होना :- बादलों में सूरज गायब हो गया।

18. कदम उठाना :-

      हमें देश की उन्नति के लिए कदम उठाना चाहिए।

19. अधीर होना :- हमें समस्याओं से अधीर न होना चाहिए।

20. समर्पण करना :- अपना सबकुछ देश के लिए समर्पण करो।

21. पालन करना :-  हमें नियमों का पालन करना चाहिए।

22. मुलाकात करना :- 

     देश-विदेश के नेतागण अकसर मुलाकात करते हैं।

23. सौंपना   :- भरत ने राम को राज्य सौंप दिया।




24. आपे से बाहर होना :- 

      अध्यापक न आने से वह आपे से बाहर हो गया।


25. दाँतों तले ऊँगली दबाना :-

       ताजमहल को देखकर सब दाँतों तले ऊँगली दबातें हैं।









Wednesday, May 26, 2021

🕉वर्ण विचार 🕉

 

     🕉वर्ण विचार 🕉

परिभाषा-हिन्दी भाषा में प्रयुक्त सबसेछो टी ध्वनि वर्ण कहलाती है। जैसे-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ,क् , ख् आदि।

वर्णमाला

वर्णों के समुदाय को ही वर्णमाला कहते हैं।

हिन्दी वर्णमाला में 44 वर्ण हैं। उच्चारण और प्रयोग

के आधार पर हिन्दी वर्णमाला के दो भेद किए गए हैं-

1. स्वर

2. व्यंजन


स्वर

जिन वर्णों का उच्चारण स्वतंत्र रूप से होता हो और

जो व्यंजनों के उच्चारण में सहायक हों वे स्वर कहलाते

है। ये संख्या में ग्यारह हैं-

अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।

उच्चारण के समय की दृष्टि से स्वर के तीन भेद किए गए

हैं-

1. ह्रस्व स्वर।

2. दीर्घ स्वर।

3. प्लुत स्वर।


1. ह्रस्व स्वर

उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। ये चार हैं- अ, इ, उ, ऋ। इन्हें

मूल स्वर भी कहते हैं।


2. दीर्घ स्वर

जिन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वरों से दुगुना समय

लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। ये हिन्दी में सात

हैं- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।

उच्चारण में लगने वाले समय को आधार मानकर

किया गया है।


जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक

समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं।

प्रायः इनका प्रयोग दूर से बुलाने में किया जाता है।

मात्राएँ

स्वरों के बदले हुए स्वरूप को मात्रा कहते हैं

स्वरों की मात्राएँ निम्नलिखित हैं-

अ × कम

इ ि किसलय

ई ी खीर

उ ु गुलाब

ऊ ू भूल

ऋ ृ तृण

ए े केश

ऐ ै है

ओ ो चोर

औ ौ चौखट

अ वर्ण (स्वर) की कोई मात्रा नहीं होती।

व्यंजनों का अपना स्वरूप निम्नलिखित हैं-

क् च् छ् ज् झ् त् थ् ध् आदि।

अ लगने पर व्यंजनों के नीचे का (हल) चिह्न हट

जाता है। तब ये इस प्रकार लिखे जाते हैं-

क च छ ज झ त थ ध आदि।


व्यंजन

जिन वर्णों के पूर्ण उच्चारण के लिए

स्वरों की सहायता ली जाती है वे व्यंजन कहलाते हैं।

ही नहीं जा सकते। ये संख्या में 33 हैं। इसके

1. स्पर्श

2. अंतःस्थ

3. ऊष्म


1. स्पर्श

इन्हें पाँच वर्गों में रखा गया है और हर वर्ग में पाँच-

पाँच व्यंजन हैं। हर वर्ग का नाम पहले वर्ग के अनुसार

रखा गया है जैसे-

चवर्ग- च् छ् ज् झ् ञ्

तवर्ग- त् थ् द् ध् न्

पवर्ग- प् फ् ब् भ् म्


2. अंतःस्थ

ये निम्नलिखित चार हैं-

य् र् ल् व्


3. ऊष्म

श् ष् स् ह्

वैसे तो जहाँ भी दो अथवा दो से अधिक व्यंजन मिल

देवनागरी लिपि में संयोग के बाद रूप-परिवर्तन

दो-दो व्यंजनों से मिलकर बने हैं। जैसे-क्ष=क्+ष अक्षर,

ज्ञ=ज्+ञ ज्ञान, त्र=त्+र नक्षत्र कुछ लोग क्ष् त्र्

और ज्ञ् को भी हिन्दी वर्णमाला में गिनते हैं, पर ये

संयुक्त व्यंजन हैं। अतः इन्हें वर्णमाला में

गिनना उचित प्रतीत नहीं होता।


इसका प्रयोग पंचम वर्ण के स्थान पर होता है।

इसका चिन्ह (ं) है। जैसे- सम्भव=संभव, सञ्जय=संजय,


इसका उच्चारण ह् के समान होता है। इसका चिह्न (:)

है। जैसे-अतः, प्रातः।


चंद्रबिंदु

जब किसी स्वर का उच्चारण नासिका और मुख दोनों से

लगा दिया जाता है।

हिन्दी वर्णमाला में 11 स्वर तथा 33 व्यंजन गिनाए

जाते हैं, परन्तु

इनमें ड़्, ढ़् अं तथा अः जोड़ने पर हिन्दी के

वर्णों की कुल संख्या 48 हो जाती है।


हलंत

जब कभी व्यंजन का प्रयोग स्वर से रहित

किया जाता है तब उसके नीचे एक तिरछी रेखा (्)

लगा दी जाती है। यह रेखा हल कहलाती है। हलयुक्त

व्यंजन हलंत वर्ण कहलाता है। जैसे हल्।

👩‍👦‍👦7. वचन 👨‍👩‍👦‍👦

 

     👩‍👦‍👦7.  वचन 👨‍👩‍👦‍👦

vachan


     वचन की परिभाषा,भेद और उदाहरण-

 

 

 वचन की परिभाषा :

 वचन का शब्दिक अर्थ संख्यावचन होता है। संख्यावचन को ही वचन कहते हैं। वचन का एक अर्थ कहना भी होता है। संज्ञा के जिस रूप से किसी व्यक्ति , वस्तु के एक से अधिक होने का या एक होने का पता चले उसे वचन कहते हैं। अथार्त संज्ञा के जिस रूप से संख्या का बोध हो उसे वचन कहते हैं अथार्त संज्ञा , सर्वनाम , विशेषण और क्रिया के जिस रूप से हमें संख्या का पता चले उसे वचन कहते हैं।

 

 जैसे :- लडकी खेलती है।

 लडकियाँ खेलती हैं।

 

 वचन के भेद :-

 1. एकवचन

 2. बहुवचन

 

 1. एकवचन क्या होता है :- जिस शब्द के कारण हमें किसी व्यक्ति , वस्तु , प्राणी , पदार्थ आदि के एक होने का पता चलता है उसे एकवचन कहते हैं।

 जैसे :- लड़का , लडकी , गाय , सिपाही , बच्चा , कपड़ा , माता , पिता , माला , पुस्तक , स्त्री , टोपी , बन्दर , मोर , बेटी , घोडा , नदी , कमरा , घड़ी , घर , पर्वत , मैं , वह , यह , रुपया , बकरी , गाड़ी , माली , अध्यापक , केला , चिड़िया , संतरा , गमला , तोता , चूहा आदि।

 

 2. बहुवचन क्या होता है :- जिस विकारी शब्द या संज्ञा के कारण हमें किसी व्यक्ति , वस्तु , प्राणी , पदार्थ आदि के एक से अधिक या अनेक होने का पता चलता है उसे बहुवचन कहते हैं।

 जैसे :- लडके , गायें , कपड़े , टोपियाँ , मालाएँ , माताएँ , पुस्तकें , वधुएँ , गुरुजन , रोटियां , पेंसिलें , स्त्रियाँ , बेटे , बेटियाँ , केले , गमले , चूहे , तोते , घोड़े , घरों , पर्वतों , नदियों , हम , वे , ये , लताएँ , लडकियाँ , गाड़ियाँ , बकरियां , रुपए।

 

 एकवचन और बहुवचन के कुछ नियम इस प्रकार है :-

 1. आदरणीय या सम्मानीय व्यक्तियों के लिए बहुवचन का भी प्रयोग होता है लेकिन एकवचन व्यक्तिवाचक संज्ञा को बहुवचन में ही प्रयोग कर दिया जाता है।

 जैसे :-

 (i) गांधीजी चंपारन आये थे।

 (ii) शास्त्रीजी बहुत ही सरल स्वभाव के थे।

 (iii) गुरूजी आज नहीं आये।

 (v) गांधीजी छुआछुत के विरोधी थे।

 (vi) श्री रामचन्द्र वीर थे।

 

 

 2. एकवचन और बहुवचन का प्रयोग संबंध दर्शाने के लिए समान रूप से किया जाता है।

 

 जैसे :- (i) नाना , मामी , ताई , ताऊ , नानी , मामा , चाचा , चाची , दादा , दादी आदि।

 

 3. द्रव्य की सुचना देने वाली द्र्व्यसूचक संज्ञाओं का प्रयोग केवल एकवचन में ही होता है।

 जैसे :- तेल , घी , पानी , दूध , दही , लस्सी , रायता आदि।

 

 4. वचन के कुछ शब्दों का प्रयोग हमेशा ही बहुवचन में किया जाता है।

 जैसे :- दाम , दर्शन , प्राण , आँसू , लोग , अक्षत , होश , समाचार , हस्ताक्षर , दर्शक , भाग्य केश , रोम , अश्रु , आशिर्वाद आदि।

 उदहारण :-

 

 (i) आपके हस्ताक्षर बहुत ही अलग हैं।

 (ii) लोग कहते रहते हैं।

 (iii) आपके दर्शन मिलना मुस्किल है।

 (iv) तुम्हारे दाम ज्यादा हैं।

 (v) आज के समाचार क्या हैं ?

 (vi) आपका आशिर्वाद पाकर मैं धन्य हो गया हूँ।

 

 5. वचन में पुल्लिंग के ईकारांत , उकारांत और ऊकारांत शब्दों का प्रयोग दोनों वचनों में समान रूप से किया जाता है।

 जैसे :- एक मुनि , दस मुनि , एक डाकू , दस डाकू , एक आदमी , दस आदमी आदि।

 6. कभी कभी कुछ लोग बडप्पन दिखाने के लिए वह और मैं की जगह पर वे और हम का प्रयोग करते हैं।

 जैसे :- (i) मालिक ने नौकर से कहा कि हम मीटिंग में जा रहे हैं।

 

 (ii) जब गुरूजी घर आये तो वे बहुत खुश थे।

 (iii) हमे याद नहीं हमने ऐसा कहा था।

 

 7. कभी कभी अच्छा व्यवहार करने के लिए तुम की जगह पर आप का प्रयोग किया जाता है।

 जैसे :- (i) आप कहाँ पर गये थे।

 8. दोनों वचनों में जातिवाचक संज्ञा का प्रयोग किया जाता है।

 जैसे :-

 (i) कुत्ता भौंक रहा है।

 (ii) कुत्ते भौंक रहे हैं।

 (iv) बैल के चार पाँव होते हैं।

 

 

 9. धातुओं की जाति बताने वाली संज्ञाओं का प्रयोग एकवचन में ही होता है।

 जैसे :- सोना , चाँदी , धन आदि।

 

 उदहारण :-

 

 (i) सोना बहुत महँगा है।

 (ii) चाँदी सस्ती है।

 (iii) उसके पास बहुत धन है।

 


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एकवचन से बहुवचन बनाने के कुछ मुख्य नियम क्या-क्या हैं?


 10. गुण वाचक और भाववाचक दोनों संज्ञाओं का प्रयोग एकवचन और बहुवचन दोनों में ही किया जाता है।

 जैसे :-

 (i) मैं उनके धोके से ग्रस्त हूँ।

 (ii) इन दवाईयों की अनेक खूबियाँ हैं।

 (iv) मैं आपकी विवशता को जानता हूँ।

 

 11. सिर्फ एकवचन में हर , प्रत्येक और हर एक का प्रयोग होता है।

 जैसे :- (i) हर एक कुआँ का पानी मीठा नही होता।

 (ii) प्रत्येक व्यक्ति यही कहेगा।

 (iii) हर इन्सान इस सच को जानता है।

 12. समूहवाचक संज्ञा का प्रयोग केवल एकवचन में ही किया जाता है।

 जैसे :- (i) इस देश की बहुसंख्यक जनता अनपढ़ है।

 (ii) लंगूरों की एक टोली ने बहुत उत्पात मचा रखा है।

 

 13. ज्यादा समूहों का बोध करने के लिए समूहवाचक संज्ञा का प्रयोग बहुवचन में किया जाता है।

 जैसे :- (i) विद्यार्थियों की बहुत सी टोलियाँ गई हैं।

 (ii) अकबर की सदी में अनेक देशों की प्रजा पर अनेक अत्याचार होते थे।

 

 14. एक से ज्यादा अवयवों का प्रयोग बहुवचन में होता है लेकिन एकवचन में उनके आगे एक लगा दिया जाता है।

 जैसे :- आँख , कान , ऊँगली , पैर , दांत , अंगूठा आदि।

 (ii) मेरे बाल सफेद हो चुके हैं।

 (iii) मेरा एक बाल टूट गया।

 (v) मंजू का एक दांत गिर गया।

 

 15. करणकारक के शब्द जैसे – जाडा , गर्मी , भूख , प्यास आदि को बहुवचन में ही प्रयोग किया जाता है।

 जैसे :- (i) बेचारा बन्दर जाड़े से ठिठुर रहा है।

 (ii) भिखारी भूखे मर रहे हैं।

 

 16. कभी कभी कुछ एकवचन संज्ञा शब्दों के साथ गुण , लोग , जन , समूह , वृन्द , दल , गण , जाति शब्दों को बहुवचन में प्रयोग किया जाता है।

 (ii) मजदूर लोग काम कर रहे हैं।

 

 एकवचन से बहुवचन बनाने के नियम इस प्रकार हैं :-

 1. जब आकारान्त के पुल्लिंग शब्दों में आ की जगह पर ए लगा दिया जाता है।

 एकवचन = बहुवचन के उदहारण इस प्रकार हैं :-

 (i) जूता = जूते

 (ii) तारा = तारे

 (iii) लड़का = लडके

 (iv) घोडा = घोड़े

 (v) बेटा = बेटे

 (vi) मुर्गा = मुर्गे

 (vii) कपड़ा = कपड़े

 (viii) गधा = गधे

 (ix) कौआ = कौए

 (x) केला = केले

 (xi) पेडा = पेडे

 (xii) कुत्ता = कुत्ते

 (xiii) कमरा = कमरे

 

 2. जब अकारांत के स्त्रीलिंग शब्दों में अ की जगह पर ऐं लगा दिया जाता है।

 जैसे :- (i) कलम = कलमें

 (ii) बात = बातें

 (iii) रात = रातें

 (iv) आँख = आँखें

 (vi) किताब = किताबें

 (viii) बहन = बहनें

 (x) सडक = सडकें

 (xi) दवात = दवातें

 

 3. जब आकारान्त के स्त्रीलिंग शब्दों में आ की जगह पर ऍ कर दिया जाता है।

 जैसे :- (i) कविता = कविताएँ

 (ii) लता = लताएँ

 (iii) अध्यापिका = अध्यापिकाएँ

 (iv) कन्या = कन्याएँ

 (v) माता = माताएँ

 (vii) पत्रिका = पत्रिकाएँ

 (viii) शाखा = शाखाएँ

 (ix) कामना = कामनाएँ

 (x) कथा = कथाएँ

 (xi) कला = कलाएँ

 (xii) वस्तु = वस्तुएँ

 

 4. जब स्त्रीलिंग के शब्दों में या की जगह पर याँ लगा दिया जाता है।

 जैसे :-(i) बिंदिया = बिंदियाँ

 (ii) चिड़िया = चिड़ियाँ

 (iv) गुडिया = गुड़ियाँ

 (v) चुहिया = चुहियाँ

 (vi) बुढिया = बुढियाँ

 (vii) लुटिया = लुटियाँ

 (viii) गैया = गैयाँ

 (ix) कुतिया = कुतियाँ

 (xi) राशि = राशियाँ

 (xii) रीति = रीतियाँ

 (xiii) तिथि = तिथियाँ आदि।

 

 5. जब इकारांत और ईकारांत के स्त्रीलिंग शब्दों याँ लगाकर ई को इ कर दिया जाता है।

 जैसे :- (i) नीति = नीतियाँ

 (ii) नारी = नारियाँ

 (iv) थाली = थालियाँ

 (v) रीति = रीतियाँ

 (vii) लडकी = लडकियाँ

 (ix) चुटकी = चुटकियाँ

 (xi) रानी = रानियाँ

 (xii) रीति = रीतियाँ

 (xiii) थाली = थालियाँ

 (xiv) कली = कलियाँ

 (xv) बुद्धि = बुद्धियाँ

 (xvi) सखी =सखियाँ आदि।

 

 6. जब उ , ऊ ,आ , अ , इ , ई और औ की जगह पर ऍ कर दिया जाता है और ऊ को उ में बदल दिया जाता है।

 जैसे :- (i) वस्तु = वस्तुएँ

 (ii) गौ = गौएँ

 (iii) बहु = बहुएँ

 (iv) वधू = वधुएँ

 (v) गऊ = गउएँ

 (vi) लता = लताएँ

 (vii) माता = माताएँ

 (viii) धातु = धातुएँ

 (ix) धेनु = धेनुएँ

 (x) लू = लुएँ

 (xi) जू = जुएँ

 

 7. जब दल , वृंद , वर्ग , जन लोग , गण आदि शब्दों को जोड़ा जाता है।

 जैसे :- (i) साधु = साधुलोग

 (ii) बालक = बालकगण

 (iii) अध्यापक = अध्यापकवृंद

 (iv) मित्र = मित्रवर्ग

 (v) विद्यार्थी = विद्यार्थीगण

 (vi) सेना = सेनादल

 (vii) आप = आपलोग

 (viii) गुरु = गुरुजन

 (x) गरीब = गरीबलोग

 (xi) पाठक = पाठकगण

 (xii) अधिकारी = अधिकारीवर्ग

 (xiii) स्त्री = स्त्रीजन

 (xiv) नारी = नारीवृंद

 (xv) दर्शक = दर्शकगण

 (xvi) वृद्ध = वृद्धजन

 (xvii) व्यापारी =व्यापारीगण

 (xviii) सुधी = सुधिजन आदि।

 

 8. जब एकवचन और बहुवचन दोनों में शब्द एक समान होते हैं।

 जैसे :- (i) राजा = राजा

 (ii) नेता = नेता

 (iii) पिता = पिता

 (vi) प्रेम = प्रेम

 (viii) दादा = दादा

 (ix) जल = जल

 (xi) योद्धा = योद्धा

 (xii) फल = फल

 (xiii) पानी = पानी

 (xiv) क्रोध = क्रोध

 (xv) फूल = फूल

 (xvi) छात्र = छात्र आदि।

 

 9. जब शब्दों को दो बार प्रयोग किया जाता है।

 (ii) बहन = बहन-बहन

 (iv) घर = घर -घर

 

 

 1. जब अकारांत , आकारान्त और एकारांत के संज्ञा शब्दों में अ, आ , तथा ए की जगह पर ओं कर दिया जाता है। जब इन संज्ञाओं के साथ ने , को , का , से आदि परसर्ग होते हैं तब भी इनके साथ ओं लगा दिया जाता है।

 

 जैसे :- (i) लडके को बुलाओ – लडकों को बुलाओ।

 (ii) बच्चे ने गाना गाया – बच्चों ने गाना गाया।

 (iii) नदी का जल बहुत ठंडा है – नदियों का जल बहुत ठंडा है।

 (iv) आदमी से पूछ लो – आदमियों से पूंछ लो।

 (v) लडके ने पढ़ा – लडकों ने पढ़ा।

 (vi) गाय ने दूध दिया – गायों ने दूध दिया।

 (vii) चोर को छोड़ना मत – चोरों को छोड़ना मत।

 

 2. जब संस्कृत की आकारांत और हिंदी की उकारांत , ऊकारांत , अकारांत और औकरांत में पीछे ओं जोड़ दिया जाता है। ओं जोड़ने के बाद ऊ को उ में बदल दिया जाता है।

 जैसे :- (i) लता = लताओं

 (ii) साधु = साधुओं

 (iii) वधू = वधुओं

 (iv) घर = घरों

 (v) जौ = जौओं

 (vi) दवा = दवाओं

 

 3. जब इकारांत और ईकारांत संज्ञाओं के पीछे यों जोड़ दिया जाता है और ई को इ में बदल दिया जाता है।

 (ii) गली = गलियों

 (iii) नदी = नदियों

 (iv) साड़ी = साड़ियों

 (v) श्रीमती = श्रीमतियों

 (vi) गाड़ी = गाड़ियों

 (vii) झाड़ी = झाड़ियों आदि।

 

 वचन परिवर्तन :-

 

 एकवचन = बहुवचन के उदहारण इस प्रकार हैं :-

 (i) पत्ता = पत्ते

 (ii) बच्चा = बच्चे

 (iii) बेटा = बेटे

 (iv) कपड़ा = कपड़े

 (v) लड़का = लडके

 (vi) बात = बातें

 (vii) आँख = आँखें

 (viii) पुस्तक = पुस्तकें

 (ix) किताब = किताबें

 (x) रुपया = रुपए

 (xi) तिनका = तिनके

 (xii) भेड़ = भेड़ें

 (xiii) बहन = बहनें

 (xiv) घोडा = घोड़े

 (xv) तस्वीर = तस्वीरें

 (xvi) कक्षा = कक्षाएँ

 (xvii) ऋतु = ऋतुएँ

 (xviii) कमरा = कमरे

 (xix) भाषा = भाषाएँ

 (xx) सेना = सेनाएँ

 (xxi) अध्यापिका = अध्यापिकाएँ

 (xxiii) वस्तु = वस्तुएँ

 (xxiv) लता = लताएँ

 (xxv) बुढिया = बुढियां

 (xxvi) चिड़िया = चिड़ियाँ

 (xxvii) चुहिया = चुहियाँ

 (xxviii) गुडिया = गुड़ियाँ

 (xxix) कहानी = कहानियाँ

 (xxx) घड़ी = घड़ियाँ

 (xxxi) कुर्सी = कुर्सियां

 (xxxii) हड्डी = हड्डियाँ

 (xxxiii) मिठाई = मिठाइयाँ

 (xxxv) अलमारी = अलमारियाँ

 (xxxvi) छुट्टी = छुट्टियाँ

 (xxxvii) कवि = कविगण

 (xxxviii) गुरु = गुरुजन आदि।

 

🧖‍♂️4. विशेषण🧖

 

     🧖‍♂️4. विशेषण🧖

visheshan

विशेषण की परिभाषा


विशेषण वे शब्द होते हैं जो संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बताते हैं। ये शब्द वाक्य में संज्ञा के साथ लगकर संज्ञा की विशेषता बताते हैं।


विशेषण विकारी शब्द होते हैं एवं इन्हें सार्थक शब्दों के आठ भेदों में से एक माना जाता है।


बड़ा, काला, लम्बा, दयालु, भारी, सुंदर, कायर, टेढ़ा–मेढ़ा, एक, दो, वीर पुरुष, गोरा, अच्छा, बुरा, मीठा, खट्टा आदि विशेषण शब्दों के कुछ उदाहरण हैं।


विशेषण के उदाहरण


राधा बहुत सुन्दर लड़की है। 


जैसा कि आप ऊपर उदाहरण में देख सकते हैं राधा एक लड़की का नाम है। राधा नाम एक संज्ञा है। सुन्दर शब्द एक विशेषण है जो संज्ञा शब्द की विशेषता बता रहा है।



रमेश बहुत निडर सिपाही है। 


ऊपर दिए गए उदाहरण से हमें पता चलता है कि रमेश एक सिपाही है एवं वह निडर भी है। अगर इस वाक्य में निडर नहीं होता तो हमें बस यह पता चलता कि रमेश एक सिपाही है लेकिन कैसा सिपाही है ये हमें नहीं पता चलता।



 मोहन एक मेहनती विद्यार्थी है।


जैसा कि आप ऊपर दिए गए उदाहरण में देख सकते हैं कि यहाँ मोहन कि मेहनती होने कि विशेषता बतायी जा रही है।




विशेष्य : वाक्य में जिस संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बतायी जाती है उन्हें विशेष्य कहते हैं।


विशेषण के भेद


विशेषण के मुख्यतः चार भेद होते हैं :


1. गुणवाचक विशेषण


2. संख्यावाचक विशेषण


3. परिमाणवाचक विशेषण


4. सार्वनामिक विशेषण



1. गुणवाचक विशेषण :


जो विशेषण हमें संज्ञा या सर्वनाम के रूप, रंग आदि का बोध कराते हैं वे गुणवाचक विशेषण कहलाते हैं। जैसे:


ताज महल एक सुन्दर इमारत है।


जयपुर में पुराना घर है।


जापान में स्वस्थ लोग रहते हैं।


मैं ताज़ा सब्जियां लाया हूँ


ऊपर दिए गए उदाहरणों में जैसा कि आपने देखा सुन्दर, पुराना, स्वस्थ, ताज़ा आदि शब्दों से विभिन्न वस्तुओं व्यक्तियूं आदि का रंग रूप गुण आदि बताने की कोशिश की जा रही है।


जैसा कि हमें पता है संज्ञा या सर्वनाम का रूप रंग, गुणवत्ता आदि का जो शब्द बोध कराते हैं वे विशेषण कहलाते हैं अतः ये शब्द विशेषण कहलायेंगे।



2. संख्यावाचक विशेषण :


ऐसे शब्द जो संज्ञा या सर्वनाम की संख्या के बारे में बोध कराते हैं वे शब्द संख्यावाचक विशेषण कहलाते हैं। जैसे: 


विकास चार बार खाना खाता है।


मीना चार केले खाती है।


दुनिया में सात अजूबे हैं।


हमारे विद्यालय में दो सौ विद्यार्थी पढ़ते हैं।


जैसा कि आप ऊपर दिए गए उदाहरणों में देख सकते हैं चार, सात दो सौ आदि शब्द हमें बता रहे हैं कि विकास कितनी बार खाना खाता है मीना कितने केले खाती है, दुनिया में कितने अजूबे हैं आदि।


अगर हम ये शब्द नहीं लगाते तो हमें निश्चितता नहीं होती। यहाँ ये शब्द हमें संज्ञा या सर्वनाम की संख्या के बारे में बता रहे हैं। अतः ये संख्यावाचक विशेषण कहलायेंगे।



3. परिमाणवाचक विशेषण :


जो शब्द संज्ञा या सर्वनाम की मात्रा के बारे में बताते हैं वे शब्द परिमाणवाचक विशेषण कहलाते हैं। जैसे:


मुझे एक किलो टमाटर लाकर दो।


बाज़ार से आते वक्त आधा किलो चीनी लेते आना।


जाओ एक मीटर कपड़ा लेकर आओ।


मुझे थोड़ा सा खाना चाहिए।


ऊपर दिए गए उदाहरणों में जैसा कि आप देख सकते हैं एक किलो, आधा किलो, एक मीटर, सौ ग्राम इत्यादि शब्द हमें संज्ञा या सर्वनाम का परिमाण बता रहे हैं।


इससे हमें पता चलता है कि कितनी  चीनी लानी है, कितना कपड़ा लाना है  एवं कितने टमाटर लाने हैं।


अगर वाक्य में ये शब्द इस्तेमाल नहीं हुए होते तो हमें पता भी नहीं चलता कि कितना समान लाना है। यह शब्द संज्ञा व सर्वनाम का परिमाण बता रहे हैं। अतः यह परिमाणवाचक विशेषण के अंतर्गत आयेंगे।


4. सार्वनामिक विशेषण :


जो सर्वनाम शब्द संज्ञा से पहले आएं एवं विशेषण की तरह उस संज्ञा शब्द की विशेषता बताएं तो वे शब्द सार्वनामिक विशेषण कहलाते हैं। जैसे:


यह लड़का कक्षा में अव्वल आया।


वह आदमी अच्छे से काम करना जानता है।


यह लड़की वही है जो मर गयी थी।


कौन है जो सबसे उत्तम है ?


ऊपर दिए गए उदाहरणों में जैसा कि आप देख सकते हैं यह, वह, कौन आदि शब्द संज्ञा शब्द से पहले लग रहे हैं एवं विशेषण की तरह उन संज्ञा शब्दों की विशेषता बता रहे हैं।


अगर ये शब्द संज्ञा से पहले न लगते तो हमें पता नहीं चलता की किसके बारे में चर्चा हो रही है। अब इन शब्दों का इस्तेमाल हुआ है तो यह किसी विशेष व्यक्ति या वस्तु की ओर संकेत कर रहे है। अतः यह उदाहरण सार्वनामिक विशेषण के स्न्तार्गत आयेंगे।

🤷 3.सर्वनाम💁‍♀️

 

  🤷  3.सर्वनाम💁‍♀️

sarvanam

परिभाषा – संज्ञा के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले शब्दों को सर्वनाम कहते है |

उदाहरण – वह , तुम, यह , मैं , इसका ,उसका , तुम्हारा , हमारा , कौन , कोई , आपका आदि सर्वनाम के उदाहरण है |


सर्वनाम के भेद

– प्रयोग की दृष्टि से सर्वनाम के छ: भेद है –

(i) पुरुषवाचक सर्वनाम

(ii) निश्चयवाचक सर्वनाम

(iii) अनिश्चयवाचक सर्वनाम

(iv) सम्बंध वाचक सर्वनाम

(v) निजवाचक सर्वनाम

(vi) प्रश्नवाचक सर्वनाम


1. पुरुषवाचक सर्वनाम ‌-


जो शब्द व्यक्ति के नाम के स्थान पर प्रयोग किये जाते है , उसे पुरुषवाचक सर्वनाम कहते है | पुरुषवाचक का तात्पर्य स्त्री व पुरुष दोनों से होता है | उदाहरण – मै, तू, हम, वे , वह आदि |

पुरुषवाचक सर्वनाम के भेद – इसके तीन भेद है

(क) उत्तम पुरुष – बोलने वाले वक्ता को उत्तम पुरुष कहते है | जैसे- मैं ,हम |

(ख) मध्यम पुरुष – जिससे बात कही जाए अर्थात सुनने वाले श्रोता को मध्यम पुरुष कहते है | जैसे – तुम , तू, आप |

(ग) अन्य पुरुष – जिसके सम्बंध में बात कही गई हो , वह अन्य पुरुष कहलाता है | जैसे – वे, वह ,यह |


2. निश्चयवाचक सर्वनाम –


जिस सर्वनाम से किसी व्यक्ति या वस्तु की निश्चित स्थिति का बोध होता है , उसे निश्चयवाचक सर्वनाम कहते है |

जैसे – यह अच्छी किताब है | वह बुरा है |


3. अनिश्चयवाचक सर्वनाम –


जिस सर्वनाम से किसी व्यक्ति या वस्तु की निश्चित स्थिति का बोध नही होता है बल्कि अनिश्चय की स्थिति बनी रहती है ,उसे अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहते है | जैसे- दाल में कुछ मिला है | कोई आया था |


4. सम्बंध वाचक सर्वनाम –


जिस सर्वनाम से दो वस्तुओं अथवा व्यक्तियों का एक दूसरे से संबंध प्रकट होता है ,वहाँ सम्बंध वाचक सर्वनाम होता है | जिसका-उसकी, जितना-उतना, जो-सो आदि सम्बंध वाचक सर्वनाम हैं |

जैसे – जो पढ़ेगा सो पास होगा | जितना गुड़ डालोगे उतना ही मीठा होगा |


5. निजवाचक सर्वनाम –


वे सर्वनाम जिसे कर्ता स्वयं अपने लिये प्रयुक्त करता है ,उसे निजवाचक सर्वनाम कहते है | अपना ,आप ,खुद आदि निजवाचक सर्वनाम है | जैसे- मैं अपनी किताब पढ़ रहा हूँ |


6. प्रश्नवाचक सर्वनाम –


जिस सर्वनाम से प्रश्न करने का बोध होता है या वाक्य को प्रश्नवाचक बना देते है ,उन्हे प्रश्नवाचक सर्वनाम कहते है | कौन , क्या ,कैसे आदि प्रश्नवाचक सर्वनाम है | 

जैसे –वह क्या चाहता है ? तुम वहाँ कैसे चले गए ?

हिन्दी भाषा व्याकरण

 

     हिन्दी भाषा व्याकरण   


हिन्दी शब्द–कोश में शब्दों का क्रम –

हिन्दी शब्द–कोश में शब्दों का क्रम विभिन्न

वर्णोँ के निम्न क्रम के अनुसार है–

अं, अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, क, क्ष, ख, ग, घ, च, छ, ज, ज्ञ, झ, ट, ठ, ड, ढ, त, त्र, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, श, ष, स, ह ।

इस प्रकार शब्द–कोश में सर्वप्रथम ‘अं’ या ‘अँ’ से प्रारंभ होने वाले शब्द होते हैं और अन्त में ‘ह’ से प्रारंभ होने वाले शब्द। प्रत्येक शब्द से प्रारंभ होने वाले शब्द भी हजारों की संख्या में होते हैं,

अतः शब्द–कोश में उनका क्रम–विन्यास

विभिन्न स्वरों की मात्राओँ के अग्र क्रम में

होता है–

ं ँ ा ि ी ु ू ृ े ै ो ौ ।

• उदाहरण –

1. आधा वर्ण उस वर्ण की ‘औ’ की मात्रा के

बाद आता है। जैसे– कटौती के बाद कट्टर, करौ के बाद कर्क, कसौ के बाद कस्त, कौस्तु के बाद क्य, क्योँ के बाद क्रं... क्र... क्ल... क्व आदि।

2. ‘ृ ’ की मात्रा ‘ऊ’ की मात्रा वाले वर्ण के

बाद आती है। जैसे– कूक, कूल के बाद कृत।


3. ‘क्ष’ वर्ण आधे ‘क्’ के बाद आता है। जैसे–

क्विँटल के बाद क्षण।


4. ‘ज्ञ’ अक्षर ‘जौ’ के अंतिम शब्द के बाद आता

है। जैसे– जौहरी के बाद ज्ञात।


5. ‘त्र’ अक्षर ‘त्यौ’ के बाद आयेगा। जैसे–

त्यौहार के बाद त्रय।


6. ‘श्र’ अक्षर ‘श्यो’ के बाद आयेगा क्योँकि

श्र=श्*र है तथा ‘र’ शब्द–कोश मेँ ‘य’ के बाद

आता है।


7. ‘द्य’ अक्षर ‘दौ’ के बाद आता है। जैसे–

दौहित्री के बाद द्युति।


8. अक्षर ‘रौ’ के बाद आता है। जैसे– सरौता के

बाद सर्कस एवं करौना के बाद कर्क।


9. अक्षर किसी भी व्यंजन के ‘य’ के साथ संयुक्त अक्षर के अंतिम शब्द के बाद आता है। जैसे–

प्योसार के बाद प्रकट, ग्यारह के बाद ग्रंथ, द्यौ

के बाद द्रव एवं ब्यौरा के बाद ब्रश।


इस प्रकार प्रत्येक वर्ण के सर्वप्रथम अनुस्वार (ं ) या चन्द्रबिन्दु (ँ ) वाले शब्द आते हैँ फिर उनका क्रम क्रमशः अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ की मात्रा के अनुसार होता है। ‘औ’ की मात्रा के बाद आधे अक्षर से प्रारंभ होने वाले शब्द दिये होते हैँ। 


उदाहरणार्थ– ‘क’ से प्रारंभ होने वाले शब्दोँ का क्रम निम्न प्रकार रहेगा–


कं, क, कां, किं, कि, कीं, कुं, कु, कूं, कू, कृं, कें, के, कैं, कै, कों, को, कौं, कौ, क् (आधा क) – क्या, क्रंद, क्रम आदि।


प्रत्येक शब्द में प्रथम अक्षर के बाद आने वाले

द्वितीय, तृतीय आदि अक्षरों का क्रम भी

उपर्युक्त प्रकार से ही होगा।

Tuesday, May 11, 2021

लोकोक्तियाँ और उनके अर्थ

 


लोकोक्तियाँ और उनके अर्थ – Hindi Loktokis with Meanings

1. अन्त बुरे का बुरा-बुरे का परिणाम बुरा होता है।

2. अन्त भला सो भला-परिणाम अच्छा रहता है तो सब-कुछ अच्छा कहा जाता है।

3. अन्धा क्या चाहे दो आँखें—प्रत्येक व्यक्ति अपनी उपयोगी वस्तु को पाना चाहता है।

4. अन्धी पीसे कुत्ता खाय-परिश्रमी के असावधान रहने पर उसके परिश्रम का फल निकम्मों को मिल जाता है।

5. अन्धे के आगे रोए अपने नैन खोए-जिसमें सहानुभूति की भावना न हो, उसके सामने दुःख-दर्द की बातें करना व्यर्थ है।

6. अन्धों में काना राजा-मूों के समाज में कम ज्ञानवाला भी सम्मानित होता है।

7. अक्ल बड़ी या भैंस-शारीरिक शक्ति की अपेक्षा बुद्धि अधिक बड़ी होती है।

8. अधजल गगरी छलकत जाय-अधूरे ज्ञानवाला व्यक्ति ही अधिक बोलता डींगें हाँकता. है।

9. अपना पैसा खोटा तो परखनेवाले का क्या दोष-अपने अन्दर अवगुण हों तो दूसरे बुरा कहेंगे ही।

10. अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग-सबका अपनी-अपनी अलग बात करना।

11. अपनी करनी पार उतरनी-अपने बुरे कर्मों का फल भुगतना ही होता है।

12. अपने घर पर कुत्ता भी शेर होता है-अपने स्थान पर निर्बल भी अपने को बलवान् प्रकट करता है।

13. अपना हाथ जगन्नाथ-अपना कार्य स्वयं करना।

14. अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता-अकेला व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता।

15. अशर्फियाँ लुटें और कोयलों पर मुहर-मूल्यवान् वस्तुओं की उपेक्षा करके तुच्छ वस्तुओं की चिन्ता करना।

16. आँख के अन्धे गाँठ के पूरे—मूर्ख और हठी।

17. आँखों के अन्धे, नाम नयनसुख-गुणों के विपरीत नाम होना।।

18. आई मौज फकीर की दिया झोपड़ा फूंक-वह व्यक्ति, जो किसी भी वस्तु से मोह नहीं करता है।

19. आगे कुआँ पीछे खाई—विपत्ति से बचाव का कोई मार्ग न होना।

20. आगे नाथ न पीछे पगहा-कोई भी जिम्मेदारी न होना।

21. आटे के साथ घुन भी पिसता है-अपराधी के साथ निरपराधी भी दण्ड प्राप्त करता है।

22. आधी तज सारी को धाए, आधी मिले न सारी पाए-लालच में सब-कुछ समाप्त हो जाता है।

23. आप भला सो जग भला-अपनी नीयत ठीक होने पर सारा संसार ठीक लगता है।

24. आम के आम गुठलियों के दाम-दुहरा लाभ उठाना।

25. आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास-किसी महान कार्य को करने का लक्ष्य बनाकर भी निम्न स्तर के काम में लग जाना।

26. आसमान से गिरा खजूर पर अटका-एक विपत्ति से छूटकर दूसरी में उलझ जाना।

27. उठी पैंठ आठवें दिन लगती है—एक बार व्यवस्था भंग होने पर उसे पुन: कायम करने में समय लगता है।

28. उतर गई लोई तो क्या करेगा कोई-निर्लज्ज बन जाने पर किसी की चिन्ता न करना।

29. उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे-अपना दोष स्वीकार न करके उल्टे पूछनेवाले पर आरोप लगाना।

30. ऊधो का लेना न माधो का देना–स्पष्ट व्यवहार करना।

31. एक और एक ग्यारह होना—एकता में शक्ति होती है।

32. एक चुप सौ को हराए-चुप रहनेवाला अच्छा होता है।

33. एक तन्दुरुस्ती हजार नियामत-स्वास्थ्य का अच्छा रहना सभी सम्पत्तियों से श्रेष्ठ होता है।

34. एक तो करेला, दूसरे नीम चढ़ा-अवगुणी में और अवगुणों का आ जाना।

35. एक तो चोरी दूसरी सीनाजोरी-गलती करने पर भी उसे स्वीकार न करके विवाद करना।

36. एक थैली के चट्टे-बट्टे-सबका एक-सा होना।

37. एक पन्थ दो काज-एक ही उपाय से दो कार्यों का करना।

38. एक हाथ से ताली नहीं बजती-झगड़ा एक ओर से नहीं होता।

39. एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं—एक ही स्थान पर दो विचारधाराएँ नहीं रह सकतीं।

40. एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय-प्रभावशाली एक ही व्यक्ति के प्रसन्न कर लेने पर सबको प्रसन्न करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। सबको प्रसन्न करने के प्रयास में कोई भी प्रसन्न नहीं हो पाता।

41. ओखली में सिर दिया तो मूसलों का क्या डर–कठिन कार्य में उलझकर विपत्तियों से घबराना बेकार है।

42. ओछे की प्रीत बालू की भीत-नीच व्यक्ति का स्नेह रेत की दीवार की तरह अस्थायी क्षणभंगुर. होता है।

43. कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर संयोगवश कभी कोई किसी के काम आता है तो कभी कोई दूसरे के।

44. कभी घी घना, कभी मुट्ठीभर चना, कभी वह भी मना-जो कुछ मिले, उसी से सन्तुष्ट रहना चाहिए।

45. करघा छोड़ तमाशा जाय, नाहक चोट जुलाहा खाय-अपना काम छोड़कर व्यर्थ के झगड़ों में फँसना हानिकर होता है।

46. कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली-दो असमान स्तर की वस्तुओं का मेल नहीं होता।

47. कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा; भानुमती ने कुनबा जोड़ा-इधर-उधर से उल्टे-सीधे प्रमाण एकत्र कर अपनी बात सिद्ध करने का प्रयत्न करना।

48. कागज की नाव नहीं चलती-बिना किसी ठोस आधार के कोई कार्य नहीं हो सकता।

49. कागा चला हंस की चाल-अयोग्य व्यक्ति का योग्य व्यक्ति जैसा बनने का प्रयत्न करना।

50. काठ की हाँड़ी केवल एक बार चढ़ती है-कपटपूर्ण व्यवहार बार-बार सफल नहीं होता।

51. का बरसा जब कृषि सुखाने-उचित अवसर निकल जाने पर प्रयत्न करने का कोई लाभ नहीं होता।

52. को नृप होउ हमहिं का हानी—राजा चाहे कोई भी हो, प्रजा की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होता। प्रजा, प्रजा ही रहती है।

53. खग जाने खग ही की भाषा–एकसमान वातावरण में रहनेवाले अथवा प्रवृत्तिवाले एक-दूसरे की बातों के सार शीघ्र ही समझ लेते हैं।

54. खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है—एक का प्रभाव दूसरे पर पड़ता है।

55. खोदा पहाड़ निकली चुहिया-अधिक परिश्रम करने पर भी मनोवांछित फल न मिलना।

56. गंगा गए गंगादास जमुना गए जमुनादास-देश-काल-वातावरण के अनुसार स्वयं को ढाल लेना।

57. गुड़ न दे, गुड़ जैसी बात तो करे–चाहे कुछ न दे, परन्तु वचन तो मीठे बोले।

58. गुड़ खाए, गुलगुलों से परहेज-किसी वस्तु से दिखावटी परहेज।

69. घर का भेदी लंका ढावै-अपना ही व्यक्ति धोखा देता है।

60. घर का जोगी जोगना,आन गाँव का सिद्ध-गुणवान् व्यक्ति की अपने स्थान पर प्रशंसा नहीं होती।

61. घर की मुर्गी दाल बराबर-घर की वस्तु का महत्त्व नहीं समझा जाता।

62. घर खीर तो बाहर खीर-यदि व्यक्ति अपने घर में सुखी और सन्तुष्ट है तो उसे सब जगह सुख और सन्तुष्टि का अनुभव होता है।

63. घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने-झूठी शान दिखाना।

64. घी कहाँ गिरा, दाल में व्यक्ति का स्वार्थ के लिए पतित होना।

65. घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या-संकोचवश पारिश्रमिक न लेना।

66. घोड़े को लात, आदमी को बात-घोड़े के लिए लात और सच्चे आदमी के लिए बात का आघात असहनीय होता है।

67. चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए-लालची होना।

68. चलती का नाम गाड़ी—जिसका नाम चल जाए वही ठीक।

69. चादर के बाहर पैर पसारना—हैसियत क्षमता. से अधिक खर्च करना।

70. चार दिन की चाँदनी फिर अँधेरी रात-सुख क्षणिक ही होता है।

71. चिड़िया उड़ गई फुरै-अभीष्ट व्यक्ति अथवा वस्तु का प्राप्ति से पूर्व ही गायब हो जाना/मृत्यु हो जाना।

72. चिराग तले अँधेरा-अपना दोष स्वयं को दिखाई नहीं देता।

73. चोर-चोर मौसेरे भाई-समाजविरोधी कार्य में लगे हुए व्यक्ति समान होते हैं।

74. चूहे का जाया बिल ही खोदता है-बच्चे में पैतृक गुण आते ही हैं।

75. चोरी का माल मोरी में जाता है—छल की कमाई यों ही समाप्त हो जाती है।

76. छछून्दर के सिर पर चमेली का तेल-कुरूप व्यक्ति का अधिक शृंगार करना।

77. जल में रहकर मगर से बैर-अधिकारी से शत्रुता करना।

78. जहाँ चाह वहाँ राह—इच्छा, शक्ति से ही सफलता का मार्ग प्रशस्त होता है।

79. जहाँ देखी भरी परात, वहीं गंवाई सारी रात-लोभी व्यक्ति वहीं जाता है, जहाँ कुछ मिलने की आशा होती है।

80. जाके पाँव व फटी बिबाई, सो क्या जाने पीर पराई—जिसने कभी दुःख न देखा हो, वह दूसरे की पीड़ा दुःख. को नहीं समझ सकता।

81. जिसकी लाठी उसकी भैंस-शक्तिशाली की विजय होती है।

82. जिस थाली में खाना उसी में छेद करना-कृतघ्न होना।

83. जैसे कंता घर रहे वैसे रहे विदेश–स्थान परिवर्तन करने पर भी परिस्थिति में अन्तर न होना।

84. जैसा देश वैसा भेष—प्रत्येक स्थान पर वहाँ के निवासियों के अनुसार व्यवहार करना।

85. जैसे नागनाथ वैसे साँपनाथ-दो नीच व्यक्तियों में किसी को अच्छा नहीं कहा जा सकता।

86. जो गरजते हैं बरसते नहीं-अकर्मण्य लोग ही बढ़-चढ़कर डींग मारते हैं। अथवा कर्मनिष्ठ लोग बातें नहीं बनाते। .

87. ढाक के वही तीन पात-कोई निष्कर्ष हल. न निकलना।

88. तबेले की बला बन्दर के सिर—एक के अपराध के लिए दूसरे को दण्डित करना।

89. तीन लोक से मथुरा न्यारी-सबसे अलग, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण।

90. तीन में न तेरह में, मृदंग बजावे डेरा में किसी गिनती में न होने पर भी अपने अधिकार का ढिंढोरा पीटना।

91. तुम डाल-डाल हम पात-पात-प्रतियोगी से अधिक चतुर होना। अथवा प्रतियोगी की प्रत्येक चाल को विफल करने का उपाय ज्ञात होना।

92. तुरत दान महाकल्याण-किसी का देय जितनी जल्दी सम्भव हो, चुका देना चाहिए।

93. तू भी रानी मैं भी रानी, कौन भरेगा पानी—सभी अपने को बड़ा समझेंगे तो काम कौन करेगा।

94. तेली का तेल जले, मशालची का दिल-व्यय कोई करे, दुःख किसी और को हो।

95. तेल देख तेल की धार देख–कार्य को सोच-विचारकर करना और अनुभव प्राप्त करना।

96. थोथा चना बाजे घना-कम गुणी व्यक्ति में अहंकार अधिक होता है।

97. दान की बछिया के दाँत नहीं देखे जाते-मुफ्त की वस्तु का अच्छा-बुरा नहीं देखा जाता।

98. दाल-भात में मूसलचंद-किसी कार्य में व्यर्थ टाँग अड़ाना।

99. दिन दूनी रात चौगुनी-गुणात्मक वृद्धि।

100. दीवार के भी कान होते हैं रहस्य खुल ही जाता है।

101. दुविधा में दोनों गए माया मिली न राम-दुविधाग्रस्त व्यक्ति को कुछ भी प्राप्त नहीं होता।

102. दूर के ढोल सुहावने होते हैं—प्रत्येक वस्तु दूर से अच्छी लगती है।

103. धोबी का कुत्ता घर का न घाट का-लालची व्यक्ति कहीं का नहीं रहता/लालची व्यक्ति लाभ से वंचित रह ही जाता है।

104. न तीन में, न तेरह में महत्त्वहीन होना, किसी काम का न होना।

105. न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी-झगड़े की जड़ काट देना।

106. नाच न जाने/आवै आँगन टेढ़ा-काम न आने पर दूसरों को दोष देना।

107. नाम बड़े, दर्शन छोटे-प्रसिद्धि के अनुरूप निम्न स्तर होना।

108. न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी-न इतने अधिक साधन होंगे और न काम होगा।

109. नीम हकीम खतरा-ए-जान-अप्रशिक्षित चिकित्सक रोगी के लिए जानलेवा होते हैं।

110. नौ नकद न तेरह उधार-नकद का विक्रय कम होने पर भी उधार के अधिक विक्रय से अच्छा है।

111. नौ दिन चले अढ़ाई कोस-धीमी गति से कार्य करना।

112. नौ सौ चूहे खाय बिल्ली हज को चली—जीवनभर पाप करने के बाद बुढ़ापे में धर्मात्मा होने का ढोंग करना।

113. पढ़े फारसी बेचे तेल, यह देखा कुदरत का खेल-भाग्यवश योग्य व्यक्ति द्वारा तुच्छ कार्य करने के लिए विवश होना।

114. बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी-विपत्ति अधिक समय तक नहीं टल सकती।

115. बगल में छोरा, नगर में ढिंढोरा-वाँछित वस्तु की प्राप्ति के लिए अपने आस-पास दृष्टि न डालना।

116. बड़े मियाँ सो बड़े मियाँ छोटे मियाँ सुभानअल्लाह-छोटे का बड़े से भी अधिक धूर्त होना।

117. बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद-मूर्ख व्यक्ति गुणों के महत्त्व को नहीं समझ सकता।

118. बाप ने मारी मेंढकी, बेटा तीरंदाज-कुल-परम्परा से निम्न कार्य करते चले आने पर भी महानता का दम्भ भरना।

119. बिल्ली के भाग्य से छींका टूटना-अचानक कार्य सिद्ध हो जाना।

120. भइ गति साँप छछून्दति केरी-दुविधा की स्थिति।

121. भरी जवानी में माँझा ढीला-युवावस्था में पौरुष उत्साह.हीन होना।

122. भागते भूत की लँगोटी भली-न देनेवाले से जो भी मिल जाए, वही ठीक है।

123. भूखे भजन न होय गोपाला-भूखे पेट भक्ति भी नहीं होती।

124. भैंस के आगे बीन बजाना-मूर्ख के आगे गुणों का प्रदर्शन करना व्यर्थ होता है।

125. मन चंगा तो कठौती में गंगा-मन के शुद्ध होने पर तीर्थ की आवश्यकता नहीं होती।

126. मरे को मारे शाहमदार राजा से लेकर धूर्त तक सभी सामर्थ्यवान् कमजोर को ही सताते हैं।

127. मान न मान मैं तेरा मेहमान-जबरदस्ती गले पड़ना।

128. मुँह में राम बगल में छुरी-कपटपूर्ण व्यवहार।

129. मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक-प्रत्येक व्यक्ति अपनी पहुँच के भीतर कार्य करता है।

130. यथा नाम तथा गुण-नाम के अनुरूप गुण।

131. यथा राजा तथा प्रजा-जैसा स्वामी वैसा सेवक।

132. रस्सी जल गई ऐंठ न गई-अहित होने पर भी अकड़ न जाना।

133. राम नाम जपना पराया माल अपना-धर्म का आडम्बर करते हुए दूसरों की सम्पत्ति को हड़पना।

134. लातों के भूत बातों से नहीं मानते-नीच बिना दण्ड के नहीं मानते।

135. लाल गुदड़ी में भी नहीं छिपते—गुणवान् हीन दशा में होने पर भी पहचाना जाता है।

136. शौकीन बुढ़िया चटाई का लहँगा-शौक पूरे करते समय अपनी आर्थिक स्थिति की अनदेखी करना।

137. साँच को आँच नहीं सत्यपक्ष का कोई भी विपत्ति कुछ नहीं बिगाड़ सकती/सत्य की सदैव विजय होती है।

138. साँप निकल गया लकीर पीटते रहे कार्य का अवसर हाथ से निकल जाने पर भी परम्परा का निर्वाह करना।

139. साँप भी मरे और लाठी भी न टूटे-काम भी बन जाए और कोई हानि भी न हो।

140. सावन हरे न भादों सूखे-सदैव एक-सी स्थिति में रहना।

141. सावन के अन्धे को सब जगह हरियाली दिखना-स्वार्थ में अन्धे व्यक्ति को सब जगह स्वार्थ ही दिखता है।

142. सिर मुड़ाते ही ओले पड़ना—कार्य के आरम्भ में ही बाधा उत्पन्न होना।

143. सूरज को दीपक दिखाना-सामर्थ्यवान को चुनौती देना; ज्ञानी व्यक्ति को उपदेश देना।

144. हंसा थे सो उड़ गए, कागा भए दिवान–सज्जनों के पलायन कर जाने पर सत्ता दुष्टों के हाथ में आ जाती है।

145. हमारी बिल्ली हमीं को म्याऊँ-पालक पालनेवाले. के प्रति विद्रोह की भावना रखना।

146. हल्दी/हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा आए-बिना कुछ प्रयत्न किए कार्य अच्छा होना।

147. हाथ कंगन को आरसी क्या-प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती।

148. हाकिम की अगाड़ी, घोड़े की पिछाड़ी-विपत्ति से बचकर ही निकलना चाहिए।

149. हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और-कपटी व्यक्ति कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं।

150. हाथी के पाँव में सबका पाँव-ओहदेदार व्यक्ति की हाँ में ही सबकी हाँ होती है।

151. होनहार बिरवान के होत चीकने पात-प्रतिभाशाली व्यक्ति के लक्षण आरम्भ से ही दिखने लगते हैं।

152. हाथी निकल गया, दुम रह गई—सभी मुख्य काम हो जाने पर कोई मामूली-सी अड़चन रह जाना।

153. होइहि सोइ जो राम रचि राखा-वही होता है, जो भगवान् ने लिखा होता है।












एकांकी

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