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Friday, September 10, 2021

त्योहार / निबंध

 

                          त्योहार

निबंध 

    भारत में कई त्योहार मनाए जाते हैं। ये त्योहार दो प्रकार के होते हैं। वे हैं में राष्ट्रीय त्योहार और धार्मिक त्योहार ।

राष्ट्रीय त्योहार :

     स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और गांधी जयंती पन्दा भारत के राष्ट्रीय त्योहार हैं।

       सन् 1947 अगस्त 15 को भारत आज़ाद हुआ। इसलिए हर साल अगस्त 15 को भारत का स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है। यह दिवस भारत भर में धूम-धाम से मनाया जाता है। इस दिन दिल्ली के लाल किले पर हमारे प्रधान मंत्री राष्ट्रीय झंडा फहराते हैं।

       सन् 1950 जनवरी 26 को भारत गणतंत्र देश बना। इसलिए हर साल जनवरी 26 को भारत का गणतंत्र दिवस मनाया जाता है। इस दिन राष्ट्रपति राष्ट्रीय झंडा फहराते हैं। अठारह उनहत्तर

       गांधीजी ने भारत को आज़ाद बनाया था। उनका जन्म सन् 1869 अक्तूबर 2 को हुआ था। उनके जन्म-दिवस को गांधी जयंती के रूप में मनाते हैं।

धार्मिक त्योहार :

      भारत में कई धर्मों के लोग रहते हैं। हिन्दुओं के लिए दीपावली, ओणम, गणेश चतुर्थी, होली, दशहरा और पोंगल मुख्य त्योहार हैं। हिन्दू लोग इन त्योहारों को भक्ति-भाव से मनाते हैं।

      इस्लाम धर्म का मुख्य त्योहार रमज़ान है। इस दिन मुसलमान लोग ईदगाह में नमाज़ पढ़ते हैं। ईसाई धर्म के लोगों के लिए क्रिसमस मुख्य त्योहार है। ये सभी त्योहार लोगों के बीच में भाई-चारे की भावना को बढ़ाते हैं ।



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त्योहार



Monday, March 22, 2021

धुवस्वामिनी

 

                                          ध्रुवस्वामिनी

                                                                           - जयशंकर प्रसाद

सूचना

               विशाखदत्त द्वारा रचित 'देवीचन्द्रगुप्त' नाटक के कुछ अंश 'श्रृंगार-प्रकाश और 'नाट्य-दर्पण' से सन् 1923 की ऐतिहासिक पत्रिकाओं में जब उद्धृत हुए तब चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के जीवन के सम्बन्ध में जो नई बातें प्रकाश में आई, उनसे इतिहास के विद्वानों में अच्छी हलचल मच गई। शास्त्रीय मनोवृत्ति वालों को, चन्द्रगुप्त के साथ घुवस्वामिनी का पुनर्लग्न असम्भव, विलक्षण और कुरुचिपूर्ण मालूम हुआ। यहाँ तक कि आठवीं शताब्दी के संजन ताम्रपत्र

                   हत्वा भ्रातरमेव राज्यमहरडेवीं स दीनस्तथा, 

                   लक्षं कोटिमलेखयन् किल कलौ दाता स गुप्तान्वयः ।

के पाठ में संदेह किया जाने लगा।

          किंतु जिस ऐतिहासिक घटना का वर्णन करते, सातवीं शताब्दी में बाणभट्ट ने लिखा है 

              अरिपुरेच परकलत्रकामुक  कामिनीवेश 

              श्चन्द्रगुप्तो            शकपतिमशातयत्।।

 और ग्यारहवीं शताब्दी में राजशेखर ने भी लिखा है

            दत्वारुद्ध गति खसाधिपतये देवीं घुवस्वामिनीम्। 

            यस्मात् खंडित साहसो निववृते श्रीरामगुप्तोनृपः ।

वह घटना केवल जनश्रुति कहकर नहीं उड़ाई जा सकती। 

         विशाखदत्त को तो श्री जायसवाल ने चन्द्रगुप्त की सभा का राजकवि और उसके 'देवीचन्द्रगुप्त' को जीवन-चित्रण नाटक भी माना है। यह प्रश्न अवश्य ही कुछ कुतूहल से भरा हुआ है कि विशाखदत्त ने अपने दोनों नाटकों का नायक चन्द्रगुप्त नामधारी व्यक्ति को ही क्यों बनाया ? परन्तु श्रीतलंग ने तो विशाखदत्त को सातवीं शताब्दी के अवन्तिवर्मा का आश्रित कवि माना है क्योंकि 'मुद्राराक्षस' की किसी प्राचीन प्रति में उन्हें मुद्राराक्षस के भरतवाक्य 'प्रा्थिवश्चन्द्रगुप्तः' के स्थान पर 'प्रार्थिवोऽवन्तिवर्मा' भी मिला। विशाखदत्त के आलोचक लोग उसे एक प्रामाणिक ऐतिहासिक नाटककार मानते हैं। उसके लिखे हुए नाटक में इतिहास का अंश कुछ न हो, ऐसा तो नहीं माना जा सकता। राखालदास बनर्जी, प्रोफेसर अल्तेकर और श्री जायसवाल इत्यादि ने अन्य प्रामाणिक आधार मिलने के कारण ध्रुवस्वामिनी और चन्द्रगुप्त के पुनर्लग्न को ऐतिहासिक तथ्य मान लिया है। यह कहना कि रामगुप्त नाम का कोई राजा गुप्तों की वंशावली में नहीं मिलता और न किसी अभिलेख में उसका वर्णन आया है, कोई अर्थ नहीं रखता। समुद्रगुप्त के शासन का उल्लंघन करके, कुछ दिनों तक साम्राज्य में उत्पात मचाकर, जो राजनीति के क्षेत्र में अन्तान हो गया हो; उसका अभिलेख वंशावली में न मिले तो कोई आश्चर्य नहीं। हाँ, भंडारकरजी तो कहते हैं कि उसके लघु-काल-व्यापी शासन का सूचक सिक्का भी चला था। 'काच' के नाम से प्रसिद्ध गुप्त सिक्के मिलते हैं, वे रामगुप्त के ही हैं। राम के स्थान पर भ्रम से काच पढ़ा जा रहा था। इसलिए बाणभट्ट की वर्णित घटना अर्थात् स्त्री-वेश धारण करके चन्द्रगुप्त का पर-कलत्र कामुक शकराज को मारना और ध्रुवस्वामिनी का पुनर्विवाह इत्यादि के ऐतिहासिक सत्य होने में संदेह नहीं रह गया है। और मुझे तो इसका स्वयं चन्द्रगुप्त की ओर से एक प्रमाण मिलता है । चन्द्रगुप्त के कुछ सिक्कों पर 'रूपकृती' शब्द का उल्लेख है। रूप और आकृति का जॉन एलन् ने खींच-तानकर जो शारीरिक और आध्यात्मिक अर्थ किया है, वह व्यर्थ है। 'रूपकृती' विरुद का उल्लेख करके चन्द्रगुप्त अपने उस साहसिक कार्य को स्वीकृति देता है जो ध्रुवस्वामिनी की रक्षा के लिए उसने रूप बदलकर किया है, और जिसका पिछले काल के लेखकों ने भी समय-समय पर समर्थन किया है।

          विशाखदत्त के 'देवीचन्द्रगुप्त का जितना अंश प्रकाश में आया है, उसे देखकर अबुलहसन अली की बक्कमारिस वाली कथा का मिलान करके कई ऐतिहासिक विद्वानों ने शास्त्रीय दृष्टिकोण रखनेवाले आलोचकों को उत्तर देते हुए ध्रुवदेवी के पुनर्लग्न को ऐतिहासिक तथ्य तो मान लिया है किन्तु भंडारकरजी ने पराशर और नारद की स्मृतियों से उस काल की सामाजिक व्यवस्था में पुनर्लन होने का प्रमाण भी दिया है। शास्त्रों में अनुकूल और प्रतिकूल दोनों तरह की बातें मिल सकती है, परन्तु जिस प्रथा के लिए विधि और निषेध दोनों तरह की सूचनाएँ मिलें, तो इतिहास की दृष्टि से वह उस काल में सम्भाव्य मानी जाएगी। ही, समय-समय पर उनमें विरोध और सुधार हुए होंगे और होते रहेंगे। मुझे तो केवल यही देखना है कि इस घटना की सम्भावना इतिहास की दृष्टि से उचित है कि नहीं।

          भारतीय दृष्टिकोण को सुरक्षित रखनेवाले विशाखदत्त जैसे पंडित ने जब अपने नाटक में लिखा है - 

             रम्यांचारतिकारिणीज करुणाशोकेन नीता दशाम् 

             तत्कालोपगतेन राहुशिरसा गुप्तेव चांदरकला। 

            पत्युः क्लीवजनोचितेन चरितेनानेव पुंसः सतो 

            लज्जाकोपविषाद भीत्वरतिभिः क्षेत्रीकृता ताम्यते ॥

            तो उस नाटक के सम्पूर्ण सामने न रहने पर भी, जिससे कि उसके परिणाम का निश्चित पता लगे, उस काल की सामाजिक व्यवस्था का तो अंशतः स्पष्टीकरण हो ही जाता है। नारद और पराशर के वचन

           अपत्यार्थम् स्त्रियः सृष्टाः स्त्री क्षेत्रं बीजिनो नराः  

          क्षेत्र बीजवते देयं नाबीजी क्षेत्रमर्हति । ( नारद) 

          नष्टे मृते प्रवृजिते क्लीचे च पतिते पतो । 

          पंचस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते । (पराशर)

         के प्रकाश में जब 'देवीचन्द्रगुप्त' नाटक के ऊपर वाले श्लोक का अर्थ किया जाए तो वह घटना अधिक स्पष्ट हो जाती है। रम्या है किन्तु अरतिकारिणी है, में जो श्लेष है, उसमें शास्त्र-व्यवस्था जनित ध्वनि है । और पति के क्लीव जनोचित चरित्र का उल्लेख, साथ-ही-साथ क्षेत्रीकृता जैसा पारिभाषिक शब्द, नाटककार ने कुछ सोचकर ही लिखा होगा।

         भंडारकर और जायसवालजी, दोनों ने ही अपने लेखों में विधवा के साथ पुनर्लग्न होने की व्यवस्था मानकर ध्रुवदेवी का पुनर्लग्न स्वीकार किया है किन्तु स्मृति की ही उक्त व्यवस्था में अन्य पति ग्रहण करने के लिए पाँच आपत्तियों का उल्लेख किया है, उनमें केवल मृत्यु होने पर ही तो विधवा का पुनर्लग्न होगा। अन्य चार आपत्तियों तो पति के जीवनकाल में ही उपस्थित होती हैं।

        उधर जायसवालजी चन्द्रगुप्त द्वारा रामगुप्त का वध भी नहीं मानना चाहते, तब 'देवीचन्द्रगुप्त' नाटक की कथा का उपसंहार कैसे हुआ होगा ? वैवाहिक विषयों का उल्लेख स्मृतियों को छोड़कर क्या और कहीं नहीं है ? क्योंकि स्मृतियों के संबंध में तो यह भी कहा जा सकता है कि वे इस युग के लिए नहीं, दूसरे युग के लिए हैं परंतु यही कलियुग के विधानग्रंथ आचार्य कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में मुझे स्मृतियाँ की पुष्टि मिली।

          किस अवस्था में एक पति दूसरी स्त्री ग्रहण कर सकता है, इसका अनुसंधान करते हुए, धर्मस्थीय प्रकरण के विवाहसंयुक्त में आचार्य कौटिल्य लिखते हैं

            वर्षाण्यष्टा वप्रजायमानामपुत्राम् बंध्यां चाकांदेत् दर्शविन्दु, 

            द्वादश कन्या प्रसविनीम् । ततः पुत्रार्थी द्वितीया वदेत् ।

            8 वर्ष तक बंध्या, 10 वर्ष बिंदु अर्थात् नश्यत्प्रसूति, 12 वर्ष तक कन्या प्रसविनी की प्रतीक्षा करके पुत्रार्थी दूसरी स्त्री ग्रहण कर सकता है। पुरुषों का अधिकार बताकर स्त्रियों के अधिकार की घोषणा भी उसी अध्याय के अंत में है

           नीचत्वम् परदेशम् वा प्रस्थितो राजकिल्विषी । 

            प्राणाभिहंता पतितस्त्याज्यः क्लीवोऽपिवापतिः ॥

          इसका मेल पराशर या नारद के वाक्यों से मिलता है इन्हीं अवस्थाओं में पति को छोड़ने का अधिकार स्त्रियों को था। क्योंकि 'अर्थशास्त्र' में, आगे जो मोक्ष-Divorce का प्रसंग आता है, उसमें न्यायालय संभवतः 'अमोक्षा भर्तुरकामस्य द्विषती भार्या भार्यायाश्च भर्ता, परस्परं द्वेषान्मोक्षः' के आधार पर आदेश देता था किंतु साधारण द्वेष से भी जहाँ अन्य चार विवाहों में मोक्ष हो सकते थे; वहाँ धर्म-विवाह में केवल इन्हीं अवस्थाओं में पति त्याज्य समझा जाता था। नहीं तो अमोक्षो हि धर्म-विवाहानामु' के अनुसार धर्म-विवाहों में मोक्ष नहीं होता था। दमयन्ती के पुनर्लग्न की घोषणा भी पति के नष्ट या परदेश प्रस्थित होने पर ही की गई थी।

          जायसवालजी अबुलहसन अली की यह बात नहीं मानते कि चन्द्रगुप्त ने रामगुप्त की हत्या की होगी। उनका कहना है कि चन्द्रगुप्त की तरह बड़े भाई के लिए गद्दी छोड़ चुका था। उनका अनुमान है कि Very likely. it came about in the form of popular uprsing.'

         अब नाटककार के 'अरतिकारिणी' और 'क्लीव' आदि शब्द घटना की परिणति की क्या सूचना देते हैं, यह विचारणीय है। बहुत सम्भव है कि अबुलहसन की कथा का आधार 'देवीचन्द्रगुप्त' नाटक ही हो क्योंकि अबुलहसन के लिखने के पहले उपत नाटक का होना माना जा सकता है।

         यह ठीक है कि हमारे आचार और धर्मशास्त्र की व्यावहारिकता की परंपरा विच्छिन्न-सी है। आगे जितने सुधार या समाजशास्त्र के परीक्षात्मक प्रयोग देखे या सुने जाते हैं, उन्हें अचिंतित और नवीन समझकर हम बहुत शीघ्र अभारतीय कह देते हैं, किंतु मेरा ऐसा विश्वास है कि प्राचीन आयोवत ने समाज की दीर्घकालव्यापिनी परंपरा में प्रायः प्रत्येक विधान का परीक्षात्मक प्रयोग किया है। तात्कालिक कल्याणकारी परिवर्तन भी हुए हैं। इसीलिए डेट हजार वर्ष पहले यह होना अस्वाभाविक नहीं था। क्या होना चाहिए और कैसा होगा, यह तो व्यवस्थापक विचार करें; किंतु इतिहास के आधार पर जो कुछ हो चुका या जिस घटना के घटित होने की संभावना है, उसी को लेकर इस नाटक की कथावस्तु का विकास किया गया है।

          भंडारकरजी का मत है कि यह युद्ध गोमती की घाटी में अल्मोड़ा जिले के कार्तिकेयपुर के समीप हुआ। जायसवालजी का मत है कि यह युद्ध 374 ई. से लेकर 380 ई. के बीच में काँगड़ा जिले के अबिबाल नामक स्थान में हुआ था, जहाँ कि प्रथम सिख युद्ध भी हुआ था।

         प्रयाग की प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की साम्राज्य-नीति में विजित राजाओं के आत्मनिवेदन कन्योपायन दान' ग्रहण करने का उल्लेख है। मैंने धवस्वामिनो के गुप्तकाल में आने का वही कारण माना है ।

         विशाखदत्त ने ध्रुवदेवी नाम लिखा है; किंतु मुझे धुवस्वामिनी नाम जो राजशेखर के मुक्तक में आया है, स्त्रीजनोचित, सुटर, आदर-सूचक और सार्थक प्रतीत हुआ। इसीलिए मैंने उसी का व्यवहार किया है।

                                                                                               -जयशंकर प्रसाद


पात्र-परिचय :

चन्द्रगुप्त

रामगुप्त

शिखरस्वामी

पुरोहित

शकराज

खिंगल

मिहिरदेव

घुवस्वामिनी

मंदाकिनी

कोमा

सामंत-कुमार, शक-सामंत, प्रतिहारी,

 प्रहरी, दासी, कुबड़ा, बौना, हिजड़ा


                                  ध्रुवस्वामिनी

     प्रथम अंक


[शिविर का पिछला भाग, जिसके पीछे पर्वतमाला की प्राचीर है शिविर का एक काम दिखलाई दे रहा है, जिससे सटा हुआ चन्द्रातप टैगा हैं। मोटी-मोटी रेशमी डोरियों से सुनाल के परदे खम्भों से बंधे हैं। दो-सीन सुन्दर मंच रक्रये हुए है। चन्द्रातप और पहाड़ी के बीच छोट कुज, पहाड़ी पर से एक पतली जलधारा उस हरियाली में बहती है । इगरने के पास शिला विपकी हुई लता की डालियाँ पवन में हिल रही हैं। दो-चार छोटे-बड़े वृक्ष, जिन पर फूलों में ल हुई सेवती की लता छोटा सा झुरमट बना रही है।

शिविर के कोने से प्रुवस्वामिनी का प्रवेश पीछे -पीछे एक लम्बी और कुरूप स्त्री चुपचाप नंगी तलवार लिए आती है।]

       धुवस्वामिनी-(सामने पर्वत की ओर देख कर) सीधा तना हुआ, अपने प्रभुत्व की साकार कठोरता, अभाभेदी उन्मुक्त शिखर! और इन क्षुद्र कोमल निरीह लताओं और पौधों को इसके चरण में लोटना ही चाहिए न। (साथवाली खड्गधारिणी की ओर देखकर) क्यों मन्दाकिनी नहीं आई? (वह उत्तर नहीं देती है) योलती क्यों नहीं? यह तो मैं जानती हैं कि इस राजकुल के अन्तःपुर में मेरे लिए न जाने कब से नीरव अपमान संचित रहा, जो मुझे आते ही मिला; किन्तु क्या तुम जैसी दासियों से भी वही मिलेगा? इसी शैलमाला की तरह मौन रहने का अभिनय तुम न करो, बोलो! (वह दाँत दिखाकर बिनय प्रकट करती हुई कुछ और आगे बढ़ने का संकेत करती है) अरे, यह क्या; मेरे भाग्य-विधाता। यह कैसा इन्द्रजाल? उस दिन राज-महापुरोहित ने कुछ आहुतियों के बाद मुझे जो आशीर्वाद दिया था, क्या बह अभिशाप या? इस राजकीय अन्तःपुर में सब जैसे एक रहस्य छिपाए हुए चलते हैं, वोलते हैं और मौन हो जाते हैं । (खड्ग-धारिणी विवशता और भय का अभिनय करती हुई आगे बढ़ने का संकेत करती है) तो क्या तुम मूक हो ? तुम कुछ बोल न सकी? मेरी बातों का उत्तर भी न दो, इसीलिए तुम मेरी सेवा में नियुक्त की गयी हो? यह असहय है। इस राजकुल में एक भी सम्पूर्ण मनुष्यता का निदर्शन न मिलेगा क्या? जिधर देखो कुडे, बौने, हिजडे, गूंगे और बहरे... (बिढ़ती हुई ध्रुवस्वामिनी आगे बढ़कर झरने के किनारे बैठ जाती है, खड़गधारणी भी इघर-उघर देख कर ध्रुवस्वामिनी के पैरों के समीप बैठती है।)

        खड़गपारिणी-(सशंक चारों ओर देखती हुई) देवि, प्रत्येक स्थान और समय बोलने के योग्य नहीं होते। कभी-कभी मौन रह जाना बुरी बात नहीं है । मुझे अपनी दासी समझिये । अवरोध के भीतर मैं गूगी हूँ । वहाँ संदिग्ध न रहने के लिए मुझे ऐसा ही करना पड़ता है।

       धुचत्वामिनी-अरे, तो क्या तुम बोलती भी हो? पर पह लो करो, यह कपट आवरण किसलिये। 

        खड्गधारिणी--एक पीडित की प्रार्थना सुनाने के लिए कुमार चन्द्रगुप्त को आप भूल न गयी होगी।

      धुवस्वामिनी-  (उत्कण्ठा से) वही न, जो मुझे बंदिनी बनाने के गये थे। 

       खड्गधारिणी-(दाँतों से जीभ दबाकर) यह आप क्या कह रही है ? उनको तो स्वयम् अपने भीषण भविष्य का पता नहीं । प्रत्येक क्षण उनके प्राणों पर सन्देह करता है। उन्होंने पूछा है कि मेरा क्या अपराध है?

      धुवस्वामिनी  -(उदासी की मुस्कुराहट के साथ) अपराध? में क्या बताऊँ । तो क्या कुमार भी बन्दी है?

      खड्गधारिणी-कुछ-कुछ ऐसा ही है देवी, राजाधिराज से कहकर क्या आप उनका कुछ उपकार कर सकेंगी?

      ध्रुवस्वामिनी-भला में क्या कर सकूँगी ? मैं तो अपने ही प्राणों का मूल्य नहीं समझ पाती । मुझ पर राजा का कितना अनुग्रह है, यह भी मैं आज तक न जान सकी । मैंने तो कभी उनका मधुर सम्भाषण सुना ही नहीं। बिलासिनियों के साथ मदिरा में उन्मत्त, उन्हें अपने आनन्द से अवकाश कहीं। 

      खड्गधारिणी-तब तो अदृष्ट ही कुमार के जीवन का सहायक होगा उन्होंने पिता का दिया हुआ स्वत्व और राज्य का अधिकार तो छोड़ ही दिया: इसके साथ अपनी एक अमूल्य निधि भी...। (कहते-कहते सहसा रुक जाती है)। 

       ध्रुवस्वामिनी-अपनी अमूल्य निधि वह क्या?

        खड्गधारिणी-वह अत्यन्त गुप्त है देवि, किन्तु में प्राणों की भीख मांगते हुए कह सकूँगी।  

       धुवस्वामिनी -(कुछ सोचकर) तो जाने दो छिपी हुई बातों से में घबरा उठी हूँ हाँ, मैंने उन्हें देखा था, वह निर प्राची का बाल अरुण आह! राज-चक्र सदको पीसता है, पिसने दो; हम निस्यहायं को और दुर्दलों को पिसने दो। 

        खड्गधारिणी-देवि, यह बल्लरी जो मरने के समीप पहाड़ी पर चढ़ गयी है, उसकी नन्हीं नन्हीं पत्तियों को ध्यान से देखने पर आप समझ जाएगी कि वह काई की जाति की है। प्राणों की क्षमता बढा लेने पर वही काई जो बिछलन बनकर गिरा सकती थी, अब दूसरों के ऊपर चढ़ने का अवलम्ब बन गयी है।

        ध्रुवस्यामिनी-(आकाश की और देख कर) वह बहुत दूर की बात है । आह कितनी कठोरता है। मनुष्य के हृदय में देवता को हटा कर सक्षस कहाँ से घुस आता है ? कुमार की स्निग्ध सरल और सुन्दर मूर्ति को देखकर कोई भी प्रेम से पुलकित हो सकता है। किन्तु, उन्हीं का भाई? आश्चर्य! 

         खड्गधारिणी-  कुमार को इतने में ही सन्तोष होगा कि उन्हें कोई विश्वासपूर्वक स्मरण कर लेता है । रही अध्ययष की माला, सो तो उनको अपने वाहू-वल और भाग्य पर ही विश्वास है। धूपयामिणी किन्तु उन्हें कोई ऐसा साहस का काम न करना चाहिए, जिसमें उनकी परिस्थिति और भी भयानक हो जाए। 

                               (खगपारिणी खड़ी होती है)

     अच्छा, तो आप तू जा और अपने मौन संकेत से किसी दासी को यहाँ भेज दे। में अभी भी बैठना चाहती हूं।

                  (खगधारिणी नमस्कार करके जाती है और एक दासी का प्रवेश)

       दासी- (हाथ जोड़ कर) देवि, सायंकाल शो चला है । वनस्पतियाँ शिवल होने लगी हैं । देखिए न, व्योम-विहारी पक्षियों का झुण्ड भी जपने नीड़ों में प्रसन्न कोलाहल से लौट रहा है। क्या भीतर चलने की अभी इच्छा नहीं है?

       ध्रुवस्यामिनी-बतँगी क्यों नहीं? किन्तु मेरा नीड़ कहाँ? यह तो स्वर्ण-पिञ्जर है।

       (करुण भाव से उठकर दासी के कन्धे पर हाथ रखकर चलने को उद्यत होती है। नेपध्य में कोलाहल । - 'महादेवी कहाँ हैं उन्हें कौन बुलाने गयी है?')

      धुवस्वामिनी-हैं यह उतावली कैसी?

      प्रतिहारी-(प्रवेश करके घबराहट से) भट्टारकर इधर आये हैं क्या? ध्रुवस्वामिनी-(व्यंग्य से मुस्कराते हुए) मेरे अंचल में तो छिपे नहीं हैं। देखों किसी कुञ्ज में

      प्रतिहारी-(संभ्रम से) अरे महादेवी, क्षमा कीजिये । युद्ध सम्बन्धी एक आवश्यक सम्वाद देने के लिए महाराज को खोजती हुई मैं इधर आ गयी हूँ ।

      धुवस्वामिनी-होंगे कहीं, यहाँ तो नहीं है।

    (उदास भाव से दासी के साथ प्रुवस्वामिनी का प्रस्थान । दूसरी ओर से खड्गधारिणी का पुनः प्रवेश और कुंज में से अपना उत्तरीय संभलता हुआ रामगुप्त मिलकर एक बार प्रतिहारी की और फिर खडगधारिणी की ओर देखता है।)

        प्रतिहारी-जय हो देव! एक चिन्ताजनक समाचार निवेदन करने के लिए अमात्य ने मुझे भेजा है। 

        रामगुप्त-(झुंझला कर) चिन्ता करते करते देखता हूँ कि मुझे मर जाना पड़ेगा! ठहरो (खड्गधारिणी से) हाँ जी, तुमने अपना काम तो अच्छा किया, किन्तु मैं समझ न सका कि चन्द्रगुप्त को वह जब भी प्यार करती है या नहीं?

(खड्गधारिणी प्रतिकारी की ओर देखकर चुप रह जाती है।)

       रामगुप्त-(प्रतिहारी की और क्रोध से देखता हुआ) तुमसे मैंने कह न दिया कि अभी मुझे अवकाश नहीं, ठहर कर आना?

       प्रतिहारी-राजाधिराजा शकों ने किसी पहाड़ी राह से उतरकर नीचे का गिरि-पथ रोक लिया है। हम लोगों के शिविर का सम्बन्ध राजपथ से छूट गया है । शकों ने दोनों ही ओर से घेर लिया है। 

       रामगुप्त-दोनों ओर से घिरा रहने में शिविर और भी सुरक्षित है। मूर्ख! चुप रह (खड्गधारिणी से) तो धुनदेदि, क्या मन-ही-मन चन्द्रगुप्त को हैन मेरा सन्देह ठीक?

        प्रतिहारी-(हाथ जोड़कर) अपराध कामा हो देव! अमात्य, युद्ध-परिषद् में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

         रामगुप्त-(हदय पर हाथ रखकर) युद्ध तो पहाँ भी चल रहा है, देखता नहीं, जगत् की अनुपम सुन्दरी मुझसे स्नेह नहीं करती और मैं हूँ इस देश का राजाधिराज !

        प्रतिहारी-महाराज, शकराज का सन्देश लेकर एक दूत भी आया है।

        रामगुप्त-आह । किन्तु ध्रुवदेवी! उसके मन में टीस है (कुछ सोचकर) जो स्त्री दूसरे के शासन रहकर और प्रेम किसी अन्य पुरुष से करती है; उसमें एक गम्भीर और व्यापक रस उद्वेलित रहता होगा। वही तो...नही, जो चन्द्रगुप्त से प्रेम करेगी वह स्त्री न जाने कब चोट कर बैठे ? भीतर-भीतर न जाने कितने कुचक्र घूमने लगेंगे (खड्गधारिणी से) सुना न, ध्रुवदेवी से कह देना चाहिए कि वह मुझे और मुझे ही प्यार करें । केवल महादेवी बन जाना ठीक नहीं। 

(खड्गधारिणी का प्रतिहारी के साथ प्रस्थान और शिखर स्वामी का प्रवेश)

       शिखर-स्वामी-कुछ आवश्यक बातें कहनी हैं देव!

       रामगुप्त-(चिन्ता से उँगली दिखाते हुए, जैसे अपने आप बातें कर रहा हो) ध्रुवदवी को लेकर क्या साम्राज्य से भी हाथ धोना पड़ेगा! नहीं तो फिर ? (कुछ सोचते लगता है) ठीका तो. सहसा मेरे राजदण्ड ग्रहण कर लेने से पुरोहित, अमात्य और सेनापति लोग छिपा हुआ विद्रोह भाव रखते हैं। (शिखर से) है न? केवल एक तुम्हीं मेरे विश्वासपात्र हो। समझा न! यही गिरिन्पथ सब झगड़ों का अन्तिम निर्णय करेगा । क्यों अमात्य, जिसकी भुजाओं में चल न हो, उसके मस्तिष्क में तो कुछ होना चाहिए?

      शिखर-स्वामी-(एक पत्र देकर) पहले इसे पढ़ लीजिए! (रामगुप्त पत्र पढ़ते-पढ़ते जैसे आश्चर्य से चाक उठता है) चौकिये मत, यह घटना इतनी आकस्मिक है कि कुछ सोचने का अवसर नहीं मिलता।

     रामगुप्त-(ठहरकर) है तो ऐसा ही किन्तु एक बार ही मेरे प्रतिकूल भी नहीं । मुझे इसकी सम्भावना पहले से भी थी।

      शिखर-स्यामी- (आश्चर्य से) ऐ? तब तो महाराज ने अवश्य ही कुछ सोच लिया होगा। मेघ- संकुल आकाश की तरह जिसका भविष्य घिरा हो, उसकी युधि को तो बिजली के समान चमकना ही चाहिए।

     रामगुप्त-(सशंक) कह दूं। सोचा है तो मैंने परन्तु क्या तुम उसका समर्थन करोगे? शिखर-स्वामी-यदि नीति-युक्त हुआ तो अवश्य समर्थन करुंगा। सबके विरुद्ध रहने पर भी स्वर्गीय आर्य समुद्रगुप्त की आक्षा के प्रतिकूल मैंने ही आपका समर्थन किया था। नीति-सिद्धान्त के आधार पर ज्येष्ट राजपुत्र को ...............।

     रामगुप्त-(बात काटकर) वह तो, वह तो में जानता हूँ, किन्तु इस समय जो प्रश्न सामने आ गया है, उसपर विचार करना चाहिए । यह तुम जानते हो कि मरी इस बिजय-यात्रा का कोई गुप्त उद्देश्य है। उसकी सफलता भी सामने ईपड़ रही है। हाँ, थोडा-सा साहस चाहिए।

     शिखर-स्वामी-वह क्या?

    रामगुप्त-शक-दूत सन्धि के लिए जो प्रमाण चाहता हो उसे अस्वीकार न करना चाहिए। ऐसा करने में इस संकट के बहाने जितनी विरोधी प्रकृति है, उस सबको हम लोग सहज में ही हटा सकेंगे। शिखर-स्वामी-भविष्य के लिए यह चाहे अच्छा हो; किन्तु इस समय तो हम लोगों को बहुत-से विघ्नों का सामना करना पड़ेगा।

     रामगुप्त-(हँसकर) तथा तुम्हारी बुद्धि कब काम में आवेगी ? और हां, चन्द्रगुप्त के मनोभाव का कुछ पता लगा?

    शिखरस्वामी-कोई नयी बात तो नहीं।

     रामगुप्त में देखता हूँ कि मुझे पहले अपने अन्तापुर के ही विद्रोह का दमन करना होगा (निःश्वास लेकर) ध्रुवदेवी के हृदय में चंद्रगुप्त की आकांक्षा धीरे-धीरे जाग रही है।

     शिखर-स्वामी-यह असम्भव नहीं; किन्तु महाराज! इस समय जाप को दूत से साक्षात् करके उपस्थित राजनीति पर ध्यान देना चाहिए। यह एक विचित्र वात है कि प्रबल पक्ष सन्धि के लिए सन्देश भेजे।

    रामगुप्त-विचित्र हो चाहे सचित्र, अमात्य, तुम्हारी राजनीतिज्ञता इसी में है कि भीतर और बाहर के सब शत्रु एक ही चाल में परास्त हो। तो चलो ।

                 (दोनों का प्रस्थान। मन्दाकिनी का सशंक भाव से प्रवेश)

     मन्दाकिनी-(चारों और देखकर) भयानक समस्या है। मुखों ने स्वार्थ के लिए साधाज्य के गोरच का सर्वनाश करने का निश्चय कर लिया है। सच है. पीरता जय भागती है, तब उसके पैरों से राजनीतिक एल छन्द की धूल उहती है। (कुछ सोचकर) कुमार चन्द्रगुप्त को पह सय समाचार शीघ्र ही मिलना चाहिए । गूंगी के अभिनय में महादेषी के हृदय का आवरण तनिक सा इटा मे, किन्तु वह योडा सा स्निग्ध भार भी कुमार के लिए कम महत्त्व नहीं रखता। कुमार चन्द्रगुप्त! कितना समर्पण का भाव है उसमें और उसका बड़ा भाई रामगुप्त। कपटाचारी रामगुप्त! जी करता है, इस कालुषित वातावरण से कीं दूर, विभूति में अपने को ठिपा लूँ। पर मन्दा तुझे विधाता ने क्यों पनाया? (सोचने लगती है) नहीं, मुझे हवय कटोर करके अपना कर्तव्य करने के लिए यहाँ रुकना होगा । न्याय का दुर्बल पास ग्रहण करना होगा।


            (गाती है)

पर कसक अरे आंसू सह जा।

बनकर विन अभिमान मुझे 

मेरा अस्तित्व बता, रह जा।

बन प्रेम छलक कोने कोने

अपनी नीरव गाथा कह जा।

करुणा बन दुखिया वसुधा पर

शीतलता फैलाता यह जा।


(जाती है। भुवस्वामिनी का उदास भाव से धीरे-धीरे प्रवेश। पीछे एक परिचारिका पान का डिब्बा और दूसरी चमर लिये आती भुवस्वामिनी एक मंच पर बैठकर अधरों पर उँगली रखकर कुछ सोचने लगती है और बभरधारिणी चमर चलाने लगती है।)

       ध्रुवस्वामिनी-(दुसरी परिचारिका से) हां, क्या कहा! शिखर स्वामी कुष्ठ कहना चाहते हैं कह दो, कल सुनेगा, आज नहीं।

      परिचारिका-जैसी आज्ञा । तो में कह आऊँ कि अमात्य से कल महादेवी बातें करेगी?

      ध्रुवस्वामिनी-कुछ सोच कर) ठहरो तो, वह गुप्त साम्राज्य का अमात्य है, उससे आज ही भेंट करना होगा। हाँ यह तो बताओ. तुम्हारे राजकुल का नियम क्या है? पहल अमात्य की मंत्रणा सुननी पड़ती है तब राजा से भेंट होती है?

     परिचारिका-(दाँतों से जीभ दबाकर) ऐसा नियम तो मैने नहीं सुना । यह युद्ध-शिविर हैं न? परम भट्टारक को जवसर न मिला होगा । महादेवी! आपको सन्देह न करना चाहिए।

     ध्रुवस्वामिनी-मैं महादगी हो न? यदि या सत्य है तो क्या तुम मेरी आमा कुमार चन्द्रगुप्त को यहाँ बुला सकती हो ? में चाहती हूँ कि अमात्य के साथ ही कुमार से भी कुछ बातें कर गर्ने परिचारिका-शमा कीजिए. इसके लिए तो पहले अमात्य से पूछना होगा।

    (ध्रुवस्वामिनी कोष से उसकी ओर देखने लगती है और वह पान का डिया रखकर चली जाती है। एक बौने का कुबो और हिजों के साथ प्रबेश)

     कुबड़ा-युख! भयानक युद्ध!।

     बौना-हो रहा है, कि कहीं होगा मित्र!

     हिजता-बहनो, यही युद्ध करके दिखाएं न, महादेवी भी देख लें।

     बौना-(कुबडे से) सुनता है रे। तू अपना हिमाचल इधर कर दै-में दिग्विजय करने के लिए कुबर पर चदाई कलंगा।

         (उसकी कूबड़ को दबाता है और कुबड़ा अपने घुटनों और हाथों के बल बैठ जाता है। हिजड़ा कुयों की पीठ पर बैठता है। यौना एक मोर्छल लेकर तलबार की तरह उसे पुमाने लगता है)

         हिजडा-अरे! यह तो में हैं नल-कुदर की वधू। दिग्विजयी बीर, क्या तुम स्त्री से युद्ध करोगे? लौट जाओ, कल जाना । मेरे असुर और आर्यपुत्र दोनों ही उर्वशी और रम्भा के अभिसार से अभी नहीं आये। कुछ आज ही तो युद्ध करने का शुभ मुहूर्त नहीं है।

        बौना-(मोर्छल से पटा घुमाता हुआ) नहीं, आज ही युद्ध होगा। तुम स्त्री नहीं हो, तुम्हारी उँगलियाँ तो मेरी तलवार से भी अधिक चल रही है । फूचड़ तुम्हारे नीचे है तब मैं मान लूँ कि तुम न तो नल-कूबर हो और न कुवेर तुम्हारे वस्त्रों से में धोखा न खा जाऊँगा । तुम पुरुष हो,युद्ध करो      हिजड़ा-उसी तरह मटकते हुए) अरे, मैं स्त्री हूँ। वहनो, कोई मुझसे व्याह भले ही कर सकता है, लड़ाई मैं क्या जाने?

             (दासी के साथ शिखर-स्वामी का प्रवेश)

       शिखर-स्वामी--महादेवी की जय हो।

         (दूसरी ओर से एक युवती दासी के कन्धे का सहारा लिये कुछ-कुछ मदिरा के नशे में रामगुप्त का प्रवेश । मुसकराता हुआ बाँने का खेल देखने लगता है। ध्रुवस्वामिनी उठकर खड़ी हो जाती है और शिखर स्वामी रामगुप्त को संकेत करता है।)

        रामगुप्त-कुछ भरे हुए कण्ठ से) महादेवी की जय हो।

        ध्रुवस्वामिनी-स्वागत महाराज!

        (रामगुप्त एक मंच पर बैठ जाता है और शिर स्थामी मुबसावामिनी के इस उदासीन शिष्टाचार से चकित होकर सिर खुजलाने लगता है।)

       कुवड़ा-दोहाई राजाधिराज की। मेष हिमालय का कूबड़ दुखने लगा। न तो यह नालकूबर की बर मेरे कुबर से उठती है और न तो यह बीना मुझे विजय ही कर लेता है

       रामगुप्त-हसत हुए) बार रे वामन बीर! यहाँ दिग्विजय का नाटक खेला जा रहा है क्या? 

       बौना-(अकड़कर) वामन के बलि-विजप की गाथा और तीन पगों की महिमा सव लोग जानते हैं। मैं भी तीन लात में इसका कूबर सीधा कर सकता हूं।

       कुवहा-लगा दे भाई पौने फिर यह अचल मफूट बनना तो छूट जाय!

       हिजडा-देखी जी, मैं नलकूबर की बू इसपर बैठी हैं।

       बौना-झूठ! युद्ध के डर से पुरुष होकर भी यह स्त्री बन गया है। 

       हिजला- तो पहले ही कह चुकी कि मैं युद्ध करना नहीं जानती ।

     बीना-तुम नलकूदर की स्त्री हो न, तो अपनी विजय का उपहार समझकर मैं तुमारा हरण कार लूँगा । (और लोगों की ओर देखकर उसका हाथ पकड़कर खींचता हुआ) ठीक होगा ना कदाचित यर धर्म के विरुद्ध न होगा।

         (रामगुप्त ठठाकर हंसने लगता है।)

      घुवस्वामिनी-(क्रोध से कडककर) निकालो! अभी निकली, यहाँ ऐसी निर्लज्जता का नाटक में नहीं देखना चाहती। (शिखर-स्वामी की और भी सक्रोध देखती है, शिखर के संकेत करने पर ये सब भाग जाते हैं।) 

      रामगुप्त-अरे, ओ दिग्विजयी सुन तो (उठकर ताली पीटता हुआ हैँसने सगता है। ध्रुवस्वामिनी क्षोभ और घृणा से मुंह फिरा लेती है। 

       शिखर-स्वामी के संकेत से दासी मदिरा का पात्र ले आती है, उसे देखकर प्रसन्नता से आंख फाहकर शिखर की ओर अपना हाथ वढा देता है) जमात्य आज ही महादेवी के पास में आया और आप भी पहुँच गये, यह एक विलक्षण घटना है। है न? ( पात्र लेकर पीता है।)

      शिखर-स्वामी-देव. में इस समय एक आवश्यक कार्य से आया हूँ।

     रामगुप्त-ओड, में तो भूल ही गया था! वह वर्धर शकराज क्या चाहता है? में आक्रमण न करूँ इतना ही तो? जाने दो, पुद्ध कोई अच्छी बात तो नहीं।

     शिखर-स्वामी-वह और भी कुछ चाहता है। 

     रामगुप्त-क्या कुछ सहायता भी माँग रहा है?

      शियर स्वामी-(सिर झुका कर गम्भीरता से) नही देव, बह पहुत ही असंगत और अशिष्ट याचना कर रहा है।

      रामगुप्त-क्या? कुछ कहो भी।

       शिखर-स्वामी-अमा गो महाराज! दूत तो अवध्य होता ही है, इसलिए उसका सन्देश सुनना ही पड़ा। वह कहता था कि शकराज से महादेवी भरुवा यामिनी का ( रुककर धुवस्वामिनी की जोर देखने लगता है। मुवस्यामिनी सिर हिलाकर कहने की आज्ञा देती है।) विधाह-सम्बन्ध स्थिर हो चुका या, बीद में ही आर्य समुद्रगुप्त की विजय यात्रा में महादेवी के पिताजी ने उपहार में उन्हें गुप्तकुल में भेज दिया, इसलिए महादेवी को बह....। 

       रामगुप्त-रे, क्या कहते हो अमात्य? क्या वह महादेवी को माँगता है ?

      शिवर-स्वामी-हाँ देव! साथ ही वह अपने सामन्तों के लिए भी मगध के सामन्तों को स्त्रियों को मांगता है।

     रामगुप्त-यास लेकर) ठीक ही है, जब उसके यहाँ सामन्त है, तब उन लोगों के लिए भी

स्त्रियाँ  चाहिए । हाँ, क्या यह सच है कि महादेवी के पिता ने पहले शफराज से इनका सम्बन्ध स्थिर कर लिया था

     शिखरस्वामी-यह तो मुझे नहीं मालूम? (ध्रुबस्थामिनी रोष से फुलती हुई टहलने लगती है।)

     रामगुप्त-महादेवी, अमात्य क्या पूछ रहे हैं?

     घुवस्वामिनी -इस प्रथम सम्भाषण के लिए में कृतज्ञ हुई महाराज! किन्तु चाहता हूँ कि गुप्त साम्राज्य क्या स्त्री-सम्प्रदान से ही बढ़ा है।

     रामगुप्त-(झपकर हंसते हुआ) हे-हें-में, बताइए अमात्य जी!

     शिखर-स्वामी-में क्या कहूँ? शत्रु-पक्ष का यही सन्धि-सन्देश है यदि स्वीकार न हो तो युद्ध कीजिए । किचिर दोनों ओर से घिर गया है। उसकी याते मानिए, या मरकर भी अपनी कुल मर्यादा की रक्षा कीजिए दूसरा कोई उपाय नहीं।

      रामगुप्त-(चाँककर) वया प्राण देने के अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं? ॐ हूँ, तब तो महादयी से पूछिए।

        ध्रुवस्वामिनी-(तीव्र स्वर से) और आप लोग, कुबडा, बौनों और नपुंसकों का नृत्य देखेंगे। मैं जानना चाहती हूँ कि किसने सुख-दुःख में मेरा साथ न छोड़ने की प्रतिज्ञा अग्नि-वेदी के सामने की है ?

         रामगुप्त-(चारों और देखकर) किसने की है, कोई बोलता क्यों नहीं?

        ध्रुवस्वामिनी - तो क्या में राजाधिराज रामगुप्त की महादेवी नहीं हैं?

        रामगुप्त-क्यों नहीं? परन्तु रामगुप्त ने ऐसी कोई प्रतिक्षा न की होगी। मैं तो उस दिन ब्राक्षासव में दुबकी लगा रहा था । पुरोहितां न न जाने क्या क्या पढ़ा दिया होगा । उन सब बातों का खोया मेरे सिर पर (सिर हिलाकर) कदापि नहीं।

        ध्रुवस्वामिनी-(निस्सहाय होकर दीनता से शिखरस्वामी के प्रति) वह तो हुई राजा की व्पवाया, अथ सु मंत्री महोदय क्या कहते हैं।

        शिखर नव्यामी मैं कहूँगा देवि, अवसर देखकर राज्य की रक्षा करनेवाली उचित सम्मति दे देना ही तो कर्तव्य है राजनीति के सिद्धान्त में राष्ट्र की रक्षा सन उपायों से करने का आदेश है उसके लिए राजा, रानी कुमार और अमात्य सबका विसर्जन किया जा सकता है। किन्तु राज विसर्जन अन्तिम उपाय है। 

       रामगुप्त-(प्रसन्नता से) बाह! क्या कहा तुमने तभी तो लोग तुम्हे नीति-शास्त्र का   बृहस्पति समझते हैं।

      ध्रुवस्वामिनी -अमात्य, तुम बृहस्पति हो रहे शुक्र, किन्तु धूर्त होने से ही क्या मनुष्य भूल नहीं कर सकता? आर्य समुद्रगुप्त के पुत्र को पहचानने में तुमने भूल तो नहीं की सिंहासन पर ्रम से किसी दूसरे को तो नहीं बिठा दिया।

       रामगुप्त-(आश्चर्य से) क्या?क्या?? क्या ???

      ध्रुवस्वामिनी  -कुछ नहीं, में केवल यही कहना चाहती हूं कि पुरुषों ने स्त्रियों को अपनी पशु सम्पत्ति समझकर उनपर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है, वह मेरे साथ नहीं चल सकता। यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा, नारी का गौरब, नहीं बचा सकते, तो मुझे बेच भी नहीं सकते हो। हा, तुम लोगों को आपत्ति से बचाने के लिए में स्वयं यहाँ से चली जाऊँगी। 

      शिखर-स्वामी-(मुंह बनाकर) उंह, राजनीति में ऐसी बातों को स्थान नहीं । जय तक नियमो के अनुकूल सन्धि का पूर्ण रूप से पालन नहीं किया जाए तब तक सन्धि का कोई अर्थ ही नहीं। 

    ध्रुवस्वामिनी -देखती हूँ कि इस राष्ट्र-रक्षा-या में रानी की बलि हगी ती । 

      शिखर-स्वामी-दूसरा कोई उपाय नहीं।

      ध्रुवस्वामिनी-(क्रोध से पैर पटककर) उपाय नहीं, तो न हो, निर्लज्ज अमात्य! फिर ऐसा प्रस्ताव में सुनना नहीं चाहती।

      रामगुप्त-(चर्चाककर) इस छोटी-सी बात के लिए इतना यहा उपद्रव। (दासी की ओर देखकर) मेरा तो काट सूखने लगा।

                       (वह मदिरा देती है)

      ध्रुवस्वामिनी-(दृढता से) अच्छा, तो अब में चागती हूँ कि अमात्य जपने मंत्रणा गृह में जाएँ। में केवल रानी ही नहीं, किन्तु स्त्री भी हैं, मुझे आपने की पति कहनेवाले पुष्प से कुछ कहना है, राजा से नहीं (शिखर स्वामी का वासियों के साथ प्रस्थान।)

     रामगुप्त-ठहरो जी, मैं भी चलता हूँ (उठना चाहता है। प्रुवस्वामिनी उसका हाथ पकड़कर रोक लेती है।) तुम मुझसे क्या कहना चाहती हो? 

     ध्रुवसयामिनी-(ठहरकर) अकेले यहाँ भय लगता है क्या? बैठिए, सुनिए। मेरे पिता ने उपहार स्वरूप कन्या-दान किया था। किन्तु गुप्तसमाट् क्या अपनी पत्नी शत्रु को उपाहार में देंगे? (घुटने के बल बैठकर) देखिए, मेरी ओर देखिए। मेरा बीच क्या इतने का भी अधिकारी नहीं कि अपने को स्वामी समझनेवाला पुष्प उसके लिए प्राणा का प्रण लगा सके ।

      रामगुप्त (उसे देखता हुआ) तुम सुन्दर हो, ओह, कितनी सुन्दर, किन्तु सोने की कटार पर मुग्ध होकर उसे कोई अपने हृदय में डुबा नहीं सकता। तुम्तारी सुन्दरता-तुम्हारा नारीत्व-अमूल्य हो सकता है। फिर भी अपने लिए में स्वयं कितना आवश्यक हूँ, कदाचित् तुम यह नहीं जानती हो ।

    ध्रुवस्वामिनी-(उसके पैरों को पकड़कर) मैं गुप्त कुल की वधू होकर इस राज-परिवार में आयी हूँ इसी विश्वास पर...

      रामगुप्त (उसे रोककर) बह सद में नहीं सुनना चाहता।

      ध्रुवस्वामिनी-मेरी रक्षा करो । मेरे अपने गौरव की रक्षा करो । राजा, आज में शरण की प्रार्थना हूँ। मैं स्वीकार करता हूं कि आज तक में तुम्हारे बिलास की सहचरी नहीं हूँ। किन्तु वह मेरा अहंकार चूर्ण हो गया है। मैं तुम्हारी होकर रहूँगी। राज्य और सम्पत्ति रहने पर राजा को-पुरुष को बहुत-सी रानियां और स्त्रियों मिलती हैं; किन्तु व्यक्ति का मान नष्ट होने पर फिर नहीं मिलता ।

       रामगुप्त-घबराकर उसका हाथ हटाता हुआ) आह, तुम्हारा वह घातक स्पर्श बहुत ही उत्तेजनापूर्ण है। में, नहीं। तुम, मेरी रानी? नहीं, नहीं । जाओ, तुमको जाना पड़ेगा । तुम उपहार की वस्तु हो । आज मैं तुम्हें किसी दूसरे को देना चाहता हूँ। इसमें तुम्हें क्यों आपत्ति हो?    

      ध्रुवस्वामिनी-(खड़ी होंकर रोप से) निर्लज्ज! मद्यप!! क्लीच!! ओह, तो मेरा कोई रक्षक नहीं (ठहरकर) नहीं, मैं अपनी रक्षा स्वयं करूंगी। मैं उपहार में देने की वस्तु, शीतल मणि नहीं हूँ। मुझमें रक्त की तरल लालिमा है । मेरा हृदय उष्ण है और उसमें आत्मसम्मान की ज्योति है। उसकी रक्षा में ही करूंगा (रसना से कृपाणी निकाल लेती है)।

    रामगुप्त - (भयभीत होकर पीछे हटता हुआ) तो क्या तुम मेरी हत्या करोगी? ध्रुवस्वामिनी तुम्हारी हत्या? नहीं, तुम जिओ । भेड की तरह तुम्हारा क्षुद्र जीवन! उसे न तुंगी! मैं अपना ही जीवन समाप्त करूँगी।

   रामगुप्त--किन्तु तुमार मर जाने पर उस पर शकरान के पास किसको भेना गावगा? मी, नहीं ऐसा न करो । गत्या | मत्या ।। । दीहो। (भागता हा निकाल जाता है। दूसरी ओर से वेग सहित योगुप्त का प्रवेश)

       चन्द्रगुप्त- हत्या कैसी हत्या (ध्रुवस्वामिनी को देखकर) वह क्या? महादेवी ठहरिए।

      ध्रुवस्वामिनी- कुमार, इसी समय तुम भी आना (सकरुण देती हुई) में प्रार्थना करती है कि तुम या से धले जाध (मुझे आपने अपमान में निर्यखननान देशाग का किसी पुरुष को धिकार नहीं मा मृत्यु को चादर से अपने को कि ने दो DB

     चन्द्रगुप्त-किन्तु क्या कारणा सुनने का में अधिकारी नहीं हैं ?

     ध्रुवस्वामिनी-सुनोगे ? (ठहरकर सोचती हुई) नी, सभी जात्गहत्या नहीं करूँगी । जब तुम आ गये हो तो गोड़ा ठहारगी । या तीखी पूरी इस अतात हदप में, विकासोन्मुख कुसुम में विपले कीट के इंक की तरह चुभा दूं या नहीं, इसपर विचार करेगी। यदि नहीं तो मेरी दुर्दशा का पुरस्कार क्या कुछ और है? हाँ जीवन के लिए कूलन, उपकृत और आभारी होकर किसी के अभिगानपुर्ण आत्म-विज्ञापन का भार दोती रहू-यही वया विधाता का निटूर विधान है? एटकारा नहीं ? जीवन नियति के कठिन आदेश पर चलेगा ही तो क्या यह मेरा जीवन भी अपना नहीं है?

    चन्द्रगुप्त - देवी जीवन विश्व की सम्पत्ति है। प्रमाद से, क्षणिक आवेश से, या काख की कठिनाइयों से उसे नष्ट करना ठीक तो नहीं । गुप्त कुरण-लक्ष्मी आज यह छिग्रम्ता का अवतार किस लिए धारण करना चाहती है? सु भी?

       ध्रुवस्वामिनी -नहीं, में न करूंगी। क्योंकि तुम आ गये हो मेरी शिविका के साथ चामर- मज्जित अध पर चढ़कर तुम्ही उस दिन आया थे? तुम्हारा विश्वासपूर्ण मुख्यमण्डल मेरे साथ आने में क्यों इतना प्रसन्न था?

      चन्द्रगुप्त-मैं गुप्तबुल-वधू को आदरसहित ले आने के लिए गया था। फ़िर प्रसन्न क्यों न होता ध्रुवस्वामिनी-सा फिर आज मुझे शक शिविर में पहुंचाने के लिए उसी प्रकार तुमको मेरे साथ चालना होगा। (आँखों से आँसू पोछती है।)

      चन्द्रगुप्त-आश्चर्य से) यह कैसा परिहास।

      ध्रुवस्वामिनी -कुमार! यह परिहास नहीं, राजा की आज्ञा है। शकराज को मेरी अत्यन्त आवश्यकता है। यह अवरोध, बिना मेरा उपहार दिये नहीं हट सकता।

       चन्द्रगुप्त-(आवेश से) या नहीं हो सकता महादवी! जिस मर्यादा के लिए- जिस महत्त्व का स्थिर रखने के लिए, मैंने राजदण्ड ग्रहण न करके अपना मिला हुआ अधिकार छोड़ दिया; उसका यह अपमान! मेरे जीवित रहते आ समुद्रगुप्त के स्वर्गीय गर्थ को इस तरह पद-दलित होना न पडेगा। (ठहरकर) और भी एक धात है। मेरे सयय के अनाकार में प्रथम किरण-सी आफर जिसने अन्नातभाव से अपना मधुर आलोक काल दिया था, उसको भी मैंने केवल इसीलिए भूलने का प्रयत्न किया कि- (सहसा चुप हो जाता है।)

     ध्रुवस्वामिनी  - बन्द किये हुए कुतूहन्न-भरी प्रसन्नता से) हाँ-हाँ, काहो-को

               (शिखर स्वामी के साथ रामगुप्त का प्रवेश)

       रामगुप्त-देखो तो कुमार यह भी कोई बात है? आत्महत्या फितना वडा अपराध है।

       चन्द्रगुप्त-और आप से तो वह भी नहीं करते बनता।

        रामगुप्त- (शिखर स्वामी से) देखो कुमार के मन में छिपा हुआ कलुष कितना.. कितना...भयानक है।

        शिखर-स्वामी - कुमार, विनय गुप्त-कुल का सर्वोत्तम गृह-विधान है। उसे न भूलना चाहिए।) 

        चन्द्रगुप्त - (व्यंग्य से हंसकर) अमात्य नभी तो तुमने व्यवस्था दी है कि महादेवी को देकर भी सन्धि की जाए। क्यों पही तो बिनय की पराकाष्ठा है। ऐसा बिनय प्रवञ्चकों का आवरण है, जिसमें शील न हो और शील परस्पर सम्मान की घोषणा करता है। कापुरुष! आर्य समुद्रगुप्त का सम्मान.

          शिवर-स्वामी-बीच में यात काटकर) उसके लिए मुझे प्राणदण्ड दिया जाए! मैं उसे अविद्यल भाव से ग्रहण करेगा, परन्तु और राष्ट्र की रक्षा होनी चाहिए।

          मन्दाकिनी-(प्रवेश करके) राजा जपने राष्ट्र की रक्षा करने में असमर्थ है, तब भी उस राजा की रक्षा होनी ही चाहिए। अमात्य, यह कैसी विवशता है। तुम मृत्युदण्ड के लिए उत्सुक! महादेवी आत्महत्या करने के लिए प्रस्तुत। फिर यह हिचक क्या? एक वार अन्तिम वल से परीक्षा कर देखो। बचोगे तो राष्ट्र और मान भी बचेगा, नहीं तो सर्वनाश

        चन्द्रगुप्त-आहा, मन्दा। भला तू कहाँ से वा उत्साहभरी बात कहने के लिए आ गयी? ठीक तो है अमात्य! सुनो, यह स्त्री क्या कह रही है।

        रामगुप्त-(अपने हाथों को मसलते हुए) दुरभिसन्धि, धन, मेरे प्राण लेने का कौशल!

        चन्द्रगुप्त-तव आओ, हम लोग स्त्री बन जाएँ और बैठकर रोएं। 

        हिजडा-(प्रवेश करके) कुमार, स्त्री बनना सहज नहीं है। कुछ दिनों तक मुझसे सीखना होगा (सबका मुंह देखता है और शिखर-स्वामी के मुँह पर हाथ फेरता है) उहूँ तुम नहीं दन सकते । तुम्हारे ऊपर या कटोर आवरण है । (कुमार के समीप जाकर) कुमार! मैं शपथ खाकर कह सकती हैं कि यदि मैं अपने हाथों गे सजा दें तो आपको देखकर महादेवी का भ्रम हो जाए।

            (चन्द्रगुप्त उसका कान पकड़कर बाहर कर देता है) 

         ध्रुवस्वामिनी-उसे छोड़ दो कुमार! यहाँ पर एक यही नपुंसक तो नहीं है । वहुत-से लोगों में से किसको-किसको निकालोगे?

          (चन्द्रगुप्त उसे  छोड़कर चिन्तित-सा टहलने लगता है और शिखर-स्वामी रामगुप्त के कानों में कुछ कहता है)

           चन्द्रगुप्त- सहसा खडे होकर) अमात्य, तो तुम्हारी ही बात रही। हा, उसभें तुम्हारे सहयोगी हिजड़े की भी सम्मति मुझे अच्छी लगी। म धुनस्वामिनी बनकर अन्य सामन्त कुमार के साथ शकराज के पास जाऊँगा। यदि मैं सफल हुआ तब तो कोई बात ही नहीं अन्यया मेरी मृत्यु के बाद तुम लोग जैसा उचित समझना, वैसा करना ।

        ध्रुवस्वामिनी -(चन्द्रगुप्त को अपनी मुजाओं में पकाकर) नहीं, मैं तुमको न जाने दूगी मेरे कष्र, हर्षद नारी-जीवन का सम्मान बचाने के लिए इतने बड़े निदान की आवश्यकता नहीं ।       

          रामगुप्त-(आश्चर्य और कोच से) छोड़ो, छोड़ो, पर कैसा अनर्थ! सयके सामने यह कैसी निर्लज्जता।

        ध्रुवस्वामिनी-(चन्द्रगुप्त को छोड़ती हुई जैसे चैतन्य होकर) यह पाप है? जो मेरे लिए अपनी बलि दे सकता हो, जो मेरे स्नेह (ठहरकर) अथवा इससे क्या शकराज क्या मुझे देवी बनाकर भक्ति-भाद से मेरी पूजा करेगा। चाह रे लज्जाशील पुरुष!

              (शिखर - स्वामी फिर रामगुप्त के कान में कुछ कहता है। रामगुप्त स्वीकार सूबक सिर हिलाता है)

         शिखर-स्वामी-राजाधिराज, आज्ञा दीजिए, यही एक उपाय है, जिसे कुमार बता रहे है किन्तु राजनीति की दृष्टि से महादेवी का भी वहाँ जाना आवश्यक है। 

         चन्द्रगुप्त-(क्रोध से) क्यों आवश्यक है। यदि उन्हें जाना ही पड़ा, तो फिर मेरे जाने से क्या लाभ तव मेंन जाऊँगा। रामगुप्त नहीं यह मेरी आज्ञा है। सामन्त-कुमारों के साथ जाने के लिए प्रस्तुत हो जाओ। ध्रुवस्वामिनी-तो कुमार। हम लोगों का चलना निश्चित ही है अब इसमें चिलम्ब की जावश्यकता नहीं ।

       (चन्द्रगुप्त का प्रस्थान । ध्रुवस्वामिनी मंच पर बैठकर रोने लगती है।) 

        रामगुप्त-अब यह कैसा अभिनय! मुझे तो पहले से ही शंका थी और आज तो तुमने मेरी आँखें भी खोल दीं।

       ध्रुवस्वामिनी - अनार्य । निष्ठुर! मुझे कलंक-कालिमा के कारागार में बंद कर, मर्म-वाक्य के धुएँ से उग पाटकर मार डालने की आशा न करो । आज मेरी असहायता मुझे अमृत पिलाकर मेरा निलज्ज जीवन बढ़ाने के लिए तत्पर है । उठकर, हाथ से निकल जाने का संकेत करते हुए) जागो, में एकान्त चारती है।

            (शिखर स्वामी के साथ रामगुप्त का प्रस्थान)

        धुवस्वामिनी-कितना अनुभूति पूर्ण था वह एक क्षण का आलिंगन। कितने सन्तोष से भरा या! नियति ना आतात्त भाव से मानो लू से तपी हुई बसधा को क्षितिज के निर्जन से सायंकालीन शीतल आकाश में मिला दिया हो।हरेकर) निस वायु-विहीन प्रदेश में उसकी हुई साँसों पर पन्धन हो अर्गला हो, वहाँ रहते-रहते यह जीवन असहय हो गया था। तो भी मरूगी नहीं। संसार के कुछ दिन विधाता के विधान में अपने लिए सुरक्षित करा लूंगी । कुमार' तुमने वही किया, जिसे में बचाती रही। तुम्हारे उपकार और रनेट की चर्चा में में भीगी जा रही हैं। ओह, (हदय पर उँगली रखकर) इस वक्षस्थता में यो हदय है क्या? जब जन्तरंग'हाँ' करना चाहता है, लव ऊपरी मन 'ना' क्यों कहना देता है?


चन्द्रगुप्त-(प्रवेश करके) महादेवी, हम लोग प्रस्तुत है, किन्तु भरवस्वामिनी के साथ शक शिविर में जाने के लिए जम साग सहमत नहीं।

     ध्रुवस्वामिनी  -(हँसकर) राजा की आना गान लेना ही पर्याप्त नहीं । रानी की भी एक बात न मानोगे मने तो पहले ही कुमार से प्रार्थना की थी कि मुझे जैसे ले आये हो, उसी तरह पहुँचा भी दी। 

    चन्द्रगुप्त नहीं -मैं अकेला ही जाऊंगा।

    ध्रुवस्वामिनी-कुमार। यह मृत्यु और निर्वासन का सुप तुम अकेले ही लोग, ऐसा नहीं हो सकता । राजा की इच्छा क्या है, यह जानते हो? मुझसे और तुमसे एक साथ ही टकारा । तो फिर वही अगों न हो? हम दोनों ही चलेंगे। मृत्यु के गर में प्रवेश करने के समय में भी एक विनोद, प्रलय का परिहास, दख सकूँगी । मेरी सहचरी तुम्हारा घर ध्रुवस्वामिनी का वेश, धुबस्वामिनी ही न देख तो किस काम का?


(दोनों हाथों में चन्द्रगुप्त का चिबुक पकड़कर सकरुण देखती है।) 

चन्द्रगुप्त-(अधखुली आँखों से देखता हुआ) तो फिर चलो।


(सामन्त कुमारों के आगे-आगे मन्दाकिनी का गम्भीर स्वर से गाते हुए प्रबेश) 

पैरों के नीचे जलधर हों, बिजली से उनका खेल चले 

संकीर्ण कगारों के नीचे, शत-शत झरने बेमेल चले 

सन्नाटे में हो विकल पवन, पादप निज पद हों चूम रहे 

तब भी गिरि-पथ का अथक पथिक, ऊपर ऊँचे सब झेल चलें 

पृथ्वी की आँखों में बनकर छाया का पुतला बढ़ता हो 

सूने तम में हो ज्योति बना, अपनी प्रतिमा को गढ़ता हो

पीड़ा की धूल उड़ाता-सा, बाधाओं को ठुकराता-सा 

कष्टों पर कुछ मुसकाता-सा, ऊपर ऊँचे सब झेल चले 

खिलते हों क्षत के फूल वहाँ बन व्यथा तमिस्रा के तारे 

पद-पद पर तांडव नर्तन हो, स्वर सप्तक होवें लय सारे 

भैरच रव से हो व्याप्त दिशा, हो काँप रही भय-चकित निशा 

हो स्वेद धार बहती कपिशा, ऊपर ऊँचे सब झेल चले 

विचलित हो अचल न मौन रहें निष्ठुर शृंगार उतरता हो 

क्रंदन कंपन न पुकार बने, निज साहस पर निर्भरता हो 

अपनी ज्वाला को आप पिये नव-नीलकंठ की छाप लिये 

विश्राम शांति को शाप दिये, ऊपर ऊँचे सब झेल चले।

                     (चन्द्रगुप्त और मुवस्वामिनी के साथ सबका धीरे-धीरे प्रस्थान अकेली मन्दाकिनी खडी रह जाती है।)

                                      पटाक्षेप







Sunday, February 7, 2021

अभिनेयता की दृष्टि से चंद्रगुप्त नाटक का विवेचन

 

                 रंगमंच की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए चन्द्रगुप्त नाटक के गुण-दोषों का विवेचन कीजिए।

          (अथवा) 

          अभिनेयता की दृष्टि से चंद्रगुप्त नाटक का विवेचन कीजिए। 

         नाटक दृश्य-काव्य अधिक तथा श्रव्य-काव्य कम। इसी कारण नाटक प्राचीनकाल से रंगमंच की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही लिखे जा रहे हैं। किसी नाटक की अच्छी प्रशंसा तभी की जा सकती  जब हम उसका बार-बार अभिनय देखते है और उसका बार-बार पठन है। जोसेफ टी. शिपले ने भी लिखा है- "Probably for best " appreciation, a play should be seen, read, seen again and re- read".

        चन्द्रगुप्त नाटक की अभिनेयता के सम्बन्ध में पहले-पहल श्रीकृष्णानंद गुप्त ने आरोप लगाये थे। सन् 1937 में वाजपेयी जी ने उनके आक्षेपो का खंडन कर दिया था। फिर भी यह विवाद चलता रहा कि 'चन्द्रगुप्त' नाटक अभिनयशील है या नही ? इस प्रश्न पर विचार करने के पहले हमें यह जान लेना आवश्यक है कि सफल अभिनेय नाटक की क्या विशेषतायें हैं ?

        सफल अभिनेय नाटक की विशेषतायें : सफल अभिनेय नाटक की ये विशेषतायें होनी चाहिए (1) नाटक का आकार इतना हो जो तीन-चार घटों में अभिनीत हो सके। (2) दृश्यो और अको के विभाजन में संतुलन हो। (3) मार्मिक और भावपूर्ण स्थलों की योजना हो। (4) क्रिया-व्यापार का प्रवेग और प्रवाह हो। (5) अनुभाव तथा सात्विक भावों का निर्देशन हो। (6) सरल, संक्षिप्त तथा स्वाभाविक कथोपकथनों की योजना हो। (7) नृत्य और गीतों का सौंदर्य हो। (8) सुदर तथा आकर्षक दृश्यों की योजना हो। (9) वर्ज्य दृश्यों का अप्रदर्शन हो। (10) उदात्त भाव हो। (11) प्रभावान्वति हो। (12) सरल, रोचक और प्रभावपूर्ण भाषा हो।

       इन लक्षणों के आधार पर अब हम 'चंद्रगुप्त' की आलोचना करेंगे। 

     (1) चन्द्रगुप्त नाटक का आकार बड़ा नहीं है। उसमे केवल चार अंक है। परन्तु लम्बे कथोपकथात, साहित्यिक भाषा आदि के कारण यह तीन-चार घंटों में अभिनीत नहीं हो सकता। 

    (2) इसमें दृश्यों की संख्या अधिक है। इन दृश्यो की योजना में संतुलन भी नहीं है। प्रथम तथा दूसरे अक में ग्यारह-ग्यारह, तीसरे में नौ चोथे में चौदह दृश्य हैं। इसमें अनेक अनावश्यक दृश्य हैं। इनको हटाने पर भी कथानक की तनिक मात्र भी क्षति नहीं पहुँचती। 

    कुछ ऐसे दृश्य है जिनका आगमन पर सफल अभिनय किया जा सकता। 

    जैसे (1) प्रथम अना का पहला दृश्य जो तक्षशिला के गुरुकुल  का है।

           (2) प्रथम अंक का दूसरा दृश्य जो सम्राट नंद के विहारोद्यान का है।

          इसमें युद्ध, अभियान आदि के दृश्य है जो डॉ. नगेंद्र के अनुसार गड़बड़ करेंगे। ये आरोप तो वास्तविक लगते हैं। परन्तु यदि हमारा रंगमच भी पाश्चात्य रंगमंच की तरह समृद्ध होगा तो उपर्युक्त दृश्यों को भी आसानी से सफलता पूर्वक दिखा सकते हैं।

           (3) प्रसाद जी अत्यन्त भावुक कवि थे। इसलिए 'चंद्रगुप्त में अनेक भावुक और मार्मिक स्थल मिलते हैं।

           (4) चंद्रगुप्त नाटक में कुछ बाधक बातों को छोड़कर क्रिया-ब्यापार का वेग समान रूप से व्याप्त दिखाई पड़ता है।

          (5) प्रसाद जी ने अनुभावों तथा सात्विक भावों का वर्णन किया है। यथा चाणक्या चुपचाप मुस्कराता है। (पृ. 49), आम्भीक तलवार खीचता है। (पु. 49), वेग से आम्भीक का प्रवेश (पृ. 75). वररुचि का छुरा उठाकर (पृ. 141) आदि।

         (6) 'चंद्रगुप्त में प्रयुक्त कथोपकथन प्रायः संक्षिप्त, कथा-विकास में सहायक, चरित्र-चित्रण द्योतक और छोटे हैं। परन्तु कुछ स्थल ऐसे भी हैं, जहाँ मत-प्रतिपादन में या भावुकता से प्रेरित होकर प्रसाद जी ने लम्बे-लम्बे कथोपकथनों का प्रयोग किया है। यथा-युद्ध परिषद् का दृश्य, तृतीय अंक का छठा दृश्य। कथोपकथनों का विस्तार रंगमंच की दृष्टि से अनुपयुक्त है।

          चन्द्रगुप्त में स्वगत कथनों की अधिकता है। इतना ही नहीं ये स्वगत भाषण भी लघु नहीं, बड़े दीर्घकाय हैं। कही-कही तो ऐसे स्थल बहुत खटकते हैं। छोटे-मोटे स्वागत भाषणों की तो भरमार है। 

         कथोपकथन सरल तथा संक्षिप्त होने चाहिए। किन्तु प्रसाद के कथोपकथन कवित्वमयी भाषा, भावुकता तथा दार्शनिकता से भरे हुये हैं। इससे नाटक को अभिनीत करना कठिन हो जाता है। इस दृष्टि से हमें 'चन्द्रगुप्त नाटक को दोषपूर्ण ही कहना पड़ता है। 

        (7) नृत्य और गीत अभिनय के प्राणतत्त्व है। नृत्यों और गीतों में दर्शकों के मन को आकृष्ट करने की बड़ी क्षमता होती है। इसकी योजना दर्शकों के मन को ऊबने नहीं देता है। इसी कारण, इसकी सफल योजना से कई दृष्टियों से दोषपूर्ण नाटक भी अभिनय की दृष्टि से सफल बन सकते है। अतः नाटको में इसकी योजना आवश्यक है। प्रसाद जी में इन दोनों की उचित स्थान दिया है।



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              चन्द्रगुप्पा में तेरह गीत है। वे भावानुकूल तो हैं। किन्तु अभिनय * समय कुछ गीत अनावश्यक तथा उकतानेवाले हैं। चतुर्थ अक के चौथे धूप में ही मालविका तीन बार गाती है। इस कारण इस एक दृश्य के प्रदर्शन के लिए 20-25 मिनट लग जाते हैं। फिर पूरे नाटक के प्रदर्शन केलिए कितना समय लगेगा ? इस दृष्टि से भी नाटक दोषपूर्ण है। परंतु इतने मात्र से 'चन्द्रगुप्त' को रंगमच की दृष्टि से असफल नहीं माना जा सकता। कुछ अनावश्यक गानों को निकालकर और गान की दो-एक कड़ियों को सुनाकर इसे पूर्ण सफल बनाया जा सकता।

           (8) घटना-क्रम समझाने केलिए सुदर तथा आकर्षक दृश्यों की योजना आवश्यक होती है। प्रसाद ने 'चंद्रगुप्त' नाटक में आकर्षणपूर्ण दृश्यो की योजना की है।

           (9) 'चंद्रगुप्त' नाटक में कल्याणी. पर्वतेश्वर, नंद, आम्भीक आदि की मृत्यु रंगमंच पर दिखायी गयी है। मृत्यु को रंगमच पर दिखाना कठिन तो नहीं है, किन्तु कोमल तथा परिष्कृत मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मृत्यु की बात आसानी से सूचित की जा सकती है। इससे लोग मृत्यु के समाचार से परिचित हो जाते हैं। साथ ही उन पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता।

           (10) 'चंद्रगुप्त' में उदात्त भावों का सुंदर प्रदर्शन है। इसके अतिरिक्त श्रृंगार और वीर रस पूर्ण सवाद मिलते हैं।

           (11) 'चन्द्रगुप्त' में वस्तु के सुसंगठित विकास-कम के कारण विषय और व्यक्ति के प्रभाव का जो उत्कर्ष होता चलता है वह अन्त में जाकर ऐसा अन्वित हो जाता है कि सारा नाटक एक अखंडपूर्ण मालूम होने लगता है। यह रस-स्थिति अथवा प्रभावान्विति नाटक के प्राण-रूप में दिखायी पड़ती है। इसी प्रकार अभिनय में भी इसकी प्रधानता है। यह चंद्रगुप्त' की विशेषता है।

          (12) कतिपय आलोचको का कथन है कि प्रसाद की भाषा कठिन और दार्शनिक है। अतएव जन साधारण के समझने योग्य नही। किंतु वास्तविक बात यह नहीं है। उनकी भाषा भावानुकूल है। कुछ लोग यह भी आरोप लगाते हैं कि भाषा पाजानुकूल नही है। विभिन्न भाषाओं का प्रयोग करने पर रस-प्राप्ति में अवरोध उत्पन्न होता है ।

              इस तरह हम देखते हैं कि रंगमंच की दृष्टि से "चंद्रगुप्त' नाटक में कुछ दोष अवश्य हैं। किंतु जब नाटककार, नाट्य निर्देशक रंगमंच-प्रबंधक, सामाजिक (audience) सब मिलकर काम करेंगे तो इसे आसानी से अभिनीत किया जा सकता। कुछ परिवर्तनों से नाटक का सफल अभिनय हो सकता।


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रस की दृष्टि से "चन्द्रगुप्त' नाटक एक विवेचन

 


                     रस की दृष्टि से "चन्द्रगुप्त' नाटक एक विवेचन 

           'चन्द्रगुप्त' नाटक के दो पक्ष हैं। एक पक्ष का आधार राजनीति है तो दूसरे पक्ष का आधार प्रणयनीति। प्रसाद जी ने राजनीति के प्रचंड तेज के साथ-साथ सुकुमार प्रणय की सुगंधि का सगुम्फन करा दिया है। कहीं-कहीं राजनीति की कलुषित छाया में प्रणय की हल्की रेखा धुंधली पड़ गयी है। कहीं कहीं राजनीति प्रणयनीति का अभिवादन करती दिखायी पड़ती है। ऐसे स्थलों पर श्रृंगार प्रमुख है और राजनीति पक्ष में वीर रस की प्रमुखता है।


राजनीति पक्ष : इसमें तीन प्रमुख घटनायें हैं

        (1) सिकंदर का आक्रमण एवं युद्ध

        (2) नंद से युद्ध तथा पराभव

        (3) सिल्यूकस से युद्ध

         इन तीनों घटनाओं का आधार चन्द्रगुप्त है। इसलिए सभी परिस्थितियों में आश्रय चन्द्रगुप्त रहा है। इन तीनों घटनाओं में आलंबन, उद्धीपन आदि अलग-अलग हैं।

प्रथम घटना - रसागों का विश्लेषण :

    (अ) आलम्बन : सिकंदर।

    (आ) उद्धीपन : (1) पर्वतेश्वर की पराजय के कारण यवन सैनिको का बल बढ़ना (2) चंद्रगुप्त में उत्साह की जागृति (3) गांधार का उत्कोच स्वीकार करने पर सहायता देना (4) पर्वतेश्वर का अपने वादे से हट जाना (5) सिंहरण के पास सिकंदर का संदेश भेजना। 

     (इ) अनुभाव : (1) सिकंदर को उत्तर देने में सिंहरण की निर्भीकता

                         (2) सम्मिलित होकर युद्ध का प्रयत्न करना (3) युद्ध का निश्चय।

     (ई) संचारी भाव : 

           (1) गर्व : उदाहरण -- 

           चंद्र : (सिल्यूकस से) जाओ यवन! सिकंदर का जीवन बच जाय । 

                   तो फिर आक्रमण करना (2-10)

          (2) धैर्य : उदाहरण

           सिंह: कुछ चिंता नहीं। दृढ़ रहो। समस्त मालव सेना से कह दो कि

                  सिंहरण तुम्हारे साथ रहेगा। (2-10)

         (3) निर्भीकता : उदाहरण -

             सिंह : सिकंदर की मालवों की कोई ऐसी सधि नहीं हुई है, जिसमें वे इस कार्य के लिए बाध्य हो। हाँ, भेंट करने केलिए मालिक समेत प्रस्तुत हैं चाहे सधि परिषद् में या रणभूमि में। (2-8)

         (4) औत्सुक्य : उदाहरण

               यवन -दुर्ग द्वार टूटता है और हमारे सभी वीर सैनिक इस दुर्ग को मटियामेट करते हैं। (2-10)

          (5) स्मृति : उदाहरण -

               मालव सैनिक : सेनापति, रक्त का बदला। इस नृशंस ने निरीह जनता का अकारण वध किया है। (2-10)


          द्वितीय घटना रसांगों का विश्लेषण :

            (अ) आलबन - नंद

            (आ) उद्दीपन - (1) नद का अत्याचार (2) शकटार का भूगर्भ से बाहर आना और अपनी कहानी कहना (3) मौर्य दपति का बदी होना (4) राक्षस-सुवासिनी के परिणय-विच्छेद का प्रबंध (5) राक्षस-सुवासिनी को अधकूप की आजा।

             (इ) अनुभाव - (1) चाणक्य का प्रण करना (2) माता-पिता के बदी होने पर चंद्रगुप्त का उग्र होना (3) शकटार का मनुष्य से घृणा करना (4) विद्रोह की प्रवृत्ति का प्रारंभ

             (ई) संचारी : (1) गर्व (2) स्मृति तृतीय घटना - रसागो का विश्लेषण :

                  (अ) आलबन-सिल्यूकस

            (आ) उद्धीपन (1) चाणक्य का रूठकर चले जाना (2) सिंहरण चाणक्य के पथ का अनुगमन करना (3) चद्रगुप्त में उत्साह का स्वावलंबन की प्रबलता।

              (इ) अनुभाव चंद्रगुप्त का युद्ध करने केलिए तैयार होना, अपने क्षतरिय कहना।

              (ई) संचारी (1) गर्व (2) स्मृति (3) औत्सुक्य

                     यह है गाजनीतिगत वीररस की निष्पत्ति।

        2. प्रणय-नीति प्रणय सर्वदा ही मधुरतम भावनाओं पर आधारित होता है। इसलिए वह श्रृंगार पर ही आधारित होता है।

      प्रणय-नीति से संबंधित मुख्य घटनाये ये हैं

     (1) अलका-सिहरण का प्रणय

     (2) सुवासिनी-राक्षस का प्रणय

     (3) चन्द्रगुप्त-कल्याणी का प्रणय 

     (4) चंद्रगुप्त-मालविका का प्रणय

     (5) चंद्रगुप्त-कार्नेलिया का प्रणय 

     (6) सुवासिनी-चाणक्य का प्रणय

        'चंद्रगुप्त' नाटक में राजनीति सबंधी घटनाओं की अपेक्षा प्रणय की घटनाये अधिक हैं। प्रसाद जी ने वीरों के संघर्षपूर्ण ताप को शीतल बनाने केलिए श्रृंगार एवं प्रणय को स्थान दिया है। अलका-सिहरण का प्रणय : रसागों का विश्लेषण

      (अ) आलंबन - सिंहरण

       (आ) उद्धीपन - (1) तक्षशिला के गुरुकुल में देश-परिस्थिति का तर्कपूर्ण विवेचन (2) राजनीति का जान (3) आम्भीक का परोक्षमखी होता (4) यवन आक्रमण

        (इ) अनुभाव - (1) मानचित्र तैयार करना (2) बन्दी होना (3) गांधार देश से बाहर चले जाना (4) राज्य-क़ाति फैलाना (5) सिंहरण का उत्सव एवं उत्साह देने की सतत चेष्टा।

       (ई) संचारी भाव - (1) चिंता - उदाहरण :

           सिंह - आयविर्त का भविष्य लिखने केलिए कुचक्र और प्रतारणा की लेखनी और मसी प्रस्तुत हो रही है। उत्तरापथ खण्ड-राज्य द्वेष से जर्जर हैं। शीघ्र भयानक विस्फोट होगा। (1-1)

        (2) गर्व और विश्वास - उदाहरण :

              सिंह - वर्तमान को मैं अपने अनुकूल ना ही लूंगा; फिर चिन्ता किस बात की ?

        (3) चिंता (अलका के पक्ष में) - उदाहरण : 

              सिंह : मैं तुम्हारी सुख-शांति के लिए चिन्तित हैं |

           इस प्रकार अलका के हृदय में श्रृंगार की चेतना होती है। परन्तु राजनीति का भारीपन प्रणय की कोमलता केलिए असहय हो गया है। इसी प्रकार प्रणय की अन्य घटनायें भी राजनीति के कारण उभर नहीं सकीं। केवल कार्नेलिया प्रणय के पर्यावसान तक आ पायी है। चद्रगुप्त ही नहीं, चाणक्य भी सुवासिनी की स्मृति से संतुष्ट हो जाता है।

          शांत रस : चाणक्य के चरित्र में शांत रस का सफल विकास हुआ है। दाण्ड्यायन के आश्रम में जाना उद्धीपन है। संघर्षों से तटस्थ होने की इच्छा, सन्यासी होने की इच्छा अनुभाव है। हर्ष, मति, निर्वेद, धैर्य संचारी भाव हैं। सुवासिनी के प्रसंग में भाव शाति है। लक्ष्य-प्राप्ति


के बाद स्थायीभाव निर्वेद का प्रतिष्ठापन है। सक्षेप में 'चन्द्रगुप्त में श्रृंगार की अपेक्षा वीर रस की प्रधानता है। इसके अतिरिक्त अन्य रसों का भी संकेत मिलता है। नाटक का प्रारम्भ राजनीति से होता है और अन्त प्रणय से । यही नाटक की रसगत विशेषता है।


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चंद्रगुप्त' नाटक में भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्यशैलियों का समन्वय हुआ है। एक समीक्षा ।

 


                 'चंद्रगुप्त' नाटक में भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्यशैलियों का समन्वय हुआ है। एक समीक्षा ।

           जीवन परिवर्तनशील है। इस परिवर्तनशील जीवन के साथ-साथ साहित्य की मान्यताएँ भी बदलती रहती हैं। इन साहित्यिक मान्यताओं के परिवर्तन के साथ साहित्य की कलागत विशेषताओं में भी परिवर्तन होता. रहता है।

           प्रसाद जी के पूर्व नाटक अवश्य लिखे जा चुके थे, किन्तु उनमे अधिकांश अनुवाद मात्र थे। कुछ मौलिक भी थे। यद्यपि उन मौलिक कृतियों में पाश्चात्य तथा बंगला साहित्य की नाट्य शैलियों का आभास मिलता है, तथापि वे भारतीय तथा फारसी नाट्यशैलियों के अधिक निकट थे। किन्तु जब प्रसाद जी नाटक लिखने लगे तब उन्होंने इन दोनों शैलियों का समन्वय करने की चेष्टा की।

         भारतीय नाट्य सिद्धांत : भारतीय नाट्य के तीन तत्त्व होते हैं। -

         (1) वस्तु (2) नेता और (3) रस।

        1. वस्तु : नाटक के स्थूल कथानक को वस्तु कहते हैं। नाटक की वस्तु तीन प्रकार की हो सकती है- प्रख्यात, उत्पाद्य और मिश्र। मुख्यता॥ की दृष्टि से वस्तु के दो भेद हैं-

      (1) आधिकारिक तथा

      (2) प्रासगिक। कथावस्तु दृश्य भी हो सकती है और सूच्य भी स्वगत, विष्कंभक, प्रवेशक : अंतमुख और अंकावतार-ये पाँच भेद सूच्य कथा के अन्तर्गत आते हैं।

       नाटकीय वस्तु लक्ष्य की गतिविधि के अनुसार पाँच भागों में विभक्त होती है- बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य नायक के द्वारा प्रवर्तित । कार्य के विकास को पाँच भागों में विभक्त कर सकते हैं- प्रारम्भ, प्रयत्न प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम। कथावस्तु पाँच संधियों से समन्वित हो।

       2. नायक : नायक प्रख्यात वंश का धीरोदात्त. वीर्यवान, गुणवान, प्रतापवान, विनीत, मधुर, त्यागी, दक्ष, प्रियवादी प्रवृत्ति मार्गी, वाणी निपुण, स्थिर स्वाभाववाला और युवा हो। 

       3. नायिका : नायिका को भी उदात्त गुण सम्पन्न हा

       4. नायक के सहायक पात्र : पीठमर्द, विदूषक, विट आदि नायक सहायक पात्र होते हैं।

       5. रस : नाटक का प्राणभूत तत्त्व रस माना जाता है। अतः क में रस का सुदर परिपाक होना चाहिए। रस-परिपाक में यदि विघ्न ता है तो उसे श्रेष्ठ नाटक नहीं कह सकते। इसी कारण नायक का म-दर्शन नहीं किया जा सकता।

        'चंद्रगुप्त' नाटक में भारतीय नाट्य-शैली : चन्द्रगुप्त की कथावस्तु तहासिक होने के कारण प्रख्यात है। इसमें आधिकारिक कथावस्तु के य-साथ प्रासंगिक कथाएँ भी हैं। चन्द्रगुप्त और सिकंदर, नंद एवं सिल्यूकस कथा मुख्य है। राक्षस और सुवासिनी एवं सिंहरण और अलका की पाएँ प्रासंगिक हैं। इन कथाओं के द्वारा कथानक में जटिलता आ गयी है। इसमे सूच्य कथा भी मिलती है।

       इस सूच्य विधान के द्वारा ही याद जी ने सोलह दृश्यवाले चतुर्थ अंक को चौदह दृश्यवाला कर दिया । इस नाटक में स्वगत कथनों का भी आधिक्य है। यद्यपि इसमें क्रम्भक, प्रेवशक, अखमुख, अंकावतार शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया तथापि उनकी स्थिति नाटक में पायी जाती है।

     "चंद्रगुप्त' नाटक में अर्थ प्रकृतियों एवं संधियों की ऐसी अच्छी नागति बैठ गयी है जैसी प्रायः प्राचीन नाटकों में मिलती है।

      नाटक का नायक चंद्रगुप्त तथा नायिका कार्नेलिया धीरोदात्त गुणों समन्वित हैं। इस नाटक में विदूषक की योजना नहीं है। 'सिंहरण' ही पीठ मर्द माना जा सकता है।

       इसमें श्रृंगार से पोषित वीर रस का प्राधान्य है और तत्संबंधी भी अंगों की सम्यक् स्थापना हुई है। इस तरह 'चंद्रगुप्त' नाटक में भारतीय नाट्य सिद्धांतों का पूरा योग मिलता है।

       पाश्चात्य नाट्य सिद्धाथ : पाश्चात्य नाट्यकला का उद्गम यूनान हुआ है। पश्चिमी नाट्यशास्त्र की सबसे पुरानी पुस्तुक अरस्तू की पौइटिक्स' है। अरस्तू ने नाटक के छः तत्त्व मान है - कथावस्तु, चरित्र, हास्य, भाषा एवं गीत। इन तत्त्वों में उसने कथावस्तु को विशेष महत्त्व दिया है। उन्होंने वस्तु-विन्यास के चार अंग माने हैं-

        (1) प्रस्तावना (2) उपसंहार (3) अंक और (4) ध्रुवक। 

        उन्होंने संघर्ष, सक्रियता और समष्टि प्रभाव और सकलन-त्रय को महत्त्व दिया है।

    'चन्द्रगुप्त' नाटक में पाश्चात्य नाट्य-प्रणाली:

        'चंद्रगुप्त' नाटक में संघर्ष का सुंदर वर्णन मिलता है। नाटक का आरम्भ बाहुय-संघर्ष से होता है और एक के बाद दूसरा संघर्ष सम्मुख आता है। किन्तु नाटक के अन्त में फल-प्राप्ति भी होती है। संघर्ष का चित्रण पाश्चात्य । नाट्य-प्रणाली के अनुकूल ही है। फल-प्राप्ति का प्रदर्शन भारतीय नाट्य-सिद्धांत के अनुकूल है।

        प्रासंगिक कथाओं के योग से कथा-विन्यास में जटिलता भी आ गयी है और कथा का वेग भी बढ़ गया है। यह भारतीय तथा पाश्चात्य के नाट्य-सिद्धांत दोनों के अनुकूल है। 

        नाटक में भारतीय नियताप्ति और पाश्चात्य निगति का मेल भी कराया गया है। नाटक में अंत तक कथावस्तु फलागम तक पहुँच जाती र है, कितु जब तक वांछित स्थान तक नहीं पहुंच जाती उसकी गति के र सबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिए द्वितीय यवन आक्रमण के समय चाणक्य और सिंहरण चंद्रगुप्त को छोड़कर चले जाते हैं। माता-पिता भी रूठ जाते हैं। राक्षस कुचक्र में लिप्त हो जाता है। असहाय चंद्रगुप्त के भविष्य में हमारी आकाक्षा और औत्सुक्य बढ़ जाता है। फिर गुप्त रूप से चाणक्य की सहायता, सिंहरण का ठीक अवसर पर सहयोग, आम्भीक और पर्वतेश्वर का पश्चात्ताप एवं चंद्रगुप्त को सहायता देने का वचन फल-प्राप्ति की सम्भावना को निश्चय प्रदान कर देता है। इस तरह पाश्चात्य नाटकों की भाँति कथानक वक्रगति से विकसित होता है।

          भारतीय नाट्य सिद्धांत के अनुसार नाटक का सुखात होता आवश्यक है। पाशचात्य नाटककारों ने दुखांत नाटकों को विशेष महत्त्व दिया है। किंतु प्रसाद जी ने अपने नाटकों को प्रसादान्त बना दिया है जिसमें भारतीय तथा पाश्चात्य नाट्य सिद्धांतों का समन्वय मिलता है।

          भारतीय नाट्य सिद्धांत के अनुसार नायक का दोष-दर्शन नहीं कराया जाता। किंतु प्रसाद जी ने चन्द्रगुप्त के एक-दो दोषों का ऐसा प्रदर्शन किया है जिससे रस के परिपाक में बाधा भी न पड़े और पाश्चात्य सिद्धांत के अनुकूल भी है।

            प्रसाद जी ने नृत्य तथा गीतों की योजना भी की है। किंतु वह भारतीय नाट्य-सिद्धांत के निकट ही अधिक है।

            संक्षेप में प्रसाद जी ने 'चन्द्रगुप्त मौर्य में भारतीय नाट्य-पद्धति आत्मा की रक्षा की है। साथ ही साथ उनको नवीन उपकरणों से सजाया है।


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चन्द्रगुप्त नाटक के नामकरण

 


                      चन्द्रगुप्त नाटक के नामकरण

             हमारे साहित्य में नामकरण चार प्रकार से हुए हैं। प्रथम तो नामकरण नायक के कारण होता है और उसमें यह ध्यान दिया जाता है कि नायक अपने नायकत्व से पूर्ण हो । दूसरे, नामकरण नायिका के नाम पर होता है। जैसे, चन्द्रावली, राज्यश्री आदि। तीसरे, घटना के आधार पर नामकरण होता है। इस प्रकार की रचनाओं में घटना की मानता होती है। नायक या नायिका प्रमुख पात्र होते हुए भी उसके -कलाप उसे घटना का साधन मात्र प्रतिपादित करते हैं। चौथे, -विशेष के आधार पर भी नामकरण किया जाता है, परन्तु बहुत ही कम।

          चन्द्रगुप्त' नाटक का नामकरण उसके प्रमुख पात्र चंद्रगुप्त के आधार हुआ है। इसके मुल नाटक का नाम नायिका के नाम पर कल्याणी बरणय' रखा गया था। ऐतिहासिकता की खोज ने कल्याणी को पीछे लाकर प्त को आगे बढ़ा दिया है। इतिहास राजा और समाज के सम्मिलित कर्ष और संस्कृति का संकलन मात्र है। अतः चंद्रगुप्त का आगे आ ना स्वाभाविक ही है।

         "चन्द्रगुप्त नाटक में प्रमुख पात्र चन्द्रगुप्त और चाणक्य हैं। इन नों पात्रो की तुलना करने से चन्द्रगुप्त नाटक का नायक मालूम पड़ता यद्यपि चाणक्य के व्यक्तित्व के सामने चन्द्रगुप्त के व्यक्तित्व का ई अपना महत्त्व नहीं है, फिर भी चन्द्रगुप्त ही नायक है, क्योंकि णक्य के व्यक्तित्व में स्थिरता है तो चन्द्रगुप्त के व्यक्तित्व में गतिशीलता चाणक्य शक्ति है तो चन्द्रगुप्त साधन है । चन्द्रगुप्त का व्यक्तित्व स्तुतः चाणक्य के सूर्य के प्रकाश पर ही आधारित है।

         चन्द्रगुप्त सर्व प्रथम तक्षशिला के स्नातक के रूप में आता है। जब वह कल्याणी की रक्षा में तत्पर देखा जाता है, हमें उसकी कार्यशीलता का परिचय मिलता है। मुख्यतः चंद्रगुप्त के दो रूप हमारे सामने आते (1) आत्म-सम्मान और वीरता से संबंधित रूप और (2) प्रेम से परिपूर्ण रूप। इतना ही नहीं, उसमें नायक के लिए आवश्यक सब गुण मौजूद हैं।

        चन्द्रगुप्त तलवार का धनी है, योद्धा है, स्त्रैण और क्लीव नहीं। वह अन्यायों का डटकर मुकाबला करता है। वह यवन-आक्रमणों से देश की रक्षा करने का निर्णय लेता है। चाणक्य चन्द्रगुप्त से कहता है . लो मौर्य चन्द्रगुप्त! अपना अधिकार छीन लो। मेरा पुनर्जन्म होगा। मेरा जीवन राजनैतिक कुचक्रो से कुत्सित और कलकित हो उठा है।" इससे दो बातें स्पष्ट होती है --            (1) चंद्रगुप्त का चरित्र चाणक्य के चरित्र की अपेक्षा महान है।

        (2) फल का भोक्ता चंद्रगुप्त है।

         फल का भोक्ता ही नायक होता है। नाटक के अन्य पात्र सिंहरण, अलका, कल्याणी, राक्षस आदि हैं। उनके चरित्र का पूर्ण विकास नहीं हो सका है। अतः चंद्रगुप्त ही नाटक का नायक है। 

          सारांश यह है कि 'चन्द्रगुप्त' नाटक का नामकरण नायक चन्द्रगुप्त के आधार पर किया गया है।


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चन्द्रगुप्त नाटक का नायक कौन है ? एक विवेचन ।

 

                   

          चन्द्रगुप्त नाटक का नायक कौन है ? एक  विवेचन ।

        'चन्द्रगुप्त नाटक के नामकरण से विदित होता है कि इस नाटक का मुख्य पात्र चन्द्रगुप्त है। किन्तु नाटक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि चाणक्य का भी कम स्थान नहीं है। वह एक ऐसा ऐतिहासिक व्यक्तित्व है, जिसके पीछे नाटक की हर घटना चक्कर काटती रहती है और जो नाटक के हर सूत्र से अपना परिचय रखता है। वह एक ऐसा ब्राहमण है जिसके हर इंगित पर नाटक की कथावस्तु कठपुतली की भौति नृत्य करती है। यदि उसे नाटक से निकाल दे तो नाटक का सारा ढाँचा अस्तव्यस्त हो जाएगा। इतना ही नहीं. कुछ स्थलों पर उनके व्यक्तित्व के सामने चन्द्रगुप्त का व्यक्तित्व फीका पड़ गया है।

       इस तरह दो पात्रों की प्रमुखता देखते हुए पाठक के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि नाटक का नायक कौन है? इस प्रश्न का समाधान जानने के पहले हमें नायक केलिए आवश्यक गुण जानने चाहिए।

     नायक केलिए आवश्यक गुण : धनजय के अनुसार नायक में निम्नलिखित गुण होने चाहिए.--

     नेता विनीतो मधुरस्त्यागी दक्षः प्रियवदः

     रक्त लोकः सुचिरवाग्मी रूढिवशः

     स्थिरो युवा। बुद्ध युत्साह स्मृति प्रज्ञा कलामान् समन्वितः 

     शरो दृढश्च तेजस्वी शास्त्र चक्षुश्च धार्मिकः ।।

      अरथति नायक को ऐसा होना चाहिए -

      (1) विनीत (2) मधुर ) त्यागी (4) दक्ष (5) प्रियंवद (6) रक्तलोक (7) वाग्मी

      (8) रूढ़िवश शुचि (10) स्थिर (11) युवा (12) बुद्धिमान (13) प्रज्ञावान

      (14) मति संपन्न (15) उत्साही  (16) कलावान (17) शास्त्र चक्षु 

      (18) आत्म माती (19) शूर (20) दृढ़ (21) तेजस्वी और (22) धार्मिक।

    इसके अतिरिक्त उसमे शोभा, विलास, माधुर्य, गांभीर्य, स्थिरता, तेज, लालित्य और औदात्य हो।


     चन्द्रगुप्त' नाटक का नायक कौन है?

             उपर्युक्त गुणों के आधार पर अब हमे यह विचार करना है कि 'चन्द्रगुप्त नाटक का नायक कौन है? चन्द्रगुप्त ही चाणक्य की हर घटना का ध्रुवतारा है और हर पात्र का क्रिया-कलाप उसी का व्यक्तित्व बनाता है। यदि वह न होता तो हम निभ्रन्ति रूप से कह पाते कि चाणक्य कुछ नहीं केवल मात्र कूटनीति और महत्वाकाक्षाओ का संपुजन है। वही नाटकीय मुख्य संवेदना का मूल प्रेरक तत्त्व है। यही नहीं, कार्नेलिया के साथ मालविका, अलका तथा सुवासिनी जैसी सम्त महिलाएँ भी चंद्रगुप्त के धीरोदात्त गुणों पर रीझकर उन पर आत्मसमर्पण करना चाहती है। यह चंद्रगुप्त की मुख्य विशेषता है।

      चन्द्रगुप्त तलवार का धनी है, योद्धा है. स्त्रैण और क्लीव नही। बहु अन्यायों का डटकर मुकाबला करना चाहता है. भले ही इसके लिए उसको चाणक्य के मुँह की ओर देखना पड़े, उसकी अगुली पकड़नी पड़े और चाणक्य द्वारा निर्मित राजनीति के उलझन भरे कूट रास्तों पर चलना पड़े।

      यही नहीं. आरम्भ में सिंहरण और चाणक्य के बीच भावी यवन-आक्रमण से भारतवर्ष के नाश की बात आते ही चन्द्रगुप्त उद्धार-प्रयत्न की शपथ लेते हुए कहता है - "गुरुदेव। विश्वास रखिये। यह सब कुछ । नही होने पावेगा, यह चन्द्रगुप्त आपके चरणों की शपथ प्रतिज्ञा करता। है कि यवन यही कुछ न कर सकेंगे।"

      चन्द्रगुप्त एक आदर्श वीर भी है जो आम्भीक, फिलिप्स, एन- साइक्रोटीस आदि दम्भी प्रतिशोधियों को अपनी तलवार के वार से नाको चने चबाता है। भले ही उसके पास अधिकार, सेना अथवा कोई राजकीय । साधन न हो, परन्तु असीम उत्साह, दृढ़ता, शौर्य और पुरुषत्व तो है। वह नारियों का सम्मान करना जानता है और इसीलिए वह कार्नेलिया मालविका आदि नारियों केलिए भूमि फाड़कर भी उपस्थित होता है। उसमें वचन-विदग्धता भी है। आम्भीक एक बार कहता है कि शिष्टता से बाते करो। तब चन्द्रगुप्त कहता है - "अनार्य। देश द्रोही! आम्भीक ! चन्द्रगुप्त रोटियों के लालच से या घृणाजनक लोभ से सिकन्दर के पास नहीं आया।" इस कथन से स्पष्ट है कि उसमें वचन-विदग्धता, आत्म- सम्मान आदि गुण हैं।

         इतना ही नहीं, चन्द्रगुप्त के सिर पर नायकत्व का सेहरा स्वयं चाणक्य पहनाता है। अन्त में सशक्त शासक के रूप में उसे पदारूढ़ करके चाणक्य तपस्या में निरत होने केलिए कर्मक्षेत्र के रंगमंच को छोड़कर चला जाता है। चाणक्य कहता है - "ले लो मौर्य चन्द्रगुप्त! अपना अधिकार छीन लो, मेरा पुनर्जन्म होगा। मेरा जीवन राजनैतिक कुचक्रों से कुत्सित और कलंकित हो उठा है।" अतएव फल का भोक्ता चाणक्य नहीं हो सकता। उसका उपभोक्ता केवल चन्द्रगुप्त मात्र ही है और वह अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष जैसे तत्त्वों में से अर्थ और काम को उपभोग के रूप में प्राप्त करता है। फल का उपभोक्ता ही नायक हो सकता है।

      इस विवेचन से स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त में धीरोदात्त नायक के सब गुण हैं। अतः शास्त्रीय सिद्धांतों के आधार पर और व्यावहारिक रूप में भी नाटक का नायक चन्द्रगुप्त ही हो सकता है न कि चाणक्य।

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नाटक के तत्त्वों के आधार पर 'चंद्रगुप्त' नाटक की समीक्षा

 


                         नाटक के तत्त्वों के आधार पर 'चंद्रगुप्त' नाटक की समीक्षा


     नाटक के ये प्रधान तत्त्व होते हैं -

       (1) कथानक                 (2) पात्र तथा चरित्र-चित्रण

       (3) कथोपकथन             (4) भाषा तथा शैली

       (5) देश-काल वातावण    (6) रस-सृष्टि

       (7) उद्धेश्य और             (8) गीत-योजना।

     इन तत्त्वों के आधार पर हम 'चन्द्रगुप्त पर विचार करेंगे।

    1. कथानक : 

       'चन्द्रगुप्त' नाटक का कथानक चंद्रगुप्त के द्वारा चाणक्य की सहायता से नंद-वंश का नाश, यवनो को ऐतिहासिक है। इसमें भारत से भगाना, सिल्यूकस की कन्या कार्नेलिया से चंद्रगुप्त का विवाह आदि घटनाये वर्णित हैं। कहीं-कहीं पात्रो तथा घटनाओं में कल्पना का सहारा लिया गया है। फिर भी उसमें ऐतिहासिकता में अवरोध उत्पन्न ही हुआ है। प्रत्युत उसमें जीवंतता आयी है।

       इसमें चार अंक हैं। चतुर्थ अंक का अवैध विस्तार है । प्रथम और द्वितीय अको में ग्यारह-ग्यारह, तृतीय में नौ और चतुर्थ अंक में चौदह श्य है। संपूर्ण नाटक में कई दृश्य ऐसे मिलते हैं जो बिलकुल हटा दिये जा सकते हैं या दूसरे में मिला दिए जा सकते हैं। कहीं-कहीं उनके विषय का सूचना मात्र दी जा सकती।

       नाटक के आरम्भ का दृश्य बड़ा ही भव्य है। इससे सामाजिक सहसा उसकी ओर आकृष्ट होते हैं। प्राकृतिक मनोरमता और प्राचीन भारतीय संस्कृति का केंद्र होने कारण तक्षशिला का महत्त्व है। हरेक अक का समाप्ति-स्थल बहुत ही चमत्कारपूर्ण तथा प्रभावोत्पादक है। 

      2. पात्र और चरित्रचित्रण : 

       'चन्द्रगुप्त' नाटक में प्रायः सभी पुरुष पात्रों के नाम इतिहास में मिलते हैं। उनमें नंद, राक्षस वररुचि, चंद्रगुप्त, शकटार, चाणक्य, परमेश्वर और आम्भीक तथा यवनों में सिकन्दर, सिल्यूकस, फिलिप्स, मेगास्थनीस-सभी ऐतिहासक हैं। स्त्री पात्रों में कल्याणी और कार्नेलिया के नाम भी इतिहास ग्रंथों में मिलते हैं। चन्द्रगुप्त नाटक का नायक है। उसमें धीरोदात्त नायक के सब लक्षण हैं। चाणक्य का पात्र नाटक में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। नाटक के आरम्भ से लेकर अन्त तक वह दिखाई पड़ता है। उसे नाटक से निकाल देने पर नाटक का सारा ढाँचा ही अस्तव्यस्त हो जाता है। सतर्कता, गौरवमय गर्भारता. दूरदर्शिता आदि गुणों से वह विभूषित है। सिंहरण देश-प्रेमी वीर युवक है। देशद्रोही आम्भीक अन्त में देश-प्रेमी बनता है। राक्षस पात्र का चरित्र उभरकर नहीं आया है। प्रसाद जी ने चाणक्य के चरित्र को उदात्त रूप में चित्रित करने में राक्षस के चरित्र को गिरा दिया है।

        स्त्री-पात्रों में अलका काल्पनिक पात्र है। प्रसाद जी ने अपने आदर्शों को उसके द्वारा प्रतिपादित किया है। वह देश-प्रेमी है। उसमें उदात्त पात्र के सभी लक्षण हैं। सुवासिनी एक काल्पनिक पात्र है। इस पात्र के द्वारा प्रसाद जी यह बताना चाहते हैं परिस्थितियों के कारण अनेक रूप धारण करने पर भी वह मूलतः एक ही है। मालविका एक गौण पात्र है। यह भी काल्पनिक पात्र है। पार्नेलिया एक विदेशी पात्र है प्रसाद ने इस पात्र के द्वारा भारत देश, उसकी संस्कृति और सभ्यता की प्रशंसा करायी है। 

        प्रसाद के अधिकांश पुरुष-पात्र ही नहीं, अधिकांश स्त्रिया भी आवर्श-प्रेम ही रखती हैं। प्रसाद की नारियाँ सदैव उदात्त भावों से परिपूर्ण । रही हैं। पुरुषों की अपेक्षा वे सबल और महान् रही हैं।

        3. कथोपकथन : 

         चन्द्रगुप्त में प्रायः कथोपकथन छोटे-छोटे है। स्वगत-भाषण अवश्य ही अधिक लबे हो गये हैं। नाटक-भर में चाणक्य, परमेश्वर और चंद्रगुप्त के ही स्वगत भाषण विशेष लंबे हुए हैं। संवादो में रस के अनुकूल पदावली, भाषा और भाव-योजना दिखायी पड़ती है। बीर-रस सबंधी सवादों में उत्साह, गर्व, दर्प, आवेश, क्रोध सभी भाव समयानुसार व्यजित है। जहाँ श्रृंगार की योजना हुई है, वहाँ भाषा और भाव-व्यंजना में तदनुकूल परिवर्तन होता है। कुछ सवाद भावुकता से इ समन्वित होने के कारण अत्यन्त मधुर मालूम पड़ते हैं। 

        जैसे : चन्द्रगुप्त और मालविका का संवाद, कार्नेलिया और सुवासिनी का सवाद आदि। चणक्य और वररुचि के संवाद में निरालापन है जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। है वस्तुतः इस संबाद का नाटकीय महत्त्व कम है। कथोपकथनों से कथ आगे बढ़ती है। एक उदाहरण देखिये :-  

       चाणक्य: केवल तुम्ही लोगों को अर्थशास्त्र पढ़ाने केलिये ठहरा था।

       सिंहरण : आर्य, मालबों को अर्थशास्त्र की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी अस्त्र-शास्त्र की

      चाणक्य    : अच्छा, तुम अब मालव में जाकर क्या करोगे ? 

      सिंहरण : अभी तो मैं मालव नहीं जाता। मुझे तो तक्षशिला की राजनीति पर दृष्टि

                    रखने की आज्ञा मिली है (सक्षिप्त रूप 1, दृश्य 1, पृ. 39, पं. 5-12) अंक

         इस संवाद से अर्थशास्त्र से लेकर तक्षशिला तक की राजनीति पर दृष्टि रखने तक बात बढ़ती चली आयी है।

        कथोपकथनों से पात्रों के चरित्र पर प्रकाश पड़ता है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है -

    मालविका : सम्राट, अभी कितने ही भयानक संघर्ष सामने हैं । 

    चन्द्रगुप्त : संघर्ष! युद्ध देखना चाहो तो मेरा हृदय फाड़कर देखो मालविका । 

                   आशा निराशा का युद्ध, भावो और अभावों का द्वन्द्र। कोई कमी नही. 

                    फिर भी न जाने कौन मेरी सम्पूर्ण सूची में रिक्त-चिन्ह लगा देता है। 

                    (अक 4, दृश्य 4, पृ. 124, पं. 14-18)

         कहीं-कहीं दो पात्रों के वार्तालाप से तीसरे पात्र के चरित्र पर प्रकाश पड़ता है। 

      जैसे -

     राक्षस : आर्य-साम्राज्य का महामन्त्री इस तपोवन में।

     सवासिनी : यही तो ब्राहमण की महत्ता है राक्षस! यो तो मूर्खों की निवृत्ति भी 

                      प्रवृत्ति मूलक होती है देखो, यह सूर्य- रश्मियो का-सा रस-ग्रहण 

                      कितना निष्काम, कितना निवृत्तिपूर्ण है । 

                      (अक 4. दृश्य 13, पृ. 147, प. 12-15) 

     राक्षस और सुवासिनी के उपर्युक्त वाक्यों से चाणक्य के चरित्र पर प्रकाश पड़ता है।

   4. भाषा तथा शैली : प्रसाद की भाषा की ये विशेषतायें है

       (1) वह प्रवाहमयी है। 

       (2) वह पात्रों की मनोदशा को प्रकट करनेवाली है।

       (3) उसमे मार्मिक उक्तियों का संयोजन है। 

       (4) अभीष्ट भावों को प्रकट करने में सक्षम है।

       (5) तत्सम शब्दावली का अधिक प्रयोग किया गया है।

      विश्वम्भर मानव के शब्दों में "प्रसाद की भाषा पर दुरूहता का आरोप न करके अनुपयुक्तता का आक्षेप होना चाहिये।" चन्द्रगुप्त नाटक में भाषा के अनेक रूप मिलते हैं -

       (1) आलंकारिक भाषा (2) सरल भाषा

       (3) व्यावहारिक भाषा (4) धारावाहिक भाषा 

       (5) कथात्मक भाषा। 

       चन्द्रगुप्त नाटक में यत्र-तत्र सूक्तियों का प्रयोग भी किया गया है। देखिये

        (1) ब्राहमणत्व एक सार्वभौम शाश्वत बुद्धि-वैभव है।

        (2) स्मृति जीवन पुरस्कार है।

        (3) जीवन एक प्रश्न है और मरण है उस का अटल उत्तर।

      5. देश-काल तथा वातावरण : 'चन्द्रगुप्त' नाटक ऐतिहासिक नाटक है। इस कारण उसमें चन्द्रगुप्त कालीन आर्यावर्त की परिस्थितियों का चित्रण किया गया है।

         राजनीतिक स्थिति : उत्तरापथ के खण्ड राज्य द्वेष से जर्जर थे। एक ओर नंद और पर्वतेश्वर का विरोध और दूसरी ओर आभीक और पर्वतेश्वर का पारिवारिक झगड़ा था। आम्भीक यवनों को आर्यावर्त में प्रवेश करने के लिये आवश्यक सहायता करता है। पर्वतेश्वर डटकर उनका विरोध करता है। मालव और क्षुद्र जैसे छोटे-छोटे गणतत्रो के शासको का मिलना भी सरल नहीं था। मगध की राजनीतिक स्थिति अव्यवस्थित थी। नन्द विलासप्रिय, कामुक और मद्यप था। राक्षस मंत्री भी मद्यप था। जनता पर मनमाने अत्याचार होते थे। लोग परिवर्तन का अवसर ढूँढ रहे थे। नंद की बेटी कल्याणी भी अपने पिता के शासन से असन्तुष्ट थी। उसका कथन द्रष्टव्य है "महाराज के उद्यान में भी लताएँ ऐसी हरी-भरी नहीं, जैसे राज-घातक से वे भी डरी हुई हो। सच नीला! मैं देखती हैं कि महाराज से कोई स्नेह नहीं करता, डरते भले ही हों.. देखती हैं कि समस्त प्रजा उनसे त्रस्त और भयभीत रहती है। प्रचंड शासन के कारण उनका बड़ा दिन है।"

      धार्मिक-संघर्ष : नद बौद्ध था। राक्षस प्रच्छन्न बौद्ध था। चाणक्य वैदिक धर्मानुयायी था। बौद्ध और वैदिक धर्मों के बीच संघर्ष चलता था। नंद ने वैदिक धर्मावलंबी शकटार को अधकूप में रखा। उसने ज्कटार के पडोसी चणक का ब्राहमणस्व छीन लिया। तक्षशिला का गुरुकुल वैदिक-धर्म का केन्द्र था। इसलिए राक्षस ने वहाँ की शिक्षा को अनावश्यक मानते हुये कहा - "केवल सद्धर्म की शिक्षा ही मनुष्य के लिये पर्याप्त है और वह तो मगच में ही मिल सकती है।" चाणक्य बौद्धधर्म की खुलकर निदा करता था- "परन्तु बौद्धधर्म की शिक्षा मानव व्यवहार के लिए पूर्ण नहीं हो सकती, भले ही वह संघ-विहार में रहनेवालों के लिये उपयुक्त हो।...एक जीवहत्या से डरनेवाले तपस्वी बौद्ध, सिर पर मैडरानेवाली विपत्तियो से, रक्त-समुद्र की आँधियों से, आर्यावर्त की रक्षा करने में असमर्थ प्रमाणित होगे।"

     नारियों की स्थिति : महिलाओं में पर्दे की प्रथा नहीं थी। वे स्वच्छंदता से विचर कर सकती थी। राजसभाओं में उपस्थित हो सकती थी। युद्धभूमि में भी जा सकती थी। शिक्षा महिलाओं को भी दी जाती थी। मालविका के मानचित्र खीचने से इस बात की पुष्टि होती है।

     वाणिज्य : वणिक वाणिज्य वस्तुओं को एक प्रांत से दूसरे प्रात को ले जाते थे। युद्ध वर्णन : युद्धों में गज-सेना, अश्व-सेना, रथ-सेना और पदातियों के अतिरिक्त नौ-सेना का भी उपयोग होता था। सैनिक कटार, धनुष, तीर आदि का उपयोग करते थे। आर्यों की रण-नीति ऐसी थी कि कृषक और निरीह लोग दुःख नहीं पाते थे। किसान रण-भूमि के पास ही स्वच्छदता के साथ हल चलाते थे यवनों की रणनीति इससे मित्र थी। निरीह जनता को लूटना, गांवों को जलाना उनके साधरण काम थे।

     शिक्षा-व्यवस्था : अध्ययन और अध्यापन केलिए गुरुकुलों की व्यवस्था थी। उस समय तक्षशिला का गुरुकुल प्रसिद्ध था। वहाँ के नियम कठिन थे। वहीं का स्नातक वहीं आचार्य भी बन सकता था। छात्रों को राजवृत्ति भी दी जाती थी। वहाँ अर्थशास्त्र, अस्त्र शात्र भी पढ़ाये जाते थे। वहीं एक विद्यार्थी पाँच वर्षों तक अध्ययन करता था। गुरुकुल में आचार्य की आज्ञा ही मानी जाती थी। अन्य लोगों की आज्ञा का निरादर किया जाता था।

     सामाजिक परिस्थिति : समाज में वर्ण-व्यवस्था का प्रचलन था। दाण्ड्यायन जैसेवी लोगों के आश्रम होते थे। वे राजा के पास नहीं जाते थे। राजा लोग ही उनके पास जाते थे। जनता में प्रातीय भावना थी। चाणक्य, अलका जैसे लोग देश में राष्ट्रीय भावना को जागृत करने में लगे थे। विलास-कानन में राजा के साथ नागरिक भी मदिरा पी सकते थे।

     6. रस-सृष्टि : 'चन्द्रगुप्त' नाटक में वीररस की प्रधानता है। इसके पश्चात् श्रृंगार रस की प्रमुखता है। इसके अतिरिक्त शांत तथा अन्य रसों का सकेत भी मिलता है। नाटक का प्रारम्भ राजनीति से होता है और अन्त प्रणय से। यही नाटक की रसगत विशेषता है। (विवरप के लिये प्रश्न न 7 देखिये।)

     7. उद्धेश्य : प्रसाद जी ने स्वयं 'विशाखा' की भूमिका में अपनी रचनाओं के उद्देश्य को बताते हुये लिखा है- "मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकाड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है, जिन्होंने कि हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है।

          'चन्द्रगुप्त' नाटक की कथावस्तु को देखने से स्पष्ट होता है कि भारतवासियों में राष्ट्रीय भावना को जाग्रत करना ही इसका प्रमुख उद्धेश्य है। यह बात अलका के चरित्र और उसके द्वारा गाये गये 'प्रणय गीत । से और भी स्पष्ट हो जाती है।

     8. गीत-योजना : 'चन्द्रगुप्त' नाटक में तेरह गीत हैं। ये गीत पात्रों के अन्तर्द्धन्द्र, प्रेम, देश-प्रेम तथा कोमल भावों के परिचायक है। कार्नेलिया तथा अलका के द्वारा गाये गये गीतों में देश-प्रेम की भावना निहित है। प्रणय-गीतों में मादकता, उद्धाम यौवन की तरंग, व्याकुलता, उलझन तथा अन्तर्द्वन्द्व की अभिव्यक्ति मिलती है। परन्तु अभिनय के समय कुछ गीत अनावश्यक तथा उकतानेवाले हैं। चतुर्थ अक के चौथे दृश्य में ही मालविका तीन बार गाती है। इस एक दृश्य के प्रदर्शन केलिए ही 20-25 मिनट लग जाते है। इसलिए अभिनय के समय कुछ परिवर्तन करना पड़ता है।


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चन्द्रगुप्त' नाटक की ऐतिहासिकता

 

             


                           चन्द्रगुप्त' नाटक की ऐतिहासिकता 


          प्रसाद की नाट्य-कला का महत्त्वपूर्ण तत्व उनकी ऐतिहासिकता है। उनके गंभीर अध्ययन और मनन का परिचय हमें उनके ऐतिहासिक अन्वेषणों से मिलता है। उनका ऐतिहासिक ज्ञान नाटकों की लम्बी-चौड़ी भूमिका तक ही सीमित नहीं है। उन्होंने अपनी खोजों के तर्क-संगत प्रमाण भी दिये हैं। अतीत की टूटी लड़ियो को एकत्र करने का जो कार्य उन्होंने किया है वह बहुत ही सराहनीय है। उन्होंने अपनी कल्पना और भाव-भंगिमा से इतिहास के रूखे-सूखे पृष्ठों में जीवन का रस डाल दिया है।

        प्रसाद के समस्त ऐतिहसिक नाटकों में संभवतः 'चंद्रगुप्त ही एक ऐसा नाटक है जिसके प्रायः सभी प्रमुख पुरुष पात्रों के नाम इतिहास में मिलते हैं। उनमें नद, राक्षस, वररुचि, चंद्रगुप्त, शकटार, चाणक्य, पर्वतेश्वर और आम्भीक तथा यवतो में सिकन्दर, सिल्यूकस, फिलिप्स, मेगास्थनीस-सभी ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। स्त्री पात्रों में कल्याणी और कार्नेलिया के नाम भी इतिहास ग्रंथों में मिलते हैं। इसी तरह इस नाटक की प्रमुख घटनायें इतिहास-सम्मत ही हैं।

        प्रसाद ने कुछ ऐतिहासिक उद्धेश्यों से अनुप्राणित होकर 'चन्द्रगुप्त नाटक की रचना की है। उनका विवरण इस प्रकार है।

      1.भारत ग्रीकों से कभी पराजित नहीं हुआ : पाश्चात्य इतिहासकारों ने इस बात को सिद्ध करने की चेष्टा की है कि यूनानी. सेना का सामना भारतीय सेना न कर सकी थी। पंचनद-प्रदेश की विजय से उत्साहित होकर सिकन्दर समस्त भारत को पददलित करना चाहताथा। परंतु अपने विस्तृत साम्राज्य में किसी आंतरिक विद्रोह के फूट पड़ने की सूचना पाकर उन्होने अपने विचार को स्थगित कर दिया था। वे स्थल-पथ से अपनी सेना को भेजकर स्वयं जल मार्ग से लौट गये।

           परन्तु प्रसाद ने उपर्युक्त ऐतिहासिक विश्वासों का खंडन किया। उन्होंने चंद्रगुप्त नाटक में यह दिखाया है -

       (1) यूनानियों को दो बार भारत में आगे बढ़ने से रोका गया। 

        (2) यूनानियों को देश से निकालकर स्वतंत्र भारत की कीर्ति की रक्षा में चन्द्रगुप्त प्रयत्नशील रहा। 

    2. सिकन्दर विजयी नहीं, पराजित था : पाश्चात्य इतिहासकारों ने सिकन्दर को विजयी बताया था। परन्तु प्रसाद ने अपनी खोजो के आधार पर यह दिखाया है कि सिकन्दर विजयी नहीं, पराजित था।

        सिकन्दर ने भारत-विजय का विचार स्थगित किया था। इससे उनके विश्व-विजय का सुनहला सपना भंग हो गया। प्रसाद जी के अनुसार इसका कारण यह था कि सिकंदर की सेना पर भारतीय वीरों का आतक बैठ गया था, यह बात वर्तमान यूरोपीय इतिहास लेखकों ने भी स्वीकार की है कि पर्वतेश्वर की सेना ने यूनानियों का जिस वीरता के साथ सामना किया. बह सिकदर को अभूतपूर्व और उन जान पड़ी। इसीलिए उसने पौरव से संधि करना उचित माना। यूनानी सेना का साहस टूट चुका था। इसी समय सिकदर को सूचना मिली कि मगध ने लक्षाधिक सेना को संगठित किया। वह सेना पौरव की सेना से भी अधिक कुशल और शक्तिशालिनी थी। सिकंदर ने अपनी सेना को मगध की सेना का सामना करने के लिए समझाया। परन्तु यवन सेना ने सिकंदर की बात नहीं मानी। विवश होकर सिकदर रावी-तट से लौट पड़ा।

        सिकन्दर रावी तट तक बढ़ गया था। प्रसाद ने इसका कारण बताया है कि उस समय पंचनद प्रदेश छोटे-छोटे राज्यों में बैटा हुआ था। इतना ही नहीं, उनमे पारस्परिक संगठन का सर्वथा अभाव था।

          बाद में परिस्थिति बदल गयी पर्तेश्वर की पराजय से चिंतित होकर, स्वदेश की स्वतंत्रता को संकट में जानकर अनेक भारतीय युवक सचेत हुए। उन्होंने छोटी-छोटी शक्तियों को संगठित किया। यवन-सेना को लौटते समय पग-पग पर भारतीय संगठित सेना का सामना करना पड़ा। उसे अनेक बाधाओं और विघ्नों को झेलना पड़ा। उसे अनेक प्रकार  अति सहनी पड़ी। स्वयं सिकंदर भी ऐसे एक युद्ध में घायल हुआ। इतिहासकारों के अनुसार इसी घाव के कारण सिकंदर की बैबिलोनिया / मृत्यु हुई।

        लगभग बीस वर्षों के बाद नये यूनानी सम्राट सिल्यूकस ने अपने पर्वी अधिकारी सिकंदर की इच्छा को पूरा करने का साहस किया। दो-चार तोटे-मोटे स्थानों को जीतने के बाद यवन सेना ने मगध-सेना का सामना या। परंतु मगध-सेना ने यूनानी सेना को भागने का रास्ता तक न था। अंत में सिल्यूकस ने अपनी कन्या कार्नेलिया को चद्रगुप्त से परिणय कराकर संधि कर ली। 'चन्द्रगुप्त' नाटक इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। 

     चन्द्रगुप्त  मौर्य पिप्पलीकानन वासी क्षत्रिय वीर था, शूद्र नही :

      मैक्समूलर 'मौर्य' की उत्पत्ति एक शूद्रा मुरा से उत्पन्न चंद्रगुप्त के जन्म से बताते हैं। परन्तु प्रसाद जी ने चंद्रगुप्त को वीर क्षत्रिय बताया है। उनके अनुसार चन्द्रगुप्त का जन्म पिप्पलीकानन के मोरिय जाति के नेत्रियों में हुआ था। इन मोरियों का उल्लेख बौद्ध ग्रंथ 'दीघ निकाय के 'महापरिनिर्वाण सूद' में भी मिलता है।

     तक्षशिला विश्वविद्यालय : Habell साहब ने अपनी पुस्तक | History of Aryan rule in India' में बताया है कि सिकंदर के आक्रमण-काल में तक्षशिला विश्वविद्यालय विद्रोह का प्रधान केंद्र था। वहाँ कोशल, काशी, मल्ल आदि राज्यों के राजकुमार विद्याध्ययन कर रहे थे। वहाँ उस समय कूट विद्या और सैन्य-शास्त्र विशारद चाणक्य और उनके प्रिय शिष्य चन्द्रगुप्त वर्तमान थे। प्रसाद ने अपने 'चन्द्रगुप्त' नाटक में तक्षशिला की कूटनीतिज्ञता को काफी महत्त्व दिया है।

    चन्द्रगुप्त वृषल नहीं था : संस्कृत नाटककार विशाखदत्त ने अपने मुद्रा राक्षस' नाटक में चन्द्रगुप्त को 'वृषल' कहकर संबोधित किया है। कोष में वृषल शब्द का एक अर्थ शूद्र है। परन्तु प्रसाद के चन्द्रगुप्त नाटक में चाणक्य ने वृषलत्व की व्याख्या इस प्रकार दी है - "आर्य क्रिया-कलापो का लोप हो जाने से इन लोगो (मौयों) को वृषलत्व मिला. वस्तुतः ये क्षत्रिय हैं। बौद्धों के प्रभाव में आने से इनके क्षत्रिय होते में कोई संदेह नहीं है।


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एकांकी

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