ध्रुवस्वामिनी
- जयशंकर प्रसाद
सूचना
विशाखदत्त द्वारा रचित 'देवीचन्द्रगुप्त' नाटक के कुछ अंश 'श्रृंगार-प्रकाश और 'नाट्य-दर्पण' से सन् 1923 की ऐतिहासिक पत्रिकाओं में जब उद्धृत हुए तब चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के जीवन के सम्बन्ध में जो नई बातें प्रकाश में आई, उनसे इतिहास के विद्वानों में अच्छी हलचल मच गई। शास्त्रीय मनोवृत्ति वालों को, चन्द्रगुप्त के साथ घुवस्वामिनी का पुनर्लग्न असम्भव, विलक्षण और कुरुचिपूर्ण मालूम हुआ। यहाँ तक कि आठवीं शताब्दी के संजन ताम्रपत्र
हत्वा भ्रातरमेव राज्यमहरडेवीं स दीनस्तथा,
लक्षं कोटिमलेखयन् किल कलौ दाता स गुप्तान्वयः ।
के पाठ में संदेह किया जाने लगा।
किंतु जिस ऐतिहासिक घटना का वर्णन करते, सातवीं शताब्दी में बाणभट्ट ने लिखा है
अरिपुरेच परकलत्रकामुक कामिनीवेश
श्चन्द्रगुप्तो शकपतिमशातयत्।।
और ग्यारहवीं शताब्दी में राजशेखर ने भी लिखा है
दत्वारुद्ध गति खसाधिपतये देवीं घुवस्वामिनीम्।
यस्मात् खंडित साहसो निववृते श्रीरामगुप्तोनृपः ।
वह घटना केवल जनश्रुति कहकर नहीं उड़ाई जा सकती।
विशाखदत्त को तो श्री जायसवाल ने चन्द्रगुप्त की सभा का राजकवि और उसके 'देवीचन्द्रगुप्त' को जीवन-चित्रण नाटक भी माना है। यह प्रश्न अवश्य ही कुछ कुतूहल से भरा हुआ है कि विशाखदत्त ने अपने दोनों नाटकों का नायक चन्द्रगुप्त नामधारी व्यक्ति को ही क्यों बनाया ? परन्तु श्रीतलंग ने तो विशाखदत्त को सातवीं शताब्दी के अवन्तिवर्मा का आश्रित कवि माना है क्योंकि 'मुद्राराक्षस' की किसी प्राचीन प्रति में उन्हें मुद्राराक्षस के भरतवाक्य 'प्रा्थिवश्चन्द्रगुप्तः' के स्थान पर 'प्रार्थिवोऽवन्तिवर्मा' भी मिला। विशाखदत्त के आलोचक लोग उसे एक प्रामाणिक ऐतिहासिक नाटककार मानते हैं। उसके लिखे हुए नाटक में इतिहास का अंश कुछ न हो, ऐसा तो नहीं माना जा सकता। राखालदास बनर्जी, प्रोफेसर अल्तेकर और श्री जायसवाल इत्यादि ने अन्य प्रामाणिक आधार मिलने के कारण ध्रुवस्वामिनी और चन्द्रगुप्त के पुनर्लग्न को ऐतिहासिक तथ्य मान लिया है। यह कहना कि रामगुप्त नाम का कोई राजा गुप्तों की वंशावली में नहीं मिलता और न किसी अभिलेख में उसका वर्णन आया है, कोई अर्थ नहीं रखता। समुद्रगुप्त के शासन का उल्लंघन करके, कुछ दिनों तक साम्राज्य में उत्पात मचाकर, जो राजनीति के क्षेत्र में अन्तान हो गया हो; उसका अभिलेख वंशावली में न मिले तो कोई आश्चर्य नहीं। हाँ, भंडारकरजी तो कहते हैं कि उसके लघु-काल-व्यापी शासन का सूचक सिक्का भी चला था। 'काच' के नाम से प्रसिद्ध गुप्त सिक्के मिलते हैं, वे रामगुप्त के ही हैं। राम के स्थान पर भ्रम से काच पढ़ा जा रहा था। इसलिए बाणभट्ट की वर्णित घटना अर्थात् स्त्री-वेश धारण करके चन्द्रगुप्त का पर-कलत्र कामुक शकराज को मारना और ध्रुवस्वामिनी का पुनर्विवाह इत्यादि के ऐतिहासिक सत्य होने में संदेह नहीं रह गया है। और मुझे तो इसका स्वयं चन्द्रगुप्त की ओर से एक प्रमाण मिलता है । चन्द्रगुप्त के कुछ सिक्कों पर 'रूपकृती' शब्द का उल्लेख है। रूप और आकृति का जॉन एलन् ने खींच-तानकर जो शारीरिक और आध्यात्मिक अर्थ किया है, वह व्यर्थ है। 'रूपकृती' विरुद का उल्लेख करके चन्द्रगुप्त अपने उस साहसिक कार्य को स्वीकृति देता है जो ध्रुवस्वामिनी की रक्षा के लिए उसने रूप बदलकर किया है, और जिसका पिछले काल के लेखकों ने भी समय-समय पर समर्थन किया है।
विशाखदत्त के 'देवीचन्द्रगुप्त का जितना अंश प्रकाश में आया है, उसे देखकर अबुलहसन अली की बक्कमारिस वाली कथा का मिलान करके कई ऐतिहासिक विद्वानों ने शास्त्रीय दृष्टिकोण रखनेवाले आलोचकों को उत्तर देते हुए ध्रुवदेवी के पुनर्लग्न को ऐतिहासिक तथ्य तो मान लिया है किन्तु भंडारकरजी ने पराशर और नारद की स्मृतियों से उस काल की सामाजिक व्यवस्था में पुनर्लन होने का प्रमाण भी दिया है। शास्त्रों में अनुकूल और प्रतिकूल दोनों तरह की बातें मिल सकती है, परन्तु जिस प्रथा के लिए विधि और निषेध दोनों तरह की सूचनाएँ मिलें, तो इतिहास की दृष्टि से वह उस काल में सम्भाव्य मानी जाएगी। ही, समय-समय पर उनमें विरोध और सुधार हुए होंगे और होते रहेंगे। मुझे तो केवल यही देखना है कि इस घटना की सम्भावना इतिहास की दृष्टि से उचित है कि नहीं।
भारतीय दृष्टिकोण को सुरक्षित रखनेवाले विशाखदत्त जैसे पंडित ने जब अपने नाटक में लिखा है -
रम्यांचारतिकारिणीज करुणाशोकेन नीता दशाम्
तत्कालोपगतेन राहुशिरसा गुप्तेव चांदरकला।
पत्युः क्लीवजनोचितेन चरितेनानेव पुंसः सतो
लज्जाकोपविषाद भीत्वरतिभिः क्षेत्रीकृता ताम्यते ॥
तो उस नाटक के सम्पूर्ण सामने न रहने पर भी, जिससे कि उसके परिणाम का निश्चित पता लगे, उस काल की सामाजिक व्यवस्था का तो अंशतः स्पष्टीकरण हो ही जाता है। नारद और पराशर के वचन
अपत्यार्थम् स्त्रियः सृष्टाः स्त्री क्षेत्रं बीजिनो नराः
क्षेत्र बीजवते देयं नाबीजी क्षेत्रमर्हति । ( नारद)
नष्टे मृते प्रवृजिते क्लीचे च पतिते पतो ।
पंचस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते । (पराशर)
के प्रकाश में जब 'देवीचन्द्रगुप्त' नाटक के ऊपर वाले श्लोक का अर्थ किया जाए तो वह घटना अधिक स्पष्ट हो जाती है। रम्या है किन्तु अरतिकारिणी है, में जो श्लेष है, उसमें शास्त्र-व्यवस्था जनित ध्वनि है । और पति के क्लीव जनोचित चरित्र का उल्लेख, साथ-ही-साथ क्षेत्रीकृता जैसा पारिभाषिक शब्द, नाटककार ने कुछ सोचकर ही लिखा होगा।
भंडारकर और जायसवालजी, दोनों ने ही अपने लेखों में विधवा के साथ पुनर्लग्न होने की व्यवस्था मानकर ध्रुवदेवी का पुनर्लग्न स्वीकार किया है किन्तु स्मृति की ही उक्त व्यवस्था में अन्य पति ग्रहण करने के लिए पाँच आपत्तियों का उल्लेख किया है, उनमें केवल मृत्यु होने पर ही तो विधवा का पुनर्लग्न होगा। अन्य चार आपत्तियों तो पति के जीवनकाल में ही उपस्थित होती हैं।
उधर जायसवालजी चन्द्रगुप्त द्वारा रामगुप्त का वध भी नहीं मानना चाहते, तब 'देवीचन्द्रगुप्त' नाटक की कथा का उपसंहार कैसे हुआ होगा ? वैवाहिक विषयों का उल्लेख स्मृतियों को छोड़कर क्या और कहीं नहीं है ? क्योंकि स्मृतियों के संबंध में तो यह भी कहा जा सकता है कि वे इस युग के लिए नहीं, दूसरे युग के लिए हैं परंतु यही कलियुग के विधानग्रंथ आचार्य कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में मुझे स्मृतियाँ की पुष्टि मिली।
किस अवस्था में एक पति दूसरी स्त्री ग्रहण कर सकता है, इसका अनुसंधान करते हुए, धर्मस्थीय प्रकरण के विवाहसंयुक्त में आचार्य कौटिल्य लिखते हैं
वर्षाण्यष्टा वप्रजायमानामपुत्राम् बंध्यां चाकांदेत् दर्शविन्दु,
द्वादश कन्या प्रसविनीम् । ततः पुत्रार्थी द्वितीया वदेत् ।
8 वर्ष तक बंध्या, 10 वर्ष बिंदु अर्थात् नश्यत्प्रसूति, 12 वर्ष तक कन्या प्रसविनी की प्रतीक्षा करके पुत्रार्थी दूसरी स्त्री ग्रहण कर सकता है। पुरुषों का अधिकार बताकर स्त्रियों के अधिकार की घोषणा भी उसी अध्याय के अंत में है
नीचत्वम् परदेशम् वा प्रस्थितो राजकिल्विषी ।
प्राणाभिहंता पतितस्त्याज्यः क्लीवोऽपिवापतिः ॥
इसका मेल पराशर या नारद के वाक्यों से मिलता है इन्हीं अवस्थाओं में पति को छोड़ने का अधिकार स्त्रियों को था। क्योंकि 'अर्थशास्त्र' में, आगे जो मोक्ष-Divorce का प्रसंग आता है, उसमें न्यायालय संभवतः 'अमोक्षा भर्तुरकामस्य द्विषती भार्या भार्यायाश्च भर्ता, परस्परं द्वेषान्मोक्षः' के आधार पर आदेश देता था किंतु साधारण द्वेष से भी जहाँ अन्य चार विवाहों में मोक्ष हो सकते थे; वहाँ धर्म-विवाह में केवल इन्हीं अवस्थाओं में पति त्याज्य समझा जाता था। नहीं तो अमोक्षो हि धर्म-विवाहानामु' के अनुसार धर्म-विवाहों में मोक्ष नहीं होता था। दमयन्ती के पुनर्लग्न की घोषणा भी पति के नष्ट या परदेश प्रस्थित होने पर ही की गई थी।
जायसवालजी अबुलहसन अली की यह बात नहीं मानते कि चन्द्रगुप्त ने रामगुप्त की हत्या की होगी। उनका कहना है कि चन्द्रगुप्त की तरह बड़े भाई के लिए गद्दी छोड़ चुका था। उनका अनुमान है कि Very likely. it came about in the form of popular uprsing.'
अब नाटककार के 'अरतिकारिणी' और 'क्लीव' आदि शब्द घटना की परिणति की क्या सूचना देते हैं, यह विचारणीय है। बहुत सम्भव है कि अबुलहसन की कथा का आधार 'देवीचन्द्रगुप्त' नाटक ही हो क्योंकि अबुलहसन के लिखने के पहले उपत नाटक का होना माना जा सकता है।
यह ठीक है कि हमारे आचार और धर्मशास्त्र की व्यावहारिकता की परंपरा विच्छिन्न-सी है। आगे जितने सुधार या समाजशास्त्र के परीक्षात्मक प्रयोग देखे या सुने जाते हैं, उन्हें अचिंतित और नवीन समझकर हम बहुत शीघ्र अभारतीय कह देते हैं, किंतु मेरा ऐसा विश्वास है कि प्राचीन आयोवत ने समाज की दीर्घकालव्यापिनी परंपरा में प्रायः प्रत्येक विधान का परीक्षात्मक प्रयोग किया है। तात्कालिक कल्याणकारी परिवर्तन भी हुए हैं। इसीलिए डेट हजार वर्ष पहले यह होना अस्वाभाविक नहीं था। क्या होना चाहिए और कैसा होगा, यह तो व्यवस्थापक विचार करें; किंतु इतिहास के आधार पर जो कुछ हो चुका या जिस घटना के घटित होने की संभावना है, उसी को लेकर इस नाटक की कथावस्तु का विकास किया गया है।
भंडारकरजी का मत है कि यह युद्ध गोमती की घाटी में अल्मोड़ा जिले के कार्तिकेयपुर के समीप हुआ। जायसवालजी का मत है कि यह युद्ध 374 ई. से लेकर 380 ई. के बीच में काँगड़ा जिले के अबिबाल नामक स्थान में हुआ था, जहाँ कि प्रथम सिख युद्ध भी हुआ था।
प्रयाग की प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की साम्राज्य-नीति में विजित राजाओं के आत्मनिवेदन कन्योपायन दान' ग्रहण करने का उल्लेख है। मैंने धवस्वामिनो के गुप्तकाल में आने का वही कारण माना है ।
विशाखदत्त ने ध्रुवदेवी नाम लिखा है; किंतु मुझे धुवस्वामिनी नाम जो राजशेखर के मुक्तक में आया है, स्त्रीजनोचित, सुटर, आदर-सूचक और सार्थक प्रतीत हुआ। इसीलिए मैंने उसी का व्यवहार किया है।
-जयशंकर प्रसाद
पात्र-परिचय :
चन्द्रगुप्त
रामगुप्त
शिखरस्वामी
पुरोहित
शकराज
खिंगल
मिहिरदेव
घुवस्वामिनी
मंदाकिनी
कोमा
सामंत-कुमार, शक-सामंत, प्रतिहारी,
प्रहरी, दासी, कुबड़ा, बौना, हिजड़ा
ध्रुवस्वामिनी
प्रथम अंक
[शिविर का पिछला भाग, जिसके पीछे पर्वतमाला की प्राचीर है शिविर का एक काम दिखलाई दे रहा है, जिससे सटा हुआ चन्द्रातप टैगा हैं। मोटी-मोटी रेशमी डोरियों से सुनाल के परदे खम्भों से बंधे हैं। दो-सीन सुन्दर मंच रक्रये हुए है। चन्द्रातप और पहाड़ी के बीच छोट कुज, पहाड़ी पर से एक पतली जलधारा उस हरियाली में बहती है । इगरने के पास शिला विपकी हुई लता की डालियाँ पवन में हिल रही हैं। दो-चार छोटे-बड़े वृक्ष, जिन पर फूलों में ल हुई सेवती की लता छोटा सा झुरमट बना रही है।
शिविर के कोने से प्रुवस्वामिनी का प्रवेश पीछे -पीछे एक लम्बी और कुरूप स्त्री चुपचाप नंगी तलवार लिए आती है।]
धुवस्वामिनी-(सामने पर्वत की ओर देख कर) सीधा तना हुआ, अपने प्रभुत्व की साकार कठोरता, अभाभेदी उन्मुक्त शिखर! और इन क्षुद्र कोमल निरीह लताओं और पौधों को इसके चरण में लोटना ही चाहिए न। (साथवाली खड्गधारिणी की ओर देखकर) क्यों मन्दाकिनी नहीं आई? (वह उत्तर नहीं देती है) योलती क्यों नहीं? यह तो मैं जानती हैं कि इस राजकुल के अन्तःपुर में मेरे लिए न जाने कब से नीरव अपमान संचित रहा, जो मुझे आते ही मिला; किन्तु क्या तुम जैसी दासियों से भी वही मिलेगा? इसी शैलमाला की तरह मौन रहने का अभिनय तुम न करो, बोलो! (वह दाँत दिखाकर बिनय प्रकट करती हुई कुछ और आगे बढ़ने का संकेत करती है) अरे, यह क्या; मेरे भाग्य-विधाता। यह कैसा इन्द्रजाल? उस दिन राज-महापुरोहित ने कुछ आहुतियों के बाद मुझे जो आशीर्वाद दिया था, क्या बह अभिशाप या? इस राजकीय अन्तःपुर में सब जैसे एक रहस्य छिपाए हुए चलते हैं, वोलते हैं और मौन हो जाते हैं । (खड्ग-धारिणी विवशता और भय का अभिनय करती हुई आगे बढ़ने का संकेत करती है) तो क्या तुम मूक हो ? तुम कुछ बोल न सकी? मेरी बातों का उत्तर भी न दो, इसीलिए तुम मेरी सेवा में नियुक्त की गयी हो? यह असहय है। इस राजकुल में एक भी सम्पूर्ण मनुष्यता का निदर्शन न मिलेगा क्या? जिधर देखो कुडे, बौने, हिजडे, गूंगे और बहरे... (बिढ़ती हुई ध्रुवस्वामिनी आगे बढ़कर झरने के किनारे बैठ जाती है, खड़गधारणी भी इघर-उघर देख कर ध्रुवस्वामिनी के पैरों के समीप बैठती है।)
खड़गपारिणी-(सशंक चारों ओर देखती हुई) देवि, प्रत्येक स्थान और समय बोलने के योग्य नहीं होते। कभी-कभी मौन रह जाना बुरी बात नहीं है । मुझे अपनी दासी समझिये । अवरोध के भीतर मैं गूगी हूँ । वहाँ संदिग्ध न रहने के लिए मुझे ऐसा ही करना पड़ता है।
धुचत्वामिनी-अरे, तो क्या तुम बोलती भी हो? पर पह लो करो, यह कपट आवरण किसलिये।
खड्गधारिणी--एक पीडित की प्रार्थना सुनाने के लिए कुमार चन्द्रगुप्त को आप भूल न गयी होगी।
धुवस्वामिनी- (उत्कण्ठा से) वही न, जो मुझे बंदिनी बनाने के गये थे।
खड्गधारिणी-(दाँतों से जीभ दबाकर) यह आप क्या कह रही है ? उनको तो स्वयम् अपने भीषण भविष्य का पता नहीं । प्रत्येक क्षण उनके प्राणों पर सन्देह करता है। उन्होंने पूछा है कि मेरा क्या अपराध है?
धुवस्वामिनी -(उदासी की मुस्कुराहट के साथ) अपराध? में क्या बताऊँ । तो क्या कुमार भी बन्दी है?
खड्गधारिणी-कुछ-कुछ ऐसा ही है देवी, राजाधिराज से कहकर क्या आप उनका कुछ उपकार कर सकेंगी?
ध्रुवस्वामिनी-भला में क्या कर सकूँगी ? मैं तो अपने ही प्राणों का मूल्य नहीं समझ पाती । मुझ पर राजा का कितना अनुग्रह है, यह भी मैं आज तक न जान सकी । मैंने तो कभी उनका मधुर सम्भाषण सुना ही नहीं। बिलासिनियों के साथ मदिरा में उन्मत्त, उन्हें अपने आनन्द से अवकाश कहीं।
खड्गधारिणी-तब तो अदृष्ट ही कुमार के जीवन का सहायक होगा उन्होंने पिता का दिया हुआ स्वत्व और राज्य का अधिकार तो छोड़ ही दिया: इसके साथ अपनी एक अमूल्य निधि भी...। (कहते-कहते सहसा रुक जाती है)।
ध्रुवस्वामिनी-अपनी अमूल्य निधि वह क्या?
खड्गधारिणी-वह अत्यन्त गुप्त है देवि, किन्तु में प्राणों की भीख मांगते हुए कह सकूँगी।
धुवस्वामिनी -(कुछ सोचकर) तो जाने दो छिपी हुई बातों से में घबरा उठी हूँ हाँ, मैंने उन्हें देखा था, वह निर प्राची का बाल अरुण आह! राज-चक्र सदको पीसता है, पिसने दो; हम निस्यहायं को और दुर्दलों को पिसने दो।
खड्गधारिणी-देवि, यह बल्लरी जो मरने के समीप पहाड़ी पर चढ़ गयी है, उसकी नन्हीं नन्हीं पत्तियों को ध्यान से देखने पर आप समझ जाएगी कि वह काई की जाति की है। प्राणों की क्षमता बढा लेने पर वही काई जो बिछलन बनकर गिरा सकती थी, अब दूसरों के ऊपर चढ़ने का अवलम्ब बन गयी है।
ध्रुवस्यामिनी-(आकाश की और देख कर) वह बहुत दूर की बात है । आह कितनी कठोरता है। मनुष्य के हृदय में देवता को हटा कर सक्षस कहाँ से घुस आता है ? कुमार की स्निग्ध सरल और सुन्दर मूर्ति को देखकर कोई भी प्रेम से पुलकित हो सकता है। किन्तु, उन्हीं का भाई? आश्चर्य!
खड्गधारिणी- कुमार को इतने में ही सन्तोष होगा कि उन्हें कोई विश्वासपूर्वक स्मरण कर लेता है । रही अध्ययष की माला, सो तो उनको अपने वाहू-वल और भाग्य पर ही विश्वास है। धूपयामिणी किन्तु उन्हें कोई ऐसा साहस का काम न करना चाहिए, जिसमें उनकी परिस्थिति और भी भयानक हो जाए।
(खगपारिणी खड़ी होती है)
अच्छा, तो आप तू जा और अपने मौन संकेत से किसी दासी को यहाँ भेज दे। में अभी भी बैठना चाहती हूं।
(खगधारिणी नमस्कार करके जाती है और एक दासी का प्रवेश)
दासी- (हाथ जोड़ कर) देवि, सायंकाल शो चला है । वनस्पतियाँ शिवल होने लगी हैं । देखिए न, व्योम-विहारी पक्षियों का झुण्ड भी जपने नीड़ों में प्रसन्न कोलाहल से लौट रहा है। क्या भीतर चलने की अभी इच्छा नहीं है?
ध्रुवस्यामिनी-बतँगी क्यों नहीं? किन्तु मेरा नीड़ कहाँ? यह तो स्वर्ण-पिञ्जर है।
(करुण भाव से उठकर दासी के कन्धे पर हाथ रखकर चलने को उद्यत होती है। नेपध्य में कोलाहल । - 'महादेवी कहाँ हैं उन्हें कौन बुलाने गयी है?')
धुवस्वामिनी-हैं यह उतावली कैसी?
प्रतिहारी-(प्रवेश करके घबराहट से) भट्टारकर इधर आये हैं क्या? ध्रुवस्वामिनी-(व्यंग्य से मुस्कराते हुए) मेरे अंचल में तो छिपे नहीं हैं। देखों किसी कुञ्ज में
प्रतिहारी-(संभ्रम से) अरे महादेवी, क्षमा कीजिये । युद्ध सम्बन्धी एक आवश्यक सम्वाद देने के लिए महाराज को खोजती हुई मैं इधर आ गयी हूँ ।
धुवस्वामिनी-होंगे कहीं, यहाँ तो नहीं है।
(उदास भाव से दासी के साथ प्रुवस्वामिनी का प्रस्थान । दूसरी ओर से खड्गधारिणी का पुनः प्रवेश और कुंज में से अपना उत्तरीय संभलता हुआ रामगुप्त मिलकर एक बार प्रतिहारी की और फिर खडगधारिणी की ओर देखता है।)
प्रतिहारी-जय हो देव! एक चिन्ताजनक समाचार निवेदन करने के लिए अमात्य ने मुझे भेजा है।
रामगुप्त-(झुंझला कर) चिन्ता करते करते देखता हूँ कि मुझे मर जाना पड़ेगा! ठहरो (खड्गधारिणी से) हाँ जी, तुमने अपना काम तो अच्छा किया, किन्तु मैं समझ न सका कि चन्द्रगुप्त को वह जब भी प्यार करती है या नहीं?
(खड्गधारिणी प्रतिकारी की ओर देखकर चुप रह जाती है।)
रामगुप्त-(प्रतिहारी की और क्रोध से देखता हुआ) तुमसे मैंने कह न दिया कि अभी मुझे अवकाश नहीं, ठहर कर आना?
प्रतिहारी-राजाधिराजा शकों ने किसी पहाड़ी राह से उतरकर नीचे का गिरि-पथ रोक लिया है। हम लोगों के शिविर का सम्बन्ध राजपथ से छूट गया है । शकों ने दोनों ही ओर से घेर लिया है।
रामगुप्त-दोनों ओर से घिरा रहने में शिविर और भी सुरक्षित है। मूर्ख! चुप रह (खड्गधारिणी से) तो धुनदेदि, क्या मन-ही-मन चन्द्रगुप्त को हैन मेरा सन्देह ठीक?
प्रतिहारी-(हाथ जोड़कर) अपराध कामा हो देव! अमात्य, युद्ध-परिषद् में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
रामगुप्त-(हदय पर हाथ रखकर) युद्ध तो पहाँ भी चल रहा है, देखता नहीं, जगत् की अनुपम सुन्दरी मुझसे स्नेह नहीं करती और मैं हूँ इस देश का राजाधिराज !
प्रतिहारी-महाराज, शकराज का सन्देश लेकर एक दूत भी आया है।
रामगुप्त-आह । किन्तु ध्रुवदेवी! उसके मन में टीस है (कुछ सोचकर) जो स्त्री दूसरे के शासन रहकर और प्रेम किसी अन्य पुरुष से करती है; उसमें एक गम्भीर और व्यापक रस उद्वेलित रहता होगा। वही तो...नही, जो चन्द्रगुप्त से प्रेम करेगी वह स्त्री न जाने कब चोट कर बैठे ? भीतर-भीतर न जाने कितने कुचक्र घूमने लगेंगे (खड्गधारिणी से) सुना न, ध्रुवदेवी से कह देना चाहिए कि वह मुझे और मुझे ही प्यार करें । केवल महादेवी बन जाना ठीक नहीं।
(खड्गधारिणी का प्रतिहारी के साथ प्रस्थान और शिखर स्वामी का प्रवेश)
शिखर-स्वामी-कुछ आवश्यक बातें कहनी हैं देव!
रामगुप्त-(चिन्ता से उँगली दिखाते हुए, जैसे अपने आप बातें कर रहा हो) ध्रुवदवी को लेकर क्या साम्राज्य से भी हाथ धोना पड़ेगा! नहीं तो फिर ? (कुछ सोचते लगता है) ठीका तो. सहसा मेरे राजदण्ड ग्रहण कर लेने से पुरोहित, अमात्य और सेनापति लोग छिपा हुआ विद्रोह भाव रखते हैं। (शिखर से) है न? केवल एक तुम्हीं मेरे विश्वासपात्र हो। समझा न! यही गिरिन्पथ सब झगड़ों का अन्तिम निर्णय करेगा । क्यों अमात्य, जिसकी भुजाओं में चल न हो, उसके मस्तिष्क में तो कुछ होना चाहिए?
शिखर-स्वामी-(एक पत्र देकर) पहले इसे पढ़ लीजिए! (रामगुप्त पत्र पढ़ते-पढ़ते जैसे आश्चर्य से चाक उठता है) चौकिये मत, यह घटना इतनी आकस्मिक है कि कुछ सोचने का अवसर नहीं मिलता।
रामगुप्त-(ठहरकर) है तो ऐसा ही किन्तु एक बार ही मेरे प्रतिकूल भी नहीं । मुझे इसकी सम्भावना पहले से भी थी।
शिखर-स्यामी- (आश्चर्य से) ऐ? तब तो महाराज ने अवश्य ही कुछ सोच लिया होगा। मेघ- संकुल आकाश की तरह जिसका भविष्य घिरा हो, उसकी युधि को तो बिजली के समान चमकना ही चाहिए।
रामगुप्त-(सशंक) कह दूं। सोचा है तो मैंने परन्तु क्या तुम उसका समर्थन करोगे? शिखर-स्वामी-यदि नीति-युक्त हुआ तो अवश्य समर्थन करुंगा। सबके विरुद्ध रहने पर भी स्वर्गीय आर्य समुद्रगुप्त की आक्षा के प्रतिकूल मैंने ही आपका समर्थन किया था। नीति-सिद्धान्त के आधार पर ज्येष्ट राजपुत्र को ...............।
रामगुप्त-(बात काटकर) वह तो, वह तो में जानता हूँ, किन्तु इस समय जो प्रश्न सामने आ गया है, उसपर विचार करना चाहिए । यह तुम जानते हो कि मरी इस बिजय-यात्रा का कोई गुप्त उद्देश्य है। उसकी सफलता भी सामने ईपड़ रही है। हाँ, थोडा-सा साहस चाहिए।
शिखर-स्वामी-वह क्या?
रामगुप्त-शक-दूत सन्धि के लिए जो प्रमाण चाहता हो उसे अस्वीकार न करना चाहिए। ऐसा करने में इस संकट के बहाने जितनी विरोधी प्रकृति है, उस सबको हम लोग सहज में ही हटा सकेंगे। शिखर-स्वामी-भविष्य के लिए यह चाहे अच्छा हो; किन्तु इस समय तो हम लोगों को बहुत-से विघ्नों का सामना करना पड़ेगा।
रामगुप्त-(हँसकर) तथा तुम्हारी बुद्धि कब काम में आवेगी ? और हां, चन्द्रगुप्त के मनोभाव का कुछ पता लगा?
शिखरस्वामी-कोई नयी बात तो नहीं।
रामगुप्त में देखता हूँ कि मुझे पहले अपने अन्तापुर के ही विद्रोह का दमन करना होगा (निःश्वास लेकर) ध्रुवदेवी के हृदय में चंद्रगुप्त की आकांक्षा धीरे-धीरे जाग रही है।
शिखर-स्वामी-यह असम्भव नहीं; किन्तु महाराज! इस समय जाप को दूत से साक्षात् करके उपस्थित राजनीति पर ध्यान देना चाहिए। यह एक विचित्र वात है कि प्रबल पक्ष सन्धि के लिए सन्देश भेजे।
रामगुप्त-विचित्र हो चाहे सचित्र, अमात्य, तुम्हारी राजनीतिज्ञता इसी में है कि भीतर और बाहर के सब शत्रु एक ही चाल में परास्त हो। तो चलो ।
(दोनों का प्रस्थान। मन्दाकिनी का सशंक भाव से प्रवेश)
मन्दाकिनी-(चारों और देखकर) भयानक समस्या है। मुखों ने स्वार्थ के लिए साधाज्य के गोरच का सर्वनाश करने का निश्चय कर लिया है। सच है. पीरता जय भागती है, तब उसके पैरों से राजनीतिक एल छन्द की धूल उहती है। (कुछ सोचकर) कुमार चन्द्रगुप्त को पह सय समाचार शीघ्र ही मिलना चाहिए । गूंगी के अभिनय में महादेषी के हृदय का आवरण तनिक सा इटा मे, किन्तु वह योडा सा स्निग्ध भार भी कुमार के लिए कम महत्त्व नहीं रखता। कुमार चन्द्रगुप्त! कितना समर्पण का भाव है उसमें और उसका बड़ा भाई रामगुप्त। कपटाचारी रामगुप्त! जी करता है, इस कालुषित वातावरण से कीं दूर, विभूति में अपने को ठिपा लूँ। पर मन्दा तुझे विधाता ने क्यों पनाया? (सोचने लगती है) नहीं, मुझे हवय कटोर करके अपना कर्तव्य करने के लिए यहाँ रुकना होगा । न्याय का दुर्बल पास ग्रहण करना होगा।
(गाती है)
पर कसक अरे आंसू सह जा।
बनकर विन अभिमान मुझे
मेरा अस्तित्व बता, रह जा।
बन प्रेम छलक कोने कोने
अपनी नीरव गाथा कह जा।
करुणा बन दुखिया वसुधा पर
शीतलता फैलाता यह जा।
(जाती है। भुवस्वामिनी का उदास भाव से धीरे-धीरे प्रवेश। पीछे एक परिचारिका पान का डिब्बा और दूसरी चमर लिये आती भुवस्वामिनी एक मंच पर बैठकर अधरों पर उँगली रखकर कुछ सोचने लगती है और बभरधारिणी चमर चलाने लगती है।)
ध्रुवस्वामिनी-(दुसरी परिचारिका से) हां, क्या कहा! शिखर स्वामी कुष्ठ कहना चाहते हैं कह दो, कल सुनेगा, आज नहीं।
परिचारिका-जैसी आज्ञा । तो में कह आऊँ कि अमात्य से कल महादेवी बातें करेगी?
ध्रुवस्वामिनी-कुछ सोच कर) ठहरो तो, वह गुप्त साम्राज्य का अमात्य है, उससे आज ही भेंट करना होगा। हाँ यह तो बताओ. तुम्हारे राजकुल का नियम क्या है? पहल अमात्य की मंत्रणा सुननी पड़ती है तब राजा से भेंट होती है?
परिचारिका-(दाँतों से जीभ दबाकर) ऐसा नियम तो मैने नहीं सुना । यह युद्ध-शिविर हैं न? परम भट्टारक को जवसर न मिला होगा । महादेवी! आपको सन्देह न करना चाहिए।
ध्रुवस्वामिनी-मैं महादगी हो न? यदि या सत्य है तो क्या तुम मेरी आमा कुमार चन्द्रगुप्त को यहाँ बुला सकती हो ? में चाहती हूँ कि अमात्य के साथ ही कुमार से भी कुछ बातें कर गर्ने परिचारिका-शमा कीजिए. इसके लिए तो पहले अमात्य से पूछना होगा।
(ध्रुवस्वामिनी कोष से उसकी ओर देखने लगती है और वह पान का डिया रखकर चली जाती है। एक बौने का कुबो और हिजों के साथ प्रबेश)
कुबड़ा-युख! भयानक युद्ध!।
बौना-हो रहा है, कि कहीं होगा मित्र!
हिजता-बहनो, यही युद्ध करके दिखाएं न, महादेवी भी देख लें।
बौना-(कुबडे से) सुनता है रे। तू अपना हिमाचल इधर कर दै-में दिग्विजय करने के लिए कुबर पर चदाई कलंगा।
(उसकी कूबड़ को दबाता है और कुबड़ा अपने घुटनों और हाथों के बल बैठ जाता है। हिजड़ा कुयों की पीठ पर बैठता है। यौना एक मोर्छल लेकर तलबार की तरह उसे पुमाने लगता है)
हिजडा-अरे! यह तो में हैं नल-कुदर की वधू। दिग्विजयी बीर, क्या तुम स्त्री से युद्ध करोगे? लौट जाओ, कल जाना । मेरे असुर और आर्यपुत्र दोनों ही उर्वशी और रम्भा के अभिसार से अभी नहीं आये। कुछ आज ही तो युद्ध करने का शुभ मुहूर्त नहीं है।
बौना-(मोर्छल से पटा घुमाता हुआ) नहीं, आज ही युद्ध होगा। तुम स्त्री नहीं हो, तुम्हारी उँगलियाँ तो मेरी तलवार से भी अधिक चल रही है । फूचड़ तुम्हारे नीचे है तब मैं मान लूँ कि तुम न तो नल-कूबर हो और न कुवेर तुम्हारे वस्त्रों से में धोखा न खा जाऊँगा । तुम पुरुष हो,युद्ध करो हिजड़ा-उसी तरह मटकते हुए) अरे, मैं स्त्री हूँ। वहनो, कोई मुझसे व्याह भले ही कर सकता है, लड़ाई मैं क्या जाने?
(दासी के साथ शिखर-स्वामी का प्रवेश)
शिखर-स्वामी--महादेवी की जय हो।
(दूसरी ओर से एक युवती दासी के कन्धे का सहारा लिये कुछ-कुछ मदिरा के नशे में रामगुप्त का प्रवेश । मुसकराता हुआ बाँने का खेल देखने लगता है। ध्रुवस्वामिनी उठकर खड़ी हो जाती है और शिखर स्वामी रामगुप्त को संकेत करता है।)
रामगुप्त-कुछ भरे हुए कण्ठ से) महादेवी की जय हो।
ध्रुवस्वामिनी-स्वागत महाराज!
(रामगुप्त एक मंच पर बैठ जाता है और शिर स्थामी मुबसावामिनी के इस उदासीन शिष्टाचार से चकित होकर सिर खुजलाने लगता है।)
कुवड़ा-दोहाई राजाधिराज की। मेष हिमालय का कूबड़ दुखने लगा। न तो यह नालकूबर की बर मेरे कुबर से उठती है और न तो यह बीना मुझे विजय ही कर लेता है
रामगुप्त-हसत हुए) बार रे वामन बीर! यहाँ दिग्विजय का नाटक खेला जा रहा है क्या?
बौना-(अकड़कर) वामन के बलि-विजप की गाथा और तीन पगों की महिमा सव लोग जानते हैं। मैं भी तीन लात में इसका कूबर सीधा कर सकता हूं।
कुवहा-लगा दे भाई पौने फिर यह अचल मफूट बनना तो छूट जाय!
हिजडा-देखी जी, मैं नलकूबर की बू इसपर बैठी हैं।
बौना-झूठ! युद्ध के डर से पुरुष होकर भी यह स्त्री बन गया है।
हिजला- तो पहले ही कह चुकी कि मैं युद्ध करना नहीं जानती ।
बीना-तुम नलकूदर की स्त्री हो न, तो अपनी विजय का उपहार समझकर मैं तुमारा हरण कार लूँगा । (और लोगों की ओर देखकर उसका हाथ पकड़कर खींचता हुआ) ठीक होगा ना कदाचित यर धर्म के विरुद्ध न होगा।
(रामगुप्त ठठाकर हंसने लगता है।)
घुवस्वामिनी-(क्रोध से कडककर) निकालो! अभी निकली, यहाँ ऐसी निर्लज्जता का नाटक में नहीं देखना चाहती। (शिखर-स्वामी की और भी सक्रोध देखती है, शिखर के संकेत करने पर ये सब भाग जाते हैं।)
रामगुप्त-अरे, ओ दिग्विजयी सुन तो (उठकर ताली पीटता हुआ हैँसने सगता है। ध्रुवस्वामिनी क्षोभ और घृणा से मुंह फिरा लेती है।
शिखर-स्वामी के संकेत से दासी मदिरा का पात्र ले आती है, उसे देखकर प्रसन्नता से आंख फाहकर शिखर की ओर अपना हाथ वढा देता है) जमात्य आज ही महादेवी के पास में आया और आप भी पहुँच गये, यह एक विलक्षण घटना है। है न? ( पात्र लेकर पीता है।)
शिखर-स्वामी-देव. में इस समय एक आवश्यक कार्य से आया हूँ।
रामगुप्त-ओड, में तो भूल ही गया था! वह वर्धर शकराज क्या चाहता है? में आक्रमण न करूँ इतना ही तो? जाने दो, पुद्ध कोई अच्छी बात तो नहीं।
शिखर-स्वामी-वह और भी कुछ चाहता है।
रामगुप्त-क्या कुछ सहायता भी माँग रहा है?
शियर स्वामी-(सिर झुका कर गम्भीरता से) नही देव, बह पहुत ही असंगत और अशिष्ट याचना कर रहा है।
रामगुप्त-क्या? कुछ कहो भी।
शिखर-स्वामी-अमा गो महाराज! दूत तो अवध्य होता ही है, इसलिए उसका सन्देश सुनना ही पड़ा। वह कहता था कि शकराज से महादेवी भरुवा यामिनी का ( रुककर धुवस्वामिनी की जोर देखने लगता है। मुवस्यामिनी सिर हिलाकर कहने की आज्ञा देती है।) विधाह-सम्बन्ध स्थिर हो चुका या, बीद में ही आर्य समुद्रगुप्त की विजय यात्रा में महादेवी के पिताजी ने उपहार में उन्हें गुप्तकुल में भेज दिया, इसलिए महादेवी को बह....।
रामगुप्त-रे, क्या कहते हो अमात्य? क्या वह महादेवी को माँगता है ?
शिवर-स्वामी-हाँ देव! साथ ही वह अपने सामन्तों के लिए भी मगध के सामन्तों को स्त्रियों को मांगता है।
रामगुप्त-यास लेकर) ठीक ही है, जब उसके यहाँ सामन्त है, तब उन लोगों के लिए भी
स्त्रियाँ चाहिए । हाँ, क्या यह सच है कि महादेवी के पिता ने पहले शफराज से इनका सम्बन्ध स्थिर कर लिया था
शिखरस्वामी-यह तो मुझे नहीं मालूम? (ध्रुबस्थामिनी रोष से फुलती हुई टहलने लगती है।)
रामगुप्त-महादेवी, अमात्य क्या पूछ रहे हैं?
घुवस्वामिनी -इस प्रथम सम्भाषण के लिए में कृतज्ञ हुई महाराज! किन्तु चाहता हूँ कि गुप्त साम्राज्य क्या स्त्री-सम्प्रदान से ही बढ़ा है।
रामगुप्त-(झपकर हंसते हुआ) हे-हें-में, बताइए अमात्य जी!
शिखर-स्वामी-में क्या कहूँ? शत्रु-पक्ष का यही सन्धि-सन्देश है यदि स्वीकार न हो तो युद्ध कीजिए । किचिर दोनों ओर से घिर गया है। उसकी याते मानिए, या मरकर भी अपनी कुल मर्यादा की रक्षा कीजिए दूसरा कोई उपाय नहीं।
रामगुप्त-(चाँककर) वया प्राण देने के अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं? ॐ हूँ, तब तो महादयी से पूछिए।
ध्रुवस्वामिनी-(तीव्र स्वर से) और आप लोग, कुबडा, बौनों और नपुंसकों का नृत्य देखेंगे। मैं जानना चाहती हूँ कि किसने सुख-दुःख में मेरा साथ न छोड़ने की प्रतिज्ञा अग्नि-वेदी के सामने की है ?
रामगुप्त-(चारों और देखकर) किसने की है, कोई बोलता क्यों नहीं?
ध्रुवस्वामिनी - तो क्या में राजाधिराज रामगुप्त की महादेवी नहीं हैं?
रामगुप्त-क्यों नहीं? परन्तु रामगुप्त ने ऐसी कोई प्रतिक्षा न की होगी। मैं तो उस दिन ब्राक्षासव में दुबकी लगा रहा था । पुरोहितां न न जाने क्या क्या पढ़ा दिया होगा । उन सब बातों का खोया मेरे सिर पर (सिर हिलाकर) कदापि नहीं।
ध्रुवस्वामिनी-(निस्सहाय होकर दीनता से शिखरस्वामी के प्रति) वह तो हुई राजा की व्पवाया, अथ सु मंत्री महोदय क्या कहते हैं।
शिखर नव्यामी मैं कहूँगा देवि, अवसर देखकर राज्य की रक्षा करनेवाली उचित सम्मति दे देना ही तो कर्तव्य है राजनीति के सिद्धान्त में राष्ट्र की रक्षा सन उपायों से करने का आदेश है उसके लिए राजा, रानी कुमार और अमात्य सबका विसर्जन किया जा सकता है। किन्तु राज विसर्जन अन्तिम उपाय है।
रामगुप्त-(प्रसन्नता से) बाह! क्या कहा तुमने तभी तो लोग तुम्हे नीति-शास्त्र का बृहस्पति समझते हैं।
ध्रुवस्वामिनी -अमात्य, तुम बृहस्पति हो रहे शुक्र, किन्तु धूर्त होने से ही क्या मनुष्य भूल नहीं कर सकता? आर्य समुद्रगुप्त के पुत्र को पहचानने में तुमने भूल तो नहीं की सिंहासन पर ्रम से किसी दूसरे को तो नहीं बिठा दिया।
रामगुप्त-(आश्चर्य से) क्या?क्या?? क्या ???
ध्रुवस्वामिनी -कुछ नहीं, में केवल यही कहना चाहती हूं कि पुरुषों ने स्त्रियों को अपनी पशु सम्पत्ति समझकर उनपर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है, वह मेरे साथ नहीं चल सकता। यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा, नारी का गौरब, नहीं बचा सकते, तो मुझे बेच भी नहीं सकते हो। हा, तुम लोगों को आपत्ति से बचाने के लिए में स्वयं यहाँ से चली जाऊँगी।
शिखर-स्वामी-(मुंह बनाकर) उंह, राजनीति में ऐसी बातों को स्थान नहीं । जय तक नियमो के अनुकूल सन्धि का पूर्ण रूप से पालन नहीं किया जाए तब तक सन्धि का कोई अर्थ ही नहीं।
ध्रुवस्वामिनी -देखती हूँ कि इस राष्ट्र-रक्षा-या में रानी की बलि हगी ती ।
शिखर-स्वामी-दूसरा कोई उपाय नहीं।
ध्रुवस्वामिनी-(क्रोध से पैर पटककर) उपाय नहीं, तो न हो, निर्लज्ज अमात्य! फिर ऐसा प्रस्ताव में सुनना नहीं चाहती।
रामगुप्त-(चर्चाककर) इस छोटी-सी बात के लिए इतना यहा उपद्रव। (दासी की ओर देखकर) मेरा तो काट सूखने लगा।
(वह मदिरा देती है)
ध्रुवस्वामिनी-(दृढता से) अच्छा, तो अब में चागती हूँ कि अमात्य जपने मंत्रणा गृह में जाएँ। में केवल रानी ही नहीं, किन्तु स्त्री भी हैं, मुझे आपने की पति कहनेवाले पुष्प से कुछ कहना है, राजा से नहीं (शिखर स्वामी का वासियों के साथ प्रस्थान।)
रामगुप्त-ठहरो जी, मैं भी चलता हूँ (उठना चाहता है। प्रुवस्वामिनी उसका हाथ पकड़कर रोक लेती है।) तुम मुझसे क्या कहना चाहती हो?
ध्रुवसयामिनी-(ठहरकर) अकेले यहाँ भय लगता है क्या? बैठिए, सुनिए। मेरे पिता ने उपहार स्वरूप कन्या-दान किया था। किन्तु गुप्तसमाट् क्या अपनी पत्नी शत्रु को उपाहार में देंगे? (घुटने के बल बैठकर) देखिए, मेरी ओर देखिए। मेरा बीच क्या इतने का भी अधिकारी नहीं कि अपने को स्वामी समझनेवाला पुष्प उसके लिए प्राणा का प्रण लगा सके ।
रामगुप्त (उसे देखता हुआ) तुम सुन्दर हो, ओह, कितनी सुन्दर, किन्तु सोने की कटार पर मुग्ध होकर उसे कोई अपने हृदय में डुबा नहीं सकता। तुम्तारी सुन्दरता-तुम्हारा नारीत्व-अमूल्य हो सकता है। फिर भी अपने लिए में स्वयं कितना आवश्यक हूँ, कदाचित् तुम यह नहीं जानती हो ।
ध्रुवस्वामिनी-(उसके पैरों को पकड़कर) मैं गुप्त कुल की वधू होकर इस राज-परिवार में आयी हूँ इसी विश्वास पर...
रामगुप्त (उसे रोककर) बह सद में नहीं सुनना चाहता।
ध्रुवस्वामिनी-मेरी रक्षा करो । मेरे अपने गौरव की रक्षा करो । राजा, आज में शरण की प्रार्थना हूँ। मैं स्वीकार करता हूं कि आज तक में तुम्हारे बिलास की सहचरी नहीं हूँ। किन्तु वह मेरा अहंकार चूर्ण हो गया है। मैं तुम्हारी होकर रहूँगी। राज्य और सम्पत्ति रहने पर राजा को-पुरुष को बहुत-सी रानियां और स्त्रियों मिलती हैं; किन्तु व्यक्ति का मान नष्ट होने पर फिर नहीं मिलता ।
रामगुप्त-घबराकर उसका हाथ हटाता हुआ) आह, तुम्हारा वह घातक स्पर्श बहुत ही उत्तेजनापूर्ण है। में, नहीं। तुम, मेरी रानी? नहीं, नहीं । जाओ, तुमको जाना पड़ेगा । तुम उपहार की वस्तु हो । आज मैं तुम्हें किसी दूसरे को देना चाहता हूँ। इसमें तुम्हें क्यों आपत्ति हो?
ध्रुवस्वामिनी-(खड़ी होंकर रोप से) निर्लज्ज! मद्यप!! क्लीच!! ओह, तो मेरा कोई रक्षक नहीं (ठहरकर) नहीं, मैं अपनी रक्षा स्वयं करूंगी। मैं उपहार में देने की वस्तु, शीतल मणि नहीं हूँ। मुझमें रक्त की तरल लालिमा है । मेरा हृदय उष्ण है और उसमें आत्मसम्मान की ज्योति है। उसकी रक्षा में ही करूंगा (रसना से कृपाणी निकाल लेती है)।
रामगुप्त - (भयभीत होकर पीछे हटता हुआ) तो क्या तुम मेरी हत्या करोगी? ध्रुवस्वामिनी तुम्हारी हत्या? नहीं, तुम जिओ । भेड की तरह तुम्हारा क्षुद्र जीवन! उसे न तुंगी! मैं अपना ही जीवन समाप्त करूँगी।
रामगुप्त--किन्तु तुमार मर जाने पर उस पर शकरान के पास किसको भेना गावगा? मी, नहीं ऐसा न करो । गत्या | मत्या ।। । दीहो। (भागता हा निकाल जाता है। दूसरी ओर से वेग सहित योगुप्त का प्रवेश)
चन्द्रगुप्त- हत्या कैसी हत्या (ध्रुवस्वामिनी को देखकर) वह क्या? महादेवी ठहरिए।
ध्रुवस्वामिनी- कुमार, इसी समय तुम भी आना (सकरुण देती हुई) में प्रार्थना करती है कि तुम या से धले जाध (मुझे आपने अपमान में निर्यखननान देशाग का किसी पुरुष को धिकार नहीं मा मृत्यु को चादर से अपने को कि ने दो DB
चन्द्रगुप्त-किन्तु क्या कारणा सुनने का में अधिकारी नहीं हैं ?
ध्रुवस्वामिनी-सुनोगे ? (ठहरकर सोचती हुई) नी, सभी जात्गहत्या नहीं करूँगी । जब तुम आ गये हो तो गोड़ा ठहारगी । या तीखी पूरी इस अतात हदप में, विकासोन्मुख कुसुम में विपले कीट के इंक की तरह चुभा दूं या नहीं, इसपर विचार करेगी। यदि नहीं तो मेरी दुर्दशा का पुरस्कार क्या कुछ और है? हाँ जीवन के लिए कूलन, उपकृत और आभारी होकर किसी के अभिगानपुर्ण आत्म-विज्ञापन का भार दोती रहू-यही वया विधाता का निटूर विधान है? एटकारा नहीं ? जीवन नियति के कठिन आदेश पर चलेगा ही तो क्या यह मेरा जीवन भी अपना नहीं है?
चन्द्रगुप्त - देवी जीवन विश्व की सम्पत्ति है। प्रमाद से, क्षणिक आवेश से, या काख की कठिनाइयों से उसे नष्ट करना ठीक तो नहीं । गुप्त कुरण-लक्ष्मी आज यह छिग्रम्ता का अवतार किस लिए धारण करना चाहती है? सु भी?
ध्रुवस्वामिनी -नहीं, में न करूंगी। क्योंकि तुम आ गये हो मेरी शिविका के साथ चामर- मज्जित अध पर चढ़कर तुम्ही उस दिन आया थे? तुम्हारा विश्वासपूर्ण मुख्यमण्डल मेरे साथ आने में क्यों इतना प्रसन्न था?
चन्द्रगुप्त-मैं गुप्तबुल-वधू को आदरसहित ले आने के लिए गया था। फ़िर प्रसन्न क्यों न होता ध्रुवस्वामिनी-सा फिर आज मुझे शक शिविर में पहुंचाने के लिए उसी प्रकार तुमको मेरे साथ चालना होगा। (आँखों से आँसू पोछती है।)
चन्द्रगुप्त-आश्चर्य से) यह कैसा परिहास।
ध्रुवस्वामिनी -कुमार! यह परिहास नहीं, राजा की आज्ञा है। शकराज को मेरी अत्यन्त आवश्यकता है। यह अवरोध, बिना मेरा उपहार दिये नहीं हट सकता।
चन्द्रगुप्त-(आवेश से) या नहीं हो सकता महादवी! जिस मर्यादा के लिए- जिस महत्त्व का स्थिर रखने के लिए, मैंने राजदण्ड ग्रहण न करके अपना मिला हुआ अधिकार छोड़ दिया; उसका यह अपमान! मेरे जीवित रहते आ समुद्रगुप्त के स्वर्गीय गर्थ को इस तरह पद-दलित होना न पडेगा। (ठहरकर) और भी एक धात है। मेरे सयय के अनाकार में प्रथम किरण-सी आफर जिसने अन्नातभाव से अपना मधुर आलोक काल दिया था, उसको भी मैंने केवल इसीलिए भूलने का प्रयत्न किया कि- (सहसा चुप हो जाता है।)
ध्रुवस्वामिनी - बन्द किये हुए कुतूहन्न-भरी प्रसन्नता से) हाँ-हाँ, काहो-को
(शिखर स्वामी के साथ रामगुप्त का प्रवेश)
रामगुप्त-देखो तो कुमार यह भी कोई बात है? आत्महत्या फितना वडा अपराध है।
चन्द्रगुप्त-और आप से तो वह भी नहीं करते बनता।
रामगुप्त- (शिखर स्वामी से) देखो कुमार के मन में छिपा हुआ कलुष कितना.. कितना...भयानक है।
शिखर-स्वामी - कुमार, विनय गुप्त-कुल का सर्वोत्तम गृह-विधान है। उसे न भूलना चाहिए।)
चन्द्रगुप्त - (व्यंग्य से हंसकर) अमात्य नभी तो तुमने व्यवस्था दी है कि महादेवी को देकर भी सन्धि की जाए। क्यों पही तो बिनय की पराकाष्ठा है। ऐसा बिनय प्रवञ्चकों का आवरण है, जिसमें शील न हो और शील परस्पर सम्मान की घोषणा करता है। कापुरुष! आर्य समुद्रगुप्त का सम्मान.
शिवर-स्वामी-बीच में यात काटकर) उसके लिए मुझे प्राणदण्ड दिया जाए! मैं उसे अविद्यल भाव से ग्रहण करेगा, परन्तु और राष्ट्र की रक्षा होनी चाहिए।
मन्दाकिनी-(प्रवेश करके) राजा जपने राष्ट्र की रक्षा करने में असमर्थ है, तब भी उस राजा की रक्षा होनी ही चाहिए। अमात्य, यह कैसी विवशता है। तुम मृत्युदण्ड के लिए उत्सुक! महादेवी आत्महत्या करने के लिए प्रस्तुत। फिर यह हिचक क्या? एक वार अन्तिम वल से परीक्षा कर देखो। बचोगे तो राष्ट्र और मान भी बचेगा, नहीं तो सर्वनाश
चन्द्रगुप्त-आहा, मन्दा। भला तू कहाँ से वा उत्साहभरी बात कहने के लिए आ गयी? ठीक तो है अमात्य! सुनो, यह स्त्री क्या कह रही है।
रामगुप्त-(अपने हाथों को मसलते हुए) दुरभिसन्धि, धन, मेरे प्राण लेने का कौशल!
चन्द्रगुप्त-तव आओ, हम लोग स्त्री बन जाएँ और बैठकर रोएं।
हिजडा-(प्रवेश करके) कुमार, स्त्री बनना सहज नहीं है। कुछ दिनों तक मुझसे सीखना होगा (सबका मुंह देखता है और शिखर-स्वामी के मुँह पर हाथ फेरता है) उहूँ तुम नहीं दन सकते । तुम्हारे ऊपर या कटोर आवरण है । (कुमार के समीप जाकर) कुमार! मैं शपथ खाकर कह सकती हैं कि यदि मैं अपने हाथों गे सजा दें तो आपको देखकर महादेवी का भ्रम हो जाए।
(चन्द्रगुप्त उसका कान पकड़कर बाहर कर देता है)
ध्रुवस्वामिनी-उसे छोड़ दो कुमार! यहाँ पर एक यही नपुंसक तो नहीं है । वहुत-से लोगों में से किसको-किसको निकालोगे?
(चन्द्रगुप्त उसे छोड़कर चिन्तित-सा टहलने लगता है और शिखर-स्वामी रामगुप्त के कानों में कुछ कहता है)
चन्द्रगुप्त- सहसा खडे होकर) अमात्य, तो तुम्हारी ही बात रही। हा, उसभें तुम्हारे सहयोगी हिजड़े की भी सम्मति मुझे अच्छी लगी। म धुनस्वामिनी बनकर अन्य सामन्त कुमार के साथ शकराज के पास जाऊँगा। यदि मैं सफल हुआ तब तो कोई बात ही नहीं अन्यया मेरी मृत्यु के बाद तुम लोग जैसा उचित समझना, वैसा करना ।
ध्रुवस्वामिनी -(चन्द्रगुप्त को अपनी मुजाओं में पकाकर) नहीं, मैं तुमको न जाने दूगी मेरे कष्र, हर्षद नारी-जीवन का सम्मान बचाने के लिए इतने बड़े निदान की आवश्यकता नहीं ।
रामगुप्त-(आश्चर्य और कोच से) छोड़ो, छोड़ो, पर कैसा अनर्थ! सयके सामने यह कैसी निर्लज्जता।
ध्रुवस्वामिनी-(चन्द्रगुप्त को छोड़ती हुई जैसे चैतन्य होकर) यह पाप है? जो मेरे लिए अपनी बलि दे सकता हो, जो मेरे स्नेह (ठहरकर) अथवा इससे क्या शकराज क्या मुझे देवी बनाकर भक्ति-भाद से मेरी पूजा करेगा। चाह रे लज्जाशील पुरुष!
(शिखर - स्वामी फिर रामगुप्त के कान में कुछ कहता है। रामगुप्त स्वीकार सूबक सिर हिलाता है)
शिखर-स्वामी-राजाधिराज, आज्ञा दीजिए, यही एक उपाय है, जिसे कुमार बता रहे है किन्तु राजनीति की दृष्टि से महादेवी का भी वहाँ जाना आवश्यक है।
चन्द्रगुप्त-(क्रोध से) क्यों आवश्यक है। यदि उन्हें जाना ही पड़ा, तो फिर मेरे जाने से क्या लाभ तव मेंन जाऊँगा। रामगुप्त नहीं यह मेरी आज्ञा है। सामन्त-कुमारों के साथ जाने के लिए प्रस्तुत हो जाओ। ध्रुवस्वामिनी-तो कुमार। हम लोगों का चलना निश्चित ही है अब इसमें चिलम्ब की जावश्यकता नहीं ।
(चन्द्रगुप्त का प्रस्थान । ध्रुवस्वामिनी मंच पर बैठकर रोने लगती है।)
रामगुप्त-अब यह कैसा अभिनय! मुझे तो पहले से ही शंका थी और आज तो तुमने मेरी आँखें भी खोल दीं।
ध्रुवस्वामिनी - अनार्य । निष्ठुर! मुझे कलंक-कालिमा के कारागार में बंद कर, मर्म-वाक्य के धुएँ से उग पाटकर मार डालने की आशा न करो । आज मेरी असहायता मुझे अमृत पिलाकर मेरा निलज्ज जीवन बढ़ाने के लिए तत्पर है । उठकर, हाथ से निकल जाने का संकेत करते हुए) जागो, में एकान्त चारती है।
(शिखर स्वामी के साथ रामगुप्त का प्रस्थान)
धुवस्वामिनी-कितना अनुभूति पूर्ण था वह एक क्षण का आलिंगन। कितने सन्तोष से भरा या! नियति ना आतात्त भाव से मानो लू से तपी हुई बसधा को क्षितिज के निर्जन से सायंकालीन शीतल आकाश में मिला दिया हो।हरेकर) निस वायु-विहीन प्रदेश में उसकी हुई साँसों पर पन्धन हो अर्गला हो, वहाँ रहते-रहते यह जीवन असहय हो गया था। तो भी मरूगी नहीं। संसार के कुछ दिन विधाता के विधान में अपने लिए सुरक्षित करा लूंगी । कुमार' तुमने वही किया, जिसे में बचाती रही। तुम्हारे उपकार और रनेट की चर्चा में में भीगी जा रही हैं। ओह, (हदय पर उँगली रखकर) इस वक्षस्थता में यो हदय है क्या? जब जन्तरंग'हाँ' करना चाहता है, लव ऊपरी मन 'ना' क्यों कहना देता है?
चन्द्रगुप्त-(प्रवेश करके) महादेवी, हम लोग प्रस्तुत है, किन्तु भरवस्वामिनी के साथ शक शिविर में जाने के लिए जम साग सहमत नहीं।
ध्रुवस्वामिनी -(हँसकर) राजा की आना गान लेना ही पर्याप्त नहीं । रानी की भी एक बात न मानोगे मने तो पहले ही कुमार से प्रार्थना की थी कि मुझे जैसे ले आये हो, उसी तरह पहुँचा भी दी।
चन्द्रगुप्त नहीं -मैं अकेला ही जाऊंगा।
ध्रुवस्वामिनी-कुमार। यह मृत्यु और निर्वासन का सुप तुम अकेले ही लोग, ऐसा नहीं हो सकता । राजा की इच्छा क्या है, यह जानते हो? मुझसे और तुमसे एक साथ ही टकारा । तो फिर वही अगों न हो? हम दोनों ही चलेंगे। मृत्यु के गर में प्रवेश करने के समय में भी एक विनोद, प्रलय का परिहास, दख सकूँगी । मेरी सहचरी तुम्हारा घर ध्रुवस्वामिनी का वेश, धुबस्वामिनी ही न देख तो किस काम का?
(दोनों हाथों में चन्द्रगुप्त का चिबुक पकड़कर सकरुण देखती है।)
चन्द्रगुप्त-(अधखुली आँखों से देखता हुआ) तो फिर चलो।
(सामन्त कुमारों के आगे-आगे मन्दाकिनी का गम्भीर स्वर से गाते हुए प्रबेश)
पैरों के नीचे जलधर हों, बिजली से उनका खेल चले
संकीर्ण कगारों के नीचे, शत-शत झरने बेमेल चले
सन्नाटे में हो विकल पवन, पादप निज पद हों चूम रहे
तब भी गिरि-पथ का अथक पथिक, ऊपर ऊँचे सब झेल चलें
पृथ्वी की आँखों में बनकर छाया का पुतला बढ़ता हो
सूने तम में हो ज्योति बना, अपनी प्रतिमा को गढ़ता हो
पीड़ा की धूल उड़ाता-सा, बाधाओं को ठुकराता-सा
कष्टों पर कुछ मुसकाता-सा, ऊपर ऊँचे सब झेल चले
खिलते हों क्षत के फूल वहाँ बन व्यथा तमिस्रा के तारे
पद-पद पर तांडव नर्तन हो, स्वर सप्तक होवें लय सारे
भैरच रव से हो व्याप्त दिशा, हो काँप रही भय-चकित निशा
हो स्वेद धार बहती कपिशा, ऊपर ऊँचे सब झेल चले
विचलित हो अचल न मौन रहें निष्ठुर शृंगार उतरता हो
क्रंदन कंपन न पुकार बने, निज साहस पर निर्भरता हो
अपनी ज्वाला को आप पिये नव-नीलकंठ की छाप लिये
विश्राम शांति को शाप दिये, ऊपर ऊँचे सब झेल चले।
(चन्द्रगुप्त और मुवस्वामिनी के साथ सबका धीरे-धीरे प्रस्थान अकेली मन्दाकिनी खडी रह जाती है।)
पटाक्षेप