रंगमंच की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए चन्द्रगुप्त नाटक के गुण-दोषों का विवेचन कीजिए।
(अथवा)
अभिनेयता की दृष्टि से चंद्रगुप्त नाटक का विवेचन कीजिए।
नाटक दृश्य-काव्य अधिक तथा श्रव्य-काव्य कम। इसी कारण नाटक प्राचीनकाल से रंगमंच की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही लिखे जा रहे हैं। किसी नाटक की अच्छी प्रशंसा तभी की जा सकती जब हम उसका बार-बार अभिनय देखते है और उसका बार-बार पठन है। जोसेफ टी. शिपले ने भी लिखा है- "Probably for best " appreciation, a play should be seen, read, seen again and re- read".
चन्द्रगुप्त नाटक की अभिनेयता के सम्बन्ध में पहले-पहल श्रीकृष्णानंद गुप्त ने आरोप लगाये थे। सन् 1937 में वाजपेयी जी ने उनके आक्षेपो का खंडन कर दिया था। फिर भी यह विवाद चलता रहा कि 'चन्द्रगुप्त' नाटक अभिनयशील है या नही ? इस प्रश्न पर विचार करने के पहले हमें यह जान लेना आवश्यक है कि सफल अभिनेय नाटक की क्या विशेषतायें हैं ?
सफल अभिनेय नाटक की विशेषतायें : सफल अभिनेय नाटक की ये विशेषतायें होनी चाहिए (1) नाटक का आकार इतना हो जो तीन-चार घटों में अभिनीत हो सके। (2) दृश्यो और अको के विभाजन में संतुलन हो। (3) मार्मिक और भावपूर्ण स्थलों की योजना हो। (4) क्रिया-व्यापार का प्रवेग और प्रवाह हो। (5) अनुभाव तथा सात्विक भावों का निर्देशन हो। (6) सरल, संक्षिप्त तथा स्वाभाविक कथोपकथनों की योजना हो। (7) नृत्य और गीतों का सौंदर्य हो। (8) सुदर तथा आकर्षक दृश्यों की योजना हो। (9) वर्ज्य दृश्यों का अप्रदर्शन हो। (10) उदात्त भाव हो। (11) प्रभावान्वति हो। (12) सरल, रोचक और प्रभावपूर्ण भाषा हो।
इन लक्षणों के आधार पर अब हम 'चंद्रगुप्त' की आलोचना करेंगे।
(1) चन्द्रगुप्त नाटक का आकार बड़ा नहीं है। उसमे केवल चार अंक है। परन्तु लम्बे कथोपकथात, साहित्यिक भाषा आदि के कारण यह तीन-चार घंटों में अभिनीत नहीं हो सकता।
(2) इसमें दृश्यों की संख्या अधिक है। इन दृश्यो की योजना में संतुलन भी नहीं है। प्रथम तथा दूसरे अक में ग्यारह-ग्यारह, तीसरे में नौ चोथे में चौदह दृश्य हैं। इसमें अनेक अनावश्यक दृश्य हैं। इनको हटाने पर भी कथानक की तनिक मात्र भी क्षति नहीं पहुँचती।
कुछ ऐसे दृश्य है जिनका आगमन पर सफल अभिनय किया जा सकता।
जैसे (1) प्रथम अना का पहला दृश्य जो तक्षशिला के गुरुकुल का है।
(2) प्रथम अंक का दूसरा दृश्य जो सम्राट नंद के विहारोद्यान का है।
इसमें युद्ध, अभियान आदि के दृश्य है जो डॉ. नगेंद्र के अनुसार गड़बड़ करेंगे। ये आरोप तो वास्तविक लगते हैं। परन्तु यदि हमारा रंगमच भी पाश्चात्य रंगमंच की तरह समृद्ध होगा तो उपर्युक्त दृश्यों को भी आसानी से सफलता पूर्वक दिखा सकते हैं।
(3) प्रसाद जी अत्यन्त भावुक कवि थे। इसलिए 'चंद्रगुप्त में अनेक भावुक और मार्मिक स्थल मिलते हैं।
(4) चंद्रगुप्त नाटक में कुछ बाधक बातों को छोड़कर क्रिया-ब्यापार का वेग समान रूप से व्याप्त दिखाई पड़ता है।
(5) प्रसाद जी ने अनुभावों तथा सात्विक भावों का वर्णन किया है। यथा चाणक्या चुपचाप मुस्कराता है। (पृ. 49), आम्भीक तलवार खीचता है। (पु. 49), वेग से आम्भीक का प्रवेश (पृ. 75). वररुचि का छुरा उठाकर (पृ. 141) आदि।
(6) 'चंद्रगुप्त में प्रयुक्त कथोपकथन प्रायः संक्षिप्त, कथा-विकास में सहायक, चरित्र-चित्रण द्योतक और छोटे हैं। परन्तु कुछ स्थल ऐसे भी हैं, जहाँ मत-प्रतिपादन में या भावुकता से प्रेरित होकर प्रसाद जी ने लम्बे-लम्बे कथोपकथनों का प्रयोग किया है। यथा-युद्ध परिषद् का दृश्य, तृतीय अंक का छठा दृश्य। कथोपकथनों का विस्तार रंगमंच की दृष्टि से अनुपयुक्त है।
चन्द्रगुप्त में स्वगत कथनों की अधिकता है। इतना ही नहीं ये स्वगत भाषण भी लघु नहीं, बड़े दीर्घकाय हैं। कही-कही तो ऐसे स्थल बहुत खटकते हैं। छोटे-मोटे स्वागत भाषणों की तो भरमार है।
कथोपकथन सरल तथा संक्षिप्त होने चाहिए। किन्तु प्रसाद के कथोपकथन कवित्वमयी भाषा, भावुकता तथा दार्शनिकता से भरे हुये हैं। इससे नाटक को अभिनीत करना कठिन हो जाता है। इस दृष्टि से हमें 'चन्द्रगुप्त नाटक को दोषपूर्ण ही कहना पड़ता है।
(7) नृत्य और गीत अभिनय के प्राणतत्त्व है। नृत्यों और गीतों में दर्शकों के मन को आकृष्ट करने की बड़ी क्षमता होती है। इसकी योजना दर्शकों के मन को ऊबने नहीं देता है। इसी कारण, इसकी सफल योजना से कई दृष्टियों से दोषपूर्ण नाटक भी अभिनय की दृष्टि से सफल बन सकते है। अतः नाटको में इसकी योजना आवश्यक है। प्रसाद जी में इन दोनों की उचित स्थान दिया है।
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चन्द्रगुप्पा में तेरह गीत है। वे भावानुकूल तो हैं। किन्तु अभिनय * समय कुछ गीत अनावश्यक तथा उकतानेवाले हैं। चतुर्थ अक के चौथे धूप में ही मालविका तीन बार गाती है। इस कारण इस एक दृश्य के प्रदर्शन के लिए 20-25 मिनट लग जाते हैं। फिर पूरे नाटक के प्रदर्शन केलिए कितना समय लगेगा ? इस दृष्टि से भी नाटक दोषपूर्ण है। परंतु इतने मात्र से 'चन्द्रगुप्त' को रंगमच की दृष्टि से असफल नहीं माना जा सकता। कुछ अनावश्यक गानों को निकालकर और गान की दो-एक कड़ियों को सुनाकर इसे पूर्ण सफल बनाया जा सकता।
(8) घटना-क्रम समझाने केलिए सुदर तथा आकर्षक दृश्यों की योजना आवश्यक होती है। प्रसाद ने 'चंद्रगुप्त' नाटक में आकर्षणपूर्ण दृश्यो की योजना की है।
(9) 'चंद्रगुप्त' नाटक में कल्याणी. पर्वतेश्वर, नंद, आम्भीक आदि की मृत्यु रंगमंच पर दिखायी गयी है। मृत्यु को रंगमच पर दिखाना कठिन तो नहीं है, किन्तु कोमल तथा परिष्कृत मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मृत्यु की बात आसानी से सूचित की जा सकती है। इससे लोग मृत्यु के समाचार से परिचित हो जाते हैं। साथ ही उन पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता।
(10) 'चंद्रगुप्त' में उदात्त भावों का सुंदर प्रदर्शन है। इसके अतिरिक्त श्रृंगार और वीर रस पूर्ण सवाद मिलते हैं।
(11) 'चन्द्रगुप्त' में वस्तु के सुसंगठित विकास-कम के कारण विषय और व्यक्ति के प्रभाव का जो उत्कर्ष होता चलता है वह अन्त में जाकर ऐसा अन्वित हो जाता है कि सारा नाटक एक अखंडपूर्ण मालूम होने लगता है। यह रस-स्थिति अथवा प्रभावान्विति नाटक के प्राण-रूप में दिखायी पड़ती है। इसी प्रकार अभिनय में भी इसकी प्रधानता है। यह चंद्रगुप्त' की विशेषता है।
(12) कतिपय आलोचको का कथन है कि प्रसाद की भाषा कठिन और दार्शनिक है। अतएव जन साधारण के समझने योग्य नही। किंतु वास्तविक बात यह नहीं है। उनकी भाषा भावानुकूल है। कुछ लोग यह भी आरोप लगाते हैं कि भाषा पाजानुकूल नही है। विभिन्न भाषाओं का प्रयोग करने पर रस-प्राप्ति में अवरोध उत्पन्न होता है ।
इस तरह हम देखते हैं कि रंगमंच की दृष्टि से "चंद्रगुप्त' नाटक में कुछ दोष अवश्य हैं। किंतु जब नाटककार, नाट्य निर्देशक रंगमंच-प्रबंधक, सामाजिक (audience) सब मिलकर काम करेंगे तो इसे आसानी से अभिनीत किया जा सकता। कुछ परिवर्तनों से नाटक का सफल अभिनय हो सकता।
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