संस्कृत भाषा और साहित्य
किसी राष्ट्रीय या जाति का वास्तविक इतिहास उसका साहित्य ही होता है। साहित्य ही समाज की तत्कालीन धारणाओं, कार्या, भावनाओं और विश्वासों का स्वच्छ दर्पण होता है। इस दृष्टि से संस्कृत साहित्य भारत की अनुपम निधि है। प्राचीन भारत के सांस्कृतिक वैभव का जैसा सर्बाक्ग सुन्दर चित्र संस्कृत में उपलब्ध होता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। साहित्य का आधार एक भाषा होती है। संस्कृत भाषा भारत की अनुपम निधि है। यह सर्वाङ्ग सम्पन्न भाषा है विश्व की समृद्ध एवं अतिप्राचीन लैटिन और ग्रीक भाषाओं से भी संस्कृत भाषा अधिक ऊर्वर एवं सशक्त है। हम यहाँ संस्कृत भाषा और साहिप्य पर संक्षेप में विचार करेंगे।
संस्कृत भाषा इस शब्द से आर्यपरिवार भी हिंदु ईरानी शाखा के प्राचीन भारतीय स्वरूप का बोध होता है। संस्कृत शब्द का अर्थ है - परिष्कृत, परिमार्जित | एवं संवारी हुई भाषा। प्राकृत सामान्य जन भाषा के रूप में और संस्कृत शिष्ट जन- भाषाओं के रूप में पाँच हजार साल से अधिक समय से प्रचलित हैं। संस्कृत को देव भाषा भी कहा जाता है क्योंकि यह देवों के द्वारा भी बोली जाती रही है, ऐसा माना जाता है।
वेदों में प्रयुक्त भाषा वैदिक संस्कृत कही जाती है और वेदोत्तर कालीन साहित्य की भाषा लौकिक संस्कृत कही जाती है। वैदिक संस्कृत व्याकरण और उच्चारण आदि की दृष्टि से लौकिक संस्कृत से पर्याप्त भिन्न है । संस्कृत आकृति के आधार पर श्लिष्ट योगात्मक भाषा मानी गयी है। इसमें विभक्ति प्रत्यय, उपसर्ग एवं संयुक्त पदों की सामासिक व्यवस्था है। पाणिनी के व्याकरण "अष्टाध्यायी" के अनुसार वेदोत्तर साहित्य में इसी व्याकरण के अनुरूप भाषा को संस्कृत भाषा माना गया है। यदि कहीं वैदिक संस्कृत के शब्दों का प्रयोग हुआ हो तो उसे आर्प प्रयोग कहकर समझौता कर लिया जाता था। पद रचना की दृष्टि से संस्कृत एक जटिल भाषा का रूप भी धारण करती है। इसमें 8 विभक्तयाँ, 6 कारक 10 धातुगण, परस्मैपद आत्मनेपद (क्रियाएं) तीन वचन, तीन वाच्य, तीन लिंग आदि हैं। पाणिनि ने अपने व्याकरण ग्रन्थ 'अष्टाध्यायी' द्वारा जो संस्कृत का रूप निर्धारित किया वहीं आज तक प्रचलित है। समस्त भारतीय आर्य भाषाओं पर संस्कृत का व्यापक प्रभाव है। लगभग अस्सी प्रतिशत शब्द तत्सम या तद्भव रूप में गृहीत हैं। परिवार की भाषाओं में भी संस्कृत भाषा के तदभव शब्द गाम है। यह भाषा आज विश्व के प्रायः सभी विश्व विद्यालयों में एक ऐच्छिक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है। यह अत्यन्त वैज्ञानिक एवं व्यवहारक्षम भाषा है। इसमें उपसर्गों और प्रत्ययों की सहायता से नये शब्दों की सहज सरल रचना की जा सकती है।
"उपसर्गेण धात्वर्या बलादन्य प्रतीयते।
प्रहाराहारसंहार विहारः परिहार वत्"
अर्थात् उपसर्ग के योग से धातु (क्रिया) का अर्थ बलात् अन्य ही हो जाता है जैसे 'हार' शब्द 'प, आ, सम् वि, एवं, परि उपसर्गों के कारण प्रहार, आहार, संहार विहार एवं परिहार बन जाता है। एक ही क्रिया अनेक अर्थ प्रकट करने लगती है।
संस्कृत साहित्य
सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य (वाङ्मय) के सामान्यतया दो भेद किये जाते हैं. वैदिक और लौकिक।
वैदिक साहित्य के अन्तर्गत ये विषय हैं
वेद - ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक ग्रन्थ और उपनिषद् ग्रन्य।
ऋग्वेद 10 मंडलों में विभाजित है। इसमें कुल 1028 सूक्त हैं। सूक्तों में ऋचाएं हैं जो अनुष्टुप, गायत्री और वैदिक छन्दों में हैं। इसमें देवों की, प्रकृति की और शक्ति की उपासना है। यजुर्वेद के मन्त्रों का उपयोग यज्ञों में होता है। सामवेद में केवल 75 मन्त्र मौलिक है. शेष ऋग्वेद से उद्धृत हैं। यह संग्रह गान की दृष्टि से है। अर्थववेद में जादू, टोना, वशीभूत करना आदि विषय है।
उपनिषद् ग्रन्थ ईश्वर, प्रकृति और उनका पारंपारिक सम्बन्ध-विषयक हैं। कुल 108 उपनिषद हैं।
वेदाङ्ग छह हैं-शिक्षा, व्याकारण, छन्द, निस्वत, ज्योतिष और कल्प। वेदों के साथ इन वेदांगों के भी पठन-पाठन की परम्परा थी। वेद ईश्वर कृत (अपौरुषेय) हैं, ऐसी मान्यता है। ये अनादि अनन्त हैं।
लौकिक संस्कृत साहित्य
वैदिक साहित्य के बाद रचित लौकिक साहित्य के इतिहास का विशेष महत्व है। लौकिक संस्कृत साहित्य के आदि ग्रन्थ "महाभारत और रामायण" माने जाते हैं। ये दोनों महाकाव्यात्मक हैं। महाभारत भाषा शैली की दृष्टि से रामायण से अधिक प्राचीन है, यद्यपि रामायण का विषय रामचरित वेता युग का है और महाभारत का विषय द्वापर युग का है। महाभारत में 18 पर्व है और यह ई.पू. चौथी शती की रचना है परन्तु इसे और भी प्राचीन मानने वाले भी है । इसी गन्ध का एक अंग 'भगवद्गीता है जिसमें 18 अध्याय हैं।
रामायण' को आदि काव्य कहा गया है और ऋषि वाल्मीकि इसके रचयिता हैं। रामायण में सात कांड हैं प्रथम कांड बालकांड] और अन्तिम कांड [उत्तरकांड] बाद में जोड़े गये हैं, ऐसी अनेक पौबल्यि एवं पाश्चात्य समीक्षकों की मान्यता है। कुछ भी हो रामायण कथानक, भाषा और शैली के स्तर पर संस्कृत का उत्कृष्ट महाकाव्य है।
संस्कृत के ललित साहित्य को महाकाव्य, खंडकाव्य, नाट्टय साहित्य, गद्यकाव्य, चम्पू एवं कथा साहित्य आदि में वर्गीकृत किया जाता है।
प्रमुख महाकाव्य ये हैं -
कवि महाकाव्य
1. अश्व घोष बुद्ध चरित
2. कालिदास कुमारसंभवम्, रघुवंश
3.भारवि किरातार्जुनीयम्
4. माघ शिशुपालवधम
5. श्रीहर्ष नैषधीयचरितम्
प्रमुख खंडकाव्य
कवि खंडकाव्य
कालिदास मेघदूतम्
वेदान्त देशिक हंस संदेशम्
इनके अतिरिक्त खण्डकाव्य, श्रृंगारात्मक, अमरुक शतक भर्तृहरि शतकत्रय, योगिनी विलास, आर्या सप्तशती, एवं गीतगोविन्द आदि हैं।
आचार्य भरतमुनि ने ईस्वी 3वीं गती में जनता के उपयोगार्थ नाट्य शास्त्र की रचना की थी। भासकृत स्वाभचारावदत्ता, प्रतिज्ञा यौवन्धरायण चारुदत्त आदि 12 नाटक हैं। कालिदास कृत अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् एवं मालविकाग्निमित्रम् ये तीन प्रसिद्ध नाटक रचनायें है। शुद्रककृत मृच्छकटिक नाटक एक प्रख्यात नाटक है। श्रीहर्ष कृत नागानन्द नाटक भी प्रसिद्ध रचना है उत्तर राम चरित, मालतीमाधव, वेणीसंहार, मुद्राराक्षस एवं प्रबोध चन्द्रोदय आदि प्रख्यात रचनाएं हैं। इनमें कालिदास कृत शाकुन्तलम् विश्वविद्युत नाटक है। यह श्रृंगार रस प्रधान नाटक है।
गद्य में अत्यन्त प्रसिद्ध रचनाएं हैं। वासवदत्ता दशकुमार चरित, कादम्बरी और पंचतन्त्र । ये सभी औपन्यासिक एवं कथात्मक प्रख्यात कृतियाँ हैं। ये उपन्यास और कहानी कोटि की हैं।
चम्यूकाव्य - गध - पद्य मिश्रित रचना चम्पू कही जाती है। 10 वीं शती में त्रिविक्रमभट्ट ने नल चम्पु की रचना भी। यशन्तलक चम्पू, पुरूदेवचम्पू - ये जैन धर्म परक चम्पू काव्य हैं। कथा कहानी] ग्रन्थों में पंचतन्त्र अत्यन्त प्रसिद्ध और विश्वव्यापी कृति है। प्रायः विश्व की सभी भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है। कथासरित्सागर, हितोपदेश वृहत्कथा, वेतालपंचविंशतिका, सिंहासन द्वाविंशतिका और भोजप्रबन्ध अन्य कई संग्रह हैं।
इसके अतिरिक्त भूगोल, ज्योतिष, गणित, अर्थशास्त्र, खगोल, मन्त्र एवं तन्त्र शास्त्र तथा चिकित्सा शास्त्र पर संस्कृत भाषा में अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं।
यदि संस्कृत - साहित्य के अमृत ग्रन्थों का मंथन किया जाए तो महाकाव्य - रामायण, खण्ड काव्य मेघदुतम्, नाटक-अभिज्ञान शाकुन्तलम् श्री भगवद्गीता, एवं पंचतन्त्रम् का मूल रूप में या कम से कम अनुवाद रूप में अध्ययन करना भारतीय होने के लिए परमावश्यक है। इतने समृद्ध साहित्य परम्परा के हम उत्तराधिकारी होकर भी उससे अनभिज्ञ रहें तो यह दुर्भाग्यपुर्ण ही कहा जाएगा। यदि हमें संस्कृत भीतर-बाहर से परिमार्जित होना है तो संस्कृत भाषा और साहित्य से नाता जोड़ना ही होगा।
##################