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Sunday, February 14, 2021

भाषा और साहित्य -2

 

          

                                संस्कृत भाषा और साहित्य

          किसी राष्ट्रीय या जाति का वास्तविक इतिहास उसका साहित्य ही होता है। साहित्य ही समाज की तत्कालीन धारणाओं, कार्या, भावनाओं और विश्वासों का स्वच्छ दर्पण होता है। इस दृष्टि से संस्कृत साहित्य भारत की अनुपम निधि है। प्राचीन भारत के सांस्कृतिक वैभव का जैसा सर्बाक्ग सुन्दर चित्र संस्कृत में उपलब्ध होता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। साहित्य का आधार एक भाषा होती है। संस्कृत भाषा भारत की अनुपम निधि है। यह सर्वाङ्ग सम्पन्न भाषा है विश्व की समृद्ध एवं अतिप्राचीन लैटिन और ग्रीक भाषाओं से भी संस्कृत भाषा अधिक ऊर्वर एवं सशक्त है। हम यहाँ संस्कृत भाषा और साहिप्य पर संक्षेप में विचार करेंगे।

        संस्कृत भाषा इस शब्द से आर्यपरिवार भी हिंदु ईरानी शाखा के प्राचीन भारतीय स्वरूप का बोध होता है। संस्कृत शब्द का अर्थ है - परिष्कृत, परिमार्जित | एवं संवारी हुई भाषा। प्राकृत सामान्य जन भाषा के रूप में और संस्कृत शिष्ट जन- भाषाओं के रूप में पाँच हजार साल से अधिक समय से प्रचलित हैं। संस्कृत को देव भाषा भी कहा जाता है क्योंकि यह देवों के द्वारा भी बोली जाती रही है, ऐसा माना जाता है।

        वेदों में प्रयुक्त भाषा वैदिक संस्कृत कही जाती है और वेदोत्तर कालीन साहित्य की भाषा लौकिक संस्कृत कही जाती है। वैदिक संस्कृत व्याकरण और उच्चारण आदि की दृष्टि से लौकिक संस्कृत से पर्याप्त भिन्न है । संस्कृत आकृति के आधार पर श्लिष्ट योगात्मक भाषा मानी गयी है। इसमें विभक्ति प्रत्यय, उपसर्ग एवं संयुक्त पदों की सामासिक व्यवस्था है। पाणिनी के व्याकरण "अष्टाध्यायी" के अनुसार वेदोत्तर साहित्य में इसी व्याकरण के अनुरूप भाषा को संस्कृत भाषा माना गया है। यदि कहीं वैदिक संस्कृत के शब्दों का प्रयोग हुआ हो तो उसे आर्प प्रयोग कहकर समझौता कर लिया जाता था। पद रचना की दृष्टि से संस्कृत एक जटिल भाषा का रूप भी धारण करती है। इसमें 8 विभक्तयाँ, 6 कारक 10 धातुगण, परस्मैपद आत्मनेपद (क्रियाएं) तीन वचन, तीन वाच्य, तीन लिंग आदि हैं। पाणिनि ने अपने व्याकरण ग्रन्थ 'अष्टाध्यायी' द्वारा जो संस्कृत का रूप निर्धारित किया वहीं आज तक प्रचलित है। समस्त भारतीय आर्य भाषाओं पर संस्कृत का व्यापक प्रभाव है। लगभग अस्सी प्रतिशत शब्द तत्सम या तद्भव रूप में गृहीत हैं। परिवार की भाषाओं में भी संस्कृत भाषा के तदभव शब्द गाम है। यह भाषा आज विश्व के प्रायः सभी विश्व विद्यालयों में एक ऐच्छिक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है। यह अत्यन्त वैज्ञानिक एवं व्यवहारक्षम भाषा है। इसमें उपसर्गों और प्रत्ययों की सहायता से नये शब्दों की सहज सरल रचना की जा सकती है।

           "उपसर्गेण धात्वर्या बलादन्य प्रतीयते।

              प्रहाराहारसंहार विहारः परिहार वत्"

        अर्थात् उपसर्ग के योग से धातु (क्रिया) का अर्थ बलात् अन्य ही हो जाता है जैसे 'हार' शब्द 'प, आ, सम् वि, एवं, परि उपसर्गों के कारण प्रहार, आहार, संहार विहार एवं परिहार बन जाता है। एक ही क्रिया अनेक अर्थ प्रकट करने लगती है।

            Web camera

      संस्कृत साहित्य

     सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य (वाङ्मय) के सामान्यतया दो भेद किये जाते हैं. वैदिक और लौकिक।


वैदिक साहित्य के अन्तर्गत ये विषय हैं

        वेद - ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।

        ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक ग्रन्थ और उपनिषद् ग्रन्य।

         ऋग्वेद 10 मंडलों में विभाजित है। इसमें कुल 1028 सूक्त हैं। सूक्तों में ऋचाएं हैं जो अनुष्टुप, गायत्री और वैदिक छन्दों में हैं। इसमें देवों की, प्रकृति की और शक्ति की उपासना है। यजुर्वेद के मन्त्रों का उपयोग यज्ञों में होता है। सामवेद में केवल 75 मन्त्र मौलिक है. शेष ऋग्वेद से उद्धृत हैं। यह संग्रह गान की दृष्टि से है। अर्थववेद में जादू, टोना, वशीभूत करना आदि विषय है।

    उपनिषद् ग्रन्थ ईश्वर, प्रकृति और उनका पारंपारिक सम्बन्ध-विषयक हैं। कुल 108 उपनिषद हैं।

      वेदाङ्ग छह हैं-शिक्षा, व्याकारण, छन्द, निस्वत, ज्योतिष और कल्प। वेदों के साथ इन वेदांगों के भी पठन-पाठन की परम्परा थी। वेद ईश्वर कृत (अपौरुषेय) हैं, ऐसी मान्यता है। ये अनादि अनन्त हैं। 

      लौकिक संस्कृत साहित्य

      वैदिक साहित्य के बाद रचित लौकिक साहित्य के इतिहास का विशेष महत्व है। लौकिक संस्कृत साहित्य के आदि ग्रन्थ "महाभारत और रामायण" माने जाते हैं। ये दोनों महाकाव्यात्मक हैं। महाभारत भाषा शैली की दृष्टि से रामायण से अधिक प्राचीन है, यद्यपि रामायण का विषय रामचरित वेता युग का है और महाभारत का विषय द्वापर युग का है। महाभारत में 18 पर्व है और यह ई.पू. चौथी शती की रचना है परन्तु इसे और भी प्राचीन मानने वाले भी है । इसी गन्ध का एक अंग 'भगवद्गीता है जिसमें 18 अध्याय हैं।

      रामायण' को आदि काव्य कहा गया है और ऋषि वाल्मीकि इसके रचयिता हैं। रामायण में सात कांड हैं प्रथम कांड बालकांड] और अन्तिम कांड [उत्तरकांड] बाद में जोड़े गये हैं, ऐसी अनेक पौबल्यि एवं पाश्चात्य समीक्षकों की मान्यता है। कुछ भी हो रामायण कथानक, भाषा और शैली के स्तर पर संस्कृत का उत्कृष्ट महाकाव्य है।

      संस्कृत के ललित साहित्य को महाकाव्य, खंडकाव्य, नाट्टय साहित्य, गद्यकाव्य, चम्पू एवं कथा साहित्य आदि में वर्गीकृत किया जाता है।

     प्रमुख महाकाव्य ये हैं - 

        कवि                    महाकाव्य

    1. अश्व घोष         बुद्ध चरित

    2. कालिदास        कुमारसंभवम्, रघुवंश  

    3.भारवि              किरातार्जुनीयम्       

    4. माघ                शिशुपालवधम

    5. श्रीहर्ष             नैषधीयचरितम् 

                           प्रमुख खंडकाव्य

कवि                      खंडकाव्य

कालिदास                मेघदूतम् 

वेदान्त देशिक           हंस संदेशम् 

         इनके अतिरिक्त खण्डकाव्य, श्रृंगारात्मक, अमरुक शतक भर्तृहरि शतकत्रय, योगिनी विलास, आर्या सप्तशती, एवं गीतगोविन्द आदि हैं।

      आचार्य भरतमुनि ने ईस्वी 3वीं गती में जनता के उपयोगार्थ नाट्य शास्त्र की रचना की थी। भासकृत स्वाभचारावदत्ता, प्रतिज्ञा यौवन्धरायण चारुदत्त आदि 12 नाटक हैं। कालिदास कृत अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् एवं मालविकाग्निमित्रम् ये तीन प्रसिद्ध नाटक रचनायें है। शुद्रककृत मृच्छकटिक नाटक एक प्रख्यात नाटक है। श्रीहर्ष कृत नागानन्द नाटक भी प्रसिद्ध रचना है उत्तर राम चरित, मालतीमाधव, वेणीसंहार, मुद्राराक्षस एवं प्रबोध चन्द्रोदय आदि प्रख्यात रचनाएं हैं। इनमें कालिदास कृत शाकुन्तलम् विश्वविद्युत नाटक है। यह श्रृंगार रस प्रधान नाटक है।

        गद्य में अत्यन्त प्रसिद्ध रचनाएं हैं। वासवदत्ता दशकुमार चरित, कादम्बरी और पंचतन्त्र । ये सभी औपन्यासिक एवं कथात्मक प्रख्यात कृतियाँ हैं। ये उपन्यास और कहानी कोटि की हैं।

      चम्यूकाव्य - गध - पद्य मिश्रित रचना चम्पू कही जाती है। 10 वीं शती में त्रिविक्रमभट्ट ने नल चम्पु की रचना भी। यशन्तलक चम्पू, पुरूदेवचम्पू - ये जैन धर्म परक चम्पू काव्य हैं। कथा कहानी] ग्रन्थों में पंचतन्त्र अत्यन्त प्रसिद्ध और विश्वव्यापी कृति है। प्रायः विश्व की सभी भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है। कथासरित्सागर, हितोपदेश वृहत्कथा, वेतालपंचविंशतिका, सिंहासन द्वाविंशतिका और भोजप्रबन्ध अन्य कई संग्रह हैं।

       इसके अतिरिक्त भूगोल, ज्योतिष, गणित, अर्थशास्त्र, खगोल, मन्त्र एवं तन्त्र शास्त्र तथा चिकित्सा शास्त्र पर संस्कृत भाषा में अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं।

       यदि संस्कृत - साहित्य के अमृत ग्रन्थों का मंथन किया जाए तो महाकाव्य - रामायण, खण्ड काव्य मेघदुतम्, नाटक-अभिज्ञान शाकुन्तलम् श्री भगवद्गीता, एवं पंचतन्त्रम् का मूल रूप में या कम से कम अनुवाद रूप में अध्ययन करना भारतीय होने के लिए परमावश्यक है। इतने समृद्ध साहित्य परम्परा के हम उत्तराधिकारी होकर भी उससे अनभिज्ञ रहें तो यह दुर्भाग्यपुर्ण ही कहा जाएगा। यदि हमें संस्कृत भीतर-बाहर से परिमार्जित होना है तो संस्कृत भाषा और साहित्य से नाता जोड़ना ही होगा।

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भाषा और साहित्य - 1

 

                                           हिन्दी भाषा और साहित्य

          भारत में महान हिन्दू साम्राज्य स्थापकों और चक्रवर्तियों का युग नवम शताब्दि के उत्तराल के बाद प्रायः क्षीणोन्मूख हो गया था, इन्हीं दिनों पहली बार सिंध प्रांत में इसलागी शासकों का आक्रमण हुआ था। संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के समान्तर प्रचलन के युग की समाप्ति के साथ अपभश का युग प्रारंभ हो गया था। अपभ्रंश के कलेवर से विकासोन्मुख बोलियों के साथ ही हम हिन्दी साहित्य के इतिहास का क्रम मान सकते हैं। राहुल सांकृत्यायन ने अपने "हिन्दी प्राचीन पद्य" शीर्षक संकलन में उत्तरकालीन अपभंश के स्वरूपों को हिन्दी के अंतर्गत माना है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदीजी ने भी अपनी "हिन्दी साहित्य का आदिकाल" शीर्षक कृति में सिद्धों और नाथों के साहित्य के साथ हिन्दी साहित्य का इतिहास प्रस्तुत करते हुए इसी तरह साहित्य को हिन्दी के विकासोन्मुख दशाओं की ओर अग्रसर होने से पहले अपभ्रंशात्मक अंशों से लक्षित रूप में पहचाना है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित बहुखण्ड हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रथम खण्ड में राजाबली पाण्डेजी ने भी सिद्धों के साहित्य के साथ हिन्दी साहित्य का प्रारंभ माना है। इस तरह हम हिन्दी साहित्य के आदि काल को 1.000 ईस्वी से मान सकते हैं।

         हिन्दी साहित्य के आदि काल में हम तीन प्रकार की प्रवृत्तियों को पहचानते हैं। अपभ्रंशात्मक हिन्दी स्वरूपों में लक्षित नाथ पंथी व सिद्धों का साहित्य, डिंगल में प्रस्तुत वीरगाथा साहित्य और मैथिली में प्रस्तुत श्रृंगार व भक्ति साहित्य। सिद्धों के साहित्य में विभिन्न प्रकार के तांत्रिक प्रयोगों का उल्लेख है तथा प्रतिक्रियावादिता का लक्षण भी है। नाथों के साहित्य में हठयोगी पद्धतियों द्वारा सृष्टि की संरचना को समझने का प्रयास है। वीरगाथा साहित्य में हम श्रृंगार और वीर रस दोनों का मिश्रित प्रस्तुतीकरण देखते हैं। इस काल के कवियों में चंदबरदाई प्रधान है जिन्होंने पृथ्वीराज रासो नामक हिन्दी के प्रथम महाकाव्य समझे जानेवाली कृति को प्रस्तुत किया। इसलाम के प्रभाव को पचाकर अपने स्वरूप को इनकी शैली ने संपादित किया था। इसी कारण इन्होंने लिखा था "घटभाषा पुराणंच कुराणंच कथितं मया"। कहा जाता है कि पृथ्वीराज अर्थात् आश्रयदाता और चंदबरताई का जन्म एक ही दिन हुआ, जीवनभर दोनों का साहचर्य रहा और मृत्यु भी एक ही दिन हुई। पृथ्वीराज और मुहम्मद गोरी के युद्ध तथा पृथ्वीराज का संयुक्ता के साथ विवाह इत्यादि बातें इस महाकाव्य में वर्णित है। 

      बीसलदेव रासो, परमाल रासो आस्ताखण्ड आदि अन्य वीररसात्मक रचनाएं हैं, जिनके खण्डित स्वरूप होते हैं ।

       विद्यापति ने मैथिली भाषा में अपनी पदावली प्रस्तुत की जिसमें राधाकृष्ण के युगल स्वरूप का वर्णन है सजा श्रृंगार की विभिन्न सूक्ष्म स्थितियों का परिचय है। वीरगाथा काल के पश्चात् हिन्दी साहित्य का मध्य काल आता है। जिसे हम मुकिधा की दृष्टि से दो भागों में विभाजित कर सकते हैं। पूर्वमध्यकाल अथवा भक्ति काल उत्तर मध्यकाल अथवा रीतिकाल।

       भक्तिकाल में प्रवृत्तियां काफी समृद्ध हो गयी थी। सामाजिक धरातल पर हिन्दू धर्म और इसलाम सहअस्तित्व को स्वीकार कर चुके थे। परस्पर वैविध्य तथा समानता दोनों को प्रतिपादित करने की प्रवृत्ति बढ़ गयी थी। इन सबके कारण चार प्रकार के साहित्य हिन्दी में इस काल की देन बनकर हमारे सामने आते हैं। ये हैं सगुणोपासना के अंतर्गत श्री रामचंद्र तथा भगवान कृष्ण पर आधारित साहित्य तथा निर्गुणोपासना पर आधारित ज्ञानाश्रयी एवं प्रेमाश्रयी साहित्य।

       तुलसीदास रामचंद्रजी के परम भक्त थे और इनकी रामायण रामचरित मानस, रामभक्ति साहित्य की आधारशिला है। अवधि भाषा में दोहा-चौपाई शैली में रचित इस कृति में हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम की अवतार की पूरी कल्पना का प्रसार देखते हैं। तुलसीदास प्राचीन हिन्दी की दो बोलियां व्रजभाषा और अवधि में रचनाएं करते थे। विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली, दोहावली आदि आपकी अन्य रचनाएं हैं। केशवदास द्वारा रचित रामचंद्रिका भी रामभक्ति शाखा के अंतर्गत म. जाती हैं, यद्यपि प्रवृत्ति से आप उत्तरमध्य काल के ये

        कृष्ण भक्ति शाखा के प्रधान कवि सूरदास हैं, जिन्होंने सवा लाख पदों के सूरसागर की रचना की। इनके अलावा नंददास आदि अष्टछाप के कवि, मीराबाई, रसखान आदि के नाम भी परिगणणीय है। ये कवि व्रज भाषा का ही प्रयोग किया करते थे। इनमें श्रीकृष्ण के अवतार का पुष्टीमार्गीय स्वीकृति का भाव प्रधान या । रसखान के बारे में तो भारतेंदु ने कहा था, "इन मुसलमान कवियन पे कोटि हिन्दी कवि को वारूँ"।

       ज्ञानाश्रयी शाखा, कालक्रम से समान्तर होते हुए भी धोडे पूर्व की है। इसके प्रधान कवि कबीरदास हैं, जिनकी प्रतिभा समग्र भारतीय की संचित निधि के समान 

थी। अनुभव की पाठशाला के अनमोल मोतियों को पिरोकर आपने निर्गुण परमात्मा के महिमा का गुणगान किया है। साखी, सबद, और रमैनी इनकी रचनाओं संकलन है जिनमें हम दोहों और पदों को देखते हैं । कबीरदास के पश्चात् रेदास दादुदयाल, गुरुनानक, मलुकदास आदि कवियों को ले सकते हैं जो ज्ञान के तराजू पर काफी भारी तुलते थे। मलूकदास तो एक जीवन सिद्धांत के प्रतिपादक थे और आलसी लोग इनको अपना गुरू इसलिए मानते थे कि व्यस्तता उन दिनों बस अशांति का पर्याय ही बना हुआ था। जब हम पढते हैं

     "अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम 

       दास मलूका कह गये, सबका दाता राम"

      तो सृष्टि का वह रहस्य ध्यान में आता है जिसमें संघर्य की व्यर्थता हमारे पहचान में आ जाती हैं।

      प्रेमाषयी शाखा के कवि सूफी संप्रदाय का अनुकरण करते हुए इस्लाम का प्रचार करना चाहते थे। मनसूर के अनहलह से निकलकर ये धारा हर व्यक्ति को प्रेम के माध्यम से ईश्वरीयता को पहचानने का अधिकार देती है। जायसी ने अवधि भाषा में दोहा चौपाई शैली में 'पद्मावत' शीर्षक महाकाव्य की रचना की जिसका पूर्वार्द्ध काल्पनिक तथा उत्तरार्ध ऐतिहासिक था। "तन चितउर मन राजा कीन्हा, हिय सिंहल बुधि पदिमनी चीन्हा" कहकर अपने काव्य के प्रतीकात्मिकता को भी आपने लक्षित कर दिया है। कुतबन की मृगावती, मंझन की मधुमालती, उसमान की चित्रावली आदि अन्य कुछ प्रेमाश्रयी शाखा की रचनाएं हैं।

     उत्तरमध्यकाल को रीतिकाल भी कहते हैं। काव्य लक्षणों के बारे में पहचानने की एक प्रवृत्ति इस काल में प्रबल हुई थी। फिर भी रीतिकाल में हम तीन प्रकार के साहित्य देखते हैं। ये हैं रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त।

      रीतिबद्ध साहित्य के अंतर्गत हम केशवदास, मतिराम, चिंतामणि, भिखारीदास जैसे साहित्यकारों को पहचानते हैं। इन्होंने रस, छंद, अलंकार इत्यादि का सोदाहरण परिचय अपनी कृतियों में दिया हैं। इनमें से भूषण रीतिबद्ध होते हुए वीररसात्मक उद्गारों के कारण काफी विशिष्ट भी हुए हैं।

      रीतिसिद्ध साहित्यकारों में हम महाकवि देव, बिहारी जैसे कवियों को पहचानते हैं। विहारीलाल तो तुलसीदास के समान हिन्दी साहित्य के महाकवि माने जाते हैं।और तभी तो उनके शब्द शक्ति की गुरुगरिमा का परिचय इन पंक्तियों में हमें मिलता है।

       "विहारी के दोहरे जो नावक के तीर, 

         देखन को छाटे लगे घाव करे गंभीर"

      रीतिमुक्त साहित्यकारों में हम घनानंद का नाम ले सकते हैं जिन्होंने अपनी उन्मुक्त भावोर्मियों को प्रकट करने के लिए कहा था, कि लोग कविताएं बनाते हैं पर मुझे मेरी कविता बताती हैं।

      रीतिकाल के पश्चात् हम कालक्रम से आधुनिक काल में पदार्पण करते हैं। लगभग 1875 ईसवी से आज तक की अवधि को हम आधुनिक काल के अंतर्गत मान सकते हैं। पहला युग भारतेंदु हरिचंद्र का युग था। भारतेंदु ने अपने जीवन के पैतीस साल मात्र की आयु में अनगिनत रचनाएं प्रस्तुत कर एक युग के कर्ता धर्ता बन गये। खड़ी बोली गद्य का प्रारंभ इन्हीं के साथ माना जा सकता है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदीजी 'सरस्वती' के संपादक के रूप में साहित्यकारों को संकेतित करते हुए उन्हें सुनियोजित मार्ग दिखानेवाले रहबर बने । प्रारंभिक पद्म साहित्य खड़ी बोली में इतिवृत्तात्मक' कहा गया जिसमें तीन कवि प्रधान है - श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी और अयोध्यासिंह उपाध्याय । अयोध्यासिंह उपाध्याय को हम खड़ी बोली के प्रथम महाकाव्य 'प्रिय प्रवास के रचयिता के रूप में जानते हैं। रामनरेश त्रिपाठी एक सशक्त प्रतिभा के धनी थे जिनके 'कवि कौमूदी' के चार संकलन हमें हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन कराती हैं। श्रीधर पाठक की मिलन, पथिक आदि रचनाएं अभूतपूर्व प्रतिभा के परिचायक हैं।

       हिन्दी में कहानी साहित्य इंशा अल्ला खान की 'रानो केतकी की कहानी के साथ शुरू होता है। लाला श्रीनिवास द्वारा रचित परीक्षा गुरु हिन्दी का प्रथम उपन्यास है। भारतद् हरिचंद्र, राजाशिवप्रसाद, सितारे हिंद आदि को हम हिन्दी खडी बोली के प्रथम नाटककार के रूप में मान सकते हैं। उपन्यासों का विकास जब हुआ तब हमारे सामने पहले प्रेमचंद आये जिनको लेखनी ने ऐसी तस्वीरें बनायी और ऐसी कलेवर रचित किया कि प्रेमचंद उपन्यास के बेताज के बादशाह बने । 'निर्मला से लेकर 'गोदान' के सोपान उपन्यास की महीमा का अक्षुण्ण गुणगान है। 

        प्रसाद काव्य रचयिता के रूप में आये तो छायावाद-रहस्यवाद युग के अग्रणी बने। इनकी रचना कामायणी सर्वथा मौलिक प्रतिकात्मक महाकाव्य है और अगर इसके समर्थन में सशक्त पृष्ठभूमि तथा प्रथा प्रवर्तन में गंभीर प्रेरकत्व रहता तो रवींद्रनाथ ठाकुर के बाद इनहें नोबल पुरस्कार मिलता। कानन कुसुम, प्रेम पथिक आँसू, महर, झरना आदि इनकी अन्य रचनाएं हैं प्रसाद के साथ-साथ पंथ, निराला और महादेवी भी छायावादी मुक्तकों के क्षेत्र में अग्रणी रहे। इनकी रचनाएं काफी चर्चित रही और समृद्धि के धरातल पर शिरोधार्य भी रही। हरिवंशराय बच्चन हालाबाद नामक एक ऐसे प्रवृत्ति को सर्जित किया था जिसमें अनुभूति थी, "बीती हुई बातों पर अब रोने में क्या फल, मेरे मन अब हंसते हुए चल"। इनकी रचनाओं के शीर्षकों को पढ़ते भी एक मादकता अनायास आ जाती है। मधुबाला, मधुशाला, निशा निमंत्रण, मिलन यामिनी आदि कुछ शीर्षक हैं।

        उपन्यासों के क्षेत्र में प्रसाद, निराला आदि के नाम भी आते हैं, मगर जबरदस्त शख्सियत के साथ आनेवाले उपन्यासकारों में यशपाल, जैनेंद्र, अज्ञेय और रांगेय राघव का नाम गिन सकते हैं। ये रचनाकार कुछ ऐसे हस्ती के थे कि जिनकी चर्चा युगीन प्रवृत्तियों के साथ भी की जा सकती हैं और युगान्तरकारिता के साथ भी। भगवतीचरण वर्मा, उपेंद्रनाथ अश्क आदि रचनाकार भी नाटक, काव्य और उपन्यास सबमें बराबर प्रवृत्त रहे।

        प्रयोगवादी एवं प्रगतिवादी काव्यधारा में दिनकर, नवीन, अज्ञेय, भवानी प्रसाद आदि नाम गिने जाते हैं। ये कवि कभी प्रगति पर और कभी प्रयोगात्मक प्रवृत्तियों पर कविताएं लिखा करते थे। टी.एस. इलियट, एजरा पाउण्ड, एनटोल फ्रांस हक्स्ली जैसे कवियों और चितकों का प्रभाव प्रारंभ से ही हिन्दी साहित्य पर लक्षित हुआ था और इसको दिखानेवाले अन्यान्य साहित्यकारों से हिन्दी साहित्य भरा पड़ा है।


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