Wednesday, February 5, 2020

"ध्रुवस्वामिनी" नाटक का सारांश: / visharadh uttarardh


                                                           "ध्रुवस्वामिनी" नाटक का सारांश:



        "ध्रुवस्वामिनी" नाटक का प्रारंभ पर्वतीय प्रदेश में होता है। ध्रुवस्वामिनी का विवाह रामगुप्त से हो चुका है। किन्तु अभी उन दोनों की मिलन नहीं हुआ है। सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने ज्येष्ठपुत्र रामगुप्त को अयोग्य पाकर अपने छोटे पुत्र चन्द्रगुप्त को उत्तराधिकारी निर्वाचित किया। अपने पिता का निधन होने पर चन्द्रगुप्त अपना
सपूर्ण अधिकार रामगुप्त को सौंप देता है। रामगुप्त ध्रुवस्वामिनी से, जिसका विवाह समुद्रगुप्त ने चन्द्रगुप्त के साथ करना निश्चय कर दिया था, अपना विवाह कर लेता है।

      प्रथम दृश्य ध्रुवस्वामिनी और सेविका खड्गधारिणी से आगे बढती जा रही है। ध्रुवस्वामिनी के मन में चन्द्रगुप्त के लिए कोमल भावनाएँ हैं। यह भी पता चलता है कि अभी तक रामगुप्त और ध्रुवस्वामिनी का परस्पर वार्तालाप भी नहीं हुआ है। रामगुप्त दिन- रात मदिरा पीकर विलासिनियों के बीच पडा रहता है। खड्गधारिणी
के संवाद द्वारा यह भी ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने अपने पिता का दिया हुआ कार्य और अधिकार अपनी इच्छा से त्याग दिया है।



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     इसी बीच एक प्रतिहारी युदध-सम्बन्धी एक आवश्यक सम्वाद देने के लिए महाराज को ढूँढता हुआ वहाँ आता है। प्रतिहारी कहता है कि शकों ने किसी पहाडी मार्ग से उतरकर नीचे का पहाडी रास्ता रोक दिया है। हमारे शिविर का सम्बन्ध राजमार्ग से टूट गया है ओर हम दोनों और से छिर गये हैं। रामगुप्त प्रतिहारी को मूर्ख बनाकर अपनी मूर्खता का परिचय देता है। वह ध्रुवस्वामिनी और चन्द्रगुप्त के सम्बन्ध पर अपना सारा धब्या केंद्रित किये रहता है। इसी बीच शिखर स्वामी आकर शकराज के पत्र को महाराज को दे देता है। रामगुप्त पत्र पढकर चौंक जाता है।

     दर्शकों के सामने मंदाकिनी आती है। वह चन्द्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी की शुभचिंतक रखनेवाली है। वह वेदना को सहकर, लोक कल्याण की ओर अग्रसर होने का निश्चय करती है। इसी बीच कुबडा बौना और हिजडा आ जाते हैं। ये तीनों रानी का मनोरंजन करने के लिए भेजे गये हैं। रामगुप्त मदिरा पीने लगता है। ध्रुवस्वामिनी को पता चलता है कि शकराज उसे भेंट के रूप में चाहता है और अपने सामन्तों के लिए रामगुप्त के सामन्तों की
स्त्रियों को मांगता है। ध्रुवस्वामिनी व्यंग्य करती हुई कहती है कि क्या आपका गुप्त साम्राज्य अपनी स्त्रियों को दूसरे को दे-देकर ही बढा है? शिखरस्वामी परिस्थिति की भयंकरता बताता है और कहता है कि शकराज की श्त माननी चाहिए अथवा अपनी कल-मर्यादा के लिए लड मरना चाहिए। अन्य उपाय नही है। राज्य की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। राज्य की रक्षा के लिए राजा, रानी, कुमार और अमात्य सबका विसर्जन अवश्य है।
राज्य - विसर्जन अन्तिम उपाय है। यह आदेश भी है।

     ध्रुवस्वामिनी उसे निर्लज्ज और कायर कहकर अपनी  रक्षा स्वंय करने का निर्णय करती है। वह कृपाण निकाल लेती है।  रामगुप्त डर जाता है। दूसरी ओर से चन्द्रगुप्त आकर ध्रुवस्वामिनी को रोकता है। इसी बीच मन्दाकिनी आकर कहती है कि एक बार अंतिम शक्ति लगाकर युद्ध कीजिए। यदि बच जाएँगे तो राष्ट्र और सम्मान बच जाएगा, वरना सब का नाश निश्चित है। इसी बीच हिजड़ा एक नवीन युक्ति निकलकर आति है। चन्द्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी बनकर और अन्य सामन्तों को उनकी स्त्रियों का वेश धारण कर शकराज के पास जाने का प्रसताव रखता है। बात निश्चित हो जाती है और सब लोग चले जाते है। एकांकी में ध्रुवस्वामिनी चन्द्रगुप्त
सम्बन्धी अनुभव के चितन में डूब जाती है। मन्दाकिनी वीर- रस भरा गीत गाती है।

     प्रस्ताब - स्वीकृति पर शकराज को हर्ष :
         दूसरा अंक शकराज के दुर्ग का दृश्य उपस्थित करता है। शकराज हाथ में तलवार लिये चिन्तित भाव से टहलता है। वह रामगुप्त के महल से खिंगल दूत के अभी तक न लौटने पर चिन्तित होता है। दिपा नुप्त कुल पर ही तो नही,शकों को भी रक्त की नदी बहाने के लिए जान की बाजी लगानी पडेगी शकराज का चित्त चंचल हो उठता
है। तभी कोमा उठ खडी होती है। शकराज अपनी भीषण परिस्थितियों की बात कहता है। कोमा स्वयं भी उसमें भाग लेना चाहती है। खेल के प्रवेश से शकराज चंचल हो उतना खिंगल बताता है कि रामगुप्त समुद्रगुप्त की भांति वीर नही उसके समझाने पर वह शकों के सन्धि प्रस्ताव के सभी नियमों स्वीकार करने पर बाध्य हुआ है। शकराज तो दूसरे प्रस्ताव मानने न माननेवाली बात सुनने के लिए अधिक उत्सुक है। इसी समय कोमा मदिरा का स्वर्ण कलश लेकर चुपके से आकर पीछे खडी हो जाती है। खिगल शकराज को बताता है कि रामगुप्त ने
सभी प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया है तथा ध्रुवस्वामिनी शीघ्र ही शकराज की सेवा में प्रस्तुत होगी। यह सुनकर कोमा चौंक उठती है। शकराज प्रसन्न हो उठता है और खेल के हाथों को झकझोरने लगता है। वह खेल से सामन्त-कुमारों के लिए स्त्री भेजने के प्रस्ताव के बारे में पूछता है। खेल उनके भी आने की बात बताता है।

      शकराज की भावी पत्नी (कोमा) खिन्न : 
          खिंगल प्रवेश करके दुर्गतोरण में शिविकाओं के आगमन की सूचना देना है। शकराज तुरन्त ही उन्हे उपस्थित करने का आदेश देता है। खिगल शकराज को ध्रुवस्वामिनी के प्रस्ताव से अवगत कराता है। ध्रुवस्वामिनी ने शकराज से एकान्त में और सीधे भेंट करने की बात कही है जिससे उसकी मर्यादा की रक्षा हो सके। फिर खिगल
के प्रस्थान के बाद कोमा शकराज से अपने बारे में प्रश्न पूछती है। शकराज चौंक उठता है। कोमा तब ध्रुवस्वामिनी को उसके पात से अलग करके गर्व करना अर्थ बताती है। कोमा पूछती है कि एक नारी को कुचले बिना प्रतिशोध संभव नही ओर से आचार्य मिहिरदेव प्रवेश करते हैं मिहिरदेव भीरतापूर्वक कहते है कि यह तो आपत्ति का कार्य है। किसी सम्मान नष्ट करने का परिणाम कदापि अच्छा नही होता। साथ ही यह कार्य उसकी भावी पत्नी के प्रति अत्याचार है। कराज राजनीतिक कामों में हस्तक्षेप न करने की बात कहते हैं। मिहिरदेव कहते है कि राजनीति ही सब कुछ नही है। उसके पीछे नीति को नही छोड देना चाहिए। मिहिरदेव नि:श्वास लेकर आकाश की ओर देखते हुए कोमा से कहते हैं कि यहाँ तेरी भलाई नही है। इसलिए चल हम लोग प्रकृति से सुख प्राप्तकरेंगे। मिहिरदेव आकाश में लाल रंग के धूमकेतु को दिखलाते हुए उसकी भयानकता बताते हैं।

      शकराज का अतं :
         शकराज धूमकेतु को देखकर भयभीत हो उठता है। आचार्य से इस अमंगल की शान्ति कराने के लिए वह कोमा से प्रार्थना करता है। इसी समय प्रहरी प्रवेश करके ध्रुवस्वामिनी के आगमन की सूचना देता है। शकराज उस समय किसी अन्य को न आने का आदेश देता है । धूमकेतु से चचल। एक ओर कोमा दूसरी ओर ध्रुवस्वामिनी। शकराज के मन में अन्तर्द्वद्ध उत्पन्न होता है। इसी समय स्त्री वेश में चन्द्रगप्त और उसके पीछे ध्रुवस्वामिनी
शकराज दोनों को चकित होकर देखता है। दोनों कटार निकाल लेते हैं। शकराज घबरा उठता है। शकराज भी कटार निकाल लेता है। युद्ध मं शकराज मारा जाता है।

     चिन्तामग्न ध्रुवस्वामिनी : 
       शक दूर्ग के एक भीतरी प्रकोष्ठ में ध्रुवस्वामिनी पादपीठ पर चिन्तामग्न अवस्था में बैठी हुई है। एक सैनिक आकर दुर्ग में रामगुप्त के आगमन की सूचना देता है। थकी हुई ध्रुवस्वामिनी चन्द्रगुप्त के घावों के बारे में पूछती है। चन्द्रगुप्त की सुधरती अवस्था जानती है। मन्दाकिनी सहसा प्रवेश करके महादेवी कहती है। ध्रुवस्वामिनी कहती है जो रानी शत्रु के लिए उपकार स्वरूप भेजी जाती है वह महारानी के उच्चआसन से तो पहले ही व्युत हो गयी होगी। पुरोहित आकर बताता है कि महादेवी ने अपने साहस के बल पर ही शक-दुर्ग पर विजय प्राप्त कर ली है। ध्रुवस्वामिनी इसको असत्य बताती है और पुरोहित को भी झुठा बताती है। उसके द्वारा कराये गये विवाह को वह राक्षस विवाह की संज्ञा दी है।

     कोमा और मिहिरदेव का अन्त :
        इसी समय मिहिर साथ कोमा प्रवेश करती है। ध्रुवस्वामिनी से प्रार्थना करती है कि उसके प्रेमी शकराज का शव उसे दे दिया जाये। ध्रुवस्वामिनी शव ले जाने की आज्ञा देती है। मन्दाकिनी और ध्रुवस्वामिनी के बारे में चर्चा करती हैं। इतने में चन्द्रगुप्त आकर वहाँ अधिक समय ठहरने की आपत्ति उठाया है। उसके हृदय में द्वन्द्व मच रहा है। तभी पता चला है कि शकराज के शव लेकर जाते हुए आचार्य मिहिरदेव और उसकी कन्या कोमा को राजाधिराज के साथी सैनिकों मे वध कर डला। ध्रुवस्वामिनी अपनी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति बतलाती है। इसी बीच रामगुप्त आ जाता है। शिखरस्वामी सामन्त-कुमारों से रामगुप्त से माफी मांगकर सम्मान करने को कहता है। रामगुप्त सामन्त -कुमारों और चन्द्रगुप्त को भी बन्दी बनाने का आदेश देता है। ध्रुवस्वामिनी क्रोधित हो उठती है।

     चन्द्रगुप्त के पक्ष में निर्णय : 
        चन्द्रगुप्त अपना अपमान सह लेता है, लेकिन जब रामगुप्त ध्रुवस्वामिनी का अपमान करता है तो वह सहन नही कर पाता रामगुप्त पुरोहित को बन्दी बनाने की आज्ञा देता है। ध्रुवस्वामिनी को भी बन्दी बनाने की आज्ञा दी जाती है। चन्द्रगुप्त इन सब अत्याचार का नही सह पाता और जोश में आकर अपनी लौह- श्रृंखला तोड़ डालता है तथा घोषण करता है कि मैं समुद्रगुप्त का पुत्र हूँ। पिता ने मुझे युवराज बनाया था। यदि तुम अपनी कुशलता चाहते तो तुरन्त ही दुर्ग से बाहर चले जाओ। शकराज के समस्त अधिकारों का स्वामि मैं हूँ।

     ध्रुवस्वामिनी चन्द्रगुप्त के इस कथन से उत्साहित हो उठती है। सैनिकों को आदेश देकर चन्द्रगुप्त सामन्त- कुमारों को मुक्त करता है। रामगुप्त धीरे -धीरे पीछे हट जाता है। शिखरस्वामी की बातों को भूल जाने और भाई रामगुप्त से गले मिलने की बात कहते हैं। मन्दाकिनी चन्द्रगुप्त और रामगुप्त का अन्तर बताती है। चन्द्रगुप्त को युवराज और रामगुप्त को क्लीव व छली धोषित करती है। रामगुप्त क्रोध में खडा होकर पुरोहित को मृत्यु का भय दिखाता है। पुरोहित कहता है कि ब्राह्मण केवल धर्म से भयभीत होता है, अन्य शक्तियों को तो वह तुच्छ समझता है। उसे राजनीतिक दस्यु बताता है, शिखर स्वामी परिषद की बात कहता है। परिषद के सदस्यों रामगुप्त को अनार्य, पतित और क्लीव घोषित करते हैं। उसे सिंहासन पर बैठने का अधिकारी नही मानते। रामगुप्त सभी को पाखण्डी और विद्रोही बताता है। ध्रुवस्वामिनी उसे दुर्ग छोडने की आज्ञा देती है। रामगुप्त धीरे -धीरे पीछे हटता हुआ चन्द्रगुप्त के पीछे पहुँचकर उसकी हत्या करना चाहता है। सब लोग चिल्लाते हैं चन्द्रगुप्त घूमता है। तब एक सामन्त - कुमार रामगुप्त की हत्या कर देता है। सामन्त कुमार और परिषत के सदस्य चन्द्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी की जय बोलते हैं। इस प्रकार कथा का अंत होता है।


धन्यवाद!!!





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