(रीतिबद्ध) रीति काव्य की मुख्य प्रवृत्तियाँ
1) लक्षण ग्रंथों की रचना :- रीतिकाल के कवि आचार्यत्व के मोह में पड़े थे । आचार्यत्व का पद पाने के
लिए लक्षण ग्रंथों का निर्माण आवश्यक माना जाता था। इस धन में केशव, चिन्तामणि, मतिराम, कलपति देव
ने लक्षण-ग्रंथों के लिखने में अपनी पाटवता दर्शायी । ये सभी आचार्य संस्कृत आचार्यों का अनुकरण कर रहे थे। रस विवेचन में इन्होंने श्रृंगार को महत्व दिया।
2) श्रृंगार प्रदान रचनाएँ :- हिन्दी का रीतिकालीन साहित्य श्रृंगारिक भावनाओं से परिपुष्ट है।
राजाश्रय में पले रीतिकालीन कवि आश्रयदाता तथा सामान्य जनता की मनोवृत्ति के अनुकूल नायिका-भेद, नख
शिख वर्णन, केलि-लीलाएँ, हाव-भाव आदि के वर्ण में अपनी शक्ति का अपव्यय करते रहे। यहाँ तक कि
भक्तिकालीन कवियों के भक्ति भाव के आलंबन राधा-कृष्ण इन कवियों के लिए केवल लौकिक नायक-नायिका बन
गये । उनको आलंबन बनाकर इस काल में कई नग्न श्रृंगार की रचनाएँ निकलीं । इन कविताओं में नग्न श्रृंगार की
बू भी आती है।
3.आलंकारिक प्रवृत्ति:-
रीतिकाल के कवि अलंकार प्रेमी थे। ये किसी बात को सरल सीधे देग से कहना चाहता है। हर पंक्ति में चमत्कार लेना उनका ध्येय का। वर्ण्य विषय मुख्यतया अंगार था और अमार मा वट या अलंकरण खूब भाता है। भूषण बिनु न सोहइ कविता वनिता मित्त इस काल का सियान्त-वाक्य था।
कला काव्य की भी संज्ञा दी।
अतः कवि अलंकरण के पीछे पागल से हुए कि कछ आलोचकों ने इस समय के काव्य को अलंकृत काव्य तथा
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4) मुक्तक शैली :- रीतिकाल मुक्तक काव्य शैली के लिए प्रसिद्ध है। चिन्तामणि, भूषण, विहारी,
7 मरतिराम सबने मुक्तक के प्रति अपना असाधारण प्रेम दिखाया है। बात यह है कि रीतिकालीन कवियों के पास
इतिवृत्त के लिए समय नहीं था। उन्हें श्रृंगार के फटकीले चित्र अंकित करने थे उसके लिए श्रृंगार संबंधी किसी
भाव, वेष्टा या प्रसंग को लेकर वे काव्य रचना करते थे हाँ इस संदर्भ में आचार्य केशव की रामचन्द्रिका अपवाद
स्यरूप है। रामचन्द्रिका अवश्य ही प्रबन्ध काव्य है किन्तु रामचन्द्रिका का अध्ययन करने पर यह सहज ही विदित
होगा कि केशव भी अपनी इतिवृत्त-कल्पना में पूर्णतया सफल नहीं हैं।
5) ब्रजभाषा का प्रयोग :-रीतिकालीन साहित्य ब्रजभाषा में प्राप्त है। व्रजभाषा अपने माधुर्य के लिए
प्रसिद्ध है। कवियों का ध्यान श्रृंगार की तरफ़ था श्रृंगार जैसे कोमल भावों की अभिव्यक्ति के लिए कोमल एवं
मधुर ब्रजभाषा ही उचित थी। किन्तु इन कवियों ने ब्रजभाषा का स्वाभाविक रूप प्रस्तुत नहीं किया । बहुतों ने उसमें
काट-छाँट की तो कुछ अन्य कवियों ने उसमें अरबी-फारसी, बुन्देली के शब्द भर दिये।
6) छन्द :- रीतिकालीन काव्य मुख्यतया कवित्त, सवैयों में लिखा गया है। हाँ अन्य कुछ छन्द जैसे दोहा,
छप्पय, आदि का भी प्रयोग हुआ है।
7) प्रकृति का उद्दीपन रूप में वर्णन :- रीतिकाल की यह एक बड़ी विशेषता है कि प्रकृति के यथार्थ
स्वरूप की ओर कवियों का ध्यान नहीं गया। उन्होंने प्रकृति को मानवीय भावनाओं के अनुकूल दिखाने का प्रयत्न
किया। श्रृंगार के उद्दीपन के रूप में कवियों ने प्रकृति का उपयोग किया । चाँदनी, वर्षा ऋतु, वसन्त आदि का वर्णन
इस काव्य में बार-बार हुआ है।
8) संकचित दृष्टिकोण :- रीतिकालीन काव्य में व्यापक दृष्टिकोण का अभाव है। कवि लोग एकमात्र
श्रृंगार राज्य या रति राज्य की चेष्टाओं के वर्णन में ही लगे रहे । उसको छोड़कर और कोई भाव उनको सूझ ही न
पाता था। कभी-कभी एक-दो कवियों ने अगर नीति एवं भक्ति के भी गीत लिखे तो श्रृंगार ने आकर उनपर विजय
पायी है। यही बात बिहारी में हम पाते हैं। बिहारी के भक्ति संबंधी दोहों में भक्ति भावना की झलक नहीं मिलती।
वहाँ पर भी कवि का विलासी रूप ही प्रकट होता है । अतः यह रीतिकालीन काव्य एकांगी, अपूर्ण एवं एकपक्षीय है।
उसमें जीवन की-सी व्यापकता नहीं है।
1) लक्षण ग्रंथों की रचना :- रीतिकाल के कवि आचार्यत्व के मोह में पड़े थे । आचार्यत्व का पद पाने के
लिए लक्षण ग्रंथों का निर्माण आवश्यक माना जाता था। इस धन में केशव, चिन्तामणि, मतिराम, कलपति देव
ने लक्षण-ग्रंथों के लिखने में अपनी पाटवता दर्शायी । ये सभी आचार्य संस्कृत आचार्यों का अनुकरण कर रहे थे। रस विवेचन में इन्होंने श्रृंगार को महत्व दिया।
2) श्रृंगार प्रदान रचनाएँ :- हिन्दी का रीतिकालीन साहित्य श्रृंगारिक भावनाओं से परिपुष्ट है।
राजाश्रय में पले रीतिकालीन कवि आश्रयदाता तथा सामान्य जनता की मनोवृत्ति के अनुकूल नायिका-भेद, नख
शिख वर्णन, केलि-लीलाएँ, हाव-भाव आदि के वर्ण में अपनी शक्ति का अपव्यय करते रहे। यहाँ तक कि
भक्तिकालीन कवियों के भक्ति भाव के आलंबन राधा-कृष्ण इन कवियों के लिए केवल लौकिक नायक-नायिका बन
गये । उनको आलंबन बनाकर इस काल में कई नग्न श्रृंगार की रचनाएँ निकलीं । इन कविताओं में नग्न श्रृंगार की
बू भी आती है।
3.आलंकारिक प्रवृत्ति:-
रीतिकाल के कवि अलंकार प्रेमी थे। ये किसी बात को सरल सीधे देग से कहना चाहता है। हर पंक्ति में चमत्कार लेना उनका ध्येय का। वर्ण्य विषय मुख्यतया अंगार था और अमार मा वट या अलंकरण खूब भाता है। भूषण बिनु न सोहइ कविता वनिता मित्त इस काल का सियान्त-वाक्य था।
कला काव्य की भी संज्ञा दी।
अतः कवि अलंकरण के पीछे पागल से हुए कि कछ आलोचकों ने इस समय के काव्य को अलंकृत काव्य तथा
4) मुक्तक शैली :- रीतिकाल मुक्तक काव्य शैली के लिए प्रसिद्ध है। चिन्तामणि, भूषण, विहारी,
7 मरतिराम सबने मुक्तक के प्रति अपना असाधारण प्रेम दिखाया है। बात यह है कि रीतिकालीन कवियों के पास
इतिवृत्त के लिए समय नहीं था। उन्हें श्रृंगार के फटकीले चित्र अंकित करने थे उसके लिए श्रृंगार संबंधी किसी
भाव, वेष्टा या प्रसंग को लेकर वे काव्य रचना करते थे हाँ इस संदर्भ में आचार्य केशव की रामचन्द्रिका अपवाद
स्यरूप है। रामचन्द्रिका अवश्य ही प्रबन्ध काव्य है किन्तु रामचन्द्रिका का अध्ययन करने पर यह सहज ही विदित
होगा कि केशव भी अपनी इतिवृत्त-कल्पना में पूर्णतया सफल नहीं हैं।
5) ब्रजभाषा का प्रयोग :-रीतिकालीन साहित्य ब्रजभाषा में प्राप्त है। व्रजभाषा अपने माधुर्य के लिए
प्रसिद्ध है। कवियों का ध्यान श्रृंगार की तरफ़ था श्रृंगार जैसे कोमल भावों की अभिव्यक्ति के लिए कोमल एवं
मधुर ब्रजभाषा ही उचित थी। किन्तु इन कवियों ने ब्रजभाषा का स्वाभाविक रूप प्रस्तुत नहीं किया । बहुतों ने उसमें
काट-छाँट की तो कुछ अन्य कवियों ने उसमें अरबी-फारसी, बुन्देली के शब्द भर दिये।
6) छन्द :- रीतिकालीन काव्य मुख्यतया कवित्त, सवैयों में लिखा गया है। हाँ अन्य कुछ छन्द जैसे दोहा,
छप्पय, आदि का भी प्रयोग हुआ है।
7) प्रकृति का उद्दीपन रूप में वर्णन :- रीतिकाल की यह एक बड़ी विशेषता है कि प्रकृति के यथार्थ
स्वरूप की ओर कवियों का ध्यान नहीं गया। उन्होंने प्रकृति को मानवीय भावनाओं के अनुकूल दिखाने का प्रयत्न
किया। श्रृंगार के उद्दीपन के रूप में कवियों ने प्रकृति का उपयोग किया । चाँदनी, वर्षा ऋतु, वसन्त आदि का वर्णन
इस काव्य में बार-बार हुआ है।
8) संकचित दृष्टिकोण :- रीतिकालीन काव्य में व्यापक दृष्टिकोण का अभाव है। कवि लोग एकमात्र
श्रृंगार राज्य या रति राज्य की चेष्टाओं के वर्णन में ही लगे रहे । उसको छोड़कर और कोई भाव उनको सूझ ही न
पाता था। कभी-कभी एक-दो कवियों ने अगर नीति एवं भक्ति के भी गीत लिखे तो श्रृंगार ने आकर उनपर विजय
पायी है। यही बात बिहारी में हम पाते हैं। बिहारी के भक्ति संबंधी दोहों में भक्ति भावना की झलक नहीं मिलती।
वहाँ पर भी कवि का विलासी रूप ही प्रकट होता है । अतः यह रीतिकालीन काव्य एकांगी, अपूर्ण एवं एकपक्षीय है।
उसमें जीवन की-सी व्यापकता नहीं है।
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