नाटक के तत्त्वों के आधार पर 'चंद्रगुप्त' नाटक की समीक्षा
नाटक के ये प्रधान तत्त्व होते हैं -
(1) कथानक (2) पात्र तथा चरित्र-चित्रण
(3) कथोपकथन (4) भाषा तथा शैली
(5) देश-काल वातावण (6) रस-सृष्टि
(7) उद्धेश्य और (8) गीत-योजना।
इन तत्त्वों के आधार पर हम 'चन्द्रगुप्त पर विचार करेंगे।
1. कथानक :
'चन्द्रगुप्त' नाटक का कथानक चंद्रगुप्त के द्वारा चाणक्य की सहायता से नंद-वंश का नाश, यवनो को ऐतिहासिक है। इसमें भारत से भगाना, सिल्यूकस की कन्या कार्नेलिया से चंद्रगुप्त का विवाह आदि घटनाये वर्णित हैं। कहीं-कहीं पात्रो तथा घटनाओं में कल्पना का सहारा लिया गया है। फिर भी उसमें ऐतिहासिकता में अवरोध उत्पन्न ही हुआ है। प्रत्युत उसमें जीवंतता आयी है।
इसमें चार अंक हैं। चतुर्थ अंक का अवैध विस्तार है । प्रथम और द्वितीय अको में ग्यारह-ग्यारह, तृतीय में नौ और चतुर्थ अंक में चौदह श्य है। संपूर्ण नाटक में कई दृश्य ऐसे मिलते हैं जो बिलकुल हटा दिये जा सकते हैं या दूसरे में मिला दिए जा सकते हैं। कहीं-कहीं उनके विषय का सूचना मात्र दी जा सकती।
नाटक के आरम्भ का दृश्य बड़ा ही भव्य है। इससे सामाजिक सहसा उसकी ओर आकृष्ट होते हैं। प्राकृतिक मनोरमता और प्राचीन भारतीय संस्कृति का केंद्र होने कारण तक्षशिला का महत्त्व है। हरेक अक का समाप्ति-स्थल बहुत ही चमत्कारपूर्ण तथा प्रभावोत्पादक है।
2. पात्र और चरित्रचित्रण :
'चन्द्रगुप्त' नाटक में प्रायः सभी पुरुष पात्रों के नाम इतिहास में मिलते हैं। उनमें नंद, राक्षस वररुचि, चंद्रगुप्त, शकटार, चाणक्य, परमेश्वर और आम्भीक तथा यवनों में सिकन्दर, सिल्यूकस, फिलिप्स, मेगास्थनीस-सभी ऐतिहासक हैं। स्त्री पात्रों में कल्याणी और कार्नेलिया के नाम भी इतिहास ग्रंथों में मिलते हैं। चन्द्रगुप्त नाटक का नायक है। उसमें धीरोदात्त नायक के सब लक्षण हैं। चाणक्य का पात्र नाटक में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। नाटक के आरम्भ से लेकर अन्त तक वह दिखाई पड़ता है। उसे नाटक से निकाल देने पर नाटक का सारा ढाँचा ही अस्तव्यस्त हो जाता है। सतर्कता, गौरवमय गर्भारता. दूरदर्शिता आदि गुणों से वह विभूषित है। सिंहरण देश-प्रेमी वीर युवक है। देशद्रोही आम्भीक अन्त में देश-प्रेमी बनता है। राक्षस पात्र का चरित्र उभरकर नहीं आया है। प्रसाद जी ने चाणक्य के चरित्र को उदात्त रूप में चित्रित करने में राक्षस के चरित्र को गिरा दिया है।
स्त्री-पात्रों में अलका काल्पनिक पात्र है। प्रसाद जी ने अपने आदर्शों को उसके द्वारा प्रतिपादित किया है। वह देश-प्रेमी है। उसमें उदात्त पात्र के सभी लक्षण हैं। सुवासिनी एक काल्पनिक पात्र है। इस पात्र के द्वारा प्रसाद जी यह बताना चाहते हैं परिस्थितियों के कारण अनेक रूप धारण करने पर भी वह मूलतः एक ही है। मालविका एक गौण पात्र है। यह भी काल्पनिक पात्र है। पार्नेलिया एक विदेशी पात्र है प्रसाद ने इस पात्र के द्वारा भारत देश, उसकी संस्कृति और सभ्यता की प्रशंसा करायी है।
प्रसाद के अधिकांश पुरुष-पात्र ही नहीं, अधिकांश स्त्रिया भी आवर्श-प्रेम ही रखती हैं। प्रसाद की नारियाँ सदैव उदात्त भावों से परिपूर्ण । रही हैं। पुरुषों की अपेक्षा वे सबल और महान् रही हैं।
3. कथोपकथन :
चन्द्रगुप्त में प्रायः कथोपकथन छोटे-छोटे है। स्वगत-भाषण अवश्य ही अधिक लबे हो गये हैं। नाटक-भर में चाणक्य, परमेश्वर और चंद्रगुप्त के ही स्वगत भाषण विशेष लंबे हुए हैं। संवादो में रस के अनुकूल पदावली, भाषा और भाव-योजना दिखायी पड़ती है। बीर-रस सबंधी सवादों में उत्साह, गर्व, दर्प, आवेश, क्रोध सभी भाव समयानुसार व्यजित है। जहाँ श्रृंगार की योजना हुई है, वहाँ भाषा और भाव-व्यंजना में तदनुकूल परिवर्तन होता है। कुछ सवाद भावुकता से इ समन्वित होने के कारण अत्यन्त मधुर मालूम पड़ते हैं।
जैसे : चन्द्रगुप्त और मालविका का संवाद, कार्नेलिया और सुवासिनी का सवाद आदि। चणक्य और वररुचि के संवाद में निरालापन है जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। है वस्तुतः इस संबाद का नाटकीय महत्त्व कम है। कथोपकथनों से कथ आगे बढ़ती है। एक उदाहरण देखिये :-
चाणक्य: केवल तुम्ही लोगों को अर्थशास्त्र पढ़ाने केलिये ठहरा था।
सिंहरण : आर्य, मालबों को अर्थशास्त्र की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी अस्त्र-शास्त्र की
चाणक्य : अच्छा, तुम अब मालव में जाकर क्या करोगे ?
सिंहरण : अभी तो मैं मालव नहीं जाता। मुझे तो तक्षशिला की राजनीति पर दृष्टि
रखने की आज्ञा मिली है (सक्षिप्त रूप 1, दृश्य 1, पृ. 39, पं. 5-12) अंक
इस संवाद से अर्थशास्त्र से लेकर तक्षशिला तक की राजनीति पर दृष्टि रखने तक बात बढ़ती चली आयी है।
कथोपकथनों से पात्रों के चरित्र पर प्रकाश पड़ता है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है -
मालविका : सम्राट, अभी कितने ही भयानक संघर्ष सामने हैं ।
चन्द्रगुप्त : संघर्ष! युद्ध देखना चाहो तो मेरा हृदय फाड़कर देखो मालविका ।
आशा निराशा का युद्ध, भावो और अभावों का द्वन्द्र। कोई कमी नही.
फिर भी न जाने कौन मेरी सम्पूर्ण सूची में रिक्त-चिन्ह लगा देता है।
(अक 4, दृश्य 4, पृ. 124, पं. 14-18)
कहीं-कहीं दो पात्रों के वार्तालाप से तीसरे पात्र के चरित्र पर प्रकाश पड़ता है।
जैसे -
राक्षस : आर्य-साम्राज्य का महामन्त्री इस तपोवन में।
सवासिनी : यही तो ब्राहमण की महत्ता है राक्षस! यो तो मूर्खों की निवृत्ति भी
प्रवृत्ति मूलक होती है देखो, यह सूर्य- रश्मियो का-सा रस-ग्रहण
कितना निष्काम, कितना निवृत्तिपूर्ण है ।
(अक 4. दृश्य 13, पृ. 147, प. 12-15)
राक्षस और सुवासिनी के उपर्युक्त वाक्यों से चाणक्य के चरित्र पर प्रकाश पड़ता है।
4. भाषा तथा शैली : प्रसाद की भाषा की ये विशेषतायें है
(1) वह प्रवाहमयी है।
(2) वह पात्रों की मनोदशा को प्रकट करनेवाली है।
(3) उसमे मार्मिक उक्तियों का संयोजन है।
(4) अभीष्ट भावों को प्रकट करने में सक्षम है।
(5) तत्सम शब्दावली का अधिक प्रयोग किया गया है।
विश्वम्भर मानव के शब्दों में "प्रसाद की भाषा पर दुरूहता का आरोप न करके अनुपयुक्तता का आक्षेप होना चाहिये।" चन्द्रगुप्त नाटक में भाषा के अनेक रूप मिलते हैं -
(1) आलंकारिक भाषा (2) सरल भाषा
(3) व्यावहारिक भाषा (4) धारावाहिक भाषा
(5) कथात्मक भाषा।
चन्द्रगुप्त नाटक में यत्र-तत्र सूक्तियों का प्रयोग भी किया गया है। देखिये
(1) ब्राहमणत्व एक सार्वभौम शाश्वत बुद्धि-वैभव है।
(2) स्मृति जीवन पुरस्कार है।
(3) जीवन एक प्रश्न है और मरण है उस का अटल उत्तर।
5. देश-काल तथा वातावरण : 'चन्द्रगुप्त' नाटक ऐतिहासिक नाटक है। इस कारण उसमें चन्द्रगुप्त कालीन आर्यावर्त की परिस्थितियों का चित्रण किया गया है।
राजनीतिक स्थिति : उत्तरापथ के खण्ड राज्य द्वेष से जर्जर थे। एक ओर नंद और पर्वतेश्वर का विरोध और दूसरी ओर आभीक और पर्वतेश्वर का पारिवारिक झगड़ा था। आम्भीक यवनों को आर्यावर्त में प्रवेश करने के लिये आवश्यक सहायता करता है। पर्वतेश्वर डटकर उनका विरोध करता है। मालव और क्षुद्र जैसे छोटे-छोटे गणतत्रो के शासको का मिलना भी सरल नहीं था। मगध की राजनीतिक स्थिति अव्यवस्थित थी। नन्द विलासप्रिय, कामुक और मद्यप था। राक्षस मंत्री भी मद्यप था। जनता पर मनमाने अत्याचार होते थे। लोग परिवर्तन का अवसर ढूँढ रहे थे। नंद की बेटी कल्याणी भी अपने पिता के शासन से असन्तुष्ट थी। उसका कथन द्रष्टव्य है "महाराज के उद्यान में भी लताएँ ऐसी हरी-भरी नहीं, जैसे राज-घातक से वे भी डरी हुई हो। सच नीला! मैं देखती हैं कि महाराज से कोई स्नेह नहीं करता, डरते भले ही हों.. देखती हैं कि समस्त प्रजा उनसे त्रस्त और भयभीत रहती है। प्रचंड शासन के कारण उनका बड़ा दिन है।"
धार्मिक-संघर्ष : नद बौद्ध था। राक्षस प्रच्छन्न बौद्ध था। चाणक्य वैदिक धर्मानुयायी था। बौद्ध और वैदिक धर्मों के बीच संघर्ष चलता था। नंद ने वैदिक धर्मावलंबी शकटार को अधकूप में रखा। उसने ज्कटार के पडोसी चणक का ब्राहमणस्व छीन लिया। तक्षशिला का गुरुकुल वैदिक-धर्म का केन्द्र था। इसलिए राक्षस ने वहाँ की शिक्षा को अनावश्यक मानते हुये कहा - "केवल सद्धर्म की शिक्षा ही मनुष्य के लिये पर्याप्त है और वह तो मगच में ही मिल सकती है।" चाणक्य बौद्धधर्म की खुलकर निदा करता था- "परन्तु बौद्धधर्म की शिक्षा मानव व्यवहार के लिए पूर्ण नहीं हो सकती, भले ही वह संघ-विहार में रहनेवालों के लिये उपयुक्त हो।...एक जीवहत्या से डरनेवाले तपस्वी बौद्ध, सिर पर मैडरानेवाली विपत्तियो से, रक्त-समुद्र की आँधियों से, आर्यावर्त की रक्षा करने में असमर्थ प्रमाणित होगे।"
नारियों की स्थिति : महिलाओं में पर्दे की प्रथा नहीं थी। वे स्वच्छंदता से विचर कर सकती थी। राजसभाओं में उपस्थित हो सकती थी। युद्धभूमि में भी जा सकती थी। शिक्षा महिलाओं को भी दी जाती थी। मालविका के मानचित्र खीचने से इस बात की पुष्टि होती है।
वाणिज्य : वणिक वाणिज्य वस्तुओं को एक प्रांत से दूसरे प्रात को ले जाते थे। युद्ध वर्णन : युद्धों में गज-सेना, अश्व-सेना, रथ-सेना और पदातियों के अतिरिक्त नौ-सेना का भी उपयोग होता था। सैनिक कटार, धनुष, तीर आदि का उपयोग करते थे। आर्यों की रण-नीति ऐसी थी कि कृषक और निरीह लोग दुःख नहीं पाते थे। किसान रण-भूमि के पास ही स्वच्छदता के साथ हल चलाते थे यवनों की रणनीति इससे मित्र थी। निरीह जनता को लूटना, गांवों को जलाना उनके साधरण काम थे।
शिक्षा-व्यवस्था : अध्ययन और अध्यापन केलिए गुरुकुलों की व्यवस्था थी। उस समय तक्षशिला का गुरुकुल प्रसिद्ध था। वहाँ के नियम कठिन थे। वहीं का स्नातक वहीं आचार्य भी बन सकता था। छात्रों को राजवृत्ति भी दी जाती थी। वहाँ अर्थशास्त्र, अस्त्र शात्र भी पढ़ाये जाते थे। वहीं एक विद्यार्थी पाँच वर्षों तक अध्ययन करता था। गुरुकुल में आचार्य की आज्ञा ही मानी जाती थी। अन्य लोगों की आज्ञा का निरादर किया जाता था।
सामाजिक परिस्थिति : समाज में वर्ण-व्यवस्था का प्रचलन था। दाण्ड्यायन जैसेवी लोगों के आश्रम होते थे। वे राजा के पास नहीं जाते थे। राजा लोग ही उनके पास जाते थे। जनता में प्रातीय भावना थी। चाणक्य, अलका जैसे लोग देश में राष्ट्रीय भावना को जागृत करने में लगे थे। विलास-कानन में राजा के साथ नागरिक भी मदिरा पी सकते थे।
6. रस-सृष्टि : 'चन्द्रगुप्त' नाटक में वीररस की प्रधानता है। इसके पश्चात् श्रृंगार रस की प्रमुखता है। इसके अतिरिक्त शांत तथा अन्य रसों का सकेत भी मिलता है। नाटक का प्रारम्भ राजनीति से होता है और अन्त प्रणय से। यही नाटक की रसगत विशेषता है। (विवरप के लिये प्रश्न न 7 देखिये।)
7. उद्धेश्य : प्रसाद जी ने स्वयं 'विशाखा' की भूमिका में अपनी रचनाओं के उद्देश्य को बताते हुये लिखा है- "मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकाड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है, जिन्होंने कि हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है।
'चन्द्रगुप्त' नाटक की कथावस्तु को देखने से स्पष्ट होता है कि भारतवासियों में राष्ट्रीय भावना को जाग्रत करना ही इसका प्रमुख उद्धेश्य है। यह बात अलका के चरित्र और उसके द्वारा गाये गये 'प्रणय गीत । से और भी स्पष्ट हो जाती है।
8. गीत-योजना : 'चन्द्रगुप्त' नाटक में तेरह गीत हैं। ये गीत पात्रों के अन्तर्द्धन्द्र, प्रेम, देश-प्रेम तथा कोमल भावों के परिचायक है। कार्नेलिया तथा अलका के द्वारा गाये गये गीतों में देश-प्रेम की भावना निहित है। प्रणय-गीतों में मादकता, उद्धाम यौवन की तरंग, व्याकुलता, उलझन तथा अन्तर्द्वन्द्व की अभिव्यक्ति मिलती है। परन्तु अभिनय के समय कुछ गीत अनावश्यक तथा उकतानेवाले हैं। चतुर्थ अक के चौथे दृश्य में ही मालविका तीन बार गाती है। इस एक दृश्य के प्रदर्शन केलिए ही 20-25 मिनट लग जाते है। इसलिए अभिनय के समय कुछ परिवर्तन करना पड़ता है।
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