चन्द्रगुप्त नाटक का नायक कौन है ? एक विवेचन ।
'चन्द्रगुप्त नाटक के नामकरण से विदित होता है कि इस नाटक का मुख्य पात्र चन्द्रगुप्त है। किन्तु नाटक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि चाणक्य का भी कम स्थान नहीं है। वह एक ऐसा ऐतिहासिक व्यक्तित्व है, जिसके पीछे नाटक की हर घटना चक्कर काटती रहती है और जो नाटक के हर सूत्र से अपना परिचय रखता है। वह एक ऐसा ब्राहमण है जिसके हर इंगित पर नाटक की कथावस्तु कठपुतली की भौति नृत्य करती है। यदि उसे नाटक से निकाल दे तो नाटक का सारा ढाँचा अस्तव्यस्त हो जाएगा। इतना ही नहीं. कुछ स्थलों पर उनके व्यक्तित्व के सामने चन्द्रगुप्त का व्यक्तित्व फीका पड़ गया है।
इस तरह दो पात्रों की प्रमुखता देखते हुए पाठक के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि नाटक का नायक कौन है? इस प्रश्न का समाधान जानने के पहले हमें नायक केलिए आवश्यक गुण जानने चाहिए।
नायक केलिए आवश्यक गुण : धनजय के अनुसार नायक में निम्नलिखित गुण होने चाहिए.--
नेता विनीतो मधुरस्त्यागी दक्षः प्रियवदः
रक्त लोकः सुचिरवाग्मी रूढिवशः
स्थिरो युवा। बुद्ध युत्साह स्मृति प्रज्ञा कलामान् समन्वितः
शरो दृढश्च तेजस्वी शास्त्र चक्षुश्च धार्मिकः ।।
अरथति नायक को ऐसा होना चाहिए -
(1) विनीत (2) मधुर ) त्यागी (4) दक्ष (5) प्रियंवद (6) रक्तलोक (7) वाग्मी
(8) रूढ़िवश शुचि (10) स्थिर (11) युवा (12) बुद्धिमान (13) प्रज्ञावान
(14) मति संपन्न (15) उत्साही (16) कलावान (17) शास्त्र चक्षु
(18) आत्म माती (19) शूर (20) दृढ़ (21) तेजस्वी और (22) धार्मिक।
इसके अतिरिक्त उसमे शोभा, विलास, माधुर्य, गांभीर्य, स्थिरता, तेज, लालित्य और औदात्य हो।
चन्द्रगुप्त' नाटक का नायक कौन है?
उपर्युक्त गुणों के आधार पर अब हमे यह विचार करना है कि 'चन्द्रगुप्त नाटक का नायक कौन है? चन्द्रगुप्त ही चाणक्य की हर घटना का ध्रुवतारा है और हर पात्र का क्रिया-कलाप उसी का व्यक्तित्व बनाता है। यदि वह न होता तो हम निभ्रन्ति रूप से कह पाते कि चाणक्य कुछ नहीं केवल मात्र कूटनीति और महत्वाकाक्षाओ का संपुजन है। वही नाटकीय मुख्य संवेदना का मूल प्रेरक तत्त्व है। यही नहीं, कार्नेलिया के साथ मालविका, अलका तथा सुवासिनी जैसी सम्त महिलाएँ भी चंद्रगुप्त के धीरोदात्त गुणों पर रीझकर उन पर आत्मसमर्पण करना चाहती है। यह चंद्रगुप्त की मुख्य विशेषता है।
चन्द्रगुप्त तलवार का धनी है, योद्धा है. स्त्रैण और क्लीव नही। बहु अन्यायों का डटकर मुकाबला करना चाहता है. भले ही इसके लिए उसको चाणक्य के मुँह की ओर देखना पड़े, उसकी अगुली पकड़नी पड़े और चाणक्य द्वारा निर्मित राजनीति के उलझन भरे कूट रास्तों पर चलना पड़े।
यही नहीं. आरम्भ में सिंहरण और चाणक्य के बीच भावी यवन-आक्रमण से भारतवर्ष के नाश की बात आते ही चन्द्रगुप्त उद्धार-प्रयत्न की शपथ लेते हुए कहता है - "गुरुदेव। विश्वास रखिये। यह सब कुछ । नही होने पावेगा, यह चन्द्रगुप्त आपके चरणों की शपथ प्रतिज्ञा करता। है कि यवन यही कुछ न कर सकेंगे।"
चन्द्रगुप्त एक आदर्श वीर भी है जो आम्भीक, फिलिप्स, एन- साइक्रोटीस आदि दम्भी प्रतिशोधियों को अपनी तलवार के वार से नाको चने चबाता है। भले ही उसके पास अधिकार, सेना अथवा कोई राजकीय । साधन न हो, परन्तु असीम उत्साह, दृढ़ता, शौर्य और पुरुषत्व तो है। वह नारियों का सम्मान करना जानता है और इसीलिए वह कार्नेलिया मालविका आदि नारियों केलिए भूमि फाड़कर भी उपस्थित होता है। उसमें वचन-विदग्धता भी है। आम्भीक एक बार कहता है कि शिष्टता से बाते करो। तब चन्द्रगुप्त कहता है - "अनार्य। देश द्रोही! आम्भीक ! चन्द्रगुप्त रोटियों के लालच से या घृणाजनक लोभ से सिकन्दर के पास नहीं आया।" इस कथन से स्पष्ट है कि उसमें वचन-विदग्धता, आत्म- सम्मान आदि गुण हैं।
इतना ही नहीं, चन्द्रगुप्त के सिर पर नायकत्व का सेहरा स्वयं चाणक्य पहनाता है। अन्त में सशक्त शासक के रूप में उसे पदारूढ़ करके चाणक्य तपस्या में निरत होने केलिए कर्मक्षेत्र के रंगमंच को छोड़कर चला जाता है। चाणक्य कहता है - "ले लो मौर्य चन्द्रगुप्त! अपना अधिकार छीन लो, मेरा पुनर्जन्म होगा। मेरा जीवन राजनैतिक कुचक्रों से कुत्सित और कलंकित हो उठा है।" अतएव फल का भोक्ता चाणक्य नहीं हो सकता। उसका उपभोक्ता केवल चन्द्रगुप्त मात्र ही है और वह अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष जैसे तत्त्वों में से अर्थ और काम को उपभोग के रूप में प्राप्त करता है। फल का उपभोक्ता ही नायक हो सकता है।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त में धीरोदात्त नायक के सब गुण हैं। अतः शास्त्रीय सिद्धांतों के आधार पर और व्यावहारिक रूप में भी नाटक का नायक चन्द्रगुप्त ही हो सकता है न कि चाणक्य।
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