चन्द्रगुप्त' नाटक की ऐतिहासिकता
प्रसाद की नाट्य-कला का महत्त्वपूर्ण तत्व उनकी ऐतिहासिकता है। उनके गंभीर अध्ययन और मनन का परिचय हमें उनके ऐतिहासिक अन्वेषणों से मिलता है। उनका ऐतिहासिक ज्ञान नाटकों की लम्बी-चौड़ी भूमिका तक ही सीमित नहीं है। उन्होंने अपनी खोजों के तर्क-संगत प्रमाण भी दिये हैं। अतीत की टूटी लड़ियो को एकत्र करने का जो कार्य उन्होंने किया है वह बहुत ही सराहनीय है। उन्होंने अपनी कल्पना और भाव-भंगिमा से इतिहास के रूखे-सूखे पृष्ठों में जीवन का रस डाल दिया है।
प्रसाद के समस्त ऐतिहसिक नाटकों में संभवतः 'चंद्रगुप्त ही एक ऐसा नाटक है जिसके प्रायः सभी प्रमुख पुरुष पात्रों के नाम इतिहास में मिलते हैं। उनमें नद, राक्षस, वररुचि, चंद्रगुप्त, शकटार, चाणक्य, पर्वतेश्वर और आम्भीक तथा यवतो में सिकन्दर, सिल्यूकस, फिलिप्स, मेगास्थनीस-सभी ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। स्त्री पात्रों में कल्याणी और कार्नेलिया के नाम भी इतिहास ग्रंथों में मिलते हैं। इसी तरह इस नाटक की प्रमुख घटनायें इतिहास-सम्मत ही हैं।
प्रसाद ने कुछ ऐतिहासिक उद्धेश्यों से अनुप्राणित होकर 'चन्द्रगुप्त नाटक की रचना की है। उनका विवरण इस प्रकार है।
1.भारत ग्रीकों से कभी पराजित नहीं हुआ : पाश्चात्य इतिहासकारों ने इस बात को सिद्ध करने की चेष्टा की है कि यूनानी. सेना का सामना भारतीय सेना न कर सकी थी। पंचनद-प्रदेश की विजय से उत्साहित होकर सिकन्दर समस्त भारत को पददलित करना चाहताथा। परंतु अपने विस्तृत साम्राज्य में किसी आंतरिक विद्रोह के फूट पड़ने की सूचना पाकर उन्होने अपने विचार को स्थगित कर दिया था। वे स्थल-पथ से अपनी सेना को भेजकर स्वयं जल मार्ग से लौट गये।
परन्तु प्रसाद ने उपर्युक्त ऐतिहासिक विश्वासों का खंडन किया। उन्होंने चंद्रगुप्त नाटक में यह दिखाया है -
(1) यूनानियों को दो बार भारत में आगे बढ़ने से रोका गया।
(2) यूनानियों को देश से निकालकर स्वतंत्र भारत की कीर्ति की रक्षा में चन्द्रगुप्त प्रयत्नशील रहा।
2. सिकन्दर विजयी नहीं, पराजित था : पाश्चात्य इतिहासकारों ने सिकन्दर को विजयी बताया था। परन्तु प्रसाद ने अपनी खोजो के आधार पर यह दिखाया है कि सिकन्दर विजयी नहीं, पराजित था।
सिकन्दर ने भारत-विजय का विचार स्थगित किया था। इससे उनके विश्व-विजय का सुनहला सपना भंग हो गया। प्रसाद जी के अनुसार इसका कारण यह था कि सिकंदर की सेना पर भारतीय वीरों का आतक बैठ गया था, यह बात वर्तमान यूरोपीय इतिहास लेखकों ने भी स्वीकार की है कि पर्वतेश्वर की सेना ने यूनानियों का जिस वीरता के साथ सामना किया. बह सिकदर को अभूतपूर्व और उन जान पड़ी। इसीलिए उसने पौरव से संधि करना उचित माना। यूनानी सेना का साहस टूट चुका था। इसी समय सिकदर को सूचना मिली कि मगध ने लक्षाधिक सेना को संगठित किया। वह सेना पौरव की सेना से भी अधिक कुशल और शक्तिशालिनी थी। सिकंदर ने अपनी सेना को मगध की सेना का सामना करने के लिए समझाया। परन्तु यवन सेना ने सिकंदर की बात नहीं मानी। विवश होकर सिकदर रावी-तट से लौट पड़ा।
सिकन्दर रावी तट तक बढ़ गया था। प्रसाद ने इसका कारण बताया है कि उस समय पंचनद प्रदेश छोटे-छोटे राज्यों में बैटा हुआ था। इतना ही नहीं, उनमे पारस्परिक संगठन का सर्वथा अभाव था।
बाद में परिस्थिति बदल गयी पर्तेश्वर की पराजय से चिंतित होकर, स्वदेश की स्वतंत्रता को संकट में जानकर अनेक भारतीय युवक सचेत हुए। उन्होंने छोटी-छोटी शक्तियों को संगठित किया। यवन-सेना को लौटते समय पग-पग पर भारतीय संगठित सेना का सामना करना पड़ा। उसे अनेक बाधाओं और विघ्नों को झेलना पड़ा। उसे अनेक प्रकार अति सहनी पड़ी। स्वयं सिकंदर भी ऐसे एक युद्ध में घायल हुआ। इतिहासकारों के अनुसार इसी घाव के कारण सिकंदर की बैबिलोनिया / मृत्यु हुई।
लगभग बीस वर्षों के बाद नये यूनानी सम्राट सिल्यूकस ने अपने पर्वी अधिकारी सिकंदर की इच्छा को पूरा करने का साहस किया। दो-चार तोटे-मोटे स्थानों को जीतने के बाद यवन सेना ने मगध-सेना का सामना या। परंतु मगध-सेना ने यूनानी सेना को भागने का रास्ता तक न था। अंत में सिल्यूकस ने अपनी कन्या कार्नेलिया को चद्रगुप्त से परिणय कराकर संधि कर ली। 'चन्द्रगुप्त' नाटक इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया है।
चन्द्रगुप्त मौर्य पिप्पलीकानन वासी क्षत्रिय वीर था, शूद्र नही :
मैक्समूलर 'मौर्य' की उत्पत्ति एक शूद्रा मुरा से उत्पन्न चंद्रगुप्त के जन्म से बताते हैं। परन्तु प्रसाद जी ने चंद्रगुप्त को वीर क्षत्रिय बताया है। उनके अनुसार चन्द्रगुप्त का जन्म पिप्पलीकानन के मोरिय जाति के नेत्रियों में हुआ था। इन मोरियों का उल्लेख बौद्ध ग्रंथ 'दीघ निकाय के 'महापरिनिर्वाण सूद' में भी मिलता है।
तक्षशिला विश्वविद्यालय : Habell साहब ने अपनी पुस्तक | History of Aryan rule in India' में बताया है कि सिकंदर के आक्रमण-काल में तक्षशिला विश्वविद्यालय विद्रोह का प्रधान केंद्र था। वहाँ कोशल, काशी, मल्ल आदि राज्यों के राजकुमार विद्याध्ययन कर रहे थे। वहाँ उस समय कूट विद्या और सैन्य-शास्त्र विशारद चाणक्य और उनके प्रिय शिष्य चन्द्रगुप्त वर्तमान थे। प्रसाद ने अपने 'चन्द्रगुप्त' नाटक में तक्षशिला की कूटनीतिज्ञता को काफी महत्त्व दिया है।
चन्द्रगुप्त वृषल नहीं था : संस्कृत नाटककार विशाखदत्त ने अपने मुद्रा राक्षस' नाटक में चन्द्रगुप्त को 'वृषल' कहकर संबोधित किया है। कोष में वृषल शब्द का एक अर्थ शूद्र है। परन्तु प्रसाद के चन्द्रगुप्त नाटक में चाणक्य ने वृषलत्व की व्याख्या इस प्रकार दी है - "आर्य क्रिया-कलापो का लोप हो जाने से इन लोगो (मौयों) को वृषलत्व मिला. वस्तुतः ये क्षत्रिय हैं। बौद्धों के प्रभाव में आने से इनके क्षत्रिय होते में कोई संदेह नहीं है।
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