Sunday, February 7, 2021

नाटक के तत्वों के आधार पर 'स्कन्दगुप्त' नाटक की समीक्षा

 


            नाटक के तत्वों के आधार पर 'स्कन्दगुप्त' नाटक की समीक्षा 


      नाटक के ये प्रधान तत्व होते हैं

         (1) कथानक         (2) पात्र तथा चरित्र-चित्रण

         (3) कथोपकथन   (4) भाषा तथा शैली

         (5) देश-काल वातावरण सृष्टि   (6) रस -

         (7) उद्देश्य और      (8) गीत योजना।

         इन तत्वों के आधार पर हम 'चन्द्रगुप्त' पर विचार करेंगे।

      1. कथानक :

           'स्कन्दगुप्त' नाटक ऐतिहासिक है। अनंतदेवी कुमार गुप्त की छोटी रानी है। वह अपने बेटे पुरगुप्त को सिंहासन पर बिठाना चाहती है। अंतःपुर के कलह तथा राज्य पर शकों और हूणों के आक्रमण से विचलित युवराज स्कन्दगुप्त अपने अधिकारों से उदासीन रहता है। अनंतदेवी भटार्क की सहायता से कुमारगुप्त का वध कराती है। पर्णदत्त तथा चक्रपालित का प्रोत्साहन पाकर स्कन्दगुप्त कर्तव्योन्मुख हो जाता है। अनंतदेवी पपंचबद्धि की सहायता से देवकी का अंत करने का षड्यंत्र रचती है। स्कन्दगुप्त बन्धुवर्मा आदि की सहायता से बाहरी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है। इतना ही नहीं, वह अंतःकलह को शांत करने में भी सफल होता है। किन्तु वह अपने व्यक्तिगत जीवन में विजय नहीं प्राप्त करता। वह न विजया के प्रेम को ही प्राप्त करता और न देवसेना के प्रेम को। यही 'स्कन्दगुप्त' नाटक की कथा संक्षेप में है।

           इसमें पाँच अंक है। प्रथम और द्वितीय अंकों में सात-सात, तीसरे अंक में छ, चौथे अंक में सात और पांचवे अंक में छः दृश्य है। नाटक के प्रथम दृश्य में स्कंदगुप्त जीवन के प्रति जो उदासीनता प्रकट करता है, वही उदासीनता नाटक के अंत में भी दिखाई पड़ती है। नाटक के अंतिम दृश्य में स्कन्दगुप्त का यह वाक्य देखिये - "देवसेना - देवसेना ! तुम जाओ - हतभाग्य स्कंदगुप्त । अकेला स्कंद-ओह।"

        2. पात्र और चरित्रचित्रण

       'स्कंदगुप्त' नाटक के अनेक पुरुष पात्रों के नाम इतिहास में मिलते हैं उनमें कुमारगुप्त, बन्धुवर्मा, पर्णदत्त, चक्रपालित, भटार्क, शर्वनाग, पृथ्वीसेन, खिंगल, प्रख्यात कीर्ति, भीमवर्मा, गोविंदगुप्त आदि ऐतिहासिक पात्र हैं। स्त्रीपात्रों में देवकी और अनंतदेवी ऐतिहासिक पात्र हैं। प्रपंचबुद्धि, मुद्गल, देवसेना, जयमाला, विजया, कमला, रामा, मालिनी आदि काल्पनिक पात्र है।

        स्कन्दगुप्त नाटक का धीरोदात्त नायक है। वह वीर, साहसी, दार्शनिक और दूरदर्शी है। इस नाटक में स्कन्दगुप्त के बाद बन्धुवर्मा उल्लेखनीय पात्र है। उसका त्याग अनुपम है। वह देश के हित को दृष्टि में रखकर अपने राज्य को दान में देता है। पर्णदत्त और चक्रपालित सच्चे देशभक्त हैं। भटाक स्कन्दगुप्त खल नायक है। वह अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति कालए विदेशी को हूणो को निमंत्रण देता है। प्रपंचबद्धि  पतन की चरमसीमा को पहुँचे हुए बौद्ध धर्म का प्रप्रतिनिधि है।

       देवसेना का आदर्श प्रेम स्तुत्य है। उसके भाई ने जो राज्य या था, उसके प्रतिदान के रूप में वह स्कन्दगुप्त को पाना ही चाहती। विजया देवसेना से पूर्णतः विभिन्न स्वभाव वाली है। इसका प्रेम बड़ा चंचल है।

       3. कथोपकथन

            'स्कन्दगुप्त' नाटक के कथोपकथन प्रायः न सेट है। उनसे पात्रों के चरित्र पर प्रकाश पड़ता है। देखिये -

       पर्णदत्त:  सन्देह दो बातों से है युवराज!

       स्कन्दगुप्त : वे कौन-सी हैं?

       पर्णदत्त :  अपने अधिकारों के प्रति आपकी उदासानता और 

                     अयोध्या में नित्य नये परिवर्तन। (अंक 1, दृश्य 1, पृ. 47, पं. 19-22)

                     यह पर्णदत्त और स्कन्दगुप्त का संवाद है। पर्णदत्त की बातों से मालूम 

                      पड़ता है कि स्कन्दगुप्त अपने अधिकारों के प्रति उदासीन है।

              कथोपकथनों से कहानी आगे बढ़ती है। यथा 

      भटार्क : कोई - न तो भीतर जाने पावे और न भीतर से बाहर आने पावे।

      शर्वनाग : (चौककर) इसका तात्पर्य)

      भटार्क : (गंभीरता से) तुमको महाबलाधिकृत की आज्ञा का पालन करना चाहिये।

      शर्वनाग : तब भी, क्या स्वयं महादेवी पर नियंत्रण रखना होगा।

      भटार्क :  हाँ । (अंक 1 दृश्य 5, पृ. 66, पं. 1-7) इस संवाद से पाठकों को यह संकेत 

                   मिलता है कि भटार्क कोई दुष्कार्य करने जा रहा है।

                   'स्कन्दगुप्त' नाटक के संवाद पात्रों की मनःस्थिति के अनुकूल है। यथा 

      देवसेना : आज  फिर तुम किस अभिप्राय से आई हो) 

      विजया :  और तुम राजकुमारी? क्या तुम इस महाबीभत्स श्मशान में 

                    आने से नहीं डरती हो?

      देवसेना :  संसार का मूक शिक्षक-श्मशान-क्या डरने की वस्तु है? जीवन की

                    नश्वरता के साथ ही सर्वात्मा के उत्थान का ऐसा सुन्दर स्थल और कौन है।

                   (अंक 3, दृश्य 2, पृ. 112, पं. 17-22)

        यहाँ विजया और देवसेना अपने-अपने स्वभाव के अनुसार बोलती हैं।

        स्कन्दगुप्त' नाटक में स्वगत कथन भी प्रयुक्त हैं। ये भी प्रायः छोटे हैं ।

उदाहरणार्थ :-

        1) द्वितीय अंक के छठे दृश्य में भटार्क को देखकर विजया कहती है - "अहा, कैसी वीरत्व-व्यंजक मनोहर मूर्ति है और गुप्त-साम्राज्य का महाबलाधिकृत!" (पृ. 100)

         2) चतुर्थ अंक के पहले दृश्य में शर्वनाग (नायक) विजया को देखकर कहता है है क्या!" "पागल हो गयी (पृ. 129, पं. 14)

            'स्कन्दगुप्त नाटक के अनेक स्वगत कथन लम्बे हैं। नाटक के आरम्भ में ही स्कन्दगुप्त का यह स्वगत कथन लम्बा है। देखिये- "अधिकार-सुख कितना मादक और सारहीन है। अपने को नियामक और कर्त्ता समझने की बलवती स्पृहा उससे बेगारकराती है। उत्सवों में परिचारक और अस्त्रों में ढाल से भी अधिकार-लोलुप मनुष्य क्या अच्छे हैं?" (अंक 1, दृश्य 1, पृ. 47, पं. 1-5)

          4. भाषा तथा शैली :

           प्रसाद जी की भाषा की ये विशेषतायें है - (1) वह प्रवाहमयी है। (2) वह पत्रों की मनोदशा को प्रकट करनेवाली है। (3) उसमें मार्मिक उक्तियों का संयोजन है। (4) अभीष्ट भावों को प्रकट करने में सक्षम है। (5) तत्सम शब्दावली का अधिक प्रयोग किया गया है।

            विश्वम्भर मानव के शब्दों में प्रसाद की भाषा पर दुरूहता का आरोप न करके अनुपयुक्तता का आक्षेप होना चाहिये। 'स्कन्दगुप्त' नाटक में यत्र- तत्र सूक्तियों का प्रयोग भी किया गया है। 

     देखिये --

        * समय मनुष्य और स्त्री की गेंद लेकर दोनों हाथ से खेलता है। पुल्लिंग और स्त्रीलिंग की समष्टि अभिव्यक्ति की कुंजी है।

       * पवित्रता की माप है मलिनता, सुख का आलोचक दुख है। पुण्य की कसौटी पाप है।

       * धनवानों के हाथ में एक ही माप है। वह विद्या, सौंदर्य, बल, पवित्रता, और तो क्या हृदय भी उसीसे मापते हैं। वह माप है उनका - ऐश्वर्या

       * कष्ट हृदय की कसौटी है, तपस्या अग्नि है।

      5 . देश-काल तथा वातावरण :

         'स्कन्दगुप्त' नाटक ऐतिहासिक नाटक है। इस कारण उसमें स्कन्दगुप्त कालीन आर्यावर्त की परिस्थितियों का चित्रण किया गया है। 

          अ) राजनीतिक परिस्थिति : कुमारगुप्त का शासन काल था। वे विलासमय जीवन बिताते थे। राज्य कार्य को सुचारु रूप से निर्वाह नहीं करते थे। उनकी छोटी रानी अनंतदेवी अपने पुत्र पुरगुप्त को सिंहासन पर बिठाना चाहती थी। वह भटार्क की सहायता से अपने पति का वध कराने की ताक में थी। युवराज स्कन्दगुप्त अंतःपुर के कलह को देखकर अपने अधिकारों के प्रति उदासीन रहता था। मालव पति भी कौटुम्बिक आपत्तियों में फँस गया था। म्लेच्छ वाहिनी से सौराष्ट्र पादाक्रांत हो चला था। पश्चिमी मालव भी सुरक्षित न था। गुप्त साम्राज्य पर हूणों के आक्रमण हो रहे थे। इस कारण स्कन्दगुप्त के काल में राजनीतिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी थी|

        आ) धार्मिक संघर्ष : गुप्त राजा ब्राह्मण धर्म के समर्थक थे। वे धर्म-सहिष्णुता के लिए प्रसिद्ध थे। वे अन्य धर्मों से द्वेष नहीं करते थे। फिर भी बौद्ध ब्राह्मण धर्म से जलते थे, क्यों कि ब्राह्मण धर्म की खूब उन्नति हो रही थी और बौद्ध धर्म का पतन चरमसीमा को पहुँच चुका था। इसलिए बौद्ध और ब्राह्मणों के बीच संघर्ष चलता था। बौद्ध कापालिक अपने धर्म के प्रचार केलिए हिंसा का आश्रय लेने में भी संकोच नहीं करते। इतना ही नहीं, वे मंत्र - तंत्र का भी आश्रय लेते थे।

        इ) आर्थिक स्थिति : युद्ध के वातावरण के कारण देश की आर्थिक परिस्थिति अच्छी नहीं थी। व्यापारी अपने धन को रत्नगरहों में छिपाकर रखते थे। वे आवश्यकता पड़ने पर अपना धन राजाओं को देते थे। राजाओं के पास सेना के संगठन केलिए आवश्यक धन भी नहीं रहता था। युद्धमें कई लोग मारे जाते थे। इस कारण बहुत से बच्चे अनाथ हो जाते थे। उन्हें खाने के लिए आहार और पहनने केलिए कपड़ा भी नहीं मिलता था। पर्णदत्त जैसे देश भक्त भीख माँग-माँगकर उनका पालन-पोषण करते थे।

        ई) सामाजिक परिस्थिति : समाज में वर्ण-व्यवस्था का प्रचलन था। क्षत्रिय तथा वैश्यों के बीच अच्छे सम्बन्ध थे। नारियों की परिस्थिति अच्छी थी। राज परिवार के लोग ही नहीं, बौद्ध कापालिक भी शराब पीते थे। क्षत्रिय नारियाँ दुर्ग की रक्षा का भार भी लेती थीं।

        ड) सांस्कृतिक स्थिति : युद्ध के वातावरण के कारण देश में कलाओं के लिए कम प्रोत्साहन मिलता था। किन्तु राज महलों में नृत्य-गीत का आयोजन किया जाता था।

        6. रस-सृष्टि : 'स्कन्दगुप्त नाटक में युद्धों की प्रधानता है। एक स्कन्दगुप्त बड़ा वीर है। उसमें वीरोचित सभी गुण विद्यमान आदि से अंत तक उसका जीवन संघर्ष में बीतता है इसलिए टक का प्रधान रस वीर है।

          स्कन्दगुप्त वीर ही नहीं, दार्शनिक भी है। युद्ध लड़-लड़कर समें युद्धों के प्रति उदासीनता भी बढ़ती है। इतना ही नहीं, वह में विजय पाने पर भी व्यक्तिगत जीवन में असफल होता अंत में उसका जीवन-संघर्ष शांत होता है। अतएव इस नाटक वीर रस के बाद शांत रस की प्रधानता है।

        7. उद्देश्य : प्रसाद जी ने स्वयं 'विशाखा' की भूमिका में पनी रचनाओं के उद्देश्य को बताते हुए लिखा है मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अश में से उन प्रकांड घटनाओं दर्शन कराने की है, जिन्होंने कि हमारी वर्तमान स्थिति  को बनाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है।" यही 'स्कन्दगुप्त नाटक का भी उद्देश्य है।

          'स्कन्दगुप्त' नाटक की कथावस्तु को देखने से यह बात स्पष्ट होती है कि देश के छोटे-छोटे राज्य मिलकर एक होने से ही बाहरी शत्रुओं का सामना करना आसान हो जाता। अंतःकलह देश की शक्ति को छिन्न-भिन्न कर देता है। इसलिए नेता को अंतः कलह को दबाने में साहस और दूरदर्शिता से काम लेना चाहिए। प्रसाद जी इस नाटक के द्वारा यह भी बताना चाहते हैं कि आदर्श प्रेम वही है, जिसमें त्याग की भावना होती है।

        8. गीत योजना : स्कन्दगुप्त में छोटे-छोटे 16 गीत हैं।

             उनका वर्गीकरण इस प्रकार है -

        अ)   नर्तकियों   के गीत - 2

        आ)  एकांत में गाये गये गीत - 4

        इ)  ईश-प्रार्थना - 3

        ई) प्रेम का महत्व समझानेवाले गीत - 3

        उ) राष्ट्रीयता सम्बन्धी गीत - 1 

        ऊ) नेपथ्य में गाये गये गीत - 2

        ऋ) युद्ध के समय गाया गया गीत - 1

              कुछ गीतों में दार्शनिकता की छाप है। कुछ गीतों में प्रेम-वेदना, सौंदर्यासक्ति आदि भावों की व्याख्या मिलती है। कुछ गीत देश-प्रेम सम्बन्धी हैं। केवल चार गीत खटकनेवाले हैं। उनका विषय समयानुकूल नहीं कहा जा सकता। अभिनय के समय इन गीतों को हटा सकते हैं।

            उपसंहार : इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि नाटक के तत्वों के आधार पर देखने से स्कन्दगुप्त' प्रसाद जी का एक सफल ऐतिहासिक नाटक है।


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