Saturday, February 6, 2021

स्कन्दगुप्त' नाटक की संक्षिप्त कथावस्तु और उसके विस्तार की समीक्षा

 

           'स्कन्दगुप्त' नाटक की संक्षिप्त कथावस्तु और 

                उसके विस्तार की समीक्षा 

          कथावस्तु :

            उज्जयनी में गुप्त साम्राज्य के स्कंधावार में युवराज स्कन्दगुप्त मनुष्य की अधिकार-लिप्सा की निस्सारता का विचार करता रहता है। वह मगध के महानायक पर्णदत्त से पूछता है "अधिकार किसलिए?" पर्णदत्त उसे समझाता है- "त्रस्त प्रजा की रक्षा केलिए. सतीत्व के सम्मान केलिए, देवता, ब्राह्मण और गौ की मर्यादा में विश्वास केलिए आपको अपने अधिकारों का उपयोग करना होगा।" इसी समय मालव राजा बन्धुवर्मा का दूत वहाँ आ पहुँचता है। मालव पर विदेशियों का आक्रमण हो गया था। बन्धुवर्मा ने गुप्त सम्राट की सहायता माँगी थी। मालवऔर मगध के बीच जो सन्धि थी, उसके अनुसार मालव की स करना गुप्त सम्राट का कर्तव्य था। किन्तु उस समय गुप्त सेना पुष्यमित्रों के साथ युद्ध कर रही थी। फिर भी स्कन्दगुप्त बन्धुवर्मा के दूत से कहता है- "केवल संधि-नियम से हम लोग बाध्य नहीं हैं, किन्तु शरणागत रक्षा भी क्षत्रिय का धर्म है।" इसके बाद स्कन्दगुप्त मालव की रक्षा केलिए चला जाता है।

            मगध सम्राट् कुमारगुप्त कुसुमपुर में अपनी ढलती उम्र में अपने उत्तरदायित्व से विमुख हो गया है। भोग-विलास ही उसका जीवन-लक्ष्य बन गया है। उसकी दूसरी पत्नी अनंतदेवी अपने सौंदर्य एवं यौवन के प्रभाव से सम्राट को अपने वश में कर चुकी है। वह अपने पुत्र पुरगुप्त को साम्राज्य का उत्तराधिकारी बनाना चाहती है। वह अपने लक्ष्य की पूर्ति केलिए भटार्क और बौद्ध कापालिक प्रपंचबुद्धि को साधन बनाती है। वह भटार्क को साम्राज्य का महाबलाधिकृत बनाने का प्रलोभन देती है।

            प्रपंचबुद्धि अनंतदेवी को आदेश देता है कि भाद्रपद की अमावस्या की रात्रि के पहले पहर में महाराज की हत्या की जाए । भटार्क सोचता है "महाराजा की हत्या होने से मेरी महत्वाकांक्षा पूरी होगी।" इसलिए महाराजा की हत्या करने का भार अपने ऊपर ले लेता है। निश्चित दिन की रात को वह यह खबर फैला देता है कि महाराज अस्वस्थ है। वह अपने विश्वसनीय नौकरों को राजमहल की रक्षा का भार सौपकर महाराज की हत्या का काम देखने राजमहल के भीतर चला जाता है। थोड़ी देर बाद वह पुरगुप्त के साथ बाहर आता है। महाराज को देख लिए आये हुए मंत्री, महाप्रतिधर, दंडनायक आदि लोगों को पिह सूचना मिलती है कि महाराज का स्वर्गवास हो चुका है और उन्होंने ही पुरगुप्त को उत्तराधिकारी बनाया है। 

           नगर प्रांत में विदेशी हूणों के अत्याचार बढ़ते हैं। सम्राट कुमारगुप्त के भाई गोविंदगुप्त हूणों से प्रजा की रक्षा करते हैं। इसी समय बन्धुवर्मा हूणों का सामना करने केलिए निकलता है। अन्तःपुर में बन्धुवर्मा की पत्नी जयमाला, उसकी बहन देवसेना धनकुबेर की कन्या विजया आदि रह जाती हैं। दुर्गे की रक्षा का भार बन्धुवर्मा का भाई भीमव्मा लेता है। किन्तु वह किले की रक्षा नहीं कर सकता। शत्रु-सेना किले में प्रवेश करने लगती है। इतने में स्कंदगुप्त वहाँ आ पहुँचता है। वह शत्रु-संहार करके अंतःपुर के लोगों की रक्षा करता है। उसी समय पहली बार स्कन्दगुप्त की दृष्टि विजया पर पड़ती है। वह उसके सौंदर्य की ओर आकर्षित होता है। विजया भी उसकी सुंदर मूर्ति को देखकर मुग्ध हो जाती है।

             मालव में शिप्रा नदी तट के कुंज में देवसेना तथा विजया वार्तालाप कर रही हैं। विजया देवसेना को बताती है कि वह स्कन्दगुप्त की ओर मुग्ध हो गयी है। देवसेना भी उसकी ओर आकृष्ट हो गयी थी। किन्तु वह अपने मन की बात नहीं प्रकट करती। वह विजया के मार्ग में अवरोध बनना नहीं चाहती।

            स्कन्दगुप्त अपने मित्र चक्रपालित से कहता है - "मैं झगड़ा करना नहीं चाहता। मुझे सिंहासन नहीं चाहिए। पुरगुप्त को रहने दो। मेरा अकेला जीवन है।" विजया ये बातें सुन लेती है। वह स्कन्दगुप्त के सिंहासन के प्रति उदासीनता को देखकर उससे विमुख हो जाती है। उसका मन चक्रपालित की ओर मँडराने लगता है। वह देवसेना से कहती है - "चक्रपालित क्या पुरुष नहीं है - वीर हृदय है। प्रशस्त वक्ष हैं, उदार मुख मंडल है।" स्कन्दगुप्त कुसुमपुर का समाचार पाकर तुरन्त राजधानी को प्रस्थान करता है।

कुसुमपुर में प्रपंचबुद्धि भटार्क को सलाह देता है- "महादेवी देवकी के कारण राजधानी में विद्रोह की संभावना है, उन्हें संसार से हटाना होगा।" भटार्क वह काम शर्वनाग को सौपता है। पहले शर्वनाग निरीह देवकी का वध करना नहीं चाहता। किन्तु धन और पद के लालच में आकर वह उसका वध करने केलिए तैयार होता। यह विषय जानकर विदूषक, मुद्गल तथा धातुसेन महादेवी की रक्षा में लग जाते हैं । मदिरा के नशे में शर्वनाग महादेवी के वध करने की बात अपनी पत्नी रामा से कहता है। रामा अपने पति को वह काम न करने की सलाह देती है; किन्तु शर्वनाग उसकी बात नहीं मानता। तब रामा महादेवी के पास जाकर सारी बातें बताती है। शर्वनाग पहले रामा को ही मारने का निश्चय कर लेता है। तभी मुद्गल और धातुसेन के साथ स्कन्दगुप्त वहाँ आ पहुँचता है। स्कन्दगुप्त शर्वनाग को रोकता है। वह द्वन्द्वं-युद्ध में भटार्क को घायल कर देता है। अनंतदेवी क्षमा की याचना करती है। स्कन्दगुप्त उसे पुरगुप्त के साथ कुसुमपुर में रहने की आज्ञा देता है।

             बन्धुवर्मा सोचता है कि छोटे-छोटे राज्य हों तो विदेशी शत्रुओं का सामना करना मुश्किल होगा वह स्कन्दगुप्त से रक्षित मालव राज्य को स्कन्दगुप्त को देना चाहता है। जयमाला उसके प्रस्ताव का विरोध करती है। वह कहती है - "समष्टि में भी व्यष्टि रहता है। व्यक्तियों से ही जाति बनती है। विश्व-प्रेम, सर्वभूत-हित-कामना परम धर्म है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि अपने पर प्रेम न हो। इस अपने ने क्या अन्याय किया है जो इसका बहिष्कार करे।" किन्तु भीमव्मा और देवसेना के समझाने पर वह बन्धुवर्मा के प्रस्ताव को स्वीकार करती है। वह अपने पति से क्षमा-यांचना करती है ।

           उज्जयनी में स्कन्दगुप्त के राजतिलक की तैयारियाँ होने । लगती है। विजया अपने मन में सोचती है "बन्धुवर्मा ने मालवराज्य स्कन्दगुप्त को समर्पित किया है। इसलिए वह देवसेना को छोड़कर किसी और से विवाह नहीं करेगा।" ऐसा सोचकर । वह भटार्क की ओर आकृष्ट होती है।

          बन्धुवर्मा और जयमाला स्कन्दगुप्त को सिंहासन पर बिठाते है। गोविंदगुप्त महाबलाधिकृत और शर्वनाग अंतर्वेदी का विषयपति बनाया जाता है। स्कन्दगुप्त देवकी के अनुरोध पर भटार्क की क्षमा करता है। विजया भरी-सभा में घोषित करती है "मैं ने भटार्क को वरण किया है।" विद्रोही भटार्क के साथ विजया को देखकर स्कन्दगुप्त चिन्ता प्रकट करते हुए कहता है- "परन्तु विजया तुमने यह क्या किया?"

          द्वेष और प्रतिहिंसा से भरी विजया देवसेना को अपना शत्रु समझती है। वह उससे बदला लेना चाहती है। वह प्रपंचबुद्धि की सहायता माँगती है। प्रपंचबुद्धि उग्रतारा की साधना केलिए राज-बलि की ताक में था। इसलिए वह विजया से देवसेना को श्मशान में ले आने केलिए कहता है। विजया दूसरे दिन देवसेना को बातों में भुलाकर प्रपंचबुद्धि के पास ले आती है और चुपके से खिसक जाती है। जब प्रपंचबुद्धि देवसेना की बलि देना चाहता है तो स्कन्दगुप्त और हैं। मातृगुप्त वहाँ आते हैं और देवसेना की रक्षा करते हैं।

    भटार्क विजया के साथ चला जाता है। अनंतदेवी की प्रेरणा से वह पुरगुप्त की राम्राराट् बनान का षड्यंत्र रचता। वह हूण की सहायता माँगता है। इतना ही नहीं, वह बौद्ध श्रमणों की सहायता से देश में अशांति फैलाने की चेष्टा करता है।

    हूणों को भारतीय सीमा से दूर हटाने का निश्चय करके स्कन्दगुप्त अपने सभी सामंतों को निमंत्रण देता है। शकों पर विजय प्राप्त करके उसी युद्ध में गोविंदगुप्त प्राण छोड़ता है। बंधुवर्मा गांधार की घाटी में युद्ध करते-करते प्राण त्याग देता है। भटार्क कुभा प्रांत में जान-बूझकर मगध सेना को आगे बढ़ने नहीं देता ताकि वहाँ हूणों को जमा होने का अवकाश मिले। स्कन्दगुप्त वहाँ आकर सारी स्थिति को समझ लेता है। वह भटार्क से कहता है - "स्मरण रखना-कृतघ्न और नीचों की श्रेणी में तुम्हारा नाम पहले रहेगा।" भटार्क स्कंदगुप्त को विश्वास दिलाता है। किन्तु वह हूणों की सहायता करने केलिए कुभा नदी का बाँध तुड़वाता है। सेना समेत नदी को पार करते समय स्कन्दगुप्त उसमें बह जाता है।

        विजया पुरगुप्त के सम्राट बनने का स्वप्न देखती है। वह पुरगुप्त को मदिरा का पात्र भर भर कर पिलाती तथा उसका मन बहलाती रहती है। वह देखती है कि अनंतदेवी भटार्क को अपने चंगुल में रखने का प्रयत्न कर रही है। वह सब ओर से निराश होकर विक्षिप्त-सी हो जाती है। वह शर्वनाग की सलाह पर देश-सेवा करना चाहती है।

        भटार्क के मुँह से स्कन्दगुप्त की मृत्यु की खबर सुनकर देवकी अपने प्राण छोड़ बैठती है। कमला अपने बेटे भटार्क को गाली देती है तो भटार्क उससे क्षमा मांगता है - "माँ, क्षमा करो। आज मैं ने शस्त्र-त्याग किया।"

         सारा मगध साम्राज्य हूणों से पादाक्रांत हो जाता है। सारे । राज्य में अराजकता फैल जाती है। बौद्ध तथा ब्राह्मण धर्म के नाम पर संघर्ष करने लगते है। धातुसेन और उसका मित्र बौद्ध श्रमण प्रख्यातकीर्ति इन संघर्षों को शान्त करके सच्चे धर्म का प्रचार करने लगते।

          स्कन्दगुप्त कुभा नदी के प्रवाह से किसी प्रकार बचकर कमला की कुटी के पास आता है। वह देश की परिस्थिति पर दुःख प्रकट करता है - "मुझे दुःखों से भय नहीं है। परंतु आर्य साम्राज्य का नाश इन्ही आँखों से देखना था। हृदय काँप उठता है। मुझे अधिकार की आवश्यकता नहीं। गुप्त-साम्राज्य हरा भरा रहे। कोई भी इसका रक्षक हो।" कमला उसे धैर्य देती है "उठो स्कंदा आर्यावर्त तुम्हारे साथ होगा। आसुरी वृत्तियों का नाश करो.. सोने वालों को जगाओ।" कमला से अपनी माँ की मृत्यु की खबर सुनकर स्कन्दगुप्त बेहोश हो जाता है।

           देवकी की समाधि के पास स्कन्दगुप्त देवसेना को देखता है। उसे पता चलता है कि देवसेना पर्णदत्त की कुटी में रहती है। उसे मालूम होता है कि देवसेना गा-गाकर भीख माँगकर उससे प्राप्त धन से अनाथ बालकों का पालन पोषण कर रही है। वह बन्धुवर्मा की आकांक्षा प्रकट करके उससे उऋण होने का प्रस्ताव रखता है। देवसेना उसे स्वीकार न करते हुए कहती है "क्षमा हो सम्राट! उस समय आप विजया का स्वप्न देखते थे, अब प्रतिदान लेकर मैं उस महत्व को कलंकित न करूंगी। मैं आजीवन दासी बनी रहूँगी; परन्तु आपके प्राप्य में भाग न लूँगी। इस हृदय में स्कंदगुप्त को छोड़कर न तो कोई दूसरा आया, न वह जाएगा! नाथा में आ की ही हूँ, मैं ने अपने को दे दिया है. अब उसके बदले कुछ लिया नहीं चाहती।"

          विजया स्कन्दगुप्त से मिलकर अपनी इच्छा प्रकट करती है। वह उसे अपने रत्न-गृह का प्रलोभन देती है। किन्तु स्कन्दगुप्त कहता है "साम्राज्य केलिए मैं अपने को बेच नहीं सकता वह उसके काम-भाव को भड़काने का प्रयत्न करती। स्कन्दगुप्त उसे पिशाचिनी कहता है। उसी समय भटार्क भी वहाँ आ पहुँचता है। वह उसे 'दुश्चरित्रे' कहकर अपमान करता है। तब विजया अपमान न सहकर आत्म-हत्या कर लेती है।

         स्कंदगुप्त के आदेश पर भटार्क विजया के शव को गाड़ने के लिए भूमि खोदता है। वहाँ रत्न-गृह मिलता है। भटार्क उस न से सेना को संगठित करता है। स्कन्दगुप्त उस सेना से शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है। हूण सेनापति बन्दी हो जाता है। परन्तु सिन्धु नदी के इस पार न आने की प्रतिज्ञा लेकर स्कन्दगुप्त उसे छोड़ देता है। इस प्रकार वह राज्य को पुनः स्थापित करता है। पुरगुप्त को सिंहासन देता है। राज्य की रक्षा का भार भटा्क को सौपता है।

         स्कन्दगुप्त शेष जीवन एक दूसरे को देखते हुए बिताने की इच्छा देवसेना से प्रकट करता है। किन्तु देवसेना उसकी क्षमा माँगते हुए कहती है- "सब क्षणिक सुखों का अंत है। मेरे इस जीवन के देवता! और उस जीवन के प्राप्य! क्षमा। 


       " कथा के विकास की समीक्षा :

           प्रधान कार्य

            अनंतदेवी और भटार्क के कुचक्र से गुप्त-साम्राज्य की शक्ति छिन्न-भिन्न होती है। विदेशी शत्रु हूणों के अत्याचारों से जनता त्राहि-त्राहि मचाती है। देश में अशांति और अराजकता फैल जाती है। धार्मिक संघर्ष चलता है। इन आंतरिक और बाह्य उपद्रवों को शांत करके आर्य- साम्राज्य का उदार करना और उसकी नींव सुदृढ़ करना 'स्कन्दगुप्त नाटक का प्रधान कार्य है। इस कार्य को पूरा करता है नायक स्कन्दगुप्त। 

          कथा का विभाजन

            प्रसाद जा ने नाटक की सारी कथा पाँच अंकों में विभाजित की है। एक-एक अंक में कथा-विकास की एक ही अवस्था का परिचय मिलता है।

           आरम्भ

           पहले अंक में कथा का साधारण परिचय मिलता है। इसमें प्रधान कार्य की ओर संकेत है। आर्य-साम्राज्य की छिन्न-भिन्न स्थिति बतायी गयी है। पुष्यमित्रों, शकों और हुणों के युद्धों की सूचना दी गयी है। इन परिस्थितियों में राज्य की शक्ति को दृढ़ बनाने की आवश्यकता बतायी गयी है। अंतःपुर का कलह, शत्रुओं के आक्रमण, स्कन्दगुप्त की अपने अधिकारों के प्रति उदासीनता नाटक के कार्य की सिद्धि में बाधा रूप है।

          कथा का विकास : 

            दूसरे अंक में स्कंदगुप्त कार्य की सिद्धि केलिए प्रयत्न करता है। अनंतदेवी और भटार्क अपनी योजना को सफल बनाने की दिशा में आगे बढ़ते हैं इससे संघर्ष बढ़ता है; किन्तु परिणाम स्पष्ट नहीं होता। स्कंदगुप्त आंतरिक विद्रोहियों के प्रयत्नों को असफल बनाता है। किन्तु अभी वह बाहरी शत्रुओं से सामना नहीं करता। प्रथम अंक में स्कन्दगुप्त को पाठक अपने अधिकारों के प्रति उदासीन पाते हैं। दूसरे अंक में उसका मन विजया के व्यवहार से टूट जाता है। इससे पाठक उसके भावी कार्यक्रम का अनुमान नहीं लगा सकते।

          चरमसीमा

            तीसरे अंक में नायक पक्ष प्रधान कार्य को पूरा करने में सारी शक्ति लगा देता है। विरोधियों की शक्ति छिन्न-भिन्न होने लगती है। इससे नायक पक्ष की विजय की आशा उत्पन्न होती है। अंक के अन्त में स्कन्दगुप्त और उसके अनुयायियों को कुभा के जल में बहते देख आगे की कथा जानने की उत्सुकता पाठकों में उत्पन्न होती है।

            उतार :

           चौथे अंक में नायक स्कन्दगुप्त शक्तिहीन और निराश्रित-सा है। उसके साथियों का पता नहीं। हूणों की शक्ति बढ़ गयी है। किन्तु अनंतदेवी और विजया के आपस में लड़ने और भटार्क के होश में आने से पाठक यह अनुमान लगाते हैं कि यदि स्कन्दगुप्त फिर प्रयत्न करेगा तो उसे अवश्य विजय मिलेगी।

          समाप्ति :

          पाँचवें अंक में भटार्क के हटने से अंतःकलह समाप्त होता है। इससे नायक को फल की प्राप्ति होती है।


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