Sunday, February 7, 2021

स्कन्दगुप्त नाटक में भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्य शैलियों का समन्वय हुआ है।

 

              

         स्कन्दगुप्त नाटक में भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्य शैलियों का समन्वय हुआ है। 


                जीवन परिवर्तनशील है। इस परिवर्तनशील जीवन के साथ-साथ साहित्य की मान्यताएँ भी बदलती रहती हैं। इन साहित्यक मान्यताओं के परिवर्तन के साथ साहित्य की कलागत विशेषताओं में भी परिवर्तन होता है।

             प्रसाद जी के पूर्व नाटक अवश्य लिखे जा चुके थे, किन्तु उनमें अधिकांश अनुवाद मात्र थे; कुछ मौलिक थे। यद्यपि उन मौलिक कृतियों में पाश्चात्य तथा बंगला साहित्य की नाट्य शैलियों का आभास मिलता है, तथापि वे भारतीय तथा फ़ारसी नाट्यशैलियों के अधिक निकट थे। किन्तु जब प्रसाद जी नाटक लिखने लगे तब उन्होंने इन दोनों शैलियों का समन्वय करने की चेष्टा की। 

             भारतीय नाट्य सिद्धान्त : 

              भारतीय नाट्य के तीन तत्त्व होते हैं।

             (1) वस्तु (2) नेता और (3) रस।

           1. वस्तु : नाटक के स्थूल कथानक को वस्तु कहते हैं। नाटक की वस्तु तीन प्रकार की हो सकती है प्रख्यात, उत्पाद्य और मिश्र। मुख्यता की दृष्टि से वस्तु के दो भे हैं 

          1) आधिकारिक तथा 2. प्रासंगिक। 

        कथावस्तु दृश्य भी हो सकती और सूच्य भी। स्वगत, विष्कंभक, प्रवेशक, अंतमुख और अंकावतार ये पाँच भेद सूच्य कथा के अन्तर्गत आते हैं।

नाटकीय वस्तु लक्ष्य की गतिविधि के अनुसार पाँच भागों में विभक्त होती है - बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य नायक के द्वारा प्रवर्तित कार्य के विकास को पाँच भागों में विभक्त कर सकते है- प्रारम्भ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम। कथावस्तु पाँच संधियों से समन्वित हो।

        2. नायक :  नायक प्रख्यात वंश का धीरोदात्त, वीर्यवान गुणवान, प्रतापवान, विनीत, मधुर, त्यागी, दक्ष, प्रियवादी, प्रवृत्ति मार्गी, वाणी निपुण, स्थिर स्वभाववाला और युवा हो।

      3. नायिका : नायिका को भी उदात्त गुण सम्पन्न होना चाहिए।

      4. नायक के सहायक पात्र : पीठमर्द, विदूषक, विट आदि नायक के सहायक पात्र होते हैं।

      5. रस : नाटक का प्राणभूत तत्त्व रस माना जाता है। अतः नाटक में रस का सुंदर परिपाक होना चाहिए। रस परिपाक में यदि विघ्न पड़ता है तो उसे श्रेष्ठ नाटक नहीं कह सकते। इसी कारण नायक का दोष-दर्शन नहीं किया जा सकता।

      स्कन्दगुप्त नाटक में भारतीय नाट्य शैली : 'स्कन्दगुप्त नाटक की कथावस्तु ऐतिहासिक होने के कारण प्रख्यात है। इसमें आधिकारिक कथावस्तु के साथ-साथ प्रासंगिक कथायें भी हैं। स्कन्दगुप्त की कथा मुख्य है। अनंतदेवी और प्रपंचबुद्धि, बन्धुवर्मा और देवसेना तथा भटार्क और विजया की कथाएँ प्रासंगिक हैं। 

       इस नाटक में स्वगत कथनों का भी आधिक्य है। यद्यपि इसमें विष्कम्भक, प्रवेशक, अंतमुख, अंकावतार शब्दों का प्रयोग किया गया है तथापि उनकी स्थिति नाटक में पायी जाती समें स्वगत कथनों का आधिक्य है। इसमें अर्थप्रकृतियों एवं यों की ऐसी अच्छी संगति बैठ गयी है जैसी प्रायः प्राचीन को में मिलती है। नाटक का नायक स्कन्दगुप्त और नायिका देवसेना धीरोदात्त से समन्वित हैं। इसमें 'मुद्गल' विदूषक है। इसमें वीर रस का प्राधान्य है और तत्संबंधी सभी अंगों सम्यक् स्थापना हुई है। इस तरह 'स्कन्दगुप्त' नाटक में भारतीय रूप सिद्धान्तों का पूरा योग मिलता है।

      पाश्चात्य नाट्य सिद्धान्त : पाश्चात्य नाट्यकला का उद्गम नान में हुआ है। पश्चिमी नाट्यशास्त्र की सबसे पुरानी पुस्तक रस्तू की 'पोइटिक्स' है। अरस्तू ने नाटक छः तत्त्व माने कथावस्तु, चरित्र, दृश्य, भाषा एवं गीत। इन तत्त्वों में उसने थावस्तु को विशेष महत्व दिया है। उन्होंने वस्तु- विन्यास के र अंग माने हैं - 

    (1) प्रस्तावना (2) उपसंहार (3) अंक और (4) ध्रुवक

      उन्होंने संघर्ष, सक्रियता और समष्टि प्रभाव और कलन-त्रय को महत्व दिया है।

      'स्कन्दगुप्त' नाटक में पाश्चात्य नाट्य-प्रणाली : स्कन्दगुप्त टक में संघर्ष का सुंदर वर्णन मिलता है। नाटक का आरम्भ हिय-संघर्ष से होता है। एक के बाद दूसरा संघर्ष आता है। किन्दगुप्त को पुष्यमित्रों से युद्ध करना पड़ता है। फिर म्लेच्छों पश्चिमी मालव की सुरक्षा केलिए उसे संघर्ष करना पड़ता। ना ही नहीं, अनंतदेवी भटार्क और शवनार्ग की सहायता से विकी की हत्या करने का षड्यंत्र रचती है तो स्कन्दगुप्त उसका भी भंंग कर देता है। नाटक में ब्राह्मणों और बौद्धों का धार्मिक फिर भी चित्रित है। धातुसेन और प्रख्यातकीर्ति धार्मिक संघर्ष काअंत करने में सफल होते हैं। नाटक के अन्त में फल-प्राप्ति भी होती है। स्कन्दगुप्त छिन्न-भिन्न राज्य की व्यवस्था में सुव्यवस्था लाने में और शत्रुओं को देश के बाहर भेजने में सफल होता है। वह अपने सिंहासन को पुरगुप्त को सौंपकर अंतःपर के अतःकलह को भी शांत करता है। संघर्ष का चित्रण पाश्चात्य नाट्य प्रणाली के अनुकूल है।

         प्रासंगिक कथाओं के योग से कथा-विन्यास में जटिलता भी आ गयी है और कथा का वेग भी बढ़ गया है। यह भारतीय तथा पाश्चात्य नाट्य-सिद्धांत दोनों के अनुकूल है।

         नाटक में भारतीय नियताप्ति और पाश्चात्य निगति का मैल भी कराया गया है। नाटक में अंत तक कथावस्तु फलागम तक पहुँच जाती है, किन्तु जब तक वांछित स्थान तक नहीं पहुँच जाती, उसकी गति के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। देवकी भटार्क से पूछती है कि स्कन्दगुप्त कहाँ है? तब भटार्क कहता है- "क्या कहूँ-कुभा की क्षुब्ध लहरों से पूछो-हिमवान की गल जानेवाली बर्फ से पूछो कि वह कहाँ है- मैं नहीं " देवकी सोचती है कि स्कन्ध मर गया है और तुरंत प्राण छोड़ देती है। इस समय देश के भविष्य के सम्बन्ध में हमारी आकांक्षा और औत्सुक्य बढ़ जाता है। भटार्क के पश्चात्ताप और वेष बदले हुए स्कन्दगुप्त के दिखाई पड़ने से फल-प्राप्ति की सम्भावना को निश्चय प्रदान कर देता है। इस तरह पाश्चात्य नाटकों की भाँति कथान वक्रगति से विकसित होता है।

         "स्कन्दगुप्त' नाटक दुःखान्त है, जो पाश्चात्य सिद्धान्त के अनुकूल है। भारतीय नाट्य सिद्धांत के अनुसार नायक का दोष-दर्शन नहीं कराया जाता। किन्तु स्कन्दगुप्त में महत्वाकांक्षा का अभाव है। उसमें अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीनता भी दिखाई  पड़ती है। इस तरह नायक में दोष होना पाश्चात्य सिद्धान्त के अनुकूल है। प्रसाद जी ने नृत्य तथा गीतों की योजना भी की है। किन्तु वह भारतीय नाट्य सिद्धान्त के निकट ही अधिक है।

          संक्षेप में प्रसाद जी ने 'स्कन्दगुप्त' में भारतीय नाट्य-पद्धति की आत्मा की रक्षा की है। साथ ही साथ उसको पाश्चात्य नवीन उपकरणों से सजाया है।


            ****************************



No comments:

Post a Comment

thaks for visiting my website

एकांकी

Correspondence Course Examination Result - 2024

  Correspondence Course  Examination Result - 2024 Click 👇 here  RESULTS