रंगमंच की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए स्कन्दगुप्त नाटक के गुण-दोष
(अथवा)
अभिनेयता की दृष्टि से 'स्कन्दगुप्त नाटक
नाटक दृश्य-काव्य अधिक तथा श्रव्य-काव्य कम। इसी कारण नाटक प्राचीनकाल से रंगमंच की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही लिखे जा रहे हैं। किसी नाटक की अच्छी प्रशंसा तभी की जा सकती जब हम उसका बार-बार अभिनय देखते हैं और उसका बार-बार पठन करते हैं। जोसेफ टी. शिपलै ने भी लिखा है "Probably for best appreciation, a play should be seen, read, seen again and re-read".
सफल अभिनेय नाटक की विशेषतायें :
सफल अभिनेय नाटक की ये विशेषतायें होनी चाहिए।
(1) नाटक का आकार इतना हो जो तीन-चार घंटों में अभिनीत हो सके।
(2) दृश्यों और अंकों के विभाजन में संतुलन हो।
(3) मार्मिक और भावपूर्ण स्थलों की योजना हो।
(4) क्रिया-व्यापार का प्रवेग और प्रवाह हो।
(5) अनुभाव तथा सात्विक भावों का निदर्शन हो।
(6) सरल, संक्षिप्त तथा स्वाभाविक कथोपकथनों की योजना हो।
(7) नृत्य और गीतों का सौदर्य हो।
(8) सुंदर तथा आकर्षक दृश्यों की योजना हो।
(9) वर्ज्य दृश्यों का अप्रदर्शन हो।
(10) उदात्त भाव हो।
(11) प्रभावान्वति हो।
(12) सरल, रोचक और प्रभावपूर्ण भाषा हो।
इन लक्षणों के आधार पर अब हम 'स्कन्दगुप्त की आलोचना करेंगे।
1) स्कन्दगुप्त नाटक का आकार बड़ा नहीं है। उसमें केवल पाँच अंक है। फिर भी साहित्यिक भाषा के कारण यह तीन-चार घंटों में अभिनीत नहीं हो सकता।
2) इसमें दृश्यों की संख्या बहुत अधिक नहीं है। इन दृश्यों की योजना में सन्तुलन भी है। प्रथम तथा दूसरे अंक में सात-सात, तीसरे अंक में छः, चौथे अंक में सात और पाँचवे अंक में छः दृश्य है।
3) प्रसाद जी अत्यन्त भावुक कवि थे। इसलिए 'स्कन्दगुप्त में अनेक भावुक और मार्मिक स्थल मिलते हैं।
4) इस नाटक में क्रिया-व्यापार का वेग समान रूप से व्याप्त दिखाई पड़ता है।
5) प्रसाद जी ने अनुभावों तथा सात्विक भावों का वर्णन किया है। यथा - चक्रपालित का प्रवेश (पू. 49), हँसते हुए (पृ. 53), कुमारदास की ओर क्रुद्ध होकर देखती है। (पृ. 55)
6) कथोपकथन सरल, संक्षिप्त, कथा-विकास में सहायक और चरित्र-चित्रण द्योतक हैं। किन्तु कुछ कथोपकथन कवित्वमयी भाषा, भावुकता तथा दार्शनिकता से भरे हुए हैं। इससे नाटक के अभिनय में कुछ कठिनता उत्पन्न होती है।
7) नृत्य और गीत अभिनय के प्राणतत्व हैं। नृत्यों और गीतों में दर्शकों के मन को आकृष्ट करने की बड़ी क्षमता होती है। इसकी योजना दर्शकों के मन को ऊबने नहीं देती। इसी कारण इसकी योजना से कई दृष्टियों से दोषपूर्ण नाटक भी अभिनय की दृष्टि से सफल हो सकते हैं। अतः नाटकों में इसकी योजना आवश्यक है। प्रसाद जी ने इन दोनों को उचित स्थान दिया है।
'स्कन्दगुप्त' में 16 गीत हैं। इन सब गीतों के आलाप में ज्यादा समय लगता है। इसलिए इनमें कुछ गीतों को निकाल कर अभिनय करेंगे तो अभिनय के समय को कम किया जा सकता।
8) घटना-क्रम को समझाने केलिए सुंदर तथा आकर्षक दृश्यों की योजना आवश्यक होती है। प्रसाद ने 'स्कन्दगुप्त' नाटक में आकर्षकपूर्ण दृश्यों की योजना की है।
9) 'स्कन्दगुप्त' नाटक में देवकी की मृत्यु रंगमंच पर दिखायी गयी है। मृत्यु का रंगमंच पर दिखाना कठिन तो नहीं है, किन्तु कोमल तथा परिष्कृत मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मृत्यु की बात आसानी से सूचित की जा सकती है। इससे लोग मृत्यु के समाचार से परिचित हो जाते हैं। साथ ही उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
10) 'स्कन्दगुप्त' में उदात्त भावों का सुंदर प्रदर्शन है। इसके अतिरिक्त वीर और श्रृंगार रस पूर्ण संवाद मिलते हैं।
11) स्कन्दगुप्त' में वस्तु के सुसंगठित विकास-क्रम के कारण विषय और व्यक्ति के प्रभाव का जो उत्कर्ष चलता है वह अन्त में जाकर ऐसा अन्वित हो जाता है कि सारा नाटक एक अखंडपूर्ण मालूम होने लगता है। यह रस-स्थिति अथवा प्रधावान्विति नाटक के प्राण रूप में दिखायी पड़ती । है। इसी प्रकार अभिनय में भी इसकी प्रधानता है। पह । नाटक की एक विशेषता है।
12) कतिपय आलोचकों का कथन है कि प्रसाद की भाषा कठिन और दार्शनिक है। अतएव जन साधारण के समझने योग्य नहीं। किन्तु वास्तविक बात यह नहीं है। उनकी भाषा भावानुकूल है। कुछ लोग यह भी आरोप लगाते हैं कि भाषा पात्रानुकूल नहीं है। विभिन्न भाषाओं का प्रयोग करने पर रस-प्राप्ति में अवरोध उत्पन्न होता है।
इस तरह हम देखते हैं कि रंगमंच की दृष्टि से 'स्कन्दगुप्त में बहुत कम दोष है। इसलिए अभिनय की दृष्टि से यह एक सफल नाटक है।
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