स्कन्दगुप्त' नाटक सुखांत है या दुखांत?
प्राचीन भारतीय नाटकों का उद्देश्य अर्थ, धर्मे या काम की प्राप्ति था। नाटक में जीवन के आदर्शों की व्याख्या होती थी। साथ ही वह सामाजिकों को आनंद भी देता था दुष्टों का दडित होना और सज्जनों का उपकार उन नाटकों का चरम लक्ष्य था। अतः प्राचीन भारतीय नाटकों में दुखांत नाटकों का अभाव है।
प्राचीन यूनान में दो तरह के नाटक लिखे जाते थे ।
(1) दुःखान्त (ट्रैजिक) और (2) सुखांत (कॉमेडी)।
साधारणतः दुःखान्त नाटक का अन्त दुःखमय होता था और सुखान्त का सुखमय। परन्तु दोनों में विशेष अन्तर यह था कि दुःखान्त में मनुष्य के जीवन की गम्भीर समस्याओं पर विचार होता था और उसकी विपत्तियों और कष्टों का विवरण दिया जाता था। सुखान्त नाटकों में हास्यास्पद और निम्न कोटि के मनुष्यों की मूर्खताओं एवं असंगत कार्यों का विवरण दिया जाता था
सोलहवीं शताब्दी में नाटक की प्राचीन रूढ़िगत सीमाएँ टूटने लगी। विभिन्न प्रकार के दुःखान्त एवं सुखान्त नाटक लिखे जाने लगे जो न सुखान्त थे, न दुःखान्ता उन्हें सुख-दुःखान्त व टरैजी-कॉमेडी) नाटक कहा करते थे।
स्कन्दगुप्त नाटक के अन्त में हम देखते हैं कि धार्मिक संघर्ष शांत होता है। स्कन्दगुप्त के विरोधियों की योजना असफल होती है। विदेशो शत्रु गुप्त साम्राज्य की सीमाओं को छोड़कर चले जाते हैं। छिन्न-भिन्न राज्य की व्यवस्था सुधरने लगती है। स्कन्दगुप्त पुरगुप्त को सिंहासन सौंपता है। इस प्रकार स्कन्दगुप्त नाटक के प्रधान कार्य में पूर्ण सिद्धि प्राप्त करता है।
इतना होने पर भी स्कन्दगुप्त सुखी नहीं दीख पड़ता। वह वृद्ध पर्णदत्त की दशा देखकर दुखी होता है। वह कहता है - "वृद्ध पर्णदत्त - तात पर्णदत्त ! तुम्हारी यह दशा? जिसके लोग से आग बरसती थी, वह जंगल की लकड़ियाँ बटोर कर आग सुलगाता है।" वह गाकर भीख माँगती देवसेना को देखकर खेद प्रकट करता है - "मालवेश कुमारी देवसेना! तुम और यह कमी समय जो चाहे करा ले। आज मैं बंधुवर्मा के आत्मा को क्या उत्तर दूंगा? जिसने निस्वार्थ भाव से सब कुछ मेरे चरणों में अर्पित कर दिया था, उससे कैसे उऋण होऊँगा? मैं यह सब देखता हूँ और जीता हूँ।"
स्कन्दगुप्त अपनी माँ की स्मृति में दुखी है। वह कहता है-
"जननी। तुम्हारी पवित्र स्मृति को प्रणाम । माँ! अंतिम बार आशीर्वाद नहीं मिला, इसी से यह कष्ट यह अपमान! माँ तुम्हारी गोद में पलकर भी तुम्हारी सेवा न कर सका - यह अपराध क्षमा करो।"
स्कन्दगुप्त के व्यक्तिगत जीवन में भी सुख नहीं मिलता। जब देवसेना स्कन्दगुप्त की और आकृष्ट होती तब वह विजया का स्वप्न देखता रहता किंतु वह विजया भटार्क का वरण करता है। सब ओर से निराश होने के बाद स्कंदगुप्त देवसेना से कहता है- "देवसेना! एकांत में किसी कानन के कोने में तुम्हें देखता हुआ, जीवन व्यतीत करूँगा। साम्राज्य की इच्छा नहीं।” परन्तु देवसेना उसके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करती।
देवसेना स्कन्दगुप्त नाटक की नायिका है। वह भी सुख नहीं है। वह न स्कन्दगुप्त से ही विवाह करती और न किसी अन्य से ही। वह अपने मन के दुःख को इस प्रकार प्रकट है - "कष्ट हृदय की कसौटी है करती - तपस्या अग्नि है- सम्राट यदि इतना भी न कर सके तो क्या ! सब क्षणिक सुखा अंत है। जिसमें सुखों का अंत न हो, इसलिए सुख करना ही न चाहिए । मेरे इस जीवन के देवता! और उस जीवन के प्राप्य क्षमा"
इन बातों में भग्न हृदयों की विवशता मिलती है। शोक की इस रेखा ने सारे नाटक को दुःखांत बना दिया है।
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