Sunday, February 7, 2021

स्कन्दगुप्त नाटक में वर्णित राष्ट्रीय भावना ।

 

        

                       स्कन्दगुप्त नाटक में वर्णित राष्ट्रीय भावना ।

              बाबू जयशंकर प्रसाद जी जिस समय रचनाएँ लिखने लगे थे, उस समय देश में स्वतंत्रता का आंदोलन चल रहा था। नेता लोग जनता में राष्ट्रीय भावना का प्रचार करते थे। लेखक भी अपनी रचनाओं के द्वारा राष्ट्रीय भावना का प्रचार करते थे। इसी प्रकार प्रसाद जी भी अपनी रचनाओं में राष्ट्रीय भावना का चित्रण करते थे। उनके राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना उनकी कविताओं की अपेक्षा नाटकों में अधिक मुखर हुई है। उन्होंने 'चन्द्रगुप्त नाटक में राष्ट्रीय भावना का जिस रूप में चित्रण किया है, उस रूप में अन्य नाटकों में नहीं किया है। फिर भी हरेक नाटक में राष्ट्रीय भावना का चित्रण किसी-न किसी रूप में मिलता है। स्कन्दगुप्त नाटक इसका अपवाद नहीं है।

         प्रसाद ने 'स्कन्दगुप्त' नाटक में कुछ आदर्श पात्रों का चित्रण किया है जो राष्ट्रीय भावना के समर्थक है। ऐसे पात्रों में पर्णदत्त, অक्तपालित, बन्धुवर्मा, देवसेना, स्कंदगुप्त आदि मुख्य है।

         पर्णदत्त मगध का महानायक था। वह बड़ा वीर था। उसने रुड़ ध्वज लेकर आर्य चन्द्रगुप्त की सेना का संचालन किया था। वह गुप्त-साम्राज्य की नासीर-सेना में, उसी गरुड़-ध्वज की छाया में पवित्र क्षात्र-धर्म का पालन करते हुए उसी के मान केलिए मर मिटना चाहता है। वह बड़ा दुखी है कि महाराजा धिराज श्री कुमार गुप्त के विलास की मात्रा बढ़ गयी है। अत:पुर में राज्य की शक्ति को छिन्न-भिन्न करने की योजना बनायी जा रही है। देश पर विदेशी शत्रुओं का आक्रमण हो रहा है। पर्णदत्त बड़ा दुखी है कि ऐसी परिस्थितियों में भी युवराज अपने अधिकारों के प्रति उदासीन है। इसलिए वह स्कन्दगुप्त को कर्त्तव्य का बोध कराते हुए कहता है- "त्रस्त प्रजा की रक्षा केलिए, सतीत्व के सम्मान के लिए, देवता, ब्राह्मण और गौ की मर्यादा में विश्वास. केलिए, आतंक से प्रकृति को आश्वासन देने केलिए-आपको अपने अधिकार का उपयोग करना होगा ।"

         देश पर विदेशी शत्रुओं के आक्रमण के कारण बहुत से सैनिक मर जाते हैं। जो सैनिक बच जाते हैं, वे अन्न केलिए तरसने लगते है। इतना ही नहीं, कई लोगों के बच्चे बच जाते है। वे अन्न के लाले बन जाते। उन्हें पहनने केलिए कपडा भी नहीं मिलता। ऐसी परिस्थिति में पर्णदत्त नागरिकों से भीख माँग-माँगकर अनाथ बच्चों का लालन-पोषण करता है।

         देश की संकटकालीन परिस्थिति को देखकर देवसेना भी गीत गाते. नाचते हुए नागरिकों से भीख मांगकर, उससे प्राप्त धन से अनाथ बच्चों का पालन-पोषण करने में पर्णदत्त की सहायता करती है। देवसना के प्रति असभ्य व्यवहार करनेवाले नागरिकों के साथ पर्णदत्त दुःख प्रकट करता है- "नीचे, दुरात्मा, विलास का नारकीय कीड़ा। बालों को संवार कर, अच्छे कपड़े पहनकर, अब भी घमंड से तना हुआ निकलता है। कुलवधुओं का अपमान सामने देखते हुए भी अकड़कर चल रहा है, अब तक विलास और नीच वासना नहीं गई।"

        पर्णदत्त का भीख माँगना अनोखा है। देखिये- "मुझे जय नहीं चाहिए-भीख चाहिये। जो दे सकता हो अपने प्राण, जो जन्मभूमि केलिए उत्सर्ग कर सकता हो जीवन वैसे वीर चाहिये कोई देगा भीख में"

        चक्रपालित पर्णदत्त का पुत्र है। वह देश की रक्षा को सर्वोपरि मानता है। वह कूर हूणों का सामना करने केलिए सदा प्रस्तुत रहता है। वह स्कन्दगुप्त से भी कहता है- "जीवन में वही तो विजयी होता है, जो दिन-रात युद्धस्व विगत ज्वरः का शंखनाद सुना करता है।" उसका विश्वास है कि राज्य-शक्ति के केन्द्र में अन्याय न हो। वह स्कन्दगुप्त से कहता है कि भटार्क बंदी बनाया जाय। इस प्रकार वह सदा देश-हित की बातें करता रहता है।

        बन्धुवर्मा बड़ा देशभक्त है। वह स्कन्दगुप्त के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अपना सब-कुछ उसे समर्पित करना चाहता है। वह मालव राज्य को गुप्त साम्राज्य में मिलाना चाहता है। जयमाला को यह प्रस्ताव पसंद नहीं है। वह पति से पूछती है "उनका इतना बड़ा साम्राज्य है, तब भी मालव के बिना काम नहीं चलेगा क्या?" उस समय बन्धुवर्मा जयमाला को समझाते हुए कहता है - "देव, तुम नहीं देखती हो कि आर्यावर्त पर विपत्ति की प्रलय-मेघमाला घिर रही है, आर्य-साम्राज्य के अंतर्विरोध और दुर्बलता को आक्रमणकारी भली भौति जान गये है। शीघ्र ही देशव्यापी युद्ध की संभावना है इसलिए यह मेरी ही सम्मति है कि साम्राज्य की सुव्यवस्था केलिए, आर्य-राष्ट्र के त्राण के लिए युवराज उज्जयनी में रहे-इसी में सबका कल्याण है। आर्यावर्त का जीवन केवल स्कन्दगुप्त के कल्याण से है। और उज्जयनी में साम्राज्याभिषेक का अनुष्ठान होगा-सम्राट होंगे स्कंदगुप्त" ।

        वह आगे अपनी पत्नी से व्यक्तिगत स्वार्थ छोड़ने की बात कहता है- "इसी क्षुद्र ममत्व ने हमको दुष्ट भावना की ओर प्रेरित किया है, इसी से हम स्वार्थ का समर्थन करते हैं। इसे छोड़ दो जयमाला।"

        बन्धुवर्मा की ये बातें राष्ट्रीय-भावना से प्रेरित रही हैं। स्कन्दगुप्त बड़ा देश-प्रेमी है। वह अंतःपुर के अंत कलह से देश को बचाने केलिए अपने सिंहासन को पुरगुप्त को देने का निश्चय करता है। इतना ही नहीं, देश को विदेशी शत्रुओं से रक्षा करने और देश में धार्मिक संघर्ष को शांत करने के बाद सिंहासन को पुरगुप्त को ही सौंप देता है।

        देश पर आपत्तियों को घेरे हुए देखकर स्कन्दगुप्त जो दुःख प्रकट करता है उसमें भी उसकी देश-भक्ति देखने को मिलती है। देखिये- "मेरा स्वत्व न हो। मुझे अधिकार की आवश्यकता नहीं। यह नीति और सदाचारों का आश्रय-वृक्ष गुप्त-साम्राज्य हरा-भरा रहे।"

        प्रसाद ने गीतों में भी राष्ट्रीय भावना की अभिव्यक्ति की हैं। 'स्कन्दगुप्त नाटक के अंत में मातृगुप्त जो गीत गाता है उसमे भारत की महिमा वर्णित है। देखिये -- 

           हिमालय के आंगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार। 

           उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक हारा

  

           जिये तो सदा उसी के लिए यहाँ अभिमान रहे यह हर्ष। 

           निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष

       विदेशी पात्रों का भारत की महिमा का गान करना प्रसाद जी के नाटकों की विशेषता है। 'स्कन्दगुप्त नाटक में धातुसेन प्रख्यात कीर्ति से कहता है -

         भारत समग्र विश्व का है, और संपूर्ण वसुंधरा इसके प्रेमपाश में आवद्ध है। अनादि काल से ज्ञान की, मानवता को ज्योति यह विकीर्ण कर रहा है। वसुंधरा का हृदय-भारत-किस मूर्ख को प्यारा नहीं है? तुम देखते नहीं कि विश्व का सबसे जचा श्रृंग इसके सिरहाने, और गंभीर तथा विशाल समुद्र इसके चरणों के नीचे है। एक-से-एक सुन्दर दृश्य प्रकृति ने अपने इस घर में चित्रित कर रखा है।"

       इस प्रकार प्रसाद जी ने 'स्कन्दगुप्त नाटक में राष्ट्रीय भावना का चित्रण किया है।

       

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