Sunday, January 24, 2021

 


                                         जयशंकर प्रसाद

                

                                        जन्म : सन् 1889

                                        निधन : सन् 1937

                                रचनाएँ


     महाकाव्य                कामायनी

     खण्डकाव्य              प्रेमपथिक, महाराणा का महत्व

     काव्य                      रसाल-मंजरी, रजनी गंधा, सरोज, दलित कुमुदिनी, नीरद,सांध्यतारा,                                       ग्रीष्म का मध्यान्ह, नव वसंत, जल-विहारिणी, एकांत में भारतेंदु

                                   प्रकाश, श्रीकृष्ण जयंती, अयोध्या का उद्धार, वन-मिलन, प्रेम राज्य, 

                                   चित्रकूट, भरत, शिल्प-सौंदर्य, कुरु -क्षेत्र, वीर-बालक, जगती की        

                                   मंगलमयी उषा, शोला की प्रतिध्वनि, अशोक चिंता, प्रलय की छाया, 

                                   आँसू, लहर, झरना । 

     नाटक                  सज्जन, प्रायश्चित्त, कल्याणी-परिणय, राज्यश्री विशाख, अजातशत्रु,                                        जनमेजय का नागयज्ञ, कामना, स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी

     एकांकी                 एक घूँट

     कहानी संग्रह         आकाशदीप, इंद्रजाल, आँधी, प्रतिध्वनि, छाया

     उपन्यास               कंकाल, तितली (इरावती-अपूर्ण)

      निबंध                   काव्य और कला एवं अन्य निबन्ध



                हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल (सन् 1900 से अब तक) के सशक्त, सुप्रसिद्ध, श्रेष्ठ कवि, नाटककार कहानीकार, उपन्यासकार एवं निबंध लेखक श्री जयशंकर प्रसाद हिन्दी साहित्य के अनुपम रचनाकार हैं। सबसे पहले उन्होंने हिन्दी के साहित्य जगत में कवि के रूप में प्रवेश किया। बाद में गद्य लेखन में अपनी क्षमता दिखाई । जयशंकर प्रसाद हिन्दी साहित्य में छायावादी के प्रवर्तक माने जाते हैं, इनकी रचनाओं में मानव-जीवन तथा जीवन से संबंधित अनेक घटनाओं का यथार्थ वर्णन देखने को मिलता है ।

              व्यक्ति के निर्माण में, उसके आचार-विचार एवं व्यक्तित्व के निर्माण में परिवार तथा पर्यावरण का प्रभाव काफी मात्रा में पड़ता है । अद्वितीय साहित्यकार श्री जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी के सुप्रसिद्ध परिवार, उदारता, दानशीलता, साहित्य-रुचि संपन्नता के लिए विख्यात परिवार "सुंघनी साहू" के घराने में सन् 1889 को हुआ था । श्री जयशंकर प्रसाद के पिताजी श्री देवी प्रसाद व्यवसाय में प्रशस्त थे । आध्यात्मिक क्षेत्र में इनकी रुचि अवर्णनीय थी । साहित्य एवं कला में भी इनकी रुचि सराहनीय थी । इस कारण इनके घर में व्रजभाषा के अनेक विशिष्ट कवि आया करते थे । इन कवियों की सत्संगति प्रसाद को बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार बनाने में सहायता की थी ।

               कुछ लोग जन्म से महान होते हैं, कुछ लोग महानता अर्जित करते हैं। महान विभूतियों के लिए नियमित शिक्षा से आत्म ज्ञान तथा अनुभव ज्ञान ही श्रेष्ठ एवं वांछनीय है। जयशंकर प्रसाद को औपचारिक दृष्टि से विद्यालयी शिक्षा प्राप्त नहीं हुई थी । इन्होंने अपने घर में ही संस्कृत, बंगला, अंग्रेज़ी तथा हिन्दी आदि भाषाओं का उचित ज्ञान प्राप्त किया। विद्वानों, कवियों एवं संगीतज्ञों की सत्संगति के कारण, इन सब कलाकारों को अपने घर में देखने तथा उनके संपर्क में आने के सौभाग्य मिलने के कारण प्रसाद के मन में कला तथा साहित्य के प्रति अतुलनीय एवं अवर्णनीय रुचि उत्पन्न होने लगी । बचपन इतना सुखमय रहने पर भी बचपन में ही इनके माता-पिता तथा भाई का स्वर्गवास हो गया था ।

                प्रसाद के भाव तथा विचार, अध्ययन, मनन, चिंतन तथा स्वानुभव के बाद ही व्यक्त किये जाते थे । प्रसाद की ज्यादातर कविताएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। नाटकों में ये गीतों का प्रयोग किया करते थे । चन्द्रगुप्त नाटक में विदेशी कन्या कार्नेलिया भारत एवं भारतीय का गुणगान करती है

               अरुण यह मधुमय देश हमारा

               जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को भी मिलता एक सहारा

                 नाटकों में योजित गीत भी संग्रह पुस्तक प्रसाद-संगीत" के रूप में छप चुके हैं प्रसाद के प्रशंसनीय रचनाएँ है - चित्राधार, कानन-कुसुम, महाराणा का महत्व, प्रेम पथिक, झरना, आँसू, लहर और कामायनी ।

                 चित्राधार में कवि की बीस वर्ष की अवस्था तक की प्राय: सभी कृतियाँ संकलित हैं । इसमें तीन कविताएँ, बाईस छोटी कविताएँ एवं चालीस कवित्त, सवैया तथा पद हैं। काननकुसुम में ब्रजभाषा तथा खडीबोली दोनों की रचनाएँ स्थान पायी थीं। इस संग्रह में 49 कविताएँ रखी गयी हैं। महाराणा का महत्व कथामूलक काव्य है । भारतीय इतिहास में अमर, वीर महाराणा प्रताप पर यह काव्य आधारित है । प्रेम-पथिक' में प्यार तथा प्रेम से संबंधित जयशंकर प्रसाद का जीवन दर्शन स्पष्ट रूप से दिखाई देता है । 'झरना' में कुल मिलाकर 48 रचनाएँ संकलित हैं । अनेक साहित्यकार इसे छायावादी कविता का प्रथम संग्रह मानते हैं। छायावाद तथा आधुनिक हिन्दी कविता का रूप इसमें नजर आता है। 'आँसू' में यौवन की मादकता की झलक है । शृंगार रस का भरपूर वर्णन मिलता है । 'लहर' में 33 रचनाएँ संकलित है। यह प्रसाद की पंडिताई का प्रतीक है । 'प्रसाद-संगीत' प्रसाद के आत्मज श्री रत्नशंकर प्रसाद के कारण उनके संपादकत्व में नाटकों के गीतों के संग्रह के रूप में निकला ।

            प्रसाद के प्रकाशित नाटक हैं सज्जन (1910 ई.), करुणालय (1913), प्रायश्चित (1913), राज्यश्री (1914), विशाख (1921), अजातशत्रु (1922) जनमेजय का नागयज्ञ ( 1926), कामना (1927), स्कंदगुप्त (1928), एक घूँट (1929), चंद्रगुप्त (1931) और ध्रुवस्वामिनी (1934) ।

             प्रकृति चित्रण इनकी रचनाओं में विशेष स्थान पाता है । "कामायनी महाकाव्य में सर्वत्र प्रकृति का अनंत ऐश्वर्य बिखरा पडा है। इनकी पंक्तियों में प्रकृति का अमृत है

             आह! वह मुख ! पश्चिम के व्योम बीच जब घिरते हैं धनश्याम! 

             अरुण रवि मंडल उनको भेद दिखाई देता हो छविधाम ।

             गद्य लेखन में भी 'जयशंकर प्रसाद' प्रकृति का यथार्थ रूप पाठकों के सामने प्रस्तुत करने में अनुपम थे । 'अशोक' कहानी में उनके शब्द जाल को देखिए - राजकीय कानन में अनेक प्रकार के वृक्ष, सुरभित सुमनों से झूम रहे हैं । कोकिला भी कूक-कूककर आम की डालों को हिलाये देती हैं। नव-वसंत का समागम है। मलयानिल इठलाता हुआ कुसुम-कलियों को ठुकराता जा रहा है।" प्रकृति के सान्निध्य में पाठकों को ले जाना प्रसाद का प्रशंसनीय गुण है ।

          प्रसाद की रचनाओं में छायावाद की आत्मप्रधानता, भावुकता, कल्पना, शास्त्रीय अभिजात्य दृष्टि की उदात्तता के साथ साहित्यिक गरिमा का समन्वय सहज रूप से हुआ करता है। वस्तु विन्यास में प्रसाद के नाटकों में भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्य प्रणालियाँ का समन्वय मिलता है । प्रसादजी की सर्वाधिक सफलता पात्रों के चरित्र-चित्रण में है। पात्रों के मानसिक अंतर्द्वन्द्वों, विचारों तथा अनुभूतियों को उचित रूप से व्यक्त करना इनके नाटकों को सफल बनाने में सहायक रहे हैं । मनोवैज्ञानिकता तथा पात्रोचित, समयोचित कल्पना के कारण इनके नाटक में सफलता स्वाभाविक हो चुकी है।

           जयशंकर प्रसाद के जमाने में व्रजभाषा का प्रचलन काफी मात्रा में था। जमाने का पालन करते हुए प्रसाद भी पहले व्रजभाषा में ही लिखा करते थे । बाद में ही इन्होंने खडीबोली हिन्दी को अपनायी । शब्द चयन में कथा एवं वातावरण के अनुसार सरल तथा क्लिष्ट दोनों का प्रयोग किया गया है । काव्य हो, कहानी हो, नाटक हो या निबन्ध, शैली में जयशंकर प्रसाद का अलग पहचान है । जयशंकर प्रसाद की रचनाओं में इस कारण रोचकता, मौलिकता एवं सहजता स्थान पाती हैं। शैली में स्वाभाविकता इनकी विशेषता है ।

           व्यंजना तथा अभिव्यक्ति की दृष्टि में भी जयशंकर प्रसाद का काव्य जगत में अलग पहचान है । वैज्ञानिक दृष्टि मानवता पर जोर, पाश्चात्य समीक्षा सिद्धान्त का खण्डन, संसार एवं मानव-मुक्ति, जनता के मनोबल को ऊपर उठाने का प्रयास, संस्कृति, सभ्यता एवं आदर्श पर जोर, भारतीय गरिमामय इतिहास पर प्रकाश डालना आदि जयशंकर प्रसाद की अपनी विशेषताएँ हैं। इतिहास के प्रति इनका प्यार या लगाव एकदम अनुपम है । अनेक ऐतिहासिक घटनाओं को इन्होंने अपनी रचनाओं का केन्द्र बिन्दु बनाया है । अतीत के गौरव को अपनी रचनाओं में स्थान देने में ये श्रेष्ठ थे । जयशंकर प्रसाद कला की पुजारी थे । इसलिए ही एक सशक्त कवि, प्रसिद्ध नाटककार, कालजयी कहानीकार, उन्नतम उपन्यासकार एवं श्रेष्ठ निबंध लेखक के रूप में हिन्दी साहित्य में उनको स्थान मिला है ।

           देश के धार्मिक, नैतिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय महत्ववाले विचारों को अपनी रचनाओं में स्थान देने के कारण ही ये हिन्दी साहित्य में अनुपम साहित्यकार माने जाते हैं । इनकी कृतियों में दार्शनिकता, मनोवैज्ञानिकता, नैतिकता एवं ऐतिहासिकता का भी प्रभाव हैं।

           जयशंकर प्रसाद के रचना सागर में अनेकानेक मोती भरे पड़े हैं । 

            कामायनी इनकी कीर्तिपताका है । स्कन्दगुप्त और ध्रुवस्वामिनी इन्हें मूर्धन्य नाटककार सिद्ध करने में सक्षम हैं। इन तीनों का संक्षिप्त परिचय इनकी महानता दिखाने में सफलता प्राप्त करता है ।

    कामायनी :-

              कामायनी श्री जयशंकर प्रसाद कृत अद्वितीय महाकाव्य है । यह मानव सभ्यता, संस्कृति, मनोविज्ञान, दर्शन एवं विकास की कहानी है । कामायनी में श्रद्धा से लेकर आनंद तक पन्द्रह सर्ग हैं । चिन्ता, आशा, श्रद्धा, काम, वासना, लज्जा, कर्म, ईर्ष्या, इडा, स्वप्न, संघर्ष, निर्वेद, दर्शन, रहस्य तथा आनंद आदि इन सर्गों का नाम है। सबके सब मनुष्य के मन, मनोविज्ञान आदि से सम्बन्धित है ।

              काव्य के प्रारम्भ में देव जाति के मनु हिमगिरी शिखर पर चिंताग्रस्त बैठा रहता है। घोर प्रलय के कारण संपूर्ण देव जाति नष्ट हो जाती है। चारों ओर सिर्फ पानी ही पानी दिखायी देता है । चिंताग्रस्त मनु के मन में विभिन्न प्रकार के विचार स्थान पाते हैं। भीषणं प्रलय रात के बाद नवप्रभात के कारण उसके मन में आशा की किरण जगने लगती है। कामायनी श्रद्धा के आने के बाद मनु के मन में काम तथा वासना की भावना जगती है । श्रद्धा में लज्जा तथा कर्ममय भावना जागती है । श्रद्धा के गर्भवती हो जाने पर मनु के मन में अपनी संतान के प्रति ईर्ष्या जागती हैं और वह इडा से मिलता है । श्रद्धा अपना बेटा मानव को संस्कृति का पाठ पढाती है। स्वप्न में इसका वर्णन है । संघर्ष में मनु इडा से बलात्कार करना चाहता है । प्रजा उसे मारती है इसलिए निर्वेद की दशा में पहुँच जाता है । दर्शन तथा रहस्य में श्रद्धा के कारण मनु के मन  में परिवर्तन स्थान पाता है । उसे श्री नटराज (शिव) भगवान के दर्शन मिलता है ।

         मानव और इडा के कारण सारस्वत प्रजा संस्कृति को समझकर आनंद सर्ग के अंतिम सर्ग में सबके सब मानसरोवर पहुँचते हैं, जहाँ श्रद्धा और मनु आध्यात्मिक चिंतन के साथ रहा करते हैं । इस प्रकार संपूर्ण मानव-मन की भावनाओं पर कामायनी महाकाव्य में चित्रण हुआ है। सर्गों के नाम कहानी को समझाने में पूर्ण रूप से मदद करते हैं। कामायनी महाकाव्य जयशंकर प्रसाद को महान कवि के रूप में दर्शाने में सफल सिद्ध हुआ है ।

        कामायनी की भाषा सब प्रकार से सराहनीय एवं प्रशंसनीय है । इसकी भाषा असाधारण एवं अतुलनीय है । ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौंदर्यमय प्रतीकात्मकता एवं चित्रात्मकता के कारण काव्य में कला का उत्कृष्ट रूप देखने को मिलता है । विषय की गरिमा, कथा के विस्तार, वर्णनात्मक शैली आदि के कारण यह अमर काव्य बन पड़ा है । 'कामायनी' निस्सन्देह कालजयी महाकाव्य है ।

   स्कन्दगुप्त :-

          श्री जयशंकर प्रसाद सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटककार है। इतिहास इनका प्रिय विषय रहा । भारत के अतीत गौरव के बारे में लिखने में इनकी आत्मा तृप्त होती थी । उनकी ज्यादातर नाटक कृतियाँ ऐतिहासिक हैं। इनके सब नाटकों में स्कन्दगुप्त नाटक का विशेष स्थान है। इतिहास के साथ प्रसाद की कल्पना, पंडिताई तथा लेखन कौशल के कारण स्कन्दगुप्त सराहनीय नाटक बन पडा है। 

           स्कन्दगुप्त सम्राट कुमारगुप्त का पुत्र स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य की कहानी है । वह प्रतापी था। कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य के बाद सन् 455 से सन् 467 तक राज्य किया था। स्कन्दगुप्त वीर तथा विवेकी राजा था और अपने बाहुबल से राज्यश्री को प्राप्त कर कम से कम बारह वर्षों तक राज्य करता था । नाटक के प्रारम्भ में युवराज स्कन्द्रगुप्त राज्य के उत्तराधिकारी पद के प्रति उदासीन रहता है कुमारगुप्त की दूसरी पत्नी अनंतदेवी अपने पुत्र उपगुप्त को गद्दी पर बिठाना चाहती है। स्कन्दगुप्त राज्य पर अधिकार करना नहीं चाहता लेकिन मालव राज्य पर विद्रोहियों का आक्रमण होने पर उसे अपने बाहुबल की क्षमता को दिखाना पडता है। वह युद्ध में जीतता है और मालव प्रदेश की अधिपति बनता है । अनंतदेवी और पुरगुप्त के षड्यंत्र को भी दबाने का स्कन्दगुप्त पर पडता है । हूणों के विरुद्ध युद्ध करने में पहले उसे पराजय का सामना करना पडता है । उसकी सेना तितर-बितर हो जाती है फिर देशभक्त सैनिक तथा विजया आदि की सहायता से वह हूणों को जीतता है । अपने सौतेले भाई पुरगुप्त को राज्य का उत्तराधिकार सौंप देता है ।

            स्कन्दगुप्त विजया से प्यार करता है । लेकिन विजया पहले स्कन्दगुप्त की भावनाओं पर आघात पहुँचाकर भटार्क से प्यार करती है । लेकिन बाद में स्कन्द्रगुप्त को अपनाना चाहती है । स्कन्दगुप्त मालवेश की बहन देवसेना से प्यार करने लगता है। देवसेना भी उससे प्यार करती है । लेकिन विजया के प्रति उसके आकर्षण को देखकर अपने आपको संयम बना लेती है । विरक्त होकर स्कन्दगुप्त अपनी माँ की समाधि पर शपथ लेता है कि वह जीवन भर कुमार रहेगा ।

            स्कन्दगुप्त का चरित्र महान है । उसके चरित्र के द्वारा भारतीय युवकों में शीलता लाना प्रसाद का उद्देश्य रहा है ।

         ध्रुवस्वामिनी

              "ध्रुवस्वामिनी" प्रसादजी के सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटक है । ध्रुवस्वामिनी नाटक के कथानक का मूल आधार विशाखदत्त के 'देवीचन्द्र गुप्तम्' नाटक है। यह रामगुप्त और ध्रुवस्वामिनी की कहानी है । चन्द्रगुप्त इस कहानी का नायक है । रामगुप्त इसमें खलनायक के समान है । इसकी संक्षिप्त कहानी है समुद्रगुप्त के स्वर्गवास के बाद राज्य के उत्तराधिकारी युवराज चंद्रगुप्त को उसका ज्येष्ठ भ्राता रामगुप्त छल के द्वारा स्वयं अधिपति बन जाता है और ध्रुवस्वामिनी जिससे चन्द्रगुप्त प्यार करता था, जिससे उसकी शादी होनेवाली थी, उसे भी कपट के द्वारा अपनी महादेवी बना लेता है। रामगुप्त विलासी और कापुरुष है । उसकी कायरता का लाभ उठाकर शकराज संधि की शर्तों में ध्रुवस्वामिनी की माँग करता है । कायरता तथा युद्ध से बच जाने की इच्छा के कारण कापुरुष रामगुप्त अपनी धर्मपत्नी ध्रुवस्वामिनी को शकराज के यहाँ भेजता है गुप्तवंश के सम्मान की रक्षा तथा ध्रुवस्वामिनी के प्रति अपने प्यार के कारण चन्द्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी के वेश में उसे भी अपने साथ लेकर शकराज के महल पहुँचता है। वहाँ द्वन्द्र युद्ध में चन्द्रगुप्त शकराज को मारकर ध्रुवस्वामिनी को बचाता है। नाटक के अन्त में ध्रुवस्वामिनी कापुरुष रामगुप्त से दूर होकर चन्द्रगुप्त की रानी बनना चाहती है । ध्रुवस्वामिनी चंद्रगुप्त से विवाह कर लेती है । सामंतकुमार के हाथों से रामगुप्त मर जाता है चन्द्रगुप्त सम्राट बन जाता है ।

                ध्रुवस्वामिनी का चित्रण एक जागृत नारी के रूप में किया गया है। ऐतिहासिक कथानक को लेने पर भी समकालीन समस्या पर खासकर नारी समस्या पर प्रसाद का ध्यान पूर्ण रूप से गया है । ध्रुवस्वामिनी के द्वारा प्रसाद ने अनमेल विवाह की समस्या को हमारे सामने प्रस्तुत किया है। ध्रुवसवामिनी की कहानी को रुचिकर बनाने का श्रेय श्री जयशंकर प्रसाद की विशिष्ट शैली को ही मिलता है। एक सफल नाटक के रूप में इसे प्रस्तुत करके अपने आपको मूर्धन्य नाटककार स्थापित करने में श्री जयशंकर प्रसाद सम्पूर्ण रूप से सफल सिद्ध हुए हैं

               आधुनिक हिन्दी साहित्य के अनुकरणीय साहित्यकार श्री जयशंकर प्रसाद की साहित्य सेवा अनुपम तथा अवर्णनीय है। विविध विधाओं में अपना विराट रूप प्रस्तुत करने के साथ अनेक नवलेखकों को प्रेरणा प्रदान करके कालजयी साहित्यकारों में जयशंकर प्रसाद अपने लिए विशिष्ट स्थान प्राप्त करते हैं।

धन्यवाद!!!!

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