जयशंकर प्रसाद
बाबू जयशंकर प्रसाद की प्रतिभा हिन्दी साहित्य में सर्वतोमुखी है। वे कवि, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार और निबन्धकार है। -
काव्य :
प्रसाद जी ने प्रेम राज्य (1909 ई.), वन मिलन (1909 ई.), अयोध्या का उद्धार (1910 ई.), शोकोच्छवास (1910 ई.), प्रेम पथिक (1914 ई.), महाराणा का महत्त्व (1914 ई.), कानन कुसुम, चित्रकार (1918 ई.), झरना (1918. ई.), आँसू (1925 ई.), लहर (1933 ई.) और कामायनी (1934 ई.) नामक काव्य लिखे हैं। कामायनी की गणना विश्व साहित्य में की जाती है।
नाटक :
प्रसाद ने चौदह नाटक लिखे और दो का संयोजन किया था।
(1) 'सज्जन' (सन् 1910-11) :
उनकी प्रारंभिक एकांकी नाट्य कृति है। उसकी कथावस्तु महाभारत की एक घटना पर आधारित है। चित्ररथ कौरवों को पराजित कर बंदी बनाता है। युधिष्ठिर को इसका पता चलता है तो वे अर्जुन आदि को चित्ररथ से युद्ध करने केलिए भेजते हैं। युद्ध में चित्ररथ पराजित होता। दुर्योधन की निष्कृति होती है। युधिष्ठर के उदात्त चरित्र को देखकर चित्ररथ, इंद्र आदि देवता प्रसन्न होते हैं।
इसमें प्रसाद ने प्राचीन भारतीय नाट्य-तत्त्वों (नांदी, प्रस्तावना, भरतवाक्य आदि) का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं पाश्चात्य तत्त्वों का भी प्रयोग किया है।
(2) कल्याणी परिणय (सन् 1912) :
इसकी कथावस्तु यह है कि चन्द्रगुप्त चाणक्य की सहायता से नंद वंश का विनाश करता है और उसकी कन्या कल्याणी से विवाह कर लेता है। इसमें भी प्राचीन नाट्य तत्त्वों का प्रयोग किया गया है।
(3).प्रायश्चित्त (सन् 1912) :
इसमें मुसलमान शासन के आरंभ और राजपूत राजाओं के अवसान का वर्णन मिलता है। जयचंद्र मुहम्मद गोरी को आमंत्रित करता है और पृथ्वीराज को ध्वस्त करा देता है। जब अपनी बेटी संयोगिता की करुणा विगलित मूर्ति उसके ध्यान में आती है तो वह पश्चात्ताप से काँप उठता है। गंगा में डूबकर आत्म-हत्या कर लेता है। इसमें प्रसादजी ने प्राचीन परिपाटी (नांदी पाठ, प्रशस्ति आदि) को छोड दिया है।
(4) करुणालय (सन् 1913) :
हिन्दी में नीति-नाट्य की दृष्टि से यह प्रथम प्रयास है। यह एकांकी नाटक है। यह पाँच दृश्यों में विभक्त है। इसमें राजा हरिश्चंद्र की कथा है। नाट्य-कला से अधिक इसमें कहानी-कला का विकास लक्षित होता है।
(5) यशोधर्म देव :
प्रसाद जी ने इसकी रचना सन् 1915 में की थी। परन्तु यह अप्रकाशित है।
(6) राज्यश्री (सन् 1915) :
नाट्य-कला की दृष्टि से प्रसाद ने इसमें पूर्ण सफलता प्राप्त की है। इसकी कथा संक्षेप में इस प्रकार है- राज्यश्री राज्यवर्धन तथा हर्षवर्धन की बहन है। वह शांतिदेव के चंगुल में फँसती है। अंततः वह दिवाकर की सहायता से उसके चंगुल से मुक्त होती है। वह आत्मदाह करना चाहती है। हर्षवर्धन उसे वैसे करने से रोक देता है। अन्त में भाई-बहन बौद्ध-धर्म के अनुयायी बनते हैं। यह प्रसाद का पहला ऐतिहासिक नाटक है।
(7) विशाख (सन् 1921) :
प्रसादजी ने सन् 1921 में इसकी रचना की। इसमें व्यवस्थित भूमिका मिलती है। इसमें प्रसाद ने अपनी रचनाओं के उद्देश्य को बताया है। इस नाटक का प्रमुख पात्र विशाख है। वह तक्षशिला के गुरुकुल से शिक्षा समाप्त कर वापस आ रहा है। वह सुश्रुदा नामक नाग को एक बौद्ध भिक्षु के कर्ज से मुक्त करा देता है। इससे प्रसन्न सुश्श्रुदा अपनी बेटी चंद्रलेखा का विवाह विशाख से कर देता है। परन्तु तक्षशिला के राजा नरदेव चन्द्रलेखा को पहले छल-छद्म से और बाद में बलप्रयोग से अपने वश करना चाहता है। परन्तु वह इस प्रयत्न में असफल होता है। उसकी लंपटता और कुपथगामिता से खिन्न उसकी पत्नी आत्महत्या कर लेती है।
(8) अजातशत्रु (सन् 1922) :
इसमें प्रसाद ने भारतीय और पाश्चात्य नाट्य सिद्धांतों का सश्लिष्ट एवं उत्कृष्ट प्रयोग किया है। भगवान बुद्ध के प्रभाव से, बिंबसार शासन से विरक्त होकर अपने पुत्र अजातशत्रु को राज्य-सत्ता सौंपता है। परन्तु देवदत्त (गौतम बुद्ध का प्रतिबन्दी) की उत्प्रेरणा से कोशल के राजकुमार विरुद्धक के पक्ष में अजातशत्रु अपने पिता बिम्बसार और अपनी बडी माँ वासवी को प्रतिबन्ध में रखने लगता है। कौशम्बी नरेश अजातशत्रु को कैद कर देता है। वासवी की सहायता से अजातशत्रु की निष्कृति होती है। जब अजातशत्रु पिता बनता है तो उसमें पितृत्व के आलोक का उदय होता है। वह अपने पिता से क्षमा-याचना करता है।
(9) जनमेजय का नागयज्ञ (सन् 1923) :
प्रसिद्ध पौराणिक कथा के आधार पर इस नाटक की रचना की गयी है।
(10) कामना (सन् 1923-24) :
यह प्रसाद का प्रतीकात्मक नाटक है। इसमें ईर्ष्या, द्वेष आदि मनोवृत्तियों का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है।
(11) स्कन्दगुप्त (सन् 1924) :
आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के अनुसार यह प्रसादजी के नाटकों में सर्वश्रेष्ठ है। इसकी कथा इस प्रकार है-"मगध सम्राट के दो रानियाँ हैं। छोटी रानी अनंतदेवी अपूर्व सुंदरी और कुटिल चालों की है। वह अपने पुत्र पुरुगुप्त को सिंहासनारूढ़ कराकर शासन का सूत्र अपने हाथ में लेती है। बडी रानी देवकी का सुयोग्य पुत्र स्कन्दगुप्त राजसत्ता से उदासीन हो जाता है। परन्तु जब हूण कुसुमपुर को आक्रमण कर लेते हैं तो स्कन्दगुप्त उनको पराजित कर कुसुमपुर को स्वतंत्र कर देता है। हिंसा, विशेष गृह-कलह से विरक्त होकर वह पुरुगुप्त को राज्य सौंप देता है। प्रेममूर्ति देवसेना और देश-प्रेम की साक्षात् मूर्ति स्कन्दगुप्त की विदा से नाटक का अन्त होता है।
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(12) चन्द्रगुप्त (सन् 1928) :
इसमें चन्द्रगुप्त द्वारा नंद वंश का नाश, सेल्यूकस की बेटी कार्नेलिया से उसका विवाह आदि वर्णित हैं। चरित्र चित्रण, वातावरण का निर्माण और घटनाओं का घात-प्रतिघात समीचीन और स्थायी प्रभाव डालनेवाला है।
(13) एक घूँट् (सन् 1929) :
यह एक एकांकी नाटक है। इसमें मानवीय विकारों के कोमल एवं उलझे हुए तन्तुओं के आधार पर चरित्रों का गठन किया गया है। आनन्द स्वच्छंद प्रेम का पुजारी है। उसका कहना है कि आनंद ही सब कुछ है। परन्तु बनलता कहती है कि समाज-विहित, गुरुजनों द्वारा संपोषित वैवाहिक जीवन ही सार्थक और सही दिशा निर्देशक है।
(14) ध्रुवस्वामिनी (सन् 1933) :
इसमें रामगुप्त की कथा है। प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी को एक जागृत नारी के रूप में चित्रित किया है। उन्होंने उसके द्वारा अनमेल विवाह की समस्या को हमारे सामने प्रस्तुत किया है।
(15) सुंगमित्र (अपूर्ण) :
प्रसाद ने नाटकों के अतिरिक्त कहानियाँ, निबन्ध और उपन्यास भी लिखे हैं। यथा-
निबन्ध : काव्य-कला तथा अन्य निबन्ध
उपन्यास : तितली, कंकाल, इरावती (अपूर्ण)
कहानी-संग्रह :
1. छाया (सन् 1913), 2. आकाशदीप (सन् 1928), 3. आँधी (सन् 1929), 4. इन्द्रजाल (सन् 1936) 5. प्रतिध्वनि ।
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