पंचवटी
- श्री मैथिलीशरन गुप्त
पूर्वाभास
पंचवटी काव्य की कथा प्रारंभ करने के पहले "पूर्वाभास" में कवि राम के वनगमन का कारण बताते हैं।
पूज्य पिता के सहज सत्य पर वार सुधाम, धरा, धन को,
चले राम, सीता भी उनके पीछे चली गहन वन को।
उनके पीछे भी लक्ष्मण थे, कहा राम ने कि "तुम कहाँ?'
विनत वदन से उत्तर पाया "तुम मेरे सर्वस्व जहाँ।॥।" 1
भावार्थ :
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र ने अपने सत्यवादी पूज्य पिता दशरथ के सत्य स्वभाव की रक्षा के लिए अयोध्या के सुन्दर राजभवन, साम्राज्य और धन वैभव को छोड़ दिया और जंगल की राह ली। सुकुमारी सीता भी उनके पीछे चल पड़ों। सीता के पीछे जब लक्ष्मण भी चलने लगे तो राम ने लक्ष्मण से पूछा-तुम कहाँ के लिए चल रहे । हो? नम्रता के साथ लक्ष्मण ने उत्तर दिया-मेरे सर्वस्व, तुम जहाँ रहे हो वहाँ।
विशेष :
यहाँ राम की पितृ भक्ति, सीता का पति-प्रेम तथा लक्ष्मण का भ्रातृ-प्रेम चित्रित हैं। छेकानुप्रास एवं अनुप्रास अलंकारों का प्रयोग हुआ है और प्रश्नोत्तर शैली का सुन्दर विधान है।
सीता बोली कि “ये पिता की आज्ञा से सब छोड़ चले,
पर देवर, तुम त्यागी बनकर क्यों घर से मुँह मोड़ चले?"
उत्तर मिला कि “आर्थे, बरबस बना न दो मुझको त्यागी,
आर्य - चरण - सेवा में समझो मुझको भी अपना भागी॥" 2
लक्ष्मण की बात सुनकर सीताजी ने राम की ओर संकेत कर लक्ष्मण से कहा - हे देवर, ये तो पिताजी के आज्ञानुसार राजपाट छोडकर वनवास के लिए जा रहे हैं। तुम्हें तो वनवास की आज्ञा नहीं दी गयी। फिर तुम क्यों अनावश्यक वैराग्य धारण कर घर-बार छोडकर हमारे साथ आ रहे हो? उत्तर में लक्ष्मण ने कहा - तुम मुझे जबरदस्ती से त्यागी का वैरागी का पद मत दो। आर्य श्री रामचन्द्र की सेवा में मुझे भी अपना साझेदार समझो। तुमको भी वनवास की आज्ञा नहीं दी गयी थी। श्री राम की सेवा करने का अधिकार जिस तरह तुमको है, उसी तरह मुझे भी है।
यहाँ सीता का ममतामय वात्सल्य रूप और लक्ष्मण की दास्य भक्ति व्यंजित है। "मुँह मोड चले" मुहावरा है । "त्यागी" में श्लेष अलंकार है।
"क्या कर्तव्य यही है भाई?" लक्ष्मण ने सिर झुका लिया,
"आर्या, आपके प्रति इस जन ने कब कब क्या कर्तव्य किया?"
"प्यार किया है तुमने केवल!" सीता यह कह मुसकाई,
किन्तु राम की उज्जवल आँखें सफल सीप - सी भर आई। 3
राम ने लक्षमण से पूछा - हे भाई, मेरी चरण-सेवा करना ही इस समय तुम्हारा कर्तव्य है? लक्ष्मण ने सिर झुकाकर कहा - हे आर्य, इस सेवक ने आपके प्रति करने लायक कर्तव्य का पालन कब किया? तब सीता ने मुस्कुराकर सविनोद कहा - तुमने तो केवल प्रेम किया है। लक्ष्मण की प्रेम और भक्ति भरी बातें सुनकर श्रीराम के नेत्र करुणाश्रुओं से इस प्रकार भर गये मानों सीपियों में मोती भर आये हों (राम की सीपियों जैसी आंखों में प्रेम और करूणा के आंसू मोतियों की तरह चमकने लगे।)
श्रीराम के हृदय में अपने अनुज लक्ष्मण के प्रति अनन्य प्रेम व्यंजित है। अनुप्रास, पुनरुक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है। अंतिम पंक्ति उपमा अलंकार द्रष्टव्य है।
पंचवटी
चारू चन की चंचल किरणे खेल रही हैं जल-धल में,
स्वच्छ - चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
पुलक प्रकट करती है धरती हरित तृणों की नोकों से
मानो झीम रहे हैं तरु भी मन्द पवन के झोंकों से। 1
आकाश में शरद्काल का मनोहर चन्द्रमा निकला है। उसकी चंचल किरणें जल और स्थल में इस तरह लहराती हैं मानों उनके साथ खेल रही हो। ऐसा प्रतीत होता है मानों आकाश से पृथ्वी तक स्वच्छ, धवल चांदनी बिछी हुई हो। पृथ्वी हर अंकुरों के द्वारा अपना रोमांच प्रकट करती है। मन्द वायु के झोकों से हिलते हुए पेड ऐसे जान पड़ते हैं मानों आनंद में मस्त होकर झूम रहे हों।
यहाँ प्रकृति के सुरम्य रूप का मनोहारी वर्णन हुआ है। वृतयानुप्रासे, छेकानुप्रास, मानकीकरण, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है। शैली चित्रमयी है।
पंचवटी की छाया में है सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,
उसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर धीर वीर निर्भीकमना,
जाग सा यह कौन धनुर्धर जब कि भुवन भर सोता है?
भोगी कुसुमायुध योगी-सा बना दृष्टगत होता है। 2
गोदावरी के तट पर पांचवट वृक्षों की छाया में पत्तों से निर्मित एक अत्यंत मनोहर कुटीर है। उसके सामने एक सफ- सुथरी शिला पर निर्भय मनवाला एक धीर-वीर पुरुष हाथों में धनुष-बाण लिये आसीन है। इस रात में जब सारा संसार सो रहा है तब जागते रहनेवाला यह युवक कौन है? यह अत्यन्त सुन्दर युवक योगी का वेष धारण किया हुआ कामदेव-सा दीख रहा है।
इसमें लक्ष्मण की कर्तव्यनिष्ठा का वर्णन हुआ है। उपमा अलंकार का प्रयोग हुआ है। "भोगी और योगी" में विरोधाभास अलंकार है। संदेह अलंकार भी विद्यमान है।
किस व्रत में है व्रती वीर यह निद्रा का यों त्याग किये,
राजभोग के योग्य विपिन में बैठा आज दिराग लिये।
बना हुआ है प्रहरी जिसका उस कुटीर में क्या धन है?
जिसकी रक्षा में रत इसका तन है, मन , जीवन है ! 3
ऐसे प्रशांत रात के समय में निद्रा को छोडकर यह वीर किस व्रत का पालन कर रहा है? इसका अत्यंत सुन्दर रूप तो राजभोग भोगने के लायक है फिर वैराग्य धारण कर वन में क्यों बैठा है? ऐसा सुन्दर वीर युक्त तन, और प्राण लगाकर इतनी तत्परता और जागरूकता से पहरेदार बनकर जिस कुटीर की रक्षा कर रहा है उस कुटीर में कौन-सा अलौकिक धन है?
इन पंक्तियों में लक्ष्मण के दृढ संकल्प का वर्णन हुआ है।
मर्त्यलोक - मालिन्य मेटने स्वामि- संग जो आयी है,
तीन लोक की लक्ष्मी ने यह कुटी आज अपनायी है।
वीर-वंश की लाज यही है फिर क्यों वीर न हो प्रहरी ?
विजन देश है, निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी। 4
लक्ष्मी का अवतार जनक पुत्री जानकी पृथ्वी के पाप और दुख दूर करने अपने पति के साथ यहाँ आयी हैं त्रिभुवन की लक्ष्मी होकर भी उन्होंने इस पूर्ण कुटीर को अपने निवास स्थान बना लिया है। यह तो वीर रघुवंशियों की मर्यादा स्वरूपा हैं । इसलिए ही ऐसा अलौकिक वीर इस कुटीर का पहरेदार बना हुआ है। यह पहरा आवश्यक ही है क्योंकि यह प्रदेश निर्जन है। अभी रात का अंत नहीं हुआ। आसपास मायावी राक्षस घूमते रहते हैं। सावधान न रहें तो मायावी राक्षस न जाने क्या करेंगे।
सीता के चरित्र का आदर्श रूप चित्रित हुआ है।
कोई पास न रहने पर भी जन-मन मौन नहीं रहता;
आप आपकी सुनता है वह आप आपसे है कहता ।
बीच-बीच में इधर उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,
मन ही मन बातें करता है धीर धनुर्धर नयी नयी। 5
मनुष्य का चंचल मन कभी चुप नहीं रहता । चाहे पास में कोई रहे या न रहे, पर मनुष्य का मन अपने आप से ही बातचीत या प्रश्नोत्तर करता रहता है। यही दशा उस समय लक्ष्मण की है। वह अपनी आनन्दमयी दृष्टि इधर-उधर डालकर मन ही मन अनेक प्रकार की नयी-नयी बातें कर रहा है।
इन पंक्तियों में गुप्तजी ने इस मनोवैज्ञानिक सत्य का उद्घाटन किया है कि मनुष्य एकांत में भी चुप नहीं रहता ।
"क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
है स्वछन्द सुमन्द गन्धवह, निरानन्द है कौन दिशा?
बन्द नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप
पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप! 6
वीरवर लक्ष्मण पंचवटी में पर्ण कुटीर के सामने शिला पर बैठे मन ही मन सोच रहा है - अभी! कैसी निर्मल चांदनी छिटक रही हैं। 1. कैसी निस्तब्ध रात्रि है! शीतल मन्द सुगन्ध वायु स्वच्छन्दता से बह रही है। सभी दिशाएँ आनंद से भरी है। यद्यपि सारा संसार निद्रामग्न है पर नियति नटी के कार्य-समूह में कोई शिथिलता नहीं है। उसका कोई भी काम नहीं रुका है। सभी काम शांत, मौन और एकांत भाव से अपने नियमानुसार कैसे चल रहे हैं।
इसमें भाग्यवाद की ओर इशारा हुआ है।
है बिखेर देती वसुन्धरा मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको सदा सबेरा होने पर
और विरामदायिनी अपनी सन्धया को दे जाता है,
शून्य श्याम-तनु जिससे उसका नया रूप छलकाता है। 7
कवि लक्ष्मण के माध्यम से पंचवटी के सौन्दर्य का वर्णन करते हैं।
जब सारा संसार निद्रामग्न हो जाता है तब पृथ्वी ओस रूपी मोतियों की वर्षा कर देती है प्रात: काल होते ही सूर्य अपनी किरणों द्वारा उन्हें एकत्रित कर लेता है और फिर उन्हें विश्राम देनेवाली संध्या का प्रदान कर देता है । इससे संध्या का शून्य श्याम शरीर अपने नये रूप में झलक उठता है। (प्रात: काल की ओस की बूंदें ही रात के समय नक्षत्र बन जाती हैं।)
गुप्तजी ने बहुत ही अलंकृत रूप में प्रकृति को सजाया है।
सरल तरल जिन तुहिन कणों से हँसती हर्षित होती है;
अति आत्मीया प्रकृति हमारे साथ उन्हीं से रोती है।
अनजानी भूलों पर भी वह अदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा सदय भाव से सेती है। 8
कवि कहते हैं - प्रकृति और मनुष्य का संबंध पुराना है। जैसी मनुष्य की भावना होती है वह प्रकृति को उसी रूप में देखता है। प्रसन्न प्राणी को प्रकृति भी प्रसन्न दिखायी देती हैं; दुखी प्राणी को दुखी दिखायी देती है। सुख के क्षणों में ओस की बुँदें मोती प्रतीत होती हैं तो दुख के क्षणों में आंसू । प्रकृति कभी किसी के साथ पक्षपात नहीं करती । प्रकृति निष्ठुर भी है दयावती भी है। वह अज्ञानजन्य भूलों का भी दंड देती है, साथ-साथ वृद्धों की सेवा भी करती है। प्रकृति में समरसता है, समानता है, छोटे-बड़े सब उसकी दृष्टि में बराबर हैं।
यहाँ प्रकृति का आलंबन रूप में चित्रण है।
तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,
वन को आते देख हमें जब आर्त अचेत हुए थे तात ।
अब वह समय निकट ही है जब अवधि पूर्ण होगी वन की,
किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की? 9
लक्ष्मण सोचने लगा - देखते-देखते तेरह साल बीत गए। हमारा वन को जाना देखकर पूज्य पिता का मुर्छित होना कल की घटी बात-सी लगती है। बहुत शीघ्र ही वनवास का समय पूरा होनेवाला है। लेकिन मुझे इससे क्या? मुझे तो अयोध्या जाने पर भी आर्य रामचन्द्रजी की सेवा से बढकर कौन-सा अधिक सौभाग्य प्राप्त हो सकता है?
यहाँ राम के प्रति लक्ष्मण के अनन्यभाव का परिचय मिलता है।
और आर्य को, राज्य-भार तो वे प्रजार्थ ही धारेंगे,
व्यस्त रहेंगे, हम सबको भी मानो विवश विसारेंगे।
कर विचार लोकोपकार का हमें न इससे होगा शोक;
पर अपना हित आप नहीं क्या कर सकता है यह नरलोक। 10
लक्ष्मण सोच-विचार में पड़ जाता है-श्री रामचन्द्र को वनवास के चौदह वर्ष बीतने पर राज्य का भार स्वीकार करना ही पडेगा । तब हमारी ओर अब की तरह ध्यान नहीं दे सकेंगे। लोकोपकार को ध्यान में रखने के कारण हमें उससे दुख न होगा मगर सोचने की बात यह है कि क्या मनुष्य-समाज अपना भला आप स्वयं नहीं कर सकता? क्या उसके लिए राजा की आवश्यकता बनी ही रहेगी?
यहाँ लक्ष्मण के आदर्श रूप की झांकी मिलती है। लक्ष्मण स्वावलंबन पर बल देते हुए आधुनिक नेताओं पर आश्रित मनुष्य को सचेत करते हैं।
मंझली माँ ने क्या समझा था, कि "मैं राजमाता हूँगी,
निर्वासित कर आय्र्य राम को अपनी जड़े जमा लूँगी"।
चित्रकूट में किन्तु उसे ही, देख स्वयं करुणा थकती,
उसे देखते थे सब, वह थी निज को हीन देख सकती ॥ 11
लक्ष्मण मन ही मन सोचता है - मंझली माँ कैकेई ने सोचा था कि राम को वनवास देकर मैं राजमाता बनूँगी । परन्तु चित्रकूट में स्थिति बिलकुल परिवर्तित हो गयी थी। अब वह दया की प्रतिमूर्ति थी। अपने दुष्कृत्य पर इतनी लज्जित हो रही थी कि दूसरों को क्या स्वयं अपने को दृष्टि उठाकर नहीं देख सकी । पश्चाताप के कारण सिर नीचा हो गया था।
इसमें भरत मिलाप के समय चित्रकूट में आयी हुई कैकई मनोदशा का वर्णन है।
अहो! राजमातृत्व यही था, हुए भरत भी सब त्यागी
पर सौ सौ सम्राटों से भी हैं सचमुच वे बड़भागी।
एक राज्य का मूड जगत् ने कितना महा मूल्य रक्खा,
हमको तो मानो वन में ही है विश्वानुकूल्य रक्खा ।। 12
कैकेई का यही राजमातृत्व था। बुरा सोचने का परिणाम बुरा ही होता है। किन्तु भरत का चरित्र महान है। वे सैकडों राजाओं से भी अधिक भाग्यशाली हैं जिन्होंने सर्वस्व त्याग कर राम-चरण सेवा को अपनाया है। यह संसार कितना मूर्ख है जो राज्य को अधिक महत्व देता है। हमें तो जंगल में ही मंगल है।
लक्ष्मण ने कैकेई की भर्त्सना के साथ-साथ भरत के त्याग की प्रशंसा की है। ये पंक्तियां व्यंग्य से भरी हैं।
होता यदि राजत्व मात्र ही लक्ष्य हमारे जीवन का,
तो क्यों अपने पूर्वज उसको छोड़ मार्ग लेते वन का?
परिवर्तन ही यदि उन्नति है तो हम बढ़ते जाते हैं,
किन्तु मुझे तो सीधे सच्चे, पूर्व-भाव ही भाते हैं ॥ 13
लक्ष्मण मन में तर्क कर रहा है - हमारे जीवन का प्रधान उद्देश्य राज्य पालन करना नहीं है। अगर ऐसा होता तो हमारे पूर्वज अपनी राज-सत्ता छोड तपस्या हेतु वन-गमन क्यों करते? परिवर्तन का नाम ही प्रगति है, तो हम नित्य प्रति विकास-पथ पर अग्रसर होते जा रहे हैं। लेकिन मुझे तो पूर्वजों के सीधे सच्चे सरल भाव ही अच्छे लगते हैं।
लक्ष्मण के विचार अत्यधिक ऊँचे हैं। हाँ! त्याग और पूर्व संस्कार ही हमारी संस्कृति के प्राण हैं।
जो हो, जहाँ आर्य रहते हैं वहीं राज्य वे करते हैं,
उनके शासन में बनचारी सब स्वच्छन्द विहरते हैं।
रखते हैं सयत्न हम पुर में जिन्हें पिंजरों में कर बन्द,
वे पशु-पक्षी भाभी से हैं हिले यहाँ स्वयमपि, सानन्द । 14
कुछ भी हो, जहाँ राम वहीं अयोध्या । आज श्रीराम वन के राजा बने हैं। उनकी प्रजा (वनचारी प्राणी) स्वच्छन्द रूप से विचरण कर रही है। तोते, मैना, हिरण वगैरह जिन पशु-पक्षियों को हम मनोविनोद के लिए नगरों में पिंजडों और बंधनों में रखते हैं, वे यहाँ स्वयं अपने आप आनन्द पूर्वक हमारी भाभी सीता जी के साथ हिल मिल गये हैं।
लक्ष्मण के विचार मनोवैज्ञानिक हैं।
तुलना:
अवध तहाँ जहाँ राम निवासू। (तुलसी)
करते हैं हम पतित जनों में बहुदा पशुता का आरोप,
करता है पशु वर्ग किन्तु क्या निज निसर्ग नियमों का लोप?
मैं मनुष्यता को सुरत्व की जननी भी कह सकता हूँ,
किन्तु पतित को पशु कहना भी कभी नहीं सह सकता हूँ। 15
हम प्रायः (आचार, नीति या धर्म से भ्रष्ट) पतित लोगों को पशु कहते हैं । यह बिलकुल अन्याय है। पशु तो अपने स्वाभाविक नियमों के अनुसार खाते, पीते और अन्य कार्य करते हैं। लेकिन अपने को सर्वश्रेष्ठ और बुद्धिमान माननेवाला मनुष्य प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करके दुराचारी और पापी बनता है। ऐसे मनुष्य से पशु हजार गुने अच्छे हैं। सच्ची मनुष्यता तो देवत्व की जननी है। मगर धर्म-विमुख मनुष्य को पशु कहें तो उससे पशु का अपमान होता है।
लक्ष्मण ने मनुष्यता की सुन्दर अभिव्यक्ति की है। लक्ष्मण विशाल दिलवाला है।
आ आकर विचित्र पशु-पक्षी यहाँ बिताते दोपहरी,
भाभी भोजन देती उनको, पञ्चवटी छाया गहरी।
चारुचपल बालक ज्यों मिलकर माँ को घेर खिझाते हैं,
खेल-खिझाकर भी आया को वे सब यहाँ रिझाते हैं। 16
पंचवटी की घनी छाया में दोपहर की धूप से दुखी अनेक पक्षी आकर विश्राम करते हैं। भाभी समयानुसार उनको जब भोजन देती हैं तो वे सुन्दर और चंचल बालकों की तरह घेर लेते हैं और भोजन के लिए तंग करते हैं । इस खिझाने में भी सीताजी को आनंद का अनुभव मिलता है।
इन पंक्तियों में पशु पक्षियों के प्रति सीता का अनुराग स्पष्ट होता है।
गोदावरी नदी का तट वह ताल दे रहा है अब भी,
चंचल-जल कल-कल कर मानो तान दे रहा है अब भी।
नाच रहे हैं अब भी पत्ते, मन-से सुमन महकते हैं,
खंद्र और नक्षत्र ललककर लालच भरे लहकते हैं। 17
सामने गोदावरी नदी का वह सुंदर किनारा लहरों की आवाज के कारण ताल देता हुआ-सा दीख रहा है। मधुर - मनोहर शब्द के साथ बहता हुआ चंचल जल ऐसा दीख रहा है मानों राग अलाप रहा हो। किनारे के पेड़ों के हिलते हुए पत्ते उस ताल और राग के अनुसार नृत्य करते हुए-से जान पड़ते हैं। यह सब देखकर पुष्प आनंदित होकर स्वेच्छा से सुगन्ध फैला रहे हैं। चन्द्रमा और नक्षत्र प्रेमवश लालच भरी निगाहों से इन सबको देखते हुए शोभित होते हैं।
यह पद्य प्रकृति चित्रण का सुन्दर उदाहरण है। गुप्तजी ने प्रकृति की आभा का वर्णन एक नाच-गान कार्यक्रम के माध्यम से किया है। प्रकृति का मनोहारी चित्रण हुआ है।
बैतालिक विहंग भाभी के सम्प्रति ध्यानलग्न-से हैं,
नये गान की रचना में वे कवि-कुल तुल्य मग्न-से हैं।
बीच-बीच में नर्तक केकी मानो यह कह देता है
मैं तो प्रस्तुत हूँ देखें कल कौन बड़ाई लेता है ॥ 18
राजमहलों में रहनेवाली जानकी वन में रहती हैं। वन के पक्षी बन्दी जन बनकर अपने कलरव द्वारा उनका यशोगान करते हैं ।
लक्ष्मण सोते हुए पक्षियों को देखकर सोचता है भाभी जी के जैतालिक बने हुए ये पक्षी इस समय सन्नाटे में आँखें मूंदे निद्रा में मग्न होकर नये गान की रचना में एकाग्र और तल्लीन कविगण की तरह जान पड़ते हैं। नृत्य कला में निपुण मोर की कूक बीच-बीच में ऐसी सुनाई देती है मानों वह सब पक्षियों को चुनौती देता है कि मैं सीताजी को प्रसन्न करने के लिए अभी तैयार हूँ। देखें, प्रात: काल होने पर जब जानकी के सामने सब पक्षी अपनी कला प्रदर्शित करेंगे तब किसकी प्रशंसा होगी।
प्रकृति की छटा का यह वर्णन अति है। सुन्दर
आँखों के आगे हरियाली रहती है हर घड़ी यहाँ,
जहाँ तहाँ झाड़ी में झिरती है झरनों की झड़ी यहाँ।
बन की एक एक हिमकणिका जैसी सरस और शुचि है,
क्या सौ-सौ नागरिक जनों की वैसी विमल रम्य रुचि है?
लक्ष्मण नगर निवास और वनवास की तुलना करते हुए सोचता है।
यहाँ (पंचवटी में) हमारी आँखों के सामने बहुत दूर तक चारों ओर वृक्षों की हरियाली ही हरियाली दिखाई देती है। जगह-जगह पर झाडियों के बीच से झरते हुए झरने दिखाई देते हैं। इस वन के एक-एक तुषार कण की मनोहरता और स्वच्छता की समानता क्या सैकड़ों नागरिकों की स्वच्छ भावना कर सकती है?
इस पद्य में गुप्तजी के ग्राम्य प्रेम की झलक मिलती है।
मुनियों का सत्संग यहाँ है, जिन्हें हुआ है तत्व-ज्ञान,
सुनने को मिलते हैं उनसे नित्य नये अनुपम आख्यान ।
जितने कष्ट - कण्टकों में है जिनका जीवन-सुमन खिला,
गौरव गन्ध उन्हें उतना ही अत्र-तत्र सर्वत्र मिला ॥ 20
लक्ष्मण ऋषि-मुनियों के सत्संग की चर्चा करते हुए जीवन के रहस्य का परिचय देता है।
यहाँ उन ऋषि-मुनियों का सत्संग है जिन्होंने वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया है। समय-समय पर उनके सुन्दर उपदेश सुनने को मिलते हैं। इन मुनियों ने कठिन साधना के द्वारा तत्व- ज्ञान प्राप्त किया है। सच है, जिसका जीवन रूपी पुष्प जितने कष्ट रूपी कंटकों में विकसित होगा, उसे उतनी ही गौरव रूपी सुगन्धि प्राप्त होगी।
दुख हमारी भावनाओं को परिष्कृत करता है। पुष्प का रूपक बांधकर कवि ने इसी सत्य का उद्घाटन किया है।
शुभ सिद्धान्त वाक्य पढ़ते हैं शुक-सारी भी आश्रम के.
मुनिकन्याएं यश गाती हैं क्या ही पुण्य-पराक्रम के अहा।
आर्य के विपिन राज्य में सुखपूर्वक सब जीते हैं,
सिंह और मृग एक घाट पर आकर पानी पीते हैं॥ 21
यहाँ वन में श्रीरामचन्द्र जी का राज्य पालन भी कितना अच्छा हैं! तोते और मैना भी शास्त्रों के मंगलप्रद वाक्य सुनाते रहते हैं। आश्रम की मुनि कुमारियाँ श्रीराम के पुण्य पराक्रम का यशोगान करती हैं। जंगल के प्राणी सब स्वेच्छा और निर्भयता के साथ जीवन यापन कर रहे हैं। भगवान राम के राज्य में सभी प्राणी सुखपूर्वक जीते हैं। सिंह और हिरण (परस्पर शत्रु-भाव छोडकर) एक ही घाट पर पानी पीते हैं।
रामराज्य का सुन्दर चित्रण यहाँ मिलता है। अंतिम पंक्ति में सुन्दर मुहावरे का प्रयोग हुआ है । शांत रस का सुन्दर उदाहरण हमें मिलता है।
गुह निषाद शवरों तक का मन रखते हैं प्रभु कानन में,
क्या ही सरल वचन रहते हैं इनके भोले आनन में!
इनें समाज नीच कहता है पर हैं ये भी तो प्राणी,
इनमें भी मन और भाव हैं किन्तु नहीं वैसी वाणी ॥ 22
श्रीरामचन्द्र के इस राज्य में ऊँच नीच का भेद-भाव नहीं है। गुह, निषाद और शबरी जैसी जंगली जातियों के व्यक्तियों पर भी राम ध्यान देते हैं। वे लोग बडे भोले हैं और मीठे शबदों का उच्चारण करते हैं। समाज इन लोगों को नीच कहता है तो यह समाज का अन्याय है। ये भी हम जैसे प्राणी है। हमारी ही तरह मन और भाव रखते है। हाँ, एक अंतर अवश्य है। ये सथ्य कहलानेवाले हम लोगों को तरह सथ्य (कृत्रिम और पुणई) भाषा नहीं बोलते।
इस पद्य में गांधीवाद का प्रभाव है। कवि सामाजिक दर्शन का समर्थन करते हैं। जाती -पांति का विरोध खुल्लम-खुल्ला मिलता है।
कभी विपिन में हमें व्यंजन का पड़ता नहीं प्रयोजन है,
निर्मल जल, मधु कन्द मूल, फल- आयोजनमय भोजन है।
मनःप्रसाद चाहिए केवल, क्या कुटीर फिर क्या प्रासाद?
भाभी का आहलाद अतुल है, मंझली माँ का विपुल विषाद। 23
लक्ष्मण वन-जीवन में सुलभ आनंद का वर्णन करते हुए आत्म-संतोष का अनुभव करते हैं।
यहाँ प्रकृति की गोद में हमें पंखे की आवश्यकता नहीं पडती। पीने के लिए स्वच्छ जल मिलता है। वन के मधुर मधु और कन्द, मूल फल आदि से भरा सात्विक तथा स्वाभाविक भोजन मिलता है। कुटीर हो या प्रसाद, मन की तृप्ति ही इच्छित वस्तु है। यहाँ वन के पर्ण कुटीर में भाभी जी कैसे असीम आनंद के साथ रहती हैं। वहाँ अयोध्या के राजमहलों में मंझली माँ कैकेई कितनी व्याकुलता से रहती हैं।
लक्ष्मण के विचार अत्यधिक मनोवैज्ञानिक हैं। कवि ने संतोष को ही सुख-दुख की कसौटी माना है।
अपने पौधों में जब भाभी भर भर पानी देती हैं,
खुरपी लेकर आप निराती जब वे अपनी खेती हैं।
पाती हैं तब कितना गौरव कितना सुख, कितना सन्तोष।
स्वावलम्ब की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष ।॥ 24
लक्ष्मण सोचते हैं - जब भाभी सीताजी अपने हाथों से अपने पौधों को पानी देती हैं और खुरपि लेकर अपने खेत निराती हैं तब उन्हें कितना आत्म-संतोष मिलता है। वे गर्व से भर जाती हैं। आत्म संतोष के इस सुख पर कुबेर का धन कोष भी न्योछावर है।
इस अवतरण में कवि गुप्त जी ने स्वावलंबन के महत्व का प्रतिपादन किया है। आज के अकर्मण्य व्यक्तियों को कर्मण्यता संदेश दिया गया है।
तुलना :
जब आवत संतोष धन, सब धन धूरि समान। (तुलसीदास)
सांसारिकता में मिलती है यहाँ निराली निस्पृहता,
अत्रि और अनुसूया की-सी होगी कहाँ पुण्य गृहता?
मानो है यह भुवन भिन्न ही, कृत्रिमता का काम नहीं,
प्रकृति अधिष्ठात्री है इसकी, कहीं प्रकृति का नाम नहीं
लक्ष्मण नागरिक जीवन और प्राकृतिक जीवन का तुलनात्मक अध्ययन कर रहे हैं।
इस वन में लौकिक काम-काज में मग्न रहने पर भी हम में एक पवित्र अनासक्त भाव आ जाता है। महर्षि अत्रि और महासती अनसूया के समान आदर्श पुण्य दंपति को हम कहाँ देख सकते हैं? वन में रहकर उनके समान पुण्य संपादन कौन कर सकता है? शायद यह संसार ही भिन्न है। यहाँ आडंबर या कृत्रिमता नहीं है। स्वयं प्रकृति देवी ही इस स्थान की स्वामिनी है। नगरों का जीवन तो बिलकुल उल्टा और अप्राकृतिक है। यहाँ इस प्राकृतिक जीवन में विकृति (छल, कपट, मोह, मद, लोभ, ईर्ष्या, हिंसा, द्वेष) का नाम तक नहीं है।
कवि ने "प्रकृति की ओर लौटो" सिद्धांत पर जोर दिया है।
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