Tuesday, April 27, 2021

पंचवटी - 51 - 100

 

 पंचवटी -51 - 100

     वृक्ष लगाने की ही इच्छा......... मैंने तुम से पाई है। (51)

         व्याख्या : - शूर्पणखा आगे प्रश्न करती है, “संसार में कितने लोगों को वृक्ष लगाने की इच्छा रहती है ? परंतु उन वृक्षों में जब फल लगते हैं, ये जन सब के सब उसका स्वाद तो लेते हैं और सुख भोगते हैं। इस तर्क को सुनकर लक्ष्मण अब हँस पड़े और कहने लगे- हाँ, बात तो सही है। मैंने यों ही यह तपस्वी की पदवी, तुमसे मुफ़्त में ही पा ली है।" -


   यों ही यदि तप का फल पाऊँ.........क्यों अमूल्य अवसर खोऊँ ?" (52)

    व्याख्या :- 'अगर इसी तरह मुझे इस तपस्या का फल मिल भी जाए तो मैं उसे न चखूँगा और अपने लिए न रखूंगा। तुम्हारे जैसे लोगों के लिए सुरक्षित रखूँगा।'

शूर्पणखा हँस पड़ी और फिर बोलने लगी 'मान लो कि वह फल स्वयं मैं ही हूँ, तब तुम क्या करोगे? बताओ इस बहुमूल्य अवसर को मैं खोऊँ ?"


 'तो मैं योग्य पात्र खोजूंगा.........हुई तनिक लज्जित हो मौन।' (53)

        व्याख्या :- लक्ष्मण बोले: अगर वह फल तुम ही हो, तो मैं तुम्हारे लिए योग्य वर ढूँढूँगा। तब शूर्पणखा बोली- “मैंने तो स्वयं उस वर को ढूँढ लिया है। अब तक मैं उसका नाम नहीं जानती। परंतु वह मेरे लिए निश्चय ही उपयुक्त है। वह स्वयं अब मेरे ही सामने है।"

       इन बातों से लक्ष्मण ने चौंककर पूछा- कौन? सुंदरी से उत्तर मिला- 'तुम' परंतु यों कहते हुए वह युवती थोड़ी-सी लज्जा से मौन खड़ी हो गयी।


     'पाप शांत हो, पाप शांत हो,.........पहले ही कर बैठे नर ।" (54)

      व्याख्या :- शूर्पणखा के मुँह से ऐसे वचन सुनकर विस्मय के साथ अपनी नाराजगी भी प्रकट करते हुए ज़ोर से लक्ष्मण बोलने लगे- 'पाप शांत हो! पाप शांत हो। हे नारी, तुम कैसी औरत हो और कैसी बातें करती हो ? मैं एक विवाहित पुरुष हूँ।' सुधरकर शूर्पणखा बोलने लगी, 'इससे क्या है? क्या इस संसार में पुरुष दो-दो पत्नीवाले नहीं होते? पुरुषों के लिए इसमें आपत्ति क्या है? सारे शास्त्र तो पुरुषों के द्वारा रचित हैं तथा स्त्रियों को बंधन में डालनेवाले हैं। पुरुष वर्ग ने सारी सुविधाएँ अपने स्वार्थ के लिए कर ली हैं।


       तो नारियाँ शास्त्र रचना कर........आचारों का सुविचारी । (55)

    व्याख्या :- उत्तर में लक्ष्मण बोल उठे : 'तो क्या अब नारियाँ अपनी सुविधा के लिए नीति शास्त्र को अपने अनुकूल लिखवाना चाहती हैं? पुरुष तो नारी के सतीत्व के आदर्श पर उनका आदर करते हैं, नारी का गुणगान करने में संकोच नहीं करते। मेरे विचार में, लाख नियम होने पर भी मनुष्य अपने अन्तःकरण के अनुसार व्यवहार करें तो वही श्रेष्ठ होगा। मन के विचारों के चिंतन-मंधन के बाद जो निष्कर्ष निकलता है, वही सर्वोत्तम नीति बन सकती है। स्वयं आप ही यहाँ न्यायाधीश हैं। हमारे लिए अपना-अपना आचरण ही उनका मापदंड है।


     'नारी के जिस भव्य-भाव का,......... करो कहीं कृतकृत्य, वरो।' (56)

    व्याख्या :- लक्ष्मण बोलने लगे, 'जिस तरह के उच्च भाव और आचारण पर मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, उसी प्रकार पुरुषों में भी आदर्शपूर्ण श्रेष्ठ भाव देखने का अभिलाषी हूँ। बहुविवाह बड़े खतरे की बात है। इसके अतिरिक्त मैं क्या कहूँ। सुंदरी, मुझे क्षमा कर दो। मैं तुम्हारी अभिलाषा पूरी नहीं कर सकता। तुम होशियार नारी हो। कहीं और जाकर अपनी चतुराई से काम ले सकती हो।'


    "पर किस मन से वरूँ किसी को ?........होकर विवश, विकल, निरुपाय।' (57)

     व्याख्या :- शूर्पणखा बोल उठी: मेरे मन को तुमने जीत लिया है, फिर, मैं कैसे और किस मन से किसी और को चुनूँ !

       लक्ष्मण ने इसको टालते हुए कहा कि क्या मेरे ऊपर चोरी का इलजाम भी लगा रही हो? बाद प्रतिवाद में उतरी हुई मतवाली शूर्पणखा बोली- 'क्या मैं तुझपर झूठा इलज़ाम लगा रही हूँ? हाय! मेरा मन तो विवश, विकल और विफल होकर निरुपाय अवस्था में मेरे हाथों से निकल गया है।


    'कह सकते हो तुम कि चन्द्र का .......... व्याध पकड़ता नहीं कुरंग?" (58)

       व्याख्या :- शूर्पणखा प्रश्न करती है तुम कह सकते हो कि चंद्रमा का क्या दोष है कि चकोर प्रेमासक्त जाता है। परंतु क्या चंद्रमा ने उसपर अपनी किरणों के माध्यम से मोह-जाल नहीं फेंका कि चकोर उसमें स्वाभाविक रूप से फँस जाए। इसी तरह अगर दीप अपना प्रकाश नहीं फैलाता तो बेचारा पतंग उससे मोहित होकर उस कूदकर क्यों जल जाता? और फिर संगीत और वाद्यों के बजने पर उससे मोहित होकर फँसनवाले हिरण को शिकारी पकड़ नहीं लेता ?


      लेकर इतना रूप कहो तुम...........जिधर-तिधर मत फहरो तुम। (59)

      व्याख्या :-  शूर्पणखा आगे कहने लगी, "हे वीर व्रती! कहो कि तुमने अपने सौंदर्य से क्यों मुझे मो किया? प्रातःकाल की ठंडी हवा चलने लगी, फिर भी क्या कमल की कोमल पंखुड़ियाँ खिलीं नहीं? इतना और सौंदर्य सहित जो सामने हो, मैं छले बिना कैसे रह सकती हूँ? सुलक्षण लक्ष्मण ने पूछा, “हे सुंदर युवती ! क्या इतना अधीर हो रही हो? हवा के झोंको से इधर-उधर फहरनेवाली पताका की तरह डगमगा रही हो ?"


 "जिसकी रूप स्तुति करती हो,..........अब तुम हाय! हृदय हरके ?" (60)

    व्याख्या :- लक्ष्मण और भी प्रश्न करते हैं, “तुम जिसका रूप वर्णन इतनी उत्सुकता से करने ल क्या तुम्हें उसके कुल और शील के संबंध में कोई जानकारी है?" तब सुंदरी शूर्पणखा अपने अंग शिथिल कर उठी, “हे नर। तुम निर्दयी होकर यह क्या पूछ रहे हो ?"


 "अपना ही कुल-शील प्रेम में ......... - हृदय-कपाट खोल दो तुम।" (61)

     व्याख्या :- शूर्पणखा तर्क करती है, “हम स्त्रियाँ प्रेम जाल में पड़कर अपने ही कुल और शील का ख्याल नहीं रखतीं। प्रियतम की पात्रता क्या देखेंगी और क्या समझेंगी। अब व्यर्थ की बातें छोड़ दो। रात बीतने के पहले कुछ मीठी बातें तो बोलो। मैं अब तुम्हारे द्वार पर खड़ी एक प्रेमातिथि हूँ, जो प्रेम की आशा से आयी अतिथि हूँ। अतः अपने दिल का दरवाज़ा खोल दो।


   "अहा नारी! किस भ्रम में है तू ...........अति अनीति है, नीति नहीं ।। " (62)

        व्याख्या :- लक्ष्मण बोलते हैं हे नारी! तुम किस भ्रम में हो? तुम्हारी जो इच्छा है, वह प्रेम नहीं, मोह है। तू  मोह में पड़ी हो। यह तुम्हारा आत्म विश्वास नहीं, तुम्हारे मन का विद्रोह है, तुम वासना से ग्रस्त हो। यह अमृत से भरा अनुराग नहीं है, जहर भरा व्यामोह है। यह हमारा रिवाज़ नहीं; व्यतिक्रम है। नीति नहीं, अनीति है; सरासर क्रम और नियम के खिलाफ़ है।


   आत्मवंचना करती है, तू.........छोड भावना की यह भ्रान्ति ।(63)

      व्याख्या :- "हे नारी! बोल तू किस गलत धारणा के भ्रम में यह आत्म वंचना करती हो? खुले झरोखे से ऐसे झंझावत के झोंके में झाँको मत। इस मृगतृष्णा रूपी भ्राँति जो उत्पात मचा रही है, वह तुम्हें किसी प्रकार की शांति देनेवाली नहीं। तुम अभी सावधान हो जाओ। मैं तो दूसरी नारी का पति हूँ। इस तरह की दुर्भावना को छोड़ ही


   इस समय पौ फटी पूर्व में.........खडी स्वयं क्या ऊषा थी। (64)

        व्याख्या :- इतनें में सूर्योदय हुआ। रात समाप्त होनेवाली और सुबह खुलनेवाली थी। काले आकाश में सूर्य अपने अंग के चमक-दमक के साथ अपनी किरण फैलाने लगा। पूरब की दिशा में निकलनेवाली ये किरणें कुछ कुछ लाल और कुछ कुछ सुनहरी लगती थीं। इतने में पंचवटी की कुटी के द्वार खोलते हुए वहाँ एक दिव्य मूर्ति खड़ी हो गयी मानो स्वयं यही वह ऊषा थी। (यहाँ सीताजी के दिव्य दर्शन का संकेत है।)


     अहा! अम्बरस्था ऊषा भी ..... • लेने लगी अपूर्व हिलोर ।। (65)

     व्याख्या :- कवि माता सीता की उस दिव्य छवि का वर्णन इस प्रकार कर रहे हैं- "अहा! यह क्या दिव्य सौंदर्य है। कितनी आभा है। आकाश में प्रज्वलित उषा में भी इतनी स्वच्छता शायद ही रहती होगी। यह तो इस धरती की सजीव उषा है, आकाश की मूर्ति-सी नहीं। उधर पश्चिम की ओर देखें तो सुबह होने के कारण चंद्रमा का मुँह पीला पड़ गया है।

    लक्ष्मण के मुख पर भी अपूर्व ढंग से लज्जा की झलक दिखाई पड़ी।


  चौंक पड़ी प्रमदा भी सहसा........ देखी विगताडम्बर में।। (66)

     व्याख्या :- सामने सीताजी को अचानक देखकर वह युवती भी चौंक उठी। उस पवित्र और उत्तम देवी को देखकर कुमुदिनी-सी यह युवती सिमट गयी। शूर्पणखा ने एक बार आकाश की ऊषा की ओर देखा और फिर किसी प्रकार के आडंबर के बिना अपने सहज सौंदर्य में झलकती हुई सीताजी की ओर देखा।


     एक बार अपने अंगों की........रखते थे शुभ भूषण थे। (67)

     व्याख्या :- शूर्पणखा ने सीताजी को देखने के बाद एक बार अपने अंगों और आभूषणों की ओर देखा। उसने अपने आपको आभूषणों की भरमार में उलझे हुए देखा। फिर एक बार किसी प्रकार के आभूषण के बिना सरल एवं सीधी-सादी खड़ी हुई वैदेहीजी की और उसने अपनी नजर दौड़ाई। उसके पवित्र अंगों की शोभा देखी। उसने तब सोचा कि यह ऐसी शोभा है, जैसे अरुणोदय के समय कुछ ही नक्षत्रों की चमक से उषा के दर्शन होते हैं।


  हँसने लगे कुसुम कानन में  .......... जुठ आई भौरों की भीर ।। (68)

       व्याख्या :- जंगल के तरह तरह के फूल सीताजी की मुस्कुराहट से भरे इस सौंदर्य को देखकर झूमने लगे मानो वे एक भव्य चित्र देख रहे हों। डाल-डाल पर कलियाँ तो प्रसन्नता से खिल उठीं। मंद बहनेवाली हवा इन खिले फूलों को गिनने लगी और भँवरों का झुंड इन फूलों पर मंडराते हुए गुनगुनाने लगा।


   नाटक के इस नये दृश्य के........प्रिय भावों भरते थे। (69)

        व्याख्या :- अनुपम सुंदरी सीताजी के सौंदर्य से भरे इस नाटकीय नज़ारे के दर्शक थे इस वन के पक्षीवृंद | ये वृक्षों की डालियों पर जगह बनाकर इस दृश्य का सुमधुर रसास्वादन कर रहे थे। इनका कोलाहल और कुतूहल ऐसा था, मानो दर्शकों की भीड़ नाटक के (अभिनय के) प्रारंभ के पहले ही सीटी और तालियाँ बजा बजाकर अपने उत्साह को अपने व्यवहार से प्रकट करने लगते। लग रहा था मानो पंचवटी अब रंगमंच बन गया है। प्रेक्षकगण अपने कौतूहल से और उत्तेजित करते थे।


  "सीता ने भी उस रमणी को देखा,......चाहे तुमको प्राण समान ? (70)

       व्याख्या :- इस परिस्थिति में सीताजी ने उस नारी को देखा और फिर लक्ष्मण की ओर भी देखा। सीताजी ने उन दोनों के बीच में एक मुस्कुराहट भरी दृष्टि चलायी। सीताजी लक्ष्मण से पूछने लगीं- “देवर! तुम कितने निर्दयी व्यक्ति हो? घर आये मेहमान को बाहर ही खड़ा करके कैसे उसका अपमान कर सकते हो? उसके लिए तुम कुछ भी बन सकते हो, जैसा वह चाहे, उसके प्राणों के बराबर।


याचक को निराश करने में....... तो लेने में है क्या सोच ? (71)

      व्याख्या :- सीता आगे कहती हैं, "किसी याचक को कुछ देने के संदर्भ में कभी लाचारी हो भी सकती है। परंतु यहाँ अब वह नारी तुमसे आश्रय लेने के लिए नहीं आयी है। उल्टा, वह बिना किसी संकोच के, तुम पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने आयी है। कुछ देने में तुझमें कंजूसी हो सकती है, पर लेने में क्यों संकोच करते हो ?"


     उनके अरुण चरण-पद्मों में...... नूतन शुक रम्भा संवाद ? (72)

       व्याख्या :- सीताजी के चरण पद्म में सिर झुकाकर लक्ष्मण ने प्रणाम कर लिया और भाभी ने देवर को अपने आशीर्वाद यों दिये, "सफल हो तुम्हारी कामना!" सीताजी ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, "मैंने आप दोनों का संवाद पूरा नहीं सुना है। अब तुम्हीं बोलो, कब से चल रहा है यह “शुक-रंभा का नया संवाद ?" 


     बोली फिर उस बाला से वे ........... यह विराग लाये हैं ये। (73)

      व्याख्या :- उसी मुस्कुराहट के साथ सीताजी उस सुंदरी से बोलने लगीं- “हे वाले! हमारे देवर की बातों से तुम यों ही दुखी न हो जाना। ये ऐसे ही हैं। घर में पत्नी को छोड़कर यहाँ वन में आ गये हैं। इनकी उम्र ही क्या है, वैराग्य को लेकर आ गये हैं। यह मानवोचित व्यवहार नहीं। युवावस्था में संन्यास लेना कहाँ तक उचित है?".


   किन्तु तुम्हारी इच्छा है तो.........स्वयं स्वामिनी दासी हैं। (74)

       व्याख्या :- सीताजी शूर्पणखा से बोलती हैं- तुम्हारे मन में इस युवक से विवाह करने की इच्छा हो, तो कहो; मैं इन्हें मनाकर राजी कराऊँगी। तुम यहीं रहो। परंतु एक बात की समस्या तो है। तुम तो ऐश्वर्यवती हो और हम निर्धन वनवासी ठहरे। हमारे यहाँ कोई नौकर-चाकर नहीं हैं। हम स्वयं मालिक हैं और अपने लिए नौकर भी हैं। स्वयं अपनी स्वामिनी हैं, उसी समय अपनी दासी भी हैं।


    पर करना होगा न तुम्हें कुछ....... कह रखती हूँ इसे अभी । (75)

       व्याख्या :- यहाँ किसी प्रकार के नौकर-चाकर की सुविधा तो नहीं है। फिर भी मैं अभी कह देती हूँ कि मैं तुम्हें अपने कोमल हाथों से किसी प्रकार का काम करने न दूंगी। यहाँ तक कि पके हुए अन्न आदि को अपने हाथों से परोसने भी नहीं दूंगी।

      "हाँ! एक और बात मुझे तुमसे अभी कहनी है। वह यह है कि यहाँ हमारे द्वारा पालित कुछ पशु-पक्षी भी हैं। कभी वे अनजाने में ही सही तुम्हें तंग करें, तो उन्हें क्षमा कर देना।"


   रमणी बोली- “ रहे तुम्हारा....... मैं कृतार्थ हो जाऊँगी।” (76)

       व्याख्या :- शूर्पणखा बोलने लगी, “हे देवी! तुम्हारी बातों से मेरा रोम रोम तुम्हारे प्रति कृतज्ञता प्रकट कर रहा है कि तुम मुझे अपनी देवरानी बना लोगी।"

       सीता बोलीं, “इस वन में यदि तुम जैसी एक बहन मिलेगी, तो मैं भी तुमसे बात करके धन्य हो जाऊँगी।"


   "इस भाषा विषयक भाभी को.........मुझे मोद की आभा भी।" (77)

        व्याख्या :- लक्ष्मण मन ही मन खुश रहे कि 'भाभी को इस औरत के प्रति मेरे विचार तो अपरिचित नहीं हैं। फिर भी लक्ष्मण मुँह मोड़कर खड़े रहे। अब लक्ष्मण बोल उठे, “भाभी! इन व्यर्थ की बातों में क्या सार है ? इस हास्य-व्यंग्य में मुझे किसी प्रकार के हास्य-विनोद की झलक नहीं मिल रही है। "


     "तो क्या मैं विनोद करती हूँ........मेरे लिए निरन्तर रोती है।" (78)

       व्याख्या :- सीताजी बोली, "तब क्या मैं हँसी-मज़ाक करती हूँ? भातृप्रेमी रहते हुए भी तुम क्यों सूखते जा रहे हो? अब तुम्हारे मन में सदा उर्मिला की चिंता तुम्हें सताती है कि कहीं उर्मिला मेरे लिए निरंतर रोती बैठी होगी।"


   "तो मैं कहती हूँ, वह मेरी यही ध्यान में लाती हैं।" (79)

       व्याख्या :- सीताजी आगे बोलती हैं- "तो दावे के साथ कहती हूँ वह मेरी बहन तुम्हें दोषी नहीं कहेगी ऊपर से तुम्हारे सुखी रहने की खबर सुनकर उसे संतोष होगा। हम लोग अपने प्रियतम से प्रेम करके सुखी रहती हैं। वे हमारे लिए सर्वस्व हैं, ऐसा विचार करके हम संतुष्ट हो जाती हैं।


   जो वर माला लिए, आप ही ......उससे भी ऐसा बर्ताव ? (80)

      व्याख्या :- सीताजी लक्ष्मण से पूछने लगती हैं, “एक सुंदरी, जो स्वेच्छा से अपने हाथ में वर-माला लिये तुम्हारा वरण करने के लिए आयी है, नारी सुलभ लज्जा को त्यागकर, तुम्हें अपना तन, मन और धन अर्पण करने का प्रस्ताव लेकर आयी है, ऐसी नारी के साथ तुम्हारा यह निर्मम व्यवहार क्या उचित है ?"


   मुसकाये लक्ष्मण फिर बोले.....देख उटज की ओर कहा- (81)

      व्याख्या :- मुस्कुराते हुए लक्ष्मण उत्तर देने लगे, "इस प्रस्ताव को मैं किस मन से ठीक कहूँ। अपने सुख दुख सहने में फिर कैसे मैं अपने सुख-दुख का अनुभव कर सकता है।" तब सीताजी अपनी गरदन को मोड़ते हुए कहा, अच्छा! तब ज़रा ठहरो। (भाभी को रामचंद्रजी की ओर मुड़ते हुए देखकर) लक्ष्मण अरे। अरे! भाभी! कहने लगे और इतने में सीता ने श्रीरामचंद्र को बुला लिया।


  "आर्य पुत्र उठकर तो देखा,....दिखलाई निज नर-झाँकी ।" (82)

       व्याख्या :- आज प्रातः काल की कितनी शोभा है। श्रीरामचंद्र से कहा कि "आर्यपुत्र! जरा उठकर तो देखो! आज का प्रातःकाल कितना सुहावना है! यहाँ यह नारी स्वयं सिद्धि बनकर भाई की वधू के रूप में शृंगार करके द्वार पर खड़ी है ।" तुरंत जैसे ही श्रीराम कुटी से बाहर आये, तो क्षणभर के लिए उनके श्यामल रूप सौंदर्य पर मुग्ध हुई जैसी खड़ी रही। ऐसा लगा, मानो शस्य श्यामला धरती अपने सौंदर्य को इस पुरुष के रूप में प्रकट करती हो ।


    किंवा उतर पड़ा अवनी पर.....छिपा लिया सब ओर समेट। (83)

      व्याख्या :- अथवा यह सौंदर्य इस पृथ्वी पर कामरूप के किसी धन या किसी देवता का अवतरण है? इसमें एक अपूर्व ज्योति है और जीवन का गहरापन भी है। सुंदरी शूर्पणखा ने रामचंद्र के चरणों पर नतमस्तक होकर उनसे भेंट करने का दृश्य देखा तो ऐसा लगा मानो चंद्रक्रोध से अपने आपको मेघों में छिपा लिया हो।


    सीता बोलीं- “नाथ, निहारो.........सुनते नहीं नम्र विनती ? (84)

         व्याख्या :- सीता बोलीं, "हे प्रभु! देखो, यह अवसर अपूर्व है। तुम्हारे प्राणों से प्यारे भाई का तप देखकर देवेंद्र भी हिल गया और मान लिया कि इसके सामने इंद्र पद भी तुच्छ है। किंतु ये अप्सराओं की नम्र विनती को भी क्यों न सुनते ?


    तुम सबका स्वभाव ऐसा ही........मानों कुण्ठित कर डाला।।" (85)

      व्याख्या :- सीता आगे कहने लगीं, “तुम पुरुषों का स्वभाव ऐसा ही निराला है। अन्यथा घर आयी लक्ष्मी को कौन लौटा देगा? लो! उस सुंदरी का चेहरा उतर गया है। हाथ में वरमाला लेकर स्वयंवर के लिए खड़ी है। परंतु लग रहा है देवर लक्ष्मण ने अपना मुँह मोड़ लिया है।


    मुसकाकर राघव ने पहले........क्या चन्दन है, कुंकुम क्या! (86)

       व्याख्या :- रामचंद्र मुस्कुराते हुए पहले अपने छोटे भाई की ओर और बाद में इस सुंदरी की ओर देखकर कहने लगे, मानो मोर बोलने लगा हो। "हे शुभे ! पहले बताओ कि तुम कौन हो और चाहती क्या हो?" उनके मीठे शब्द सुनते ही शूर्पणखा का चेहरा खिल उठा। उसके सामने चंदन और कुंकुम नगण्य हो गये।


     बोली वह पूछा तो तुमने...... प्रकट हो चुका निश्चय है। (87)

     व्याख्या :- रमणी बोलने लगी, आपने तो पूछा कि मैं क्या चाहती हूँ। आपका यह रूप सौंदर्य भी कितना मोहक है। इन दाँतों और अधरों के आगे भला सफ़ेद मोती और मूँगा भी किस मूल्य के हैं? मैं कौन हूँ, इस प्रश्न का उत्तर मेरी वेश-भूषा से पता चल जाता है और चाहती क्या हूँ, यह भी निश्चय ही प्रकट हो चुका है।


    जो कह दिया, उसे कहने में.......दाव-पेंच या घात नहीं ।। (88)

      व्याख्या :- जो उत्तर मैंने पहले ही दे दिया है, उसे दुहराने में मुझे कोई संकोच नहीं और मेरे भावी जीवन की भी मेरी कोई योजना नहीं। मन में कुछ छिपाये रखते हुए बाहर के लिए कुछ और कहने की बात मुझमें है ही नहीं। मुझमें अमोघ और सहज शक्ति है। दाव-पेंच अथवा छल-कपट मैं नहीं जानती।


  "मैं अपने ऊपर अपना ही...... उनसे आप डरूंगी क्या ?" (89)

      व्याख्या :- शूर्पणखा आगे बोलती है- “मैं हमेशा अपने ऊपर अधिकार रखती हूँ। अपनी इच्छा के अनुसार जहाँ जाना चाहती चली जाती हूँ। मैं समय-असमय का विचार नहीं करती। किसी प्रकार की बाधा का भय नहीं। बाधाएँ स्वयं मुझसे डरती हैं। उनसे मैं क्यों डरूँ ?

    शूर्पणखा अपना तामसी गुण परोक्ष रूप से प्रकट करती है।


   अर्द्धयामिनी होने पर भी........भाव- सिन्धु में पैठे हैं। (90)

    व्याख्या :- आधी रात होने पर भी मेरे मन में बाहर घूम आने की इच्छा हुई और मैं इस वन में विहार करते आयी। मैंने यहाँ आकर आपके प्राणानुज को बैठे हुए देखा कि ये ऊपर शिला पर इस तरह बैठे हैं, जैसे विचारों के सागर में डुबकियाँ ले रहे हों।

      भाव सिन्धु विचारों का सागर (रूपक अलंकार)


    सत्य मुझे प्रेरित करता है,.......मुग्ध, लुब्ध कर सका नहीं ।। (91)

     व्याख्या :- शूर्पणखा कहती है, “मुझे सत्य की प्रेरणा मिल रही है कि मैं अब आपके सामने सच्ची बात की घोषणा कर दूँ। लक्ष्मण को देखकर मैं मुग्ध हुई और सोचा कि मैं अपना मन समर्पित कर दूँ। जो मन समर्पित हो चुका है, वह बहुत मूल्यवान है। उसे अब तक कोई भी चंचल नहीं कर सका और मोहित भी नहीं कर सका। कोई ललचा भी नहीं सका। ऐसा मन इनके सामने मैं स्वयं समर्पित कर चुकी हूँ।


    इन्हें देखती हुई आड़ में.........भेंट इन्हें देने आई ।। (92)

       व्याख्या :- शूर्पणखा रामचंद्र से आगे कहती है, "मैं बहुत समय से आड़ में छिपकर इनको देखती खड़ी रही। किस प्रकार की मनोदशा में मैं बेचैन रही, वह कैसे बतलाऊँ ? मन के प्रेमपूर्ण भावों से भरे सुमनों से एक माला बनाकर लायी थी। इस माला के बहाने इन्हें भेंट करने सामने आ गयी।"


   परये तो बस- 'कहो कौन तुम?"........छोटे रहते हैं छोटे। (93)

     व्याख्या :- शूर्पणखा आगे कहने लगी कि इस महाशय ने मुझे देखकर प्रश्न कर दिया कि- तुम कौन हो ? इतना भी नहीं कि तुम क्या चाहती हो, जैसे अभी आपने पूछा। आप दोनों या तो अच्छे होंगे अथवा बुरे होंगे। एक बात तो सच ही है कि बड़े हमेशा बड़े ही होते हैं और छोटे हमेशा छोटे ।


   तुम सबका यह हास्य भले ही........इनमें एक कड़ाई है। (94)

       व्याख्या :- शूर्पणखा कहती है, अजी! यद्यपि तुम सभी बातों में हास्य-व्यंग्य करते हो और मेरी हँसी मज़ाक उड़ाते हो, फिर भी मेरे मन में अपने अनुभव और अपने विचारों पर दृढ़ विश्वास है। तुम मेरी बात भी सुन लो। तुम बड़े हो, और इसलिए तुममें बड़प्पन है। दृढ़ता और साथ-साथ कोमलता भी है। तुम्हारे इस छोटे भाई में सिर्फ़ कड़ाई है।


    पहनो कान्त। तुम्हीं यह मेरी .......... सुख भोगोगे मेरे संग । (95)

      व्याख्या :- शूर्पणखा धीरे-धीरे अपने छल-भरे मन का उद्घाटन करती है। हे पुरुष! मेरी यह वरमाला तुम्ही पहन लो! तुम्हारी यह पर्णकुटी राजमहल बन जाएगा। मुझे ग्रहण कर लोगे, तो इस नारी (सीताजी) के कटाक्ष को बिलकुल भूल जाओगे। मेरे साथ रहने से सुमेरु और कैलाश पर्वत पर भी सुख भोगोगे।


     मुसकाई मिथिलेशनन्दिनी.......पकड़ प्रकोष्ठ पकड़ लेना ।। (96)

       व्याख्या :- मिथिलेशनन्दिनी सीताजी मुस्कुरायीं और अपने उदार हृदय का परिचय देती है कि "यह अनोखी बात है। पहले तुमने मेरी देवरानी बनने का प्रस्ताव रखा और अब मेरी सौत बनना चाहती हो? ठीक है। मेरी प्रार्थना तुमसे इतनी है कि मेरे स्वामी के नित्य दर्शन करने के सौभाग्य से वंचित न करना। तुम्हारी इसी चाल को कहते हैं "उँगली पकड़कर प्रकोष्ठ पकड़ लेना।"


    रामानुज ने कहा कि "भाभी, .........यदि औरों के लिए लड़ो।" (97)

       व्याख्या :- राम के भाई लक्ष्मण ने कहा, "अरे भाभी, यह बात तुम्हें भी मालूम है न कि कभी दूसरों के झगड़े में नहीं पड़ना चाहिए? तुम तो पंचायत करने आई और इस छल में क्यों फँसती हो? यह सच ही है कि दूसरों की तरफ़दारी करने जो आगे बढ़ते हैं, उन्हें कुछ न कुछ नुकसान उठाना पड़ता ही है।"


    रामचन्द्र रमणी से बोले.........सपत्नीक में रहता हूँ (98)

       व्याख्या :- राम उस सुंदर युवती शूर्पणखा से बोल उठे : हे कल्याणी! तुम्हारी आकृति से ही तुम्हारे स्वाभाव का परिचय हो ही जाता है। मानता हूँ कि तुममें अद्भुत गुण छिप हुए हैं। एक बात मेरी भी तुम सुन लेना कि यद्यपि मैं अपना घर-बार छोड़कर यहाँ जंगल में वास कर रहा हूँ, तथापि अपनी पत्नी सहित रह रहा हूँ।


     किन्तु विवाहित होकर भी यह . .......   प्रबल प्रेम का दान दिया। (99)

        व्याख्या :- राघव आगे कहते हैं एक और बात भी सुन लेना, "यह मेरा भाई विवाहित होकर भी यहाँ अकेला ही है। उसने मेरी खातिर अपने स्वजनों की उपेक्षा की है। तुमने अभी-अभी इसका हठ और एकनिष्ठ स्वभाव देखा है, पर तुमने अपने तीव्र प्रेम-दान का प्रस्ताव उसीको किया है ।


     एक अपूर्व चरित लेकर जो............तुम सत्यता जना दोगी ।। (100)

        व्याख्या :- रामचंद्र अपनी बातों को बढ़ाते हुए बोलते हैं, जो कोई एक अपूर्व चरित्र और भी लक्ष्य से निकलकर उसमें सफलतापूर्वक काम करते हैं, वे ही दृढ़ निश्चयी कहलाकर अपार गौरव के पात्र बनते हैं। इससे भी बढ़कर तुम अपनी ओर उन्हें मोह लोगी, तो तुम अपनी बातों में व्यक्त किये गुणों की सत्यता सबके सामने सिद्ध कर पाओगी।


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