विष्णु प्रभाकर
उत्तम भावना से भरे उन्नतम् उपन्यासकार
जन्म : 1912
रचनाएँ
उपन्यास 6
कहानी संग्रह 19
लघुकथा संग्रह 3
नाटक 19
रूपान्तर 3
एकांकी नाटक 19
अनुदित 2
जीवनी और संस्मरण 15
यात्रा वृतांत 5
विचार निबंध 2
बाल नाटक व एकांकी संग्रह 11
जीवनियाँ 2
बाल कथा संग्रह 12
विविध पुस्तकें 19
तथा रूपक संग्रह
मूर्धन्य उपन्यासकार विष्णु प्रभाकर (सन् 1912 से अब तक)
भारतीय उपन्यास के अंतिम दशक (1991 से 2000 तक) में श्री विष्णु प्रभाकर का स्थान प्रशंसनीय है । कहानीकार, एकांकीकार, उपन्यासकार, आलोचक, साहित्यिक चिंतक आदि विभिन्न साहित्य विधाओं के प्रशस्त साहित्यकार विष्णु प्रभाकर की साहित्य सेवा सराहनीय एवं अनुकरणीय है । ये अपनी रचनाओं में सामाजिक समस्याओं को प्रधानता देते हैं । खासकर नारी समस्याओं पर इन्होंने अपनी कलम चलायी । विशिष्ट सामाजिक चिंतक विष्णु प्रभाकर समाज तथा सामाजिक समस्याओं पर प्रकाश डालने में सशक्त हैं ।
विष्णु प्रभाकर का जन्म मुजफ्फर नगर के जानसठ तहसील स्थित मीरापुर गाँव में 20 जुलाई 1912 को हुआ । प्रमाण पत्रों के अनुसार इनका जन्म 21 जून सन् 1912 होने पर भी असल में इनका जन्म 20 जुलाई 1912 को ही हुआ था । अपनी आत्मकथा पंखहीन में ये कहते हैं
"मेरा जन्म 20 जुलाई, 1912 को हुआ । लेकिन मेरे सभी प्रमाण पत्रों में 21 जून 1912 लिखा हुआ है ।"
इनको अपनी जन्मभूमि, अपने गाँव के प्रति विशेष प्यार है । अपना गाँव मीरापुर के बारे में इनका कथन है - -
"मेरा जन्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से कस्बे मीरापुर में हुआ था । वास्तव में यह कभी आस-पास के गाँवों के 'बाजार' के रूप मैं विकसित हुआ होगा । कभी इसका नाम मेरा-पुर था । बाद में न जाने कैसे मीरा नाम की देवी से इसका सम्बन्ध हो गया । बचपन में हमारे घर में "मीरा की कढाई" जैसा एक त्योहार भी मनाया जाता था । इसकी तहसील है जानसठ और जिला है मुजफ्फर नगर ।"
तीसरी कक्षा तक इन्होंने अपने ही गाँव में शिक्षा पायी । गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ रहे थे । लेकिन उसके बाद अपने मामाजी के कारण उन्हें गाँव छोडकर पंजाब के हिसार जाना पडा । पंजाब के हिसार में अपने मामा के यहाँ रहते हुए वहाँ के चन्दूलाल एंग्लो हाई स्कूल से सन् 1929 में इन्होंने मैट्रिक परीक्षा पास की । गणित और हिन्दी इनका प्रिय विषय रहा । हिन्दी में भूषण, प्राज्ञ, विशारद तक पढाई की । इनके बाद प्रभाकर तथा बी.ए. परीक्षाएँ पास की ।
धन कमाने के लिए अपने परिवार की आर्थिक स्थिति में मदद करने के लिए ये हिसार के पशु-पालन फार्म पर काम करने लगे । इसी फार्म पर 15 साल तक क्लर्क के रूप में काम किया । फिर बाद में अकावुंटेंड बने । इन्होंने सन् 1955 से 1957 तक आकाशवाणी में ड्रामा प्रोड्यूसर के पद पर काम किया ।
विष्णु प्रभाकर का असली नाम विष्णु था । घर में इन्हें विष्णु दयाल या विष्णु सिंह के नाम से पुकारते थे । प्राइमरी स्कूल में इनका नाम विष्णु दयाल था । अपने मामा के साथ पंजाब जाने के बाद वहाँ के आर्यसमाजी विद्यालय में वर्ण के अनुसार विष्णु गुप्त के नाम से बुलाये जाते थे । पशु पालन फार्म पर अनेक गुप्त के होने के कारण ये विष्णु दत्त बना दिये गये थे । अंत में 'प्रभाकर' परीक्षा पास करने के कारण एक प्रकाशक ने उनका नाम विष्णु प्रभाकर बना दिया था । विष्णु प्रभाकर नाम उन्हें धीरे-धीरे पसन्द भी आया । अभी अब पूर्ण रूप से विष्णु प्रभाकर है ।
अपनी 26 वर्ष की आयु में विष्णु प्रभाकर की शादी सुशीला नामक सुशील युवती से सन् 1938 को हुई थी । अपनी पत्नी के प्रति इनका प्यार अटूट एवं अतुलनीय है । इनका वैवाहिक जीवन काफी सुखमय था । अब वे विधुर हैं और अपने पुत्र के साथ दिल्ली में जी रहे हैं। अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद विष्णु प्रभाकर ने अपना प्रसिद्ध उपन्यास, कर्ममयी नारी की कहानी का उपन्यास "कोई तो" (1995) को अपनी प्यारी पत्नी सुशीला को अर्पण करते हुए लिखे हैं -
"सुशीला को जो अब नहीं है पर जो इस उपन्यास के शब्द-शब्द में रमी हुई है ।"
साहित्यिक क्षेत्र में इनका प्रवेश एक कवि के रूप में हुआ था । फिर बाद में इन्हें कहानी साहित्य में रुचि बढने लगी । इन्होंने लगभग दो सौ कहानियाँ लिखी । लेकिन इनकी कहानी संग्रह में 150 कहानियाँ ही स्थान पायी हैं। बाकी में कुछ खो गया, कुछ को खुद विष्णु प्रभाकर ने खोने दिया । विष्णु प्रभाकर की सम्पूर्ण कहानियाँ आश्रिता, अभाव, मेरा वतन, मुरब्बी आदि खण्डों में संग्रहित हैं । इनकी ज्यादातर कहानियाँ समाज तथा सामाजिक समस्याओं से सम्बन्धित है ।
विष्णु प्रभाकर एक सफल कवि भी हैं । शुरू में ये कविताएँ लिखते थे । फिर धीरे-धीरे गद्य साहित्य में खासकर कहानी साहित्य में इनकी रुचि बढ़ने लगी । विष्णु प्रभाकर के शब्दों में... "शुरू में मैंने कविताएँ लिखीं । वह युग पद्य काव्य का भी था, तो मैंने कुछ गद्य काव्य भी लिखे, फिर कहानी भी लिखी, पर अंतत: कहानी लिखना ही मुझे रास आया । शुरू में जब ये सरकारी फार्म पर काम कर रहे थे तब प्रेमबन्धु के नाम से लिखा करते थे । फिर बाद में विष्णु प्रभाकर के नाम से जाने जाने लगे ।"
उपन्यास के प्रति इनकी विशिष्ट रुचि का भी विशेष कारण है। विष्णु प्रभाकर के अनुसार उपन्यास के मुक्त क्षेत्र में अभिव्यक्ति पर कोई बंधन नहीं है। वह संपूर्ण की उपलब्धि है । एक साथ कई स्तरों और धरातलों पर वह चलता है । विभिन्न कहानियों का चित्रण स्वतंत्र सत्ता के साथ उभर सकते हैं । यथार्थ को प्रकट करने के लिए उपन्यास ही सबसे सशक्त माध्यम है । अपने आप को मुक्त करने का आनन्द जितना उपन्यास के माध्यम से संभव हो सकता है उतना कहानी या नाटक के माध्यम से नहीं । इसी कारण से श्री विष्णु प्रभाकर अपने आपको श्रेष्ठ एवं मूर्धन्य उपन्यासकार साबित करने में सक्षम रहे ।
विष्णु प्रभाकर की भाषा सरल, सहज खडीबोली है । विषय के अनुरूप, वातावरण एवं आवश्यकता के अनुरूप सरल, सबल एवं सहज भाषा का प्रयोग इनकी विशेषता है । पात्रों की मनोभावनाओं को समझाने में, उनके रहन-सहन, आचार-विचार पर प्रकाश डालने में विष्णु प्रभाकर की भाषा अतुलनीय है । उपन्यास में इनकी शैली बहुत भिन्न एवं प्रशंसनीय है । इनकी ज्यादातर रचनाओं में पत्रात्मक शैली का प्रयोग किया है । उपन्यास में पत्रों के साथ स्वप्नों को भी उचित स्थान देने में आप विशिष्ट स्थान पाते हैं । छोटे नाटकों को भी उन्होंने स्थान दिया है। कहानी तथा उपन्यास की कथावस्तु के बारे में विष्णु प्रभाकर का विचार इस प्रकार है ।
"जहाँ तक कथावस्तु का संबंध है, वह जीवन से भी मिलता है और विचार से भी । लेकिन प्रत्येक घटना तो कहानी नहीं होती । कलाकार का संस्पर्श ही उस घटना को कहानी का रूप देता है।"
उनके साहित्य में उत्कृष्ट मानवता की खोज ही मुख्य उद्देश्य बनता है। वाद के बारे में भी इनका विचार सबसे भिन्न है। अपने लेखन के बारे में विष्णु प्रभाकर खुद कहते हैं - "आदर्श मुझे वहीं तक प्रिय है जहाँ तक वह यथार्थ का संबल है । 'वाद' में मैं आज तक विश्वास नहीं कर पाया । मेरे साहित्य में अग्नि नहीं है । मात्र सहज संवेदना है, जिसे आज के लेखक दुर्बलता ही मानते हैं । मैं जो हूँ वह हूँ। मैं मूलतः मानवतावादी हूँ । उत्कृष्ट मानवता की खोज मेरा लक्ष्य है ।"
भारतीय स्वाधीनता संग्राम को लेकर सन् 1950 में आकाशवाणी के लिए 6 रूपक नाटक लिखे थे । उनमें से एक की यह कविता उनकी देश भक्ति का परिचायक है -
"मैं बोलो किसकी जय बोलूँ जनता की या कि जवाहर की ? या भूला भाई देसाई - से, कानूनी नर-नाहर की ? या कहूँ समय की बलिहारी, जिसने यह कर दिखाया है ।"
विष्णु प्रभाकर पहले कहानियाँ ही लिखा करते थे । फिर बाद में कहानी से एकांकी के क्षेत्र में आ गए । इसका मूल कारण सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री प्रभाकर माचवे हैं। उन्होंने ही विष्णु प्रभाकर को नाटकें लिखने के लिए प्रोत्साहन किया । एक बार उन्होंने विष्णु प्रभाकर से कहा कि उनकी कहानियों में संवाद की मात्रा अधिक एवं प्रभावशाली है, अगर वे नाटक लिखेंगे तो सफल नाटककार बन सकते हैं। सन् 1939 में विष्णु प्रभाकर ने अपना पहला एकांकी नाटक "हत्या के बाद" लिख डाला ।
विष्णु प्रभाकर विशुद्ध गाँधीवादी एवं देश भक्त हैं । स्वतंत्रता के पहले से आज तक वे खद्दर के ही कपडे पहनते हैं । इसके पीछे भी एक रोचक घटना है । लडकपन में अपने चाचा के साथ एक सभा में इन्होंने भाग लिया । उस सभा में एक छोटा सा लड़का खद्दर पहनकर सब से यह विनती करने लगा कि मैं छोटा बच्चा हूँ, खद्दर पहनता हूँ । आप सब बडे हैं, सदा खद्दर ही पहनिए । इस भाषण से, उस बालक से प्रभावित होकर पूर्ण मन से इन्होंने खद्दर पहनना शुरू किया । आज तक खद्दर ही पहनते हैं। यह उनकी देशभक्ति तथा दृढ़ निश्चय के लिए एक सशक्त उदाहरण है।
विष्णु प्रभाकर के विचार में अपने दुख को जो सबका दुख बना लेता है वही महान साहित्यकार होता है, व्यक्ति के सुख-दुख, दर्द- पीडा, प्यार, व्यथा-वेदना को जो रचना सबका दुख-सुख, पीडा-प्यार, व्यथा-वेदना बना देने में समर्थ होती है वही महान है । व्यक्ति और समाज के यथार्थ से कटकर लेखक नहीं हो सकता । लेखक के यहीविचार ने उन्हें उन्नतम साहित्यकार साबित किया है ।
नारीमुक्ति की भावना इनकी कहानियों तथा उपन्यासों में प्रमुख स्थान पाती है । विष्णु प्रभाकर 'नारी' को मनुष्य के पद पर, शक्तिस्वरूपिणी के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते थे । उन्हीं के शब्दों में... "मैं नारी की पूर्ण मुक्ति का समर्थक हूँ। अंकुश यदि आवश्यक ही है तो यह काम भी वह स्वयं करें ।" समाज एवं सामाजिक प्रगति के बारे में भी इनका ध्यान आकृष्ट हुआ है । समाज की विभिन्न समस्याओं पर प्रकाश डालकर उनके प्रति जागरूकता पैदा करना इनका लक्ष्य रहा है । इस प्रकार वे श्रेष्ठ सामाजिक चिंतक साबित होते हैं ।
विष्णु प्रभाकर के साहित्य में ही नहीं, उनके जीवन में, उनके व्यक्तित्व में भी यथार्थता की झलक मिलती है । एक सुप्रसिद्ध साहित्यकार होने के बावजूद भी अपने बारे में, अपने साहित्य के बारे में इन्होंने जो कुछ कहा है वह इस बात की साक्षी है - "मैंने अपनी रचनाओं की चर्चा नहीं की है, करने योग्य कुछ है भी नहीं । मुझे अपनी रचनाएँ प्राय: अच्छी नहीं लगती और दूसरों का प्राय: अच्छी लगती हैं ।"
अभिव्यक्ति के बारे में विष्णु प्रभाकर का मत है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का लेखक के लिए वही महत्व है जो जीवन के लिए गति का । जहाँ गति का अभाव है, वहाँ मृत्यु है, जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है वहाँ साहित्य भी नहीं है क्योंकि साहित्य मानवात्मा की बंधनहीन अभिव्यक्ति है ।
" आवारा मसीहा " के नाम से बंगला के उन्नतम कथाकार श्री शरच्चंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी लिखकर इन्होंने बंगला और हिन्दु साहित्य के बीच में संबंध लाने का स्तुत्य प्रयास किया है। यह अन्यतम कृति भारत की रागात्मक एकता का ज्वलंत उदाहरण है । शरच्चंद्र सिर्फ बंगाल के ही नहीं, सारे देश के गौरव हैं । इनकी जीवनी "आवारा मसीहा" विष्णु प्रभाकर की कीर्ति पताका है । आवारा मसीहा का अनुवाद भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में हुआ है ।
"आवारा मसीहा” की रचना के बारे में विष्णु प्रभाकर का कथन है - "शरत मेरे प्रिय लेखक थे । मैं अकसर उनके उपन्यासों के पात्रों को लेकर सोचा करता था । लेकिन मैं आसानी से उनके जीवन की सामग्री प्राप्त नहीं कर सका । यद्यपि मैंने बंगला सीख ली थी, कुछ किताबें भी पढ़ी थीं लेकिन उनमें ऐसा कुछ भी नहीं था जो मुझे जीवनी लिखने के लिए पर्याप्त सामग्री जुटा पाता । इसलिए अन्ततः मैं उनके वास्तविक जीवन की खोज में निकल पडा । सोचा था कि अधिक से अधिक एक साल लगेगा । लेकिन लगे चौदह साल । कहाँ-कहाँ नहीं घूमना पड़ा मुझे ? देश-विदेश में उन सब स्थानों पर गया जिनका सम्बन्ध उनके जीवन से था या उनके पात्र वहाँ रहे थे । इसलिए जब यह जीवनी प्रकाशित हुई तो हिन्दी साहित्य में मेरा स्थान सुरक्षित हो गया ।
विष्णु प्रभाकर के उपन्यासों में निशिकांत, टूटते परिवेश, संस्कार, संकल्प, स्वप्नमयी, अर्धनारीश्वर तथा कोई तो सर्वप्रमुख हैं। इन सब में सामाजिक समस्याओं को, खासकर नारी पर शोषण का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया गया है । यह नायिका प्रधान कहानी है । इसमें नायिका कमला विधवा है और अपने चरित्र के बल से वह धीरे-धीरे पाठकों के मन और प्राण में बसती जाती है । निडर विधवा कमला को देखकर लोग मंत्रमुग्ध हो जाते हैं । 'तट के बंधन' की नीलम और स्वप्नमयी की अलका भी भुलाए नहीं भूलेंगी ।
"कोई तो" एक कर्ममयी नारी की कहानी है । इस उपन्यास की नायिका वर्तिका यथार्थ जीवन जीना चाहती है और किसी भी हालत में अपने आपको छिपाना या मुखौटा लगाना नहीं चाहती । वर्तिका को प्रधानता देने के साथ उससे सम्बन्धित अन्य पात्रों के द्वारा आज के भ्रष्ट, दूषित समाज का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करने में विष्णु प्रभाकर अपने आपको विशिष्ट साहित्यकार के रूप में दर्शाने में सफल हुए हैं। "कोई तो" में नारी तथा वैवाहिक समस्याएँ, राजनैतिक तथा धार्मिक समस्याएँ, गरीबी तथा आर्थिक विपन्नता की समस्याएँ आदि का यथार्थ चित्रण किया गया है । “संकल्प” की साहसी विधवा सुमति भी नारी शक्ति का प्रतीक है । नारी स्वतंत्रता एवं शक्ति पर विष्णु प्रभाकर ने अपनी कलम अधिकतम चलायी ।
मूर्धन्य उपन्यासकार विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित हैं । सन् 1953-54 में अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में 'शरीर से परे' को प्रथम पुरस्कार । आवारा मसीहा पर पब्लो नेरुदा सम्मान, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार । सत्ता के आरपार नाटक के लिए भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 'मूर्ति-देवी' पुरस्कार । सूर पुरस्कार-हरियाणा अकादमी, तुलसी पुरस्कार - उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, शरत् पुरस्कार - बंग साहित्य परिषद भगलपुर, शलाका सम्मान - हिन्दी अकादमी, दिल्ली । सन् 2002 को भारत सरकार की पद्मभूषण की उपाधि से विष्णु प्रभाकर सम्मानित हैं ।
हिन्दी साहित्य सेवा में पूर्ण रूप से लगे हुए विष्णु प्रभाकर हिन्दी जगत में चमकनेवाले तारों में से एक हैं। यह तो सौभाग्य की बात है कि तिरानबे साल की लंबी उम्र पार करके साहित्य सेवा में लगे हुए हैं । ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मूर्धन्य उपन्यासकार, मूल्यवान साहित्यकार विष्णु प्रभाकर को और अनेक साल हमारे साथ रहने दें ।
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