प्रश्न पत्र-1
हिन्दी-साहित्य का इतिहास
क . आदिकाल :
हिन्दी साहित्य का आरम्भ कब से हुआ, इस सम्बन्ध में विद्वानों के तीन मत रहे हैं।
पहले मत के अनुसार हिन्दी साहित्य का आरम्भ आठवीं सदी से माना जाता है। इस मत के अन्तर्गत ग्रियर्सन, मिश्रबन्धु, राहुल सांकृत्यायन, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, डॉ. रामकुमार वर्मा आदि शामिल हैं। दूसरे मत के अनुसार हिन्दी साहित्य का आरम्भ नौवीं शताब्दी से माना जाता है। इसमें श्री जायसवाल आदि विद्वान् सम्मिलित हैं। तीसरे मत के अन्तर्गत आचार्य शुक्ल, डॉ. श्यामसुन्दर दास, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि विद्वानों ने हिन्दी साहित्य का आरम्भ ग्यारहवीं सदी से माना है।
आदिकाल के उदय के मूल कारणों में तत्कालीन अव्यवस्थित धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा साहित्यिक प्रवृत्तियाँ ही रही हैं। विदेशी मुस्लिम और यवन आक्रमण कारियों तथा विकृत धार्मिक भावना से संत्रस्त होकर आदि काल का उदय हुआ।
1. आदिकाल का नामकरण :
1. रामचन्द्र शुक्ल-वीरगाथाकाल (वीरभाव की प्रवृत्ति के कारण)।
2. डॉ. रामकुमार वर्मा-चारणकाल (चारण या भाटों के द्वारा रचित कृतियों के कारण)।
3. राहुल सांकृत्यायन-सिद्ध-सामन्त युग (साहित्य में सिद्धों की वाणी और
सामन्तों की स्तुति के प्राधान्य के कारण)।
4. महावीरप्रसाद द्विवेदी-बीजवपनकाल।
5. डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी-आदिकाल (बाद में स्वयं द्विवेदी जी ने इस नामकरण का खण्डन
किया, क्योंकि यह नाम एक भ्रामक आदिम भावना को व्यक्त करने वाला था.)।
6. मिश्रबन्धु-आरम्भिककाल।
2 .आदिकालीन साहित्य की सामाजिक, राजनैतिक तथा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
अपभ्रंश की अंतिम अवस्था से हिन्दी का आविर्भाव माना जाता है। हिन्दी साहित्य के आदिकाल का प्रवर्तन यहीं से होता है । सातवीं सदी के मध्य में सम्राट हर्षवर्धन का निधन हुआ । उस समय देश में सुख-समृद्धि थी, धर्म और समाज में व्यवस्था थी। वह संस्कृत साहित्य का भी स्वर्णकाल था । संगीत, और साहित्य के साथ चित्रकला और वास्तुकला उत्कर्ष में रही।
सामाजिक पृष्ठभूमि :-
जनता शासन और धर्म की ओर से निराश हो चुकी थी। वैदिक मत की वर्णाश्रम व्यवस्था के कारण समाज में ऊँच-नीच का भेद-भाव चलता था । अतः निम्नवर्ग के लोगों पर बौद्ध सिद्धों और नाथ-पंथियों का प्रभाव रहा । कई स्थानों पर निम्न जाति के लोगों ने इस्लाम धर्म को कबूल कर लिया । राजाओं के बीच, आये दिन जो लड़ाई चल रही थी, इससे जन-जीवन अशांत रहा । लोगों की जान और माल की सुरक्षा नहीं थी। बहुसंख्यक सामान्य जन को धर्माचार्यों का भी आश्रय नहीं मिला। समाज में नारियों की स्थिति शोचनीय थी । नारी भोग की वस्तु मानी गयी। स्त्रियों का अपहरण करके बेच डालना आम बात थी। कुल मिलाकर देश और समाज में हर समय सांप्रदायिक तनाव रहता था।
राजनैतिक पृष्ठभूमि:-
सम्राट हर्षवर्धन के निधन के बाद देश की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गयी । राज्य अनेक छोटे-छोटे रजवाडो में बैट गये। अनेक छोटे-छोटे राजवंश जैसे - तोमर, राठौर, चौहान, चालुक्य, चंडेल आदि आपस में लड़-भिड़कर अपनी शक्ति का ह्रास करने लगे इन राजाओं के परस्पर आक्रमणों में प्रजा की भी जान और माल की क्षति होती थी। जबसे मुहम्मद गजनी ने सोमनाथ मंदिर में आक्रमण करके सोना-चाँदी आदि अमूल्य संपत्तियाँ लूटीं, तबसे पश्चिम से निरंतर मुसलमानों के आक्रमण होते रहे । देखते-देखते दिल्ली, कन्नौज, अजमेर सहित समस्त हिन्दी प्रदेश मुस्लिम शासकों के अधीन आ गया राजनीतिक अव्यवस्था और राजाओं के आपसी कलह के कारण देश में एक विदेशी सभ्यता और संस्कृति का प्रसार होने लगा।
सांस्कृतिक पृष्ठभूमि:-
सम्राट हर्षवर्धन के समय भारतीय संस्कृति, साहित्य और संगीत, चित्रकला और मूर्तिकला आदि अपने उत्कर्ष में थी । भुवनेश्वर, खजुराहो, पुरी, कांची और तंजाऊर जैसे स्थानों पर अनेक भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ। मुसलमान शासकों ने भी स्थापत्य संगीत और चित्रकला को प्रोत्साहन दिया । इस तरह हिंदू-मुस्लिम संस्कृतियों का मैल इस युग की देन है।
इस तरह आदिकाल में राजनैतिक उथल-पुथल और सामाजिक अशांति के वातावरण में भी साहित्य को ख रहा। रचनाएँ होती रहीं और यह स्वाभाविक भी था।
3.आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ :-
1. आश्रयदाताओं की अतिशयोक्तिपूर्ण स्तुति
2. व्यापक राष्ट्रीयता का अभाव
3. चरित-काव्य लिखने की प्रधानता
4. अपभ्रंश प्रभावित हिन्दी
5. प्रबन्ध एवं मुक्तक काव्य की रचना
6. वीर तथा श्रृंगार रस प्रधान काव्य
7. लोक साहित्य की रचना
৪. सिद्ध, जैन एवं नाथ सम्प्रदाय द्वारा धार्मिक काव्य की रचना
अपभ्रंश साहित्य
अपभ्रंश काल में चार प्रकार की रचनाएँ उपलब्ध होती है। सम्पूर्ण अपभ्रंश-युग की कृतियों को हम चार मारो मे वर्गीकृत कर सकते हैं
1. अपभ्रंश साहित्य (आठवीं शताब्दी से 1050 तक)
1. सिद्ध साहित्य, 2. जैन साहित्य, 3. नाथ साहित्य, 4. लौकिक साहित्य
(i) नाथ साहित्य, सिद्ध साहित्य और जैन साहित्य
**नाथ साहित्य**
चौरासी सिद्धों की परम्परा में आने वाले प्रभावशाली तथा धार्मिक नेतृत्व की क्षगता से परिपूर्ण व्यक्तित्व सम्पन्न गोरखनाथ या गोरक्षपा हस सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। 'नाथ' शब्द मुक्ति दान करने वाले के अर्थ में व्यवहार होता है। इस सम्प्रदाय के सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं-चौरासी सिद्धों के इस सम्प्रदाय से नौ सिद्धों ने अपने आपको अलग कर लिया। योगियों की इस हिन्दू शाखा मे चजयानियों के अश्लील और वीभत्स विधानी से अपने का अलग रखा। ये नौ सिता कश्मीर की तराई में चले गए और वहाँ जाकर इन्होने नाय सम्प्रदाय की स्थापना की। इस कनपटी साधु भी कहा जाता था।) डो. रामकुमार वर्मा ने नाथ साम्प्रदाय की शिष्य परम्परा में आने वाले संते नामावली इस प्रकार दी है-
1. आदिनाथ, 2. मत्स्येन्द्रनाथ, 3. गोरखनाथ, 4. गाहिणीनाथ, 5. चर्पटनाथ,
6. चोरंगीनाथ, 7. ज्वावेळ 8. भर्तृनाथ, 9. गोपीचन्दनाथ।
नाथ सम्प्रदाय की विशेषताएँ
भाषा पुरानी हिन्दी या अपभ्रंश है। उस समय जिस भाषा का व्यवहार गुजरात, राजपूताना, ब्रजमण्डल से लेकर बिहार तक होता था, उसी का प्रयोग किया गया है।
विषय सामग्री
साम्प्रदायिक प्रवृत्ति और संस्कारों की परम्परा की सूचना देने वाले भावों का सृजन हुआ है। धर्म सम्बन्धी चर्चाओं की बहुलता है। नाथपंथियों की वाणियों में प्रतीकात्मक शब्दावली का प्रयोग हुआ, जिसमें निर्गुण संत कवियों ने अपना काव्य कौशल प्रस्तुत किया। डॉ. रामकुमार वर्मा के शब्दों में- "नाथ साहित्य का वर्ण्य-विषय दार्शनिक विचारधारा और आध्यात्मिक साधना के विविध उपाय और शैलियाँ हैं। इन कवियों ने सम्प्रदाय के चिन्तन पक्ष और आचार पक्ष पर सविस्तार विचार प्रकट किया है। इन्होंने धर्म और समाज के बाह्याडन्वरों एवं बाह्याचारों की निन्दा की है।.. हठयोग की प्रक्रियाओं का सविस्तार वर्णन नाथ साहित्य में हुआ है।
रस : विषय योजना की प्रवृत्ति ने शान्त रस प्रवाह बहाया। शिव शक्ति की भावना के कारण श्रृंगारमयी वाणी 'शक्ति संगम मंत्र आदि में मिलती है।
नाथ साहित्य का महत्त्व- नाथ पंथी संतों की काव्यधारा, निर्गुणी संत कवियों के लिए आविर्भाव की भूमिका का काम करती है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी इनकी रचनाओं में साहित्य की आत्मा के दर्शन करते हैं ।
**सिद्ध साहित्य – **
ये साधक सिद्ध कहलाते थे इनका प्रादुर्भाव सातवीं सदी में हुआ था । इन सिद्धों की संख्या चौरासी (84) थी। इन सिद्धों ने उपदेशात्मक काव्य रचा।
सिद्ध साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ -
सिद्धों की अटपटी वाणियों से योग एवं तांत्रिक क्रियाओं का स्वर द्वंकवा होता है। अपनी रहस्यात्मक अनुभूति को व्यक्त करनेवाले प्रतीकात्मक शब्दों एवम् वचनों का खुलकर प्रयोग किया गया।
भाषा
सिद्धों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली भाषा को 'सान्ध्य' भाषा कहा जाता है। अधिकतर सिद्धों का जन्म स्थान बिहार में मगध और नालन्दा था। परिणाम स्वरूप इनकी भाषा में अर्दधमागधी अपग्रेश की प्रमुखता है।
इस काल में प्रायः चर्यागीत, दोहा, चौपाई आदि पदों की योजना की गई।
सिद्ध साहित्य का महत्वः
वास्तव में भाषाविज्ञान के अन्वेषकों के लिए यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण काल है। पुरानी हिन्दी की जड़ो में से हिन्दी का बीज अंकुरण पा रहा था। जहाँ धर्म के क्षेत्र में यह युग सिद्धों के चमत्कारपूर्ण प्रदर्शनों का काल है. वहाँ साहित्य के क्षेत्र में आगे आने वाले रहस्यवादी, ज्ञानमार्गी और प्रेममार्गी कवियों-संतों के लिए पृष्ठभूमि तैयार करने का काल रहा।
सिद्धों के नाम इस प्रकर मिलते हैं- सरहपा (सं.817 ) शवरपा कर्णरीपा, लुहिपा, भुसुक, विरूपा, घंटापा, लीलपा, चम्पकपा आदि।
सरहपा :- राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें हिन्दी का प्रथम कवि माना है। इन्हें राहुल भद्र या सरोज मद्र भी कहते हैं। इनका समय 690 वि. माना जाता है। इनकी रचित कृतियों की संख्या 32 मानी जाती है। इन्होंने पाखण्ड का घोर विरोध किया। राहुल जी ने अपभ्रंश को पाली तथा प्राकृत से भित्न और हिन्दी से अमित्र सिद्ध करने के प्रयास में हिन्दी काव्य धारा का प्रारम्भ सरहपा से ही माना है।
शबरपा :- ये सरहपा के शिष्य थे। चर्यापद इनकी प्रसिद्ध रचना है।
** जैन साहित्य: **
हिन्दु धर्म की प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न हुए जैन धर्म को, अन्तिम और चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने देश व्यापी और लोक जीवन में प्रतिष्ठित किया। जैन धर्म हिन्दू धर्म से अधिक मेल खाता है। इस कारण इसका खूब प्रचार हुआ। परन्तु आगे चलकर इनकी आन्तरिक फूट के चलते इनमें दो भाग हो गए - श्वेताम्बर और दिगम्बर
सर्वप्रथम प्राकृत भाषा में लिखित ग्रन्थों का चयन 454 ई. में देवर्षिंगण ने सम्पन्न किया। जैन साहित्य की रचना करने वाले इन कवियों की रचनाओं द्वारा भारतीय समाज की ऐतिहासिकता की रक्षा हुई। इन कवियों ने धार्मिक रूढ़ियों तथा अंधविश्वासों की परम्पराओं की कड़ी आलोचना की है । सांसारिक विषयों के साथ-साथ प्रेमकथाओं पर रचनाएँ की गई हैं। हिन्दी साहित्य के प्रेममार्गी कवियों को प्रेमतत्व यहीं से मिला। इन कवियों में स्वयंभूदेव, देवसेन, पुष्पदन्त, आचार्य देवचन्द्र सूरी, हेमचन्द्र, मुनिराम सिंह जैन, धनपाल आदि प्रसिद्ध हैं। )
जैन साहित्य की मुख्य विशेषताएं:
* सिद्धों की तरह आध्यात्मिक और लौकिक अलोकिक वस्तुओं को लक्ष्य बनाकर
इस काल की कविता रची गई।
* इसमें अनेक विषयों की विविधता का समावेश हुआ ।
* लौकिक प्रेम कथाएँ एवं परम परिउ' को आगार बनाया गया।
* अवतारो की कश्या के सामा- साम्य नीति कथन भी किया गया है। तत्कालीन अप में
कविता कराने लोगों को रचनाओं को भी इन्होंने अपने प्रयों में स्नान दिया है, जिससे
विषयों की अनेकता को काणा में मान मिला है।
रसः श्रृंगार और शान्त रस की प्रधानता है।
भाषा- इन की कविताओं में प्राचीन हिन्दी की झलक मिलती है।
इनकी भाषा नागर अपभ के निकट है।
यह काल भाषा का निर्माण काल है।
छन्द-दो-चौपाई की पद्धति का पालन किया गया है, जिसकी परम्परा पालन चरित्र
कथन में 'कृष्णायन तक हुआ है। इसके अतिरिक्त इस काल में सोरठा, चतुष्पदी,
कवित, पद्धरि, हरिगीतिका छन्दों का भी प्रयोग हुआ है।
जैन साहित्य का महत्व
* साहित्य के विकास में इनका योगदान तो है ही परन्तु भाषा का क्षेत्र में इनकी देन
महत्वपूर्ण है।
*आध्यात्मिक-साम्प्रदायिक साहित्य का निर्माण इस युग में हुआ, जिसके भीतर हिन्दी
भाषाविद के लिए अमूल्य समाति सुरक्षित है।
* जैन साहित्य का दूसरा महत्व यह है कि कदि में गीति शैली का जन्म इस काल में हुआ ।
* इस काल में महान व्यक्तियों की जीवनिया एवं धरित्री देवार रामकुमार का यह सामान सत्य है-
जैन साहित्य वारा इतिहास की विष रक्षा हुई है।
जैनाचार्य हेमचन्द्र - गुजरात के सालकगी राजा सिद्धराज जयसिंह [सं.750-199] के समय
में जैनाचार्ग हेमचन्द ने एक बूहय व्याकरण अन्य सिद्ध-हेमचन्द शब्दानुशासन रचा था।
विजयसेन सूरी : संवत 298 में रेवंत गिरिरास' की रचना की जो जैन तीर्थकर नेमिनाथ
और रेवंत गिरि तीर्य से सम्बन्धित है।
सोमप्रभ सूरी- इन्होंने स.1241 में कुमारपाल प्रतिबोध' नामक एक संस्कृत-कृत काव्य
लिखा. था। इसमें कुछ प्राचीन अपभंज्ञा काव्य के नमूने मिलते है।
जैनाचार्य मेरुतुंग - इन्होंने संवत 1561 में 'प्रबन्ध चिन्तामणि' नामक गाय बनाया था।
जिसमें प्राचीन राजाओं की कथाएँ संग्रहीत है। इन कथाओं में राजा भोज के चाचा मुँज
के कहे दोहे मिलते हैं।
iii. वीरगाथा साहित्य
हिदी -साहित्य का वीरगाथा काल संवत् 1050 से लेकर संवत् 1375 तक) अर्थात महाराजा भोज के समय से लेकर हम्मीरदेव के समय के कुछ पीछे तक माना जाता है।
यह समय युद्ध का और शौर्य प्रदर्शन का समय था। एक ओर भारत पर मुसलमानों की चढाइयों का आरंभ हुआ तो दूसरी ओर भारत के राजा लोग आपस में लड़ते रहते थे। इसलिए राजाश्रिता कवि लोग अपने अपने आश्रयदाताओं के पराक्रमपूर्ण चरित्रों या गाथाओं का वर्णन किया करते थे। अतः इस समय बीररसपूर्ण साहित्य का आविर्भाव हुआ।
जैसे योरोप में वीरगाथाओं का प्रसंग युद्ध और प्रेम रहा वेसे ही भारत में भी था। किसी राजा के कन्या के रूप का संवाद पाकर दलबल के साथ चढाई करना और प्रतिपक्षियों को हरण कर लाना वीरो के गौरव और अभिमान का काम माना जाता था। इस प्रकार इन काव्यों में श्रृगार केवल सहायक रूप में रहता था।
ये वीर गाथाएँ दो रूप में मिलती हैं-प्रबन्ध के साहित्यक रूप में और वीर गीतों के रूप में। साहित्यक रूप में जो अब प्राचीन ग्रन्थ मिलता है वह पृथ्वीराज रासो' है। वीर गीत के रूप में सबसे पुरानी पुस्तक "बीसलदेव रासो" मिलती है।
इस वीरगाथा परंपरा के ग्रंथ "रासो" कहलाते हैं। कुछ विद्वानों का कहना है कि रासी का उद्भव "रहस्य" से हुआ है और कुछ का कहना है कि "रासायन" से राशि का तात्पर्य भी हो सकता है चाहे जो भी हो, "रासो" का ताप्मर्य वीर-रसपूर्ण वीरगाथा काल के ग्थो है।
इस समय के प्रधान रासो ग्रन्थ तीन है-
(1) खुमान सासो (2) बीसलदेव रासो (3) पृथ्वी राज रासो।)
1. खुमान रोसो
यह तो "दलपति विजय" नामक कवि का रचा हुआ ग्रंथ है। इस में प्रसिद्ध चितौड के रावल खुमान के वीरतापूर्ण युद्धों का वर्णन है। खुमान ने कुल मिलाकर 24 युद्ध किये और उन्होंने चितौड पर वि. सं. 869 से 893 तक राज्य किया था। लेकिन वर्तमानकाल में खुमान रासो की जो प्रतियों मिलती हैं, उसमें महाराणा प्रताप तक का उल्लेख पाया जाता है। किंतु इस ग्रंथ की सत्यता पर भारी सदेह बना हुआ है आर कहना है कि एक प्रति में श्रीरामचन्द्र से खुमान तक के युद्धों का वर्णन था।
2. बीसलदेव रासो :
यह नरपति नाल्ह कवि का रचा हुआ छोटा-सा ग्रथ है। यह ग्रंथ वीरगीत के रूप में है। इसका निर्माण काल यों दिया गया है
बारह से बहोतारौँ मझारि। जेठ वदी नवमी बुधवारी
'नाल्ह' रसायण आरभइ। सारदा तूठी ब्रह्मा कुमारि।
उपर्युक्त पद्य के अनुसार इसका निर्माण काल विक्रम संवत् 1212 है। इस ग्रंथ में विग्रहराज चतुर्थ उपनाम बीसलदेव के जीवन-वृत्तात का विशदपूर्ण वर्णन है। और यह लगभग 2000 चरणों में समाप्त हुआ है। 'पृथ्वीराज रासो' के समान यह कोई बड़ा काव्य ग्रन्थ नहीं है। यह केवल गाने के लिए रचा गया छोटा-सा ग्रन्थ है। वह गाने की चीज होने के कारण इसकी भाषा का समय समय पर परिवर्तन होता आया है। अतःआज की मिली उसकी प्रतियों में फारसी अरबी और तुरकी के शब्द भी मिलते हैं। इस ग्रन्थ की भाषा साहित्यिक नहीं ।
3. पृथ्वीराज रासो :
चंदबरदाई कृत बृहत काव्य ग्रथ है। यह हिंदी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है। यह ढाई हजार पृष्ठों का एक बहुत बढ़ा ग्रन्थ है। इसमें दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज के वीरतापूर्ण युद्धों का बहुत ही विशदपूर्ण वर्णन हुआ है। यह 69 अध्यायों का महाकाव्य है।) इस में प्राचीन समय के प्रचलित समस्त छन्दों का प्रयोग किया गया है। मुख्य छन्द है कविता (छप्पय) दूहा. तोमर, श्रोता, गाहा और आर्या । (प्रसिद्ध है कि इस ग्रंथ का उत्तरार्थ चदबरदाई के पुत्र जल्हन ने पूरा किया है। इसकी भाषा ठिकाने की नहीं है। इसमें कई प्रकार का व्याकरण के दोष मिलते हैं। लता
4. जयचंद्र प्रकाश :
यह भट्ट केदार का रचा हुआ काव्य है। उसमें कन्नौज के सम्राट जयचन्द्र के प्रताप और पराक्रम का विस्तृत वर्णन है।
5. आल्हा खण्ड:
यह महोबे के चन्देल राजा परमाल के राजकवि जगनिक के द्वारा रचा गया अधिक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसमें आल्हा और ऊदल नामक दो प्रसिद्ध वीरों की 52 लड़ाइयों और उनके विवाहों का वर्णन है । यह एक वीरगीतात्म काव्य के रूप में रचा गया है। कारण यही है कि इस गृथ के वीर गीतों का प्रचार समग्र उत्तर भारत में हुआ है। इसके गीतों का एक नमूना इस प्रकार है।
बारह बरसि लै कूकर जीये
औ तेरह लै जिये सियार।
बरिस अठारह क्षत्री जीये,
आगे जीवन के धिक्कार।।
उपर्युक्त उदाहरणों से मालूम होता है कि वीरगाथाकाल के काव्य ग्रथ वीररस प्रधान हुए हैं। इस समय के काव्य का विषय अपने आश्रय दाता राजाओं की जीवन घटनाओं का विस्तृत वर्णन है। इस काल के कवियों में खुसरो, विद्यापति आदि कवि भी मिलते हैं, जिनकी कविताएँ वीररस प्रधान नही हुई है। हाँ, ये इसके अपवाद मात्र हैं।
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