PRAVEEN UTTARARDH
रश्मि रथी RASHMIRATI
व्याख्यान-माला
प्रथम सर्ग
I. संदर्भ सहित व्याख्या :
1. 'जय हो' जग में जले...........शक्ति का मूल ।
संदर्भ: प्रस्तुत पद्यांश दिनकर द्वारा रचित 'रश्मिरथी' के प्रथम सर्ग से लिया गया है। प्रसंग : इस पद्यांश को 'रश्मिरथी' का मंगलाचरण मान सकते हैं। इस पद्य में कवि ने संसार के वीरों और गुणशाली व्यक्तियों के प्रति अपनी श्रद्धा अर्पित की है।
व्याख्या : कवि कहता है कि संसार में कहीं भी प्रतिभा हो, किसी में भी गुण हो, मैं उसका अभिनन्दन करता हूँ। प्रतिभा कहीं भी हो वह पूजनीय है, गुण किसी भी व्यक्ति में हो वह वन्दनीय है। केवल राजवाटिकाओं में खिले फूल मात्र फूल नहीं कहलाते, कानन कुञ्जों के कुसुम भी फूल ही हैं। कहीं भी, किसी भी डाली पर फूल खिले लेकिन वह सुन्दर अवश्य है। उसमें भी, आह्लादक शक्ति ज़रूर होती है और इसलिए तो सुधीजन गुणों का आदि नहीं देखते। सच्चे ज्ञानी शक्ति के मूल की ओर ध्यान नहीं देते। वे तो गुणों की शक्ति की परख करते हैं। कबीर ने ठीक ही कहा है
“जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ।”
जिस प्रकार म्यान असली वस्तु न होकर तलवार ही असली वस्तु है। उसी प्रक गुण और शक्ति को छोड़कर उनके आदि और मूल के चक्कर में पड़ना तो व्यर्थ ही है । गुण ही मूल है जाति नहीं।
विशेषता : प्रस्तुत पंक्तियों की भाषा में प्रसाद और ओजगुण का अद्भुत समन्वय हुआ है। भाषा में अपूर्व प्रवाह द्रष्टव्य है। प्रथम पंक्ति में 'ज' व्यंजन-वर्ण की अनेक बार आवृत्ति के कारण वृत्यानुप्रास अलंकार है। कवि ने इस प्रकार जो गुण और शक्ति की वन्दना की है, वह सकारण है। यों कुल या जाति की दृष्टि से कर्ण बड़े न थे, किन्तु गुण और शक्ति में अप्रतिम अवश्य थे।
2. जलद पटल में...........पहली आग।
संदर्भ : प्रस्तुत पद्य-भाग दिनकर द्वारा विरचित काव्य 'रश्मिरथी' के प्रथम सर्ग से लिया गया है।
प्रसंग : प्रथम सर्ग में कवि काव्य-नायक कर्ण के तेज प्रताप का परिचय दे रहे हैं।
व्याख्या : कवि पूछते हैं कि सूर्य कब तक बादलों के पीछे छिपा रह सकता है? जो वास्तव में शूरवीर होता है, वह कब तक अपने समाज की अवहेलना सुनकर चुप रह सकता है? कर्ण ऐसा ही शूर साहसी पुरुष था जिसके लिए आन जान से प्यारी थी। एक दिन समय पाकर उसके यौवन का वीर्य जाग उठा। अर्जुन जैसा धनुर्धर और भीमसेन जैसा मल्ल होते हुए भी कृपाचार्य, द्रोणाचार्य आदि ने उसे सूतपुत्र कहकर अवहेलना की तो कर्ण के पौरुष की आग सबके सामने फूट पड़ी। उसने अपनी धनुर्विद्या से साबित कर दिया कि वह सूतपुत्र नहीं, बल्कि सूर्यपुत्र है।
3. मस्तक ऊँचा..............अंगूठे का दान।
संदर्भ : यह पद्यांश रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित 'रश्मिरथी' के प्रथम सर्ग से लिया गया है।
प्रसंग : कृपाचार्य से धनुर्विद्या सीखने के बाद कौरव-पांडव राजकुमारों की परीक्षा चल रही थी। सभी जन धनुर्विद्या में अर्जुन के अद्भुत कौशल की प्रशंसा कर रहे थे, सूतपुत्र कर्ण ने अर्जुन को ललकारा। इसपर कृपाचार्य ने कर्ण की जाति और गोत्र पूछ लिया। उनका संकेत था कि उच्च वर्ण के वीरों को ही अपनी कला-निपुणता दिखाने की अनुमति है। द्रोणाचार्य ने भी इसका समर्थन किया।
व्याख्या : आचार्यों ने आपत्ति उठाई तो कर्ण ने विरोध किया। जाति के नाम पर मानव-मानव में भेद करना उसे बुरा लगा। उसने आचार्यों को भी अपने तर्क बाणों से बेधना शुरू कर दिया। कर्ण ने कहा- आप लोग सिर ऊँचा उठाये अपनी जाति और कुलगौरव पर गर्व करते हैं। लेकिन आपका आचरण धर्म सम्मत नहीं है। दूसरों का शोषण करके उनकी मेहनत का फल लूटते हैं और सुख और भोग-विलास में डूबे रहते हैं। निम्न जाति के लोगों को देखकर आपके प्राण थर-थर काँपते हैं। उनमें से यदि कोई आपकी तरह कला-निपुणता दिखाता है तो कपट से उसका अंगूठा काट लेते हैं। कर्ण यहाँ द्रोणाचार्य पर कटाक्ष करता है, जिन्होंने गुरु दक्षिणा के रूप में निम्नजाति के एकलव्य का अंगूठा माँगा था।
4. किया कौन-सा.............प्राण, दो देह ।
संदर्भ : यह पद्यांश दिनकरजी की कृति 'रश्मिरथी' के प्रथम सर्ग से लिया गया है।
प्रसंग : जब आचार्यों ने कर्ण की जाति और गोत्र पूछकर उसे अपमानित किया तो सारी सभा मूक साक्षी होकर यह दृश्य देख रही थी। दुर्योधन ने आगे बढ़कर कर्ण को अंगदेश का राजा घोषित कर दिया। कर्ण ने दुर्योधन के इस व्यवहार से गद्गद् होकर आभार व्यक्त किया तो दुर्योधन ने कहा कि उसने कोई बड़ा त्याग नहीं किया है।
व्याख्या : ओ मेरे मित्र! मैंने आज तुम्हें एक राज्य दे दिया तो यह कौन-सा बड़ा त्याग हुआ। तुम्हारी वीरता के आगे मेरा यह दान कुछ भी नहीं है। मेरे लिए तुम्हारी मित्रता बहुमूल्य है । यदि तुम मुझे मित्र के रूप में स्वीकार करो तो मैं कृतार्थ हो जाऊँगा । दुर्योधन के इन वचनों को सुनकर कर्ण पसीज गया, उसने कहा मुझ अकिंचन पर तुम्हारा इतना स्नेह ? तुम मेरी मित्रता चाहते हो न? मैं कहता हूँ कि आज से हम अभिन्न मित्र बन गये। अर्थात् हम भले ही दो शरीर के है मगर एक प्राण हो जाएँ। तुम्हारे सारे सुख-दुख मेरे हैं। अंत तक मैं तुम्हारी इस कृपा को भूलूँगा नहीं और हर संकट से तुम्हें उबारूँगा।
5. सोच रहा हूँ................तू भी हे तात!
संदर्भ : यह पद्यांश दिनकरजी से रचित 'रश्मिरथी' के प्रथम सर्ग से लिया गया है।
प्रसंग : रंगभूमि में कर्ण के प्रकट होकर अर्जुन को ललकारने से तथा कृपाचार्य द्वारा जाति पूछकर कर्ण का अपमान करने से रंग में भंग हुआ। दुर्योधन ने कर्ण से भीम को मल्लयुद्ध के लिए ललकारने को कहा तो कृपाचार्य ने शिष्यों को घर लौटने का आदेश दिया। तब द्रोण ने चिंतित भाव से अर्जुन से कहा।
व्याख्या : द्रोणाचार्य आज तक समझते थे कि अर्जुन ही अद्वितीय धनुर्धर है। जब उन्हें संदेह हुआ कि एकलव्य एक दिन अर्जुन का प्रतिद्वंद्वी बन सकता है, उन्होंने उसका अंगूठा काटकर अर्जुन के मार्ग को कंटक-रहित बना दिया। लेकिन आज रंग-भूमि में कर्ण द्वारा अर्जुन को ललकारने से रंग में भंग हो गया। इससे चिंतित होकर द्रोण अर्जुन से कहते हैं--
वत्स अर्जुन! यह जो वीर आज तुम्हारा प्रतिद्वंद्वी बनकर प्रकट हुआ है, उसे देखकर मेरा चित्त विचलित हो गया। क्योंकि कर्ण के अंदर वीरता और साहस के लक्षण मिलते हैं। मैं सोच रहा हूँ कि इस प्रकाशमान नक्षत्र का तेज किस प्रकार कम किया जा सकता है। लेकिन एक बात निश्चित है। मैं कभी भी कर्ण को अपना शिष्य न बनाऊँगा। यह उत्कट वीर है, इसमें कोई संदेह नहीं। इसलिए हे वत्स, तुम इस प्रतिभट के प्रति हमेशा सावधान रहना।
द्वितीय सर्ग
I. संदर्भ सहित व्याख्या :
1. आई है वीरता तपोवन.............आया है?
संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश दिनकर द्वारा रचित 'रश्मिरथी' के द्वितीय सर्ग से लिया गया है।
प्रसंग : इस पद्यांश में परशुराम की कुटी का परिचय है। परशुराम की कुटी के पास एक ओर कमंडल आदि तप के साधन और दूसरी ओर धनुष-बाण और तीर-बरछे देखकर कवि आश्चर्यजनक ढंग से कहता है कि यह किसकी कुटी हो सकती है? यह तपोभूमि है, या युद्धक्षेत्र! क्या किसी मुनि की कुटी है? नहीं, नहीं! हो सकता है कि मुनि के ही धनुष-कुठार हो! लेकिन मुनि तलवार उठा सकते हैं? नहीं, शायद नहीं ।
व्याख्या : कवि के मन में तरह-तरह की बातें उठ रही हैं। कवि कहता है कि सम्भव हैं, वीरता तपोवन में पुण्य कमाने आयी है। हो सकता है कि कोई वीर ही युद्ध के भीषण स्थितियों को देखकर वैरागी हो गया हो और पुण्य की प्राप्ति के लिए तप कर रहा हो। ऐसी बात तो नहीं है कि कोई सन्यासी अपनी साधना में शारीरिक शक्ति का भी विकास कर रहा हो? ऐसा तो नहीं कि मन ने शरीर की सिद्धि का उपाय शस्त्रों के रूप में पाया हो? कौन जाने, कोई वीर ही यहाँ योगी से कुछ युक्ति सीखने आया हो ।
विशेषता : परशुराम के कुटीर के पास एक ओर धनुष और दूसरी ओर कमंडल को देखकर कवि आश्चर्यचकित है । उसे सन्देह हो रहा है कि यह किसी वीर का कुटीर है अथवा किसी सन्यासी का आश्रम! प्रस्तुत पद्यावतरण में उपमेय में उपमानों की सम्भावना के कारण सन्देह अलंकार है। 'सन्यास-साधना' में 'स' की आवृत्ति के कारण वृत्यानुप्रास अलंकार है। भाषा में प्रसाद गुण विद्यमान है।
2. खड्ग बड़ा उद्धत होता............करता है।
संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश दिनकर द्वारा रचित 'रश्मिरथी' के द्वितीय सर्ग से लिया गया है।
प्रसंग : अपने आश्रम से कुछ दूर हटकर एक वृक्ष की छाया में गुरुवर परशुराम कर्ण की जाँघ पर सिर रखकर सोये हैं। कर्ण को अपने आचार्य की बातें याद आ रही हैं। वे गुरु की अपने प्रति अपार ममता देखकर भक्तिभाव में मग्न हुए जाते हैं। कर्ण इन्हीं भाव-तरंगों में बहते हुए यह सोचते हैं कि क्या विचित्र सामाजिक व्यवस्था है कि विद्या और ज्ञान ब्राह्मणों के घर में हैं, वैभव वैश्यों के पास, तो तलवार के धनी निश्चित रूप से क्षत्रिय हैं। किन्तु तलवार उठानेवाले क्षत्रियों के प्रति कर्ण के विचार उदार नहीं हैं।
व्याख्या : ये तलवार के पनी मंत्रिय राजे-महाराजे विवेकशील नहीं होते। उनका स्वभाव बड़ा ही उम्र होता है। इसीलिए हर समय वे युद्ध ही चाहते हैं। उनकी महत्वाकांक्षाओं की ज्याला कभी बुझ नहीं पाती। वे सदैव अपनी महत्वाकांक्षों के चलते रण बाह्य बजाते दीखते हैं। ऐसी परिस्थिति में ब्राह्मण क्या करे। ब्राह्मणों के पास विद्या है, वे विवेकशील हे अवश्य, किन्तु उनकी सुनता कौन है? ब्राह्मण विवश हैं। शस्त्र-विहिन होने के कारण यह भयभीत है। चूंकि राजा उनको सम्मान देता है अतः वह भी राजा का आदर करते हैं।
विशेषता : 'खड्ग बहा उद्धत होता है' लाक्षणिक पद है। उद्धत होना जह वस्तु का स्वभाव नहीं। अतः लक्षणाशक्ति से हम अर्थ ग्रहण करेंगे कि खड्ग पकड़नेवालों (यहाँ क्षत्रिय राजाओं से तात्पर्य है) का स्वभाव उद्धत होता है।
3. नित्य कहा करते...............का बल भी।
संदर्भ : यह पद्यांश श्री रामधारी सिंह दिनकर से लिखित 'रश्मिरथी के द्वितीय सर्ग से लिया गया है।
प्रसंग: कर्ण ब्राह्मण कुमार के वेश में उस युग के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर परशुराम से अस्त्र विद्या सीख रहा है। एक दिन गुरु परशुराम अपने शिष्य कर्ण की जाँघ पर सिर रखे हुए सो रहे थे। कर्ण गुरु के अद्भुत व्यक्तित्व और कथनों के बारे में विचार कर रहा है। प्रसंग उसी समय का है।
व्याख्या: कर्ण ब्रह्मतेज की तुलना में क्षात्रतेज से दीप्त अपने गुरु परशुरामजी के व्यक्तित्व और चरित्र के बारे में सोच रहा है। उसे गुरुजी की एक बात याद आती है। वह सोचता है कि उसके गुरु का कहना सही है कि तलवार बहुत ही भयकारी है। वह हर एक के वश में नहीं आती। तलवार यानी खड्ग उठाने का अधिकार हर किसी को नहीं है। जो शुद्धवीर हो तलवार उसीके वश में आती है। वही वीर पुरुष खड़ग उठा सकता है, जिसका हृदय कठोर होने के साथ कोमल भी हो तथा जिसमें धैर्य हो किसके साथ कठोरता बरतनी चाहिए और कब किसके साथ कोमलता का व्यवहार करना चाहिए, इसका विवेक उसमें होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि शुद्धवीर वहीं है, जिसमें वीरता और पराक्रम हो, साथ में धैर्य और तपस्या का बल भी।
4. हा, कर्ण तू क्यों..........जहाँ सुजान।
संदर्भ: प्रस्तुत पद्यांश दिनकर द्वारा रचित 'रश्मिरथी' के द्वितीय सर्ग से लिया गया है।
प्रसंग: कर्ण की जाँघ पर सिर रखकर गुरुवर परशुराम निद्रामग्न है। इसी बीच कर्ण के मन में तरह-तरह के भाव उठ रहे हैं। कर्ण के माध्यम से विकृत जाति व्यवस्था पर दिनकर ने प्रहार किया है।
व्याख्या: कर्ण सोचता है हाय, उसका जन्म ही क्यों हुआ? यदि कर्ण जन्मा भी तो वीर क्यों हुआ? कर्ण का शरीर कवच-कुण्डल-भूषित था, किन्तु सूतवंश में, चूंकि उसका लालन-पालन हुआ, अतः नीच जाति के माने गये। कर्ण को जाति विभाजित समाज से बड़ी घृणा-सी हो रही है। इस प्रकार के जाति-वर्ण के विचारों से भरे समाज में गुण की पूजा नहीं की जाती। सभी लोग वीरता या विशेषता की परख नहीं करते, सर्वत्र जाति ही पूछते हैं। कर्ण का हृदय हाहाकार कर उठता है। भला ऐसे देश का, जहाँ जाति की ही पहचान की जाती है, गुण की नहीं, कैसे कल्याण सम्भव है। ऐसे देश की उन्नति की आशा नहीं की जा सकती। ऐसे राष्ट्र का पतन अवश्यंभावी है।
विशेषता : इन पंक्तियों में तत्कालीन जाति-भेद की रूढ़ियों की कटु आलोचना की गयी है। गुण और शक्ति को कवि आरम्भ से ही जाति से अधिक महत्व देता आया है।
5. परशुराम ने कहा..............कभी न जायेगा।
संदर्भ: प्रस्तुत पद्यांश दिनकर द्वारा रचित 'रश्मिरथी' के द्वितीय सर्ग से लिया गया है।
प्रसंग: जब परशुराम कर्ण की जाँघों पर सिर रखकर सोए थे, उसी समय एक विष-कीट आया और कर्ण की जाँघों को काटने लगा। लेकिन कर्ण अंगों को हिलाये बिना उसे पकड़ नहीं सकता था। क्योंकि इससे गुरुदेव की नींद टूट जाने की सम्भावना थी। अतएव कर्ण कीड़े के काटने का दर्द सहता रहा। जब परशुराम की निद्रा भंग हुई तो उन्होंने पहले तो कर्ण से कहा कि ऐसी गलती क्यों की; बाद में उन्होंने कहा कि अवश्य ही कर्ण ब्राह्मण नहीं, क्षत्रिय है। क्षत्रिय ही इस तरह पीड़ा सह सकता है।
जब कर्ण अपनी जाति का रहस्य खोल देता है तो परशुराम की क्रोधाग्नि और भी भड़क उठती है। कर्ण झट-से गुरु के चरणों में झुककर कहता है कि सच है, गुरुदेव! मैंने बहुत भारी भूल की। अब आप दण्ड दीजिए उसे मैं ग्रहण करूंगा। जिन आँखों में मेरे लिए स्नेह का जल था, आज उन्हीं से आग बरसाएँ। जिसमें जलकर मैं छल के पाप से पवित्र हो सकूँ किन्तु परशुराम के सामने बड़ी दुविधा है। परशुराम ने कर्ण को स्नेह से अपनी सारी कलाएँ सिखाई थीं वे कर्ण को अपने पुत्र के समान मानते थे अतः बड़ी ही मार्मिक स्थिति है।
व्याख्या : परशुराम ने कर्ण से कहा- हे कर्ण, तुम मुझे ऐसे आघात मत पहुँचाओं। तुम मेरे मन की दशा नहीं जानते! कर्ण उनके प्रिय शिष्य थे। उनका हृदय कर्ण को दंडित करना नहीं चाहता था परंतु कर्ण ने जो अपराध किया उसके लिए दंड नहीं दिए बिना भी नहीं रहा जा सकता था। वे क्या करें-कुछ समझ नहीं पड़ता था। लेकिन कर्ण के छल के लिए दण्ड देना भी उचित ही था। परशुराम की क्रोधाग्नि यों ही बुझनेवाली न थी ।
विशेषता : इन पंक्तियों में कवि ने अभिनयात्मक ढंग से परशुराम के चरित्र पर प्रकाश डाला है। वर्णन में नाटकीयता और प्रवाह है।
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