PRAVEEN UTTARARDH
रश्मि रथी RASHMIRATI
'रश्मिरथी' में प्रदर्शित सामाजिक आदर्श सिद्ध कीजिए।
समाज और मानव का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। एक के बिना दूसरा अधूरा रह जाता है और जीवन का अत्यधिक प्रभाव समाज पर पड़ता है। सभ्यता और संस्कृति समाज की दो आँखें है और इन दोनों का संबंध समाज से है। इन दोनों के उत्थान पतन में समाज का उत्थान-पतन निहित रहता है। उनकी विषम प्रथाओं से समाज भी विषाक्त वन आता है। आज सभ्यता के शिखर पर चढ़कर मानव सांस्कृतिक क्षेत्र से बहुत दूर और मन से पिछड़े हुए हैं।
'रश्मिरथी' खडकाव्य श्री रामधारी सिंह दिनकर जी की विश्वप्रसिद्ध रचना है। वे नवभारत के निर्माण की आकांक्षा से आन्दोलित कवि थे। उनके यौवन में समाजवाद की आँधी रूस से चलकर सारे विश्व में फैल रही थी तथा विश्वयुद्ध की विभीषिका मानवता को मरणासन्न करने का यत्न कर थी। दिनकर की लेखनी मचल उठी और तात्कालिक सामाजिक परिस्थिति का विश्लेषण उन्होंने प्राचीन भारत की एक चिर-परिचित घटना के परिप्रेक्ष्य में करने का यत्न किया है। 'रश्मिरथी' खडकाव्य में कवि दिनकर ने एक नहीं, अनेक सामाजिक आदर्श प्रस्तुत किये हैं।
कवि दिनकर जातिवादिता के भीषण पाश में बंधे भारतीय समाज की करुणावस्था से अत्यंत चिंतित थे। प्राचीन मनीषियों ने वर्णाश्रम का विधान श्रम विभाजन सिद्धान्त के आधार पर बनाया था, न कि जन्म से उच्चता निम्नता प्राप्त करने के लिए। किन्तु सभी भारतीय आदशों की तरह यह जातिभेद भी समाज में विकृत रूप लेकर राज करने लगा था। दिनकर भारतीय संस्कृति के आराधक हैं तथा इस गलत बात को रोष के साथ प्रकट करते हैं कि भारतीय समाज में जो कृत्रिम तथ्य रोपे जा रहे हैं, उनका नाश करना ज़रूरी है। इन्सान की कद्र उसके गुणों से है, न कि जाति से। (प्रथम सर्ग में) कर्ण के माध्यम से कवि कहते हैं
“जाति-पाँति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषण्ड,
मैं क्या जानूँ जाति? जाति हैं ये मेरे भुजदण्ड।”
कवि दिनकर समाजवादी थे। समाज में उत्पादन के साधनों पर अधिकार किये बैठे शोषक वर्ग तथा अपने अधिकारों से वंचित शोषित वर्ग का संघर्ष चिरन्तन बना हुआ है। वास्तव में सभी सामाजिक विभेदों का कारण शोषक वर्ग का अत्याचार ही है। कर्ण पददलित वर्ग का प्रतिनिधि बनकर हमारे सामना आया है तथा पूरे प्राणप्रण से परिस्थिति से जूझकर, अपना स्वयं निर्माण करता है। कर्ण का उद्वेग, संघर्ष, पददलित वर्ग का संघर्ष है तथा उसकी विजय भी पददलितों को ही समर्पित है।
कवि दिनकर युद्ध को मानवता की हार मानते हैं, गाँधीवादी कवि किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए युद्ध करने की दलील को स्वीकार नहीं कर पाते। कभी धर्म की रक्षा के लिए कभी न्याय की स्थापना के लिए और कभी मानवीय अधिकारों को बचाने के लिए युद्ध का उपक्रम किया जाता है। परन्तु सच्चाई तो यह है कि युद्ध में मानव ही नहीं मरते वरन्, मानवता भी किसी अंधेरे रक्त रंजित कोने में खड़े आँसू बहाती है, कराहती है। लक्ष्य-प्राप्ति से ज़्यादा महत्व होता है उन प्रयासों का जो कि लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनाये जाते हैं और यह सर्वविदित है कि युद्ध में हिंसा का ही प्राधान्य होता है।
कवि दिनकर महाभारत के युद्ध को धर्मयुद्ध कहना स्वीकार नहीं करते। समाज के लिए युद्ध को एक अभिशाप मानते हैं तथा कहते हैं कि युद्ध चाहे कोई भी हो वह छल, कपट, धूर्तता और हिंसा से ही लड़ा जा सकता है, जीत चाहे किसी भी पक्ष की हो, किन्तु हार हमेशा मानवीय मूल्यों की होती है। कर्ण स्वयं महान वीर हैं तथा ऋणमुक्त होने के लिए दुर्योधन के पक्ष से युद्ध करने के लिए आतुर है, तथापि उसकी आत्मा युद्ध को क्षेम नहीं स्वीकार करती। कर्ण एक उच्च कोटि का कर्मयोगी हैं तथा साथ ही ज्ञानी भी है। वह भी युद्ध को श्रेष्ठ नहीं मानता, सिर्फ़ व्रत पालने के लिए लड़ना चाहता है। भीष्म कहते हैं
“मानवता ही मिट जाएगी, फिर विजय सिद्धि क्या लाएगी?
कर्ण उत्तर में विनम्र होकर कहता है--
"हे पुरुष सिंह! कर्ण ने कहा, अब और पन्थ क्या शेष रहा?
संकटापन्न जीवन-समान, है बीच सिंधु और महायान;
इस पार शान्ति, उस पार विजय? अब क्या हो भला नया निश्चय?”
कर्ण कर्तव्य पालन की एक नयी मिसाल खड़ा करता है। स्वयं एक उच्च कोटि का योगी तथा महामानव भी वह सिर्फ़ कर्तव्य निभाने की खातिर अन्त तक दुर्योधन के सभी कुकर्मों को समझते हुए भी उसके पक्ष में होते हुए बना रहा। भगवान कृष्ण से अपने जीवन की कथा सुनकर भी वह शांत रहा। कृष्ण ने उसे पाण्डवों के अग्रज होने के कारण राज्यभार तथा सम्मान दिलाने का आश्वासन दिया, पर कर्ण ने नम्रता से उस कूटनीतिक संधि को ठुकरा दिया स्वयं भगवान सूर्य उसे उसकी जन्म-गाथा सुनाकर सचेत करते हैं पर वह उसपर भी अधिक ध्यान न देकर इंद्र को कवच-कुण्डल दान में दे देता है; दान देता है- दान देना कर्तव्य समझकर। जननी कुन्ती के प्रलाप तथा अनुनय विनय से भी कर्ण का मन नहीं डोलता और दुर्योधन का साथ देना वह अपना परम कर्तव्य मानता है।
शर-शय्या पर लेटे भीष्म पितामह भी कर्ण को कर्तव्य-पथ से च्युत नहीं कर सके। कर्ण यश या धन की आकांक्षा नहीं करता है, न कि राज्य-प्राप्ति की आशा रखता है; वह केवल दलितों के प्रतिनिधि के रूप में सामाजिक कुरीतियों से संघर्ष कर न्याय की स्थापना करना चाहता है। कठोर कर्मशील रहकर अपने मित्र के प्रति अन्त तक वफ़ादार रहकर त्याग और मैत्री की, कर्तव्यपरायणता और वीरता की एक नयी परम्परा स्थापित करता है। सप्तम सर्ग में स्वयं कृष्ण के मुख से कर्ण की प्रशंसा निकल आती है
“मगर, जो हो, मनुज सुवसिष्ठ था वह ।
धनुर्धर ही नहीं, धर्मनिष्ठ था वह।
तपस्वी, सत्यवादी था, व्रती था,
बड़ा ब्राह्मण था, मन से यती था।"
इस प्रकार हम 'रश्मिरथी' में एक नवीन सामाजिक आदर्श की रूपरेखा पाते हैं। कवि दिनकर ने जातिभेद रहित, शोषिण-रहित, युद्ध की विभीषिका रहित एक ऐसे समाज की स्थापना की इच्छा व्यक्त की है, जो मानव और मानवीय मूल्यों का सम्मान करता है। समाज के सदस्य के रूप में व्यक्ति को त्यागी, कर्तव्यपरायण तथा कर्मठ होने का संकेत कवि ने दिया है। मनुष्य को हमेशा साधन की पवित्रता का ध्यान रखना है, न कि सिर्फ़ साधना की आकांक्षा। व्यक्ति को हमेशा न्याय एवं सत्य के पथ का ही अनुकरण करना है।
'रश्मिरथी' खंड काव्य मात्र पौराणिक कथा की नवीन विवेचना नहीं है। वह एक ठोस सामाजिक आदर्श प्रदर्शित करने का सफल माध्यम बन पड़ा है।
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