Wednesday, April 14, 2021

कहानी - Kahani / शरणदाता

 

     कहानी - Kahani

     शरणदाता

                - श्री सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ' अज्ञेय '



        "यह कभी हो ही नहीं सकता, देविंदरलालजी!" रफ़िकुद्दिन वकील की वाणी आग्रह था, चेहरे पर आग्रह के साथ चिंता और कुछ व्यथा का भाव। उन्होंने फिर दुहराया "यह कभी नहीं हो सकता देविंदरलालजी!".

        देविंदरलालजी ने उनके इस आग्रह को जैसे कबूलते हुए, पर अपनी लाचारी जताते हुए कहा, "सब लोग चले गये। आपसे मुझे कोई डर नहीं, बल्कि आपका तो सहारा है, लेकिन आप जानते हैं, जब एक बार लोगों को डर जकड़ लेता है, और भगदड़ पड़ जाती है, तब फिजा ही कुछ और हो जाती हैं, हर कोई हर किसी को शुबहे की नज़र से देखता है। आप तो देख ही रहे हैं, कैसी-कैसी वारदातें हो रही हैं।”

       रफ़िकुद्दीन ने बात काटते हुए कहा, "नहीं साहब, हमारी नाक कट जाएगी! कोई बात है भला कि आप घर-बार छोड़कर अपने ही शहर में पनाहगर्जी हो जाएँ? हम तो आपको जाने न देंगे बल्कि ज़बरदस्ती रोक लेंगे। मैं तो इसे मेजारिटी फ़र्ज मानता हूँ कि वह माइनारिटी की हिफ़ाज़त करे और उन्हें घर छोड़-छोड़कर भागने न दे। हम पड़ोसी की हिफाज़त न कर सके तो मुल्क की हिफ़ाज़त क्या खाक करेंगे! और मुझे पूरा यकीन है कि बाहर की तो खैर बात ही क्या, पंजाब में ही कोई हिंदु भी, जहाँ उनकी बहुतायत है, ऐसा ही सोच और कर रहे होंगे। आप न जाइए, न जाइए। आपकी हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी मेरे सिर, बस!"

       देविंदरलाल और रफ़ीकुद्दीन में पुरानी दोस्ती थी, और एक-एक आदमी के जाने पर उनमें चर्चा होती थी। अंत में जब एक दिन देविंदरलाल ने जताया कि वह भी चले जाने की बात पर विचार कर रहे हैं तब रफ़ीकुद्दीन को धक्का लगा और उन्होंने व्यथित स्वर में कहा, " देविंदरलालजी, आप भी!"

        रफ़ीकुद्दीन का आश्वासन पाकर देविंदरलाल रह गये। तब यह तय हुआ कि अगर खुदा न करे, कोई खतरे की बात हुई भी, तो रफ़ीकुद्दीन उन्हें पहले ही खबर कर देंगे और हिफ़ाज़त का इंतज़ाम भी कर देंगे - चाहे जैसे हो । देविंदरलाल की स्त्री तो कुछ दिन पहले ही जालंधर मायके गयी हुई थी, उसे लिख दिया गया कि अभी न आये, वहीं रहे। रह गये देविंदर और उनका पहाड़िया नौकर संतू ।

      किंतु यह व्यवस्था बहुत दिन नहीं चली। चौथे ही दिन सवेरे उठकर उन्होंने देखा, संतू भाग गया है। अपने हाथों चाय बनाकर उन्होंने पी. धोने को बर्तन उठा रहे थे कि रफ़ीकुद्दीन ने आकर खबर दी. सारे शहर में मारकाट हो रही है। कहीं जाने का समय नहीं है. देविंदरलाल अपना ज़रूरी और कीमती सामान ले लें और उनके साथ उनके घर चलें। यह बला टल जाये तो फिर लौट आएँगे।

       कीमती सामान कुछ था नहीं। गहना छन्ना सब स्त्री के साथ जालंधर चला गया था, रुपया थोड़ा-बहुत बैंक में था और ज्यादा फैलाव कुछ उन्होंने किया नहीं था देविंदरलाल घंटे भर बाद ट्रैक बिस्तर के साथ रफ़ीकुद्दीन के यहाँ जा पहुँचे।

       देविंदरलाल घर से बाहर तो निकल ही न सकते, रफ़ीकुद्दीन ही आते-जाते काम करने का तो वातावरण ही नहीं था, वे घूम-धाम आते, बाजार कर आते और शहर की खबर ले आते देविंदर को सुनाते और फिर दोनों बहुत देर तक देश के भविष्य पर आलोचना किया करते।

      हिंदू मुहल्ले में रेलवे के एक कर्मचारी ने बहुत से निराश्रितों को अपने घर में जगह दी श्री जिनके घर-बार सब लुट चुके थे। पुलिस को उसने खबर दी थी कि जो निराश्रित उसके घर टिके हैं, हो सके तो उनके घरों और माल की हिफाज़त की जाए। पुलिस ने आकर शरणागतों के साथ उसे और उसके घर की स्त्रियों को गिरफ़्तार कर लिया और ले गयी।

      हिंदुस्तान पाकिस्तान की अनुमानित सीमा के पास एक गाँव में कई सौ मुसलमानों ने सिक्खों के गाँव में शरण पायी। अंत में जब आस-पास के गाँव के और अमृतसर शहर के लोगों के दबाच ने उस गाँव में उनके लिए फिर आसन्न संकट की स्थिति पैदा कर दी, तब गाँव के लोगों ने अपने मेहमानों को अमृतसर स्टेशन पहुंचाने का निश्चय किया जहाँ से दे सुरक्षित मुसलमान इलाके में जा सके और दो-ढाई सौ आदमी किरपाने निकालकर उन्हें घेर में लेकर स्टेशन पहुँचा आये किसी को कोई क्षति नहीं पहुंची घटना सुनकर रफ़ीकुद्दीन ने कहा, "आखिर तो लाचारी होती है, अकेले इनसान को झुकना ही पड़ता है। यहाँ तो पूरा गाँव था, फिर भी उन्हें हारना पड़ा। लेकिन आखिर तक उन्होंने निबाह, इसकी दाद देनी चाहिए। उन्हें पहुंचा आये।"

      अपराह्न में छः सात आदमी रफ़ीकुद्दीन से मिलने आये रफ़ीकुद्दीन ने उन्हें अपनी बैठक में ले जाकर दरवाजे बंद कर लिए। डेढ़-दो घंटे तक बातें हुई। सारी बात प्रायः धीरे-धीरे ही हुई, बीच-बीच में कोई स्वर ऊँचा उठ जाता और एक-आध शब्द देविंदरलाल के कान में पड़ जाता- 'बेवकूफ़', 'इस्लाम'- वाक्यों को पूरा करने की कोशिश उन्होंने आयासपूर्वक नहीं की। दो घंटे बाद जब उनको विदा करके रफ़ीकुद्दीन बैठक से निकल कर आये, तब भी उनसे लपककर पूछने की स्वाभाविक प्रेरणा को उन्होंने दबाया। पर जब रफ़ीकुद्दीन उनकी ओर न देखकर खिंचा हुआ चेहरा झुकाये उनकी बगल से निकलकर बिना एक शब्द कहे भीतर जाने लगे तब उनसे न रहा गया और उन्होंने आग्रह के स्वर में पूछा, "क्या बात है, रफ़ीक साहब, खैर तो है?".

      रफ़ीकुद्दीन ने मुँह उठाकर एक बार उनकी ओर देखा, बोले नहीं। फिर आँखें झुका लीं। अब देविंदरलाल ने कहा, "मैं समझता हूँ कि मेरी वजह से आपको ज़लील होना पड़ रहा है। और खतरा उठाना पड़ रहा है सो अलग। लेकिन आप मुझे जाने दीजिये। मेरे लिए आप जोखिम में न पड़ें। आपने जो कुछ किया है उसके लिए मैं बहुत शुक्रगुज़ार हूँ। आपका एहसान-"

     रफ़ीकुद्दीन ने दोनों हाथ देविंदरलाल के कंधों पर रख दिये। कहा, देविंदरलाल जी!" उनकी साँस तेज़ चलने लगी। फिर वह सहसा भीतर चले गये। लेकिन खाने के वक़्त देविंदरलाल ने फिर सवाल उठाया-बोले, आप खुशी से न जाने देंगे तो मैं चुपचाप खिसक जाऊँगा। आप सच-सच बतलाइए, आपसे उन्होंने कहा क्या ?"

"धमकियाँ देते रहे और क्या?”

"तो मैं आज ही चला जाऊँगा......

"यह कैसे हो सकता है? आखिर आपको चले जाने से हमीं ने रोका था, हमारी भी

तो कुछ जिम्मेदारी है...

"आपने भला चाहकर ही रोका था उसके आगे कोई जिम्मेदारी नहीं है....."

"आप जावेंगे कहाँ.....

"देखा जाएगा.....

" 'नहीं, यह नामुमकिन बात है।"

        किंतु बहस के बाद तय हुआ कि देविंदरलालजी वहाँ से टल जाएँगे। रफ़ीकुद्दीन और कहीं पड़ोस में उनके एक और मुसलमान दोस्त के यहाँ छिपकर रहने का प्रबंध कर देंगे -

       वहाँ तकलीफ़ तो होगी पर खतरा नहीं होगा, क्योंकि देविंदरलालजी घर में रहेंगे। वहाँ पर रहकर जान की हिफ़ाजत तो रहेगी, तब तक कुछ और उपाय सोचा जाएगा निकलने का....

     देविंदरलालजी को शेख अताउल्लाह के अहाते के अंदर ले गए। गैराज की बगल में एक कोठरी थी। कोठरी में ठीक सामने और गैराज की तरफ़ के किवाड़ों को छोड़कर खिड़की वगैरह नहीं थी। एक तरफ़ एक खाट पड़ी थी, आले में एक लोटा। फर्श कच्चा, • मगर लिपा देविंदरलाल का ट्रंक और बिस्तर जब कोठरी के कोने में रख दिया गया और बाहर आँगन का फाटक बंद करके उसमें भी ताला लगा दिया गया, तब थोड़ी देर वे हतबुद्धि खड़े रहे।

      उन्हें याद आया, उन्होंने पढ़ा है, जेल में लोग चिड़िया, कबूतर, गिलहरी, बिल्ली आदि से दोस्ती करके अकेलापन दूर करते हैं; यह भी न होती तो कोठरी में मकड़ी-चींटी आदि का अध्ययन करके..... उन्होंने एक बार चारों ओर नज़र दौड़ाई। मच्छरों से भी बंधु भाव हो सकता है, यह उनका मन किसी तरह नहीं स्वीकार कर पाया।

       वे आँगन में खड़े होकर आकाश देखने लगे। आज़ाद देश का आकाश! और नीचे से, अभ्यर्थना में जलते हुए घरों का धुआँ।

      दिन छिपे के वक़्त केवल एक बार खाना आता था। वह दो वक़्त के लिए काफ़ी होता था। लाता था एक जवान लड़का। देविंदरलाल ने अनुमान किया कि शेख साहब का लड़का होगा। वह बोलता बिलकुल नहीं था ।

       रात घनी हो जाती थी। तब वे सो जाते थे। सुबह उठकर आँगन में कुछ वरज़िश कर लेते थे कि शरीर ठीक रहे; बाक़ी दिन कोठरी में बैठे कभी कंकड़ों से खेलते, कभी आँगन की दीवार पर बैठनेवाली गौरैया देखते, कभी दूर से कबूतर से गुटरगूँ सुनते-और कभी सामने के कोने से शेखजी के घर के लोगों की बातचीत भी सुन पड़ती। अलग-अलग आवाज़ें वे पहचानने लगे थे।

      लेकिन खाते वक्त भी वे सोचते, खाने में कौन-सी चीज़ किस हाथ की बनी होगी, परोसा किसने होगा। सुनी बातों से वे जानते थे कि पकाने में बड़ा हिस्सा तो उस तीखी खुरदरी आवाज़वाली स्त्री का रहता था, पर परोसना शायद जेबुन्निसा के ही ज़िम्मे था। और यही सब सोचते-सोचते देविंदरलाल खाना खाते और कुछ ज़्यादा ही खा लेते थे......

    एक रात खाना खाते-खाते.

    तीन-एक फलकों की तह के बीच में काग़ज़ की एक पुड़िया-सी पड़ी थी।

    देविंदरलाल ने पुड़िया खोली।

    पुड़िया में कुछ नहीं था।

    देविंदरलाल उसे फिर गोल करके फेंक देनेवाले ही थे हाथ ठिठक गया। उन्होंने कोठरी से आँगन में जाकर कोने में पंजों पर खड़े होकर बाहर की रोशनी में पुर्जा देखा. उस पर कुछ, लिखा था केवल एक सतर

   "खाना कुत्ते को खिलाकर खाइएगा।"

    देविंदरलाल ने कागज़ की चिंदियाँ कीं। चिंदियों को मसला। कोठरी से गैराज में जाकर उसे गड्ढे में डाल दिया। फिर आँगन में लौट आये और टहलने लगे।

    मस्तिष्क ने कुछ नहीं कहा। सन्न रहा। केवल एक नाम उसके भीतर खोया-सा चक्कर काटता रहा, जैबू.....जैबू जैबू..

    थोड़ी देर बाद वे फिर खाने के पास जाकर खड़े हो गये। आँगन की दीवार पर छाया सरकी। बिलाव बैठा था।

      देविंदरलाल ने उसे गोद में ले लिया। धीरे-धीरे बोले 'देखो बेटा तुम इसे खा लो और पूछो शेख साहब क्या चाहते हैं?'

     खाने के बाद सहसा बिलाव ज़ोर से गुस्से से चीखा और उछलकर गोद से बाहर जा कूदा। गुस्से से गुर्राने लगा। धीरे-धीरे गुस्से का स्वर दर्द के स्वर में परिणत हुआ, फिर एक करुण रिरियाहट में, एक दुर्बल चीख में, एक बुझती हुई-सी कराह में, फिर एक सहसा चुप हो जाने वाली लंबी साँस में। देविंदरलाल जी की आँखें निःस्पंद यह सब देखती रहीं।

    आज़ादी भईचारा । देश-राष्ट्र......

    एक ने कहा कि हम ज़ोर करके रखेंगे और रक्षा करेंगे, पर घर से निकाल दिया। दूसरे ने आश्रय दिया, और विष दिया।

    और साथ में चेतावनी की विष दिया जा रहा है।

    देविंदरलाल ने जाना कि दुनिया में खतरा बुरे की ताक़त के कारण नहीं, अच्छे की दुर्बलता के कारण है। भलाई की साहसहीनता ही बड़ी बुराई है। घने बादल से रात नहीं होती, सूरज के निस्तेज हो जाने से होती है।

     उन्होंने खाना उठाकर बाहर आँगन में रख दिया। दो घूँट पानी पिये। फिर टहलने लगे। फिर वे आँगन की दीवार पर चढ़कर बाहर फाँद गये और बाहर सड़क पर निकल आए वे स्वयं नहीं जाने कि कैसे!

     इसके बाद की घटना, घटना नहीं है। घटनाएँ सब अधूरी होती हैं। पूरी तो कहानी होती है। इसके बाद जो कुछ हुआ और जैसे हुआ, वह बताना ज़रूरी नहीं। इतना बताने से काम चल जाएगा कि डेढ़ महीने बाद अपने घर का पता लेने के लिए देविंदरलाल अपना पता देकर दिल्ली-रेडिया से अपील करवा रहे थे तब एक दिन उन्हें लाहौर की मुहरवाली एक छोटी-सी चिट्ठी मिली थी।

      "आप बचकर चले गये, इसके लिए खुदा का लाख-लाख शुक्र है। मैं मनाती हूँ कि रेडियो पर जिनके नाम आपने अपील की है, वे सब सलामती से आपके पास पहुँच जाएँ। अब्बा ने जो किया या करना चाहा, उसके लिए मैं माफ़ी माँगती हूँ और यह भी याद दिलाती हूँ कि उसकी काट मैंने ही कर दी थी। अहसान नहीं जताती - मेरा कोई अहसान आप पर नहीं है - सिर्फ यह इल्तजा करती हूँ कि आपके मुल्क में अक़लियत को कोई मज़लूम हो तो याद कर लीजिएगा।

       इसलिए नहीं कि वह मुसलमान है, इसलिए कि आप इनसान हैं। खुदा हाफिज़!" उन्होंने चिट्ठी को छोटी-सी गोली बनाकर चुटकी से उड़ा दी।

   

  कहानी का सारांश 

   शरणदाता

      "शरणदाता" अज्ञेय जी की प्रसिद्ध कहानी है। आज़ादी के समय हुए हिंदु-मुस्लिम दंगों के आधार पर लिखी गयी कहानी है।

     शहर भर में मारकाट होती है। रफीकुद्दीन अपने दोस्त देवेंदरलाल को मारकाट से बचाना चाहते हैं। इसलिए वे देवेंदरलाल को अपने घर में ठहराते हैं। लेकिन दूसरे मुसलमान लोग उन्हें धमकी देते हैं। इसलिए उन्हें अपने और एक दोस्त शेख के यहाँ ठहराते हैं।

     वहाँ एक बंद कमरे में उनको रहना पड़ता है। सिर्फ एक बिलाव उनके आसपास घूमता रहता है। दिन में केवल एक बार उनको भोजन परोसा जाता है। बचे-कुचे भोजन को वे बिलाव को दे देते हैं। एक दिन भोजन के साथ एक पुडिया पड़ी रहती है। उसमें लिखा था कि “खाना कुत्ते को खिलाकर खाइएगा।" तुरंत उनको शेख की बेटी जेबू की याद आती है। जो शेखजी उनके साथ करना चाहते हैं, वे उसे मिलाब के साथ करते हैं। मिलाग भी उसे खाकर अपने प्राण छोड़ देता है। किसी तरह देवदरलाल अपने प्राण बचाकर वहाँ से निकल पड़ते हैं।


सीख:- दुनिया में खतरा बुरे की ताकत के कारण नहीं, अच्छे की दुर्बलता के कारण ही है।

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