पंचवटी
मैथिलीशरण गुप्त
कथावस्तु : कवि मैथिलीशरण गुप्त इस लघु खंडकाव्य को प्रकृति वर्णन के साथ प्रारंभ करते हैं। अतिसुन्दर और अलंकृत शैली पाठकों को मिलता है।
राजा दशरथ ने अपने संकट के समय में रानी कैकेयी को दो वर देने का वचन दिया था कैकेयी ये दोनों वर ऐसे समय में माँग बैठी, जब श्री रामचंद्र का पट्टाभिषेक होने को था। कैकेयी की इच्छा थी कि रामचंद्र अब चौदह साल के लिए वनवास करें और उसके स्थान पर भरत राजा बने । दशरथ तो वचनबद्ध थे, असहाय रह गये । अब पितृ वाक्य परिपालन का दायित्व आज्ञाकारी पुत्र श्रीराम पर आ गया है।
पूर्वाभास : शीर्षक के तहत तीन पदों में कवि मैथिलीशरण गुप्त पाठकों को इतना परिचय देते हैं कि कथानक के प्रारंभिक दृश्य में राम और सीता अपना राज्य, परिवार और सुखभोग को त्यागकर वन की ओर निकल रहे हैं, तो पीछे लक्ष्मण भी चलने लगे।
चाँदनी रात प्रकृति का मनमोहक नज़ारा । पाँच वटवृक्षों की छाया में एक पर्णकुटी बनी थी, जिसके सामने एक शिलाखंड पर धनुर्धारी लक्ष्मण पहरा देते हुए रात बिता रहे हैं । सीताजी समेत श्रीरामचंद्र की कुटी में रहते हुए उनके सेवक बनकर उस कुटी का पहरा दे रहे हैं ।
लक्ष्मण बैठकर तरह-तरह की बातें सोचते हैं : वन में रहते हुए भी श्रीरामचन्द्र करुणा का साम्राज्य यहाँ चलाते हैं। मनुष्यमात्र को नहीं, अपितु समस्त जीव-जंतुओं को यहाँ सीता माता की कृपादृष्टि प्राप्त होती है । ऋषि मुनियों का सत्संग स्वाभाविक रूप से यहाँ सबको मिल जाता है।
लक्ष्मण सोचते हैं कि रामचंद्रजी की रक्षा में उनकी सेवा में हम सुखी और संतुष्ट हैं । परंतु वहाँ राजमहल में रहते हुए बेचारी उर्मिला हमारी याद में, यह सोचते हुए रोती होगी कि यहाँ हम विभिन्न संकट झेलते होंगे।
इस बीच में लक्ष्मण की आँखें ज़रा झपकने लगीं । तुरंत लक्ष्मण संभल गये । जब आँखें खोलीं, तब देखा सामने आभूषणों से सज्जित एक सुंदर युवती खड़ी है। वह शूर्पणखा थी।
उसकी आँखों में अतृप्त वासना झलकने लगी थी। हाथ में वरमाला ली हुई है। उसकी आँखों में किसी चीज़ की तीव्र खोज दिखाई पड़ी । वह बेचैन रही। उसके हाथ की वरमाला कामदेव का पुष्प धनुष-सा है। खुद उस औरत ने बातें प्रारंभ की। लक्ष्मण पर दोषारोपण करते हुए कहने लगी कि मुझे ही पहले बोलना पड़ रहा है, क्योंकि तुमने पूछा तक नहीं।
लक्ष्मण समझाने लगते हैं कि वह आश्चर्यचकित हो गये थे परायी स्त्री से यात शुरू करना भी ठीक नहीं । इतने में तुमने मुझे निर्मम कहा और फिर अधर्मी।
एक प्रकार से अपना परिचय देते हुए लक्ष्मण कहते हैं कि ये निर्मम ही हैं अपने माता-पिता और पत्नी का त्याग करके जंगल में चले आये हैं । लक्ष्मण को शूर्पणखा के व्यवहार और बातों में छिपी प्रबंचना का आभास हो जाता है और बोल भी देते है।
लक्ष्मण का व्यवहार निर्दयतापूर्ण रहा । उन्होंने पूछा तक नहीं कि वह क्या चाहती है ?
असंतुष्ट शूर्पनखा कुछ हो जाती है। फिर भी खुद को संभालकर अपना मोह प्रकट करती है अपनी शक्तिशाली और संपन्न होने का भी उल्लेख करके लक्ष्मण को प्रलोभित करने का विफल प्रयास करती है।
लक्ष्मण तो ऐसा लग रहा है कि वे किसी व्रत में निष्ठ हैं। उनकी तपस्या के फल के रूप में शूर्पणखा अपने आपको समर्पित करना चाहती है।
लक्ष्मण उसे टोकते हुए कहते हैं कि उसके लिए योग्य वर वे स्वयं खोजेंगे और वे स्वयं शादी-शुदा हैं। तरह- तरह के उदाहरण देकर लक्ष्मण को मनवाने के प्रयत्न में शूर्पणखा विफल हो जाती है। तर्क- वितर्क से युक्त लंबा वार्तालाप चलता है।
इतने में पूरब में हल्की रोशनी लाते हुए सूरज निकलने लगा । यहाँ कुटी खोलकर साताजी बाहर आयी हैं मानो वही उषा थी। सीता का तेज इतना स्वच्छ रहा कि चंद्र पीला पड़कर हट गया। सीताजी उस रमणी को और लक्ष्मण को देखकर मुस्कुराई । उसने आशीर्वाद देते हुए पूछा कि कब से चल रहा है यह शुक-रंभा संवाद?
सीताजी शूर्पणखा की बातों में आकर लक्ष्मण को समझाने की चेष्टा भी करती हैं । वे कहती हैं कि वे खुद उर्मिला को समझा बुझा लेंगी।
यह तो लग रहा है मानो तन-मन-धन तुम्हें समर्पित करने आयी हो! शूर्पणखा के इस प्रस्ताव को पूरी तरह से नकारा गया। इतने में रामचंद्रजी निद्रा से जाग गये। बाहर निकलकर उन्होंने द्वार पर खड़ी रमणी को देखा । उस नारी ने भी इस श्याम सुंदर रामचंद्रजी की शोभा देखी और प्रभावित हुई । सीता ने राम से कहा कि इस घर आये पद और ऐश्वर्य पर लक्ष्मण विचार करें।
रामचंद्र, लक्ष्मण और शूर्पणखा की ओर एक बार देखकर बोले- हे शुभे! तुम कौन हो और क्या चाहती हो?
खुश होकर शूर्पणखा बोली - मेरे वेश से पता चलेगा कि मैं कौन हूँ? और पता चल गया होगा कि मैं क्या चाहती हूँ? फिर भी और एक बार कहने में मुझे कोई संकोच नहीं । मैं स्वेच्छाचारिणी हूँ; अपने ऊपर पूरा अधिकार रखती हूँ। मैं किसीसे डरती नहीं। मुझसे बाधाएँ स्वयं डरती हैं। अकेली इस वन में निकल आयी हूँ। यहाँ तुम्हारे छोटे भाई को उस शिला पर बैठे हुए विचारमग्न देखा । मुझे इस युवक ने आकर्षित किया है। मेरा मन उसके सामने हार गया है। बड़ी देर तक छिपकर देख रही थी और मन फूलों का हार बन गया । यह निर्दयी युवक पूछता है तुम कौन हो? और इतना भी नहीं पूछा जो तुमने अब पूछा कि तुम क्या चाहती हो?
शूर्पणखा अपने प्रेम प्रस्ताव राम की ओर प्रक्षेपित करती है उन्हें वरमाला पहनाने को उद्यत होती है। हेमकूट और कैलाश पर उनके साथ सुख भोगने का प्रलोभन देती है।
सीता उस विकी नारी के भाव समझ लेती हैं और योलती हैं- "तुम बडी चालाक हो! पहले देवरानी और अथ सौत बनना चाहती हो । इसीको कहते हैं, अंगुली पकड़ प्रकोष्ठ पकड़ लेना "
लक्ष्मण भाभी की स्थिति पर सहानुभूति के साथ कहते हैं कि आप जो दूसरों के झगड़े के बीच में पड़ी, तो खुद फंस गयीं।
रामचंद्र बोले कि वे स्वयं वन में रहते हुए भी पत्नी के साथ रहते हैं और लक्ष्मण यहाँ अकेला रहता है। तुमने उनपर ही पहले अपना मन लगाया है।
शूर्पणखा फिर से लक्ष्मण की ओर प्रेम जताती है। लक्ष्मण ने इशारे से ही शूर्पणखा को मना किया और कहा कि जब एक बार तुम मेरे अग्रज पर आसक्त हुई, तो मेरे लिए वंदनीय बन गयी हो ।
दोनों भाइयों से इनकार किये जाने पर अतिक्रद्ध होकर शूर्पणखा जोर से बोलने लगी कि वह अपनी आशा यों ही छोड़ नहीं सकती और उसमें इतनी शक्ति है कि वह इनको झुका सकती है। राम समझाते हैं कि प्राणी विवशता में चाहे कुछ भी करें, प्रेम नहीं कर सकते ।
उस स्वेच्छाचारिणी की अंहकार से भरी बातों से क्रुद्ध हुए। अपने छद्मवेश को हटाते हुए शूर्पणखा धमकियाँ देने लगी और उसने अपना विकराल रूप प्रकट किया।
शूर्पणखा चर्म का चीर पहनी हुई, वरमाला की जगह मुंडमाला ली हुई, दीर्घ शरीरवाली के रूप में प्रकट हुई। इतने भयानक परिवर्तन से सब विस्मित हो गये । दोनों भाई एक दूसरे को देखने लगे सीताजी को टोकते हुए लक्ष्मण ने आगे बढ़कर कहा कि आपके उस सुंदर रूप का यही सही परिणाम है। तो मैं तुम्हें क्यों मारू? तुम्हें विकलांगी कर दूंगा । लक्ष्मण ने अपनी तलवार से शूर्पणखा के कान और नाक काट दिये ।
अब क्या है? शूर्पणखा की चीख और चिल्लाहट से सारा गगन गूँज उठा। हाहाकार करती हुई और आँधी जैसी धूल उड़ाती हुई शूर्पणखा भाग निकली।
सीताजी को ये सारी घटनाएँ अपशकुन और अशुभ लगीं । लक्ष्मण ने अपनी साहसपूर्ण वीरोचित उक्तियों से सीताजी को शांत किया । रामचंद्रजी ने कहा कि मनुष्य को संकटों का निडर होकर सामना करना चाहिए और खुशी के समय घमंडी न बनना चाहिए । मैं चाहता हूँ कि अगर यहाँ ऐसा संकट आ भी जाए, तो उनका सानना में खुद करूँ ताकि मेरी शक्ति और सहनशीलता का परिचय आप लोगों को हो जाए । लक्ष्मण विवाद करने लगते हैं तो सीता दोनों को रोकती हैं।
सीता अब चर्चा का विषय बदलने के विचार से लक्ष्मण को आदेश देती हैं कि वे गोदावरी से पानी लाने घड़ा उठा लें और खुद मछलियों को चुगाने कुछ धान हाथ में लेकर निकल पड़ीं।
इस भाभी-देवर के आदर्श बर्ताव पर प्रसन्न होकर रामचंद्रजी ने वहाँ के नये-नये विकसित फूल तोड़कर उन दोनों पर बरसाते हुए आशीर्वाद दिये।
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