पंचवटी
कवि का नाम : मैथिलीशरण गुप्त
जन्म :3 अगस्त 1886
जन्म स्थान : चिरगाँव (झाँसी)
निधन : सन् 1965
कवि परिचय :-
राष्ट्रीय कवि मैथिलीशरण गुप्त से रचित खण्डकाव्य है पंचवटी। यह पौराणिक खण्डकाव्य है। इसके कुल 128 पद हैं। पूर्वाभास में तीन पद हैं। इसमें रामायण की एक घटना का सजीव वर्णन किया गया है। मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त 1886 को चिरगाँव में हुआ था। मैथिली शरण गुप्त का निधन 1965 को हुआ।
कथावस्तु
पिता की आज्ञा मानकर श्रीराम वनवास के लिए निकले। सीता भी उनके साथ चली। उन दोनों के पीछे लक्ष्मण भी जाने लगा। श्रीराम ने लक्ष्मण को रोकना चाहा मगर उसने नहीं माना। उसका प्यार देखकर श्रीराम उसको भी अपने साथ ले गये। घने जंगल के बीच पंचवटी नामक स्थान था। यह प्राकृतिक सौन्दर्य से भरा स्थान था।
श्रीराम, सीता और लक्ष्मण तीनों वहीं पर्णकुटी बनाकर रहने लगे। रात को राम और सीता कुटी में सोते थे और लक्ष्मण बाहर पहरा देता था। एक रात को लक्ष्मण एक पत्थर पर बैठा था। पूरी दुनिया सोती थी मगर वह जागा हुआ था। वह अपने मन में यों सोचने लगा कि चाँदनी स्वच्छ है। रात अंधेरी है। प्रकृति कभी आराम नहीं करती है तेरह वर्ष बीत चुके है मगर सब बातें दिल में ताजी हैं। जल्द ही वनवास पूर्ण होनेवाला है। अब श्रीराम राजा बनेंगे और प्रजाओं की रक्षा करेंगे।
माता कैकेयी ने पहले भाई राम को वन भेज दिया और फिर चित्रकूट में दुख व्यक्त किया। लोग राज्य को बड़ा मानते हैं। वास्तव में वह तुच्छ है। भाई राम कही भी रहे राजा ही है। इस वन में भी उनका ही शासन चलता है। यहाँ के पशु-पक्षी भाभी का स्नेह पाकर प्रसन्न हैं। गोदावरी नदी गोत गाती हुई बहती है। अयोध्या में हमारे रिश्तेदार सोचते होंगे कि हम वन में दुखी होंगे। मगर हम लोग यहाँ प्रसन्न हैं । उनको एक बार यहाँ ले आना चाहिए। मेरो पत्नी उर्मिला भी मेरी चिता में रोती होगी।
जब लक्ष्मण ऐसा सोच रहा था तब एक अनुपम सुन्दरी उसके सामने प्रकट हुई। वह शर्म के बिना हँसती थी। लक्ष्मण ने उस सुन्दरी की ओर ध्यान नहीं दिया। वह सुन्दरी स्वयं लक्ष्मण से बोलने लगी कि मुझे देखकर भी आप कुछ नहीं बोले। इससे साबित होता है कि पुरुष निर्मम हुआ करते हैं। लक्ष्मण बोला कि आधी रात को अकेली औरत को देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा है। तुम अकारण पुरुषों को निर्मम कहती हो। मैं दूसरी औरतों से बात करने का आदी नहीं हूँ।
मैं निर्मम और क्रूर हूँ। मैं माता, पिता, पत्नी, संपत्ति सब कुछ छोड़कर यहाँ आया हूँ। मैं यहाँ सचमुच प्रसन्न हूँ। तुमको देखकर मुझे सचमुच भय होता है। बताओ तुम कौन हो। उत्तर में वह सुन्दरी बोली कि तुमने यही कि मैं कौन हैं। मगर यह नहीं पूछा कि मैं क्या चाहती हूँ। पूछा मैं अतिथि बनकर आयी हूँ। क्या तुम मेरी सेवा नहीं करोगे? लक्ष्मण ने कहा कि मैं एक गरीब हूँ और तुम धनी हो। इस हाल में मैं तुम्हारी सेवा कर नहीं सकता। मेरे पास कुछ भी नहीं है। इसके उत्तर में वह रमणी बोली कि मुझे बस तुम्हारा प्यार चाहिए।
यह सुनकर लक्ष्मण ने समझाया कि मैं विवाहित हैं। इसलिए तुम्हारी प्रार्थना को स्वीकार नहीं कर सकता। यह सुनकर वह युवती निराशित हुई।
फिर भी वह तरह तरह के वाद प्रस्तुत करने लगी। इस तरह दनों के बीच। वाद-विवाद लंबी देर तक होता रहा।
इतने में सूर्योदय हुआ और सीता कुटी से बाहर निकली। उसे देखकर वह सुंदरी अचंभे में पड़ गयी। वह अपनी सुन्दरता को तुच्छ मानने लगी। इतने में सीता ने लक्ष्मण से कहा कि हे देवर घर आये मेहमान से ठीक ठीक बात नहीं करते हो। यह निर्ममता का निशान है। लक्ष्मण ने झुककर सीता के पैर छुए तो सीता ने आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम्हारे और इस नारी के बीच जो बातें हुई उनको मैने नहीं सुना। तुम सब बात याद रखो और बाद में मुझे सुनाओ।
फिर सीता उस युवती से बोली कि ये मेरे देवर हैं। इनका स्वभाव ही कुछ ऐसा है। मैं इनको तुम्हारा पति बनाऊँगी। चिंता मत करो। वास्तव में यह सीता का विनोद ही था। इसे सच मानकर वह सुन्दरी बोली कि यदि तुम ऐसा करोगी तो मैं जीवन भर तुम्हारा आभारी रहूँगी।
सीता ने श्रीराम को जगाया तो वे जागकर कुटी से बाहर आये। उन्होंने उस रमणी से पूछा कि तुम कौन हो और क्या चाहती हो? इसपर वह सुन्दरी बोली कि मैं स्वच्छंद विचरनेवाली नारी हूँ। तुम्हारे छोटे भाई को देखकर मैं मोहित हुई। मगर तुम्हारे भाई ने मेरी प्रार्थना अस्वीकार कर दी। तुम सचमुच बडे हो। इसलिए मैं तुमको चाहने लगी हैं। तुम मुझे अपनाओ। मैं तुमको सब सुख दूंगी और तुमको प्रसन्न रखंगी।
श्रीराम ने कहा कि तुम मेरे छोटे भाई को चाह चुकी हो। इसलिए में तुमको अपना नहीं सकता। वह रमणी लक्ष्मण की ओर देखने लगी तो लक्ष्मण बोला कि तुम भैया को चाह चुकी हो। तुम मेरी भाभी समान हो। मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार नहीं कर सकता।
दोनों का उत्तर सुनकर उस सुन्दरी को अपार क्रोध हुआ। वह यह धोखा सहन कर नहीं सको। उसने अपना असली स्वरूप दिखाया। वह राक्षसी रूप था। उसने अपना नाम शूर्पनखा बताया। उसकी देखकर सीता घबरायी। लक्ष्मण ने कहा कि तुम्हारे इस अपराध का मैं ज़रूर दंड दूंगा। मैं तुम्हारी जान नहीं लूँगा मगर तुम्हारे नाक और कान काट देता हूँ ताकि आगे किसी को भी धोखा न दे सको। इतना कहकर उसने शूर्पणखा के नाक और कान काट दिये। शूर्पणखा चिल्लाती हुई वहाँ से चली गयी।
सीता इस घटना से घबराने लगी तो रामने उसे आश्वासन दिया। लक्ष्मण ने कहा कि मैं हर संकट का साहस के साथ सामना करुंगा। आप चिंता न करें। फिर सीता घडा लेकर पानी भरने गयी तो लक्ष्मण उसकी सुरक्षा के लिए उसके साथ जाने लगा। श्रीराम उन दोनों को देखते रहे।
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