Saturday, March 20, 2021

महाकाव्य की भारतीय एवं पाश्चात्य अवधारणा

 

                                     महाकाव्य


• महाकाव्य की भारतीय एवं पाश्चात्य अवधारणा 

• महाकाव्य के विषय में भारतीय एवं पाश्चात्य दृष्टिकोण में साम्य और वैषम्य 

* महाकाव्य के स्वरूप 

      बन्थ अर्थात् एक सुनिश्चित क्रम के आधार पर रचिति भाव-प्रधान तथा विषय-प्रधान काव्य के दो प्रमुख भेद माने जाते हैं-प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्य प्रबन्ध-काव्य के भी दो भेद माने जाते हैं महाकाव्य एवं खंडकाव्य 'महाकाव्य शब्द 'महत और 'काव्य' दो शब्दों से मिलकर बना है। इसमें पहला शब्द विशेषण और दूसरा विशेष्य है। महाकाव्य शब्द में विशेष्य का अधिक महत्व होता है। अतः इस शब्द में भी 'काव्य ही प्रमुखध और दोनों शब्दों का अर्थ होता है बड़ा काव्य क्योंकि 'महतु एवं 'विशाल' 'उत्कृष्ट' का भी भाव प्रकट होता है । इसे यों भी कह सकता है कि महाकाव्य जीवन के महत् का विवेचन होता है। जहां तक काव्य की परिभाषा का प्रश्न है-विद्वानों ने काव्य की अनेक परिभाषाएँ दी हैं, जिनका इस रूप में प्रस्तुत किया है-

(1) नैसर्गिक भावोद्रेक के साथ भावों की मार्मिक व्यंजना, निष्कर्ष इस 

(2) रस युक्त, प्रवाह युक्त पद्य,

(3) चमत्कार और ध्वनियुक्त पद्य-रचना, 

(4) अलंकार, काव्य-गुण,उक्ति-वैचित्रय, बाग्वैदग्ध्य, औचित्य के अधिकाषिक निर्वाह से युक्त, 

(5) आंतरिक और बाह्य स्थितियों का बिम्बात्मक वर्णन, 

(6) शब्द और अर्थ का रमणीय सम्बन्ध, 

(7) कलात्मकता से युक्त आदि-आदि।

             महाकाव्य का 'महा' शब्द काव्य के लिए 'महत्' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 'वाल्मीकि रामायण' में हुआ । राम ने अपनी कथा का वर्णन सुनने के बाद लव-कुश से कहा-इस विशाल आकार वाले काव्य के कर्ता कौन हैं ?-

     "किं प्रमाणमिदम् काव्यम् का प्रतिष्ठा महात्मनः। 

       कर्ता काव्यस्य महतः क्व चासौ मुनि पुंगवः ।।"

    इस श्लोक में यह तो स्वत: ध्वनित है कि इसमें किसी महान् व्यक्तित्व के चरित्र की प्रतिष्ठा होती है।

महाकाव्य का स्वरुप

        महाकाव्य के स्वरूप पर भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही आचार्यों ने विचार किया है। यहाँ संक्षेप में उनके मतों की समीक्षा करना उपयुक्त रहेगा।


भारतीय आचार्यों के मत

     (क) भामह के अनुसार-भामह सर्वप्रथम आचार्य हैं, जिन्होंने महाकाव्य के लक्षणों पर विचार किया है। उनके अनुसार महाकाव्य-

      (1) सर्गबद्ध होना चाहिए और महान चरित्रों से संबद्ध होना चाहिए। 

      (2) उसका आकार भी बड़ा होना चाहिए।

      (3) वह माम्य शब्दों से रहित तथा

      (4) वह सत्पुरुष आश्रित हो। अर्थ-सौष्ठव सम्पन्न अलंकार युक्त हो।

      (5) यह मंत्रणा, दूत-प्रेषण, अभियान, युद्ध, नायक का अभ्युदय,पंच-संधि समन्वित हो।

      (6) उसमें चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष) का वर्णन होने पर भी अर्थ-निरूपण का प्राधान्य हो।

     (7) वह लौकिक आचार एवं सभी रसों से युक्त हो ।

     (8) महाकाव्य में नायक का प्रथम वर्णन किया जाय उसके बल वेग,ज्ञान आदि का भी वर्णन रहे।

      (9) प्रतिनायक का वर्णन बाद में हो

      (10) नायक का वर्ष न हो।

      (11) यदि नायक को कथा के प्रारम्भ से अन्त तक न दिखाया जा सके या उसका अभ्युदय वर्णन न हो तो उसे नायक नहीं बनाना चाहिए


"सर्गबन्धो महाकाव्य महता च महत्व यत्

अग्राम्यशब्दमयं च सालंकार सदाश्रयम्।

मन्त्रदूतप्रयाणादिनायकाभ्युदयैश्च  यत्

पञ्चटि सर्व सन्धिभिर्युक्तं नीति व्याख्येयमृद्धिमत् ।।"           (काव्यालंकार)


(ख) दण्डी के अनुसार दण्डी ने 'काव्यादर्श में कुछ नवीन तथ्यों को और जोड़ दिया

      (1) महाकाव्य के प्रारम्भ में आशीर्वाद, नमस्कार एवं वस्तु-निर्देश की योजना होनी

      (2) विरह-जन्य प्रेम, विवाह, कुमारोत्पत्ति विचार-विमर्श, राजदूतत्व, अभियान, युद्ध तथा चाहिए। नायक की विजय आदि का वर्णन अपेक्षित है।

      (3) प्राकृतिक-चित्रण एवं सामाजिक विधि-विधानों का संयोजन अपेक्षित है।

     (4) नायक के उत्कर्ष के लिए प्रतिनायक के वंश तथा पराक्रम का भी वर्णन आवश्यक है, क्योंकि नायक का वास्तविक उत्कर्ष गुणवान प्रतिपक्षी की ही पराजय में निहित है।

     (5) नायक का चतुर और उदात्त होना आवश्यक है।

     (6) चतुर्वर्ग का विधान उनके संयोजन के साथ आवश्यक है।


(ग) आचार्य रुवट-इन्होंने 'काव्यालंकार में पूर्ववर्ती आचार्यों के मत को स्वीकार करते हुए कुछ नवीन तथ्य भी प्रस्तुन किए हैं।

    (1) इन्होंने नायक के गुणों का अपेक्षाकून अधिक विस्तार किया है। ये ठसे तिवण पराप्ति (धर्म, अर्थ, काम) में संतान, शक्तिाग से सम्पन्न সৈ शक्ति या प्रणाव-शाक्ति, मंत्र-शक्त तथा उत्सारा-पाक्ति), सम्पूर्ण राज्य का विधिवत् पालन-कर्ता, सर्वगुण सम्पन्न, विजिगी, परहित निरत, धर्मपरायण होना चाहिए।

     (2) वे प्रतिपक्षी के भी गुणवान होने की बात स्वीकार करते हैं।

     (3) वे कथावस्तु में कल्पना के समावेश को स्वीकार करते हैं-अतः ऐतिहासिक कथानक की अनिवार्यता नहीं मानते।

     (4) वे विविध वर्णन प्राकृतिक परिवेश, गीत, नृत्य, পंगार-चर्चा आदि के समावेश के पक्षधर है।

     (5) वे अतिमानवीय, अतिप्राकृतिक एवं असंभव घटनाओं के समावेश की अनुमति नहीं देते ।


(घ) आचार्य विश्वनाथ इनके 'महाकाव्य' लक्षणों में पूर्ववर्ती विचारों का समन्वय प्रतीत होता है । इन्होंने 'साहित्य-दर्पण' में महाकाव्य के लक्षणों पर विचार किया है

    (1) महाकाव्य सर्गबद्ध हो।

    (2) इसका नायक देवता या कुलीन क्षत्रिय, धीरोदात्त गुण युक्त हो। एक राजवंश के अनेक राजा भी नायक हो सकते हैं।

    (3) इसमें शांत,बीर, श्रृंगार में से कोई एक अंगी (भअधान) तथा शेष रस गौण रूप में आते हैं।

    (4) इसमें सभी नाट्य-सन्धियों की योजना होती है।

    (5) कथानक लोकप्रसिद्ध-ऐतिहासिक होना चाहिए।

    (6) इसका उद्देश्य या फल पुरुषार्थ चतुष्ट्य में से एक होता है।

    (7) प्रारम्भ में नमस्कार, वस्तु-निर्देश, आशीर्वाद आदि होता है। 

    (৪) खल निन्दा एवं सज्जन प्रशंसा होनी चाहिए । 

    (9) आठ सर्ग का होना चाहिए और प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग होना चाहिए। इसे बहुत बड़ा और छोटा नहीं होना चाहिए। सर्गान्त में भावी सर्ग की सूचना होनी चाहिए। 

   (10) विविध प्रकार के वर्णन-प्राकृतिक पदार्थों, अतु, शिकार, विवाह, प्रेम, विरह आदि का होना जरूरी है।

   (11) इसका नामकरण कवि, वस्तु या नायक नायिका के आधार पर होना चाहिए।


"सर्गबन्यो महाकाळ्यं त्रैको नायकः सुर

सद्वंश क्षत्रियो वापि धीरोदात-गुणान्वितिः । 

एकवंशमवा पूपा कुलजा बहवोऽपि वा,

मगार वीरशान्तानामेकोऽग रस इण्यते ।।"


(इ) आचार्य कुन्तक इन्होंने 'प्रकरण-वक्रता' का उल्लेख करते हुए प्रबन्ध-काव्य या महाकाव्य के लक्षणों का उल्लेख किया है। इनके अनुसार

     (1) प्रबन्ध का प्रत्येक प्रकरण प्रधान कार्य से सम्बद्ध एवं अंगी का उत्कर्ष हो। 

    (2) जल-क्रीड़ा,उत्सव आदि रोचक प्रसंगों का विशेष विस्तार के साथ वर्णन हो।

    (3) किसी उद्देश्य सिद्धि का विधान हो।

    (4) रस कई हों।

    (5) उत्कृष्ट नायक का चरित्र हो ।

   आधुनिक काल के विचारक

   हिन्दी के निम्नलिखित विद्वानों ने भी महाकाव्य के लक्षणों पर विचार किया है

   (1) गुलाबराय के अनुसार"महाकाव्य विषय-प्रधान काव्य है, जिसमें अपेक्षाकृत बड़े आकार में जाति में प्रतिष्ठित और लोकप्रिय नायक के उदात्त कार्यों द्वारा जातीय भावनाओं, आदर्शों और आकांक्षाओं का उद्घाटन किया जाता है।"

   (2) डॉ. शम्भूनाथ सिंह के अनुसार "महाकाव्य वह छन्दबद्ध रचना है जो तीव्र कथा-प्रवाह के साथ-साथ मानवीय अनुभूतियों का भी लेखा-जोखा रखती है।" उन्होंने बन्धन को स्वीकार न करते हुए कवि की किसी महती प्रेरणा के वशीभूत होकर किसी जाति-विशेष का स्वानुभूत अथवा कल्पनासिद्ध नाना रूपों में वर्णन होना स्वीकार किया है। वह शैली की उदात्तता को भी स्वीकार करते हैं।

   (3) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-शुक्लजी चार तत्वों को महत्त्व देते हैं। (i) इतिवृत्त यह व्यापक तथा सुसंगठित होना चाहिए। (i) वस्तु-व्यापार-वर्णन-वस्तु-वर्णन विस्तृत तथा भावों को तरंगित करने वाला हो । (HI) घाव-व्यंजना वैविध्यपूर्ण एवं तीव्र हो । (iv) संवाद रोचक और नाटकीय हों।

(4) डॉ. नगेन्द्र इन्होंने पांच तत्त्वों पर बल दिया है। ये तत्व हैंi) उदात्त कथानक, (i) उदात्त कार्य-व्यापार, (iii) उदात्त-भाव-व्यंजना,(iv) उदात्त चरित्र, तथा (v) उदात्त शैली। (च) सुमित्रानंदन पंत के अनुसार, "महाकाव्य मानव सभ्यता के संघर्ष तथा सांस्कृतिक विकास में जीवन्त पर्वताकार दर्पण है, जिसमें मुख देखकर मानवता अपने को पहचानने में समर्थ होती है।"


पाश्चात्य विचारक

    पाश्चात्य विचारकों में से अरस्तू सबसे अधिक प्राचीन है।

   (1) अरस्तु के अनुसार-महाकाव्य ऐसे उदात्त व्यापार का काव्यमय अनुकरण हे जो स्वतः गम्भीर, पूर्ण एवं वर्णनात्मक हो, सुन्दर शैली में रचा गया हो, जिसमें आद्यांत एक छन्द हो, जिसमें एक ही कार्य हो जो पूर्ण हो, जिसमें प्रारम्भ, मध्य और अंत स्वतः स्पष्ट हों, जिसके आदि और अन्त एक दृष्टि में समा सकें, जिसके चरित्र श्रेष्ठ हों, कथा सम्भावनीय हो और जीवन के किसी एक सार्वभौम सत्य का प्रतिपादन करती हो । "

  (2) एयर क्राम्यी के अनुसार-"बड़े आकार के कारण ही कोई रचना महाकाव्य नहीं हो जाती । जब उसकी शैली महाकाव्यात्मक होगी,तभी उसे महाकाव्य माना जा सकता है और वह शैली कवि की कल्पना, विचारधारा तथा उसकी अभिव्यक्ति से जुड़ी होती है।"

  (3) सी. एम. बाबरा के अनुसार-सर्वसम्मति से महाकाव्य वह कथात्मक काव्य-रूप है, जिसका आकार वृहद् होता है, जिसमें महत्त्वपूर्ण और गरिमायुक्त घटनाओं का वर्णन होता है और जिसमें कुछ चरित्रों की क्रियाशील जीवन-कथा होती है। उसे पढ़ने के बाद हमें विशेष प्रकार का आनन्द प्राप्त होता है।"

    उपर्युक्त मतों का समन्वय-यदि संस्कृत, हिन्दी और पश्चिमी विद्वानों के लक्षणों पर विचार किया जाय तो यह स्वतः सिस हो सकेगा कि उनमें कोई उद्देश्य, महती प्रेरणा, माती प्रतिभा, प्रभावशाली सुगठित कथानक, उत्तम नायक, जातीय आधारभूत अन्तर नहीं है। महत् विशेषताओं का समावेश, गम्भीर रस-व्यंजना, महिमामंडित भाषा-शैली, विस्तृत वस्तु-वर्णन, युगधर्म की व्यंजना । डॉ. देवीशरण रस्तोगी (भारतीय एवं पाश्चात्य साहित्यशास्त्र) ने इसमें "प्राणवत्ता' तत्व को और समाहित किया है। उनके अनुसार "जो रचना जितने अधिक अंशों में प्राण-तत्त्व को और अभिव्यंजित कर पाती है,वह उतनी ही अधिक अंशों में चिरजीवी सिद्ध होती है।"

      (4) भारतीय और पाश्चात्य महाकाव्य में अंतर इन समानताओं के होते हुए भी भारतीय और पाश्चात्य महाकाव्यों में भी कुछ सूक्ष्म अन्तर देखने में आता है। पाश्चात्य महाकाव्य यथार्थ की तुलना पर तोले जाते हैं । अतः उनका नायक बड़े एवं असाधारण कार्यों के लिए प्रयत्नशील तो रहता है, किन्तु समय आने पर लघु कार्य करने में भी नहीं हिचकता अर्थात् वह भारतीय नायक के अनुसार अपना आदर्श नहीं बनाये रख सकता । प्राचीन दृष्टि जहाँ नायक को आदर्श एवं दैवी गुण सम्पन्न बनाने की ओर रही, वहीं आधुनिक दृष्टि मानव की सच्ची आलोचना, मानवीय भावों का रहस्योद्घाटन तथा जीवन की विविधता को महत्त्व देती है, क्योंकि मनुष्य आदर्शों का पुंज मात्र नहीं होता। उसमें गुण-दोष दोनों का होना आवश्यक है। अतः उसकी मानवीय दुर्बलताओं का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए चरित्र का क्रमशः विकास दिखाया जाता है। इस कारण आधुनिक दृष्टि नायक के यथार्थवादी चरित्र की पक्षचर है। आधुनिक दृष्टि के अनुसार नायक को मानवता का कल्याण करने में सलंग्न दिखाया जाता है। इनमें मानवीय सत्ता और यथार्थ पर बल रहता है। यह सांसारिक समस्याओं के सुलझाने की क्षमता रखता है। अत: उसका मानसिक विकास तथा घात-प्रतिघात दिखाना आवश्यक है।

        महाकाव्य के स्वरूप पर शास्त्रीय दृष्टि से विचार अवश्य हुआ, पर आधुनिक काल में जो महाकाव्य रचे गये, वे सर्वथा नवीन दृष्टि लेकर सामने आये। 'प्रियप्रवास' 'साफेद', 'कामायनी आदिमानव को ही आदर्श रूप में प्रतिष्ठित करने वाले युग-बोध को उभारकर, नवीन शैली के महाकाव्य सामने आये। 'प्रिय-प्रवास' ने तो बहुत अंशों में परम्परा का निर्वाह किया है, पर , 'कामायनी' छायावादी शैली से बोझिल हो उठने के कारण प्रतीकात्मकता से भी बोझिल हो उठा।

        उपसंहार-

        डॉ. शम्भूनाथ सिंह ने सभी लक्षणों के आधार पर महाकाव्य के आन्तरिक और बाह्य लक्षणों को अलग-अलग प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार बाह्य लक्षणों में-कथात्मकता का छन्दोबद्ध होना, सर्गबद्धता के साथ कथा का विभाजन और विस्तार, जीवन के समम रूप का चित्रण, नाट्य कथा, गीतितत्व से युक्त संघटित कथानक का निर्माण, गम्भीर, उदात्त और मनोहर शैली-आदि अपेक्षित है।" आन्तरिक लक्षणों की चर्चा करते हुए वे आगे कहते हैं-"किसी महान् घटना का वर्णन, नाटकीय अन्विति अपेक्षित होने के साथ कथा को विशूंखल नहीं होना चाहिए। कोई उद्देश्य चाहे वह राष्ट्रीय, नैतिक, धार्मिक, दार्शनिक, मानवीय आदि हो-अवश्य होना चाहिए। साथ ही उसमें प्रभावान्विति भी अपेक्षित है।"

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1 comment:

  1. Please post important portions for rashtrabasha and praveshika August 2021. Thank you very much

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