Sunday, February 14, 2021

साहित्यिक अनुवाद -2/कविता का अनुवाद - समस्याएं और समाधान

 

                        साहित्यिक अनुवाद -2

कविता का अनुवाद - समस्याएं और समाधान

रूपरेखा :-

 सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि

1. कविता की परिभाषा 

2. कविता के तत्व और प्रकार।

3. अनुवाद की परिभाषा और सीमा।

4. अनुवादक की पात्रता।

प्रयोग

1. नीति उपदेशपरक कविता का अनुवाद ।

2. अर्थपरक कविता का अनुवाद।

3. मुक्तक का अनुवाद।

4. प्रबन्धक काव्य का अनुवाद ।

5. रसात्मक अवता व्यंजना प्रधान काव्य का अनुवाद ।

निष्कर्ष :-

जिस प्रकार विश्वव्यापी पवन को मुट्ठी में बन्द कर पाना संभव नहीं है, उसी प्रकार मानव हृदय में उद्वेलित होनेवाली असंख्य भावतरंगों की सीमा भी निश्चित नहीं की जा सकती, ठीक उसी प्रकार कविता की सम्पूर्णता को परिभाषा में बाँधना संभव नहीं है। फिर भी व्यावहारिक धरातल पर विश्वम्भर के समीक्षकों ने कविता की परिभाषा निश्चित की है। उदाहरण के लिए हम संस्कृत काव्यशास्त्र से पं. जगन्नाथ की तथा विश्वनाथ की काव्य परिभाषा ले सकते है। "रमणीयार्थ प्रतिपादक शब्द काव्यम्" अर्थात् रमणीय अर्थ का प्रतिपादक शब्द काव्य है इसमें भाव सौन्दर्य अर्थात रसध्वनि को काव्य माना गया है। इसी प्रकार विश्वनाथ ने - "वास्यं रसात्मकं काव्यम्" कहकर प्रकारान्तर से वनिमूलक रस का ही समर्थन किया है। अर्थात् काव्य का प्राणतत्व व्यंजक भाव - ध्वनित भाव है।

अंग्रेजी के प्रख्यात कवि मिल्टन ने काव्य में प्रसाद गुण की प्रमुखता दी है। वे बहते हैं - "Poetry must be simple, sensuous and passionate " अर्थात् कविता सरल-सहज, इन्द्रिय-प्रेरक एवं भावमय ही होना चाहिए। इस प्रकार उक्त तीनों परिभाषाएं कविता असली कविता में तीव्रभावमयता को अनिवार्य मानती हैं। अत सिद्धान्ततः कविता का अनुवाद असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। उसमें सीमातीत सूक्ष्मभाव होते हैं ।

बुद्धि, कल्पना, भाव एवं भाषा-शैली ये कविता के प्रतिनिधि तत्व हैं। इनमें भी कल्पना और 'भाव प्रमुख हैं। इन तत्वों के अभाव में काव्य रचना संभव नहीं होगी। काव्य के भेद अनेक प्रकार से किये गये हैं। मुक्तक और प्रबन्ध इन दो में सभी भेद गर्भित हैं।

अनुवाद को परिभाषित करना है तो यह कथन पर्याप्त है कि -किसी एक भाषा की रचना को - उसके अर्थ की सम्पूर्णता को सुरक्षित रखते हुए दूसरी भाषा में बदलना अनुवाद है। यह परिभाषा बस काम चलाऊ है। वस्तुतः किसी अभिधामूलक, अर्थधारक और उपदेशात्मक रचना का तो प्रायः पूरी तरह अनुवाद संभव है, परन्तु तीव्र, भावप्रधान और व्यंजनामय काव्य कृति का नहीं। यह अनुवाद की सीमा रेखा है। कविता में भाव और कथ्य के साथ कवि की शैली और व्यक्तित्व भी समाहित होते हैं जो अति मौलिक होने के कारण अनूदित नहीं हो सकते

अनुवादक की पात्रता विशेषतः काव्यानुवाद के सन्दर्भ में ध्यातव्य है। अनुवादक में ये गुण अपेक्षित है


1. स्रोतभाषा और लक्ष्य भाषा का आधिकारिक जान। 

2.अनुवाद कला का ज्ञान। 

3. अनुवाद कार्य में पूर्ण रूचि।

4. अनुवाद-हेतु निश्चित विषय का स्तरीय ज्ञान।

5. सल्यनिष्ठता

6. यदि काव्यानुवाद करना है तो अनुवादक काव्य-मर्मज्ञ हो स्वयं कवि हो तो श्रेयस्कर होगा।

इस सिदान्त भूमि के आरंभिक ज्ञान के पश्चात् हम सरलता से काव्य के विभिन्न रूपों के अनुवाद पर सोदाहरण विचार कर सकते हैं। नीति और उपदेश प्रधान काव्य में अर्थ और वस्तु की प्रधानता होती है। मन्तव्य सरल भाषा में नपे-तुले शब्दों में प्रकट किया जाता है। अतः अनुवाद कार्य बहुत कठिन नहीं होता, फिर भी मूल पद्य का जो निजी और पैना प्रभाव है, वह तो उसकी निजता है । प्रसिद्ध कवि रहीम के कुछ नीति उपदेश परक दोहे देखिए - 

   सर सूखे पंछी उड़े, और सरन समाहि। 

  दीन मीन बिन पंख के, कहु रहीम को जाहिं।।

परन्तु अर्थात् - तालाब सूख गये, तो पक्षी उड़कर दूसरे (जलमय) तालाबों में जा बसे। व हवन असहाय मछलियाँ कहाँ जाएँ ? इस पद्य में असहाय और समर्थ व्यक्तिति ममन को पक्षियों और मछलियों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। अनुवाद में मूलत्रभाव सुरक्षित नहीं रह पाता। व्यंजना की रक्षा तो और भी कठिन होती है। इसी प्रकार

     रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि। 

  जहाँ काम आवे सुई, कहा करै तरवारि।।"

   प्रीतम छवि नैनन बसी, पर छवि कहाँ समाय। 

   भरी सराय रहीम लखि पचिक आप फिरि जाय।।"

   इन दोनों दोहों का अनुवाद कठिन नहीं है, परन्तु सरस, पैने और सुगठित प्रभावमय मुक्तक की निजता तो अननुकरणीय रहता ही है। 

   भूगोल, गणित, ज्योतिष एवं कृषि सम्बन्धी बातें भी सुविधा के लिए पद्यबद्ध कर दी जाती हैं, परन्तु उन्हें काव्य नहीं कहा जा सकता। यह तो अर्थपरक या सामान्य ज्ञान परक पद्य रचना है। इसका अनुबाद सरलता पूर्वक किया जा सकता है। इसमें भाव नहीं विषय की प्रधानता होती है।

      तिल भौंरी लहसुनमसी, होहि दाहिने अंग। 

      जाहि पर बन खंड में, साथ लक्ष्मी संग।।

      अर्थात् यदि मनुष्य के दाहिने अंग में तिल, भौंरी, लहसुन और मस्सा हो तो वह घनघोर जंगल में भी फंसा हो तो लक्ष्मी उसकी रक्षा करती है। इस पद्य में बस जानकारी पद्य के माध्यम से दी गयी है। यह कविता नहीं है। इसका अनुवाद सरल है।

     कवित्वमय मुक्तक के अनुवाद का जहाँ तक प्रश्न है वह उसकी अभिधा, लक्षणा और ध्यंजना की मात्रा पर निर्भर करता है। मुक्तक का अनुवाद प्रबन्ध काव्य के अनुवाद से भी कठिन होता है। सरलता, संश्लिष्टता, संक्षिप्तता, पूर्णता, प्रभावकर्ता और रागात्मकता - ये तत्व मुक्तक में अति आवश्यक हैं। मुक्तककार गागर में सागर ही नहीं अपितु बिन्दु में सिन्धु भरता है। अतः उत्कृष्ट मुक्तक का अनुवाद व्यावहारिक तो हो सकता है, हू-ब-हू नहीं। गीत में भी यही बात है।

       कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं

        संतो भाई आई ज्ञान की आंधी रे। 

       भ्रम की टाटी सबै उड़ानी, माया रहै न बाँधी रे।।

     कबीरदास ने आंधी और टाटी के स्तर पर ज्ञान और माया का रूपक बाँधा है। अपने ढंग की रहस्यात्मक उक्ति है। इसका व्यावहारिक कामचलाऊ अनुवाद तो हो सकता है, पर पूर्णता का दावा नहीं किया जा सकता।

      भक्त कवि सूरदास का यह पद दृष्टव्य है।

    मुरली तऊगोपालहि भावति ।

    सुनिरी सखी जदपि नैंदलालहि नाना भाँति नचावति ।

   राखति एक पाइ दौडौ करि अति अधिकार जनावति।

    कोमल तन आज्ञा करबानति, कटि टेढी ह्वै आवति ।

    अति अधीन सुजान कथोडे, गिरिधर नार नवावति । 

    आपुन पौडि अधर सञ्जावर, करपल्लव पलुरावति।।

    भृकुटि कुटिल नैन नासापुट, हम पर कोप करावति ।

    सूर प्ररान्नजानि एकौछिन, घर तैं सीस डुलावति।

     इस पद में जो सपत्नीक ईर्ष्या, भावप्रवणता, व्यंजना, कसावट, सालंकारता और प्रस्तुतीकरण की अनुपम निजता है उसका अनुवाद नहीं हो सकता। अनुवाद तो अर्थमूलक सामान्य भाषान्तरण है।

     इसी प्रकार यह सांगरूपक और आर्थी - व्यंजना से ओतप्रोत पद राधा विरह का असाधारण चित्र प्रस्तुत करता है

       पिया बिनु नागिनि कारी रात।

      जौ कहूँ जामिनि उषति जुन्हैया, डसि उल्टी हैव जात।।

      जंत्र न फुरत मत्र नहि लागत, प्रीति सिरानी जात।

      सूर स्याम बिनु निकल विरहिनी, मुरि मुरि लहरै खात।।

    उद्दीपन विभाव की प्रमुखता में सम्पूर्ण रसात्मकता के साथ विप्रलम्भ श्रृंगार उभरा है। उक्त पद का सामान्य अर्थ बोध तो अनुवाद से संभव है, परन्तु प्रस्तुतीकरण और भाषागर्भी व्यंजना तो अनुवाद के पकड़ में न आ संकेगी।

      हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल काव्य अनेक स्तर पर नेक धाराओं में विभाजित हुआ। नयी कविता और छायावादी कविता अपने व्यंजना प्रधान नये तेवर माप उभरी। कायावादी काव्य धारा तो बिल्कुल रहस्य, प्रेम, वैयक्तिकता एवं वियोग को लेकर ही जन्मी और सन् 1918 से 1936 तक चली। इस काव्य धारा के प्रमुख कवि प्रसाद, पन्त, निराला और महादेवी वर्मा थे इन सभी के काल्य में गहरी व्ंजना भोपतीयता, रहस्यात्मकता एवं भावगत दुरूहता है। अत: अनुवादक को इनके काव्य का अनुवाद करने में पर्याप्त कठिनता होती है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं प्रसादजी का सम्पूर्ण ‘आँसू' काव्य अपने ढंग की लोकोत्तर छायावादी काव्य रचना है।

        जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तक में स्मृति सी छायी। 

        दुर्दिन में आँसू बनकर वह आज बरसने आयी।।

जिस प्रकार की भाषा-शैली में अपनी मनोव्यथा को प्रकृति के दर्पण में कवि ने अनुभव किया और व्यक्त किया, उसका अनुवाद कैसे संभव होगा इसी प्रकार आँसू से ही

        बस गयी एक बस्ती है, स्मृतियों भी इसी हृदय में।

       नक्षत्र लोक फैला है, जैसे इस नील निलय में।।

     यह पद्य भी बेजोड़ है। स्मृति संचारी भाव सम्पूर्ण कवि-हृदय को झकझोर रहा है। अनुवाद तो होगा, परन्तु वह शैली और व्यंजना नहीं आ सकेगी। नील गगन भी असंख्य नक्षत्रमयी निशा के समान कवि का हृदय स्मृति-नक्षत्रों से जगमगा उठा है। इसी प्रकार प्रसाद जी की 'कामायनी' में भी शताधिक छन्द ऐसे हैं जिनमें सघन व्यंजना और दार्शनिकता के अनेक स्तर हैं - संश्लिष्टता है जो अनुवाद की परिधि में न आ सकेगी।

महादेवी वर्मा का कवि-व्यक्तित्व छाया और रहस्य क ताने बाने से बुना गया है। उनकी भाषा-शैली भी प्रकृति, प्रेम और अध्यात्म से जुड़ी हुई है। माधुर्य गुण भी उनके काव्य में प्रचुरता है। इन सबके कारण उनके गीतों का अनुवाद पूरा नहीं उतर पाता। एक-दो उदाहरण प्रस्तुत हैं

       मैं नीर भरी दुःख की बदली

       विस्तृत नभ का कोई कोना

       मेरा न कभी अपना होना 

       परिचय इतना, इतिहास यही

      उमड़ी कल थी मिट आज चली।

     इस गीत में नीरभरी बदली के माध्यम से कवयित्री ने निजी अकेलापन व्यंजित किया है। इसका अनुवाद तो हो सकता है, पर वह प्रभावकर्ता और दूरगामी व्यंजना न आ सकेगी।

        मधुर मधुर मेरे दीपक जल।

        तथा

        यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो।


आदि गीत भी अननुकरणीय हैं।


कुछ पद्य अथवा शेर ऐसे होते हैं कि जिनका हम व्याख्या कर सकते हैं, अनुवाद नहीं, पर व्याख्या भी कहीं थक कर रह जाती है एक दोस्त अपने मृत दोस्त के सिरहाने खड़े होकर गहरी व्यथा में डूबकर यह शेर कह रहा है

      "कल तो कहते थे कि बिस्तर से उठा जाता नहीं।

        आज ताकत आ गयी, दुनियाँ से उठके चल दिये।।

        सामान्य अर्थ है मित्र! कल तो तुम कह रहे थे कि बिस्तर से उठ पाना भी संभव नहीं है। परन्तु आज इतनी ताकत आ गई कि दुनियाँ से ही उठ के चल दिये विदा हो गये । इस शेर के प्राण 'उठा जाता' और 'उठके चल दिये' शब्दों में हैं। अनुवाद इस अर्थ - ध्वनि को प्रकट नहीं कर सकता। 'उठ' शब्द की जगह दूसरा शब्द नहीं ले सकता।

         कुछ और शेर प्रस्तुत है। इनका सामान्य अर्थमय अनुवाद तो हो सकता है। कवि की भाव्य प्रकट करने की कला, शब्द चयन, अर्थगंभीरता और संक्षिप्तता तथा तो उस शेर का कापी राइट है।

       कश्ती में उम्र गुजरी, समन्दर नहीं देखा।

      आँखों में डूब गये, दिल में उतरकर नहीं देखा ।

       *******

      पत्थरों की बस्ती में, काँच का बदन लेकर। 

     हम भी जी लिए तनहा, दिल में अंजुमन लेकर।।

      *******

     आग पानी में लगे तो गज़ल होती है, 

     फूल जो नभ में उगे तो गज़ल होती है,

     इश्क बुवापे में जगे तो गजल होती है, 

     घर जले घर के चिराग से तो गज़ल होती है ।

      निष्कर्ष

      ऊपर के विवेचन के आधार पर कविता के अनुवाद के सम्बन्ध में ये निष्कर्ण निकलते है। अनुवादक की क्षमता का और रचना की स्तरीयता का अनुवाद-कार्य में बहुत महत्व है।

  1. कनिता अभिधामूलक - इतिवृत्तात्मक है अथवा लक्षणा और व्यंजना ध्वनि-युक्त है - इस पर अनुवाद-कार्य की सफलता पर्याप्त निर्भर है।

  2. रस मूलक या ध्वत्यात्मक कविता का उसकी सम्पूर्णता में अनुवाद नहीं हो सकता। हाँ, अर्थ और व्याख्या संभव है।

  3. श्रेष्ठ कविता में कवि का व्यक्तित्व (शैली, भाषा नियोजन) निहित रहता है जो अनूदित नहीं हो सकता।

  4. कविता में सरसता, संक्षिप्तता, अनेकार्थता, सांकेतिकता, गूढ़ता और प्रभावकता एक साथ भी संभव है और इन सबका समावेश अनुवाद में संभव नहीं हो सकता। 

 5. अनुवाद की सफलता इस बात पर भी निर्भर करती है कि अनुवादक की लक्ष्यभाषा में कैसी गति है। यदि लक्ष्यभाषा अनुवादक की - सुअधीत भाषा है और मातृभाषा भी है तो उसे अधिक सफलता मिल सकती है।

 6. मूल-कृति की भाषा अर्थात् स्रोत भाषा का पुष्ट ज्ञान तो आवश्यक है ही साथ ही विषयगत रुचि भी होना चाहिए अन्यथा अनुवाद यान्त्रिक होगा।

 7. अनुवाद लक्ष्यभाषा में पद्यमय अथवा गद्यमय हो सकता, है - यह अनुवादक की क्षमता पर निर्भर है।

 8. उमर खय्याम की रुबाइयों का किसी अंग्रेज कवि-समीक्षक ने अपने जीवन में पाँच बार अनुवाद किया और प्रकाशित किया, फिर भी वह सन्तुष्ट न या ।

 9. विज्ञान, गणित और व्याकरण के सूत्रों के समान काव्य में अर्थगंभीरता और भाव सम्प्रेषणीयता तेज होती है अतः अनुवाद कठिन काम होगा। 

 10. रूप और बस्तु तथा अर्थ (Meaning) का अनुवाद या अनुकरण जितना सरल है उतना भाव, कल्पना और सहज स्फूर्त सात्विक भाव का नहीं। कविता के अनुवाद में यह समस्या उठेगी ही।

 11. अनुवाद के प्रमुख चार तत्वों (सन्देश Message, ग्रहीता Receptor, स्त्रीत Source, सांस्कृतिक सन्दर्भ Cultural Content) से जुड़े बिना अनुवाद नहीं हो सकता। परन्तु काव्य उदात्त भावों का जगत है, यह ध्यान में रखना ही होगा।

 12. काव्य में संक्षिप्तता और पूर्णता का निर्वाह व्यंजना और ध्वनि द्वारा होता है। "रामचरित मानस' के अरण्यकाण्ड में राम मरणासन्न तात जटायु से कह रहे हैं - 

     "सीता हरन तात जनि, कहहु पिता सन जाइ। 

      जो मैं राम तो कुल सहित, कहिहि दसानन आइ।।

    अर्थात् हे तात! सीताहरण की बात आप जाकर पिता जी से न कहिएगा यदि मैं राम हूँ तो दशमुख रावण कुटुम्ब सहित वहाँ आकर स्वयं ही कहेगा।

        इस पद्य में कहा कम बहुत कम, गया है, परन्तु ध्वनित बहुत अधिक किया गया है जो इसकी सर्वोपरि विशेषता है। राम के दुख की तीव्रता, प्रति शोध भावना की त्वरित उग्रता, कुल मर्यादा और निजी अपराजेयता का संकेत पद्य में ध्वनि द्वारा निर्दिष्ट हैं।

     अतः स्पष्ट है कि काव्यानुदाद एक सीमा तक ही संभव है।


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