अनुवाद सिद्धांत
अनुवाद कला है या विज्ञान ?
अनुवाद की प्रकृति के बारे में विद्वान एकमत नहीं हैं कोई इसे कला मानते हैं, तो कोई विज्ञान और कुछ विद्वान तो इसे मात्र कौशल मानते हैं । विद्वानों के इस मतभेद का मुख्य कारण है - अनुवाद के क्षेत्र की व्यापकता और उसमें अपनाई जानेवाली प्रक्रिया की विविधता। इसमें मुल सामग्री के रूप में एक ओर यदि साहित्य जैसी सर्जनात्मक सामग्री ली जा सकती है तो दूसरी ओर विज्ञान की तर्कसिद्ध और प्रमाणित सामग्री भी हो सकती है। इस प्रकार अनुवाद का क्षेत्र बहुत व्यापक और वैविध्यपूर्ण है। अनुवाद की प्रक्रिया भी संश्लिष्ट और जटिल है। अतः इस प्रक्रिया की विवेचना करते समय सावधानी बरतने की और भाषा के आधारभूत सिद्धान्तों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
1. भाषा के आधारभूत सिद्धान्त
1.1 भाषा एक संस्थानात्मक व्यवस्था है। भाषा की संरचना के कुछ पक्ष तो ऐसे है जो सभी भाषाओं में समान रूप से मिलते हैं, पर कुछ पक्ष प्रत्येक भाषा के अपने विशिष्ट होते हैं। उदाहरण के लिए निम्नलिखित काव्य पंक्तियाँ देखिए :-
प्यार की गुफ्तगू यो बढ़ने लगी
आप से तुम, तुम से तू होने लगी।
दूसरी पंक्ति में आप, तुम और तु तीन सर्वनामों का प्रयोग हुआ है। तीनों मध्यम पुरुष, एकवचन में हैं। यदि इनका अंग्रेजी में अनुवाद करना हो तो कैसे करेंगे क्योंकि अंग्रेजी में इसके लिए केवल एक सर्वनाम है यू (you); या संस्कृत में अनुवाद करना हो तो वहाँ केवल दो है भवान् और त्वम्। यह इन भाषाओं की अपनी-अपनी विशेषताओं का केवल एक उदाहरण है। विशेषताओं के आयाम अनेक होते हैं। वाक्य रचना की दृष्टि से देखें तो हिन्दी में शब्दों का क्रम कर्ता, कर्म + क्रिया के रूप में होता है, जबकि अंग्रेजी में कर्ता + क्रिया + कर्म की व्यवस्था है। संस्कृत में इस विषय में अनेक विकल्प उपलब्ध हैं। वहाँ उपर्युक्त दोनों व्यवस्थाएँ भी संभव हैं तथा अन्य अनेक भी बाक्य रचना की इस विशेषता के कारण अभिव्यक्ति में जो अंतर आता है, उसे हर सजग अनुवादक अनुभव करता है। इसीलिए यह कहा जाता है कि भाषा व्यवस्था के जो पक्ष सभी भाषाओं में मिलते हैं और इसलिए जिन्हें सार्वभौमिक जा सकता है, उनका अन्तरण सो अनुवाद की प्रक्रिया में संभव है, पर भाषा विशेष की जो अपनी संरचनागत विशेषताएं होती हैं, अनुवाद की प्रक्रिया में अनुवादक को उनसे जूझना ही पड़ता है।
1.2 भाषा का एक आधारभूत सिद्धान्त यह भी है कि भाषिक प्रतीक में संकेतक (sign) और संकेतित वस्तु (referrent) के बीच सम्बन्ध तो अभिन्न होता है पर यह संबंध परम्परागत और समाजसापेक्षा होता है। संकेतार्थ के निर्माण में केवल बाह्य जगत की वस्तुओं का योगदान नहीं होता, बल्कि प्रयोगकर्ता के जातीय इतिहास, उसकी सभ्यता एवं संस्कृति का भी योगदान रहता है। इसीलिए संकेतक और संकेतित वस्तु के सम्बन्ध की प्रकृति यादृच्छिक एवं स्ट़ कही जाती है। प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास का शीर्षक है "गोदान"। संकेतक और संकेतित वस्तु के बीच जो अभिन्न संबंध है, उस दृष्टि से तो गोदान का शाब्दिक अर्थ हुआ गाय का दान; पर इस संबंध की जिस विशेषता का ऊपर उल्लेख किया गया है, उस परम्परागत एवं समाज सापेक्ष दृष्टि से विचार करें तो इसके अर्थ में उस हिन्दू समाज की मान्यताओं का समावेश अनिवार्य हो जाता है जो पुराणों पर आस्था रखता है और उन्हें अपना धर्मग्रंथ मानता है। उसे समाविष्ट करने के बाद "गोदान" के अर्थ में गाय के दान से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है वह अवसर जब गोदान किया जाता है, वह विधि जिस तरह गोदान किया जाता है, और वह प्रयोजन जिसकी सिद्धि के लिए गोदान किया जाता है। प्रेमचन्द की ही एक कहानी का शीर्षक है - "बाबाजी का भोग।" वास्तविकता यह है कि “बाबाजी" और "भोग" का सही अनुवाद अंग्रेजी में संभव नहीं। इसीलिए जिन लोगों ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद करने की कोशिश की उन्हें ऐसे शब्दों से काम चलाना पड़ा जिनसे पूरा सन्तोष नहीं होता। नन्दिनी नोपानी एवं पी. लाल ने अपने अनुवाद में इसे "बाबाजी ही लिखा जो अंग्रेजी भाषी के लिए अबूझ पहेली है, और डेविड रूबिन ने Holyman लिखा जो हिन्दीभाषी क्षेत्रों में प्रचलित बाबाजी की संकल्पना से परिचित व्यक्ति को, विशेष रूप से इस कहानी के सन्दर्भ में सन्तुष्ट नहीं करता। "भोग" के लिए दोनों ही अनुवादकों ने fcast का प्रयोग किया है जिसमें "भोग" का व्यंजनागत अर्थ नहीं आ सका है। इन उदाहरणों से यह वास्तविकता पता चल रही है कि संकेतक और संकेतित वस्तु के बीच जो परम्परागत और समाज सापका संबंध है, अ दूसरी भागा में ककरने की कठिनाइयों का सामना अनुमादा बारा रहा है। अनुमाद रे गमग दो मिश्र भाषाभाषी समाजों के सामाजिक र सास्कृतिक पक्षों का ऐसा ही दवाय अनुवादक पर होता है।
1.3 भाषा संबंधी एक तीसरा सिद्धान्त भी न ने योग्य ही और बह यह कि बाह्य पदार्थ एवं भाषिक यषार्थ में अंतर होता है। क्योंकि भाषा केवल बाहरी गस्तुओं को संकेतित नहीं करती, यह हमारे भाव-बोध का माधन भी है। यो तो भागा बाहरी जगत और हमारे भावजगत के बीच एक पुल का काम करती है, पर गुणात्मक स्तर पर बाहरी जगत की संकेतित बस्तु, और भाषिक प्रतीक के रूप में प्रयोग किया जानेवाला संकेतार्थ एक दूसरे से भिन्न होता है। उदाहरण के लिए दो वाक्य देखें : 1. पेड़ से पत्ता गिरा; 2. बचे को पकड़ो. नही तो वह गिरा। दोनों वाक्या में "गिरा" का प्रयोग हुआ है जो "भाषिक यधार (यहाँ व्याकरण) की दृष्टि से "गिरना" किया का भूतनाल का सा है, पर उपयुक्त दूसरे वाक्य में यह माद "बाहरी यथार्थ" रूप में भूतकाल की ओर नहीं, भविष्य की ओर संकेत कर रहा है। व्याकरणिक कोटियों जिस लिंग, वचन, काल आदि की ओर संकेत करती हैं, वें भीतिक जगत के स्वीकृत तव्यों से भिन्न होती हैं। भौतिक जगत का लिग (सेक्स) व्याकरणिक नगत का लिंग (जेंडर) नहीं होता। तभी तो हम निर्जीव पदार्थों को मंकेतित करने बाले शब्दों का प्रयोग भी पुल्लिंग या स्वीलिंग के रूप में करते हैं, जैसे कुर्मी ट्टी है। यद्यपि कुर्सी निर्जीव वस्तु है, पर इस वाक्य में उसका प्रयोग स्वीलिंग में हुआ है। भाषा संबंधी इन आधारभूत मिद्घान्तों के परिप्रेष्ष्य में, आइए अब विचार करें कि अनुवाद को कला या विज्ञान मानने के आधार क्या है।
2. अनुवाद : कला के रूप में
जो विद्वान अनुवाद को कला मानते हैं उनका कहना है कि स्रोतभाषा का मूलपाठ और लक्ष्य भाषा का अनूदित पाठ पूर्णरूप से समरूप (identical) नहीं होता, वह समतुल्य (equivalent) होता है। कारण है हर भाषा की भिन्न प्रकृति, जिसकी चर्चा भाषा के आधारभूत सिद्धान्तों के अन्तर्गत ऊपर की जा चुकी है एक उदाहरण लें। अंग्रेजी के वाक्य Ram saw her का हिन्दी अनुवाद होगा "राम ने उसे देखा। अनुवाद सही अवश्य है, पर समरूप नहीं, समतुल्य है क्योंकि एक तो वाक्य संरचना के स्तर पर शब्दक्रम बदल गया। अंग्रेजी वाक्य में शब्दक्रम था संज्ञा + क्रिया + सर्वनाम, जो हिन्दी में संज्ञा + सर्वनाम + क्रिया हो गया है। दूसरे, अंग्रेजी वाक्य में सर्वनाम के द्वारा लिंगभेद भी व्यक्त हो रहा है, पर हिन्दी वाक्य में नहीं। और भी अन्तर हो सकते हैं। जैसे, हिन्दी वाक्य में "उसे" का प्रयोग हुआ है जिससे ध्वनित होता है कि वह दूरवर्ती है, निकटवर्ती नहीं, वरना "इसे" का प्रयोग होता। इस प्रकार अनूदित हिन्दी वाक्य में एक अतिरिक्त अर्थ आ गया जो अंग्रेजी वाक्य में है ही नहीं। इसके बावजूद, यदि अनुवाद सही लग रहा है तो समतुल्यता के ही आधार पर। समतुल्यता में स्थिति के सन्दर्भ में कुछ ही तत्वों में साम्य होता है, सभी तत्वों में नही। किन्हीं दो भाषाओं के विभिन्न शब्दों की जो समानता सतही ढंग पर दिखाई देती है, यह भाषायी बोध और अर्थक्षेत्र के सन्दर्भ में समान नहीं होती। अतः एक भाषा की संकल्पना को जब दूसरी भाषा में अन्तरित किया जाता है, तब उसमें या तो कुछ न कुछ जुड़ता है, या कुछ छूट जाता है, या फिर कुछ बदल जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि अनुवाद समरूप न होकर समतुल्य रह जाता है। अनुवादक इसी समतुल्यता की खोज करता है और इस प्रक्रिया में उसे प्रायः पुनःसृजन करना पड़ता है। इसीलिए अनुवादक से यह अपेक्षित है कि उसे लक्ष्यभाषा एवं स्त्रोतभाषा दोनों का गांत्रिक ज्ञान नहीं, सहानुभूति, अन्तर्दर्शन और सजगता से युक्त ज्ञान हो। उनकी संरचनागत विशिष्टताओं और संस्कारगत सूक्ष्मताओं में उसकी गहरी पैठ हो क्योंकि अनुवाद किसी भाषा की एकनिष्ठ (monoistic) रचना नहीं होती। उसमें तो दो भाषाओं के संस्कार और संरचनाएं घुलमिल कर संश्लिष्ट रूप ग्रहण कर लेती हैं।
अनुवाद करते समय उसमें एक और तो स्त्रोतभाषा के मूलपाठ का संप्रेष्य कथ्य एवं कलात्मक बुनावट अपना दबाव डालती है तो दूसरी ओर लक्ष्य भाषा की अपनी सम्पूर्ण प्रतीक व्यवस्था तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्कार अनूदित पाठ को अपना रूप-रंग प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए संस्कृत के कुछ बाक्य और उनके हिन्दी अनुवाद देखिए। संस्कृत का उदाहरण इसलिए दिया जा रहा है क्योंकि प्रकृति की दृष्टि से अंग्रेजी की तुलना में संस्कृत, हिन्दी के ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाओं, के भी अधिक निकट है। अतः संस्कृत के इन वाक्यों का अन्य भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद करके देखा जा सकता है कि अनुवादक को अपनी भाषा की प्रतीक व्यवस्था और सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्कारों के अनुरूप रूप-रंग प्रदान करने के लिए क्या-क्या प्रयास करना पड़ रहा है।
1. किं स्थानं निर्मक्षिका कृतं भवतः ।
क. आप कहाँ से आए हैं ?
ख .आप कहाँ से पधारे हैं ?
2. सकल बचनानामविषयं तत्थानम्।
क. उस स्थान का वर्णन नहीं किया जा सकता।
ख. उस स्थान का वर्णन संभव नहीं।
ग .उस स्थान का वर्णन वारने में वाणी/लखानी असमर्थ है।
3. अर्थचन्द्रं दत्वा निष्कासितः
क. हाथ से गरदन पकड़ कर बाहर निकाल दिया।
ख. गरदनिया देकर घकिया दिया।
इस प्रकार अनूदित पाठ का निर्माण स्रोतभाषा तथा लक्ष्य भाषा के सर्जनात्मक संयोग से होता है और यह काम वही कर सकता है जिसमें कलाकार की प्रतिभा हो।
अनुवाद को कला मानने वाले विद्वानों के समझ सन्दर्भ के लिए सामान्यतया साहित्य की अनूदित सामग्री होती है। साहित्य के बारे में विद्वानों का मानना है कि उसका ऋथ्य तो देश और काल की सीमा से परे अर्थात शाश्वत होता है और वह भाषा की परिधि से भी बाहर होता है; पर उस कृति की अलौकिकता एवं विशिष्टता अभिव्यक्ति में होती है जो पूरी तरह भाषा से बंधी होती है। अनुवाद में उसकी विशिष्टता प्रायः नष्ट हो जाती है। इसे लक्ष्य भाषा में पुनःसर्जना करके ही नष्ट होने से एक सीमा तक बचाया जा सकता है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि एजरा पाउंड ने अनुवाद के इसी पक्ष पर ध्यान केन्द्रित करते हुए कहा था कि अनुवाद तो साहित्यिक पुनर्जीवन (Literary resurrection) है। स्पष्ट है कि इस प्रकार का कार्य कलाकार ही कर सकता है। अनुवाद को कला के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने में "थियोडोर सेवरी" जैसे विद्वानों का विशेष योगदान है।
3. अनुवाद : विज्ञान के रूप में
अनुवाद को विज्ञान मानने वाले विद्वानों का कहना है कि अनुवाद एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। अनुवादक को एक वैज्ञानिक की भांति तटस्थ होकर अनुवाद करना होता है। वह कथ्य से सहमत हो या असहमत, किन्हीं अभिव्यक्तियों को वह पसन्द करता हो या नापसन्द, अनुवाद करते समय अपना राग-द्वेष एक तरफ रख देता है और पूरी सत्यनिष्ठा के साथ अनुवाद करता है। जिस प्रकार कोई रसायन वैज्ञानिक नपी तुली मात्रा में रसायन लेकर उपकरणों की सहायता से प्रयोग करके सत्य का पता लगाता है, उसी प्रकार कोई अनुवादक स्रोतभाषा में व्यक्त विचारों को ठीक-ठीक समझने और लक्ष्य भाषा में यथोचितमपसे संप्रेषित करने के लिए कोण, पन्दावली आदि उपकरणों का सहारा लेता है। वैज्ञानिक भाषा की भांति ही अनुवाद में भी शब्दों का नपा-तुला प्रयोग किया जाता है जिसमे अर्थ के भार में अंतर न आने पाए। अनुवाद की विशेषताएं बताते हुए कहा जाता है कि वाह वस्तुनिष्ठ और प्रामाणिक हो। विज्ञान के भी तो ये ही गुण होते हैं। वेज्ञानिक देंग से अनुवाद करने पर उसमें ये गुण स्वतः आ जाते हैं।
अनुवाद को विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित करनेवाले विद्वान इसे सम्प्रेपण व्यापार के सन्दर्भ में देखते हैं और अनुवाद को सम्प्रेषण-प्रक्रिया की एक उपश्रेणी मानते हैं। अतः सम्प्रेषण प्रक्रिया को समझ लेना आवश्यक है। सम्प्रेषण प्रक्रिया में एक ओर प्रेषक होता है (सामान्य बोलचाल में इसे हम बक्ता या लेखक बहते हैं) जो अपने रान्देश का (जिसे हम उसका कथन या पाठ कहते हैं) कोडीकरण करके (यानी किसी भाषा के माध्यम से) प्रेषित करता है। दूसरी ओर ग्रहीता होता है (जिसे हम श्रोता या पाठक कह सकते हैं) जो उस सन्देश को ग्रहण करके उसका विकोडीकरण करता है। इस प्रकार प्रेषक गौर ग्रहीता दोनों के पास सन्देश की पृष्ठभूमि में एक कोट (भाषिक विधान) रहता है जो पाठ निर्माण और पाठग्रहण के समय उन दोनों को उपलब्ध रहता है। सन्देश का कोडीकरण करते समय प्रेषक जिस कोड की सहायता लेता है, विकोडीकरण के लिए ग्रहीता भी उसी कोड का सहारा लेता है अनुवाद की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए ये विद्वान कहते हैं कि अनुवादक पहले स्वोत भाषा के पाठ का विकोडीकरण करता है। इसके बाद स्त्रोतभाषा एवं लक्ष्यभाषा का तुलनात्मक अध्ययन कर समानताओं - असमानताओं का पता लगाता है और तब प्राप्त अर्थ का कोडीकरण के माध्यम से लक्ष्यभाषा में पाठ के रूप में पुनर्गठन करता है।
कोडीकरण और विकोडीकरण की यह प्रक्रिया ऊपर से जितनी सरल लगती है, भीतर से अपनी प्रकृति में उतनी ही जटिल है। वैज्ञानिक चीजें शायद जटिल होती ही हैं। जटिलता के अपने लाभ भी है। ओटिंगर ने ठीक ही कहा है कि अनुवाद को वैज्ञानिक प्रक्रिया मानने का ही यह परिणाम है कि आज हम मशीनी अनुवाद के सिद्धान्त को विकसित करने में समर्थ हो सके हैं क्योंकि जिस प्रकार वैज्ञानिक तकनीक में विकल्पनों (variables) का नियंत्रण पूरी तरह से करना संभव है, उसी प्रकार अनुवाद में भी विकल्पनों को कम्प्यूटर से नियंत्रित किया जा सकता है। अनुवाद को विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित कराने में नाइडा का योगदान अविस्मरणीय है।
4. अनुवाद : किस के रूप में
कुछ निमानों को मानना है कि अनुवाद न तो बला है, और न विज्ञान पह सो ऐसा कोणल है जो अभ्यास पर आधारित है। जिस व्यक्ति को दो भाषाओं का आन हो उसे प्रशिक्षण देकर अनुवादका बनाया जा सकता है। उसमें गृजनशील साहित्यकार या तर्कशील वैज्ञानिक के गुणों की कोई आवश्यकता नहीं इन विद्वानों की दृष्टि में अनुवाद तो एक प्रकार की "उपयोगी गला" (functional ut) , ललित नला (Tine नी। इस प्रकार यह प्रायोगिक विज्ञान की श्रेणी में आता है, मैदान्तिक विज्ञान की नहीं। प्रशिक्षण, अभ्यास, अनुप्रयोग आदि के द्वारा उपयोगी कला और प्रायोगिक विज्ञान पर अधिकार प्राप्त किया जा सकता है, जबकि ललित कला या सैद्धान्तिक विज्ञान का संबंध मृजानात्मकता से है। अनुवाद के लिए सृजनात्मक अभिव्यक्ति की या सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने की योग्यता की कोई आवश्यकता नहीं। अनुवादक मूलपाठ का शिल्पगत अन्तरण, प्रतिस्थापन, या लक्ष्य भाषा में पुन अभिव्यक्ति करता है। आज तत्काल अनुवाद की मांग इतनी बढ़ गई है कि अनुवाद यंत्रवत करना पड़ता है। यह इतना तथ्यात्मक और गूधनात्मक होता है कि एक कौशन गे अधिक कुछ नहीं होता। कोई कलाकार या वैज्ञानिक जैसे किसी के बिब का निर्माण याने सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है, वैसा अनुवादक नहीं करता, बल्लि अनुवादक तो दूसरी भाषा के दर्पण में इनके प्रतिबिंब प्रक्षेपित करता है। अतः अनुवाद मात्र कोशल है, कला या विज्ञान नहीं। ये विद्वान अनुवाद में अनुवादक के व्यक्तित्व को महत्व नहीं देते। वे यह मानते हैं कि अनुवाद कोई आत्माभ्भ व्यक्ति नहीं है। यह तो ऐसी विधा है जिसमें अनुवादक पूर्णतः तटस्थ रहता है।
निष्कर्षः
वस्तुतः ये सभी दृष्टिकोण अतिवादी हैं। अपना पक्ष स्थापित करने के लिए इन्होंने अतिशयोक्ति का सहारा लिया है। वास्तव में अनुवाद की प्रक्रिया पाठ-सापेक्ष अधिक होती है। साहित्यिक अनुवाद को अनुवादक के व्यक्तित्व से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता। वही कारण है कि किसी साहित्यिक कृति का अनुवाद अलग-अलग लोग अपने अपने ढंग से करते हैं। शेक्सपियर के नाटकों का हिन्दी में अनुवाद डॉ. रंगिय राघव ने भी किया और डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने भी किया। टैगोर की गीतांजलि का हिन्दी में अनुवाद सत्यकाम विद्यालंकार, हंस कुमार तिवारी, विराज आदि ने किया। इन सभी अनुवादों में अनुवादकों के व्यक्तित्व की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। इसके विपरीत विज्ञान एवं विधि से संबंधित सामग्री के अनुवाद में अनुवादक का व्यक्तित्व कहीं लुप्त हो जाता है।
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