Tuesday, January 26, 2021

साहित्यिक अनुवाद -1

 

                               

                                              साहित्यिक अनुवाद 

(1. अनुवाद के विषय और प्रकार का परिचय दीजिये।)

    साहित्य का स्वरूप :

             जीवन अथवा जगत् की प्रखर अनुभूतियों की भावात्मक, ललित एवं शाब्दिक अभिव्यक्ति साहित्य है। इस परिभाषा में काव्य नाटक, उपन्यास, कहानी, संस्मरण एवं यात्रावृत्त आदि सभी सृजनात्मक साहित्य विधाएँ गर्भित हैं उक्त परिभाषा से यह तथ्य एवं तत्व भी सुस्पष्ट हो जाता है कि साहित्य अपनी मूल चेतना में भावात्मक है और सर्वोच्चता अथवा उत्कृष्टता में ध्वन्यात्मक है, अतः ध्वनि एवं व्यंजनामूलक साहित्य का अनुवाद यदि असम्भव नहीं तो अतिकठिन अवश्य है। सृजनात्मक साहित्य--नाटक, उपन्यास और कहानी आदि का अनुवाद काव्यानुवाद की तुलना में उतना दुष्कर या कठिन नहीं है। काव्य में भी व्यक्तिनिष्ठ एवं सूक्ष्म राग रश्मि - रंजित छायावादी रहस्यवादी एवं ध्वनिमूलक काव्य का अनुवाद एक टेढ़ी खीर है। ध्वनि या व्यंजना अर्थ और भाव के सूक्ष्म परिवेश के साथ सृष्टा के व्यक्तित्व से भी जुड़ी रहती है और व्यक्तित्व अनुकरणीय होता है। ज्ञानपरक साहित्य का अनुवाद उतना समस्यात्मक नहीं है जितना कि शक्ति अथवा भाव (रस) का साहित्य।

      अनुवाद के विषय और प्रकार :

             सामान्यतया अनुवाद उपदेशपरक, अर्थपरक वस्तुपरक एवं विचारमूलक विषयों का सरलतापूर्वक संभव हो जाता है, यद्यपि शब्दचयन और परिवेश की समस्या इसमें भी रहती ही है। ये सभी विषय अर्थबोधक एवं अभिधा प्रधान होते हैं। वर्णन, विवरण और विचार का अनुवाद प्रायः अविकल रूप में किया जा सकता है। अनुवाद कोटि या श्रेणी को सामान्यतया निम्नलिखित प्रकारों में विभाजित किया जाता है -

         1. Coloured Glass Translation [रंगीन चश्मा (शीशा) अनुवाद]

         2. Clean Glass Translation [स्वच्छ शीशा अनुवाद

         3. Dimmed Glass Translation [धुंधला शीशा अनुवाद]

         4. Essense Glass Translation [सारानुवाद]

         5. Twisted Glass Translation [वक्र अनुवाद]

             रंगीन चश्मा अनुवाद में कलर टी.वी. के समान मूल हृदय या वस्तु को अधिक आकर्षक बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। कभी-कभी इसमें प्रभावक व्याख्या भी जोड़ दी जाती है। स्पष्ट है कि इसमें मूल को अतिक्रान्त करने का यत्न होता है। विज्ञापन या प्रशंसा की गंध भी इसमें आने लगती है। मूल धार्मिक ग्रन्थों के अनुवादों में प्रायः ऐसा होता है। भावप्रधान कृतियों में अनुवादक की विशिष्ट रुचि भी प्रायः ऐसी स्थिति पैदा करती है।  

            स्वच्छ शीशा-अनुवाद-पद्धति में मूल की आत्मा को पूर्णतया सुरक्षित रखा जाता है। और किसी भी स्तर पर अनुवादक अपने व्यक्तित्व को उस पर आरोपित नहीं करता है। इसमें अनुवादक योग्य, तटस्य एनं न्यागशीक्षा होता है । विज्ञान, गणित एवं ज्योतिष आदि विषय इस पद्धति में आते हैं। अन्य विषय भी आ सकते हैं यदि अनुवादक सिद्धत्त हो तो।

            धुंधला शीणा अनुवाद में ऐसे अनुवाद आते हैं जो मूलकृति की आत्मा को धूमिल एवं कलुपित करते हैं। राजा लक्ष्मणसिंह का अभिज्ञान शाकुन्तलम् का हिन्दी अनुवाद इसी कोटि का है। "गीत गोविन्द" एवं "गीतांजलि" के अनेक अनुवाद से ही हैं। उमर खेयाम की रूबाइयों का एक अंग्रेज अनुवादक ने पाँच बार अंग्रेजी में अनुवाद किया और पाँचों बार प्रकाशित भी किया और अन्त में स्वीकार भी किया कि वह मूल रो अभी काफी हल्का है। विश्व की लगभग 80 भाषाओं में उमर खैयाम की रूबाइयों का अनुवाद किया गया,फिर भी मूल मूल ही है, अनुपम है-अनुकरणीय है।

       अनुवाद के अनिवार्य तत्व :

         अनुवाद अर्थात् किसी कृति के रूपान्तरण में पाँच तत्व अनिवार्य होते हैं। ये हैं संदेश-कथ्य, खोतभाषा, लक्ष्य भाषा, गृतीता और सांस्कृतिक संदर्भ इन पाँचों तत्वों में मूल कृति का संदेश प्राणतत्व होता है। हम एक रेखा चित्र द्वारा इस प्रकार समझा सकते हैं -

     Source Language                                           Target Language           

     स्त्रोत भाषा                                                              लक्ष्य भाषा


                                 

सांस्कृतिक संदर्भ                                                                     गृहीता पाठक 

Cultural Context                                                               Receptor

                                      M - Message Content 

                                         मध्य -संदेश

          इन पाँचों सत्वों को आत्मसात् किये बिना प्रामाणिक अनुवाद संभव नहीं है।

          इसी के साथ अनुवादक में चार गुण - समझ, अभिव्यक्ति, स्वरोतभाषा ज्ञान, एवं लक्ष्य भाषा ज्ञान अत्यावश्यक हैं। यहाँ विस्तारभय से उक्त बातों का इंगित मात्र कर रहा हूँ ताकि साहित्यिक अनुवाद की समस्याओं को हृदयंगम करने में सुविधा हो।

       (2. साहित्यिक अनुवाद की रामस्याएँ क्या क्या है?)

           समस्याएँ - साहित्यिक (भाव प्रधान अर्थात् लक्ष्णा व्यंजना प्रधान-धवनिप्रधान) अनुवाद में अनेक समस्याएँ उपस्थित होती हैं। काव्य के संदर्भ में विशेषतः छायावादी, रहस्यवादी काव्य के सन्दर्भ में ये समस्यायें उठती हैं ये हैं : - 

    1. स्त्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा की समस्या।

    2. भावानुवाद की यथातस्यता की समस्था

    3. मुल लेखक और अनुवादक के व्यक्तित्वों की समस्या।

    4. मातृभाषा और सीखी हुई भाषा की समस्या।

    5. सृष्टा और अनुवादक की सृजन-चेतना की समस्या । 

    6. शब्द शक्ति परक काव्यानुवाद की समस्या ।

    7. यदि अनुवादक की लक्ष्य भाषा हिन्दी है जो उसकी मातृभाषा नहीं है - 

           एक सीखी हुई भाषा है, तब उठनेवाली समस्याएँ।

           (क) वाक्य रचना शैली

           (ख) लिंग ओर वचन, "ने" प्रत्यय

           (ग) वातावरण - देशकाल-रीतिरिवाज, ऋु-पर्व

           (घ) मुहावरे, लोकोक्तियाँ

     8. अनुवादक की अभिरुचि

     9. अनुवादक के विषयज्ञान की समस्या

    10. मातृभाषा या स्त्रोत - भाषा का विशिष्ट ज्ञान न होने पर 

            अल्यज्ञताजन्य अनेक समस्याएँ

    11. अनुवादक की अनुवाद निष्ठा की समस्या (अवसरवादिता - 

            अल्पपरिथम और अधिक लाभ की इच्छा)

    12. लक्ष्यभाषा मातृभाषा होने के बावजूद होने पर भी अनेक समस्याएँ उठ सकती हैं ।

          क. मातृ भाषाज्ञान की अपूर्णता

          ख. आतुरता एवं अहंकार - आग्रह

          ग. अनुवाद विषय-ज्ञान की कमी

          घ. क्षेत्रीयता का प्रभाव

              उल्लिखित 12 समस्याओं में कतिपय सामान्य अनुवाद से भी जुडी हुई हैं, शेष विशेष रूप के साहित्य से संबन्धित हैं। इन सभी समस्याओं का आवश्यक विवेचन विषय की स्पष्टता के लिए आवश्यक है - 


(3. मातृभाषा और सीखी हुई भाषा के कारण अनुवाद में क्या फरक पड़ सकता है?)

      1. स्त्रोतभाषा और लक्ष्य भाषा की समस्या अनुवाद में अत्यन्त जटिल समस्या है। स्त्रात भाषा अनुवाद के लिए चुने हुए ग्रन्थ की भाषा होती है औीर जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है वह लक्ष्य भाषा होती है। सिद्धान्त और व्यवहार की दृष्टि से सीखी हुई भाषा स्त्रोत भाषा होनी चाहिए तथा सु- परिचित मातृभाषा लक्ष्य भाषा होनी चाहिये। विश्व की प्रतिष्ठित भाषाओं में (अंग्रेजी, अश्विन, फ्रेंच, जर्मन आदि) अनूदित प्रख्यात ग्रन्थ इसी कसौटी के हैं। सीखी हुई भाषा को लक्ष्य भाषा बनाने से निम्नलिखित समस्याएँ उपस्थित होती हैं -

           क. सांस्कृतिक संदर्भ को समझने की समस्या

           ख. वाक्यरचना, लिंग, कारक आदि की समस्या

            ग. देशकाल की समस्या

            घ. मुहावरों, लोकोक्तियों और लोकप्रथाओं को समझने की समस्या।

            ड. सीखी हुई भाषा में अध्यापन, व्याख्यान एवं समीक्षा लेखन तो हो सकता है, पर अनुवाद और वह भी किसी भान प्रधान शब्दशक्ति प्रधान काव्य का अनुवाद प्रायः विकलांग होगा। अतः मातृभाषा को लक्ष्य भाषा बनाना अधिक औचित्य पूर्ण है।

        2. दूसरी समस्या भावमूलक साहित्यिक कृति के अनुवाद की यथातथ्यता की। साहित्यिक कृति, विशेषतः शब्दशक्ति प्रधान काव्य, ध्वनिकाव्य एवं छायावादी चेतना का काव्य प्राय अर्थ बोध के स्तर पर आलम्बन की अनिश्चितता के कारण तथा अनुभूति की वैयक्तिक संश्लिपटता के कारण दुख्ड होता है उसमें अटकल की अधिक गुंजाइश होती है।

        3. अनुवादक और मूल लेखक के भावात्मक व्यक्तित्वों की एकरूपता की समस्या भी इसी समस्या का दूसरा रूप है। उमर खैयाम की रूबाइयों के प्राय सभी अनुवादक एक दूसरे से अर्थ और भाव के स्तर पर काफी अलग कर रहें हैं। छायावादी कवियों में प्रेम वियोगजन्य प्रश्न प्रायः एक सा रहा है, परन्तु प्रसाद, पन्त और निराला का आलम्बन वहीं नहीं है जो महादेवी का है। महादेवी का प्रिय रहस्यमय परम सुन्दर ईश्वर है। भावों का मानवीकरण और विशदीकरण अनुवादक के लिए एक कठिन समस्या बन जाती है। अनुवादक मूल कवि की भावप्रेषणीयता के साथ कहाँ तक चल पाता है, यह भी विचारणीय है।

      4. मातृभाषा और सीखी हुई भाषा की भी अनुवाद के क्षेत्र में एक विचित्र स्थिति बनती है। मातृभाषा तो माता के दूध के साथ अनायास ही आ जाती है। बाल्यकाल में परिवेश, रीति-रिवाज एवं संस्कार आदि स्वतः हृदयंगम हो जाते हैं। अध्ययन द्वारा  इन सब का विस्तार भी होता ही है। अतः मातृभाषा में अभिव्य। प ५५ ল । जाती है। व्यक्तिगत प्रतिभा चमत्कार उसमें चार-चाँद लगा देता है। सीखी हुई मातृभाषेतर भाषा के साथ व्यक्ति की अनेक सीमाएँ जुड़ जाती हैं। अतः उसमें अनुभूति और अभिव्यक्ति में पर्याप्त अन्तर होता है। यदि बालक का जन्म किसी अन्य प्रदेश में हो और वह वहीं की भाषा अध्ययन कर स्वयं को तैयार करे तो वह अवस्य ही समस्या का कदापि अनुभव नहीं करेगा। वह अनुवाद तो क्या, मौलिक साहित्य का सृजन भी उस भाषा में कर सकता है। श्री बालकृष्णराव, पद्माकर, अमृतलाल नागर एवं रांगेय राघव क्रमशः आन्ध्र, गुजरात एवं तमिलनाडु के थे, परन्तु वे हिन्दी के प्रथम पंक्ति के कवि एवं कथाकार बने। अतः स्पष्ट है कि व्यक्ति को अपनी क्षमता की ईमानदारी से परीक्षा करके ही अपना सृजन या अनुवाद का कार्यक्षेत्र निश्चित करना चाहिए। इससे उसे सफलता मिलेगी जिसपर वह गर्व कर सकेगा।

         5. मूल स्रष्टा और अनुवादक की मनस्थिति एवं चेतना की भी एक विकट समस्या है। अनुवादक यदि घोर नैतिक जीवन मूल्यों में विश्वा करता है तो प्रस्तावित कृति के ललित एवं रागात्मक प्रसरण में उसकी गति एवं रुझान का प्रश्न उठेगा ही वह उसी रागात्मक चेतना के धरातल पर प्रायः नहीं पहुँचेगा। साहित्यिक अनुवाद में भावात्मक पकड़ की महता की आवश्यकता होती है और यह अभिरुचि का विषय है। तीव्र रागात्मकता प्रायः अन्तः प्रवाहमयी होती है। इसी धरातल पर यह तथ्य भी सुस्पष्ट हो जाता है कि अनुवाद कार्य में सूजन से भी कठिन होता है। खास तौर पर जब प्रस्तावित कृति विशुद्ध रूप से अन्तः रागात्मक हो।

        6. शब्दशक्ति परक काव्य के अनुवाद की भी गहरी समस्या है। लक्षणा और व्यंजना काव्य को उसकी सम्पूर्णता में समझाना और अनूदित करवाना एक दुष्कर कार्य है। संकेतित एवं व्यंन्यार्थ की अपनी गति, अपना विस्तार और अपनी गंभीरता होती है। शादी और आर्थी व्यंजना युक्त काव्य का अनुवाद कैसी समस्या उत्पन्न करता है देखिए -

               खुसरो दरिया प्रेम का उल्टी बहती धार।

               जो उतरा सो बह गया, जो डूबा सो पार।।

             इस पद्य में प्रेम की विचित्र स्थिति का जिस बक्र भावभंगिमा, शैली और शब्द-योजना में वर्णन किया गया है, वह अत्यन्त निजतापूर्ण है और अनुकरणीय भी काम चलाऊ अनुवाद दूसरी बात है।

        इसी प्रकार विहारी के प्रस्तुत दोहे पर ध्यान दीजिए - विशेषरूप से दूसरी पंक्ति पर

                  तन्वीनाद कवित्त रस, सरस राग रति रंग। 

                 अनबूढे बूढ़े तरे, जे बूड़े सब अंग ।।         "बिहारी"

           कबीर की इस प्रसिद्ध साधी में शब्बी यंजना पुनरुक्ति प्रकाश और लप आदत द्वारा जिस लोकोत्तरप्रियतम का चित्रण किया गया है वह अनुवाय है क्या?

                  लाली मेरे लाल की जित देखों तित लाल। 

                  साली देखन मैं गयी मैं भी हो गई लाल ।        "कबीर

         7. यदि अनुवाद की लक्ष्य भाषा हिन्दी है और हिन्दी उसकी मातृभाषा नहीं है और उसने अपने ही प्रदेश में रहकर वह भाषा सीखी है, तब उठनेवाली समस्याएँ भी अनेक हैं।

        स्त्रोत भाषा का जान तो अन्ततः समझ तक ही सीमित है। उसकी पूर्णता अनुवादक में होनी ही चाहिए, क्योंकि अनुवादक अल्पज्ञता के कारण मूल विषय को गलत भी समझ सकता है। और फिर अनुवाद भी अणुद्ध एवं भामक होगा ही। लध्व भाषा में तो उसे अपनी समझ को सही अभिव्यक्ति देना है। पाठकों के स्तर और अभिरुचि का भी ध्यान रखना है। अतः लक्ष्यभाषा इस धरातल पर स्त्रोतभाषा से अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। बाक्य रचना, लिंग, कारक, वचन, मुहावरे, लोकोक्तियाँ और लोकप्रधाएँ आदि की सीमित या अन्यथा जानकारी के कारण अनुवाद की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता नष्ट हो जाती है। कुछ उदाहरण देखिए -

             हिन्दी में चकर काटना और चक्कर खाना सुति और सरल मुहावरे है। इसी प्रकार पैर भारी होना भी "गर्भवती होना के अर्थ में प्रचिलत मुहावरा है। "जंगल जाना" भी (आजभी) शीचकियार्थ जाने के अर्थ में प्रचलित मुहावरा है। इसी प्रकार बाप शब्द पिता का पर्यायवाची है। इन सबका वाक्यों में प्रयोग देखिए.

        1. आपका सर चक्कर काट रहा है क्या

             (आपको सर दर्द हो रहा है क्या? अथवा

             आपका सर चक्कर खा रहा है क्या?

          2. एक मित्र ने लंगड़ाकर चलते हुए अपने मित्र का मजाक उड़ाते हुए कहा,

               आपके पैर भारी है क्या ?

          3. यह आपका बाप है क्या ?

            इस प्रकार के सैकड़ों उदाहरण दिये जा सकते हैं। काव्यानुवाद में - (काव्य का काव्य में अनुवाद) चाहे वह पद्यबद्ध हो, चाहे अतुकान्त, अनुवादक को काफी सतर्क रहना है। पद्यात्मक अनुवाद में मात्रा, लय यति एवं गति आदि की रक्षा होने की जरूरत है।

             आशय केवल इतना है कि अनुवादक को अपनी क्षमता की सही पहचान के साथ आगे बढ़ने पर अधिक सफलता और यश प्राप्त हो सकेगा तात्कालिक कुछ की अपेक्षा स्थायी कुछ अधिक महत्वपूर्ण होता है। 

            8. अनुनादक की अभिरुचि की समस्या भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। एम.ए. या एम.बी.बी.एस. होकर भी उत्साह और अभिरुचि के आधार पर लोग साहित्यिक अनुवाद की ओर अग्रसर होते देखे गये हैं अभिरुचि यदि ज्ञानमूलक है और क्षणिक उमंग से परे है तो वह एक लंबी सीमा तथा, सराहनीय है। अभिरुचि (हाबी) अन्तः करण मूलक अतिरिक्त ऊर्जा है जो स्वीकृत विद्या या कार्य के अतिरिक्त क्षणों में अपनी क्रियाशीलता में प्रकट होती है। लोबान करने से प्रकट उत्साह अभिरुचि नहीं हो सकता। अतः अनुवादक में स्वतः स्फूर्ति जब अभिरुचि होगी तभी वह मूल कृति की आत्मा में प्रवेश कर उसे रूपान्तरित कर सकेगा केवल व्यावसायिक मनोवृत्ति से किया गया अनुवाद यान्विक होगा - निष्प्राण होगा।

             पेशेवर अनुवादक, अवसरवादी अनुवादक एवं अभिरुचि सम्पन्न अनुवादक की मानसिकता सहज ही अलग अलग किस्म की होगी। उक्त स्थितियों = मिशथ्रण भी ठीक नहीं है। अतः अनुवादक को मूल लेखक या सृष्टा की कृति में निहित अभिरुचि से स्वयं के मेल को परख कर चलना होगा।

             अनुवादक में अभिरचि तो पर्याप्त है, पर प्रस्तावित कृति के विषय का बांछित एवं ठोस ज्ञान नहीं है तो अनुवाद की प्रामाणिकता संदिग्ध हो सकती है। अत: ज्ञान और अभिरुचि का मेल एक समस्या है। ऐसा भी देखा गया है कि लोग अभिरुचि के क्षेत्र में अधिक चमके हैं और व्यवसायिक क्षेत्र में कम। अतः लगता है कि व्यवसाय (प्रोफेसन) एक निर्धारित विवाह है। जबकि अभिरुचि एक प्रेम विवाह। अपरिपक्वता दोनों में हो सकती है। यह तो स्वीकृत सत्य है कि विषय ज्ञान और अनुवादकात्मिकता का योग अनुवादक में होना ही चाहिए। अभिरुचि इस योग में अभिरामता उत्पन्न करेगी ही। विषय ज्ञान यदि अनुभूति कोटि में परिणत हो गया है और सही अभिव्यक्ति में बदल सकता है तो अवश्य ही अनुवाद सशक्त, प्रेरणाप्रद एवं ग्राह्य होगा।

      10. मातृभाषा (स्त्रोत भाषा) का विशिष्ट ठोस ज्ञान न होने पर अत्पज्ञताजन्य अनेक समस्याएँ उठ सकती हैं। ऐसे सहस्रों व्यक्ति हैं जो अपनी मातृभाषा को केवल बोलचाल के स्तर तक ही जानते हैं - थोड़ा पत्राचार भी कर लेते हैं, परन्तु उस भाषा में अध्ययन कभी नहीं किया या फिर नाम मात्र का ही किया है। ऐसे व्यक्ति अनुवाद के क्षेत्र में मातृभाषा को स्वोतभाषा के रूप में लेकर अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर सकते है। उन्हें मूल भाषा का शास्त्रीय, रोद्वान्तिक, व्याकरणिक एवं लाक्षणिक ज्ञान कम होता है या नहीं होता है। अन्ततः सारी बात अनुवादक की योग्यता और ईमानदारी पर निभर करती है।

        11. अनुवादक में स्त्रोत भाषा और लक्ष्यभाषा की पर्याप्त क्षमता है, वह अनुवाद का काम भी कर सकता है, परन्तु मानसिक स्तर पर व्यावसायिक वृत्ति का है वह जानबूझ कर काम को चलता हुआ करता है वह सकाम कर्मयोगी है, फल पर पूरी दृष्टि रखता है। परिणामतः कार्य शायरी नहीं हो पाता है। बड़े-बड़े विद्वान भी अपने नाम का फायदा उठाने पर तूल जाते है और ईमानदारी से काम नहीं करते। योग्यता और ईमानदारी का योग अत्यन्त बांछनीय है। अतः अवसरवादिता और अल्पपरिश्रम अधिक लाभ की नीति जनना चाहिए क्योंकि इससे अन्ततः क्षति होगी।

        12 .लक्ष्य भाषा मातृभाषा होने के बाक्जूट अनुवाद में अनेक समस्याएँ उठ सकती हैं -

             क. मातृभाषा जान की अपूर्णता।

              ख. अभिव्यक्ति की अपूर्णता।

              ग.  आतुरता एवं आग्रह।

               घ. अनुवाद-विषय-ज्ञान की कमी

           अतः सुविधा एवं व्यवहार के धरातल पर ही आपेक्षिक रूप से मातृभाषा का लाभ हो सकता है, परन्तु केवल मातृभाषा होने से किसी भाषा पर जन्म सिद्ध अधिकार नहीं हे जाता। भाषा अर्जित संपत्ति है, जन्मजात नहीं। योग्य किन्तु आलसी धावक दौर प्रतियोगिता में हारता भी है।

             निष्कर्षत उत्कृष्ट साहित्य भावात्मक एवं सांकेतिक (यजनामूलक होता है, उसकी भाषा एवं शैली व मत निष्ठता के कारण अनुकरणोग होती है, उसका सांस्कृतिक परिवेज और उसमें गुपितल जीवनानुभव भी बोधगमा होने पर भी बहुत मौलिक होते हैं। विधाओं में काव्य सर्वाधिक सांकेतिक, सक्षिप्त, प्रभावक, सुगठित एवं कवि प्रतिभा मंडित होता है। अतः उसका व्यावहारिक रुपान्तरण भले ही संभव हो; पर पुन सृजन एवं छायाचित्रण संभव नहीं। 

               जिस कृति (विशेषतः काव्यकृति) का भाव, भाषा एवं प्रौली के स्तर पर रुपान्तरण (शतप्रतिशत) हो सके उस कृति की मौलिकता के स्तर पर प्रभ्नचिन्ह लगेगा ही ।


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