Thursday, April 1, 2021

ताई - श्री विश्वम्भर शर्मा 'कौशिक

 

      

          ताई

         श्री विश्वम्भर शर्मा 'कौशिक


      "ताऊजी, हमें लेलगाड़ी (रेलगाड़ी) ला दोगे ?" कहता हुआ एक पंच-वर्षीय बालक बाबू रामजीदास की ओर दौड़ा।

      बाबू साहब ने दोनों बाहें फैलाकर कहा- "हाँ बेटा, ला देगे।" उनके इतना कहते -कहते बालक उनके निकट आ गया। उन्होंने बालक को गोद में उठा लिया और उसका

     मुख चूमकर बोले - "क्या करेगा रेलगाड़ी?"

    बालक बोला "उसमें बैठकर बली दूल जायेंगे। हम बी जायँगे, चुन्नी को बी ले जायँगे । बाबूजी को नहीं ले जायेंगे। हमें लेलगाड़ी नहीं ला देते। ताऊजी तुम ला दोगे, तो तुम्हें ले जायँगे।"

     बाबू -"और किसे ले जायगा?"

     बालक दम भर सोचकर बोला-"बछ औल किछी को नहीं ले जाएँगे।

    " पास ही बाबू रामजीदास की अर्धांगिनी बैठी थीं । बाबू साहब ने उनकी ओर इशारा करके कहा - "और अपनी ताई को नहीं ले जायेगा। 

     " बालक कुछ देर तक अपनी ताई की ओर देखता रहा। ताईजी उस समय कुछ चिढ़ी हुई सी बैठी थीं। बालक को उनके मुख का वह भाव अच्छा न लगा। अतएव वह बोला-"ताई को नहीं ले जायँगे।"

       ताई सुपारी काटती हुई बोलीं-"अपने ताऊजी ही को ले जा, मेरे ऊपर दया रख!

       ताई ने यह बात बड़ी रुखाई के साथ कही। बालक ताई के शुष्क व्यवहार को तुरंत ताड़ गया । बाबू साहब ने फिर पूछा - "ताई को क्यों नहीं ले जायगा?"

       बालक - "ताई हमें प्याल (प्यार) नहीं कलतीं।

       बाबू -"जो प्यार करें तो ले जायगा?"

       बालक को इसमें कुछ संदेह था। ताई के भाव को देखकर उसे यह आशा नहीं थी कि वह प्यार करेंगी। इससे बालक मौन रहा।

      बाबू साहब ने फिर पूछा-"क्यों रे बोलता नहीं? ताई प्यार करे तो रेल पर बिठाकर ले जायगा?"

     बालक ने ताऊजी को प्रसन्न करने के लिए केवल सिर हिलाकर स्वीकार कर लिया, परंतु मुख से कुछ नहीं कहा।

      बाबू साहब उसे अपनी अर्धांगिनी के पास ले जाकर उनसे बोले-"लो, इसे प्यार कर लो तो तुम्हें ले जायगा।" पर बच्चे की ताई श्रीमती रामेश्वरी को पति की यह चुहलबाजी अच्छी न लगी। वह तुनककर बोली-"तुम्ही रेल पर बैठकर जाओ, मुझे नहीं जाना है।

      बाबू साहब ने रामेश्वरी की बात पर ध्यान नहीं दिया। बच्चे को उनकी गोद में बैठाने की चेष्टा करते हुए बोले-"प्यार नहीं करोगी, तो फिर रेल में नहीं बितावेगा। -क्यों रे मनोहर?"

      मनोहर ने ताऊ की बात का उत्तर नहीं दिया। उधर ताई ने मनोहर को अपनी गोद से ढकेल दिया। मनोहर नीचे गिर पड़ा। शरीर में तो चोट नहीं लगी, पर हृदय में चोट लगी । बालक रो पड़ा ।

     बाबू साहब ने बालक को गोद में उठा लिया। चुमकार पुचकार कर चुप किया

     तत्पश्चात उसे कुछ पैसा तथा रेलगाड़ी ला देने का वचन देकर छोड़ दिया। बालक

    मनोहर भयपूर्ण दृष्टि से अपनी ताई की ओर ताकता हुआ उस स्थान से चला गया।

    मनोहर के चले जाने पर बाबू राजसीदास रामेश्वरी से बोले -"तुम्हारी यह कैसा व्यवहार है? बच्चे को ढकेल दिया। जो उसको चोट लग जाती तो?"

    रामेश्वरी मुंह मटकाकर बोली-"लग जाती तो अच्छा होता। क्यों मेरी खोपड़ी पर लादे देते थे? आप ही तो मेरे ऊपर डालते थे और आप ही अब ऐसी बातें करते हैं।" बाबू साहब कुकर बोले-"इसी को खोपड़ी पर लादना कहते हैं?"

   रामेश्वरी "और नहीं तो किसे कहते हैं. तुम्हें तो अपने आगे और किसी का दुःख-

   सुख सूझता ही नहीं। न जाने कब किसका जी कैसा होता है । तुम्हें उन बातों की कोई परवाह ही नहीं, अपनी चुहल से काम है?" 

    बाबू-"बच्चों की प्यारी प्यारी बातें सुनकर तो चाहे जैसा जी हो, प्रसन्न हो जाता है। मगर तुम्हारा हृदय न जाने किस धातु का बना हुआ है?"

   रामेश्वरी-"तुम्हारा हो जाता होता। और होने को होता है, मगर वैसा बच्चा भी तो हो । पराये धन से भी कहीं घर भरता है?

    बाबू साहब कुछ देर चुप रहकर बोले "यदि अपना सगा भतीजा भी पराया धन कहा जा सकता है, तो फिर मैं नहीं समझता कि अपना धन किसे कहेंगे?"

    रामेश्वरी कुछ उत्तेजित होकर बोली-"बातें बनाना बहुत आता है । तुम्हारा भतीजा है, तुम चाहे जो समझो, पर मुझे ये बातें अच्छी नहीं लगती। हमारे भाग ही फूटे हैं, नहीं तो ये दिन काहे को देखने पड़ते। तुम्हारा चलन तो दुनिया से निराला है आदमी संतान के लिए न जाने क्या क्या करते हैं-पूजा-पाठ करते हैं, व्रत रखते हैं, पर तुम्हे इन बातों से क्या काम? रात-दिन भाई-भर्तीजों में मान रहते हो ।"

    बाबू साहब के मुख पर घृणा का भाव झलक आया उन्होंने कहा-"पूजा-पाठ, व्रत सब ढकोसला है। जो वस्तु भाग्य में नहीं, वह पूजा-पाठ से कभी प्राप्त नहीं हो सकती। मेरा तो यह अटल विश्वास है। ली

     श्रीमतीजी कुछ-कुछ आ से स्वर में बोलीं-"इसी विश्वास ने सब चौपट कर रखा है। ऐसे ही विश्वास पर सब बैठ जाएँ तो काम कैसे चले? सब विश्वास पर ही न बैठे रहे,

     आदमी काहे को किसी बात लिए चेष्टा करे।" बाबू साहब ने सोचा कि मूर्ख स्त्री के मुँह लगना ठीक नहीं। अतएव वह स्त्री की बात का कुछ उत्तर न देकर वहाँ से टल गये।


         2


       बाबू रामजीदास धनी आदमी हैं। कपड़े की आदत का काम करते हैं। लेन-देन भी है। इनके एक छोटा भाई है उसका नाम है कृष्णदास। दोनों भाइयों का परिवार एक ही में है। बाबू रामजीदास की आयु 35 वर्ष के लगभग है और छोटे भाई कृष्णदास की आयु 29 के लगभग। रामजीदास निस्संतान हैं। कृष्णदास के दो संताने हैं। एक पुत्र-वही पुत्र, जिससे पाठक परिचित हो चुके हैं और एक कन्या है। कन्या की वय दो वर्ष के लगभग है।

       रामजीदास अपने छोटे भाई और उनकी संतान पर बड़ा स्नेह रखते हैं ऐसा स्नेह कि उसके प्रभाव से उन्हें अपनी संतानहीनता कभी खटकती ही नहीं। छोटे माई की सतान को अपनी संतान समझते हैं। दोनों बच्चे भी रामजीदास से इतने हिले हैं कि उन्हें अपने पिता से भी अधिक समझते हैं।

       परंतु रामजीदास की पत्नी रामेश्वरी को अपनी संतानहीनता का बड़ा दुःख है। वह दिन-रात संतान ही की सोच में घुला रहती है। छोटे भाई की संतान पर पति का प्रेम उनकी आँखों में कोटे की तरह खटकता है ।

      रात के भोजन इत्यादि से निवृत्त होकर रामजीदास शय्या पर लेटे शीतल और मंद वायु का आनंद ले रहे हैं। पास ही दूसरी शय्या पर रामेश्वरी, हथेली पर सिर रखे, किसी चिंता में डूबी हुई थी। दोनों बच्चे अभी बाबू साहब के पास से उठकर अपनी माँ के पास गये थे।

     बाबू साहब ने अपनी स्त्री की ओर करवट लेकर कहा-"आज तुमने मनोहर को इस बुरी तरह ढकेला था कि मुझे अब तक उसका दुःख है। कभी-कभी तो तुम्हारा व्यवहार बिलकुल ही अमानुषिक हो उठता है।"

     रामेश्वरी बोली-"तुम्हीं ने मुझे ऐसा बना रक्खा है। उस दिन उस पंडित ने कहा कि हम दोनों के जन्म-पत्र में संतान का जोग है और उपाय करने से संतान भी हो सकती है। उसने उपाय भी बताये थे, पर तुमने उनमे से एक भी उपाय करके न देखा । बस, तुम तो इन्हीं दोनों में मग्न हो। तुम्हारी इस बात से रात-दिन मेरा कलेजा सुलगता रहता है। आदमी उपाय तो करके देखता है। फिर होना न होना भगवान के अधीन है।"

      बाबू साहब हँसकर बोले-"तुम्हारी जैसी सीधी स्त्री को भी क्या कहूँ? तुम इन ज्योतिषियों की बातों पर विश्वास करती हो, जो दुनिया भर के झूठे और धूर्त हैं। झूठ बोलने ही की रोटियाँ खाते हैं।"

     रामेश्वरी तुनककर बोली-"तुम्हें तो सारा संसार झूठा ही दिखाई पड़ता है। ये पोथी-पुराण भी सब झूठे हैं? पंडित कुछ अपनी तरफ़ से बनाकर तो कहते नहीं । शास्त्र में जो लिखा है, वही वे भी कहते हैं, वह झूठा है तो वे भी झूठे हैं। अंग्रेज़ी क्या पढ़ी, अपने आगे किसी को गिनते ही नहीं। जो बातें बाप-दादे के जमाने से चली आई हैं, उन्हें भी झूठा बताते हैं।

      बाबू साहब-"तुम बात तो समझती नहीं, अपनी ही ओटे जाती हो। मैं यह नहीं कह सकता कि ज्योतिष शास्त्र झूठा है। संभव है, वह सच्चा हो परंतु ज्योतिषियों में अधिकांश झूठे होते हैं। उन्हें ज्योतिष का पूर्ण ज्ञान तो होता नहीं, -एक छोटी-मोटी पुस्तकें पढ़कर ज्योतिषी बन बैठते हैं और लोगों को ठगते-फिरते हैं। ऐसी दशा में उनकी बातों पर कैसे विश्वास किया जा सकता है?"

     रामेश्वरी-"हूँ, सब झूठे ही हैं, तुम्ही एक बड़े सच्चे हो। अच्छा, एक बात पूछती हूँ। भला तुम्हारे जी में संतान की इच्छा क्या कभी नहीं होती ?" 

     इस बात रामेश्वरी ने बाबू साहब के हृदय का कोमल स्थान पकड़ा । वे कुछ देर चुप रहे । तत्पश्चात् एक लंबी साँस लेकर बोले-"भला ऐसा कौन मनुष्य होगा, जिसके हृदय में संतान का मुख देखने की इच्छा न हो? परंतु क्या किया जाए ? जब नहीं है, और न ही की कोई आशा ही है, तब उसके लिए व्यर्थ चिंता करने से क्या लाभ? इसके सिवा जो बात अपनी संतान से होती, वहीं भाई की संतान से भी हो रही है। जितना स्नेह अपने पर होता उतना ही इन पर भी है जो आनंद उसकी बाल क्रीड़ा से आया, वही इनकी क्रीड़ा से भी रहा है। फिर नहीं समझता कि चिंत्ता क्यों की जाय?"

     रामेश्वरी कुडकर बोली-तुम्हारी समझ को मैं क्या कहूँ? इसी से तो रात-दि जला करती हैं, भला यह तो बताओ कि तुम्हारे पीछे क्या इन्हीं से तुम्हारा नाम चलेगा?

     बाबू साहब हँसकर बोले "अरे, तुम भी कहाँ की क्षुद्र बातें लायी । नाम संतान में नहीं चलता । नाम अपनी सुकृति से चलता है। तुलसीदास को देश का बच्चा-बच्चा जानता है। सूरदास को मरे कितने दिन हो चुके । इसी प्रकार जितने महात्मा हो गये हैं, उन सबका नाम क्या उनकी संतान की बदौलत चल रहा है? सच पूछो, लो संतान से जितनी नाम | चलने की आशा रहती है. उतनी ही नाम डूब जाने की भी संभावना रहती है। परंतु सुकृति = एक ऐसी वस्तु है जिससे नाम बढ़ने के सिवा घटने की आशंका रहती ही नहीं। हमारे शहर में राय गिरधारीलाल कितने नामी थे। उसके संतान कहां है। पर उनकी धर्मशाला और अनाथालय से उनका नाम अब तक चला आ रहा है, अभी न जाने कितने दिनों तक चला जायगा।" है

     रामेश्वरी-"शास्त्र में लिखा है जिसके पुत्र नहीं होता, उसकी मुक्ति नहीं होती ?

      बाबू-"मुक्ति पर मुझे विश्वास नहीं। मुक्ति है किस चिड़िया का नाम? यदि मुक्ति होना भी मान लिया जाये, तो यह कैसे माना जा सकता है कि सब पुत्रवालों की मुक्ति हो ही जाती हैं। मुक्ति का भी क्या सहज उपय है? ये जितने पुत्रवाले हैं, सभी की तो मुक्ति हो जाती होगी?"

      रामेश्वरी निरुत्तर होकर बोली-"अब तुमसे कौन बकवास करे। तुम तो अपने सामने किसी को मानते ही नहीं।


              3


      यदयपि रामेश्वरी को माता बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था, तथापि उनको हृदय एक माता का हृदय बनने की पूरी योग्यता रखता था। उनके हृदय में वे। गुण विद्यमान तथा अंतर्निहित थे, जो एक माता के हृदय में होते हैं, परंतु उसका विकास नहीं हुआ था। उसका हृदय उस भूमि की तरह था, जिसमें बीज तो पड़ा हुआ है, पर उसको सींचकर और उस बीज को प्रस्फुटित करके भूमि के ऊपर लानेवाला कोई नहीं। इसीलिए उनका हृदय उन बच्चों की ओर खिंचता तो था, परंतु जय उन्हें ध्यान आता था कि ये बच्चे मेरे नहीं, दूसरे के हैं, तथा उसके हृदय में उनके प्रति दवेष उत्पन्न होता था, घृणा पैदा होती थी। विशेषकर उस समय उनके द्वेष की मात्रा और भी बढ़ जाती थी, जब वह यह देखती थी कि उनके पतिदेव उन बच्चों पर प्राण देते हैं, जो उनके (रामेश्वरी के) नहीं हैं।

      शाम का समय था रामेश्वरी खुली छत पर बैठी हवा खा रही थी। पास उनकी देवरानी भी बैठी थी। दोनों बच्चे छत पर दौड़-दौड़कर खेल रहे थे। रामेश्वरी उनके खेल 1. को देख रही थीं। इस समय रामेश्वरी को उन बच्चों का खेलना-कूदना बड़ा भला मालूम हो रहा था। हवा में उड़ते हुए उनके बाल, कमल की तरह खिले उनके नन्हें-नन्हें मुख, उनकी प्यारी-प्यारी तोतली बातें, उनका चिल्लाना, भागना लौट जाना इत्यादि क्रीड़ाएँ उनके हृदय को शीतल कर रही थीं। सहसा मनोहर अपनी बहिन को मारने दौड़ा वह खिलखिलाती हुई दोड़कर रामेश्वरी की गोद में जा गिरी। उसके पीछे-पीछे मनोहर भी दौड़ता हुआ आया और वह भी उन्हीं की गोद में जा गिरा। रामेश्वरी उस समय सारा द्वेष भूल गई। उन्होंने दोनों बच्चों को उसी प्रकार हृदय से लगा लिया, जिस प्रकार वह मनुष्य लगाता है, जो कि बच्चों के लिए तरस रहा हो। उन्होंने बड़ी सतृष्णता से दोनों को प्यार किया। उस समय यदि कोई अपरिचित मनुष्य उन्हें देखता, तो उसे यही विश्वास होता कि रामेश्वरी उन बच्चों की माता है।

       दोनों बच्चे बड़ी देर तक उनकी गोद में खेलते रहे। सहसा उसी समय किसी के आने की आहट पाकर बच्चों की माता वहाँ से उठकर चली गयी

       "मनोहर, ले, रेलगाड़ी।" कहते हुए बाबू रामजीदास छत पर आये। उनका स्वर सुनते ही दोनों बच्चे रामेश्वरी की गोद से तड़पकर निकल भागे रामजीदास ने पहले दोनों को खूब प्यार किया, फिर बैठकर रेलगाड़ी दिखाने लगे। इधर रामेश्वरी की नींद टूटी। पति को बच्चों में मग्न होते देखकर उनकी भौहें तन गयीं। बच्चों के प्रति हृदय में फिर वही घृणा और द्वेष भाव जाग उठा ।

       बच्चों को रेलगाड़ी देकर बाबू साहब रामेश्वरी के पास आये, और मुस्कुराकर बोले-"आज तो तुम बच्चों को बड़ा प्यार कर रही थीं। इससे मालूम होता है कि तुम्हारे हृदय में भी उनके प्रति कुछ प्रेम अवश्य है।" 

      रामेश्वरी को पति की यह बात बहुत बुरी लगी। उन्हें अपनी कमज़ोरी पर दक्ष दुःख हुआ। केवल दुःख ही नहीं, अपने ऊपर क्रोध भी आया। वह दुःख और क्रोध पति । उक्त वाक्य से और भी बढ़ गया। उनकी कमज़ोरी पति पर प्रकट हो गयी. यह बात उनके लिये असह्य हो उठी।

      रामजीदास बोले-"इसीलिए मैं कहता हूँ कि अपनी संतान के लिये सोच करन वृथा है। यदि तुम इनसे प्रेम करने लगे तो तुम्हें ये ही अपनी संतान प्रतीत होने लगेंगे। मुझे इस बात से प्रसन्नता है कि तुम इनसे स्नेह करना सीख रही हो।

      यह बात बाबू साहब ने नितांत शुद्ध हृदय से कही थी, परंतु रामेश्वरी को इसमें व्यंग्य की तीक्षण गंध मालूम हुई। उन्होंने कुढ़कर मन में कहा-"इन्हें मौत भी नहीं आती मर जायें, पाप कटे! आठों पहर आँखों के सामने रहने से प्यार को जी ललचा उठता है। इनके मारे कलेजा और भी जला करता है। बाबू साहब ने पत्नी को मौन देखकर कहा-"अब झेंपने से क्या लाम अपने प्रेम को छिपाने की चेष्टा करना व्यर्थ है। छिपाने की आवश्यकता भी नहीं।"

      रामेश्वरी जल-भुनकर बोली, "मुझे क्या पड़ी है, जो मैं प्रेम करूँगी? तुम्हीं को मुबारक रहे। निगोड़े आप ही आ-आ के घुसते हैं। एक घर में रहने में कभी-कभी हँसना बोलना पड़ता ही है। अभी परसों जरा यों ही ढकेल दिया. उस पर तुमने सैकड़ों बातें सुनाई। संकट में प्राण हैं, न यों चैन, न वो चैन।"

      बाबू साहब को पत्नी के वाक्य सुनकर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने कर्कश स्वर में कहा- न जाने कैसे हृदय की स्त्री है। अभी अच्छी-खासी बैठी बच्चों से प्यार कर रही थी मेरे आते ही गिरगिट की तरह रंग बदलने लगी। अपनी इच्छा से चाहे जो करे, पर मेरे कहने मात्र से चिड़चिड़ा रही हो। न जाने मेरी बातों में कौन-सा विष घुला रहता है। यदि मेरा कहना ही बुरा मालूम होता है, तो न कहा। करूगा। पर इतना याद रखो कि अब जो कभी इनके विषय में निगमोड़े-सिगोड़े इत्यादि अपशब्द निकाले, तो अच्छा न होगा। तुमसे मुझे ये बच्चे कहीं अधिक प्यारे हैं।"

     रामेश्वरी ने इसका कोई उत्तर न दिया। अपने क्षोभ तथा क्रोध को वे आँखों दवारा निकालने लगीं।

     जैसे-ही-जैसे बाबू रामजीदास का स्नेह दोनों बच्चों पर बढ़ता जाता था, वैसे-ही- वैसे रामेश्वरी के दोष और धृणा की मात्रा भी बढ़ती जाती थी प्रायः बच्चों के पीछे पति पत्नी में कहा सुनी हो जाती थी, और रामेश्वरी को पति के कटु वचन सुनने पढ़ते थे। जब रामेशारी ने यह देखा कि बच्चों के कारण ही वह पति की नजर से गिरली जा रही है, तथ उनके हृदय में तूफ़ान उठा। उन्होंने यह सोचा-पराये बच्चों के पीछे यह मुझसे प्रेम कम करते जाते हैं, हर समय बुरा-भला कहा करते हैं इनके लिए बच्चे ही सब कुछ हैं, मैं कुछ भी नहीं। दुनिया मरती जाती है, पर दोनों को मौस नहीं ये पैदा होते ही क्यों न मर गये न ये होते, न मुझे ये दिन देखने पड़ते। जिस दिन यें मरैगे, उस दिन धी के दिये जलाऊंगी। इन्होंने ही मेरे घर का सयानाश कर रक्खा है।


             4


        इसी प्रकार कुछ दिन व्यतीत हुए। एक दिन नियामानुसार रामेश्वरी छत पर अकेली बैठी हुई थी। उनके हृदय में अनेक प्रकार के विचार आ रहे थे। विचार और कुछ नहीं, अपनी निज की संतान का अमाव, पति के माई की संतान के प्रति अनुराग इत्यादि कुछ देर बाद जब उनके विचार स्वयं उन्हीं को कष्टदायक प्रतीत होने लगे तब वह अपना ध्यान दूसरी ओर लगाने के लिए टहलने लगीं।

      वह टहल ही रही थीं कि मनोहर दौड़ता हुआ आया। मनोहर को देखकर उनकी भुकुटी चढ़ गयी। और वह छत की चहारदीवारी पर हाथ रखकर खड़ी हो गयी |

      सध्या का समय था। आकाश में रंग-बिरंगी पतंगें उड़ रही थी। मनोहर कुछ देर तक खड़ा पतंगों को देखता और सोचता रहा कि कोई पतंग कटकर उसकी छत पर गिरे, तो क्या आनंद आचे! देर तक गिरने की आशा करने के बाद दौड़कर रामेश्वरी के पास आया, और उनकी टाँगों में लिपटकर बोला-"ताई, हमें पतंग मँगा दो। रामेश्वरी ने झिड़ककर कहा-"चल हट, अपने ताऊ से मांग जाकर।"

      मनोहर कुछ अप्रतिम-सा होकर फिर आकाश की ओर ताकने लगा। थोड़ी देर बाद उससे फिर न रहा गया। इस बार उसने बड़े लाड़ में आकर अत्यंत करुण स्वर में कहा "ताई मँगा दो, हम भी उड़ायेंगे।"

      इस बार उसकी भोली प्रार्थना से रामेश्वरी का कलेजा कुछ पसीज गया। वह कुछ देर तक उसकी ओर स्थिर दृष्टि से देखती रही। फिर उन्होंने एक लंबी साँस लेकर मन ही मन कहा-यदि यह मेरी पुत्र होता तो, आज मुझसे बढ़कर भाग्यवान स्त्री संसार में दूसरी न होती। निगोड़ा-मरा कितना सुन्दर है, और कैसी प्यारी-प्यारी बातें करता है। यही जी चाहता है कि उठाकर छाती से लगा लें।

     यह सोचकर वह उसके सिर पर हाथ फेरनेवाली थी कि इतने में उन्हें मौन देश बोला-"तुम हमें पतंग नहीं मंगवा दोगी, तो ताऊजी से कहकर तुम्हें पिटवायेंगे।" 

     यद्यपि बच्चे की इस भोली बात में भी मधुरता थी, तथापि रामेश्वरी का मुँह क्रोध के मारे लाल हो गया। वह उसे झिड़क कर बोली-"जा कह दे अपने ताऊजी से देखें क

     मेरा क्या कर लेंगे।"

     मनोहर भयभीत होकर उनके पास से हट आया, और फिर सतृष्ण नेत्रों से आका में उड़ती हुई पतंगों को देखने लगा।

      इधर रामेश्वरी ने सोचा-यह सब ताऊजी के दुलार का फल है कि बालिश्त भर का लड़का मुझे धमकाता है। ईश्वर करे, इस दुलार पर बिजली टूटे।

       उसी समय आकाश से एक पतंग कटकर उसी छत की ओर आयी और रामेश्वरी के ऊपर से होती हुई छज्जे की ओर गयीं। छत के चारों ओर चहारदीवारी थी। जहाँ रामेश्वरी खड़ी हुई थी, केवल यहाँ पर एक द्वार था, जिससे छज्जे पर आ-जा सकते थे। रामेश्वरी उस द्वार से सटी हुई खड़ी थी। मनोहर ने पतंग की छज्जे पर जाते देखा। पतंग पकड़ने के लिए वह दौड़कर छज्जे की ओर चला। रामेश्वरी खड़ी देखती रहीं। मनोहर उनके पास से होकर छज्जे पर चला गया। और उनसे दो फीट की दूरी पर खड़ा होकर पतंग को देखने लगा पतंग छज्जे पर से होती हुई नीचे घर के आंगन में जा गिरी। एक पैर छज्जे की मुँडेर पर रखकर मनोहर ने नीचे आंगन में झांका और पतंग को आँगन में गिरते देख, वह प्रसन्नता के मारे फूला न समाया। वह नीचे जाने के लिए शीघ्रता से घूमा, परंतु घूमते समय मुंडेर से उसका पैर फिसल गया वह नीचे की ओर चला। नीचे जाते-जाते उसके दोनों हाथों में मुंडेर आ गयी वह उसे पकड़कर लटक गया और रामेश्वरी की ओर देखकर चिल्लाया "ताई"।

      रामेश्वरी ने घड़कते हुए हृदय से इस घटना को देखा। उसके मन में आया कि अच्छा है, मरने दो, सदा का पाप कट जायगा। यही सोचकर वह एक क्षण रुकी। इधर मनोहर के हाथ मुँडेर पर से फिसलने लगे वह अत्यंत भय तथा करुण नेत्रों से रामेश्वरी की ओर देखकर चिल्लाया- अरी ताई।" रामेश्वरी की आँखें मनोहर की आँखों से जा मिली। मनोहर की वह करुण दृष्टि देखकर रामेश्वरी का कलेजा मुँह को आ गया। उन्होंने व्याकुल होकर मनोहर को पकड़ने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, उनका हाथ मनोहर के हाथ तक पहुँचा ही था कि मनोहर के हाथ से मुंडेर छट गयी। वह नीचे आ गिरा। रामेश्वरी चीख मारकर छज्जे पर गिर पड़ी।

      रामेश्वरी एक सप्ताह तक बुखार से बेहोश पड़ी रही। कभी-कभी जोर से चिल्ला उतली और कहती--"देखो-देखो, वह गिरा जा रहा है-उसे बचाओ., दौड़ो-मेरे मनोहर को नचा लो।" कभी वह कहती-"बेटा मनोहर, मैने तुझे नहीं बचाया। हाँ, हाँ मैं चाहती तो बचा सकती थी-देर कर दी। इसी प्रकार वह प्रलाप किया करतीं।

    मनोहर की टांग उखड़ गयी थी. टॉग बिठा दी गयी। वह क्रमशः फिर अपनी असली हालत पर आने लगा।

    एक सप्ताह बाद रामेश्वरी का ज्वर कम हुआ। अच्छी तरह होश आने पर उन्होंने पूछा- मनोहर कैसा है?

    रामजीदास ने उत्तर दिया -"अच्छा है।"

     रामेश्वरी "जसे पास लाओ।"

    मनोहर रामेश्वरी के पास लाया गया। रामेश्वरी ने उसे बड़े प्यार से हृदय से लगाया । आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी हिचकियों से गला रूघ गया। रामेश्वरी कुछ दिनों बाद पूर्ण स्वस्थ हो गयीं। अब वह मनोहर और उसकी बहिन चुन्नी से द्वेष नहीं करती। मनोहर तो अब उनका प्राणाधार हो गया उसके बिना उन्हें एक क्षण भी टल नहीं पड़ती।


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